Monday 10 June 2019

गिरीश कर्नाड दोस्तों के दोस्त तो थे ही , दुश्मनों के भी दोस्त थे


श्याम बेनेगल की फ़िल्म मंथन में पहली बार गिरीश कर्नाड को देखा था। 1979 में। तब विद्यार्थी था। हमारे गोरखपुर की आभा धूलिया इस फिल्म में गिरीश कर्नाड की पत्नी की भूमिका में थीं। आभा इस के पहले भी तपस्या फिल्म में आई थीं। मंथन में तीन अभिनेताओं गिरीश कर्नाड , कुलभूषण खरबंदा , नसीरुद्दीन शाह और हिरोइन स्मिता पाटिल ने बहुत प्रभावित किया था। गिरीश कर्नाड और स्मिता पाटिल के मौन प्रेम के दृश्यों ने मथ दिया था। फिर जितेंद्र , रीना राय , रामेश्वरी अभिनीत आशा फिल्म में गिरीश कर्नाड को देखा। 1980 में। दो फिल्मों से ही गिरीश कर्नाड ने बतौर अभिनेता दिल में जगह बना लिया था। 1981 में नौकरी करने दिल्ली चला गया। इब्राहिम अल्काज़ी के निर्देशन में तुग़लक देखा। मनोहर सिंह के अभिनय का जादू और गिरीश कर्नाड के नाटक में समाए संवाद और दृश्य ने गिरीश कर्नाड को दिल का राजा बना दिया। फिर हयबदन देखा , ययाति देखा । गिरीश कर्नाड मेरे पसंदीदा लेखक बन गए। तुग़लक के दृश्यों और एप्रोच को मैं अपनी बातचीत में साझा करने लगा। अब तक करता रहता हूं । अकसर। खास कर एक मौलाना को तुगलक ने जिस तरह निपटाया है , वह अदभुत है। तुगलक देखने के बाद इतिहास की यह अवधारणा कि तुगलक सनकी था , पागल था टूट गई। गिरीश कर्नाड का नाटक तुग़लक बहुत आहिस्ता से बताता है कि तुग़लक बहुत बुद्धिमान व्यक्ति था।

और यह देखिए 1984 में फिल्म आई उत्सव। गिरीश कर्नाड इस के निर्देशक। हिंदी फिल्मों में निर्देशन का ऐसा क्राफ्ट फिर दुबारा देखने को नहीं मिला। संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम का ऐसा फ़िल्मी अवदान दुर्लभ है। संयोग ही था कि दिल्ली में चल रहे फ़िल्म फ़ेस्टिवल में यह उत्सव दिखाई गई थी। तभी गिरीश कर्नाड से मिलना हुआ था। शशि कपूर और कुलभूषण खरबंदा से भी। पूरे समय शशि कपूर छाए रहे लेकिन मैं गिरीश कर्नाड में खोया रहा। शशि कपूर से पहले भी मिल चुका था , शायद इस लिए भी । सर्दी में सुलगती उस शाम भी तुग़लक मुझ पर इतना हावी था और कि अभी भी है कि गिरीश कर्नाड से मैं ने तुग़लक का ही ज़िक्र किया। वह मुस्कुराए और बोले कि अभी तो उत्सव देखिए फिर बात करते हैं। हम उत्सव देखने लगे। फ़िल्म खत्म होने के बाद पता चला कि उत्सव की पूरी टीम जा चुकी है। फिर भेंट नहीं हुई गिरीश कर्नाड से। बाद के दिनों में मैं लखनऊ आ गया। लेकिन उत्सव का क्राफ्ट , गीत , संवाद और रेखा का अभिनय कभी नहीं भूला। बेला महका रे महका आधी रात को , आज भी मन को लहकाता और सुलगाता रहता है। इस को रोको न टोको आधी रात को , के स्वर में डाहता रहता है। स्वामी फिल्म में शबाना आज़मी उन के साथ हैं। कितना तो अबोला और अनूठा अभिनय है गिरीश कर्नाड का। सुर संगम में जयाप्रदा के साथ उन का शास्त्रीय गायक और प्रेमी का अभिनय भी कैसे भूला जा सकता है । बहुत सी फ़िल्में , बहुत से चरित्र हैं उन के अभिनय में लिपटे और गाते हुए। लेकिन गिरीश कर्नाड का लेखक और निर्देशक मुझे ज़्यादा क्लिक करता है। एक समय हेमा मालिनी से उन के प्रेम की भी संक्षिप्त चर्चा चली थी। बहुत कम अभिनेता होते हैं जो घोषित अवकाश पर मुम्बई छोड़ कर बेंगलूर जा बसें और जब-तब किसी न किसी फिल्म में बच्चों की तरह अपने अभिनय के आंगन में झांक जाएं। गिरीश कर्नाड ऐसे ही थे।

भोपाल से लखनऊ की रंगकर्मी विभा मिश्रा के जलने की ख़बर आई। विभा नेशनल स्कूल आफ ड्रामा , दिल्ली में जब पढ़ती थीं तब मेरी उन से अच्छी मुलाकातें थीं। लगभग मेरी दोस्त थीं। भोपाल रंगमंडल में थीं जब जलीं। ब व कारंत के साथ वह तब सहजीवन में थीं। विभा के जलने की खबर कारंत ने ही पुलिस को दी और अस्पताल ले गए। विभा को जलाने के आरोप में कारंत को गिरफ्तार कर लिया गया था। तब जब कि विभा को बचाने के चक्कर में कारंत खुद भी जल गए थे। खास कर उन की दोनों हथेलियां। थाने में सब से पहले अशोक वाजपेयी पहुंचे। और रात भर रहे थाने में कि कहीं पुलिस कारंत के साथ अभद्रता न करे। कारंत से मेरी भी मित्रता थी। दिल्ली में हम मिलते ही थे , लखनऊ भी जब कारंत आते थे तो बड़ी मुहब्बत से मिलते थे। बहरहाल कारंत की पैरवी में तब अगली सुबह गिरीश कर्नाड मुम्बई से भोपाल पहुंचे थे। और कारंत के पक्ष में पूरा माहौल बनाया कि कारंत ऐसा नहीं कर सकते। बाद में विभा ने भी स्पष्ट बयान दिया कि आग मैं ने खुद लगाई थी , कारंत ने नहीं। कारंत छूट गए थे। एक बार लखनऊ में कारंत से बात हुई तो विभा प्रसंग पर बात की तो वह खीझ कर बोले , अब हमारे बीच बात करने को यही रह गया है ? कारंत इतने सरल और सीधे थे कि अगर बात करते-करते मन करता तो चलते-चलते सड़क की फुटपाथ पर भी बैठ जाते और बतियाते रहते। तो उस बार भी वह अचानक एक फुटपाथ पर बैठ गए और कालिदास की शकुंतला पर बात करने लगे। गोया शकुंतला के बहाने वह विभा की बात कर रहे हों। लेकिन शकुंतला की बात छूटते ही मैं फिर विभा प्रसंग पर आ गया। और गिरीश कर्नाड के तब पहुंचने की बात कर बैठा। कारंत मुस्कुराए और बोले , दोस्त ऐसे ही होते हैं।

गिरीश कर्नाड सचमुच ही दोस्तों के दोस्त तो थे ही , दुश्मनों के भी दोस्त थे। गिरीश कर्नाड पूना फिल्म इंस्टिट्यूट में तब प्रिंसिपल थे। नसीरुद्दीन शाह तब वहां स्टूडेंट थे। नसीरुद्दीन शाह ने किसी बात पर विरोध में गिरीश कर्नाड के खिलाफ प्रदर्शन और आंदोलन भी किया था। पर जब मंथन में एक गुस्सैल आदमी की भूमिका की बात चली तो श्याम बेनेगल को नसीरुद्दीन शाह को वह भूमिका देने की सलाह गिरीश कर्नाड ने ही दी थी। गिरीश कर्नाड आप शरीर से भले विदा हो गए हैं पर लेखन में , फिल्मों में आप का जो अवदान है , सर्वदा आप को हमारे बीच जीवित रहेगा। तुग़लक तो है मुझ पर अभी भी हावी , उत्सव की बेला आप ने ऐसे महकाई है , ऐसा क्राफ्ट परोसा है कि अब क्या कहूं। 1984 में उत्सव आई थी और 1994 में मेरा बेटा पैदा हुआ। गिरीश कर्नाड आप जानिए कि मेरे बेटे का नाम उत्सव है। आप इस तरह भी मेरे जीवन में सर्वदा उपस्थित रहेंगे । ऐसे जैसे टाइगर जिंदा है ! इस लिए भी कि भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में आप इकलौते और अनूठे हैं। आप के लिए जितना लिखा जाए , कम है ।

Sunday 2 June 2019

बांसुरी और तैराकी के वो दिन

विद्यार्थी जीवन में मैं भी बजाता था बांसुरी। पूरी तन्मयता के साथ। पूरी सरगम बजा लेना सीख लिया था । पर अब सोच भी नहीं सकता। अभ्यास ही नहीं रहा। सब कुछ ध स ध प ग रे स हो गया है। तो भी आंख मूंद कर हरिप्रसाद चौरसिया को अब भी सुनता रहता हूं जब-तब। खैर , यही हाल तैरने का है। लेकिन तैरना अभी भी आता है। चार-पांच तरह से। जैसे लोग बांसुरी में डूब जाते हैं , मैं डूब कर भी तैर लेता हूं और लेट कर भी। अब भी। कुछ समय पहले ही बनारस की गंगा में तैर कर लौटा हूं। एक समय गोरखपुर में राप्ती नदी तैर कर आर-पार कर लेता था। रोज ही। जैसे इस के बिना रह ही नहीं पाता था तब। तैराकी सांस बन गई थी। दिसंबर , जनवरी की सर्दियों में भी नदी में कूद पड़ता था । बीच नदी में नाव से झम से कूद पड़ता था। हरिद्वार में हरकी पैड़ी पर जहां से तेज़ धारा गिरती है , कूद पड़ता था उस तेज़ धारा में। लगता था कि अब मरा कि तब मरा। लेकिन लौट कर फिर कूद जाता था।

एक बार बनारस में गंगा पार करने की कोशिश की थी। तैरते-तैरते बीच नदी में हार गया था। बहने लगा तेज़ धारा में। संयोग से एक नाव के नाविक ने बचा लिया। ऐसे ही एक बार गोरखपुर की राप्ती नदी की तेज़ धार में भी बहा था। लेकिन खुद को किसी तरह बचा लिया था। लेकिन बहुत दूर तक बह गया था। एक बार तो बीच नदी में भरी नाव डूब गई थी। मैं भी इसी नाव में था। तब तैरना भी नहीं आता था। मल्लाहों ने जान पर खेल कर बचाया था। तब 11-12 बरस का रहा हूंगा। इसी के बाद तैरना सीखा। एक बार नाव से कूदने के चक्कर में एक कील अंगुली को चीर गई। लेकिन मैं बहुत गहरे पानी में डूब चुका था। लगा कि सांप ने काट लिया है। लेकिन सांप ने काटा था। किसी तरह पानी के ऊपर आया तो फिर नाविक ने नाव पर से हाथ दे कर खींच लिया। खून ही खून थी अंगुली। वहां पानी लाल हो चला।

किसी तरह नदी से लौटा अंगुली दाबे। मुहल्ले में एक कंपाऊंडर थे , जिन्हें डाक्टर कल्लन कहते थे , उन के पास गया। उन्हों ने ड्रेसिंग कर दवा दी। फिर पूछा कि कहा,कि कहां से छुरेबाजी कर के आ रहे हो। छुरेबाजी की कल्पना न तब कर सकता था ,न अब। पर डाक्टर कल्लन ने घर आ कर पिता जी को बता दिया कि छुरेबाजी कर के आया है यह । खूब पिटाई हुई। वह पिटाई अभी तक याद है। दाएं हाथ की उस अंगुली में वह चीरे का निशान भी आज तक बना है। मिटा नहीं। एक समय दौड़ कर चार , पांच फीट की दीवार कूद जाता था। अब सोच भी नहीं सकता। कोई नाली भी सोच समझ कर पार करता हूं। जिंदगी से जैसे बांसुरी ही नहीं छूटी , उस का सुर भी छूटता जा रहा है। तबला भी आजमाया था कभी । नहीं सीख पाया। बहुत कुछ नहीं सीख पाया। वह शैलेंद्र का लिखा गाना है न , सब कुछ सीखा हम ने , न सीखी होशियारी। होशियारी तो कभी सीखने की सोची भी नहीं। मीर का एक शेर है न :

अपन मस्त हो के देखा इस में मज़ा नहीं है
हुसियारी के बराबर कोई नशा नही है।

सोचिए कि मीर ने कितनी यातना के बाद यह शेर लिखा होगा। और कि अब फ़िराक की यातना देखिए :

जो कामयाब हैं दुनिया में उन की क्या कहिए
है भले आदमी की इस से बढं कर क्या तौहीन।

अब एक नज़र शमशेर की मुश्किल पर :

ऐसे-ऐसे लोग कैसे-कैसे हो गए
कैसे-कैसे लोग ऐसे-वैसे हो गए।

कुछ कहना अब भी बाकी रह गया है क्या?