Wednesday 30 March 2016

कभी असहिष्णुता तो कभी भारत माता की जय का गिला है

फ़ोटो : सुशील कृष्णेत


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

विवाद और पागलपन का जैसे चोली दमन का सिलसिला है
कभी असहिष्णुता तो कभी भारत माता की जय का गिला है 

दुनिया भले बदल जाए उन का माइंड सेट बदलना मुश्किल
हिल गई दुनिया पर उन के जंगल का एक पत्ता नहीं हिला है

लॉजिकल इतने पिता से भी डी एन ए टेस्ट मांगने पर आमादा 
उन की वैचारिकी की ज़िद में पूर्वाग्रह का नमक बहुत मिला है

सुनना समझना और परखना वह नहीं जानते हरगिज हरगिज 
आप चाहे कुछ भी कहिए उन के पास कुतर्क का बड़ा किला है 

माचिस से आग भले जलती पर आग में माचिस भी जल जाती 
पानी में भी आग लगा करती है यह बहुत पुराना सिलसिला है 

सब का अपना कैमरा अपना चश्मा अपना ही झोला अपना कुंआ 
जनता तो बस कूड़ेदान है इतिहास में ऐसा प्रमाण सर्वदा मिला है

मंदिर गिरिजा मस्जिद में भी अब सिर्फ़ प्रार्थना अजान नहीं होती 
राजनीति वहां ज़्यादा होती फिसल जाता हर कोई चिकना घड़ा है 

[ 31 मार्च , 2016 ]

Tuesday 29 March 2016

और तो और ललमुनिया की माई बदल गई



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

रंगत बदली सूरत बदली मिजाज बदला गांव की हवा बदल गई
होली दीवाली बदली और तो और ललमुनिया की माई बदल गई

लेखपालों ने पहले बदला था चकबंदी में अब नेता बन बिल्डर आए हैं
प्लाटिंग शुरु खेत बाग़ में पाट रहे पोखर सिंघाड़े की लतर बदल गई

वह खोज रहे गांव में गांव की बानी हवा सुहानी कुछ भी नहीं मिला
ट्रैक्टर आए बैल गए खलिहान गए कंबाईन आई तो माटी बदल गई

आहिस्ता आहिस्ता बदल रहा गांव गांव का पानी और  जवानी भी
पहले डाल कटी बाग़ के पेड़ कटे फिर आने जाने की राह बदल गई

धीरे धीरे चिन्ह मिटे प्रतीक बदले बुजुर्ग पीपल बरगद हो गए छू मंतर
शहर की आग में जलते गांव में एक झटके से  सारी परंपरा बदल गई

तोता मैना मछली मेढक गिलहरी गौरैया सब सांस थाम कर डरे हुए
कोयल गाती थी झूम झूम जिस घनेरे बाग में वह अमराई दहल गई

न भोजपुरी है न फ़िल्मी है सारे गाने ही गायब हुए विकास की आंधी में
चुनाव बीतते ही पीपल की तरफ से बहने वाली मस्त पुरवाई बदल गई

कहां जाएं किस से रोएं किस से गाएं कौन सुनेगा घायल गांव का गाना 
नेता बिल्डर मीडिया का नेक्सस है तो फिर अख़बारों की ख़बर बदल गई

पहले नदी की धारा बदली फिर सूख गई धीरे से नदी नाव मिट्टी में धंसी
पुल बनने का बजट आया ठेकेदार स्कार्पियो से गांव की चौहद्दी बदल गई

भैस गाय बैल बछिया गांव के भूगोल से सब के सब गायब दूध दही सपना 
विकास आ गया है शहर से गांव में जब से आने जाने की पगडंडी बदल गई

घाट वही हैं नाव वही पंडे पुजारी सब वही लेकिन आने जाने वाले हुए नए   
पूजा पाठ भी बहुत पुराना लेकिन आरती करवाने वालों की मंडी बदल गई

[ 30 मार्च , 2016 ]

Monday 28 March 2016

घर परिवार में उलझी स्त्री प्रेम में आ कर सुलझती है



फ़ोटो : सुंदर अय्यर

ग़ज़ल 

बहकती है दुनिया लेकिन वह नदी की तरह बहती है 
घर परिवार में उलझी स्त्री प्रेम में आ कर सुलझती है 

सरे राह दौड़ कर आना चने का साग खोंट कर खाना 
बचपन की रेल अकसर तुम्हारे साथ यादों में गुज़रती है 
 
मानती नहीं किसी सूरत भी मचलती रहती दीवानावार
पूर्णमासी की रात पूरे चांद में नहा कर हमसे मिलती है 

घने बादल में भी जब खिलखिला कर ढूंढ लेती है चांद
चांदनी चंचला बन कर जैसे हमारी छत पर टहलती है

पुरुष प्रेम में सर्वदा कायर होता है मैदान छोड़ जाता है
स्त्री ही है जो प्रेम के लिए धरती आकाश सब सहती है  

[ 28 मार्च , 2016 ]

Sunday 27 March 2016

एक सूक्ति , क़िस्सा , लतीफ़ा उर्फ़ कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाले पानी में आग लगाने वाले आचार्य !

फ़ोटो : सुंदर अय्यर

मेरी अनुपस्थिति के समय में फ़ेसबुक मेरे लिए कुछ ज़्यादा ही बेक़रार था 

मैं अपने शहर गोरखपुर गया हुआ था। ट्रेन लेट थी तो स्टेशन के एक बुक स्टाल पर किताबें पत्रिकाएं पलटने लगा । सूक्तियों की एक किताब भी पलटी । मार्क ट्वेन की एक सूक्ति पर नज़र गई । आप भी गौर कीजिए :

मूर्खों से कभी बहस नहीं करनी चाहिए, मूर्ख पहले आप को 
अपने स्तर पर लेकर आएगा फिर अपने अनुभव से आप को पराजित कर देगा।

 - मार्क ट्वेन

चूंकि लखनऊ से बाहर था सो फ़ेसबुक से भी दूर था । लौटा तो अभी फ़ेसबुक पर आया और पाया कि मेरी अनुपस्थिति के समय में फ़ेसबुक मेरे लिए कुछ ज़्यादा ही बेक़रार था । यह मंज़र देख कर एक फ़िल्मी गाना याद आ गया । एक दूसरे के लिए बेक़रार हम । और मार्क ट्वेन की वह सूक्ति भी गुदगुदाने लगी । रेडियो पर गाना भी क्या ख़ूब बज रहा है , कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना ! कैसे-कैसे तो पानी में आग लगाने वाले आचार्य हैं अपने लखनऊ शहर में । कंधा किसी का , बंदूक किसी की , ट्रिगर भी कोई और दबाता है , लेकिन निशाना इन का ।  सीधे-सीधे कुछ नहीं है । कि ऐसे गानों की तासीर भी अभी बचाए हुए हैं । हालां कि निशाना चूक गया है , अकारथ हो गया है , नंगे हो गए हैं आचार्य प्रवर । यह उन की बदनसीबी । जय हो !

प्रसंगवश एक क़िस्सा याद आ गया है । सुनिए ।

एक गांव में एक ख़ूब काला व्यक्ति था। उस का विवाह एक ख़ूब गोरी स्त्री से हो गया । वह अपनी पत्नी के प्रति सदैव सशंकित रहता था। बेबात उस की पिटाई करता रहता था । कोई न कोई बहाना खोजता रहता था । एक दिन उस ने जब अपनी पत्नी की पिटाई में ज़्यादा अति कर दी तो गांव के लोग इकट्ठा हुए और उस से जवाब तलब किया कि यह क्या है कि तुम रोज बिना किसी कारण अपनी पत्नी की पिटाई करते रहते हो । वह व्यक्ति बोला , आप लोग बीच में मत पड़िए । यह हमारा पारिवारिक मामला है । लोग चुप हो गए । पर दूसरे दिन वह व्यक्ति अपनी पत्नी की जान पर उतारु हो गया । गांव के लोग फिर इकट्ठे हुए । पंचायत बैठी । पूछा गया कि आज भी क्यों पीटा ? वह काला व्यक्ति बोला , मेरी पत्नी को घर का कोई काम काज नहीं आता । बड़ी बेशऊर है । अब आज कहा कि खीर बनाओ तो बेअर्थ की खीर बना कर रख दी । इस लिए पीटा । अब उस स्त्री द्वारा बनाई गई खीर मंगवाई गई । लोगों ने चखी और कहा कि खीर तो अच्छी बनी है । दिक्कत क्या है ? वह काला व्यक्ति बोला , खीर में लेकिन हल्दी कहां है ? लोग चकित हुए और कहा कि खीर में हल्दी कहां पड़ती है ? वह काला व्यक्ति बेहूदगी से बोला , पर मुझे तो खीर में हल्दी अच्छी लगती है । 

अब एक लतीफ़ा भी सुन लीजिए । 

एक लड़का था। एक शाम स्कूल से लौटा तो अपनी मम्मी से पूछने लगा कि, 'मम्मी, मम्मी ! दूध का रंग काला होता है कि सफ़ेद?

' ऐसा क्यों पूछ रहे हो ?' मम्मी ने उत्सुकता वश पूछा।

' कुछ नहीं मम्मी, तुम बस मुझे बता दो !'

' लेकिन बात क्या है बेटा !'

'बात यह है मम्मी कि आज एक लड़के से स्कूल में शर्त लग गई है।' वह मम्मी से बोला कि,  'वह लड़का कह रहा था कि दूध सफ़ेद होता है और मैं ने कहा कि दूध काला होता है !' वह मारे खुशी के बोला, 'बस शर्त लग गई है !'

' तब तो बेटा, तुम शर्त हार गए हो !' मम्मी ने उदास होते हुए बेटे से कहा, ' क्यों कि दूध तो सफ़ेद ही होता है !'

यह सुन कर वह लड़का भी उदास हो गया। लेकिन थोड़ी देर बाद जब वह खेल कर लौटा तो बोला, ' मम्मी, मम्मी ! मैं शर्त फिर भी नहीं हारुंगा।'

' वो कैसे भला ?' मम्मी ने उत्सुकता वश बेटे से मार दुलार में पूछा।'

' वो ऐसे मम्मी कि जब मैं मानूंगा कि दूध सफ़ेद होता है, तब ना हारुंगा !' वह उछलते हुए बोला कि, ' मैं तो कहता ही रहूंगा कि दूध काला ही होता है और लगातार कहता रहूंगा कि दूध काला होता है। मानूंगा ही नहीं कि दूध सफ़ेद होता है। सो मम्मी मैं शर्त नहीं हारुंगा !'

' क्या बात है बेटा ! मान गई तुम को !' मम्मी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा, 'फिर तो तुम सचमुच शर्त नहीं हारोगे।'

यह तो खैर लतीफ़ा है। वह क़िस्सा था । और वह सूक्ति । 

लेकिन हमारे जीवन में भी , हमारे आस-पास भी काले दूध और खीर में हल्दी के तलबगार कुछ लोग उपस्थित हो गए हैं। बिन मांगे मेरी एक सलाह है कि आप ऐसे तलबगार लोगों को आंख , कान मूंद कर आगे-पीछे , दाएं-बाएं या जिधर से भी निकलें निकल जाने दें । और जो ग़लती से आंख , कान खुल जाएं तो मार्क ट्वेन की उपरोक्त सूक्ति को याद कर लें । खीर में हल्दी और काले दूध के तलबगारों से भूल कर भी न उलझें । समय के साथ शायद उन की इस तलब में तब्दीली आ जाए और पानी में आग लगाने वाले आचार्यों की संगत से वह उबर भी जाएं । समझ बदल जाए । समझ आ जाए शब्द की सत्ता , उस के अर्थ , निहितार्थ , भाव भंगिमा और उस की लक्षणा-व्यंजना भी। अपने पूरे तद्भव और तत्सम के साथ। सकारात्मक हो कर अपनी रचनात्मकता को ओढ़ें और बिछाएं। विध्वंसकारियों का ध्वंस करें । या उन के हाल पर छोड़ दें । वह स्वत: समाप्त हो जाएंगे। इस लिए उन की बिछाई बिसात पर न खेलें । न निरर्थक विमर्श में उलझें । क्यों कि इन आचार्यों की थाती बस यही और यही मात्र है । अलोक धन्वा की गोली दागो पोस्टर याद करें । और यहां यह कविता पढ़ें और इस का मर्म बूझें :


गोली दागो पोस्टर / आलोक धन्वा

यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमडे का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो-इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !

जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
जहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बाकू का
इस्तेमाल होता है

आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्तेमाल सबसे कम हो रहा है

यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-

एक मूसलधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक

यह औरत मेरी माँ है या
पाँच फ़ीट लोहे की एक छड़
जिस पर दो सूखी रोटियाँ लटक रही हैं-
मरी हुई चिड़ियों की तरह
अब मेरी बेटी और मेरी हड़ताल में
बाल भर भी फ़र्क़ नहीं रह गया है
जबकि संविधान अपनी शर्तों पर
मेरी हड़ताल और मेरी बेटी को
तोड़ता जा रहा है

क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद
मुझे बारूद के बारे में
सोचना बंद कर देना चाहिए?
क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को
मैं अपने बच्चे के साथ
एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
स्याही से भरी दवात की तरह-
एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?

वे लोग अगर अपनी कविता में मुझे
कभी ले भी जाते हैं तो
मेरी आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर
मेरा इस्तेमाल करते हैं और फिर मुझे
सीमा से बाहर लाकर छोड़ देते हैं
वे मुझे राजधानी तक कभी नहीं पहुँचने देते हैं
मैं तो ज़िला-शहर तक आते-आते जकड़ लिया जाता हूँ !

सरकार ने नहीं-इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने मेरा साथ दिया

बहन के पैरों के आस-पास
पीले रेंड़ के पौधों की तरह
उगा था जो मेरा बचपन-
उसे दरोग़ा का भैंसा चर गया
आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
एक दरोग़ा को गोली दागने का अधिकार है
तो मुझे क्यों नहीं ?

जिस ज़मीन पर
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूँ
जिस ज़मीन पर मैं चलता हूँ
जिस ज़मीन को मैं जोतता हूँ
जिस ज़मीन में बीज बोता हूँ और
जिस ज़मीन से अन्न निकालकर मैं
गोदामों तक ढोता हूँ
उस ज़मीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोग़ले ज़मींदारों को जो पूरे देश को
सूदख़ोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं

यह कविता नहीं है
यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम क़लम चलानेवालों को
तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है।

आमीन !

Friday 25 March 2016

अंबेडकर के आरक्षण की यही बड़ी सफलता है

फ़ोटो : सुंदर अय्यर


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

झूठ , हिंसा और अराजकता अनिवार्य अर्हता  है 
अंबेडकर के आरक्षण की यही बड़ी सफलता है  

ज़िद सनक कुतर्क की आग में झुलस रहा आदमी 
भारतीय संविधान की यह व्यावहारिक विफलता है 

राजनीति की इस नई केमेस्ट्री में तथ्य तर्क ख़ारिज
जातीय जहर की आग में रोटी सेंकना सफलता है 

नए समाज की यह नई तस्वीर इसी का जलवा 
चुप रहिए इन की लगाई आग में देश जलता है

कभी दलित कभी पिछड़ा कभी गूजर कभी जाट  
इन से बच कर रहिए इन की जातीय बर्बरता है

सेक्यूलरिज्म की खिचड़ी में दलित का नमक 
समाज को हिंसक मोड में लाना ही सफलता है 


[ 25 मार्च , 2016  ]

Wednesday 23 March 2016

मदहोश हो गए हैं रंग भी तुम से आज होली खेल कर


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

यह रंग बरसों याद करेंगे तुम से आज होली खेल कर
मदहोश हो गए हैं रंग भी तुम से आज होली खेल कर

फूल पागल गुलाल डगमग तुम्हारे कपोल पर लग कर 
हथेलियां चहकी हुई बहकी हुई हैं आज होली खेल कर 

तुम घुल गई हो रग रग में रंग बन कर मन के संगम में 
कि जैसे गंगा बहती चली जाती जमुना से होली खेल कर

बांसुरी की तान में भीगी वृंदावन की गलियां डूबी हैं रंग में 
मेरी राधा मुझ में ही नाच नाच झूम रही आज होली खेल कर

यह कौन सा प्रयाग है मन का यह कौन सा तीर्थराज है
ढूंढता है प्रारब्ध जीवन का तुम में तुम से होली खेल कर 

रंग बरसेंगे और तरसेंगे अगले बरस तक इस रंग ख़ातिर
उमंग की गंगा में जिस तरह डुबोया आज होली खेल कर

[ 23 मार्च , 2016 ]

Tuesday 22 March 2016

तुम आती हो तो आता है फागुन फिर होली हैपी करती है

फ़ोटो :  प्रमोद प्रजापति


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

हम को तो सर्वदा तुम्हारी हंसी तुम्हारी बात हैपी करती है
तुम आती हो तो आता है फागुन फिर होली हैपी करती है

तुम्हारा हाथ तुम्हारा साथ तुम्हारा आकाश तुम्हारी धरती 
इस मधुमास में तुम से मिलन की हर मनुहार हैपी करती है 
 
मैं तो जैसे पक्षी हूं उड़ता रहता हूं सदा तुम्हारी तलाश में 
हवा में लिपटी तुम्हारी याद में भीगी पुकार हैपी करती है 

इस पार से उस पार संगम की धार में बहता हुआ बीच धार
डूबता उतराता देखता हूं जल में तुम्हारी छवि हैपी करती है 

तुम से मिलने की चाहत चाहत नहीं राहत होती है ख़ुद ख़ातिर
इस मिलन की गंगा में तुम्हारे साथ डुबकी बहुत हैपी करती है 

एक कोयल है मेरे घर के पिछवाड़े आम के पेड़ पर रहती 
भरी दोपहर वह बेसुध गाती रहती है हम को हैपी करती है

[ 22 मार्च , 2016 ]

Sunday 20 March 2016

तुम्हारे साथ हम नाव में क्या चढ़े यह अंजोरिया मचल गई

फ़ोटो : अनन्या पांडेय

ग़ज़ल

पहले नदी नज़दीक से बहती थी इस बरस धारा बदल गई 
तुम्हारे साथ हम नाव में क्या चढ़े यह अंजोरिया मचल गई 

याद है शुरु शुरु में ले जाते थे चूड़ी पहनवाने बाज़ार तुम को
चूड़ी वाली हंस कर कहती थी आप की तो कलाई बदल गई

गौरैया आ गई घर में छत पर खाने लगी दाने पीने लगी पानी
बदल गए हम तुम्हारे साथ और पड़ोसन की हंसी बदल गई 

वह लोग आए तो थे किसी सूरत डुबोने ही के लिए हमारे बीच
मुहब्बत की नाव डूबती भी है लेकिन डूबते डूबते संभल गई

मुहब्बत की उंगली पकड़ निकला सूरज उग आया धीरे से चांद 
वह दिन और आज का दिन हमारे लिए काशी की गंगा बदल गई 

प्रकृति भी प्यार करती है प्यार का साथ देती है मचल मचल कर
गौरैया चहकती फुदकती लौट आई तो नदी करवट बदल गई

[ 21 मार्च , 2016 ]

Friday 18 March 2016

मधुबाला जैसी तुम्हारी आंखों में आशनाई बहुत है


मधुबाला

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

इन आंखों के काजल की गहराई में हमारे प्यार की रोशनाई बहुत है
कशिश में डूबी हुई मधुबाला जैसी तुम्हारी आंखों में आशनाई बहुत है 

तुम्हें देख कर हो गया पागल कि तुम्हारी आंखों में हरियाली बहुत है
बहुत सहेज कर रखना कुम्हला न जाए कभी यह मतवाली बहुत है

संगम की सी शालीनता में डूबी तुम्हारी बातों में सुगंध रजनीगंधा की
तुम्हें क्या मालूम तुम्हारी आंखों के तहखाने में हमारी कहानी बहुत है

वह जहीन लोग हैं जो ढूंढते हैं पैमाने आंखों में बताते रहते हैं मयखाना 
जैसा हो जो भी हो पर मुहब्बत की दुनिया में आंख की सुनवाई बहुत है

हमारा राज हमारा साज सब तुम्हारी आंखों में बसता है बसाए रखना
मौसम में दीवानगी का आलम हो तो बजती आंख में शहनाई बहुत है  

कहीं काजल कहीं लाली कहीं हरियाली कुछ तुम जानो कुछ हम जानें 
दुनिया रखती ऐसे किस्से मुहब्बत के जिस में सांस कम अंगड़ाई बहुत है

कपोलों की लाली के किस्से भले कपोल कल्पित हों या फिर कुछ और 
लेकिन अधरों की इस लाली में हमारे चुंबन की कशीदाकारी बहुत है

पुल नदी पर ही नहीं संबंधों में भी बनता टूटता रहता है बराबर हर कहीं
बहती रहो सर्वदा तुम्हारी नदी के पानी में हमारे प्यार की रवानी बहुत है 

पत्तों की सरसराहट में मिलने की आहट है आंखों में उम्मीद का दिया
तुम्हारी चहक बताती है रंगों की इस होली में होली कम दीवाली बहुत है 

ज़िंदगी की हाईवे में बाईपास कहां होता है जाम ही जाम हर जगह होता 
आशिकों की दिलफ़रेब कहानी में गाना कम मुक़ाबला कव्वाली बहुत है 

बहुत सुर्ख इबारत है हमारी ज़िंदगी में चाहत की बातों में वही रंगत तारी है
मुहब्बत मरकज है जीवन का मरहम भी आंखों में बहकती पुरवाई बहुत है

[ 19 मार्च , 2016 ]

Thursday 17 March 2016

प्यार सितार का तार होता है टूट कर बज नहीं सकता

फ़ोटो : शुभम सुंदर


ग़ज़ल 

धूप में खड़ा हो कर चांदनी की बात कर नहीं सकता
प्यार सितार का तार होता है टूट कर बज नहीं सकता 

धूप बादल में भी हो होती धूप ही है लगती रहती है बहुत
प्यार के पिन चुभोती रहो अभिनेता बन हंस नहीं सकता 

बहुत मुश्किल होता है हां में हां मिलाना कि जैसे मर जाना 
झूठ ही ख़ुश करने के लिए तो तोता चश्म बन नहीं सकता 

पुल के नीचे ज़रुरी बिलकुल नहीं है कि नदी में पानी हो 
बिना पानी की नदी में कागज की नाव बन नहीं सकता 

झूठ और मक्कारी की दुनिया जिन्हें सुहाती मुबारक उन्हें
फ़रेबी दुनिया में ख़ुद को कभी भी फिट कर नहीं सकता

अपनी धरती खुरदरी ही सही बहुत प्यारी दुनिया में न्यारी
चिकनी दुनिया में हंसने के लिए छल छंद कर नहीं सकता  

जादू होता है बहुत प्यार की धार और तकरार में वह जारी है 
पहलू में तुम हो और मैं कुछ और सोचूं ऐसा हो नहीं सकता  

[ 18 मार्च , 2016 ] 

भारत माता की जय बोलने से घबराए लोग जय हिंद बोल रहे हैं


 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

हर आग में हाथ सेंकने वाले डर डर के सही जय हिंद बोल रहे हैं 
भारत माता की जय बोलने से घबराए लोग जय हिंद बोल रहे हैं

यह उन की मजबूरी ही सही पर यह बदलाव बहुत बड़ा है दोस्तों
सेना को बलात्कारी बोलने वाले मक्कार भी जय हिंद बोल रहे हैं  

जिन की आदत पुरानी बहुत मां को पिता की बीवी कहते रहने की
बदल गए हैं अब वह भी अम्मी अम्मी कह कर जय हिंद बोल रहे हैं  

एक जावेद अख्तर की तकरीर ने तस्वीर बदल दी है नफ़रत की
जान से प्यारा पाकिस्तान बोलने वाले भी अब जय हिंद बोल रहे हैं 

आप अपनी मां को मां नहीं कहते तो कहते क्या हैं बताईए भला 
 दिक्कत है नफ़रत की नदी में डूब कर वह जय हिंद बोल रहे हैं  

भारत माता की जय बोल कर आज़ाद हुआ यह देश सब जानते हैं 
यह हराम हो गया कैसे कि मुंह छुपाने के लिए जय हिंद बोल रहे हैं 

जय हिंद जय हिंद की सेना तो बलिदानी होती है उन्हें मालूम नहीं 
बलिदानी भी यह हैं नहीं जाने किस डर से यह जय हिंद बोल रहे हैं

देश को सर्कस बना कर सही अपनी मिट्टी पलीद करवा कर सही
मुखौटा उतार अफजल के पैरोकार भी अब जय हिंद बोल रहे हैं  

जनता जानती है सब उठ कर खड़ी हुई तो हवा बदल गई इस कदर 
हवा का असर है एक से एक जहरीले नाग अब जय हिंद बोल रहे हैं 

वह उत्पात कर कर के डर गए हैं बहुत जैसे सन्निपात के मारे हुए हों
जय हिंद जय हिंद वह बारंबार बारंबार जय हिंद जय हिंद बोल रहे हैं 


[ 17 मार्च , 2016 ]

Wednesday 16 March 2016

हम बहुत रश्क से जावेद अख्तर अनुपम खेर देखते हैं



ग़ज़ल

बदलती दुनिया में कभी अंधेर तो कभी सबेर देखते हैं
हम बहुत रश्क से जावेद अख्तर अनुपम खेर देखते हैं

वह फ़िल्मी हो कर भी ज़मीन भावना और सच देखते हैं
लेकिन यह लेखक हैं आकाश नफ़रत और छल देखते हैं

असहिष्णुता अफजल कन्हैया ओवैसी आते जाते रहते
लेकिन हमारे लेखक अपने ही कुतर्क का ढेर देखते हैं

अजब है यह संकट भी वह अपने से हर असहमत में
वैचारिकी का चश्मा लगा संघी होने का फ़रेब देखते हैं

इन की शब्दावली में एक शब्द फासिस्ट भी आता है
अपने ड्राइंगरूम में बैठ अफजल को शहीद देखते हैं

कोई इन को पढ़ता नहीं है यह ख़ुद को पढ़ते रहते हैं
नफ़रत  की गोद में बैठ यह तो झूठ की रेल देखते हैं 

जहाज में बैठ कर यह क्रांति का सुनहरा सपना दिखाते
भूल जाते हैं जीवन हरदम हिप्पोक्रेसी की जेल देखते हैं

मुस्लिम दलित में जहर भर उन से यारी करते कराते 
एनजीओ संगठनों के चंदे से भरी अपनी जेब देखते हैं

समय कभी सदा एक सा नहीं रहता बदलता रहता है
दुःख हो सुख हो सब गुज़र जाता महात्मा बुद्ध कहते हैं

[ 16 मार्च , २०१६ ]

Tuesday 15 March 2016

खिड़कियां प्यार की खुल गईं मधुमास में

फ़ोटो : गौतम चटर्जी

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

प्यार का पक्षी कब उड़ता नहीं आकाश में 
खिड़कियां प्यार की खुल गईं मधुमास में 

हर दिन हर क्षण तुम्हारी याद लहराती है
सुगंध बन मन में भर जाओ सांस-सांस में

हवाएं सोने नहीं देतीं कलेजा काढ़ लेती हैं
बहकती हुई ही आ जाओ इस मधुमास में

सोचता हूं तुम्हारे घर चला आऊं पूजा करूं  
मंदिर में मन भटकता है बहुत मधुमास में

कीर्तन तुम्हारा कर रहा घर में ही बैठ कर
आओ तुम भी मिल जाओ इस मधुमास में

[ 15 मार्च , 2016 ]

लेकिन राष्ट्रपति को लिखी कृष्णा सोबती की इस चिट्ठी के मायने भी क्या हैं ?

कृष्णा सोबती


एक मशहूर चीनी कहावत है कि इतने उदार भी मत बनिए कि अपनी बीवी किसी को गिफ्ट कर दीजिए । तो  सेक्यूलर और लिबरल होने की भी एक हद होती है । कोई खुले आम देशद्रोही नारे लगाए , अफजल को शहीद बताए, कश्मीर की आज़ादी मांगे और भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला , इंशा अल्ला , भारत तेरी बरबादी तक जंग रहेगी जैसी बेहूदी बातें करेगा या कोई दूसरा उस की बगल में खड़ा उसे शह  देगा , सहमति और समर्थन देगा और फिर आप उस की पैरवी में प्राण प्रण से तमाम बेहूदा तर्क देते हुए खड़े हो जाएंगे तो माफ़ कीजिए दोस्तों हम आप की इस बेहूदगी के खिलाफ खड़े हैं । आप होंगे साहित्य के ख़ुदा , बने रहिए पर इस मुददे पर हम आप को ख़ुदा मानने से इंकार करते हैं । आप दे दीजिए संघी होने की गाली , बता दीजिए भाजपाई । कोई फ़र्क नहीं पड़ता । आप कर लीजिए राष्ट्र , साम्राज्य आदि को अपने चौखटे में परिभाषित । आप के इस चौखटे को हम तोड़ते हैं । अभी हिंदी की लेखिका आदरणीया कृष्णा सोबती का राष्ट्रपति को संबोधित एक पत्र सोशल साईट पर दौड़ रहा है । पूरी रफ़्तार से लोग इसे बांट रहे हैं प्रसाद की तरह ।  देशमोह और देशद्रोह के शोर से आतंकित बता कर प्रार्थना के रुप में । क्या बेहूदा मजाक है यह भी ।

लेकिन इस चिट्ठी के मायने भी क्या हैं ? यह लेखक देश और समाज की भावना से इतने ऊपर हो गए हैं ? क्यों भाई ? क्या खाते पीते हैं आप और क्या पहनते हैं जो इतने उदार हो गए हैं ? आप की उदारता का यह कट्टर पाठ अब आजिज कर रहा है । एकतरफा बातें किसी भी समाज को फासिज्म की तरफ ही धकेलती हैं । एक राजनीतिक पार्टी का विरोध आप को देश  खिलाफ क्यों खड़ा कर दे रहा है ? कि आप को किसिम किसिम का कुतर्क सामने रखना पड़ रहा है । खुल कर नरेंद्र  मोदी का राजनीतिक विरोध कीजिए । ईंट से ईंट बजा दीजिए । जनमत आप के साथ खड़ा मिलेगा । लेकिन सेना को बलात्कारी बताने की मुहिम में आप ख़ुद शामिल हो जाएंगे , देशद्रोही नारों को जस्टीफाई कर राजनीतिक विरोध करेंगे तो देश आप पर थूकेगा । जैसे कि इन दिनों थूक रहा है । ओवैसी कहता है कि हम भारत माता की जय नहीं बोलेंगे । आप चुप हो जाते हैं ।  कश्मीरी पंडितों या आतंकवाद की बात आती है आप चुप हो जाते हैं ।  कतरा कर निकल जाते हैं । तुर्रा यह कि आप सेक्यूलर हैं । सच यह है कि आप सेक्यूलर नहीं हिप्पोक्रेट हैं । फासिस्ट हैं । आप की चुनी हुई चुप्पियां और चुने हुए विरोध की मानसिकता पर , इस माइंड सेट पर अब चोट बहुत ज़रूरी है । निर्णायक चोट ।

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब पाखी ने तमाम तर्क और प्रमाण के साथ महुआ माजी के उपन्यास मैं बोरिशा इल्ला के उपन्यास पर चोरी का आरोप लगाया था। इस उपन्यास का ब्लर्ब लिखने वालों में एक नाम प्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती का भी था। लेकिन जब चोरी के विवाद का बवंडर उठा तो पाखी ने उन से इस बाबत पूछा था तो उन्हों ने पूरी ईमानदारी से कहा था कि अब उम्र ज़्यादा हो जाने के कारण वह बहुत पढ़ नहीं पातीं । प्रकाशक ही कुछ लिख कर लाए थे , मैं ने सहमति दे दी थी । 

नामवर सिंह
इसी तरह लगभग उन्हीं दिनों एक लेखिका ज्योति कुमारी भी तहलका मचा रही थीं । दो सौ किताब बिक जाने पर बेस्ट सेलर का तमगा पा रही थीं । और यही वृद्ध लेखक अपनी बुजुर्गियत हंसी उड़वा कर ज्योति कुमारी के कसीदे पढ़ रहे थे , दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में । जितनी आमदनी किताब बिकने से नहीं हुई होगी उस से हज़ार गुना खर्च प्रकाशक इस समारोह पर खर्च कर गया था । पर यह सब तो बाद की बात है । इस के पहले दिल्ली में प्रगति मैदान के पुस्तक मेले में ज्योति कुमारी के इसी कहानी संग्रह दस्तखत के विमोचन में नामवर से लगायत राजेंद्र यादव आदि-आदि तक उपस्थित थे । जिस पर विमोचन में ही तुरंत एक विवाद उपस्थित हुआ । इस किताब की भूमिका नामवर सिंह के नाम से छपी थी । लेकिन अपने अध्यक्षीय भाषण में नामवर सिंह ने साफ कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं । दिलचस्प यह था कि यह दस्तखत कहानी संग्रह वाणी प्रकाशन ने दो दिन के भीतर छापा था । इस के पहले यही संग्रह राजेंद्र यादव के आशीर्वाद से राजकमल प्रकाशन छापने वाला था । कहा जाता है राजकमल ने ज्योति कुमारी का यह संग्रह छाप भी दिया था पर संग्रह का नाम बदल दिया था । जिस पर ज्योति कुमारी नाराज हो गईं । और संग्रह वापस ले लिया । लेकिन किताब के विमोचन आदि की तारीख़ घोषित थी । सो उसी तारीख़ पर दो दिन के भीतर कहानी संग्रह छपा और विमोचित हुआ । दिलचस्प यह कि राजकमल प्रकाशन के भाई वाणी प्रकाशन ने छापा । जिस में नामवर ने कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं । लेकिन हफ्ते भर में नामवर का बयान बदल गया । उन्हों ने कहा कि यह भूमिका मुझ से हुई बातचीत के आधार पर लिखी गई है । लेकिन अगले हफ्ते नामवर का बयान फिर बदल गया । नामवर ने लिख कर बयान जारी किया कि असल में तब के दिनों जाड़ा बहुत था , मेरा हाथ कांप रहा था सो बोल कर भूमिका लिखवाई । आखिर नामवर पर ऐसा कौन सा दबाव था जो उन्हें बार-बार अपनी बात बदलनी पड़ी ? ज़िक्र ज़रूरी है कि यह वही ज्योति कुमारी हैं जो राजेंद्र यादव के अंतिम समय में उन के छीछालेदर का सबब बनीं और अंततः उन की मृत्यु का सबब भी । तो बुजुर्ग लेखक ऐसे ही लोगों की भावनाओं , प्यार और आदर के वशीभूत आ जाते हैं और लोग जो चाहते हैं , आशीर्वाद रुप में प्राप्त कर लेते हैं । कृष्णा सोबती की राष्ट्रपति को लिखी इंटरव्यूनुमा इस चिट्ठी को भी मेरी राय में इसी रुप में आदर सहित लिया जाना चाहिए । लेखकों ने अपने लिखे , अपने कहे की गरिमा किस तरह और कितनी बार धोई है , कि अब वह शेष भी कहीं नहीं है , यह भी कोई बताने की बात है भला ? एक अभिनेता अनुपम खेर इन लेखकों की ज़िद की सारी जिल्द उतार देता है , देश की आवाज़ बन जाता है । उस टेलीग्राफ़ अख़बार के समारोह में जो घोषित रुप से असहिष्णुता मुद्दे पर अभियानरत है , आज़ादी मुद्दे पर एक्टिविस्ट की तरह काम कर रहा है । लेकिन अनुपम खेर नामक अभिनेता वहां सब को चुप करवा देता है । इस लिए कि वह देश की आवाज़ बन कर बोलता है । पर हिंदी का लेखक रिरिया भी नहीं पाता ठीक से । क्यों कि वह अपनी अकड़ और ज़िद में देश की ज़ुबान और भावना भूल गया है । अपनी ज़मीन से कट गया है । अपने से असहमत होने वाले सभी लोगों को संघी और भाजपाई होने का कुतर्की तमगा थमा कर रेत में सिर धंसा चूका है । इसी लिए अब न उस को कोई पढ़ता है , न उस की कोई बात सुनता है । अपनी इन्हीं करतूतों से हिंदी का लेखक अब हाशिये पर भी नहीं रह गया है । समाज में मज़ाक का सबब बन गया है । 

ख़ास कर तब और जब अब  जे एन यू की जांच कमेटी ने कन्हैया समेत पांच छात्रों को देशद्रोही नारे मामले में दोषी पा कर उन्हें जे एन यू से निकालने की सिफारिश कर दी है । दिल्ली हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी द्वारा कन्हैया को दिए गए अंतरिम ज़मानत के बाबत दिए गए आदेश में भी इस मामले में कन्हैया सहित जे एन यू को तमाम नसीहत और जे एन में सर्जरी की सलाह भी हमारे सामने है । तो कृष्णा सोबती जी के इस पत्र की प्रासंगिकता स्वत: समाप्त हो जाती है । इस बाबत संघी फंगी साज़िश की बात करने की बात सिर्फ़ बेहूदगी है । फासिज्म है । असहिष्णुता से शुरू हुई , हांफती हुई एक फासिस्ट यात्रा का पड़ाव भर है , और कुछ नहीं । कि अब आप को 91 वर्ष की एक आदरणीय लेखिका का कंधा भी लेना पड़ गया है । चिट्ठी प्रायोजित करनी पड़ गई है । मंज़र भोपाली का एक शेर है , अपने बल पे लड़ती है अपनी जंग हर पीढ़ी / नाम से बुजुर्गों के अज्मतें नहीं मिलतीं । बल्कि मंज़र भोपाली की यह पूरी ग़ज़ल यहां बहुत मौजू है

बेअमल को दुनिया में राहतें नहीं मिलतीं
दोस्तों दुआओं से जन्नतें नहीं मिलतीं

इस नए ज़माने के आदमी अधूरे हैं
सूरतें तो मिलती हैं, सीरतें नहीं मिलतीं

अपने बल पे लड़ती है अपनी जंग हर पीढ़ी
नाम से बुजुर्गों के अज्मतें नहीं मिलतीं

जो परिंदे आंधी का सामना नहीं करते
उनको आसमानों की रफतें नहीं मिलतीं

इस चमन में गुल बूटे खून से नहाते हैं
सब को ही गुलाबों की किस्मतें नहीं मिलतीं

शोहरतों पे इतरा कर खुद को जो खुदा समझे
मंज़र ऐसे लोगों की तुर्बतें नहीं मिलतीं

वैसे दिलचस्प यह भी है कि असहिष्णुता के चैम्पियन  अशोक वाजपेयी कामरेड कन्हैया और जे एन यू में बीते 9 फरवरी को लगे देशद्रोही और जहरीले नारों पर सिरे से चुप हैं । उन की यह चुप्पी सालती बहुत है । कोई जाए भी अशोक वाजपेयी के भी पास और लिखवाए एक चिट्ठी उन से भी । फ़िलहाल तो कृष्णा सोबती की चिट्ठी पढ़िए । जिसे जाने किस विद्वान ने ड्राफ़्ट किया है । क्यों कि यह चिट्ठी बहुत बेतरतीब और बहुत बिखरी-बिखरी है । न धार है न केंद्रीय बिंदु । सिर्फ़ लफ्फाजी है और कृष्णा सोबती का नाम है । राष्ट्रपति इस का संज्ञान भी खैर क्या लेंगे लेकिन आप तो यहां पढ़ ही सकते हैं । मंज़र भोपाली के इस शेर की रौशनी में :

बेअमल को दुनिया में राहतें नहीं मिलतीं
दोस्तों दुआओं से जन्नतें नहीं मिलतीं



कृष्णा सोबती की चिट्ठी

महामहिम की सेवा में कृष्णा सोबती का निवेदन

महामहिम राष्ट्रपति जी की सेवा में


सम्प्रभुतापूर्ण भारत देश राष्ट्र की कोटि-कोटि सन्तानों के पुरोधा राष्ट्रपति जी!

आप हमारी वैचारिक, लोकतांत्रिक और संस्कृति के संरक्षक हैं —

हम भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले नागरिक आपके सन्मुख इस प्रार्थना के साथ उपस्थित हैं कि देश आज जिस संकट के सामने है, आप उसे गंभीरतापूर्वक देखें। देश को विभाजित करनेवाले कोलाहल की हर प्रतिध्वनि आप तक पहुँचती है, जो आज हो रहा है और जिसके कारण देश तनाव में है–उसके सम्मिलित स्वर को लेकर हम आपके सामने हाजिर हैं।

राष्ट्र की राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों का लेखा-जोखा और संवैधानिक-नैतिक व्यावहारिकता की राजनैतिक पुष्टि और उल्लंघन, दोनों आप तक लगातार पहुँचते हैं।

महामहिम, इस सन्दर्भ में हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित की आत्महत्या का दुखदायी प्रकरण और इसके पीछे आतंकित करते दलित छात्र-दमन जैसे कई मामले हमारे लोकधर्म को पछाड़ने की भरसक कोशिश में हैं।

हम भारत की साधारण प्रजाएँ–एक साथ पुरानी विसंगतियों और विषमताओं से उबरते हुए लोकतंत्र की उन बरकतों को छूना चाहते हैं जो संविधान के अनुरूप भारतीय लोकतांत्रिक जीवन-शैली से उभर रही हैं। हम भारतवासी संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक बराबरी और मानवीय अस्मिता के सम्मान को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।

देश में निवास करते पिछड़े, दलित और विभिन्न दलित समूह विश्वविद्यालयों में कैसी परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं, वह आज सर्वविदित है।

इन क्रूर स्थितियों, परिस्थितियों का इतिहास कम लम्बा नहीं।

राष्ट्रपति जी, हमारे देश का लोकतंत्र जिस मानवीय बिरादरी में आस्था रखता है, भारत का हर नागरिक वहाँ तक पहुँचना चाहता है।

संविधान ने हर हिन्दुस्तानी को बराबरी का अधिकार दिया है।

हर हिन्दुस्तानी अपने देश के संविधान से बँधा हुआ है। उसके गुणों में आस्था रखता है।

महामहिम, भारत के ऊँचे, सफल, पिछड़े सभी प्रजाजन देश के संविधान के जनक अम्बेडकर जी को शत-शत प्रणाम करते हैं जिन्होंने राष्ट्र के लोकतांत्रिक संस्कार को संविधान में बाँधकर यह वरदान दिया।

आपके सामने नतमस्तक हो विनम्रतापूर्वक यही प्रार्थना है कि आज लोकतंत्र में जो विद्रूप और अमानवीय विसंगतियाँ उभर रही हैं, उनका राजनैतिक समाधान आप करें।

महामहिम आप राष्ट्र के सत्तातंत्र के सर्वोपरि हैं। राष्ट्र की विचारधारा किस ओर जा रही है, वह आप देख ही रहे हैं।

अपने देश का भूगोल, इतिहास भारतवासियों के एकत्त्व में गुँथा है। उसे तानाशाही राष्ट्रवाद की ओर बढ़ते देख, हम नागरिक चिन्ता में हैं।

भारतीय विवेक सदियों-सदियों से विभिन्नताओं में भारत के एकत्त्व को रचता आ रहा है। इसकी यह संरचना विश्वप्रसिद्ध है।

एक स्वतंत्र देश के नागरिक के रूप में भारत का हर विशेष और साधारण जन इन्हीं मानवीय सम्बन्धों को गरमाहट से जीना चाहता है।

हम साधारण नागरिक यह समझने में असमर्थ हैं कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय के छात्र नेता-कन्हैया से पुलिस द्वारा पूछताछ करने के दौरान उसे बगैर गुनाह साबित हुए क्यों पीटा गया और पटियाला हाउस में वकीलों ने किस विचारधारा से प्रेरित हो उस पर हमला किया।

मान्यवर, लोकतंत्र की राष्ट्रीय विरासत कन्हैया जैसे युवाओं को पीटने, धमकाने और सजा देने में नहीं, उनकी प्रतिभा को देश के लिए इस्तेमाल करने में हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और उस जैसे अन्य विश्वविद्यालयों में पनप रही विचारधाराएँ इस बात का प्रमाण हैं कि आज के भारत का युवा-समाज आत्मनिरीक्षण से अपनी चेतना को स्फूर्त करता है, संकुचित आत्ममुग्धता से नहीं। वह अपनी सुयोग्यता से सार्वजनिक जीवन में अनुशासन और आत्मविश्वास से अग्रसर होता है।

महामहिम भारत देश के बहुजातीय, बहुधर्मी, बहुभाषी समाजों की अस्मिता को किसी संकीर्ण सांस्कृतिक विचारधारा से नत्थी करना सेहतमन्द पक्षधरता का प्रतीक नहीं।

जिस वैचारिक नियंत्रण की यह भूमिका है, वह हमारे देश की उभरती पीढ़ियों की लोकतांत्रिक अवधारणाओं और विश्वासों के विपरीत है।

महामहिम, लोकतंत्र के नाम पर ही अगर विश्वविद्यालय में लोकधर्म का अंग-भंग होगा तो यह नागरिक समाज की लोकतांत्रिक आस्था को भी घायल करेगा और यह संकीर्णता देश की बौद्धिक प्रतिभा और ऊर्जा का भी ह्रास कर देगी।

महामहिम आज हम जो भी लगातार सुन-पढ़ रहे हैं, वह लोकतांत्रिक मूल्यों के नितान्त विपरीत है। हम लाखों-लाखों नागरिक राष्ट्र के भविष्य के लिए चिन्तित हैं।

          

आपकी सेवा में

भारत के नागरिक समाज की एक प्राचीन सदस्य

कृष्णा सोबती

( वो नागरिक जो देशमोह और देशद्रोह के शोर से आतंकित हैं वह हमारी प्रार्थना में शामिल हों और अपनी नागरिक संज्ञा का नाम दें )

 कृष्णा सोबती की यह चिट्ठी शब्दांकन से साभार ली गई है। इस का मूल लिंक यह है :  

http://www.shabdankan.com/2016/03/krishna-sobti-letter-to-president.html

सेक्यूलरिज़्म के शौक ने उन्हें पमेलियन कुत्ता बना दिया


फ़ोटो : विनोद शर्मा

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गईं कि देश को तमाशा बना दिया
सेक्यूलरिज़्म के शौक ने उन्हें पामेरियन कुत्ता बना दिया

आज़ादी लगता है कुछ ज़्यादा मांग ली देशद्रोही नारे लगा 
इतना लगा दिया कि सिस्टम ने उन को तोतला बना दिया

प्राथमिकतायें बदली हैं बेतरह चीज़ें भी उलट पुलट हो गईं
क्रांतिकारी इस कदर हो गए वह घर का दिया बुझा दिया

मनबढ़ होना उन को ले डूबा बहुत बिन पानी की नदी में
रेत में सिर दिए पड़े हैं पर कड़ी धूप ने सनकी बना दिया

भाषाओं के इस झगड़े में आंगन जैसे कोई समंदर हो गया
खारापन इतना बढ़ा कि ख़ुद को पूरा नकचढ़ा बना लिया

कुतर्क जैसे बिजली का नंगा तार है दोस्ती में भी मारता है
लेकिन उन के गले ऐसे पड़ा है देश को गुस्सा दिला दिया 

डिप्लोमेसी भी काम नहीं आई न रास आया वह कोलाहल 
लोग खड़े हुए ख़िलाफ़ इतना कि भारी जनमत बना दिया


[ 15 मार्च , 2016 ]

Monday 14 March 2016

ग्लोब्लाइज हो गए हैं बच्चे लेकिन यह लोग तो मनुस्मृति में उलझे हैं


फ़ोटो : गौतम चटर्जी

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

दुनिया बन गई है हथियार की बड़ी मंडी यह तू तू मैं मैं में उलझे हैं
ग्लोब्लाइज हो गए हैं बच्चे लेकिन यह लोग तो मनुस्मृति में उलझे हैं 

तौलने के यह औजार भोथरे हो गए हैं पैमाने सारे इधर उधर हो गए  
दुनिया हो गई अब दो क़दम की यह वामपंथ दक्षिणपंथ में उलझे हैं

सपने में भी वह विपन्न हैं विचार में भी दकियानूस लेकिन मानते कहां
अपनी सनक में हर किसी को मूर्ख समझने की बुद्धिमानी में उलझे हैं

यह वामी कह गरियाते रहते हैं तो वह संघी बता मुंह फुलाते रहते हैं
किसानों की हत्या होती रोज रोज लेकिन यह आत्महत्या में उलझे हैं

एक तरफ से आतंक डराता रहता दूसरी तरफ बेरोजगारी चिढ़ाती है 
यह देशद्रोह देशभक्ति आज़ादी की  मुकाबला कव्वाली  में उलझे हैं

रोटी मंहगी होती जाती दिन ब दिन दाल सब्जी थाली में सपना सरीखा
लेकिन यह अफजल के समर्थन और विरोध की लफ्फाजी में उलझे हैं

संघर्ष लड़ाई और बदलाव के रास्ते और इन की लफ्फाजी के और
जाति मज़हब की दुकानदारी बड़ी है इसी मौकापरस्ती में उलझे हैं

कार्पोरेट आवारा पूंजी से बढ़ती जाती लड़ाई खाई बढ़ती ही जाती है
यह कुतर्क के मारे नक्सल और इशरत  की नूरा कुश्ती में उलझे हैं 

[ 14 मार्च , 2016 ] 

Saturday 12 March 2016

संसद मीडिया अदालत अफ़सर सब सज धज कर तैयार खड़े हैं



ग़ज़ल 
  
कुछ बिक गए कुछ बाक़ी हैं पर बिकने को सारे होशियार खड़े हैं 
संसद मीडिया अदालत अफ़सर सब सज धज कर तैयार खड़े हैं

जंगल नदी समंदर धरती बेच चुके जाने किस मुगालते में हैं आप 
आप खरीदिए राष्ट्रपति भवन यह रजिस्ट्री करने को तैयार खड़े हैं  

लालीपाप आश्वासन का बांट बांट कर ज़न्नत में वह दिन काट रहे
आप का टिकट जहन्नुम का है क्यों जन्नत ख़ातिर बेकरार खड़े हैं 

ठाट बाट से रहते हैं तो आंख बंद सो  मुश्किल कभी नहीं दिखती
पांचों अंगुली घी में लेकिन सिर कड़ाही में तलने को तैयार खड़े हैं  
 
आप बहुत फ़ुर्सत में दिखते अच्छा दलाल हैं फिर तो आप की चांदी 
हम किसान हैं भगवान भरोसे रहने के आदी इसी लिए हैरान खड़े हैं

घुल मिल कर घाव कर रहे देश में आग लगा वह सुख सारा ताप रहे
कुत्ता बन फंडिंग चाट कर बहुत इत्मिनान से यह सारे बेईमान खड़े हैं 

आत्म मुग्धता भी बहुत बेशर्म होती है बेच खाती है यह तो बड़े बड़ों को 
कोई इन को यश दिला दे व्याकुल भारत बन कर बहुत परेशान खड़े हैं 


[ 13 मार्च , 2016 ]


भारतीय पत्रकारिता में सेक्यूलरिज्म का तड़का और उस का यह हश्र

विजय माल्या और प्रणव राय की गलबहियां

भारतीय पत्रकारिता में सेक्यूलरिज्म का तड़का भी अजीबोगरीब स्थितियां पेश कर देता है। क़िस्से तो बहुतेरे हैं पर अभी दो लोगों को याद कीजिए । एक तुर्रम खां हैं तहलका के तरुण तेजपाल जो अर्जुन सिंह द्वारा दिए गए सरकारी अनुदान से वाया तहलका सेक्यूलर चैम्पियन बने। फिर जल्दी ही वह कुख्यात माफ़िया पोंटी चड्ढा की गोदी में जा गिरे और देखते-देखते अरबों में खेलने लगे। बीते दिनों अपनी बेटी की उम्र की अपनी एक कर्मचारी के साथ गोवा में सरेआम दुराचार पर आमादा हो गए। वह भागती रही और यह उसे पूरे होटल में दौड़ाते रहे । मदिरा में धुत्त हो कर । जेल गए और सेक्यूलरिज्म के सीन से फरार हो गए। कांग्रेस ने कहा कि भाजपा ने जान-बूझ कर फंसाया है । एन डी  टी वी पर तब रवीश कुमार ने भी तरुण तेजपाल की ख़ूब पैरोकारी की थी , प्रणव राय के नेतृत्व में । लेकिन अब सेक्यूलरिज़्म के इन्हीं दूसरे सूरमा प्रणव राय पर भी बन आई है । कई सारे मामलों में फंसते जा रहे हैं । 

तरुण तेजपाल
टटका मामला विजय माल्या की गीदड़ भभकी का है । भारत से भागने के बाद विजय माल्या ने लंदन से ट्विट कर के भारतीय पत्रकारिता के संपादकों को धमकाया है कि  मेरे बारे में उलटा सीधा लिखा तो सब को एक्सपोज कर दूंगा । तो क्या यह धमकी प्रणव राय के लिए थी ?  विजय माल्या और प्रणय राय की दो फ़ोटो  वायरल हुई है । प्रणव राय के और भी कई  मामले सामने आ रहे हैं । मनी लांड्रिंग , फेरा सहित और भी आरोप लग गए हैं । दिलचस्प यह कि एक राजनीतिक  सेक्यूलर सूरमा और पूर्व प्रधान मंत्री एच डी देवगौड़ा ने भी माल्या की तरफदारी करते हुए लगभग माल्या के ट्वीट को दुहराया है । कि माल्या भगोड़ा नहीं हैं , भागे नहीं हैं । और कि वह कर्नाटक की माटी के लाल हैं । तो क्या माल्या के पैसे ने पत्रकारों सहित देवगौड़ा को भी ख़रीद लिया है ? हमें तो माल्या के उस ट्वीट का इंतज़ार है जिस में वह देश की संसद को धमकाएगा कि मेरे मामले में संसद में बहुत मत बोलो , चुप रहो , नहीं एक-एक की  दूंगा । माल्या ऐसी धमकी बैंक के चेयरमैनों और जजों को भी सकता है कि  चुप रहो नहीं , तुम्हारी पोल खोल दूंगा । सब के डॉक्यूमेंट्री प्रूफ़ हैं मेरे पास । क्यों कि सच यह है कि मनी में पावर बहुत है । मनी पावर मसल पावर से बड़ा है । पूरे सिस्टम को वह ख़रीद चुका है । संसद , मीडिया , अदालत अफ़सर सब । 

 यह लिंक भी पढ़ें :

1 . दलाली वाया सेक्यूलरिज़्म भी होती है

2 . सच यह है कि रवीश कुमार भी दलाल पथ के यात्री हैं

जाने कौन सी बीमारी लग गई है उन को हर एक बात बुरी लगती है


फ़ोटो : शायक आलोक

ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

संसद बुरी अदालत बुरी और अब सेना भी उन्हें बहुत बुरी लगती है
जाने कौन सी बीमारी लग गई है उन को हर एक बात बुरी लगती है  

चिढ़े हुए हैं इस कदर कि उन को बाग़ में बुलबुल का गाना भी नहीं भाता 
सूरज से भी नफ़रत है रात का चांद भी जहर लगता चांदनी बुरी लगती है

सपने में भी वह चुप नहीं रहते चिल्लाते रहते हैं हरदम कि जैसे पागल 
अपने घर में भी उन को  सांप्रदायिकता की एक तलवार खड़ी दिखती है

विरोध ज़रुरी है व्यवस्था का रोका किस ने पर कठपुतली हो गए हैं
अब वह ख़ुद के ख़िलाफ़ खड़े हैं इस कदर कि मां भी बुरी लगती है

बहुत सेलेक्टिव हैं सो विरोध भी चुन कर करते हैं ब्रांडिंग में माहिर हैं
हवा को भी वह बांध लेना चाहते हैं हवा भी उन को लाल हरी लगती है

सेक्यूलरिज़्म के जाल में जो आए लपेट लेते हैं बख्शते नहीं किसी को
जो भी बात देश के ख़िलाफ़ जाती उन को वह बात बहुत भली लगती है 

संस्कृत संत मंदिर नदी यह धरती भी उन के विरोध के एजेंडे में है शामिल 
मनुष्यता से उन को चिढ़ बहुत उन की हर बात में कुतर्क की नदी बहती है 


 [ 12 मार्च , 2016 ]

Friday 11 March 2016

इन दिनों फैशन नया चला है सेना को गरियाने का



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

अभिव्यक्ति की हवा चली है मौसम है बतियाने का
इन दिनों फैशन नया चला है सेना को गरियाने का

सेना में दाल नहीं गलती कमिश्नरी वहां  नहीं चलती
सेना से डरते हैं सो मकसद है सेना को भटकाने का

मित्रों यह साज़िश बहुत बड़ी है विदेशी फंडिंग की
सेना बलात्कारी बहुत बड़ी ऐसा माहौल बनाने का

सिस्टम नहीं देश तोड़ना मकसद तो उन का साफ है 
बिलकुल यही सही मौका है फासिस्टों को दौड़ाने का

अभी असहिष्णुता की आंधी आई थी वह पिट कर चली गई
सेना बलात्कारी है उन का एजेंडा है यही ढोल पिटवाने का

आज़ादी का पापड़ खा कर वह बकर बकर बतियाते हैं
लेकिन डर बहुत लगता है उन को भीड़ में पिट जाने का

देशद्रोही नारों ने उन को बेमकसद बना पिटवा  दिया
नशा भी उन का यह नया नया है अपनी देह तुड़वाने का

कभी उन को देखिए कभी उन का शौक उन की हसरत भी
श्रद्धांजलि सभा में सेल्फ़ी ले कर फेसबुक पर चिपकाने का

अब आज़ादी के ढोल की होड़ व शोर देखिए इन विद्वानों में
अफजल याकूब व इशरत जैसे गद्दारों को शहीद बतलाने का
 
देश बांटना समाज तोड़ना जहरीली बातों और कुतर्कों में जीना 
इन का मक़सद सिर्फ़ और सिर्फ़ एक है देश को झुलसाने का

वह क्या जानें सेना की ताक़त सेना की छांव सेना का ममत्व
सेना है तो हमारी आन बान शान है समय है यह बतलाने का

सरहद से घर की विपदा तक वह मां की तरह खड़े मिलते हैं 
जाति धर्म के खांचे से ऊपर उन का धर्म है सब को बचाने का 

 [ 11 मार्च , 2016 ]

Thursday 10 March 2016

साथ रोती साथ हंसा करती है बेटी तो ऐसी ही हुआ करती है



 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

[ दुनिया भर की बेटियों के लिए ]

दुनिया जो कहे पिता के आगे किसी की कहां सुना करती है
साथ रोती साथ हंसा करती है बेटी तो ऐसी ही हुआ करती है

कभी गोदी में थी अब कैरियर में है जैसे असमान उस का है
पंख उस के हाथों में है बैठती कहां अब तो बेटी उड़ा करती है

उस के नन्हे हाथों में जैसे सुरक्षित है हमारी ख़ूबसूरत दुनिया
बहुत आश्वस्त करती है उस की उड़ान ये दुनिया कहा करती है

बदल देगी इस जालिम दुनिया को वह यह बात पक्का जानती 
उस की आंखों में जो सपना पलता है उसे पूरा किया करती है

वो दुनिया जहन्नुम है जिस में बेटी और उस की हंसी नहीं होती
वह आंगन धन्य होता है अनन्य होता है जहां बेटी हंसा करती है

बेटियों ने बदली है बहुत दुनिया सजाया और बनाया है सुंदर इसे
कल्पना चावला हमारी याद में अब भी अंतरिक्ष में उड़ा करती है

सीता बेटी थी जनक की रावण भी हार गया था डिगा नहीं पाया
लंका की यह गर्वीली कहानी भी तुलसी की चौपाई कहा करती है

दुनिया वह सुंदर बहुत होती जिस में बेटी विश्वास से सांस लेती है
सपने जोड़ती है पंख खोलती है आसमान में निर्भीक उड़ा करती है

[ 11 मार्च , 2016 ]

शेर सारे पिंजरे में कैद रंगे सियारों के दिन हैं

फ़ोटो : तुषार


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

माथा ईमानदारों ने अब फोड़ लिया बहुत है यह दलालों के दिन हैं
गीदड़ों की चांदनी है शेर सारे पिंजरे में कैद रंगे सियारों के दिन हैं

अदालत राजनीति मीडिया अब हर कहीं हर जगह एक ही क़िस्सा 
मूल्यों की बात करने वाले पागल घोषित हुए लफ्फाज़ों के दिन हैं 

अब क्रांति आज़ादी देशभक्ति का मतलब सिर्फ़ मज़ाक बन  गया
चंद्रशेखर आज़ाद भगत सिंह प्रासंगिक नहीं हरामखोरों के दिन हैं 

सिद्धांत क़ानून आदर्श वगैरह अजायबघर पागलखाने की बातें हैं 
हाजमा बहुत ख़राब है देश का अब जवाब नहीं सवालों के दिन हैं

मर्द सारे नामर्द हुए इस व्यवस्था में अब तो किन्नरों के पौ बारह हैं
उन्हीं की दुनिया है हवा भी उन की ही यह घोटालेबाजों के दिन हैं

हो हल्ला हिंसा अराजकता और जातीय जहर की फसल उग गई
गांधी के दिन कब के विदा हुए अब अंबेडकरवादियों  के दिन हैं

 [ 10 मार्च , 2016 ]

चकमा देने वाले ही अब तो हर रोज चमक रहे हैं

फ़ोटो : गौतम चटर्जी


 ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

सूरज पराजित है इस कदर यह लोग चमक रहे हैं
चकमा देने वाले ही अब तो हर रोज चमक रहे हैं

किसानों के लिए आत्महत्या हरामखोरों को रास्ता
क़ानून के दलाल अब समाज में बहुत खटक रहे हैं 
किसान मज़दूर कितने बेबस लाचार हैं इस देश में
चोर कमीने बेईमान शासक बन कर बमक रहे हैं

जिन को जाना था जेल ठाट बाट से लंदन चले गए 
अब लफ़्फ़ाज़ सारे चैनलों पर बेबात बहस रहे हैं 
उन के जुगाड़ सब पर भारी सारा सिस्टम बिकाऊ 
संसद अदालत सब को ही जेब में लिए टहल रहे हैं 

कोई गंगा को रौंदता है कोई जमुना तो कोई पर्वत को 
पर्यावरण उन का बंधुआ है पैसे के बूट से मसल रहे हैं 

[ 10 मार्च , 2016 ]

Wednesday 9 March 2016

अब फागुन के दिन हैं सताने लगे हैं




ग़ज़ल

बात बेबात वह पागल बताने लगे हैं
अब फागुन के दिन हैं सताने लगे हैं

रास्ते पर आए हैं धीरे-धीरे और आएंगे
वाट्सअप पर अब वह बतियाने लगे हैं

हम से मिलना उन्हें ख़ुश करता बहुत है
बिना पूछे ऐसा वह सब को बताने लगे हैं

किनारे नहीं बीच धारे मिल कर भी वह
बीच रास्ते अनायास अचकचाने लगे हैं

समय ही समय था जब मिलते थे पहले 
जाने क्यों वह अब जल्दी घर जाने लगे हैं

मिलता ही नहीं हूं मैं जब अरसे से उन से 
अब  इसी गम के मारे वह पियराने लगे हैं  

जैसे लतीफा हूं कोई मेरे क़िस्से सुना कर
 वह अब दुनिया जहान को हंसाने लगे हैं

[ 9 मार्च , 2016 ]