फ़ोटो : सुशील कृष्णेत |
ग़ज़ल
कभी जीप तो कभी हाथी पर बैठ कर जंगल-जंगल फ़ोटो खींच रहा हूं
अपने भीतर तुम को चीन्ह रहा हूं मैं तो हर पल हरियाली बीन रहा हूं
शहर से घबरा कर लोगों से आज़िज हो भाग गई है गांव छोड़ गौरैया
कोयल गाती अमराई में नाचे मोर भरी दुपहरिया टिकोरे बीन रहा हूं
तुम मिल गई हो अचानक किसी मोड़ पर और मैं राह ढूंढ रहा हूं
खेत कट गया हो जैसे और मैं झुक कर गेहूं की बाली बीन रहा हूं
लकड़ी का चूल्हा हो तेज़ हवा हो आंच लाख संभाले भी ना संभले
जैसे अदहन में चावल रीझे तुम्हारी आंच में मैं वैसे ही सीझ रहा हूं
बार-बार तुम आती-जाती हो बेलगाम मन रह-रह बउरा जाता है
मन में महक रही हो तुम और मैं निहुरे-निहुरे महुआ बीन रहा हूं
बादल रोक लेते हैं हमारे हिस्से की धूप कुछ दीवार रोक लेती है
तुम स्वेटर बुनो हमारे लिए तुम्हारे लिए सपने सलोने बीन रहा हूं
जवानी बीत रही है कि जैसे नीरस ज़िंदगी बेरोजगारी का आलम है
तुम्हारी याद में खोया हुआ जैसे तुम से तुम्हारे दुःख को छीन रहा हूं
धूल उड़ातीं गायें लौट रहीं घर बछड़े दौड़ रहे हैं हुमक-हुमक कर
दिन बीत रहा है ऐसे गोया वन में चमकता हुआ सूरज ढूंढ रहा हूं
[ 26 फ़रवरी , 2016 ]
धूल उड़ातीं गायें लौट रहीं घर बछड़े दौड़ रहे हैं हुमक-हुमक कर
ReplyDeleteदिन बीत रहा है ऐसे गोया वन में चमकता हुआ सूरज ढूंढ रहा हूं-----अद्भुत लेखनी ! अभिनन्दन आपको इस सार्थक सृजन के लिए