Saturday, 27 February 2016

मेरे ही कांधे पर सिर रख कर दुलराना मुझे

फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह


 ग़ज़ल 

अच्छा लगा तुम्हारा इस तरह गुहराना मुझे 
मेरे ही कांधे पर सिर रख कर दुलराना मुझे   

सब कुछ भूल भाल कर चंद्रमा को निहारना
मेरी ही गोद में बैठ कर फिर ललचाना मुझे 

हर बात पर अड़ना बिफरना तुम्हारी अदा 
हर पल हर कहीं हर बात पर तरसाना मुझे 

नहीं एक वह दिन भी था जब तुम ही तुम थी 
चांदनी में तुम्हारा नहाना फिर भरमाना मुझे 

चांदनी अलग तड़पे और बरखा अलग बरसे 
तुम्हारा एक ही काम हर हाल तड़पाना मुझे 

डराती रहती हो नाराज होती रहती हो बेवज़ह
फिर भी भेजती रहती  इश्क का परवाना मुझे 

जाने यह अभिनय है कि हक़ीक़त है राम जाने 
मर-मर जाता हूं पुकारती हो जब दीवाना मुझे

[ 28 फ़रवरी , 2016 ]

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-02-2016) को "हम देख-देख ललचाते हैं" (चर्चा अंक-2267) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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