Tuesday 28 February 2023

शैलनाथ कहूं कि श्रवण कुमार

दयानंद पांडेय 


नाम भले उन का शैलनाथ चतुर्वेदी है पर मैं जब भी उन्हें याद करता हूं तो उन की छवि मेरे मन में श्रवण कुमार की उभरती है। हिंदी पट्टी में ऐसा कोई दूसरा श्रवण कुमार मैं ने नहीं देखा। आगे भी भला कहां देखूंगा। मेरा सौभाग्य है कि मैं ने इस परिवार की चार पीढ़ी को देखा है और कि पाया है कि यह समूचा परिवार ही श्रवण कुमार के सूत्र में निबद्ध है। यह श्रवण कुमार का सूत्र जैसे शैलनाथ जी अपने परिवार को विरासत के तौर पर सौंप गए हैं। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी जिन्हें हिंदी समाज के लोग भैया साहब या भैया जी नाम से गुहराते हैं उन्हें भी मैं ने  देखा है। उन के सुपुत्र पंडित शैलनाथ चतुर्वेदी को भी , फिर शैलनाथ जी के सुपुत्र अरविंद चतुर्वेदी को और अरविंद जी के सुपुत्र हेमंग चतुर्वेदी भी हमारे सामने हैं। शैलनाथ जी श्रवण कुमार के सूत्र जैसे अपने परिवारीजनों के बीच रोप गए हैं। इस की लताएं और इस की शाखाएं निरंतर पुष्पित और पल्ल्वित होते देखना सुखद है। दाऊ जी गुप्त शैलनाथ जी के बाल सखा हैं। वह अपनी बातचीत में अकसर शैल जी के साथ रबड़ी-मलाई खाने का ज़िक्र बड़ी नफ़ासत से ले आते हैं। बात कहीं की हो रबड़ी-मलाई उन के बीच उपस्थित हो जाती है। मैं अब जब शैल जी की याद करता हूं तो उन के व्यक्तित्व में इस रबड़ी-मलाई का स्वाद भी महसूस करता रहता हूं। वही मिठास , वही तरलता और वही सोंधापन। निर्मल और अविरल। जैसे मीठी नदी की धार हो। अमृत सरीखी।

एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा कि किस नदी का पानी सब से अच्छा है। बीरबल ने छूटते ही जवाब दिया कि यमुना का पानी। अकबर ने बीरबल को टोका कि तुम ने गंगा का नाम नहीं लिया। बीरबल ने कहा , आप ने पानी के बारे में पूछा था , तो मैं ने पानी के बारे में ही बताया। रही बात गंगा की तो वह तो अमृत है , पानी नहीं। अकबर चुप हो गया। तो शैलनाथ जी वही अमृत थे। शैलनाथ जी के छोटे-छोटे काम बाद के दिनों में कितने तो बड़े होते गए। सोचिए कि इतिहास के विद्यार्थी , इतिहास के प्रोफेसर और इतिहास के शोधकर्ता रहे शैलनाथ जी ने हिंदी की जो अनन्य सेवा की है , कोई क्या करेगा। शैलनाथ जी अब खुद इतिहास भले हों गए हैं पर हिंदी में धड़कते मिलते हैं। अपनी पूरी त्वरा और ऊर्जा के साथ। ऐसी धड़कन दुर्लभ है , हिंदी में , जो अपनी ऐतिहासिकता में खनक कर धड़कती हो। इस लिए भी कि चतुर्वेदी परिवार का हिंदी में योगदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी है। इटावा मूल के शैलनाथ जी इलाहाबाद में जन्मे , वहीँ स्कूलिंग के बाद वह लखनऊ आ गए इतिहास पढ़ने। कुछ दिन लखनऊ के क्रिश्चियन कालेज में पढ़ाने के बाद शैलनाथ जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने पहुंच गए। उस गोरखपुर में जहां उन के पिता भैया जी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने 1935-36 में तीन दिन तक लगातार हिंदी का कवि सम्मेलन करवाने का रिकार्ड बनाया था । शैलनाथ जी मेरे पैदा होने के एक वर्ष पूर्व ही गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने पहुंच गए थे। और जब मैं पढ़ने गया तब तक वह वहां गुरुदेव के रूप में विख्यात थे। बहुत कम लोगों को शैलनाथ जी का नाम लेते देखा मैं ने। ज़्यादातर लोग उन्हें बहुत आदर के साथ गुरुदेव कह कर संबोधित करते। न सिर्फ़ इतिहास विभाग बल्कि दूसरे विभागों के लोग भी। उन की विद्वता , सरलता और विनम्रता के संगम में लोग नहा उठते। डुबकी मार कर जैसे तर जाते। उन के व्याख्यान , उन की शोध परक वृत्ति उन्हें बहुत से प्राध्यापकों से अलग पहचान देती। अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की विद्वता और लोकप्रियता की विरासत पर कभी उन्हों ने अभिमान नहीं किया बल्कि सर्वदा सदुपयोग किया। अपने पितामह पंडित द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी की संस्कृत की विरासत का भी उन्हों ने भरपूर मान रखा। उन की हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत पर समान पकड़ पर हम तो चमत्कृत थे , मोहित थे । हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत में धाराप्रवाह बोलते देख लोग मंत्रमुग्ध हो जाते। पर शैलनाथ जी अपनी धोती संभाले फिर लोगों के बीच समरस हो जाते।

गोरखपुर में मेरे गांव के पास ही है आमी नदी के किनारे बसा सोहगौरा गांव। सोहगौरा गांव में शैलनाथ जी ने खनन करवा कर कई सारे मिथक तोड़ दिए थे। नवपाषाण काल की संस्कृति के तमाम सारे अवशेष तो खोजे ही शैलनाथ जी ने , धान की खेती के बिंदु भी खोजे। जिसे कबीर के मगहर तक वह ले गए।  कुशीनगर के पास फाजिल नगर में की गई खुदाई ने भी उन्हें इतिहास में चर्चित किया। काबुल में मिले बुद्ध के भिक्षा पात्र पर भी अरबी फ़ारसी में कुछ लिखे जाने से बुद्ध का भिक्षा पात्र नहीं है की बात को नहीं माना। शैल जी का मानना था कि भिक्षा पात्र के कई स्थानों से हो कर गुजरने का उल्लेख मिलता है, इस लिए इस पर स्थानीय भाषाओं में कुछ उल्लेख मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस भिक्षा पात्र पर स्वस्तिक के भी चिह्न उत्कीर्ण हैं जिस से यह निश्चित रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित है ।

मैं ने कई बार पाया कि वह गोरखपुर से लखनऊ आ भले गए थे पर गोरखपुर उन के भीतर सर्वदा उपस्थित रहता था। बातचीत में वह किसी न किसी बहाने गोरखपुर ले ही आते थे। गोरखपुर में अपने सेवक को भी वह हमेशा याद करते थे।  उस के परिवार को भी। मुझे भी गोरखपुर का होने के कारण बहुत स्नेह करते थे। अमूमन रिटायर हो जाने के बाद लोग निष्क्रिय हो जाते हैं। लेकिन शैलनाथ जी तो रिटायर होने के बाद और सक्रिय हो गए। रिटायर होने के बाद गोरखपुर से वह लखनऊ आ गए। और मेरा सौभाग्य देखिए कि तब तक मैं भी गोरखपुर से दिल्ली होते हुए लखनऊ आ गया। लखनऊ के खुर्शीद बाग़ जहां कि वह रहते रहे हैं उस खुर्शीद बाग़ का ऐतिहासिक गेट एक बिल्डर ने प्रशासन की मदद से तुड़वाना चाहा तो शैलनाथ जी किसी एक्टिविस्ट की तरह जूझ गए और इस गेट को न सिर्फ़ टूटने से बचा लिया बल्कि इस का जीर्णोद्धार भी करवाया। अमीनाबाद के इतिहास पर उन की किताब की ख़ूब चर्चा हुई। बाबू गंगा प्रसाद वर्मा की जीवनी भी शैलनाथ जी ने पूरे प्राण-प्रण से लिखी और चर्चित हुई। शैलनाथ जी थे तो प्राचीन इतिहास के प्रोफ़ेसर पर रिटायर होने के बाद मध्यकालीन और समकालीन इतिहास पर भी उन्हों ने काम किया। न सिर्फ़ काम किया इतिहास की समग्र दृष्टि को बदल दिया। गजनी का सुल्तान महमूद और मथुरा तथा अमीनाबाद का इतिहास जैसी पुस्तकों को मैं इसी दृष्टि से देखता हूं। गोरखपुर के अपने कार्यकाल के समय शैलनाथ जी ने पड़रौना में विवेकानंद सेवा केंद्र खुलवाया था और तमाम पिछड़े गांवों को अपनाया था। लखनऊ में भी हिंदी वांग्मय निधि बना कर लखनऊ के इतिहास और गौरव पर हमारा लखनऊ नाम से जो किताबों की सीरीज शुरू की और उसे परवान चढ़ाया है वह बहुत ही सैल्यूटिंग है। दस-पंद्रह रुपए में अब किसी किताब के मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन शैलनाथ जी ने यह संभव किया है। पिता के नाम बढ़िया पुस्तकालय खोला। यह सुखद ही है कि उन के सुपुत्र अरविंद चतुर्वेदी ने शैलनाथ जी के इस महत्वपूर्ण काम को और बेहतर बनाते हुए जारी रखा है। न सिर्फ़ यह बल्कि शैलनाथ जी जिस तरह अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की जयंती हर साल समारोहपूर्वक मनाते थे , अरविंद चतुर्वेदी भी शैलनाथ जी द्वारा शुरू किए गए पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी जयंती कार्यक्रम को समारोहपूर्वक मनाते आ रहे हैं। अब अरविंद चतुर्वेदी को एक और जयंती कार्यक्रम अपने पिता शैलनाथ चतुर्वेदी पर भी आयोजित करना चाहिए हर साल। शैलनाथ जी के काम भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।  यह ठीक है कि पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी जगत के शीर्ष पुरुषों में हैं। शलाका पुरुष हैं। पितामह हैं।  वटवृक्ष  हैं। पर शैलनाथ जी भी अपने पिता से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। शैलनाथ जी का काम भी बोलता है। उन के द्वारा पिता की सेवा बोलती है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी सेवी थे , शैलनाथ जी भी हिंदी सेवी थे। उन के ऐतिहासिक और सामाजिक कार्य महत्वपूर्ण हैं। और इस सब से बढ़ कर वह पितृ सेवी भी थे।  पितृ-ऋण का निर्वाह तो कोई उन से सीखे।

शैलनाथ जी का एक उज्ज्वल पक्ष उन का गायन , उन का संगीत भी है। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्हों ने कब और कहां से ली मुझे नहीं मालूम पर उन का गायन आत्मा को तृप्त करता था। उन का भजन गायन जैसे सुख में डुबो देता था। और उन का बांसुरी वादन तो पूछिए मत। उन की रबड़ी-मलाई की तरह ही मधुरिमा लिए मन में झंकृत होती , झूमती गाती हुई , मन को पुकारती हुई बांध लेती थी। वह जिस तन्मयता और जिस भंगिमा से बांसुरी बजाते थे , उसी तन्मयता और उसी भंगिमा में डूब कर लोग सुनते भी थे। शैलनाथ जी मेरे पिता तुल्य थे लेकिन बातचीत में , व्यवहार में कभी जेनरेशन गैप नहीं आने देते थे। सर्वदा दोस्ताना रवैया होता उन का। कहने पर तो वह हमेशा मदद करते ही थे , बिना कुछ कहे भी मदद करना उन की फितरत थी जैसे। अनेक घटनाएं और अनेक बातें हैं। किन-किन का ज़िक्र करूं।  एक बार क्या हुआ कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर व्याख्यान के लिए नामवर सिंह को बुलाया। नामवर सिंह ने हजारी प्रसाद द्विवेदी पर अदभुत व्याख्यान दिया। मंत्रमुग्ध कर दिया। उस व्याख्यान में नामवर ने पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का भी ज़िक्र किया। सरस्वती के संदर्भ में। कि कैसे चतुर्वेदी जी ने श्रीराम चरित मानस की एक चौपाई पर विभिन्न विद्वानों से लिखवाया और कि उस एक चौपाई पर सरस्वती का विशेषांक निकाला। कार्यक्रम से वापस लौट कर रात में भोजन के बाद मन में आया कि नामवर जी के इस व्याख्यान पर अपने ब्लाग सरोकारनामा पर एक टिप्पणी लिखूं। कार्यक्रम के दौरान कुछ नोट तो किया नहीं था। बस स्मृतियों के सहारे लिखना था। लिखने लगा तो ऐन समय पर वह चौपाई ही भूल गया। प्रसंग तो याद था , घर में रामायण भी थी पर मानस में वह चौपाई कहां मिलेगी , तुरंत खोजना मुश्किल था। कुछ रामायण के जानकारों को फोन कर उस चौपाई के बारे में जानकारी मांगी , कोई नहीं दे पाया। देर रात हो गई थी। अकल काम नहीं कर रही थी। कि तभी शैलनाथ जी की याद आ गई। रात के कोई ग्यारह बज गए थे। संकोच में डूब कर ही सही उन को फोन किया। फ़ोन उन का उठ गया। मैं ने देर रात फोन करने के लिए क्षमा मांगी और नामवर जी के व्याख्यान का ज़िक्र करते हुए वह चौपाई जानने की अपनी जिज्ञासा जताई।  शैलनाथ जी बिलकुल विह्वल हो गए।  शैलनाथ जी ने न सिर्फ़ अयोध्या कांड की वह चौपाई मुझे लिखवाई बल्कि और भी बहुत सारी बातें बताते गए। और बताया कि सरस्वती का वह विशेषांक अस अदभुत बानी नाम से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित है। बाद के दिनों में यह पुस्तक भी अरविंद चतुर्वेदी जी ने मुझे दी। वह चौपाई है :

सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे॥
जिमि मुख मुकुर, मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥

सच कहूं तो इस चौपाई में कई बार मैं शैलनाथ जी को भी हेरता रहा हूं। उन के व्यक्तित्व में यह तत्व भी थे। शैलनाथ जी कम बोलते थे लेकिन अदभुत बोलते थे। उन में आलस तनिक भी न था। प्रचार और आत्म-मुग्धता आदि से भी कोसों दूर रहते थे। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी के जयंती समारोह में वह और उन की टीम के लोग इस सामूहिकता और तन्मयता से काम करते थे जैसे उन की मीठी बांसुरी बज रही हो।  वह प्रेस आदि को भी नहीं बुलाते थे। कहते थे जिस को आना हो आए , स्वागत है , न आना हो न आए। पंडित श्रीनारयण चतुर्वेदी खुद भी तमाशा अदि से हमेशा दूर रहने वालों में थे। शायद उन्हीं की इच्छा का मन और मान रखने के लिए उन के परिवारीजन प्रेस आदि के तमाशे आदि से इस कार्यक्रम को दूर रखते हैं। एक बार शैलनाथ चतुर्वेदी जी से बात चली तो वह कहने लगे कि हम तो प्रेस विज्ञप्ति भी कहीं नहीं भेजते छपने के लिए । पिता जिंदगी भर हिंदी के प्रचार में लगे रहे पर वहीं पुत्र शैलनाथ चतुर्वेदी ने प्रचार के तमाशे से अपने को सर्वदा दूर रखा। यह आसान बात नहीं थी। आसान नहीं था उन का इतनी सक्रियता के बावजूद रबड़ी-मलाई जैसी मिठास लिए गंगा जैसा अमृत बन कर हमारे बीच निरंतर बहना , बहते रहना। वह आज भी उसी कल-कल भाव से उसी निर्मल आनंद से , निश्छल भाव से हमारे मन में बहते रहते हैं। हमारे बीच शैलनाथ जी सर्वदा इसी भाव से उपस्थित हैं , रहेंगे। वह गए कहां हैं भला। 

[ सारस्वत परंपरा के संवाहक : प्रो शैलनाथ चतुर्वेदी पुस्तक में प्रकाशित ]







Thursday 23 February 2023

इस जहरीले श्वान को देखिए

बीते 19 फ़रवरी को एक पोस्ट लिखी थी पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम। बहुत सारे वाद-विवाद-संवाद हुए। होते ही जा रहे हैं। 

पर इस जहरीले श्वान को देखिए और इस का 20 फ़रवरी की रात का यह कमेंट :

 पंडित को नाउ लोहार आदि से कई गुना दिया जाता हैं पंडित को 3000 -4000 दिया जाताहै तो नाउ लोहार आदिको हजार रुपयेही

इस श्वान को जवाब दिया तो इस ने तुरंत फ़ेसबुक को रिपोर्ट किया। फ़ेसबुक के अंधे नीति नियंताओं ने सेकेण्ड भर भी नहीं लगाया और मेरे प्रतिवाद को हटाते हुए मुझे दो दिन के लिए प्रतिबंधित कर दिया। फ़ेसबुक तो अंधा है ही। उस का कान अकसर कौवा ले ही जाता है। पर इस श्वान से आप मित्रों को ज़रुर पूछना चाहिए कि इस प्रतिवाद में क्या आपत्तिजनक है जो किसी समुदाय को आहत कर गई है ? वैसे भी यह श्वान मेरी मित्र सूची में नहीं है। लेकिन जब इस श्वान की वाल देखी तो पाया कि यह अपनी वाल पर बहुत कम पोस्ट करता है। वह भी सामान्य। ख़ैर , मेरा प्रतिवाद यह है , जो पोस्ट में भी उपस्थित है :

विष वमन के प्रवक्ता , किसी मांगलिक कार्य में नेतृत्व कौन करता है ? नाऊ , लोहार ? नाऊ , लोहार का क्या काम होता है , किसी मांगलिक कार्य में ? किसी ब्रिगेडियर और सिपाही का वेतन एक ही होता है क्या ? इंजीनियर और मज़दूर में फर्क करने की क्या ज़रुरत ? फिर जब नाऊ , लोहार को कम पैसा दे कर काम हो जाता है तो पंडित को बुलाना ही क्यों ? उन्हीं से काम चलाना चाहिए। काहे को पैसा फेकना। नाऊ , लोहार से ही मंत्रोच्चारण भी करवा लेना चाहिए। या फिर मंत्रोच्चारण की ज़रुरत भी क्या है। बिना इस के ही काम चला लेना चाहिए। किसी संविधान या क़ानून में तो लिखा नहीं कि पंडित को बुलाया जाना अनिवार्य है। गोली मारिए पंडित को।

एक कोई सुयोग्य गुप्ता [ Suyogya Gupta ] भी बहुत उछाल कूद करता रहा इस पोस्ट पर और लोगों के तमाम प्रतिवाद को जब झेल नहीं पाया तो मुझे ब्लॉक कर चंपत हो गया। 

नाम तो इस श्वान का संदिग्ध लग ही रहा है तो आई डी का भी क्या कहें ! बहरहाल आप मित्रों की सुविधा के लिए यमन जीत की आई डी का लिंक यह रहा :

https://www.facebook.com/profile.php?id=100037701014418&comment_id=Y29tbWVudDo2NTc4MTkxMzg4ODYwODg2XzEzODI0MDIwMDU4NDc3MjM%3D








Sunday 19 February 2023

पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम

 दयानंद पांडेय 

समझ नहीं पाता कि पंडितों से चिढ़ने वाले लोग , पंडितों के चक्कर में पड़ते क्यों हैं। ऐसे पंडित अगर पढ़े-लिखे होते तो यह और ऐसा काम भी नहीं करते। क्यों करते भला , इतना अपमानजनक काम। नहीं देखा कभी किसी को कि प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि अयोग्य बुलाते हों घर पर और काम करवाते हों। 

पंडित ही अयोग्य क्यों बुलवाते हैं। 

इसी लिए अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम ! गरिया लीजिए। फिर पंडित की दिहाड़ी देने में दुनिया भर की नौटंकी। कभी किसी प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि को उस की दिहाड़ी देने में नौटंकी करते किसी को नहीं देखा। बल्कि उस की चिरौरी , मनुहार सब कुछ करते हैं लोग। समय पर आए , चाहे चार दिन बाद। लेकिन पंडित समय पर चाहिए। गोया बंधुआ हो।

बैंड बाजा , बघ्घी , आर्केस्ट्रा , डोम , लकड़ी , बिजली , डेकोरेशन , कैटरर्स आदि की फीस देने में किसी को मुश्किल नहीं होती। लेकिन एक पंडित ही है जिसे हर कोई गरियाता मिलता है। उस की फीस देने में सारे करम हो जाते हैं। एक दिन की मज़दूरी देना भी भारी लगता है। अगर इतना ही बोझ है यह पंडित तो फेंकिए इसे भाड़ में अपने घरेलू कार्यक्रम से। पारंपरिक काम से। उसे बुलाने और उस की अयोग्यता का गान गाने से फुरसत लीजिए। 

बिना पंडित के भी सारे  कार्यक्रम संपन्न होते हैं। हो सकते हैं। संपन्न कीजिए। दिक़्क़त क्या है ? अनिवार्यता क्या है ? 

लेकिन घर में झाड़ू -पोछा करने वाली के चरण पखारने वाले लोग पंडितों में हज़ार कीड़े खोजते हैं। तो इस लिए कि पंडितों को अपमानित करने का नैरेटिव बना लिया गया है। फेंकिए इस पंडित को बंगाल की खाड़ी में। छुट्टी लीजिए इस मूर्ख से। पोंगा पंडित से। पाखंड से। 

पर यह नैरेटिव वैसे ही है , जैसे कुछ बीमार लोग कहते नहीं अघाते कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। पंडित जाति पूछता है। जब कि सच यह है कि मंदिरों में इतनी भीड़ होती है कि ऐसी बात पूछने का अवकाश किसी के पास नहीं होता। कोई कैसे भी आए-जाए। सच यह भी है कि तमाम क्या अधिकांश मंदिरों में पुजारी , ब्राह्मण  नहीं पिछड़ी जाति के लोग होते हैं। दलित भी होते हैं। अब तो पंडिताई के काम में भी कई सारी पिछड़ी जातियों के लोग दिख रहे हैं। ख़ास कर नाई जाति के लोग शहर बदल कर पंडित बन जा रहे हैं। 

नाम में उन के शर्मा होता ही है। पंडित के साथ काम करते-करते पंडिताई सीख जाते हैं। कई और जातियों के लोग भी पंडिताई में देखे जा रहे हैं। कोई चेक करने वाला है भी नहीं । अब अगर प्लंबर इलेक्ट्रीशियन का काम करेगा या कारपेंटर का काम करेगा तो कर तो देगा। पर कितना परफेक्ट करेगा ? वह ही जानेगा या काम करवाने वाला। 

दिलचस्प तथ्य यह भी है कि ब्राह्मणों में भी पंडिताई यानी पूजा-पाठ का काम कभी सम्मानित काम नहीं माना जाता। पंडिताई का काम करने वालों के यहां आम ब्राह्मण भी शादी-व्याह नहीं करता। पंडिताई करने वाले लोग बहुत ग़रीब होते हैं , इस लिए भी। क्यों कि बाक़ी व्यवसाय की तरह पंडिताई की दुकान अभी पूरी तरह प्रोफेशनल नहीं हो पाई है। जिन कुछ पंडितों की दुकान कारपोरेट कल्चर में फिट हो चुकी है , शोरुम बन चुकी है , कभी उन को बुला कर देखिए। पसीने छूट जाएंगे आप के। 

जब वह आप से किसी काम के लिए हज़ारों , लाखों अग्रिम की बात कर देंगे। आप भाग आएंगे। भीगी बिल्ली बन जाएंगे। पंडितों को गरियाना भूल जाएंगे। जब इन पंडितों को अपनी बड़ी सी कार में बैठे , मिसरी की तरह मीठा-मीठा बोलते देखेंगे तो पोंगा पंडित शब्द भूल जाएंगे। जल्दी ही आप सामान्य और विपन्न पंडितों को भी अपनी शर्तों पर काम करते देखेंगे। वह दिन ज़्यादा दूर नहीं है। पंडितों ने भी किसी कुशल मज़दूर की तरह अपना पेशा ठीक करना ज़रा देर से सही , शुरु कर दिया है। तब खोजे नहीं मिलेंगे आप के दाम या दक्षिणा पर यह पंडित। बैंड बाजा बनने की तरफ अग्रसर हैं यह पंडिताई करने वाले लोग भी। अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम ! 

क्यों कि ब्राह्मणों में भी यह दलित लोग हैं अभी की तारीख़ में। परशुराम का फरसा नहीं है , इन के पास। जिस दिन होगा , फरसा इन के हाथ में , व्यापार का फरसा , तमाम पार्टियों की तरह आप भी दंडवत होंगे , इन के आगे। गरियाना भूल जाएंगे फिर।


कुछ यह जवाब भी :


मैं ने पांडित्य कर्म शब्द का कहीं उपयोग नहीं किया है इस पोस्ट में। पांडित्य और पुरोहित का फ़र्क भी आप नहीं जानते। इसी तरह ज्योतिष के बारे में भी आप अनभिज्ञ हैं। गुण मिलान तो अब कंप्यूटर पर अब कोई भी कर लेता है। पंडित के पास जाने की क्या ज़रुरत ? मौसम विज्ञानी , सही मौसम बता नहीं पाते। और आप चाहते हैं कि बिना पारिश्रमिक लिए पंडित आप को सही गुण मिलान बताएं।

आप गुप्ता हैं। अगर कहूं कि आप तेली हैं। तेली के बैल की तरह बात करते हैं तो अन्यथा अर्थ में मत लीजिएगा। पोस्ट में स्पष्ट कहा गया है कि पुरोहित को अगर आप एक मज़दूर की दिहाड़ी देने में असमर्थ हैं , असहमत हैं तो मत बुलाइए। बिना किसी पुरोहित , पंडित के अपना काम कीजिए। किसी डाक्टर ने पंडित या पुरोहित को बुलाने के लिए तो कहा नहीं है। आप किसी पेरियार टाइप के आदमी बुला लीजिए। अपना जहर वहीं उगलिए। सीना तान कर उगलिए। रोका किस ने है ?

अब तो दिहाड़ी मज़दूर भी रोज का पांच-सात सौ रुपए लेता है। यह देने में भी आप का प्राण निकलता है ? फिर भ्रष्ट उच्चारण वाले पंडित को बुलाने के लिए डाक्टर ने कहा है आप को ? पेशेवर पंडित बुलाइए , लाख - दो लाख रुपए एक दिन का पारिश्रमिक दे कर। दिक्कत क्या है ? दस-बीस लाख रुपए लेने वाले पंडित जी लोगों को भी मैं जानता हूं। वैदिक पंडित। वेद-पुराण बाक़ायदा कंठस्थ। कभी ज़रुरत हो और यह क्षमता हो तो ज़रुर बताइएगा। झोला छाप डाक्टर से आप विशेषज्ञ डाक्टर का काम करवाने का अभ्यास बंद कीजिए। दर्पण में अपनी सूरत देखिए।

विष वमन के प्रवक्ता , किसी मांगलिक कार्य में नेतृत्व कौन करता है ? नाऊ , लोहार ? नाऊ , लोहार का क्या काम होता है , किसी मांगलिक कार्य में ? किसी ब्रिगेडियर और सिपाही का वेतन एक ही होता है क्या ? इंजीनियर और मज़दूर में फर्क करने की क्या ज़रुरत ? फिर जब नाऊ , लोहार को कम पैसा दे कर काम हो जाता है तो पंडित को बुलाना ही क्यों ? उन्हीं से काम चलाना चाहिए। काहे को पैसा फेकना। नाऊ , लोहार से ही मंत्रोच्चारण भी करवा लेना चाहिए। या फिर मंत्रोच्चारण की ज़रुरत भी क्या है। बिना इस के ही काम चला लेना चाहिए। किसी संविधान या क़ानून में तो लिखा नहीं कि पंडित को बुलाया जाना अनिवार्य है। गोली मारिए पंडित को।


Thursday 16 February 2023

बस टुकड़े-टुकड़े हो कर फ्रिज या सूटकेस में जाने से बचना स्वरा भास्कर

 दयानंद पांडेय 

बहुत बधाई अनारकली ऑफ़ आरा की अभिनेत्री स्वरा भास्कर। बस टुकड़े-टुकड़े हो कर फ्रिज या सूटकेस में जाने से पहले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद रखना। वैज्ञानिक और देश प्रेमी पिता की लाज भी बचाए रखना। इस लिए भी कि एक झूठे मसले CAA-NRC विरोध में देश में आग लगाने वाले के रुप में तुम्हारे शौहर फहद अहमद को लोग जानते हैं। बाक़ी तुम्हारी अपनी ज़िंदगी है , अपनी पसंद है। तुम्हें अपने ढंग से जीने का पूरा हक़ है।  मित्र अविनाश दास निर्देशित बेहतरीन फ़िल्म अनारकली ऑफ़ आरा की अभिनेत्री स्वरा भास्कर के लाजवाब अभिनय को हम सर्वदा याद रखते हैं। रखेंगे। बस जैसे उस फिल्म में बतौर अभिनेत्री उस अय्यास वाइस चांसलर को सार्वजनिक रुप से नंगा किया था , असल ज़िंदगी में भी वह अंदाज़ याद  रखना। 

वैसे ही जैसे एक रिफाइन के विज्ञापन में भिंडी की सब्जी को परोसती दिखी थी स्वरा भास्कर , वह तुर्शी भी बनाए रखना। किसी हिज़ाब के व्याकरण और तलाक़ के फ़रेब नीचे दब न जाना। नौटंकी कही जाने वाली बड़बोली राखी सावंत भी एक लिहाज से अच्छी अभिनेत्री हैं पर उन का हश्र अभी-अभी हमारे सामने उपस्थित है। बहुत सारे आफ़ताब सरीखे प्रेमी हत्यारे हमारे सामने उपस्थित हैं। हमारे भोजपुरी समाज में बेटी को बछिया और स्त्री को गाय जैसी सीधी उपमा भी दी जाती रहती है। और तुम गाय काटने और खाने वालों के हाथ में हाथ लिए हुई दिख रही हो। सो सावधान रहना स्वरा भास्कर। इस लिए भी कि फहद अहमद ने कुरआन ज़रुर पढ़ी होगी। जिस कुरआन में स्त्रियों को पुरुषों की खेती बताया गया है। 

किसी विज्ञापन में भिंडी की सब्जी बनाना तक तो ठीक है पर पुरुषों की खेती बनाना ठीक बात नहीं है। सेक्यूलरिज़्म की छौंक में बेवकूफी भरे बयान जारी करना और और किसी शौहर की बेग़म बन कर जीना दोनों दो बात है। क्यों कि सभी नरगिस को सुनील दत्त नहीं मिलते। तो तुम अपने दांपत्य में दब कर वायसलेस मत हो जाना। बेगम हमीदा की रिपोर्ट वॉयस आफ वायसलेस हम ने पढ़ रखी है। और बड़ी-बड़ी खातूनों को वायसलेस भी देखा है। लखनऊ में रहता हूं , सो देखता ही रहता हूं। अकसर देखता रहता हूं। देश में और भी तमाम उदाहरण सामने हैं। किस-किस का नाम लूं , किस-किस का न लूं। बरसों पहले मजाज लखनवी ने ऐसे ही तो नहीं लिखा :

हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था

खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था


तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है

तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था


तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में

इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था


ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत

तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था


दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल

तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था


तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है

अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था


तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन

तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।


तो अपने आँचल से एक परचम बना कर जीना सीख लोगी स्वरा भास्कर , ऐसा यक़ीन है। टुकड़े-टुकड़े हो कर फ्रिज या सूटकेस में जाने से बचना। बहुत सी लड़कियां  फ्रिज में चली गई हैं। जाती ही जा रही हैं। सिलसिला थम ही नहीं रहा। मुंबई से दिल्ली आ कर मेहरौली के जंगल में टुकड़े फेंके जा रहे हैं। सो सावधान ! अगेन बहुत-बहुत बधाई !

Sunday 12 February 2023

हिंदू-मुसलमान का आइस-पाइस , आरक्षण की मलाई और चुनाव के मायने

दयानंद पांडेय 


कोई कुछ भी कर ले भारत में जब तक चुनाव रहेगा  , तब तक हिंदू-मुसलमान का खेल और नफ़रत का शोर बंद नहीं होगा। जब तक आरक्षण है , तब तक जातीय घृणा समाप्त नहीं होगी। रामचरित मानस जलता रहेगा। तुलसी गरियाये जाते रहेंगे। 

हमारे संविधान ने ऐसी ही व्यवस्था बना रखी है। हमारे संविधान की महिमा न्यारी है। क्यों कि संविधान की आड़ में , संविधान को बचाने का शोर भी यही नफ़रती तत्व सब से ज़्यादा करते हैं। संविधान तोड़ते रहते हैं , संविधान बचाने का टोटका करते रहते हैं। वह चाहते तो शरिया मुस्लिम पर्सनल लॉ ही हैं पर जहां कोड़े खाने , अंग-भंग आदि की व्यवस्था शरिया किए हुए है उस से बचने के लिए  संविधान की ओट लेनी बाध्यता है इन की । 

ऐसे ही आरक्षण की खीर खाने वाले चाहते तो समानता हैं , सामाजिक समता आदि की मधुर वाणी बोलते हैं पर आरक्षण की खीर अबाध रुप से जारी रहे तो मनुवाद आदि का पहाड़ा पढ़ते हुए रामायण आदि भी जलाते रहते हैं , तुलसी आदि को गरियाते रहते हैं। चुनाव में अपनी जाति की ताक़त बताना भी शग़ल है इन का ।  

यह लोग संविधान बचाने का पहाड़ा ऐसे ही पढ़ते हैं , जैसे सारे महाभ्रष्ट और हत्यारे टाइप के अपराधी न्यायपालिका पर हमेशा भरोसा जताते रहते हैं। दरअसल हमारे संविधान की सब से बड़ी खोट यह न्यायपालिका ही है जो अब बेल पालिका में तब्दील है। हिंदू-मुसलमान के आइस-पाइस का खेल और आरक्षण की मलाई ऐसे ही कटती रहेगी।

Monday 6 February 2023

कहां-कहां से तुलसी को मिटाएंगे ?

दयानंद पांडेय 

एक समय था कि रवींद्रनाथ ठाकुर रचित राष्ट्रगान जन-गण-मन-गण अधिनायक जय हो में से कुछ मूर्खों ने कुछ हटाने की मांग कर डाली थी। ख़ास कर पंजाब सिंधु गुजरात मराठा में पंक्ति से सिंधु को हटाने की मांग हुई। तर्क दिया गया कि जब सिंधु नदी और सिंध भारत में पाकिस्तान बंटवारे के बाद भारत में नहीं रहे तो राष्ट्रगान में यह कैसे रह सकते हैं। अंतत: विद्वानों की राय आई कि किसी रचना में छेड़छाड़ ठीक नहीं। सरकार भी चुप ही रही। कोई बदलाव आज तक नहीं हुआ। न आगे कोई यह हिमाकत करेगा। यहां तक कि पाकिस्तान भी चुप ही रहा। कभी नहीं कहा कि जब सिंधु नदी और सिंध पाकिस्तान में है तो भारत के राष्ट्रगान में कैसे आ रहा है , गाया जा रहा है। कभी नहीं कहा। संकेतों में भी नहीं कहा। 

वैसे भी रचना जब जनता के बीच आ जाए तो रचनाकार को भी यह अधिकार नहीं रह जाता कि वह रचना को संशोधित या संपादित कर पेश करे। मेरा एक उपन्यास है अपने-अपने युद्ध। जब छप कर आया तो बड़ी तारीफ़ हुई। ख़ास कर न्यायपालिका प्रसंग की बहुत तारीफ़ हुई। बताया गया कि बहुत पावरफुल उपन्यास है। सब ने एक सुर से यह बात कही। पर इस अपने-अपने युद्ध उपन्यास पर अश्लीलता के आरोप जब कुछ ज़्यादा ही लग गए , लोग कहने लगे कि यह देह प्रसंग न होते तो यह माइलस्टोन उपन्यास होता। जब बहुत हो गया तो एक बार बातचीत में रवींद्र कालिया से मैं ने कहा कि अगर ऐसा है तो अगला संस्करण संपादित कर यह देह प्रसंग हटा देता हूं। रवींद्र कालिया ने समझाया मुझे कि ऐसा भूल कर मत कीजिएगा। क्यों कि रचना जब प्रकाशित हो गई तो फिर उस का पहला प्रभाव ही लोग याद करते हैं। बदलना या कुछ हटाना, जोड़ना ठीक नहीं होगा। इसी उपन्यास पर कंटेम्प्ट आफ कोर्ट जब हुआ हाईकोर्ट में तो कोई तीन-चार बरस चले मुकदमे का निपटारा करते हुए चीफ जस्टिस ने अपने आदेश में मुझ से कहा कि आइंदा ऐसा लेखन नहीं करें और आगे से इस उपन्यास को संशोधित कर के छापें। इस आदेश के बाद भी अपने-अपने युद्ध के कई सारे संस्करण छपे। पर उस में कोई संशोधन नहीं किया। हालां कि मारे उत्साह में कमलेश्वर ने तब मुझ से कहा था कि ऐसा कीजिए कि फिर तो उस न्यायपालिका प्रसंग को संशोधित कर और कड़ा कर दीजिए। कड़ा करने का जोश मुझ में भी बहुत आया। पर प्रकाशक ने तब हाथ जोड़ लिया। ऐसा किसी रचनाकार को करना भी नहीं चाहिए। मैं ने भी नहीं किया। 

क्यों कि अगर ऐसा हो जाए तो दुनिया का सारा साहित्य समाप्त हो जाए। हरदम रचनाकार या कोई और कुछ न कुछ बदलता ही रहे। अर्थ का अनर्थ होता रहे। रचना कोई विकिपीडिया नहीं है , जो हर कोई उस में जो चाहे जोड़ता-घटाता रहे। रचना कोई गरीब की लुगाई नहीं है कि हर कोई उसे भौजाई कहता फिरे। 

राजस्थान में जब वसुंधरा राजे सिंधिया मुख्यमंत्री बनीं तो एक पाप उन्हों ने यह किया कि राजस्थान के पाठ्यक्रम में शामिल सुभद्रा कुमारी चौहान की जग प्रसिद्ध रचना खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी से निम्नांकित पंक्तियां हटवा दी थीं। 

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


क्यों कि इस में वर्णित 


विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी


से सिंधिया परिवार की हेठी हो रही थी। बहुत बवाल हुआ। अंतत: वसुंधरा राजे को झुकना पड़ा। कविता को पूरा-पूरा पाठ्यक्रम में वापस लेना पड़ा। 

अब इन दिनों कुछ मतिमंद तुलसी की रामचरित मानस को संपादित कुछ चौपाइयां हटाने की मांग कर जहर उगल और बो रहे हैं। इतिहास गवाह है कि राम और तुलसी से लड़ कर हर कोई नष्ट हुआ है। अब इन की बारी है। 

तुलसी पर एक प्रसंग याद आ गया है। तब के समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे विष्णुकांत शास्त्री। लखनऊ की एक संस्था ने तुलसी जयंती के एक कार्यक्रम में उन्हें बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया। ऐन कार्यक्रम के दिन विष्णुकांत शास्त्री को बहुत तेज़ बुखार हो गया। उन्हों ने अपने प्रमुख सचिव शंभुनाथ को कार्यक्रम स्थल पर इस संदेश के साथ भेजा कि तबीयत बिगड़ जाने के कारण कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पा रहा हूं। शंभुनाथ जी ने वह संदेश पत्र कार्यक्रम स्थल पर समय से पहले पहुंच कर आयोजकों को दे दिया। आयोजकों ने शंभूनाथ जी से निवेदन किया कि ऐसे में आप ही मुख्य अतिथि का आग्रह स्वीकार कर लें। शंभुनाथ जी ने हाथ जोड़ लिया। कहा कि बिना आचार्य जी की अनुमति के यह संभव नहीं है। 

आचार्य जी मतलब विष्णुकांत शास्त्री। आयोजकों ने उन से कहा कि फ़ोन कर आचार्य जी से अनुमति ले लीजिए। शंभुनाथ जी ने फिर हाथ जोड़ कर कहा कि फ़ोन पर नहीं , आचार्य जी से मिल कर ही अनुमति लेना मेरे लिए ठीक रहेगा। कार्यक्रम का समय हो गया था। खैर , आयोजकों ने शंभुनाथ जी की यह बात मान ली। शंभुनाथ जी राज भवन गए और आचार्य जी से अनुमति ले कर लौटे। बताया कि आचार्य जी ने अनुमति दे दी है। वह कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बने। जब उन का संबोधन शुरु हुआ तो उन का पहला ही वाक्य था कि तुलसी जयंती मनाने की क्या ज़रुरत है। 

इतने पर ही उपस्थित श्रोताओं में खुसुर-फुसुर शुरु हो गई। कि अरे यह तो दलित है। इसे मुख्य अतिथि बनाने की क्या ज़रुरत थी। सब गड़बड़ कर दिया। पर जब आगे शंभुनाथ जी ने कहा कि तुलसी जयंती तो पूरी दुनिया में हर क्षण मनाई जाती है। हर समय कहीं न कहीं तुलसी की रामायण का पाठ होता रहता है। इस तरह तुलसी जयंती रोज ही क्षण-क्षण मनाती रहती है। तुलसी तो पूरी दुनिया में व्याप्त हैं। देश-विदेश में तमाम घर में तुलसी कृत रामायण रहती है। पाठ होता रहता है। तुलसी जयंती मनती रहती है। इस के बाद वही लोग जो दलित का पहाड़ा पढ़ रहे थे , तालियां बरसाने लगे। 

फिर तो शंभुनाथ जी ने जो अमृत गंगा उस दिन अपने व्याख्यान में बहाई , मेरे मन में आज तक बहती रहती है। तुलसी और रामायण के ऐसे-ऐसे दुर्लभ प्रसंग , तमाम उद्धरण और कथ्य के साथ प्रस्तुत किए कि मन अयोध्या बन गया। राममय बन गया। उस दिन पता चला कि  शंभुनाथ जी सिर्फ़ आई ए एस अफसर ही नहीं , साहित्य के गंभीर अध्येता भी हैं। दिनकर पर उन की पी एच डी है। फिर तो शंभुनाथ जी के कई व्याख्यान समय-समय पर सुने हैं। हर बार अमृतमय कर देते हैं वह। पर तुलसी जयंती पर उस बार दिया गया उन का व्याख्यान आज भी श्रेष्ठतम है। उमाकांत मालवीय का गीत याद आता है :


हम तो हैं लक्ष्मण की मूर्छा

बैद सुखेन तुम्हारे खाते ।


तुमको राम अमृत दे सारा

ज़हर कुनैन हमारे खाते ।


भारत भाग्य विधाता गाने वाले लोग यह जानते हैं। पर जातीय राजनीति की अलाव तापने वाले जाने कब यह जानेंगे। जाने कब जानेंगे कि तुलसी दुनिया के सब से बड़े कवि हैं। सब से लोकप्रिय और ताकतवर कवि हैं। उन का कोई सानी नहीं है। न होगा। संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी तुलसी ने अवधी में रामचरित मानस लिखी। साधारण बोली में लिखी। इसी लिए वह जन कवि बने। इतने लोकप्रिय कवि बने। बाल्मीकि और कालिदास जैसे कई बड़े कवियों ने भी रामायण लिखी। बहुत शानदार लिखी है। लेकिन जन-जन में तो तुलसी की ही रामायण उपस्थित है। एक मेहनतकश मज़दूर भी तुलसी की रामायण समझता है और गाता है। एक दार्शनिक और वैज्ञानिक भी तुलसी की रामायण समझता है। तमाम रामकथा वाचक , विद्वान भी तुलसी की रामायण को पढ़ते और गाते हैं। दुनिया की सभी भाषाओँ में तुलसी की रामायण का जितना अनुवाद हुआ है , किसी और रचना की नहीं। शोध भी दुनिया भर में हुए हैं। और आप उस तुलसी की रचना से कुछ हटाने की हिमाकत करते हैं। कहां-कहां से तुलसी को मिटाएंगे ?

 तुलसी से असहमत होना आप का अधिकार है। पर उन की श्रीराम चरित मानस से कोई चौपाई हटाने का अधिकार किसी भी को नहीं। साक्षात तुलसीदास जो उपस्थित हो जाएं तो उन को भी नहीं। तुलसी की रामायण आज भी दुनिया में न सिर्फ सब से ज़्यादा पढ़ी जाने वाली रचना है बल्कि सब से ज़्यादा बिकने वाली रचना भी है। अकेले भारत में रामायण की दस हज़ार प्रतियां गोरखपुर का गीता प्रेस ही रोज बेचता है। तुलसी की रामायण बाइबिल की तरह मुफ्त में नहीं बांटी जाती। तुलसी की रामायण सद्भाव सिखाती है। शालीनता और मर्यादा सिखाती है। सिर तन से जुदा करना नहीं। किसी खल पात्र का संवाद तुलसी का कथन कैसे मान लेते हैं आप भला ? इतने मतिमंद हैं अगर आप कि रावण के संवाद को भी आप तुलसी की राय मान लेते हैं और समाज में विष-वमन का व्यापार करने लगते हैं , तो प्रकृति आप को सद्बुद्धि दे !

तुलसी से जिसे लड़ना हो लड़ता रहे , सर्वदा पराजित होता रहेगा। त्रिलोचन ने एक जगह लिखा है कि एक बार वह निराला से मिलने प्रयाग में दारागंज स्थित उन के घर गए। बड़ी देर तक दरवाज़े के बाहर बैठे रहे। दरवाज़ा खुला हुआ था। बहुत ज़्यादा देर हो गई तो त्रिलोचन भीतर गए तो देखा कि निराला एक फ़ोटो से लड़ रहे थे। निराला असहाय हो कर फ़ोटो को संबोधित कर कह रहे थे कि क्या करुं कि तुम से बड़ा बन सकूं। राम की शक्ति पूजा जैसी असाधारण कविता लिखने वाले निराला यह कह रहे थे। और जिस फ़ोटो से लड़ते हुए निराला यह कह रहे थे , वह फ़ोटो तुलसीदास की थी। 

 

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