Thursday 29 September 2022

सफ़र में फ्रांसीसी

पेंटिंग : अवधेश मिश्र 


दयानंद पांडेय

बनारस में गंगा घाट की सीढ़ियां उसे छोड़ नहीं रही थीं। लेकिन रिजर्वेशन था और ट्रेन का समय हो चला था सो वह भरी दोपहर गंगा का मोह छोड़ कर स्टेशन के लिए रवाना हो गया। रांड़ , सांड़ , संन्यासी की छवि वाला यह शहर अपने मोह के धागे में उसे शुरू ही से बांधता रहा है। बनारस की गलियां , यहां की फक्क्ड़ई और लोगों का लगाव यहां के जाम जैसा ही है। कभी छोड़ता नहीं। यह जाम ही है जो उसे स्टेशन से एक किलोमीटर पहले ऑटो छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा है। बार-बार यह पूछने पर कि , ' और कितना समय लगेगा ? '

' समय से पहुंचना मुश्किल जान पड़ रहा है। जैसा जाम दिख रहा है , लगता है , मेरे साथ तो आप की ट्रेन पक्का छूट जाएगी। ' ऑटो वाले ने स्पष्ट बता दिया है।

' फिर ? '

' आप उतर कर पैदल चले जाइए। ' ऑटो वाले ने कहा , ' तब शायद ट्रेन मिल जाएगी। '

वह सामान समेत ऑटो से उतर कर पैदल चल पड़ा स्टेशन के लिए। तेज़-तेज़ चलता हुआ। ट्रैफिक में रास्ता बनाता हुआ। जगह-जगह उपस्थित गाय और सांड़ को प्रणाम करता हुआ। रास्ता बनाता हुआ हांफते-डांफते किसी तरह स्टेशन पहुंचा। पता चला कि प्लेटफार्म भी आख़िरी वाला है। किसी तरह भागता हुआ प्लेटफार्म पर पहुंचा। अपनी कोच खोजता हुआ प्लेटफार्म पर चल ही रहा था कि ट्रेन सरकने लगी। सामने दिख रहे डब्बे में घुस गया। लेकिन उस के घुसते ही ट्रेन अचानक रुक गई। शायद किसी ने चेन पुलिंग कर दी है। खैर वह तमाम डब्बे लांघता हुआ अपनी कोच और बर्थ तक पहुंच गया। ट्रेन अभी भी रुकी हुई है। अभी अपनी बर्थ पर अपने को वह व्यवस्थित कर ही रहा था कि एक गेरुआधारी कमंडल लिए प्रसाद बांटते , काशी और गंगा जल का माहात्म्य बताते ,  दक्षिणा मांगते उपस्थित हैं। उन से हाथ जोड़ लेता हूं। लेकिन सामने की बर्थ पर दो फॉरेनर दिख जाते हैं। उन के माथे पर विश्वनाथ मंदिर का चंदन पहले ही से लगा हुआ है। गेरुआधारी उन्हें अपने जाल में लपेटना शुरू कर देते हैं। लेकिन वह दोनों भी उस की ही तरह मुस्कुराते हुए हाथ जोड़ लेते हैं। यह देख कर उसे बरबस हंसी आ गई। गेरुआधारी उस पर भुनभुनाते हुए आगे बढ़ जाते हैं।  ट्रेन फिर सरकने लगी है।

एक फॉरेनर के हाथ में कोई एक किताब है। वह उस किताब का नाम पढ़ने की कोशिश करता है। पर बहुत कोशिश के बावजूद पढ़ नहीं पाता। पहले उसे लगा था कि यह अंगरेजी की कोई किताब होगी। पर वह अंगरेजी की किताब नहीं थी। मजबूरन उसे पूछना पढ़ा , ' यू फ्राम  ? '

' फ़्रांस !'

वह समझ गया है कि उस फॉरेनर के हाथ में जो किताब है , फ्रेंच में है। फ्रेंच जिस में साइंस और टेक्नॉलजी की सब से ज़्यादा किताबें हैं। लेकिन लोग समझते हैं ज्ञान विज्ञान की सारी किताबें अंगरेजी में हैं। जब कि ऐसा नहीं है। हां , अंगरेजी ने यह होशियारी ज़रूर की है कि फ्रेंच में लिखी साइंस की सारी किताबों को अंगरेजी में बिना अनुवाद किए जस का तस उठा लिया रोमन में। बता दिया कि यह अंगरेजी है। फ्रेंच पीछे रह गई , अंगरेजी आगे निकल गई। कोई भी व्यक्ति , कोई भी भाषा इसी होशियारी , इसी लचीलेपन और इसी उदारता से आगे बढ़ सकती है । जैसे अंगरेजी बढ़ गई। ठस हो कर अड़ियल हो कर नहीं बढ़ सकती थी अंगरेजी। हर अच्छी चीज़ को बिना किसी ना नुकुर के पूरी ईमानदारी से स्वीकार कर लेना ही तरक्की की बड़ी निशानी होती है।

दोनों फ्रांसीसियों से जब उस ने यह बात कही तो उन के चेहरों पर कड़वाहट भरी मुस्कान आ गई। अंगरेजी जैसे उस की टूटी फूटी और कामचलाऊ थी , वैसे ही इन दोनों फ्रांसीसियों की अंगरेजी भी टूटी फूटी और कामचलाऊ ही थी। लेकिन बतियाने के लिए काफी थी। मामूली सी केप्री और टी शर्ट पहने दोनों फ्रांसीसी पचास , पचपन के आस पास के थे। दोनों ही बचपन के दोस्त थे। उन का दोस्ताना अब तक अपनी बुलंदी पर था। उन्हें उम्मीद थी कि उन का दोस्ताना आजीवन चलेगा। पूछा कि , ' इंडिया कैसे आना हुआ ? कोई ख़ास काम ?'

' नो वर्क , वनली ट्रेवलिंग। '

पता चला दोनों गज़ब के घुमक्क्ड़ हैं। घुमक्क्ड़ी उन का नशा है , पैशन है। हर साल वह कहीं न कहीं घूमने के लिए निकल जाते हैं। हर साल कम से कम एक महीना दुनिया का कोई न कोई देश घूमते हैं। उस ने उन के मामूली कपड़ों पर नज़र डालते हुए पूछ लिया है , ' फिर तो आप लोग काफी पैसे वाले , रिच लोग हैं। '

' नो , नो ! नाट रिच। ' वह दोनों बताते हैं कि एक दोस्त छोटी सी नौकरी में है। जब कि दूसरे की एक छोटी सी दुकान है। लेकिन घूमना उन का जूनून है। विद्यार्थी जीवन से ही उन को घूमने का नशा है। पहले फ़्रांस के भीतर ही दोनों साथ-साथ घूमते थे , अब पूरी दुनिया घूम रहे हैं। सो हर महीने इस घूमने के लिए छोटी-छोटी बचत करते रहते हैं। जहां भी जाते हैं पूरी प्लानिंग कर के जाते हैं। गूगल आदि से हर जगह के बारे में जानकारी इकट्ठा करते हैं। दूरी , खर्चा सब का गुणा भाग करते हैं। अमूमन पेइंग गेस्ट का ऑप्शन लेते हैं। या फिर कोई सस्ता गेस्ट हाऊस। होटल तो कभी सोचते ही नहीं। सामान बहुत कम रखते हैं। इस बात पर उस ने चेक किया कि उन दोनों के पास एक-एक हैण्ड बैग ही है। जिन में चार , छह कपडे से ज़्यादा की जगह नहीं है। तब जब कि वह महीने भर से इंडिया घूम रहे हैं। दूसरी तरफ वह है जो सिर्फ़ चार दिन के लिए बनारस आया था लेकिन बड़ा सा सूटकेस ले कर। उसे अपनी बेटी की कही बात याद आ जाती है , ' पापा कहीं जाइए तो कम से कम सामान ले कर चला कीजिए। आराम रहता है। ज़्यादा सामान रहने से आदमी घूमता कम है , सामान ज़्यादा ढोता है। ' पर जाने क्यों वह दो दिन के लिए भी कहीं जाता है तो कम से कम चार , छह सेट कपड़ा रख कर चलता है कि पता नहीं क्या पहनने का मन कर जाए। और वह न रहने पर अफ़सोस हो। हां , जहाज की वजन सीमा ने ज़रूर ज़्यादा सामान ले कर चलने पर ब्रेक लगा दिया है। लेकिन इन फक्क्ड़ फ्रांसीसियों को देख कर लगता ही नहीं कि इतने कम कपड़ों में भी महीना भर घूमा जा सकता है। वह उन से पूछता भी है , ' इतने कम कपड़ों में कैसे काम चलता है ? '

' कोई दिक्कत नहीं होती। ' वह बड़े ठाट से बताता है , ' घूमने आए हैं , कपड़ा पहनने नहीं। ' उस का दूसरा साथी  जैसे जोड़ता है , '  हियर नो फैशन परेड ! '

' अच्छा , जब कपड़े गंदे हो जाते हैं तब ? '

' जहां ठहरते हैं , वहीँ साबुन से धो कर सुखा लेते हैं। '

' लांड्री में नहीं देते ? ‘ वह पूछता है।

' नो !' वह बोलता है , ‘ यह तो खर्चा बढ़ाना हुआ। '

वह दंग है फ्रांसीसियों की इस सादगी पर। उन की इस कमखर्ची पर।

' अच्छा आप लोग सपरिवार क्यों नहीं घूमते। बिना परिवार के घूमने पर आप उन को मिस नहीं करते ? ' वह जोड़ता है , ‘ बिना परिवार के कहीं घूमना मुझे नहीं भाता । मिस करता रहता हूं , वाइफ को , बच्चों को । '

' मिस तो हम भी करते हैं। ' एक फ्रांसीसी बोला , ' लेकिन कभी-कभी विद फेमली भी घूमने निकले हैं। पर एक तो खर्च ज़्यादा हो जाता है। दूसरे , हर साल बीवियां घूमना नहीं चाहतीं। ' दूसरे  फ्रांसिसी ने बीच में जोड़ा , ' जूनून नहीं है  ट्रेवलिंग का उन लोगों में । शौक नहीं है। '

' ओ के। ' कह कर उस ने पूछ लिया है कि , ' बनारस कैसा लगा ? '

' शानदार ! गंगा और गंगा का किनारा। हटने का , छोड़ने मन नहीं करता। आरती , बोटिंग आल थिंग , वेरी व्यूटीफुल। ' तब तक दूसरा फ्रांसीसी , फ्रांसीसी लहजे में बोला , ' हर हर गंगे , हर हर महादेव ! ' फिर दोनों ही बनारसीपन के विवरण और उस के विस्तार में आ गए । बताने लगे कि शहर कोई भी हो , अमूमन वह शहर को भी ज़्यादातर पैदल चलते हुए देखते हैं। टैक्सी वगैरह से बचते हैं।

' क्या आप लोग स्प्रिचुवल हैं ? ' उस ने उन्हें कुरेदने की कोशिश की।

' नो , नो ! ' दोनों एक साथ बोले , ' वी आर वनली फनी !' एक ने जैसे जोड़ा , ' फनी ट्रेवलर !' वह बनारस और बनारसी लहजे को अख्तियार करने की कोशिश करते हैं। किसी भी टूरिस्ट की तरह बनारस उन्हें भा गया है। सारनाथ भी गए थे एक दिन। दोनों बताने लगे हैं कि वह तो चार दिन बनारस रह कर लौट रहे हैं। बनारस में और रहना चाहते थे। मंदिर , गंगा और घूमना चाहते थे। लेकिन फरदर प्लान और रिजर्वेशन के कारण वह जल्दी लौट रहे हैं। वह उन्हें बनारस और मोक्ष के विवरण में ले जाता है।  तो एक फ्रांसीसी बोला , ' यस यस आरती। हम ने आरती देखी है। गंगा आरती। व्यूटीफुल !'

' आप को मालूम है कि पौराणिक कथाओं के मुताबिक बनारस , जिस का एक नाम काशी भी है , भगवान शिव के त्रिशूल पर बसी है। धरती पर नहीं। '

' ओह नो , डोंट नो। '

पर वह उन्हें राजा हरिश्चंद्र , उन के सत्य , दान और डोम की नौकरी का किस्सा अपनी टूटी-फूटी अंगरेजी में नैरेट करता है। दोनों यह किस्सा मुंह बा कर सुनते हैं। सुन कर बोलते हैं , हाऊ इट्स पॉसिबिल ! '

' बट इट वाज !' वह आहिस्ता से बताता है। 

वह दोनों कंधे उचका कर रह जाते हैं।  फिर वह बनारस का डिटेल बताने लगते हैं। डिटेल बताते-बताते एक जगह विस्मय से उन की आंखें फैल जाती हैं। उन का विस्मय है कि यह कैसे संभव है कि एक ही सड़क पर सांड़ , गाय और आदमी एक साथ चलते हैं। ख़ास कर बनारस की सड़कों पर जगह-जगह सांड़ का उपस्थित होना , उन का गोबर में लिथड़े होना , उन्हें कतई अच्छा नहीं लगा है। यह बताने पर कि काशी की एक पहचान में यह भी शुमार है। रांड़ , सांड़ , संन्यासी की अवधारणा भी बताता है वह । पर दोनों फ़्रांसिसी इसे ठीक नहीं मानते। मुंह बिचका कर रह जाते हैं।

उन्हें हर हर महादेव की याद दिलाते हुए बताता हूं कि सांड़ के ही प्रतिरुप बंसहा बैल यानि नंदी महादेव की सवारी कही जाती है। तो एक फ़्रांसिसी बोला , ' इट्स ओके , बट वेरी हारेबिल !'

कोई स्टेशन आ गया है। कोई ट्रेन में चढ़ रहा है , कोई उतर रहा है। गहमागहमी सी है। हमारे ऊपर की ख़ाली बर्थ पर एक फैशनेबिल महिला आ गई हैं। चाहती हैं कि मैं ऊपर चला जाऊं और वह नीचे की बर्थ ले लें। विनय पूर्वक मना करता हूं। बताता हूं कि हम लोग साथ हैं और हमारी बातचीत चल रही है। महिला दोनों फ्रांसीसियों को घूरती है और उस से पूछती है , ' आप इन के गाइड हो ? '

' नहीं , सहयात्री हूं !'

महिला मुंह बनाती हुई ऊपर के बर्थ पर चली गई है। ट्रेन चल पड़ी है। वह बाहर देख रहा है। किसी खेत में झुंड की झुंड महिलाएं पानी भरे खेत में धान रोप रही हैं। वह सोचता है कि शायद धान रोपती यह औरतें कोई लोकगीत भी ज़रुर गा रही होंगी। जैसे उस के गांव में गाती हैं। उधर ऊपर की बर्थ से महिला की नाक बजने लगी है दिनदहाड़े। इधर दोनों फ्रांसीसियों से उस की बातचीत जारी है। वह बता रहे हैं कि यह सफ़र उन का आगरा के लिए है। तीन दिन वह आगरा में रुकेंगे। ताजमहल देखेंगे। मथुरा और वृंदावन भी। फतेहपुर सीकरी भी। पेइंग गेस्ट के रूप में उन की जगह बुक है छह सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से। बनारस में भी छह सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से रुके थे। इंटरनेट ने सब कुछ बहुत आसान कर दिया है। वह बता रहे हैं कि फ़्रांस से भी वह पहले दिल्ली आए थे। आगरा से होते हुए दिल्ली लौटेंगे। वहां भी रुकने की जगह बुक है। दिल्ली से  फ़्रांस के लिए एयर टिकट बुक है। भारत घूम कर दोनों फ़्रांसिसी बहुत खुश हैं। यह पूछने पर कि , ' क्या वह फिर भारत घूमने आएंगे ? '

' श्योर । अभी साऊथ इंडिया हमारे प्लान में है। ' वह बोले , ' इस बार नार्थ इंडिया का ही प्लान था। '

' कभी नार्थ ईस्ट का भी प्लान कीजिए। '

' श्योर ! ' कहते हुए उन के हाथ में इंडिया का नक्शा आ गया है।

' और किन-किन देशों की यात्रा कर ली है उन्हों ने ? '

' पूरा यूरोप , पूरा अमरीका। ' एक फ़्रांसिसी बोला , ' अब इधर की बारी है। '

' चीन गए हैं कभी ? '

' यस। बट चीन इज वेरी चीटिंग कंट्री। कदम कदम पर चीटिंग है। ' कहते हुए दोनों फ्रांसीसियों के चेहरे का ज़ायका बिगड़ गया है। '

' और पाकिस्तान ? '

' नो , नो ! ' एक फ़्रांसिसी अपना चेहरा बिगाड़ते हुए बोला , ' सोच भी नहीं सकते। '

' क्यों ? '

' इट्स टेररिस्ट कंट्री। नाट सेफ फार टूरिस्ट। ' वह बोला , ' नेवर !' उस के चेहरे पर अजब सी दहशत थी। पेरिस में दिल दहला देने वाली आतंकवादी घटनाओं की तफसील में दोनों फ़्रांसिसी आ गए। बहुत देर तक वह उसी तफ़सील में उलझे रहे। बिस्किट खाते हुए , चाय पीते रहे और पेरिस को इस्लामिक आतंकवाद ने कैसे तहस नहस कर दिया था , देखते ही देखते कितने लोगों की जान चली गई थे के डिटेल में वह आ गए थे। भूल गए थे काशी की गंगा और उस का दिलकश नज़ारा। आरती और बोटिंग। सांड़ और उस की विद्रूपता। आगरा के ताजमहल की ख़ूबसूरती की चर्चा भी वह करना भूल गए। गनीमत थी कि लखनऊ आ गया था। मैं उतरने लगा तो डब्बे से उतर कर वह दोनों फ़्रांसिसी भी प्लेटफार्म पर आ गए। उसे सी आफ करने। दोनों उस से गले लगे और सेल्फी ली। लेकिन उन के चेहरे पर आतंक की इबारत जैसे तारी थी।

स्टेशन से वह घर आ गया है। नहा-धो कर बिस्तर पर मसनद लगा कर बैठ गया है। पर उस के कान में अभी भी गूंज रहा है , ' फनी ट्रैवलर ! ' साथ ही वह सोचता है , कभी अवसर मिला , पैसा इकट्ठा हुआ तो वह भी दुनिया घूमेगा। कम से कम फ्रांस तो घूमेगा ही। ऐसा सोचते ही उस ने नेट पर फ़्रांस के बारे में जानकारियां सर्च करनी शुरु कर दी है। उसे याद आ गया है कि उस के शहर की यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के लेक्चरर जो कभी अंग्रेजीदां थे पर फ्रांस से रिसर्च कर जब लौटे थे तो कहते थे , ' यह तो फ्रांस जा कर ही समझ में आया , 'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल !' भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध कविता निज भाषा का यह दोहा , वह जब तब सुनाते रहते थे। उस ने पाया कि वह दोनों फ्रांसीसी सह यात्री भी अंगरेजी के बजाय फ्रेंच की किताब पढ़ रहे थे। अंगरेजी उन की भी तंग थी , जैसे कि उस की है। वह पत्नी से चर्चा करते हुए बताता है कि , ' मालूम है सफ़र में आज दो परदेसी मिल गए थे। ' अचानक वह बात बदलता है कि , ' परदेसी नहीं , फ्रांसीसी मिले थे। दो फ्रांसीसी ! '

' परदेसी कहा पहले फिर फ्रांसीसी कह रहे हैं। फ़र्क़ क्या है ? थे तो विदेशी ही। ' पत्नी ने प्रतिवाद किया है। 

' विदेशी और फ़्रांसिसी में फ़र्क़ है। ' वह बोला , ' फिर वह फनी ट्रैवलर थे। अपनी भाषा से प्यार करने वाले। ' जल्दी ही वह पत्नी से फ्रांस यात्रा की कल्पना करते हुए बताता है , थोड़ा-थोड़ा पैसा बचाते हैं। साल नहीं , तो दो-तीन साल में सही , फ़्रांस चलते हैं। 

' न नौ मन तेल होगा , न राधा नाचेगी ! ' कह कर पत्नी , कंबल ओढ़ कर लेट गई है। उस का मन हुआ है कि ए सी बंद कर दे। ताकि कोप भवन का कंबल हट जाए। और उठ कर उस ने ए सी बंद कर दिया है। नींद आ गई है। सपने में वह फ्रेंच सीखने लगा है। 

[ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित पत्रिका साहित्य भारती के 
जुलाई-सितंबर , 2022 अंक में प्रकाशित ]






Wednesday 14 September 2022

हम हिंदी की जय जयकार करने वाले कुछ थोड़े से बचे रह गए लोग

दयानंद पांडेय 

जैसे नदियां , नदियों से मिलती हैं तो बड़ी बनती हैं , भाषा भी ऐसे ही एक दूसरे से मिल कर बड़ी बनती है। सभी भाषाओँ को आपस में मिलते रहना चाहिए। संस्कृत , अरबी , हिंदी , उर्दू , फ़ारसी , अंगरेजी , तमिल , तेलगू , कन्नड़ , मराठी , बंगाली , रूसी , जापानी आदि-इत्यादि का विवाद बेमानी है। अंगरेजी ने साइंस की ज्यादातर बातें फ्रेंच से उठा लीं , रोमन में लिख कर उसे अंगरेजी का बना लिया। तो अंगरेजी इस से समृद्ध हुई और फ्रेंच भी विपन्न नहीं हुई। भाषा वही जीवित रहती है जो नदी की तरह निरंतर बहती हुई हर किसी से मिलती-जुलती रहती है। अब देखिए गंगा हर नदी से मिलती हुई चलती है और विशाल से विशालतर हुई जाती है। हिंदी ने भी इधर उड़ान इसी लिए भरी है कि अब वह सब से मिलने लगी है। भाषाई विवाद और छुआछूत भाषा ही को नहीं मनुष्यता को भी नष्ट करती है। भाषा और साहित्य मनुष्यता की सेतु है , इसे सेतु ही रहने दीजिए।

हम तो जानते और मानते थे कि हिंदी हमारी मां है , भारत की राज भाषा है। लेकिन कुछ साल पहले हिंदी दिवस पर माकपा महासचिव डी राजा ने एक नया ज्ञान दिया था कि हिंदी हिंदुत्व की भाषा है। उधर हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी ने भी यही जहर उगला। ओवैसी ने कहा है कि भारत हिंदी , हिंदू और हिंदुत्व से बड़ा है। यह सब तो कुछ वैसे ही है जैसे अंगरेजी , अंगरेजों की भाषा है। उर्दू , मुसलामानों की भाषा है। संस्कृत पंडितों की भाषा है। इन जहरीलों को अब कौन बताए कि भाषा कोई भी हो , मनुष्यता की भाषा होती है। संस्कृत , हिंदी हो , अंगरेजी , उर्दू , फ़ारसी , अरबी , रूसी , फ्रेंच या कोई भी भाषा हो , सभी भाषाएं मनुष्यता की भाषाएं है। सभी भाषाएं आपस में बहने हैं , दुश्मन नहीं। पर यह भी है कि जैसे अंगरेजी दुनिया भर में संपर्क की सब से बड़ी भाषा है , ठीक वैसे ही भारत में हिंदी संपर्क की सब से बड़ी भाषा है। तुलसी दास की रामायण पूरी दुनिया में पढ़ी और गाई जाती है। लता मंगेशकर का गाना पूरी दुनिया में सुना जाता है।

तीन वर्ष पहले तमिलनाडु के शहर कोयम्बटूर गया था , वहां भी हिंदी बोलने वाले लोग मिले। शहर में हिंदी में लिखे बोर्ड भी मिले। ख़ास कर बैंकों के नाम। एयरपोर्ट पर तो बोर्डिंग वाली लड़की मेरी पत्नी को बड़ी आत्मीयता और आदर से मां कहती मिली। मंदिरों में हिंदी के भजन सुनने को मिले। मेरी बेटी का विवाह केरल में हुआ है। वहां हाई स्कूल तक हिंदी अनिवार्य विषय है। मेरी बेटी की चचिया सास इंडियन एयर लाइंस में हिंदी अधिकारी हैं। मेरे दामाद डाक्टर सवित प्रभु बैंक समेत हर कहीं हिंदी में ही दस्तखत करते हैं। मेरे पितामह और पड़ पितामह ब्राह्मण होते हुए भी उर्दू और फ़ारसी के अध्यापक थे। हेड मास्टर रहे। महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश के लोगों ने मेरे हिंदी उपन्यासों पर रिसर्च किए हैं। अभी भी कर रहे हैं। पंजाबी , मराठी , उर्दू और अंगरेजी में मेरी कविताओं और कहानियों के अनुवाद लोगों ने अपनी पसंद और दिलचस्पी से किए हैं। मराठी की प्रिया जलतारे जी [ Priya Jaltare ] तो जब-तब मेरी रचनाओं , कविता , कहानी , ग़ज़ल के मराठी में अनुवाद करती ही रहती हैं ।

मुंबई में भी लोगों को बेलाग हिंदी बोलते देखा है । नार्थ ईस्ट के गौहाटी , शिलांग , चेरापूंजी , दार्जिलिंग , गैंगटोक आदि कई शहरों में गया हूं , हर जगह हिंदी बोलने , समझने वाले लोग मिले हैं। कोलकाता में भी। श्रीलंका के कई शहरों में गया हूं। होटल समेत और भी जगहों पर लोग हिंदी बोलते , हिंदी फिल्मों के गाने गाते हुए लोग मिले। तमाम राष्ट्राध्यक्षों को नमस्ते ही सही , हिंदी बोलते देखा है। लेकिन भारत ही एक ऐसी जगह है जहां लोग हिंदी के नाम पर नफ़रत फैलाते हैं। महात्मा गांधी गुजराती थे लेकिन उन्हों ने हिंदी की ताकत को न सिर्फ़ समझा बल्कि आज़ादी की लड़ाई का प्रमुख स्वर हिंदी ही को बनाया। अंगरेजी वाले ब्रिटिशर्स को हिंदी बोल कर भगाया। गुजराती नरेंद्र मोदी भी दुनिया भर में अपने भाषण हिंदी में ही देते हैं। उन की हिंदी में ही दुनिया भर के लोग उन के मुरीद होते हैं। अभी जल्दी ही अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि नरेंद्र मोदी अंगरेजी अच्छी जानते हैं पर बोलते हिंदी में ही हैं। प्रधान मंत्री रहे नरसिंहा राव तेलुगु भाषी थे पर हिंदी में भाषण झूम कर देते थे।

जयललिता भले हिंदी विरोधी राजनीति करती थीं पर हिंदी फ़िल्मों की हिरोइन भी थीं। धर्मेंद्र उन के हीरो हुआ करते थे। जयललिता हिंदी अच्छी बोलती भी थीं। वैजयंती माला , वहीदा रहमान , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी , विद्या बालन आदि तमाम हीरोइनें तमिल वाली ही हैं। बंगाली , मराठी , पंजाबी और तमिल लोगों का हिंदी फिल्मों में जो अवदान है वह अद्भुत है। निर्देशन , गीत , संगीत , अभिनय आदि हर कहीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर विदेश मंत्री जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दे कर हिंदी की वैश्विक पताका फहराई थी तो पूरा देश झूम गया था। सुषमा स्वराज ने बतौर विदेश मंत्री , संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी द्वारा बोए हिंदी के बीज को वृक्ष के रूप में पोषित किया। यह अच्छा ही लगा कि आज एक और गुजराती अमित शाह ने हिंदी के पक्ष में बहुत ताकतवर और बढ़िया भाषण दिया है। अमित शाह के आज के भाषण से उम्मीद जगी है कि हिंदी जल्दी ही राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। शायद इसी लिए डी राजा समेत ओवैसी समेत कुछ लोग बौखला कर हिंदी को हिंदुत्व की भाषा बताने लग गए हैं। इन की बौखलाहट बताती है कि हिंदी भाषा का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।

राजनीतिक दलों के बगलबच्चा विभिन्न लेखक संगठनों ने राजनीतिक दलों का एजेंडा सेट करने के अलावा क्या कभी लेखकों की भी कोई लड़ाई लड़ी है ? लड़ाई तो छोड़िए अपने लिखे की मजदूरी यानी सो काल्ड रायल्टी तक की लड़ाई भी लड़ते किसी ने देखा है कभी ? तब जब कि कम से कम सरकारी ख़रीद में ही बाकायदा नियम है कि लेखक को रायल्टी दी गई है , इस की एन ओ सी देने पर ही प्रकाशक को भुगतान दिया जाए। सारे बेईमान प्रकाशक लेखकों के फर्जी दस्तखत से सरकारी भुगतान के लिए एन ओ सी दे कर भुगतान ले लेते हैं। करोड़ो रुपए का यह खेल है । और यह दुनिया भर की लड़ाई का स्वांग भरने वाले लेखक और लेखक संगठन अपनी ही लड़ाई लड़ने से सर्वदा भाग जाते हैं। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसा लेते हैं। कांग्रेस और वाम दलों के टुकड़ों पर खेलने , खाने वाले लेखक संगठनों की यह हिप्पोक्रेसी अब किसी से छुपी नहीं है। सोचिए कि जो लोग अपनी और अपने श्रम की मेहनत का दाम पाने के लिए टुच्चे और भ्रष्ट प्रकाशकों से नहीं लड़ सकते , वह लोग फासिस्ट ताकतों से , बाज़ार से , सांप्रदायिकता से और जाने किस , किस और इस , उस से लड़ने का दम भरते हैं। जैसे भारत का विपक्ष जनता जनार्दन से कट कर सारी लड़ाई सोशल मीडिया पर लड़ने की हुंकार भरता रहता है , हमारे लेखक और लेखक संगठन भी जनता जनार्दन से कट कर हवा में काठ की तलवार भांजते हैं। 

नकली कहानी , नकली कविता और एक दूसरे की पीठ खुजाती आलोचना के औजार से वह समाज को , व्यवस्था को एक झटके से बदल देने का सपना देखते हैं , लफ्फाजी झोंकते हैं और शराब पी कर सो जाते हैं। नहीं जानते कि अधिकांश जनता आखिर क्यों गेरुआ हुई जा रही , नहीं चाहते कि जनता का मिजाज बदले । चाहते तो लफ्फाजी और हिप्पोक्रेसी की अपनी यह चादर उतार कर जनता से मिलते , जनता को समझते , समझाते। समाज और व्यवस्था को बदलने की ज़मीनी बात करते। बात करना तो दूर इन हिप्पोक्रेट लेखकों , कवियों की सारी रचनात्मकता एक व्यक्ति और एक पार्टी की नफ़रत में खर्च हुई जाती दिखती है। कोई किसी पन्ने पर उल्टी कर रहा है , कोई किसी पन्ने पर पेशाब कर रहा है , कोई किसी पन्ने को कमोड बना कर आसीन है। लेकिन इस फासिज्म , इस सांप्रदायिकता , इस बाज़ार से लड़ती एक कारगर रचना नहीं कर पा रहा कोई। कालजयी रचना तो बहुत दूर की बात है। जो लोग खुद की सुविधा नहीं छोड़ सकते , खुद को नहीं बदल सकते , वह लोग व्यवस्था बदल देने का नित नया पाखंड भाख रहे हैं। नफरत और घृणा का प्राचीर रच रहे हैं। भूल गए हैं कि साहित्य समाज को तोड़ने का औजार नहीं , साहित्य समाज का सेतु होता है। धन्य , धन्य कवि और धन्य , धन्य कविता ! और क्या कहें , कैसे और कितना कहें !

हर भाषा का सम्मान करना सीखिए। हर भाषा स्वाभिमानी होती है । आन-बान-शान होती है । याद रखिए कि भाषा का भेद और भाषा का अपमान दुनिया का भूगोल बदल देता है। मनुष्यता चीखती है । अगर भारत के विभाजन का कारण धार्मिक था , इस्लामिक कट्टरपन था और पाकिस्तान बना । तो भाषाई भेद भाव ही था जो बांग्लादेश बना । बांग्ला भाषियों पर अगर जबरिया उर्दू न थोपी गई होती , फौजी बूटों तले बांग्ला न दबाई गई होती तो दुनिया का भूगोल नहीं बदलता , बांग्लादेश नहीं बनता । मनुष्यता अपमानित न हुई होती । लाखो-करोड़ो लोग अनाथ और बेघर न हुए होते । हिंदी दिवस पर हिंदी की जय ज़रुर कीजिए , ख़ूब जोर-शोर से कीजिए पर दुनिया भर की भाषाओँ का सम्मान करते हुए । किसी का अपमान करते हुए नहीं । भाषाई औरंगज़ेब बनने से हर कोशिश , हर संभव बचिए ।

पहले अ पर ए की मात्रा लगा कर एक लिखा जाता था। गांधी की पुरानी किताबें उठा कर देखिए। कुछ और ही वर्तनी है। गुजराती से मिलती-जुलती। भारतेंदु की , प्रेमचंद की पुरानी किताबें पलटिए वर्तनी की लीला ही कुछ और है। सौभाग्य से मैं ने तुलसी दास के श्री रामचरित मानस की पांडुलिपि भी देखी है। श्री रामचरित मानस के बहुत पुराने संस्करण भी। वर्तनी में बहुत भारी बदलाव है। वर्तनी कोई भी उपयोग कीजिए , बस एकरूपता बनी रहनी चाहिए। अब यह नहीं कि एक ही पैरे में सम्बन्ध भी लिखें और संबंध भी । आए भी और आये भी। गयी भी और गई भी। सभी सही हैं , कोई ग़लत नहीं। लेकिन कोशिश क्या पूरी बाध्यता होनी चाहिए कि जो भी लिखिए , एक ही लिखिए। एकरूपता बनी रहे। यह और ऐसी बातों का विस्तार बहुत है। भाषा विज्ञान विषय और भाषाविद का काम बहुत कठिन और श्रम साध्य है। लफ्फाजी नहीं है। पाणिनि होना , किशोरी प्रसाद वाजपेयी होना , भोलानाथ तिवारी होना , रौजेट होना , अरविंद कुमार होना , बरसों की तपस्या , मेहनत और साधना का सुफल होता है। व्याकरणाचार्य होना एक युग की तरह जीना होता है। वर्तनी और भाषा सिर्फ़ विद्वानों की कृपा पर ही नहीं है। छापाखानों का भी बहुत योगदान है। उन की सुविधा ने , कठिनाई ने भी बहुत से शब्द बदले हैं। चांद भले अब सपना न हो , पर चंद्र बिंदु अब कुछ समय में सपना हो जाएगा। हुआ यह कि हैंड कंपोजिंग के समय यह चंद्र बिंदु वाला चिन्ह का फांट छपाई में एक सीमा के बाद कमज़ोर होने के कारण टूट जाता था। तो कुछ पन्नों में चंद्र बिंदु होता था , कुछ में नहीं। तो रसाघात होता था। अंततः धीरे-धीरे इस से छुट्टी ली जाने लगी। बहस यहां तक हुई कि हंस और हंसने का फर्क भी कुछ होता है ? पर छापाखाने की दुविधा कहिए या सुविधा में यह बहस गुम होती गई। यही हाल , आधा न , आधा म के साथ भी होता रहा तो इन से भी छुट्टी ले ली गई। ऐसे और भी तमाम शब्द हैं । जब कंप्यूटर आया तो और बदलाव हुए। यूनीकोड आया तो और हुए। अभी और भी बहुत होंगे। तकनीक बदलेगी , बाज़ार और मन के भाव बदलेंगे तो भाषा , शब्द और वर्तनी भी ठहर कर नहीं रह सकेंगे। यह सब भी बदलते रहेंगे। भाषा नदी है , मोड़ पर मोड़ लेती रहेगी। कभी करवट , कभी बल खा कर , कभी सीधी , उतान बहेगी। बहने दीजिए। रोकिए मत। वीरेंद्र मिश्र लिख गए हैं , नदी का अंग कटेगा तो नदी रोएगी। भाषा और नदी कोई भी हो उसे रोने नहीं दीजिए , खिलखिलाने दीजिए।

हम हिंदी की जय जयकार करने वाले कुछ थोड़े से बचे रह गए लोगों में से हैं । हिंदी हमारी अस्मिता है । हमारा गुरुर , हमारा मान है । यह भी सच है कि सब कुछ के बावजूद आज की तारीख में हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है । पर एक निर्मम सच यह भी है कि आज की तारीख में हिंदी की जय जयकार वही लोग करते हैं जो अंगरेजी से विपन्न हैं । हम भी उन्हीं कुछ विपन्न लोगों में से हैं । जो लोग थोड़ी बहुत भी अंगरेजी जानते हैं , वह हिंदी को गुलामों की भाषा मानते हैं । अंगरेजी ? अरे मैं देखता हूं कि मुट्ठी भर उर्दू जानने वाले लोग भी हिंदी को गुलामों की ही भाषा न सिर्फ़ मानते हैं बल्कि बड़ी हिकारत से देखते हैं हिंदी को । बंगला , मराठी , गुजराती , तमिल , तेलगू आदि जानने वालों को भी इन उर्दू वालों की मानसिकता में शुमार कर सकते हैं । नई पीढ़ी तो अब फ़िल्में भी हालीवुड की देखती है , बालीवुड वाली हिंदी फ़िल्में नहीं । पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी के लिए हिंदी अब दादी-दादा , नानी-नाना वाली भाषा है । वह हिंदी की गिनती भी नहीं जानती । सो जो दयनीय हालत कभी भोजपुरी , अवधी की थी , आज वही दयनीयता और दरिद्रता हिंदी की है । तो जानते हैं क्यों ? हिंदी को हम ने कभी तकनीकी भाषा के रुप में विकसित नहीं किया । विज्ञान , अर्थ , कानून , व्यापार कहीं भी हिंदी नहीं है । तो जो भाषा विज्ञान और तकनीक नहीं जानती , उसे अंतत: बोली जाने वाली भाषा बन कर ही रह जाना है , मर जाना है । दूसरे हिंदी साहित्य छापने वाले प्रकाशकों ने हिंदी को रिश्वत दे कर सरकारी ख़रीद की गुलाम बना कर मार दिया है । लेखक-पाठक का रिश्ता भी समाप्त कर दिया है । साहित्यकार खुद ही लिखता है , खुद ही पढ़ता है । हम हिंदी की लाख जय जयकार करते रहें , पितृपक्ष में हिंदी दिवस मनाते रहें , हिंदी अब सचमुच वेंटीलेटर पर है , बोलने वाली भाषा बन कर । ऐसे में भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह कविता और ज़्यादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो जाती है :

मातृ-भाषा के प्रति / भारतेंदु हरिश्चंद्र


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।


अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।

पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।


उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।

निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।


निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।

लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।


इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।


और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।


तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।

यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।


भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।


सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।


Monday 12 September 2022

अयोध्या में जय श्री राम के बाद अब बनारस में हर-हर महादेव !

दयानंद पांडेय 


अयोध्या में जय श्री राम के बाद आज बनारस में हर-हर महादेव हो गया। मैं क़ानून का विद्यार्थी नहीं हूं लेकिन अनुभव के आधार पर इतना तो जानता ही हूं कि अदालत में अगर कोई याचिका एडमिट हो जाती है तो मुकदमा जीतना मात्र औपचारिकता ही होती है। थोड़ा नहीं , पूरा समय लगता है लेकिन देर-सवेर विजय मिलती ही है। इसी लिए हार रहा पक्ष अमूमन मेनटेनेबिलिटी का नगाड़ा बजता फिरता रहता है। अगर जज पट जाता है तो कई बार रिट मेनटेनेबिल होते हुए भी एडमिट नहीं होती। पर काशी में जज न तो पटा पाए लोग , न जज सेक्यूलरिज्म की रतौंधी का शिकार हुआ। कांग्रेस का वर्शिप ऐक्ट धूल चाट गया।

अब चाहे जितनी और जैसी यात्राएं कर ले कांग्रेस , इस सदी में उसे सत्ता नहीं मिलने वाली। सत्ता की शहद का स्वाद उसे नहीं मिलने वाला। क्यों कि काशी भी अयोध्या की राह चल पड़ी है। मामला स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा। समय लगेगा। पर न्याय की गंगा हिमालय से चल पड़ी है। फिर हम सब जानते ही हैं कि नदी जब चल पड़ती है तो किसी के रोके नहीं रुकती है। जिस भी तरफ चल पड़ती है , रास्ता बन जाता है। मंथरा का यह संवाद कोई नृप होई हमें का हानि ! की कुटिलता आज फिर ध्वस्त हो गई। नृप से बहुत फ़र्क पड़ता है। 

भारतीय संस्कृति और हिंदू देवी देवताओं को अपमानित और लांछित करने की प्रवृत्ति अगर नहीं होती एक समुदाय द्वारा तो शायद यह दिन आज देखने को नहीं मिलता। शिव लिंग को वजू खाने में अभी भी उपस्थित रख कर रोज उस पर थूकने और हाथ-पांव धो कर अपमानित करने की प्रवृत्ति ने शिवलिंग को प्रमाण बना दिया और बात बहुत आगे बढ़ गई। कबीर कह ही गए हैं :

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप। 

अब से सही एक समुदाय अपनी पूर्व की गलतियों को स्वीकार कर चीज़ों को ठीक कर ले। सोच-विचार कर आक्रमणकारी प्रवृत्ति , ज़िद और सनक से छुट्टी ले  ले।  ताकि समाज में आपसी सद्भाव बना रहे। सत्यम , शिवम , सुंदरम की परिकल्पना ही भारतीयता की पहचान है। लोक कल्याण ही अभीष्ट है।

 श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा,

पितु मात स्वामी सखा हमारे, हे नाथ नारायण वासुदेवा।

Saturday 3 September 2022

स्वयं को मिटा कर औरों के लिए होना ही है , पहले आप ! और यह लखनऊ सिखाता है

दयानंद पांडेय 

फ़ोटो : रवि कपूर 

अपनी नफ़ासत , नज़ाकत और लताफ़त के लिए जाने जाने वाले लखनऊ का नाम भर लीजिए और आप के अधर जैसे शहद में डूब जाते हैं। जुबान पर मिठास घुल जाती है। मन में मिसरी सी फूट जाती है। लखनऊ का  दशहरी आम और उस की मिठास की चर्चा दुनिया भर में होती है। लखनऊ की मोहब्बत के क्या कहने। मोहब्बत के फूल खिलते हैं यहां। सर्वदा। किसी शहर में शायद ही लव लेन हो। लखनऊ के हज़रतगंज में है। लखनऊ एक शहर नहीं , बांसुरी की मीठी तान है। किसी संतूर के मीठी धुन सी मिठास है लखनऊ में। शक़ील बदायूनी जैसे मशहूर शायर लखनऊ का दूसरा नाम ज़न्नत भी बताते रहे हैं अपने गीतों में। इस लिए भी कि लखनऊ पहले आप , पहले आप ! की तहज़ीब का शहर है। पहले आप का अर्थ है दूसरों के लिए सोचना। उन का खयाल रखना। पहले आप का एक यह अर्थ यह भी है कि अपने आप को मिटा देना। अपने आप को विसर्जित कर देना। स्वयं को मिटा कर औरों के लिए होना। औरों के लिए जीना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। पहले आप , पहले आप कहते हुए नवाबों की ट्रेन छूट जाने के किस्से और गाने भी खूब लिखे गए हैं। लखनऊ में नवाबों की नज़ाकत का आलम तो कभी यह था कि एक बार किसी ट्रेन से दो नवाब लखनऊ स्टेशन पर उतरे। दोनों के पास कोई सामान नहीं था। एक नवाब बुजुर्ग थे सो उन के पास छड़ी थी। उन्हों ने एक कुली बुलाया। कुली को छड़ी दिया और कहा कि छड़ी ले चलो ! दूसरे नवाब नौजवान थे। सो उन के पास छड़ी भी नहीं थी। फिर भी उन्हों ने कुली बुलाया और उसे टिकट देते हुए कहा कि , टिकट ले चलो ! सुबहे बनारस , शामे अवध की कहावत में लखनऊ का ही ज़िक्र है। क्यों कि लखनऊ की शाम बड़ी रंगीन होती है। लखनऊ के हुस्न का आलम यह है कि कभी नवाब वाज़िद अली शाह ने कुल्लियाते अख्तर में लिखा था :

लखनऊ हम पर फ़िदा है हम फ़िदा-ए-लखनऊ 

आसमां की क्या हकीकत जो छुड़ाए लखनऊ। 

जैसे इटली के रोम शहर के बारे में कहा जाता है कि रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ वैसे ही लखनऊ का निर्माण भी कोई एक-दो दिन में नहीं हुआ। किसी भी शहर का नहीं होता। कहते हैं कि अयोध्या के राजा राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने इस नगर को बसाया। इस नगर को लक्ष्मणपुरी से लक्ष्मणावती और लखनावती होते हुए लखनऊ बनने में काफी समय लगा। गो कि पुराने लखनऊ में कुछ लोग इसे आज भी नखलऊ कहते हुए मिलते हैं। प्रागैतिहासिक काल के बाद यह क्षेत्र मौर्य,शुंग, कुषाण, गुप्त वंशों और फिर कन्नौज नरेश हर्ष के बाद गुर्जर प्रतिहारों, गहरवालों, भारशिवों तथा रजपसियों के अधीन रहा है। इन सभी युगों की सामग्री जनपद में अनेक स्थानों से प्राप्त हुई है। लक्ष्मण टीले, गोमती नगर के पास रामआसरे पुरवा, मोहनलालगंज के निकट हुलासखेडा़ एवं कल्ली पश्चिम से प्राप्त अवशेषों ने लखनऊ के इतिहास को ईसा पूर्व लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व तक पीछे बढ़ा दिया है। ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच यहां मुसलमानों का आगमन हुआ। इस प्रकार यहां के पूर्व निवासी भर, पासी, कायस्थ तथा ब्राह्मणों के साथ मुसलमानों की भी आबादी हो गई। फ़्रांसीसियों ने कभी लखनऊ में घोड़ों और नील का व्यापार भी किया था। 

लखनऊ गजेटियर में लक्ष्मण टीला के महत्व का वर्णन विस्तार से है। कहते हैं कि वर्तमान में दो सौ मीटर लंबे चौड़े लक्ष्मण टीला का विस्तार इस से कई गुना ज़्यादा था। मान्यता है कि अयोध्या के राजा राम के अनुज लक्ष्मण ने इसे बसाया। लखनऊ का शेष तीर्थ अर्थात लक्ष्मण टीला लखनऊ के सांस्कृतिक इतिहाहास का मूल केंद्र बिंदु है। इसी कारण लखनऊ का मूल नाम लक्ष्मणपुरी के पुरातात्विक सपदा की धरोहर है यह लक्ष्मण टीला। कुछ लोग इस लक्ष्मणपुरी को लखनपुरी भी कहते रहे हैं। टाल्वायज व्हीलर ने लक्ष्मण टीला को आर्यों की दस प्राचीनतम गढ़ियों में से एक बताया है। जब कि पुरातत्वविद डाक्टर सांकलिया के मुताबिक़ प्राचीनतम अवशेषों का अपार संग्रहालय है यह लक्ष्मण टीला। डाक्टर सांकलिया के मुताबिक़ ईसा पूर्व कई सदी से ले कर शुंग , कुषाण और गुप्तकालीन सभ्यता के तमाम प्रामाणिक अवशेष यहां से मिलते रहे हैं। जो भी हो अब लक्ष्मण टीला ही टीले वाली मस्जिद के रूप में लखनऊ में परिचित है। लक्ष्मण टीला की अराजी पर आसफी इमामबाड़ा , मच्छी भवन आदि बनाए गए। मच्छी भवन ही अब मेडिकल कालेज का विशाल परिसर है।  

लखनऊ के स्वाभाविक आचरण के अनुरुप यहां राजपूत तथा मुगल वास्तु-कला शैली के मिले-जुले स्थापत्य वाले भवन बड़ी संख्या में मिलते हैं। भवन निर्माण कला के उसी इंडोसिरेनिक स्टाइल में कुछ कमनीय प्रयोगों द्वारा अवध वास्तुकला का उदय हुआ था। लखौरी ईंटों और चूने की इमारतें जो इंडोसिरेनिक अदा में मुसकरा रही हैं, यहां की सिग्नेचर बिल्डिंग बनी हुई हैं। इन मध्यकालीन इमारतों में गुप्तकालीन हिंदू सभ्यता के नगीने जड़े मिलेंगे। दिल्ली में गुलाम वंश की स्थापना काल से मुगलों की दिल्ली उजड़ने तक शेखों का लखनऊ रहा। इन छ: सदियों में सरज़मींने अवध में आफ़तों की वो आंधियां आईं कि हज़ारों बरस पहले वाली सभ्यता पर झाड़ू फिर गई। नतीज़ा यह हुआ कि वो चकनाचूर हिंदू सभ्यता या तो तत्कालीन मुस्लिम इमारतों में तकसीम हो गई या फिर लक्ष्मण टीला, किला मौहम्मदी नगर और दादूपुर की टेकरी में समाधिस्थ हो कर रह गई और यही कारण है कि लखनऊ तथा उस के आस-पास मंदिरों में खंडित मूर्तियों के ढेर लगे हैं।

छोटी सी छोटी चीज़ को भी बड़े औकात का दर्जा देना लखनऊ का मिजाज है। यहां लखौरियों से महल बन जाता है। कच्चे सूत का कमाल है, चिकन ! है किसी शहर में यह लियाकत? जादू सरसो पे पढ़े जाते हैं, तरबूज पर नहीं। लखनऊ वही सरसो है। लखनऊ वही जादू है। आप दुनिया के किसी शहर में चले जाइए, कुछ दिन रह जाइए या ज़िंदगी बिता दीजिए पर वहां के हो नहीं पाएंगे। पर लखनऊ में आ कर कुछ समय ही रह लीजिए आप यहां के हो कर रह जाएंगे। आप लखनऊवा हो जाएंगे। यह अनायास नहीं है कि दुनिया भर से आए लोग लखनऊ के हो कर रह गए। कुछ तो ऐसे भी लोग हैं जो लखनऊ से लौटे तो अपने-अपने देशों में जा कर लखनऊ नाम से नया शहर ही बसा बैठे। बहुत कम लोग जानते हैं कि कम से कम दुनिया के पांच और देशों में भी लखनऊ नाम के शहर हैं। जैसे अमरीका के हैरिसबर्ग में। कनाडा , सूरीनाम , त्रिनिदाद और गोयना में। लोग आए और लौट कर लखनऊ की मोहब्बत में नए-नए लखनऊ बसाए अपने-अपने देश में। इस लिए भी कि लखनऊ बेस्ट कंपोज़िशन सिटी आफ़ द वर्ड है। लखनऊ का दुनिया में कोई जोड़ नहीं है। बेजोड़ है लखनऊ। ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में जाने आलम वाजिद अली शाह ने कलकत्ते में अपनी नज़रबंदी के दौरान कहा था कि, ' कलकत्ता मुल्क का बादशाह हो सकता है लेकिन रुह का बादशाह लखनऊ ही रहेगा क्यों कि इंसानी तहज़ीब का सब से आला मरकज़ वही है।' आला मरकज़ मतलब महान केंद्र। लखनऊ के लिए वाज़िद अली शाह के ही एक शेर में जो कहें कि :

 दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं

ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं

कभी नवाबी रंग में डूबे लखनऊ की मिट्टी से एक तूफ़ान उठा जिस ने नई नवेली विदेशी सत्ता की एक बार जड़ें हिला दीं। इस तूफ़ान का नाम गदर था। बेगम हज़रतमहल ने जी-जान से सन सत्तावन की इस आग को भड़काया था। लखनऊ ने हंस के शमाएं वतन के परवानों को इस आग में जलते देखा है। राजा जिया लाल सिंह को फांसी पर चढ़ते देखा है और मौलवी अहमदुल्ला उर्फ़ नक्कारा शाह की जांबाज़ी के नमूने देखे हैं, मगर मुद्दतों से मराज और मोहताज़ हिंदुस्तानी एक अरसे के लिए गोरों की गिरफ़्त में आ गए। अंगरेजों द्वारा कैसरबाग लूट लिया गया। करोड़ों की संपदा कौड़ी के मोल बिक रही थी। जिन के पांवों की मेंहदी देखने को दुनिया तरसती थी, वह बेगमात अवध नंगे सिर बिन चादर के महल से निकल रही थीं। जो नवाबज़ादे घोड़ी पर चढ़ कर हवाखोरी करते थे वे फ़िटन हांकने लगे थे। 

कभी तवायफ़ रहीं बेग़म हज़रतमहल ने अपने पति और लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह को छुड़ाने के लिए लखनऊ में ही तलवार निकाली थी। लड़ते-लड़ते वह कोलकोता तक पहुंची थीं। जहां वाजिदअली शाह नज़रबंद थे। कहते हैं कि बड़ा इमामबाड़ा में जब ब्रिटिश सेना ने हमला किया तो सब लोग भाग गए। नवाब वाजिदअली शाह इस लिए नहीं भाग पाए क्यों कि उन को जूता पहनाने वाला कोई नहीं था। यह उन का नवाबी ठाट था। अंगरेज जब उन्हें गिरफ़्तार कर ले जाने लगे और उन के सिर से उन का ताज उतार लिया तो वह बहुत रोए। रोते हुए ही उन्हों ने बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए जैसा मार्मिक गीत लिखा। जिसे कालांतर में मशहूर गायक कुंदन लाल सहगल ने गाया। यह गीत इतना मशहूर हुआ कि कुंदन लाल सहगल का सिग्नेचर गीत बन गया। कुंदन लाल सहगल इस गीत को फिल्म में गाने के लिए इसे सीखने मुंबई से लखनऊ आए थे। भातखण्डे संगीत विद्यालय में रह कर इसे गाना सीखा। वाजिदअली शाह नृत्य और संगीत के बेहद जानकार थे। सौ से अधिक पुस्तकें हैं उन की इस विषय पर। 

1857 की जंगे-आज़ादी में लखनऊ की जो भूमिका रही है वो किसी की नहीं है। ईस्ट इंडिया कंपनी के 4 दुर्दांत सेना नायकों में से सिर्फ़ एक कालिन कैंपबेल ही यहां से सही सलामत लौट पाया था। लखनऊ का कातिल हेनरी लारेंस, कानपुर का ज़ालिम जनरल नील, दिल्ली का धूर्त नृशंस मेजर हडसन तीनों लखनऊ में यहां के क्रांतिकारियों द्वारा मार गिराए गए। और लखनऊ का मूसाबाग, सिकंदरबाग, आलमबाग, दिलकुशा, कैसरबाग, रेज़ीडेंसी के भवन हमारे पूर्वजों की वीरता के गवाह हैं। साइमन कमीशन का जैसा विरोध लखनऊ ने किया , किसी ने नहीं। जहां साइमन कमीशन की बैठक चल रही थी , वहां पूरी किलेबंदी थी। ऐसी कि हवा भी न जा सके। पर लखनऊ के लोगों ने पतंग पर अपना विरोध दर्ज कर पतंग उड़ाते हुए उस बैठक में पतंग गिरा कर अपना विरोध दर्ज करवाया था। काकोरी कांड को लोग कैसे भूल सकते हैं भला। काकोरी की ऐतिहासिक घटना ने भारतीय क्रांतिकारियों के साहस और देशप्रेम की कथा को आज भी लोग याद कर के पुलकित हो जाते हैं। चलती ट्रेन से अंगरेजों का खजाना लूटने वाले रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाकुल्ला खां , राजेंद्र लाहिड़ी , रोशन सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों की कीर्तिगाथा आज भी मन में ताज़ा है। बीते कारगिल युद्ध में भी लखनऊ के परमवीर चक्र विजेता मनोज पांडेय , महावीर चक्र विजेता सुनील जंग , युद्धवीर केवलानंद द्विवेदी तथा कीर्तिवीर ऋतेश शर्मा ने अपने प्राणो की आहुति दे कर लखनऊ का मस्तक ऊंचा किया। 

लखनऊ का कथक घराना विश्वविख्यात है। महाराज बिंदादीन और कालकादीन के कथक नृत्य कौशल की कथाएं लोक  में ही नहीं तमाम पुस्तकों में भी दर्ज हैं। कुदऊ सिंह ने पखावज वादन में और अहमदजान थिरकुआ ने तबला वादन में प्रसिद्धि पाई थी। नृत्य के क्षेत्र में ननहुआ , बचुआ और बड़ी जद्दन , छोटी जद्दन ने भी खूब ख्याति बटोरी थी। अल्लारक्खी का मुजरा सुनने तो निराला जी भी जाया करते थे। बेगम अख्तर की ग़ज़ल गायकी लखनऊ में ही परवान चढ़ी थी। 

हिंदी की पहली कहानी रानी केतकी की कहानी यहीं लखनऊ के लाल बारादरी भवन के दरबार हाल में सैय्यद इंशा अल्ला खां इंशा द्वारा लिखी गई। उर्दू का विश्वविख्यात उपन्यास उमराव जान अदा यहां मौलवीगंज में सैय्यद इशा अल्ला खां इंशा द्वारा लिखा गया। हिदुस्तान का पहला ओपेरा इंदर-सभा यहां गोलागंज में मिर्ज़ा अमानत द्वारा लिखा गया। मामूली से मामूली को बडा़ से बडा़ रुतबा देना लखनऊ का मिजाज है। दूर-दूर के लोगों तक को अपना बना लेने का हुनर लखनऊ के पास है। उर्दू शायरी का लखनऊ स्कूल आज भी दुनिया में लाजवाब है। मीर तकी मीर , मजाज लखनवी जैसे शायर , नौशाद , मदनमोहन जैसे संगीतकार , तलत महमूद , अनूप जलोटा जैसे गायक लखनऊ की ही देन हैं। मुंशी नवलकिशोर प्रेस द्वारा प्रकाशित उर्दू , अरबी ,फ़ारसी , आदि भाषाओँ की पुस्तकें दुनिया भर में मशहूर हुईं। तमाम फ़िल्मों की कथाओं और लोकेशन में लखनऊ खूब शुमार है। उमराव जान जैसी नायाब फिल्म के निर्देशक मुज़्ज़फ़्फ़र अली लखनऊ में ही रहते हैं। यशपाल , भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर जैसे उपन्यासकारों की त्रिवेणी लखनऊ में ही रहती थी। अमृतलाल नागर चौक में रहते थे और अपने को चौक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर कहते थे। इस लिए भी कि अपनी कहानियों , उपन्यासों में वह लखनऊ उस में भी चौक की कथा ही कहते थे। प्रेमचंद , निराला और पंत जैसे लेखकों और कवियों ने लखनऊ में अपनी रचनाधर्मिता के कई पाठ लिखे हैं। सरस्वती के संपादक रहे पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी लखनऊ के खुर्शीदबाग़ में ही रहे। प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी की कर्मभूमि रही है लखनऊ। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी पत्रकारिता , कविता और राजनीति का लंबा समय लखनऊ में जिया। यहीं से चुनाव लड़ कर , जीत कर वह तीन बार प्रधान मंत्री बने। 

गोमती नदी के किनारे बसा लखनऊ अब गोमती नदी के दोनों तरफ इस तरह बसा दीखता है गोया आजू-बाजू दो भुजाएं हों उस की। गरज यह कि गोमती नदी अब लखनऊ के बीच से बहती है। लखनऊ कभी बागों का शहर था। चारबाग़ , आलमबाग़ , मूसाबाग़ , कैसरबाग़ , विलायतीबाग़ , ऐशबाग़ , ख़ुर्शीदबाग़ , सिकंदरबाग़ , बनारसीबाग़ , डालीबाग़ जैसी जगहें अभी भी इस की गवाही देती हैं। अपने नवाबी अंदाज़ , सलीक़े , मुग़लिया खाना , किसिम-किसिम के कबाब  , चिकन के कपड़ों , जरदोजी के काम के लिए जाने जाना वाला यह लक्ष्मणपुरी से लखनऊ बनने वाला लखनऊ अब नवाबों की नगरी से आगे अब आई. टी. हब बनने की ओर बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। बड़े-बड़े कारपोरेट हाऊस हैं यहां । आधुनिक शिक्षा का बड़ा केंद्र भी है अब लखनऊ । दर्जनों विश्वविद्यालय , मेडिकल कालेज , इंजीनियरिंग कालेज हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी होने के कारण राजनीति का बड़ा केंद्र है लखनऊ । बड़ी-बड़ी आलीशान हवेलियों के लिए जाने जाने वाले इस लखनऊ में भी अब गगनचुंबी इमारतों की इफरात है। मेट्रो की रफ़्तार है। योगेश प्रवीन लखनऊ के बारे में लिखते हैं :

लखनऊ है तो महज़, गुंबदो मीनार नहीं

सिर्फ़ एक शहर नहीं, कूच और बाज़ार नहीं

इस के आंचल में मुहब्बत के फूल खिलते हैं

इस की गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं


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1 - लखनऊ का रंग और रुआब 

Friday 2 September 2022

लखनऊ का रंग और रुआब

दयानंद पांडेय 

फ़ोटो : रवि कपूर 

इंडिया में एक प्रदेश उत्तर प्रदेश की राजधानी है लखनऊ। राजा राम के प्राचीन कोसल राज्य का यह हिस्सा था कभी। राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को इसे सौंप दिया था। पहले इस का नाम लक्ष्मणपुरी था। बदलते-बदलते लखनपुरी  हुआ फिर लखनपुर और अब लखनऊ। लखनऊ बहुत शानदार शहर है। यहां का लजीज खाना और नवाबी नज़ाकत की कहानियां बहुत हैं। लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों की अपनी ही शान है। लखनऊ का चिकन का कपड़ा भी दुनिया भर में मशहूर है। जैसे दिल्ली में लाल क़िला है , पुराना क़िला है , कुतुबमीनार है। वैसे ही लखनऊ में लक्ष्मण टीला है। बड़ा इमामबाड़ा है। हुसैनाबाद इमामबाड़ा है जिसे छोटा इमामबाड़ा भी कहते हैं। रूमी दरवाज़ा है। घंटाघर है। रेजीडेंसी है। बनारसी बाग़ है। दिलकुशा है। और भी बहुत कुछ। 

बड़ा इमामबाड़ा में एक भूलभुलैया भी है। अगर आप लखनऊ आए और भूलभलैया नहीं देखा तो क्या देखा। 1784 में अवध के नवाब आसफउद्दौला ने इस भूलभुलैया को बनवाया था। एक जैसे घुमावदार रास्ते ही इस की खासियत है। लोग कहते हैं दीवार के कान नहीं होते। पर भूलभुलैया की दीवारों के कान भी हैं। कहीं भी कुछ भी कोई बोले , कितना भी धीरे से बोले , फुसफुसा कर बोले , सब को , सब तरफ सुनाई देता है। कहीं कोई दियासलाई भी जलाए तो सभी को पता चल जाए। भूलभुलैया के दीवारों की नक्काशी और कलाकारी भी खूब है। भूलभुलैया की दीवारें सीमेंट , सरिया से नहीं बनाई गई हैं। इन दीवारों को उड़द व चने की दाल , सिंघाड़े का आटा , चूना , गन्ने का रस , गोंद , अंडे की जर्दी , सुर्खी यानी लाल मिट्टी , चाश्नी , शहद , जौ का आटा और लखौरी ईंटों से बनाया गया है। भूलभुलैया के बीचोबीच बने पर्शियन हाल की लंबाई 165 फ़ीट है। बिना किसी अतिरिक्त पिलर के। आसफउद्दौला ने इस भूलभुलैया को असल में सुरक्षा कारणों से बनवाया था। यहां सुरक्षाकर्मी तैनात रहते थे। भूलभुलैया का एक हिस्सा जलमहल भी है। इसी जलमहल में खजाना  रखा जाता था। भूलभुलैया में खड़े हो कर सीधे गोमती नदी के उस पार दूर-दूर तक देखा जा सकता था कि कोई आक्रमणकारी तो नहीं आ रहा। भूलभुलैया से कई सुरंगें भी कई शहरों को जाती थीं , ऐसा कहते हैं। अब सभी सुरंगें बंद हैं। और जलमहल भी। कहा जाता है कि भयानक अकाल से परेशान जनता की मदद के लिए आसफउद्दौला ने इस भूलभुलैया को बनवाया था। यह वही इमामबाड़ा है जहां नवाब वाजिदअली शाह को अंगरेजों ने गिरफ्तार किया था और उन्हें कोलकाता ले गए। वाजिदअली शाह ने यहीं मशहूर गीत बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए तभी लिखा था। 

बड़ा इमामबाड़ा से थोड़ी ही दूर पर हुसैनाबाद इमामबाड़ा है जिसे छोटा इमामबाड़ा भी कहते हैं। यह आज भी सजा-संवरा दीखता है। इसे अवध के तीसरे बादशाह मुहम्मद अली शाह ने बनवाया था। 1837 और 1842 के बीच मुहम्मद अली शाह ने अवध में शासन किया। इसी बीच उन्हों ने इसे बनाया। छोटे इमामबाड़े का सबसे बड़ा आकर्षण है, इस भवन में सजे हुए बेल्जियम कांच की कीमती झाड़ फानूस, कंदीलें, दीवारगीरियां और शमादान। इमामबाड़े पर कमरखीदार सुनहरा गुम्बद है, जिसके बुर्जों की खूबसूरती देखते बनती है। रूस के एक टूरिस्ट ने इसे क्रेमलिन ऑफ इंडिया भी कहा था। 

जैसे दिल्ली में इंडिया गेट है। मुंबई में गेट वे आफ इंडिया है। वैसे ही लखनऊ में रूमी दरवाज़ा है। लखनऊ का प्रवेश द्वार। इसे तुर्कीश द्वार के नाम से भी जाना जाता है, जो 13 वीं शताब्‍दी के महान सूफी फकीर, जलाल-अद-दीन मुहम्‍मद रूमी के नाम पर पड़ा था। सन् 1784 में 60 फुट ऊंचे रूमी दरवाज़ा का निर्माण भी कहते हैं अकाल के दौरान ही लोगों की मदद के लिए आसफउद्दौला ने बनवाया था। आसफउद्दौला के इस तरह लोक कल्याणकारी कामों के कारण ही एक उक्ति बहुत मशहूर है। जिसे न दे मौला , उसे दे आसफउद्दौला ! न्‍यूयार्क टाइम्‍स के संवाददाता रसेल ने कभी लिखा था कि रूमी दरवाजा से छत्‍तर मंजिल तक का रास्‍ता सब से खूबसूरत और शानदार है जो लंदन, रोम, पेरिस और कांस्‍टेंटिनोपल से भी बेहतर दिखता है। 

वैसे तो भारत के तमाम शहरों में घंटाघर है। दिल्ली में भी। लेकिन लखनऊ का घंटाघर भारत का सब से ऊंचा घंटाघर बताया जाता है। 1887 में 221 फीट ऊंचे इस घंटाघर का निर्माण नवाब नसीरूद्दीन हैदर ने सर जार्ज कूपर के आगमन पर करवाया था। वे संयुक्त अवध प्रांत के प्रथम लेफ्टिनेंट गवर्नर थे। इसे ब्रिटिश वास्तुकला के सब से बेहतरीन नमूनों में माना जाता है। गोमती नदी के किनारे रेज़ीडेंसी का निर्माण भी 1775 में अंग्रेजों को रहने के लिए आसफुद्दौला ने शुरू करवाया था जिसे नवाब सादत अली खान द्वारा पूरा किया गया। 33 एकड़ में फैले रेजीडेंसी में अंग्रेजों ने अपना मुख्यालय बनाया था। रेजीडेंसी में कई सारी ऐतिहासिक इमारतें हैं। रेजीडेंसी का इतिहास बताने के लिए यहां आज भी एक म्यूजियम है। लगभग खंडहर में तब्दील होती रेजीडेंसी पर्यटकों की फिर भी प्रिय जगह है। रेजीडेंसी में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर अत्याचार की हज़ारों कहानियां दफ़न हैं। तमाम तहखानों वाले इस रेजीडेंसी में अंगरेजों का तोपखाना , ट्रेजरी भी था। फांसी घर भी। यहां भयानक लड़ाई हुई थी अंगरेजों और स्वतंत्रता सेनानियों के बीच। 

नवाब वाज़िदअली शाह की बेग़म हजरतमहल ने अंगरेजों के खिलाफ बड़ी निर्णायक लड़ाई लड़ी थी और कोलकाता तक लड़ने गई थीं। उन की याद में बेगम हज़रत महल पार्क रेजीडेंसी से थोड़ी दूर पर ही बनाया गया है। दिलकुशा भी लखनऊ की महत्वपूर्ण जगह है। 1800 में इसे नवाब के दोस्त ब्रिटिश मेजर गोर आस्ले ने बनवाया था। इस भव्य कोठी की खासियत है कि इस में कोई एक आंगन नहीं है। तब जब कि उन दिनों आंगन का खूब चलन था। इंग्लैण्ड के नार्थम्बरलैंड के सिटान डेलवाल हॉल के पैटर्न पर बनाई गई दिलकुशा कोठी गोमती नगर के किनारे है। नवाबों के शिकार लॉज के रूप में इस का खूब इस्तेमाल हुआ। अब दिलकुशा भले खंडहर में तब्दील है पर खंडहर बताते हैं कि इमारत कभी बुलंद थी। 

हिंदी और उर्दू के तमाम मशहूर लेखकों के लिए जाने जाने वाला लखनऊ बागों का भी शहर है। चारबाग , कैंसरबाग़ , आलमबाग , खुर्शीदबाग , डालीबाग , ऐशबाग , सिकंदरबाग , बनारसीबाग़ जैसे तमाम नाम हैं। पर अब यह सारे बाग़ मुहल्लों में बदल गए हैं और लोग यहां रहते हैं। बनारसीबाग़ में ही अब चिड़ियाघर है। जब कि सिकंदरबाग़ में नेशनल बॉटोनिकल गार्डेन का मुख्यालय है। हां , अब कुछ नए पार्क बने हैं। बहुत आलिशान और भव्य पार्क। अंबेडकर पार्क , लोहिया पार्क , जनेश्वर मिश्र पार्क , कांशीराम पार्क और रमाबाई पार्क। जनेश्वर मिश्र पार्क एशिया के सब से बड़े पार्क में शुमार है। जब कि रमाबाई पार्क दुनिया का सब से बड़ा पार्क है , जहां एक साथ पांच लाख लोग एक साथ इकट्ठा हो सकते हैं। दुनिया में अभी ऐसी कोई दूसरी जगह नहीं है जहां एक साथ पांच लाख लोग इकट्ठा हो सकें। लखनऊ की बात हो और यहां के दशहरी आम का ज़िक्र न हो , यह हो ही नहीं सकता। मलीहाबाद के दशहरी आम की मिठास और खुशबू दुनिया भर में मशहूर है। लखनऊ की रेवड़ी , गजक जैसी मिठाइयां भी बहुत मशहूर हैं। कुल्फी फालूदा भी। पान मलाई के तो कहने ही क्या। लखनऊ के टुंडे के कबाब और सींक कबाब भी बहुत मशहूर हैं। लखनऊ में अब मेट्रो भी है , गगनचुंबी इमारतें भी। लखनऊ अब आई टी हब बनने की तरफ बहुत तेज़ी से अग्रसर है। दिल्ली में अगर चांदनी चौक है तो लखनऊ में उसी की तरह अमीनाबाद है। दिल्ली में अगर कनॉट प्लेस है तो लखनऊ में हज़रतगंज है। दिल्ली में नई दिल्ली है तो यहां  भी नया लखनऊ है। शानदार एयरपोर्ट है। कई सारे रेलवे स्टेशन और अंतरराज्यीय बस अड्डे हैं। एक से एक शानदार और रुआबदार मॉल और वेब हैं। 

लखनऊ जब बसा था तो गोमती नदी के किनारे बसा था। पर अब लखनऊ को देख कर लगता है कि लखनऊ गोमती नदी के किनारे नहीं , गोमती नदी अब लखनऊ के बीच से बहती है। जैसे लंदन में टेम्स नदी। लखनऊ का वैभव अब लंदन से कम भी नहीं। रहते थे कभी यहां नवाब , और अंगरेज भी। पर अब यहां अंगरेजी जानने वाले अंगरेजियत में तर-बतर लोग भी बेशुमार मिलते हैं। नवाब और उन की नवाबी तो बस अब क़िस्से कहानियों में दफ़न हैं। लखनऊ अब राजनीति का गढ़ है। दिल्ली और देश की राजनीति की दशा और दिशा भी अकसर यहीं से तय होती है। 


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1 - स्वयं को मिटा कर औरों के लिए होना ही है , पहले आप ! और यह लखनऊ सिखाता है