Monday 29 October 2018

मंदिर तो आज बना लें पर दंगों से डर लगता है


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

सभी मिलजुल कर रहते हैं तो घर घर लगता है
मंदिर तो आज बना लें पर दंगों से डर लगता है

बम विस्फोटों का वह मुसलसल मंज़र भूला नहीं है देश 
सुप्रीम कोर्ट हो या सरकार अब सब को यह डर लगता है 

ढाए जुल्म बनाए चर्च पर मंदिर मस्जिद तोड़ा क्या अंगरेजों ने 
मेलजोल का यह ताना बाना हथौड़े से ज़्यादा असर करता है 

मक्का मदीना में मंदिर गिरजा बन सकता है क्या
अयोध्या किस लिहाज से बाबर का घर लगता है

रहते रहे हैं सदियों से राम अयोध्या में रहने दो अब भी
वनवास ख़त्म करो उन का यह अंधा सफ़र लगता है

चुनाव लड़ो तुम और हम को तोड़ो रोज हर्ज नहीं है
लेकिन मंदिर मस्जिद पर दिल टूटे तो डर लगता है

पाकिस्तान नहीं गए तुम यह मुल्क पर एहसान नहीं था
फिर रोज रोज यह एहसान जताओ तो जहर लगता है

मंदिर मस्जिद की नित नई इबारत तुम रोज लिखे हो
गंगा जमुनी तहज़ीब की दुहाई भी तो यह कहर लगता है

घोड़े सा दिमाग दौड़ाओ हर्ज नहीं है मेरे भाई दौड़ो और
जाति पाति और धर्म की भट्ठी से बचो यह जहर लगता है 

याद करो कबीरा की बानी राम रहीमा एक है
ढाई आखर का प्रेम ही जीवन में सहज लगता है


[ 30 अक्टूबर , 2018 ]

नरेंद्र मोदी के पास कलेजा नहीं है कि मंदिर बनाने के लिए क़ानून बना सकें


सच कहिए तो आज सुप्रीम कोर्ट ने राम-जन्म भूमि पर मंदिर बनाने के लिए नरेंद्र मोदी और और उन की सरकार को एक सुअवसर दे दिया है । लेकिन यह सुअवसर भाजपा पानी की तरह बहा देने पर आमादा है । बहा कर ही दम लेगी । सिर्फ़ वादों और बातों का गुब्बारा फोड़ेंगे । कपिल सिब्बल तो खुल्लमखुल्ला चाहते थे कि मामला 2019 के चुनाव बाद ही सुना जाए । लेकिन सच यह है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी भी यही चाहते रहे हैं । लेकिन पूरी ख़ामोशी से । मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी छुपी रहे वाले राजनीतिक प्राणायाम के साथ । तो अब तय है कि मामला चुनाव बाद ही सुना जाएगा । तारीख़ पर तारीख़ के मकड़जाल से यह मसला कभी निकलेगा भी , इस पर भी पर्याप्त संदेह है । मेरा तो स्पष्ट मानना है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को चुनाव बाद भी तारीखों में ही उलझाए रखेगा । फ़ैसला देने की हिम्मत नहीं है सुप्रीम कोर्ट में । यह बहुत नाज़ुक मामला है ।

जो भी हो नरेंद्र मोदी को सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश लाने की चुनौती दे दी है । तो क्या नरेंद्र मोदी अध्यादेश ला सकते हैं ? मेरा मानना है कि नहीं । इस देश में इमरजेंसी लगाना तो आसान है लेकिन राम मंदिर पर अध्यादेश लाने के लिए 56 इंच का सीना नहीं बहुत बड़ा कलेजा चाहिए । जो नरेंद्र मोदी के पास फ़िलहाल नहीं है । जी एस टी या एस सी एस टी एक्ट नहीं है राम मंदिर । क्यों कि मुसलमान देश के सवर्ण नहीं हैं । सवर्णों जैसी सहनशीलता नहीं है मुसलमानों में । बइठब तोरे गोद में उखारब तोर दाढ़ी की रवायत वाले हैं यह लोग । अध्यादेश आते ही पूरा देश दंगों की आग में झुलस कर मिलेट्री के हवाले हो जाएगा । कत्लेआम को रोकना , समय को रोकना होगा । अगर सरकार अध्यादेश लाती भी है तो कत्लेआम से पहले , अध्यादेश लाने से पहले पूरे देश में मिलेट्री उतार कर ही अध्यादेश लाए ।

खैर एक वाकया याद आता है । उन दिनों एक अख़बार में रिपोर्टर था । होम डिपार्टमेंट भी मेरी बीट थी । रोज ही प्रिंसिपल सेक्रेटरी होम शाम को प्रेस को ब्रीफ करते हैं । प्रदेश की क़ानून व्यवस्था के बाबत । तो एक दिन जब पहुंचा प्रेस ब्रीफिंग के लिए तो देखा कि प्रिंसिपल सेक्रेटरी राजीव रत्न शाह के कमरे में पहले ही से कुछ लोग बैठे हुए हैं । पता चला कि यह लखनऊ के बड़े व्यापारी लोग हैं । हुआ यह था कि उन्हीं दिनों एक व्यवसाई रस्तोगी के बेटे का अपहरण ठीक एस एस पी रेजिडेंस के सामने से हुआ । बेटे को बचाने के लिए रस्तोगी खुद दौड़ पड़े । अपहरणकर्ताओं ने उन्हें वहीँ गोलियों से भून दिया और उन के बेटे को ले कर चले गए । बाद में करोड़ो रुपए की फिरौती दे कर ही रस्तोगी परिवार का यह बेटा छूटा था । श्रीप्रकाश शुक्ला गैंग की यह कारस्तानी थी । जो उन दिनों आग मूते था ।

खैर पूरे शहर सहित लखनऊ के व्यवसाइयों में भारी गुस्सा था । तो यह व्यवसाई प्रमुख सचिव शाह के पास हथियारों के लाइसेंस की मांग को ले कर आए थे । शाह बहुत ही शालीन और पालिश्ड आदमी थे । व्यापारियों का ज्ञापन पढ़ते ही उन्हों ने व्यापारियों को हथियार का लाइसेंस देने की मांग को स्वीकार कर लिया । व्यापारी उस दुःख की घड़ी में भी ख़ुश हो गए । चाय शुरू हो गई । चाय के समय एक पत्रकार ने एक व्यवसाई को बधाई देते हुए कि भाई साहब लाईसेंस तो आप लोगों को अब मिल ही जाएगा । आप लोगों के पास पैसा भी है सो हथियार भी ख़रीद ही लेंगे । पर यह बताइए कि यह हथियार आप लोग चलाईएगा कैसे ? व्यापारी बोला , हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले लेंगे , कोई आदमी रख कर । पत्रकार ने कहा , चलिए यह भी ठीक है । आप लोग कोई आदमी रख कर हथियार चलाना सीख भी लेंगे । पर जब कभी हथियार चलाने का मौका आएगा तो हथियार चलाने के लिए जो कलेजा चाहिए , वह कलेजा कहां से लाएंगे ? व्यापारी यह कलेजे वाली बात सुनते ही सन्न हो गया । कुछ और व्यापारियों से इस पर खुसुर फुसुर बात की और अचानक सारे व्यापारी उठ कर खड़े हो गए । हाथ जोड़ कर बोले , सारी सर , हम लोगों को किसी हथियार का कोई लाइसेंस नहीं चाहिए । और सभी व्यापारी चुपचाप चले गए ।

सुप्रीम कोर्ट , भाजपा और नरेंद्र मोदी की स्थिति भी कमोवेश यही है । इन में से किसी एक के पास कलेजा नहीं है । आतंकवादियों की सुनवाई के लिए आधी रात कोर्ट खोल कर सुनवाई करने वाली सुप्रीम कोर्ट के पास कलेजा नहीं है कि इस मसले पर दैनंदिन सुनवाई कर वह कोई फ़ैसला कर सके । जी एस टी और एस सी एस टी एक्ट पर जान लड़ाने वाली भाजपा , नरेंद्र मोदी और उन की सरकार के पास भी वह कलेजा नहीं है कि वह अध्यादेश ला कर , क़ानून बना कर मंदिर निर्माण शुरू करवा सके । राम जन्म-भूमि का मसला अब इन सब के लिए महज़ फुटबाल है । आप इन का खेल देखते रहिए । यज्ञोपवीतधारी राहुल गांधी और उन की कांग्रेस भी इस खेल की बड़ी खिलाड़ी है । पेनाल्टी कार्नर मारना किसी को सीखना हो तो कांग्रेस से सीखे ।

Friday 26 October 2018

भारत भारती , रमेशचंद्र शाह और लेखकों की तंगदिली


लखनऊ में उत्तराखंड के बहुत सारे लोग रहते हैं । इन में लेखक , पत्रकार और कलाकार भी हैं । इन उत्तराखंड के लोगों की एक बड़ी ख़ासियत यह है कि इन में आपसी एकता बहुत होती है । इतनी कि क्षेत्रवाद जैसा शब्द भी इन की एकता के आगे शर्मा जाए । एक उत्तराखंडी , दूसरे उत्तराखंडी को देखते ही कबूतर की तरह फड़फड़ाने लगता है । आपस में मिल कर ही उन को चैन मिलता है । उत्तराखंड के लोगों ने अपने उत्कर्ष और उन्नयन के लिए कई सारे संगठन भी बना रखे हैं । यह संगठन सक्रिय भी ख़ूब रहते हैं । रीता बहुगुणा जोशी अपने पहाड़ी वोटरों के बूते ही लखनऊ से चुनाव लड़ती और जीतती हैं । बात यहां तक पहुंची है कि मुख्य मंत्री योगी भी उत्तराखंड से हैं सो उन की ही पसंद से हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान भारत भारती उत्तराखंड के रमेशचंद्र शाह को दिया गया है । जब कि रमेशचंद्र शाह न तो संघी हैं , न भाजपाई , न हिंदूवादी । वैसे भी लेखक , लेखक होता है । संघी , भाजपाई , समाजवादी , वामपंथी , कांग्रेसी आदि-इत्यादि नहीं । सहमति-असहमति अपनी जगह है ।लेकिन उत्तराखंड के लेखक , कलाकार इतने तंगदिल भी होते हैं , इतने गैंगबाज भी होते हैं , यह मुझे नहीं मालूम था । दो दिन पहले मालूम हुआ। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने इस बार अपना सर्वोच्च सम्मान भारत भारती हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक रमेशचंद्र शाह को दिया है , यह बात अब कोई खबर नहीं है । लेकिन उन के सम्मान समारोह में किसी उत्तरखंडी का न आना ज़रूर अब ख़बर है ।

रमेशचंद्र शाह रहते भले भोपाल में हैं लेकिन मूल निवासी अल्मोड़ा के हैं । लंबे समय से भोपाल में रहने के बावजूद पहाड़ीपन उन में कूट-कूट कर भरा है । उन की पूरी बाडी लैंग्वेज से पहाड़ीपन छलकता रहता है । उन की बोलचाल में भी । रमेशचंद्र शाह को बीते 24 अक्टूबर को भारती भारती सम्मान सम्मानित किया गया । इस के एक दिन पहले उत्तराखंड के लोगों ने रमेशचंद्र शाह को भारती भारती मिलने पर उन के स्वागत में एक समारोह आयोजित किया । इस समारोह में उत्तराखंड के कुछ लोगों को रमेशचंद्र शाह के हाथों सम्मानित भी करवाया । लेकिन ठीक दूसरे दिन रमेशचंद्र शाह को जब भारत भारती से सम्मानित किया गया तो उस समारोह में लखनऊ में रहने वाला उत्तराखंड का एक भी लेखक , पत्रकार या कलाकार समारोह में नहीं पहुंचा । अगर बहिष्कार ही मकसद था , तो इसी भारत भारती के उपलक्ष्य में एक दिन पहले रमेशचंद्र शाह का भी स्वागत समारोह का क्या औचित्य था ? रमेशचंद्र शाह आखिर लखनऊ के अपने उत्तराखंडी समाज के इस एहसानफ़रामोशी और उपेक्षा की कितनी सिलवटें समेट कर भोपाल लौटे होंगे ? उत्तराखंड के लोग कभी सोच पाएंगे ? हर व्यक्ति जब कुछ पाता है तो चाहता है कि उस के परिजन और उस के लोग भी उस के सुख के , उस के सम्मान के साक्षी बनें। उन के अपने , उन के साथ रहें ।


यह ठीक बात है कि किसी भी का कहीं आना , जाना उस के अपने विवेक पर मुन:सर करता है । किसी के लिए कोई बाध्यता नहीं होती । फिर भी गौरतलब है कि उत्तराखंडियों के अलावा लखनऊ के और भी कई लेखकों ने भी अघोषित बहिष्कार किया । ख़ामोश बहिष्कार । देश की सब से बड़ी संसद में , विधान सभाओं और अन्य जगहों पर भी सभी विचारों के लोग अपनी सहमति और असहमति के साथ एक साथ बैठ सकते हैं , बैठते ही हैं । क्यों कि जैसे धरती , जैसे आकाश , जैसे जल , जैसे हवा है , हर किसी का है वैसे ही हमारी संसद , विधान सभाएं भी हमारी साझी हैं । इसी तरह साहित्य अकादमी , उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान जैसी संस्थाएं भी हमारी साझी हैं । हमारे दिए हुए टैक्स से संचालित होती हैं । सो किसी विचारधारा , किसी सरकार की जागीर नहीं हैं यह संस्थाएं । लेकिन हमारे लेखक , पत्रकार और कलाकार घृणा और नफ़रत के खेल में इतने बड़े उस्ताद हैं कि पूछिए मत । यह कहीं किसी और के साथ कभी नहीं बैठ सकते । दुनिया बदल गई है , तकनीक और तमाम चीज़ें आमूल चूल बदल गई हैं लेकिन इन की कुंठा और हीनता नहीं बदली । इन की गैंगबाजी नहीं बदली । बड़े-बड़े अपराधी गिरोह शर्मा जाएं इन की गैंगबाजी के आगे । दुनिया ग्लोबलाईज हो गई है लेकिन इन को अपने बंद कुएं से निकलने का अवकाश नहीं है । इस जहरबाद के चलते पाठक छितरा कर कोसों दूर भाग गया है लेकिन आकंठ अहंकार में डूबे इन लोगों के आंख और कान बंद हैं । सो सोचने , समझने की क्षमता कुंद हो गई है ।

इन की मौकापरस्ती , समझौते और कदम-कदम पर झुकने की , घुटना टेकने की बहुत सी कहानियां हैं मेरे पास। सप्रमाण । लेकिन शालीनता और औपचारिकता भी एक तत्व होता है , यह लोग बिलकुल नहीं जानते । मिट चुके हैं अपने इस अहंकार , ज़िद और सनक में । पाठकों से महरूम हैं । सवा सौ करोड़ की आबादी में हज़ार पांच सौ छपने वाली किताबों और पत्रिकाओं में सीमित हो गए हैं । ख़ुद ही लिखते हैं , खुद ही पढ़ते हैं । वह इन की पीठ खुजाते हैं , यह उन की । लेकिन वह कहते हैं न कि रस्सी जल गई है , बल नहीं गया । इन मित्रों को जानना चाहिए कि वैचारिकता , सहमति , असहमति आदि अपनी जगह है , औपचारिकता , शालीनता आदि अपनी जगह । यह एक अजीब किस्म की छुआछूत है । नफ़रत और घृणा की यह दीवार अगर आप अपने समुदाय में इस कदर रखते हैं तो पूरे समाज में आप क्या परोस रहे होंगे , यह जानना कुछ बहुत कठिन नहीं है । इस लिए दोस्तों , देर-सवेर इस छुआछूत , हीनता और कुंठा आदि से तौबा कर लेना ही गुड बात है।

पहली प्राथमिकता पुलिस को सभ्य और सम्मानित नागरिक बनाने की है

खबर है कि उत्तर प्रदेश पुलिस अपने सिपाहियों को शिष्टाचार की ट्रेनिंग देगी । ख़ास कर लखनऊ में । विवेक तिवारी की हत्या और उस के बाद हत्यारे सिपाही के पक्ष में गोलबंद हो रही पुलिस की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की गरज से यह सब हो रहा है । कि पुलिस बगावती हो कर आंदोलन पर न आमादा हो जाए । फिर भी यह कोई नई कवायद नहीं है । यह सारी कवायद पुलिस में चुपचाप चलती ही रहती है । यहां तक कि बिना किसी दंगे आदि के भी दंगों आदि को रोकने के लिए कादम्बरी जैसे अभ्यास भी जारी रहते हैं । लेकिन यह सब न सिर्फ कागजी होता है , बल्कि सिर्फ कवायद ही साबित होता है । इस का हासिल कुछ नहीं निकलता । अस्सी के दशक की बात है । कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह मुख्य मंत्री थे । लखनऊ में तीन-चार पत्रकार शराब पी कर देर रात गश्त कर रहे पुलिस कर्मियों से लड़ बैठे थे । गाली-गलौज भी भरपूर । पुलिस वाले भी पिए हुए थे सो मामला ज्यादा बिगड़ गया । पत्रकारों ने स्कूटर से भागने की कोशिश की लेकिन स्कूटर समय से स्टार्ट नहीं कर पाए सो , पुलिस ने पत्रकारों को पकड़ कर हज़रतगंज थाने की हवालात में डाल दिया । उन में से एक पत्रकार की स्कूटर स्टार्ट हो गई थी तो वह भाग कर मेरे पास आए । मैं सोया हुआ था । काल बेल बजी तो उठा । रात के दो बज रहे थे । उन्हों ने सारा वाकया बताया और चाहा कि थाने जा कर साथी पत्रकारों को किसी तरह छुड़ा लाऊं । सभी साथी परिचित थे और उन में से एक हमारे अखबार के भी थे । मैं ने घर आए पत्रकार से कहा कि थाने जा कर यह काम तो तुम भी कर सकते हो । वह बोला , एक तो मैं मौके पर था , पहचान लिए जाने का डर है दूसरे , पिए हुए हूं तो मुश्किल हो सकती है । मुझे भी पकड़ा जा सकता है । मैं ने उसे बताया कि थाने वाने तो मैं जाता भी नहीं । और कोई बड़ा पुलिस अफसर तो दो बजे रात मिलने से रहा । लेकिन उस साथी ने बताया कि सुबह तक बात बिगड़ जाएगी । कहीं पुलिस ने मेडिकल करवा दिया तो बात कोर्ट तक जाएगी और बहुत बदनामी होगी । खर्चा-वर्चा अलग बढ़ जाएगा ।

थाने में फोन किया कई बार लेकिन उठा नहीं तो गया हज़रतगंज थाने । उन दिनों दारुलशफा में रहता था तो पांच मिनट में पहुंच गया । लंबे कद वाले इंस्पेक्टर आर पी सिंह बलिया के रहने वाले थे , पूर्व परिचित थे , थाने में मीटिंग ले रहे थे । इशारे से मुझे बैठने को कहा , मैं बैठ गया । थाने के सभी सहकर्मियों को शिष्टाचार सिखा रहे थे । कि किसी को बुलाना , पुकारना हो तो अबे-तबे या गाली-गलौज नहीं , मान्यवर , माननीय या श्रीमान या महोदय कह कर संबोधित करें । आदि-इत्यादि । दूसरे दिन से विधान सभा सत्र शुरू होना था । खैर दस मिनट में मीटिंग बर्खास्त हुई तो मैं ने समस्या बताई । वह बोले , कैसे छोड़ दें ? यह लोग तो हवालात में खड़े हो कर पूरे थाने की नौकरी खा लेने की धमकी दे रहे हैं लगातार । मेरी भी । मां-बहन अलग किए पड़े हैं । हम तो मेडिकल करवा कर बुक करने जा रहे हैं । मीटिंग की वजह से देरी हो गई । हम ने बताया कि शराब में कुछ भी हो सकता है । होश में नहीं हैं लोग जाने दीजिए । खैर किसी तरह वह मान गए । कहा कि दो गारंटी दे दीजिए व्यक्तिगत तौर से आप कि यह लोग गाली-गलौज करते हुए थाने से नहीं निकलें , शांति से जाएं । दूसरे , कल कहीं लिखा-पढ़ी या शिकायत वगैरह नहीं करें । और कि आप इन सब का मुचलका भर दीजिए । मैं मान गया । लेकिन हवालात में खड़े पत्रकार साथी मुझे देखते ही और जोश में आ गए । फिर से पूरे थाने की नौकरी खाने पर आमादा हो गए । फुल वाल्यूम में । बड़ी मुश्किल से समझाया तो लोग मान पाए । थाने से सब को विदा कर वापस इंस्पेक्टर के पास शुक्रिया अदा करने गया तो देखा कि इंस्पेक्टर खुद एक सब इंस्पेक्टर और तीन-चार सिपाहियों से गाली-गलौज कर रहे थे । क्या तो एक आई जी की भैंस को चराने , खिलाने वाला कोई आदमी नहीं खोज पा रहे थे यह लोग।

बात जब खत्म हो गई तो मैं ने धीरे से पूछा इंस्पेक्टर से कि अभी तो आप मीटिंग में सब को शिष्टाचार सिखा रहे थे और अब खुद गाली-गलौज पर आ गए । तो वह जोर से हंसे और बोले , शिष्टाचार सिखाने की मीटिंग करने के लिए आदेश आया था तो मीटिंग ले ली । बाकी पुलिस का काम बिना गाली-गलौज और मार-पीट के कभी चला है कि आज चलेगा ! उन्हों ने खुसफुसा कर कहा , जैसे आप के साथी लोग शराब के नशे में चूर हो कर हम सब की नौकरी खा रहे थे , तो उन का नशा कुछ देर का था , उतर गया , घर गए । उन्हों ने अपनी वर्दी को इंगित किया और बोले , ई वर्दी भी नशा है चौबीसों घंटे का । जो ई नशा उतर गया तो हम लोग एक मिनट काम नहीं कर पाएंगे ! तो पुलिस उत्तर प्रदेश की हो या हरियाणा या कहीं और की , ज़रूरत वर्दी का नशा उतारने की है । इस से भी बड़ी बात यह कि पुलिस सेवा में सुधार की भी बहुत ज़रूरत है । बारह घंटे , अठारह घंटे काम करने वाले से आप शिष्टाचार की उम्मीद क्यों करते हैं ? पहली ज़रूरत है कि आठ घंटे से अधिक ड्यूटी न करने दिया जाए दूसरे , परिवार साथ रखने के लिए घर आदि की अनिवार्य सुविधा भी थाना परिसर में सभी को दी जानी चाहिए। वेतन आदि भी ठीक किया जाए । पुलिस को जानवर बना कर रखा है हमारे सिस्टम ने । शिष्टाचार सिखाना दूसरी प्राथमिकता है , पहली प्राथमिकता पुलिस को सभ्य और सम्मानित नागरिक बनाने की है ।

रावण द्वारा अपहरण से पहले ही सीता जी गायब

गोरखपुर में मेरे गांव बैदौली के पास कोई चार किलोमीटर पर एक गांव है माहोपार । रामलीला और दशहरा का मेला वहां हर साल लगता है । दिन में ही । बड़े से मैदान में पूरी रामलीला समेटते हुए सांझ होते ही रावण दहन भी हो जाता है । बचपन में हम भी हर साल धान और अरहर के तमाम खेत , कीचड़ आदि पार करते हुए . मेड़-मेड़ , पैदल ही जाते थे यह रामलीला और मेला देखने । रामलीला में हर बार कुछ न कुछ नया घट जाता था । हर जगह की रामलीला में होता है । लेकिन एक बार क्या हुआ कि रामलीला में रावण सीता का अपहरण करने पहुंचा तो पता लगा सीता तो पहले ही से गायब हैं । रावण भिक्षुक बन कर लगातार भीख मांगता रहा लेकिन सीता , अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकलीं । उदघोषक ने परंपरा तोड़ कर माईक पर कहा भी कि सीता मैया बाहर आ जाएं , रावण बाहर खड़े हैं । कई बार सीता जी कुटिया में सो भी जाती थीं । लेकिन जब सीता बाहर नहीं निकलीं तो अंततः रामलीला कमेटी के लोग भाग कर कुटिया के भीतर गए । सीता जी कुटिया में ही नहीं थीं । माईक से ऐलान हुआ कि सीता जी जहां भी कहीं हों , अपनी कुटिया में आ जाएं , सीता हरण का समय हो गया है ।

इस के पहले ऐसे भी घोषणाएं सुनने को मिलती थीं कि हलो , हलो मैं रामलीला कमेटी का फलाने बोल रहा हूं , फलाने जहां भी कहीं हों सीता जी के लिए चाय और एक बंडल बीड़ी पहुंचा दें । या ऐसी ही अन्य घोषणाएं । लेकिन इस बार सीता हरण का दृश्य सामने था और सीता जी ही अनुपस्थित थीं । उन के कुटिया में जल्दी से जल्दी पहुंचने की घोषणा जारी थी । राम , लक्ष्मण समेत सभी हिरन को छोड़ कर सीता को अपहरण से पहले ही खोजने लग गए । पता चला कि सीता जी नेचुरल काल के लिए थोड़ी दूर पर अरहर के खेत में लोटा ले कर डटी हुई थीं । यह पता चलते ही रामलीला कमेटी के एक व्यक्ति ने ऐलान किया कि मैं फलाने बोल रहा हूं , रावण घबरा मत , सीता जी दिशा-मैदान खातिर गईल हईं , बस अवते हईं ! खैर सीता जी आईं । उन से रामलीला कमेटी वालों ने पूछा , इहै समय रहल है गईले क ? सीता जी बने लड़के ने कहा , का करीं , फलनवा सबेरे-सबेरे घर से उठा लाया । सिंगार करे खातिर । जब बहुत भूख लगी तो फलनवा ने पांच-छ ठो केला खिया दिया । तब गढ़ुआ गईलीं त का करीं ! तमाम दिक्कतों के बावजूद रावण खुश था कि लेट भले हुआ पर उस का कंधा सुरक्षित रहा । गरियाते हुए कहने लगा , चल नीक भईल नाईं सार कहीं हमरे ही ऊपर कुछ कर देत तब और सांसत होता ।

Saturday 20 October 2018

तुग़लक , मौलवी और सेक्यूलरिज्म

राजनीति में कुछ लोग सेक्यूलर होने का ढोंग चाहे जितना भी कर लें , लेकिन धर्म का राजनीति पर हमेशा से बहुत गहरा प्रभाव रहा है , सर्वदा रहेगा । एक शासक हुआ है तुग़लक। लोग उस को पागल तक कहते हैं । लेकिन सच तो यह है कि वह पागल नहीं था , बहुत बुद्धिमान था । हां , बतौर प्रशासक अक्षम ज़रुर था । अपने अक्षम होने को छुपाने के लिए ही वह दिल्ली से तुग़लकाबाद , तुग़लकाबाद से दिल्ली राजधानी बनाता था और चमड़े के सिक्के चलाता था । सिर उठाते सूबेदारों को काबू करने के लिए वह ऐसा करता था ।

लेकिन इस सब के बावजूद वह एक बार धार्मिक झंझट में फंस गया । बाकी जगह तो आप धर्म से दाएं , बाएं कर के लड़ भी सकते हैं लेकिन इस्लाम में तो मज़हब से लड़ना सोचना भी हराम है । लेकिन पागल बताए जाने वाले तुग़लक ने इस्लाम के इस अफ़ीम से भी बहुत ख़ूबसूरती से लड़ा । हुआ यह कि तुग़लक ने सब को बहुत इत्मीनान से निपटाया लेकिन एक मौलवी ने तुग़लक को जब इस्लाम के फंदे में फंसा लिया तो तुग़लक हैरान रह गया । लेकिन मौलवी ने आहिस्ता-अहिस्ता तुग़लक का विरोध इतना ज़्यादा कर दिया कि तुग़लक का तख्ता पलट होने की संभावना बहुत ज़्यादा बढ़ गई । तुग़लक ने फिर इस मौलवी को निपटाने की एक बड़ी तरकीब निकाली । पड़ोसी राज्य से युद्ध की स्थिति बना दी ।

और जब युद्ध होना लगभग तय हो गया तो तुग़लक एक दिन मौलवी के पास गया। बोला कि हमारे आप के मतभेद अपनी जगह हैं लेकिन मुल्क अपनी जगह है । मुल्क हम दोनों का है । मुल्क रहेगा तो ही हम भी रहेंगे । मुल्क नहीं , तो कुछ नहीं । पहले हम मिल कर पड़ोसी दुश्मन को सबक सिखा दें । फिर आप जैसा चाहेंगे , वैसा ही होगा । मौलवी जब उस की बात से सहमत हो गया तब तुग़लक ने कहा कि मैं चाहता हूं कि इस जंग में आप भी राजा की तरह लड़ें । फ़ौज का नेतृत्व करें । मेरी ही तरह आप भी तुग़लक बन कर लड़ें । एक मोर्चा आप संभालें , दूसरा मोर्चा मैं । मौलवी तुग़लक के झांसे में आ गया । तुग़लक बन कर तुग़लक के कपड़ों में , तुग़लक की सवारी पर फ़ौज का नेतृत्व करते हुए जंग पर चला गया । अब मौलवी लड़ना तो जानता नहीं था , सो लड़ाई में मारा गया ।

मारा भले मौलवी गया लेकिन इधर दुश्मन की सेना में बात फ़ैल गई कि तुग़लक मारा गया । एक तीर से दो निशाना । खैर दुश्मन के खेमे में जश्न शुरू हो गया । दुश्मन की सेना बेखबर हो कर जश्न मना ही रही थी कि तुग़लक ने अचानक दुबारा हमला कर दुश्मन पर बहुत आसानी से फ़तह कर लिया । दुश्मन राजा भी मारा गया और मौलवी भी । तुग़लक के लिए मैदान साफ़ हो गया । फिर भी लोग जाने क्यों तुग़लक को पागल बताते हैं । खैर , तब तुग़लक मज़हब से लड़ने की तरकीब जानता था । आज लेकिन सेक्यूलरिज्म के घनघोर दौर और दंभ में भी धर्म से लड़ने का लोग हौसला नहीं रखते । सेक्यूलरिज्म के नशे में चूर , राम के अस्तित्व को जो लोग अदालत में हलफनामा दे कर इंकार करते हैं , वही लोग रावण दहन भी करते हैं । जनेऊ पहन कर मंदिर-मंदिर घूमते हैं । भारत में सेक्यूलरिज्म के सब से बड़े पैरोकार और बाप वामपंथी लोग भी इस सब पर ख़ामोशी का चोला पहन लेते हैं । ख़ामोशी की लंबी चादर ओढ़ कर सो जाते हैं ।

लेकिन धर्म से लड़ने के लिए धर्म को अफीम बताते नहीं थकते । लेकिन सेक्यूलरिज्म के नाम पर समाज में विभाजन का जहर फ़ैलाने में महारत रखते हैं । लकड़ी की तलवार भांजते लोग लेकिन धर्म से लड़ रहे हैं और पूरी बहादुरी से । यह सेक्यूलर लोग हैं । सच यह है कि यह लोग न तो मंदिर के अफ़ीम से लड़ सकते हैं , न मस्जिद की अफीम से , न गिरजाघर के अफीम से । बल्कि मस्जिद और गिरजाघर की गोद में बैठ कर ही अभी तक सेक्यूलरिज्म की काठ की तलवार भांजते और लड़ते रहे हैं । नफ़रत की दीवार बनाते रहे हैं सेक्यूलरिज्म की आड़ में । अब इन को सत्ता साधने के लिए मंदिर के अफीम की तलब लग गई है । यह तलब अभी नई-नई है ।

दरअसल लोग और भारत का संविधान झूठ ही कहते हैं कि भारत एक सेक्यूलर देश है । सच यह है कि भारत जातियों और धर्मों में बंटा हुआ देश है । सेक्यूलरिज्म सिर्फ़ एक छल है । आप को इस की प्रामाणिकता जांचनी हो तो मसले कई सारे हैं पर फ़िलहाल सिर्फ़ यूनिफार्म सिविल कोड का नाम भर ले कर देख लीजिए । फिर देखिए कि लोग कैसे हिंदू-मुस्लिम में बंटे दिखते हैं । दिखेंगे ही नहीं , दोनों के बीच तलवारें भी खिंची दिखेंगी । एक पक्ष तो संविधान की ऐसी-तैसी भी करने से बाज़ नहीं आएगा।

Thursday 18 October 2018

मैं तो प्रयागराज नाम के साथ हूं

मैं तो प्रयागराज नाम के साथ हूं । कभी लोगबाग इसे तीर्थराज प्रयाग या प्रयागराज कहा करते थे । तुलसीदास के समय में ही अकबर हुआ था और उसी ने प्रयागराज को कुचल कर , मिटा कर इलाहाबाद नाम किया था । तो अगर प्रयाग नाम फिर से वापस आ गया है तो उस का स्वागत है । प्रणाम है । अगर आप का नाम राम कुमार है और कुछ लोगों ने उसे बिगाड़ कर रमुआ कर दिया है तो यह राम कुमार या उस के शुभचिंतकों का अधिकार है कि उसे रमुआ से राम कुमार कहने लगें । वैसे भी प्रयाग का मतलब होता है नदियों का मिलन । फिर प्रयाग में तो तीन ऐतिहासिक नदियां मिलती हैं । त्रिवेणी और संगम किसी अकबर ने नहीं बनाया । इसी लिए इसे प्रयागराज भी कहते हैं । उत्तराखंड में तो कई सारे प्रयाग हैं । जहां-जहां नदियां मिलती हैं , वहां-वहां प्रयाग । प्रयाग हमारी अस्मिता है । हम जब छोटे थे तब हमारे बाबा हर साल प्रयाग नहाने जाते थे । बड़े ठाट से सब से कहते थे कि प्रयागराज जा रहा हूं ।

सोचिए कि संगम पर क्या अदभुत नज़ारा है कि एक तरफ से गंगा बहती हुई आती है पूरे वेग से और दूसरी तरफ से पूरे वेग से  बहती आती है यमुना । न गंगा यमुना को डिस्टर्ब करती है न यमुना गंगा को। कोई अतिक्रमण नहीं। दोनों ही एक दूसरे को न रोकती हैं न छेंकती हैं। बड़ी शालीनता से दोनों मिल कर काशी की ओर कूच कर जाती हैं। और एक हो जाती हैं। प्रकृति का यह खूबसूरत नज़ारा औचक कर देता है। इस का औचक सौंदर्य देख मन मुदित हो जाता है। यह अलौकिक नज़ारा देख मन ठहर सा जाता है। दूधिया धारा गंगा की और नीली धारा यमुना की। मन बांध लेती है। मन में मीरा का वह गीत गूंज जाता है-चल मन गंगा यमुना तीर ! मन गुनगुनाने लगता है- तूं गंगा की मौज मैं जमुना की धारा ! गंगा-जमुनी तहज़ीब का चाव भी यही है। और यहां तो विलुप्त सरस्वती का भी संगम  गंगा और यमुना के साथ है। त्रिवेणी का तार बजता है। मन उमग जाता है।  दोनों बहनों का बहनापा देखते ही बनता है। आपसी शालीनता को वह समोए रहती हैं । संगम की पवित्रता और शालीनता देखते ही बनता है। कोई शासक इसे नहीं बदल सकता । बीते कई वर्षों से मैं जब भी कभी इलाहाबाद जाता हूं तो थोड़ा समय निकाल कर संगम भी ज़रुर जाता हूं। संगम की शालीनता को निहारने। संगम की शांत शालीनता मन को असीम शांति से भर देती है। दिन हो, दोपहर हो, शाम हो या सुबह , यह मायने नहीं रखता, संगम की शालीनता को मन में समोने के लिए। चल देता हूं तो बस चल देता हूं। खास कर शाम को उस की नीरवता मन में नव्यता से ऊभ-चूभ कर देती है। इक्का-दुक्का लोग होते हैं। और संगम की शालीनता को निहारने के लिए शांति का स्पंदन शीतलता से भर देता है। संगम को मन में समोना हो, उस की शालीनता को मन में थिराना हो तो शांति ज़रुर चाहिए। भीड़-भाड़ नहीं। सचमुच भीड़ से बच कर ही संगम का सुरुर मन में बांचने का आनंद है, सुख है और उस का वैभव भी। भीड़ में भी उस का वैभव हालां कि कम नहीं होता। तो यह प्रयागराज का वैभव है , कुछ और नहीं ।

लेकिन देख रहा हूं कुछ अकबर प्रेमी लोग मरे जा रहे हैं अल्लाहाबाद के लिए । बताते नहीं थक रहे कि अकबर ने इलाहाबाद के लिए बांध बनाए , नदियों के नाम नहीं बदले आदि-इत्यादि । तो क्या यह एहसान किया ? नदियों का नाम कभी, कहीं बदला हो तो कोई बताए मुझे । शहरों , मुहल्लों के नाम बदलना तो रवायत हो गई है । गुलाम बुद्धि का कोई जवाब वैसे भी नहीं होता । तो इस बाबत कुछ कहना-सुनना बेमानी है । मुंबई , चेन्नई , कोलकाता जैसे नाम जब फिर से अपने मूल पर लौटे तो किसी ने विधवा विलाप नहीं किया । अगर यही प्रयागराज का नाम मायावती आदि इत्यादि ने किया होता तो सब के सब ख़ामोश रहते । कहीं कोई विवाद या चिंता नहीं दिखती । ऐतराज दरअसल प्रयाग पर नहीं , प्रयाग नाम करने वाले योगी से है । लेकिन प्रयाग नाम पर इतिहास की दुहाई दे-दे कर जान देने वाले लोग प्रयाग के इतिहास को हजम किए दे रहे हैं । यह नादान और पूर्वाग्रह के मारे हुए लोग प्रयाग का महत्व और अर्थ नहीं जानते , माहात्म्य नहीं जानते । वेड , पुराण हर कहीं प्रयागराज का वैभव उपस्थित है । दोस्तों प्रयागराज के वैभव को याद कीजिए , प्रयागराज को प्रणाम कीजिए और श्रीराम चरित मानस के बाल कांड में तुलसीदास ने जो लिखा है , तुलसीदास को प्रणाम करते हुए यहां वह भी पढ़िए :

को कहि सकहि प्रयाग प्रभाउ।
कलुष पुंज कुंजर मृग राउ।।

भरद्वाज मुनि अबहूं बसहिं प्रयागा।
किन्ही राम पद अति अनुरागा।।

याज्ञवल्क्य मुनि परम विवेकी।
भरद्वाज मुनि रखहि पद टेकी।।

'देव दनुज किन्नर नर श्रेनी।
सागर मंज्जई सकल त्रिवेनी।।

फिर तुलसी ही नहीं प्रयाग का ज़िक्र अपने काव्य में और भी बहुत से कवियों ने बारंबार किया है । पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखा है :

यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट !

प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !

ये कृत्रिम, तू सत्-प्रकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !

मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !!

Wednesday 17 October 2018

पैसा , औरत और अदालतों के फ़ैसले

दयानंद पांडेय 

विष्णु प्रभाकर की एक कहानी धरती अब भी घूम रही है में एक निर्दोष आदमी जेल चला जाता है । उस के परिवार में सिर्फ दो छोटे बच्चे हैं । एक बेटा और एक बेटी । बच्चे कचहरी और पुलिस के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं । एक रात जज के घर में पार्टी चल रही होती है । लड़का अपनी बहन को ले कर जज के घर में घुस जाता है । जज से अपनी फरियाद करता है और कहता है कि सुना है आप लोग   , पैसा और लड़की ले कर फैसला देते हैं । मेरे पास पैसा तो नहीं है पर मैं अपनी बहन को साथ ले आया हूं । आप मेरी बहन को रात भर के लिए रख लीजिए लेकिन मेरे पिता को छोड़ दीजिए । चार-पांच दशक पुरानी इस कहानी की तस्वीर आज भी वही है न्यायपालिका में , बदली बिलकुल नहीं है। बल्कि बेतहाशा बढ़ गई है । न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे की अवधारणा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है । सवाल यह भी है कि कितने गरीबों के और जनहित के मसले इस ज्यूडिशियली के खाते में हैं ? सच तो यह है कि यह अमीरों , बेईमानों और अपराधियों के हित साधने वाली ज्यूडीशरी है !

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच जब कैसरबाग वाली पुरानी बिल्डिंग में थी तब तो एक डायलाग ख़ूब चलता था कि एक ब्रीफकेस और एक लड़की के साथ में क्लार्क होटल में जज साहब को बुला लीजिए , मनचाहा फैसला लिखवा लीजिए । बहुत फैसले लिखे गए इस तरह भी , आज भी लिखे जा रहे हैं , गोमती नगर में शिफ्ट हो गई नई बिल्डिंग में भी । बहुत से मालूम , नामालूम किस्से हैं । मेरा खुद का एक मुकदमा था । पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ कंटेम्पट आफ कोर्ट का । एक कमीने वकील थे पी के खरे । पायनियर के वकील थे । काला कोट पहने अपने काले और कमीने चेहरे पर बड़ा सा लाल टीका लगाते थे । कहते फिरते थे कि मैं चलती-फिरती कोर्ट हूं । लेकिन सिर्फ तारीख लेने के मास्टर थे । कभी बीमारी के बहाने , कभी पार्ट हर्ड के बहाने , कभी इस बहाने , कभी उस बहाने सिर्फ और सिर्फ तारीख लेते थे । बाहर बरामदे में कुत्तों की तरह गश्त करते रहते थे और उन का कोई जूनियर बकरी की तरह मिमियाते हुआ कोर्ट में कोई बहाना लिए खड़ा हो जाता , तारीख मिल जाती । एक बार इलाहाबाद से जस्टिस पालोक बासु आए । सुनता था कि बहुत सख्त जज हैं । वह लगातार तीन दिन तारीख पर तारीख देते रहे । अंत में एक दिन पी के खरे के जूनियर पर वह भड़के , आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ? जूनियर मिमियाया , यस मी लार्ड  ! तो पालोक बसु ने भड़कते हुए एक दिन बाद की तारीख़ देते हुए कहा कि शार्प 10-15 ए एम ऐज केस नंबर वन लगा रहा हूं । अपने सीनियर से कहिएगा कि फ्री रहेंगे और आ जाएंगे ।

लोगों ने , तमाम वकीलों ने मुझे बधाई दी और कहा कि खरे की नौटंकी अब खत्म । परसों तक आप का कम्प्लायन्स हो जाएगा । सचमुच उस दिन पी के खरे अपने काले चेहरे पर कमीनापन पोते हुए , लाल टीका लगाए कोर्ट में उपस्थित दिखे । पूरे ठाट में थे । ज्यों ऐज केस नंबर वन पर मेरा केस टेक अप हुआ , बुलबुल सी बोलने वाली सुंदर देहयष्टि वाली , बड़े-बड़े वक्ष वाली एक वकील साहिबा खड़ी हो गईं , वकालतनामा लिए कि अपोजिट पार्टी फला की तरफ से मैं केस लडूंगी । मुझे केस समझने के लिए , समय दिया जाए । पालोक बसु उन्हें समय देते हुए नेक्स्ट केस की सुनवाई पर आ गए । मैं हकबक रह गया । पता चला बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा वकील की देह गायकी में पालोक बसु सेट हो चुके थे । मेरा केस बाकायदा जयहिंद हो चुका था । बाद में यह पूरा वाकया मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दर्ज किया । इस से हुआ यह कि बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा जस्टिस होने से वंचित हो गईं । मोहतरमा सारी कलाओं से संपन्न थीं ही , रसूख वाली भी थीं । सो जस्टिस के लिए इन का नाम तीन-तीन बार पैनल में गया । लेकिन उन का नाम इधर पैनल में जाता था , उधर उन के शुभचिंतक लोग मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वह पन्ने जिस में उन का दिलचस्प विवरण था ,  फ़ोटोकापी कर राष्ट्रपति भवन से लगायत गृह मंत्रालय , कानून मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट भेज देते । हर बार वह फंस गईं और जस्टिस होने से वंचित हो गईं । संयोग यह कि जिस नए अख़बार में बाद में मैं गया , वहां वह पहले ही से पैनल में थीं । वहां भी मेरी नौकरी खाने की गरज से मैनेजमेंट में मेरी ज़बरदस्त शिकायत कर बैठीं । मैं ने उन्हें संक्षिप्त सा संदेश भिजवा दिया कि मुझे तो फिर कहीं नौकरी मिल जाएगी पर वह अभी एक छोटे से हवा के झोंके में फंसी हैं , लेकिन अगर उन के पूरे जीवन वृत्तांत का विवरण किसी नए उपन्यास में लिख दिया तो फिर उन का क्या होगा , एक बार सोच लें।  सचमुच उन्हों ने सोच लिया। और खामोश हो गईं। मैं ने उस संस्थान में लंबे समय तक नौकरी की।

बसपा नेता सतीश मिश्रा भी एक समय जस्टिस बनना चाहते थे।  उन के पिता भी जस्टिस रहे थे। गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय से उन का नाम क्लियर हो गया। लेकिन राष्ट्रपति के यहां  फाइल फंस गई।  कोई  और राष्ट्रपति रहा होता तो शायद इधर-उधर कर के बात बन गई होती । लेकिन तब राष्ट्रपति थे ए पी जे अब्दुल कलाम । हुआ यह था कि सतीश मिश्रा बिल्डर भी हैं।  तो बतौर बिल्डर भी इनकम टैक्स रिटर्न भरना शो किया था । कलाम  की कलम ने फ़ाइल पर लिख दिया कि एक बिल्डर भला जस्टिस कैसे बन सकता है ? और सतीश मिश्रा के जस्टिस होने पर ताला लग गया। फिर वह नेता बन कर मायावती के अर्दली और विश्वस्त पिछलग्गू बन गए।

कांग्रेस प्रवक्ता और राज्य सभा सदस्य अभिषेक मनु सिंधवी अपने चैंबर में एक समय एक महिला वकील से  मुख मैथुन का लाभ लेते हुए किस तरह जस्टिस बनवाने का वादा करते हुए एक वीडियो में वायरल हुए थे , लोग अभी भी भूले नहीं होंगे। तो सोचिए कि जस्टिस बनने के लिए भी लोग क्या-क्या नहीं कर गुज़रते।  फिर यही लोग जस्टिस बन कर क्या-क्या नहीं कर गुज़रते होंगे। फिर अगर सिंधवी के ड्राइवर ने वह वीडियो वायरल नहीं किया होता तो क्या पता वह मोहतरमा जस्टिस बन ही गई होतीं तो कोई क्या कर लेता भला ? फिर जस्टिस बन कर वह क्या करतीं यह भी सोचा जा सकता है।

खैर , इसी लखनऊ बेंच में एक थे जस्टिस यू के धवन । उन का किस्सा तो और गज़ब था । एक सीनियर वकील की जूनियर हो कर आई थीं योगिता चंद्रा। सीनियर ने एकाध केस में अपनी इस जूनियर को जस्टिस धवन के सामने पेश कर दिया । बात इतनी बन गई मैडम चंद्रा की कि अब वह सीधे जस्टिस धवन से मिलने लगीं । उन के साथ रोज लंच करने लगीं। इतना कि अब उन के सीनियर मैडम चंद्रा के जूनियर बन कर रह गए । उन के पीछे-पीछे चलने लगे । जस्टिस धवन की कोर्ट में मैडम चंद्रा का वकालतनामा लग जाना ही केस जीत जाने की गारंटी बन गई । देखते ही देखते मैडम की फीस लाखों में चली गई । जिरह , बहस कोई और वकील करता लेकिन साथ में मैडम चंद्रा का वकालतनामा भी लगा होता । जस्टिस धवन मैडम पर बहुत मेहरबान हुए। एक जस्टिस इम्तियाज मुर्तुजा भी इन पर मेहरबान हुए । इतना कि उन का सेलेक्शन हायर ज्यूडिशियल सर्विस में हो गया। लेकिन ऐन ज्वाइनिंग के पहले उन पर एक क्रिमिनल केस का खुलासा हो गया। सारी सेटिंग स्वाहा हो गई।

मैं फर्स्ट फ्लोर पर रहता हूं। एक समय हमारे नीचे ग्राउंड फ्लोर पर एक सी जे एम रहते थे। अकसर कुछ ख़ास वकील उन के घर आते रहते थे। किसिम-किसिम के पैकेट आदि-इत्यादि लिए हुए। सी जे एम की बेगम ही अमूमन उन वकीलों से मिलती थीं। वह अचानक दीवार देखते हुए बोलतीं , क्या बताएं ए सी बहुत आवाज़ कर रहा है। शाम तक नया ए सी लग जाता। वह बता देतीं कि फला ज्वेलर के यहां गई थी , एक डायमंड नेकलेस पसंद आ गई लेकिन इन को समय ही नहीं मिलता। शाम तक वह हार घर आ जाता। विभिन्न वकील और पेशकार उन की फरमाइशें सुनने के लिए बेताब रहते थे। ठीक यही हाल सेकेंड फ्लोर पर रहने वाले एक ए डी जे का था। हालत यह है कि यह जज लोग घर की सब्जी भी  पैसे से नहीं खरीदते , न एक मच्छरदानी का एक डंडा। ज़िला जज भी हमारे पड़ोसी हैं। विभिन्न जिला जजों की अजब-गज़ब कहानियां हैं। 

लोग अकसर कोर्ट का फैसला कह कर कूदते रहते हैं लेकिन कोर्ट कैसे और किस बिना पर फैसले देती है , यह कितने लोग जानते हैं भला। फिर जितने फ्राड , भ्रष्ट और गुंडे अकसर जो कहते रहते हैं कि न्याय पालिका में उन्हें पूरा विश्वास है तो क्या वैसे ही ? बिकाऊ माई लार्ड लोग बिकते रहते हैं और इन मुजरिमों का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ता रहता है । किस्से तो बहुतेरे हैं लेकिन यहां एक-दो किस्से का ज़िक्र किए देता हूं। लखनऊ में एक समय बड़े होटल के नाम पर सिर्फ क्लार्क होटल ही था। बाद के दिनों में ताज रेजीडेंसी खुल गया। ताज के चक्कर में क्लार्क होटल की मुश्किल खड़ी हो गई। हुआ यह कि क्लार्क होटल के सामने बेगम हज़रत महल पार्क है। पहले सारी राजनीतिक रैलियां , नुमाइश , लखनऊ महोत्सव वगैरह बेगम हज़रत महल पार्क में ही होते थे।  तो शोर-शराबा बहुत होता था। सो लोग क्लार्क होटल सुविधाजनक होने के बावजूद छोड़-छोड़ जाने लगे। अब क्लार्क के मालिकान के माथे बल पड़ गया। उन दिनों मायावती मुख्य मंत्री थीं। क्लार्क के मालिकानों ने मायावती से मुलाकात की। कि यह सब रुकवा दें बेगम हज़रत महल पार्क में। मायावती ने तब के दिनों सीधे पांच करोड़ मांग लिए।  यह बहुत भारी रकम थी। बात एक वकील की जानकारी में आई। उस ने क्लार्क होटल के मालिकान का यह काम सिर्फ पांच लाख में हाईकोर्ट से करवा दिया। जज साहब को एक लड़की और पांच लाख दिए। एक जनहित याचिका दायर की गई। जिस में बेगम हज़रत महल पार्क को पुरातात्विक धरोहर घोषित करने की मांग करते हुए यहां  रैली और नुमाइश आदि बंद करने की प्रार्थना की गई। जज साहब ने न सिर्फ़ यह प्रार्थना स्वीकार कर ली बल्कि इस पार्क को हरा-भरा रखने की ज़िम्मेदारी भी लखनऊ विकास प्राधिकरण को दे दी। अब समस्या ताज होटल को हुई। आज जहां आंबेडकर पार्क है वहां आवासीय कालोनी प्रस्तावित थी। अगर वहां आवासीय कालोनी बन जाती तो ताज का सौंदर्य और खुलापन बिगड़ जाता। तो मायावती के सचिव पी एल पुनिया को साधा गया। क्यों कि मायावती बहुत मंहगी पड़ रही थीं। पुनिया सस्ते में सेट हो गए। और आवासीय कालोनी रद्द कर आंबेडकर पार्क बनाने का प्रस्ताव बनवा दिया। कांशीराम और मायावती को पसंद आ गया। बाद में मुलायम सिंह सरकार में आए तो ताज वालों ने अपने पिछवाड़े कोई आवासीय कालोनी न बन जाए , लोहिया पार्क बनवाने की तजवीज तब के लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष बी बी सिंह से दिलवा दिया अमर सिंह को। मुलायम को भी प्रस्ताव पसंद आ गया। बन गया लोहिया पार्क। दो सौ रुपए के पौधे  , दो हज़ार , बीस हज़ार में ख़रीदे गए। बी बी सिंह ने भ्रष्टाचार की वह मलाई काटी कि मायावती ने सत्ता में वापस आते ही बी बी सिंह को सस्पेंड कर दिया। बी बी सिंह को रिटायर हुए ज़माना हो गया लेकिन आज तक उन का सस्पेंशन नहीं समाप्त हुआ। अब आगे भी खैर क्या होगा। वैसे भी बी बी सिंह ने अमर सिंह की छाया में अकूत संपत्ति कमाई। कई सारे मॉल और अपार्टमेंट बनवा लिए। भले कब्रिस्तान तक बेच दिए , ग्रीन बेल्ट बेच दिया जिस पर मेट्रो सिटी बन कर उपस्थित है।

ऐसा भी नहीं है कि हाईकोर्ट का इस्तेमाल सिर्फ होटल वालों ने अपने हित के लिए ही किया हो।  अपने प्रतिद्वंद्वी होटलों के खिलाफ भी खूब किया है। जैसे कि लखनऊ में गोमती नदी के उस पार ताज होटल है , वैसे ही गोमती नदी के इस पार जे पी ग्रुप ने होटल खोलने का इरादा किया। मायावती मुख्य मंत्री थीं। उन्हों ने ले दे कर डील पक्की कर दी। न सिर्फ डील पक्की कर दी बल्कि होटल बनाने के लिए गोमती का किनारा पटवा दिया। पास की बालू अड्डा कालोनी के अधिग्रहण की भी तैयारी हो गई। सुंदरता के लिहजा से।  कि होटल का अगवाड़ा भी सुंदर दिखे। बालू अड्डा के गरीब बाशिंदे भी खुश हुए कि अच्छा खासा मुआवजा मिलेगा। अब ताज होटल के मालिकान के कान खड़े हो गए। फिर वही जनहित याचिका , वही हाईकोर्ट , वही जज , वही लड़की , वही पैसा। पर्यावरण की दुहाई अलग से दी गई। जे पी ग्रुप द्वारा गोमती तट पर होटल बनाने पर रोक लग गई। तब जब कि गोमती का किनारा तो जितना पटना था पाट दिया गया था।  आज भी पटा हुआ है। हां , वहां होटल की जगह अब म्यूजिकल फाउंटेन पार्क बन गया है।

प्रेमचंद ने लिखा है कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है । लेकिन बात अब बहुत आगे बढ़ गई है । हाईकोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए हैं कि अगर इन की न्यायिक तानाशाही न हो , सही जांच हो जाए तो अस्सी प्रतिशत जस्टिस लोग जेल में होंगे। सोचिए कि अपने को जब-तब कम्युनिस्ट बताने वाले जस्टिस सैयद हैदर अब्बास रज़ा ने बतौर जस्टिस ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि पूछिए मत। कांग्रेस नेता मोहसिना किदवई ने इन्हें जस्टिस बनवाया था सो सारे फैसले इन के कांग्रेस के पक्ष में ही रहते थे। यहां तक तो गनीमत थी। अयोध्या मंदिर मसले पर भी जनाब ने सुनवाई की थी। बेंच में शामिल जस्टिस एस  सी माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने समय रहते ही अपना फैसला लिखवा दिया था लेकिन जस्टिस रज़ा का फैसला लंबे समय तक नहीं लिखा गया। सो फैसला रुका रहा। लगता है इस में भी कुछ पाने की उम्मीद बांधे रहे थे वह। खैर , जब अयोध्या में जब ढांचा गिर गया तो जस्टिस रज़ा ने फैसला लिखवा दिया। और इस फैसले में भी कोई कानूनी राय नहीं , दार्शनिक भाषण और लफ्फाजी का पुलिंदा था। जब कि जस्टिस माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने मंदिर वाले हिस्से पर प्रतीकात्मक कारसेवा की इजाजत दे दी थी। अगर रज़ा भी समय से अपना फैसला लिखवा दिए होते थे लफ्फाजी वाला ही सही तो शायद कारसेवक प्रतीकात्मक कारसेवा कर चले गए होते। रिवोल्ट नहीं हुआ होता और विवादित ढांचा न गिरा होता। लेकिन रज़ा की रजा नहीं थी। सो देश एक भीषण संकट में फंस गया। जस्टिस रज़ा की मनमानी और अय्यासी के तमाम किस्से हैं। पर एक बानगी सुनिए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सी बी आई ने एक चिटफंडिए के खिलाफ वारंट लिया था। लेकिन गज़ब यह कि पांच लाख रुपए प्रतिदिन के हिसाब से ले कर इन्हीं जस्टिस रज़ा ने छुट्टी में अपने घर पर कोर्ट खोल कर ज़मानत दे दी थी। टिल डेट , टिल डेट की इस ज़मानत के खेल में और भी कई जस्टिस शामिल हुए। पैसे और लड़की की अय्यासी करते हुए।

एक हैं जस्टिस पी सी वर्मा। घनघोर पियक्क्ड़ और जातिवादी। मेरी कालोनी में ही रहते थे। तब सरकारी वकील थे। रोज मार्निंग वाक पर निकल कर अपनी लायजनिंग करते थे। लायजनिंग कामयाब हो गई तो यह भी जस्टिस हो गए। महाभ्रष्ट जजों में शुमार होते हैं जनाब । एक से एक नायाब फैसले देने लगे। लेकिन जब वह बहुत बदबू करने लगे तो सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें उत्तराखंड भेज दिया। लेकिन वहां भी ब्रीफकेस और लड़की का खेल उन का जारी रहा। ऐसे ही एक जस्टिस हुए जस्टिस भल्ला। उन के कारनामे भी बहुत हैं। लेकिन जब उन की शिकायत बहुत बढ़ गई तो वह छत्तीसगढ़ भेज दिए गए चीफ़ जस्टिस बना कर।

कभी कहीं पढ़ा था कि किसी सक्षम देश के लिए सेना से भी ज़्यादा ज़रूरी है न्यायपालिका। तो क्या ऐसी ही न्यायपालिका ?

सोचिए कि यह वही लखनऊ बेंच है जिस में एक बार तब के सीनियर जस्टिस यू सी श्रीवास्तव ने उन्नाव के तब के सी जी एम को हथकड़ी पहनवा कर हाईकोर्ट में तलब किया था। मामला कंटेम्प्ट का था। यू सी एस नाम से खूब मशहूर थे वह। अपनी ईमानदारी और फैसलों के लिए लोग उन्हें आज भी याद कर लेते हैं। जस्टिस यू सी श्रीवास्तव का तर्क था कि अगर एक न्यायाधीश ही हाईकोर्ट का फैसला नहीं मानेगा तो बाकी लोग कैसे मानेंगे। सी जी एम को हथकड़ी लगा कर हाईकोर्ट में पेश करने का संदेश दूर तक गया था तब। कंटेम्प्ट के मामले शून्य हो गए थे। पर अब ? अब तो हर पांचवा , दसवां फैसला कंटेम्प्ट की राह देख रहा है। हज़ारों कंटेम्प्ट केस की फाइलें धूल फांक रही हैं।

यही यू सी एस जब रिटायर हो गए तो रवींद्रालय में आयोजित एक कार्यक्रम में दर्शक दीर्घा से किसी ने पूछा कि इज्जत और शांति से रहने का तरीका बताएं। उन दिनों लखनऊ की कानून व्यवस्था बहुत बिगड़ी हुई थी। बेपटरी थी। यू सी एस ने कहा , जब कोई नया एस एस पी आता है तो उसे फोन कर बताता हूं कि रिटायर जस्टिस हूं , ज़रा मेरा खयाल रखिएगा। इसी तरह नए आए थानेदार को भी फोन कर बता देता हूं कि भाई रिटायर जस्टिस हूं , मेरा खयाल रखिएगा। इलाक़े के गुंडे से भी फोन कर यही बात बता देता हूं। घर में बिजली जाने पर सुविधा के लिए जेनरेटर लगा रखा है। पानी के लिए टुल्लू लगा रखा है।  इस तरह मैं तो इज्जत और शांति से रहता हूं। अपनी आप जानिए।

एक किस्सा ब्रिटिश पीरियड का भी मन करे तो सुन लीजिए। उन दिनों आई सी एस जिलाधिकारी और ज़िला जज दोनों का काम देखा करते थे। लखनऊ के मलिहाबाद में आम के बाग़ का एक मामला सुनवाई के लिए आया उस जज के पास। एक विधवा और उस के देवरों के बीच बाग़ का मुकदमा था। फ़ाइल देख कर वह चकरा गया। दोनों ही पक्ष अपने-अपने पक्ष में मज़बूत थे। फैसला देना मुश्किल हो रहा था। बहुत उधेड़बन के बाद एक रात उस ब्रिटिशर्स ने अपने ड्राइवर से कहा कि एक बड़ी सी रस्सी ले लो और गाड़ी निकालो। रस्सी ले कर वह मलिहाबाद के उस बाग़ में पहुंचा और ड्राइवर से कहा कि मुझे एक पेड़ में बांध दो। और तुम गाड़ी ले कर यहां से जाओ। ड्राइवर के हाथ-पांव फूल गए। बोला , अंगरेज को बांधूंगा तो सरकार फांसी दे देगी , नौकरी खा जाएगी , जेल भेज देगी। आदि-इत्यादि। अंगरेज ने कहा , कुछ नहीं होगा। हां , अगर ऐसा नहीं करोगे तो ज़रूर कुछ न कुछ हो जाएगा। ड्राइवर ने अंगरेज को एक पेड़ से बांध दिया। अंगरेज ने कहा , अब घर जाओ। और भूल कर भी यह बात किसी और को मत बताना। ड्राइवर चला गया। अब सुबह हुई तो इलाके में यह खबर आग की तरह फैल गई कि किसी ने एक अंगरेज को पेड़ में बांध दिया है। तो बाग़ में भारी भीड़ इकट्ठा हो गई। पूछा गया उस अंगरेज से कि किस ने बांधा आप को इस पेड़ से। अंगरेज ने बड़ी मासूमियत से बता दिया कि  जिस का बाग़ है , उसी ने बांधा है। अब उस विधवा के दोनों देवर बुलाए गए। दोनों बोले , यह बाग़ ही हमारा नहीं है , तो हम क्यों बांधेंगे भला इस अंगरेज को। फिर वह विधवा भी बुलाई गई। आते ही वह बेधड़क बोली , बाग़ तो हमारा ही है , लेकिन मैं ने इस अंगरेज को पेड़ से बांधा नहीं है। तब तक पुलिस भी आ गई। पुलिस ने अपने जिलाधिकारी को पहचान लिया। फैसला भी हो गया कि यह आम का बाग़ किस का है।

पर आज तो फैसले की यह बिसात बदल गई है। पैसा , लड़की और राजनीतिक प्रभाव के बिना कोई फैसला नामुमकिन हो चला है। लाखों की बात अब करोड़ो तक पहुंच चुकी है। भुगतान सीधे न हो कर तमाम दूसरे तरीके ईजाद हो चुके हैं। ब्लैंक चेक विथ बजट दे दिया जाना आम है। किस ने दिया , किस ने निकाला , किस नाम से कब निकाला कोई नहीं जानता। इस लिए अब न्याय सिर्फ पैसे वालों के लिए ही शेष रह गया है। जनहित याचिका वालों के लिए रह गया है। आतंकवादियों , अपराधियों और रसूख वालों के लिए रह गया है। न्यायपालिका अब बेल पालिका में तब्दील है। गरीब आदमी के लिए तारीख है , तारीख की मृगतृष्णा है। जैसे राम जानते थे कि सोने का मृग नहीं होता , फिर भी सीता की फरमाइश पर वह सोने के मृग के पीछे भागे थे और फिर लौट कर हे खग , मृग हे मधुकर श्रेणी , तुम देखी सीता मृगनैनी ! कह कर सीता को खोजते फिरे थे। ठीक वैसे ही सामान्य आदमी भी जानता है कि न्याय नहीं है उस के लिए कहीं भी पर वह न्याय खोजता , इस वकील , उस वकील के पीछे भागता हुआ , इस कोर्ट से उस कोर्ट दौड़ता रहता है। पर न्याय फिर भी नहीं पाता। तारीखों के मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है। न निकल पाता है , न उस में रह पाता है। वसीम बरेलवी बरेलवी याद आते हैं :

हर शख्श दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ
फिर ये भी चाहता है कि उसे रास्ता मिले।

इस दौरे मुंसिफी मे ज़रुरी तो नही वसीम
जिस शख्स की खता हो उसी को सज़ा मिले।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ हाईकोर्ट और निचली अदालतों में ही यह पैसा और लड़की वाली बीमारी है। सुप्रीम कोर्ट में भी जस्टिस लोगों के अजब-गज़ब किस्से हैं। फ़िलहाल एक क़िस्सा अभी सुनाता हूं। उन दिनों राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री। अमिताभ बच्चन के चलते राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच मतभेद शुरु हो गए थे। बोफोर्स का किस्सा तब तक सीन में नहीं था। थापर ग्रुप के चेयरमैन ललित मोहन थापर राजीव गांधी के तब बहुत करीबी थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक उन्हें फेरा के तहत गिरफ्तार करवा दिया। थापर की गिरफ्तारी सुबह-सुबह हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के कई सारे जस्टिस लोगों से संपर्क किया थापर के कारिंदों और वकीलों ने। पूरी तिजोरी खोल कर मुंह मांगा पैसा देने की बात हुई। करोड़ो का ऑफर दिया गया। लेकिन कोई एक जस्टिस भी थापर को ज़मानत देने को तैयार नहीं हुआ। यह वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सख्ती का असर था। कोई जस्टिस विवाद में घिरना नहीं नहीं चाहता था। लेकिन दोपहर बाद पता चला कि एक जस्टिस महोदय उसी दिन रिटायर हो रहे हैं। उन से संपर्क किया गया तो उन्हों ने बताया कि मैं तो दिन बारह बजे ही रिटायर हो गया। फिर भी मुंह मांगी रकम पर अपनी इज्जत दांव पर लगाने के लिए वह तैयार हो गए। उन्हों ने बताया कि बैक टाइम में मैं ज़मानत पर दस्तखत कर देता हूं लेकिन बाक़ी मशीनरी को बैक टाइम में तैयार करना आप लोगों को ही देखना पड़ेगा। और जब तिजोरी खुली पड़ी थी तो बाबू से लगायत रजिस्ट्रार तक राजी हो गए। शाम होते-होते ज़मानत के कागजात तैयार हो गए। पुलिस भी पूरा सपोर्ट में थी। लेकिन चार बजे के बाद पुलिस थापर को ले कर तिहाड़ के लिए निकल पड़ी। तब के समय में मोबाईल वगैरह तो था नहीं। वायरलेस पर यह संदेश दिया नहीं जा सकता था। तो लोग दौड़े जमानत के कागजात ले कर। पुलिस की गाड़ी धीमे ही चल रही थी। ठीक तिहाड़ जेल के पहले पुलिस की गाड़ी रोक कर ज़मानत के कागजात दे कर ललित मोहन थापर को जेल जाने से रोक लिया गया। क्यों कि अगर तिहाड़ जेल में वह एक बार दाखिल हो जाते तो फिर कम से कम एक रात तो गुज़ारनी ही पड़ती। पुलिस ने भी फिर सब कुछ बैक टाइम में मैनेज किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब तक यह सब पता चला तब तक चिड़िया दाना चुग चुकी थी। वह हाथ मल कर रह गए। लेकिन इस का असर यह हुआ कि वह जल्दी ही वित्त मंत्री के बजाय रक्षा मंत्री बना दिए गए। राजीव गांधी की यह बड़ी राजनीतिक गलती थी। क्यों कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे दिल पर ले लिया था। कि तभी टी एन चतुर्वेदी की बोफोर्स वाली रिपोर्ट आ गई जिसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न सिर्फ लपक लिया बल्कि एक बड़ा मुद्दा बना दिया। राजीव गांधी के लिए यह बोफोर्स काल बन गया और उन का राजनीतिक अवसान हो गया।

आप लोगों को अभी जल्दी ही बीते सलमान खान प्रसंग की याद ज़रूर होगी । हिट एंड रन केस में लोवर कोर्ट ने इधर सजा सुनाई , उधर फ़ौरन ज़मानत देने के लिए महाराष्ट्र हाई कोर्ट तैयार मिली । कुछ मिनटों में ही सजा और ज़मानत दोनों ही खेल हो गया। तो क्या फोकट में यह सब हो गया ? सिर्फ वकालत के दांव-पेंच से ?फिर किस ने क्या कर लिया इन अदालतों और जजों का ? भोजपुरी के मशहूर गायक और मेरे मित्र बालेश्वर एक गाना गाते थे , बेचे वाला चाही , इहां सब कुछ बिकाला। तो क्या वकील , क्या जज , क्या न्याय यहां हर कोई बिकाऊ है। बस इन्हें खरीदने वाला चाहिए।  पूछने को मन होता है आप सभी से कि , न्याय बिकता है , बोलो खरीदोगे !

यह किस्से अभी खत्म नहीं हुए हैं। और भी ढेर सारे किस्से हैं इन न्यायमूर्तियों के बिकने के और थैलीशाहों द्वारा इन्हें बारंबार खरीदने के। इन की औरतबाजी के किस्से और ज़्यादा।

Sunday 14 October 2018

लेकिन मोदी सरकार का सब से बड़ा घपला है म्युचुवल फंड घोटाला , पर सब के सब चुप हैं

सब का साथ , सब का विकास नारा
कारपोरेट का साथ , कारपोरेट का विकास में तब्दील हो चुका है


कांग्रेस की कोर्निश बजाते-बजाते कम्युनिस्टों  ने अपनी ज़मीन गंवा दी । इमरजेंसी जैसी फासिस्ट कार्रवाई पर भी वह कांग्रेस से बच्चों की तरह चिपके रहे । सो प्रतिरोध की कमान समाजवादियों ने संभाली। लेकिन धीरे-धीरे मुलायम और लालू जैसे परिवारवादी , भ्रष्ट और अराजक लोगों ने समाजवादी चोला पहन कर समाजवादियों की कमान संभाल लिया । सी बी आई के फंदे में आते ही इन दोनों ने भी कांग्रेस की कोर्निश बजानी शुरु कर दी । कांग्रेस ने भी सेक्यूलरिज्म का कुपाठ इस कदर किया कि अपनी ज़मीन गंवा बैठी । तिस पर भ्रष्टाचार की उस की आदत ने उसे जनता की नज़र में गिरा दिया । भाजपा विकल्प बन कर उभरी और कांग्रेस की ताबूत में अंतिम कील ठोंक दी । दिलचस्प यह कि अब भाजपा भी कांग्रेस की सारी खामियां ओढ़ कर अपनी ज़मीन बहुत तेज़ी से गंवाती जा रही है ।

नरेंद्र मोदी सरकार ने देश की समूची अर्थव्यवस्था कारपोरेट सेक्टर के हवाले कर देश को बेचना शुरू कर दिया है । देश में यह पहली बार हुआ है कि शेयर मार्केट की तरह दो-तीन महीने में ही म्युचुवल फंड में भी जनता के अरबो रुपए चुपचाप डूब गए हैं । पहले भरोसा दिया गया , एक अवधारणा बनाई गई कि म्युचुवल फंड में कम से कम मूल धन तो नहीं ही डूबता है । 20 से 22 प्रतिशत की बंपर ग्रोथ दिखाई गई । दूसरी तरफ कारपोरेट सेक्टर की तिजोरी भरने के मकसद से बैंक , पोस्ट आफिस हर जगह इंटरेस्ट रेट इस कदर गिरा दिए गए कि  लोग बैंक और पोस्ट आफिस में पैसा जमा करने से तौबा कर लें। सो सब लोग एक जूनून के साथ म्युचुवल फंड की तरफ दौड़ पड़े और कारपोरेट कंपनियों ने देखते ही देखते अरबो रुपए बटोर लिए कुछ ही महीनों में । बाज़ार में निवेश होने वाला सारा पैसा म्युचुवल फंड में मुड़ गया सब। पांच सौ रुपए से जमा होने वाला पैसा ग्रोथ दिख-दिखा कर शुरुआती डिविडेंड दे कर लोगों से सारी बचत के पैसे जमा करवा लिया। बैंक की सारी बचत म्युचुवल फंड में शिफ्ट हो गई। बैंक खाली हो गए। पोस्ट आफिस खाली हो गए। जब म्युचुवल फंड में जमा पैसा लबालब हो गया तो सारी ग्रोथ थम गई और गरीब लोगों के म्युचुवल फंड में जमा पैसे रातो-रात माईनस में चले गए । 20 से 22 प्रतिशत की ग्रोथ 50 से 60 प्रतिशत माईनस में तब्दील हो गई । शेयर मार्केट की तरह म्युचुवल फंड में जमा पैसे लोगों के रातो-रात डूब गए । और पता भी नहीं चला । क्यों कि म्युचुवल फंड में निवेश कर लोग घोड़ा बेच कर सो गए कि यहां तो पैसा सुरक्षित है । और ग्रोथ तो छोड़िए लोग मूल से भी हाथ गंवा बैठे । म्युचुवल फंड घोटाला मोदी सरकार का सब से बड़ा और संगठित घोटाला है ।

म्युचुवल फंड के धुआंधर विज्ञापन अब थम गए हैं । लेकिन कोई चैनल , कोई अख़बार , कोई पार्टी इस पर नहीं बोल रही। सब के सब खामोश हैं और कारपोरेट कंपनियों ने जनता की गाढ़ी कमाई बचत के अरबो रुपए चुपचाप बटोर लिए । किसी को पता ही नहीं चला। जनता लुट गई तो अपनी बला से । तब धीरू भाई अंबानी इस खेल को खेल गए थे  , आज मुकेश अंबानी और उन के साथी मिल-जुल कर खेल गए हैं। कहा जा रहा है कि मुकेश अंबानी ने एक ही कंपनी के कई फंड बना रखे थे। जिस को रोकने के लिए सेबी को महीनों लग गए। सब से ज़्यादा घपला इसी कंपनी के मार्फत हुआ। सेबी की फटकार के बाद रिलायंस टॉप टू हंड्रेड और रिलायंस लार्ज कैप फंड को अब इस का नया नाम रिलायंस क्रेडिट रिस्क फंड नाम दे दिया है। कमोवेश सारी कंपनियों ने ज़बरदस्त धांधली की लेकिन सेबी से लगायत मीडिया और राजनीतिज्ञ आंख मूंदे रहे , आंख मूंदे हुए हैं।  क्यों कि कारपोरेट सेक्टर के हाथों यह सभी गिरवी हैं। हर्षद मेहता से भी बड़ा खेल कर दिया गया है। एल एंड टी ने भी बड़ा खेल किया है। धीरू भाई अंबानी के समय सॉफ्टवेयर की तकनीक नहीं थी , मुकेश अंबानी के समय में सॉफ्टवेयर सब से बड़ा डाकू बन कर उपस्थित है। यह सॉफ्टवेयर ही है जो बैंक से ले कर तमाम कॉर्पोरेट और सरकारी संस्थानों में भी गरीबों को लूटने का सब से बड़ा औजार बन चुका है। 

कांग्रेस को बना बनाया भोजन लेने की आदत बन चुकी है। कोई कुछ भी परोस दे मोदी विरोध के नाम पर , वह फट से लपक लेती है। उस के पास अपना कुछ भी नहीं है। राफाल जैसा हवा-हवाई घोटाला ही कांग्रेस को रास आता है। ज़मीनी घोटालों से वह भी आंख मूंद लेती है। कांग्रेस जो खुद घोटालों की सरताज है वह राफाल को ले कर राफाल की भी ज़्यादा गति से उड़ पड़ी है। राफाल घोटाला जो अभी हुआ ही नहीं है , लेकिन कांग्रेस को सूट करता है जिस को ले कर वह तूफ़ान मचाए हुए है लेकिन  म्युचुवल फंड घोटाले का वह नाम भी नहीं लेती क्यों कि एक साथ सारे कारपोरेट हाऊसों से वह भी पंगा नहीं ले सकती। सभी पार्टियों को इन से चंदा लेना है। मीडिया को विज्ञापन ही ज़्यादा कारपोरेट सेक्टर से ज़्यादा मिलता है सो उस को भी चुप ही रहना है। पैसा ज़्यादातर लोगों का डूबा है लेकिन यह छोटे निवेशक है। सिस्टम छोटे निवेशकों की आवाज़ को आवाज़ नहीं मानता। और भारत में अगर सब से ज़्यादा कोई अगर संगठित है तो वह कारपोरेट सेक्टर है और सब से ज़्यादा कोई एक असंगठित सेक्टर है तो वह उपभोक्ता है। उपभोक्ता की कोई सुनने वाला नहीं है । उपभोक्ता भूसे के ढेर में सूई की तरह गुम है ।

लेकिन मोदी सरकार का यह सब से बड़ा घपला है म्युचुवल फंड घोटाला। 

मोदी सरकार की तमाम नाकामियां सिर्फ यही भर नहीं है। तेल के दाम सैकड़ा पार करने को बेताब है। अमरीकी डालर भी सैकड़ा छूने को बेताब है। लेकिन भाजपा सरकार की मूल चिंता है कि औरतबाजी के समुद्र में गहरे फंसे अपने विदेश राज्य मंत्री एम जे अकबर को कैसे थाम लिया जाए। बेरोजगारी से लड़ने और निपटने की चिंता इस भाजपा सरकार को नहीं है। सरकार की पहली चिंता यह है कि आरक्षण की बैसाखी को वह कितना और मज़बूत बना सकती है। मंहगाई की उछाल आकाश छूती है तो आप की बला से मोदी सरकार की चिंता है कि  एस  सी एस टी एक्ट को कितना सबल बना दें ताकि देश की बाक़ी आबादी इन की ब्लैकमेलिंग और उत्पीड़न के आगे मुर्गा बनी रहे। कश्मीर में आतंक और आतंकवादी जितना भी कहर ढाएं  , पिद्दी भर का पाकिस्तान चाहे जितना भारत और उस की अस्मिता से खेले , खेलता रहे लेकिन मोदी सरकार की चिंता है कि देश में हिंदू , मुसलमान वोट किस हद तक एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो कर भाजपा के पक्ष में पोलराइज हो सकते हैं। 

ठीक है कि नरेंद्र मोदी पर अभी व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अब इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि कारपोरेट सेक्टर को खुली लूट के लिए देश को कारपोरेट के चरागाह में तब्दील कर दिया है। वह देश को अनगिन हाथों से लूट रहे हैं और सरकार सिर्फ़ भ्रष्टाचार से लड़ने का स्लोगन देती रहती है। पाकिस्तान जैसे पिद्दी देश के खिलाफ एक पिद्दी सा सर्जिकल स्ट्राइक कर समूचे देश को मूर्ख बना रखा है। किसी अपराधी को आप सजा दें और वह अपराधी अपना अपराध लगातार दुहराता रहे , उसे हम सजा नहीं मान सकते। सर्जिकल स्ट्राइक का हासिल यही है कि पाकिस्तान रोज ही सरहद पर घात लगा कर भारत का नुकसान करता जा रहा है , बेख़ौफ़। कश्मीर के आतंकवादी संभाल में नहीं आ रहे। तो आप की सरकार कर क्या रही है ? सिर्फ़ हिंदू , मुसलमान ? करना ही है तो चीन से सबक लेना चाहिए। जिस तरह चीन ने इस्लामिक आतंकवाद को काबू करने के लिए सख्त कदम उठाए हैं , उस से भी सख्त कदम उठाने की भारत को ज़रूरत हैं। बंद कर दीजिए कश्मीर में डेमोक्रेटिक प्रासेस। चीन की तरह पूरे कश्मीर में कर्फ्यू लगा कर एक-एक अलगाववादी को चुन-चुन कर अकल ठिकाने लगा दीजिए। जैसे चीन कर रहा है। लेकिन आप तो कश्मीर के अलगाववादियों को सुरक्षा दिए हुए हैं। पैसे की भी और फ़ोर्स की भी। तो कांग्रेस और भाजपा के निजाम में फर्क क्या रहा ? एक के बदले दस सिर लाने का दावा कहां दुबक गया ?

अभी तक पूर्वोत्तर के राज्यों , बंगाल और महाराष्ट्र में ही बिहार और उत्तर प्रदेश के मज़दूरों को मारा पीटा और भगाया जाता था , अब गुजरात में भी यह शुरू हो गया। गुजरात का यह कौन सा मॉडल है भला ? देश गृह युद्ध की तरफ बढ़ रहा है और मोदी सरकार की दिलचस्पी इस गृह युद्ध को रोकने के बजाय कैसे किस राज्य में सरकार बना कर राज करने तक सीमित रह गई है। क्या इसी दिन के लिए सरदार पटेल की विशालकाय प्रतिमा बनाई जा रही है कि उन की प्रतिमा देश को गृह युद्ध में झुलसते हुए देखे ? जिस पटेल ने देश को एक करने में जान लड़ा दी , उस पटेल के राज्य में यह कैसे हो गया जनाब आप के निजाम में ? कश्मीर तो ठीक कर नहीं सके , गुजरात को भी बरबाद कर दिया। हज़ारों , लाखों मज़दूर बेरोजगार , बेघर हो गए। घर में इतना ही पैसा रहा होता तो गुजरात में कमाई करने गए ही क्यों होते भला। 

आप भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बीता चुनाव लड़ कर सत्ताशीन हुए थे मिस्टर मोदी। खास कर सोनिया परिवार को फोकस किया था तब। एक राबर्ट वाड्रा का भी आप कुछ नहीं कर पाए। सिर्फ नौटंकी बन कर रह गया राबर्ट वाड्रा का भ्रष्टाचार। नेशनल हेराल्ड में भी सिर्फ तारीखबाजी हो रही है। कोयला , टू जी में भी सिर्फ जुगाली ही है। उलटे देश भर में भ्रष्टाचार के गंदे नाले समुद्र में तब्दील हुए जा रहे हैं। बिना पैसा दिए एक काम नहीं हो सकता किसी भी सरकारी दफ्तर में। नीरव मोदी , विजय माल्या , मेहुल चौकसी की कालिख भी मोदी सरकार के चेहरे से साफ़ नहीं हो रही। नित नए घपले अलग हैं। सब का साथ , सब का विकास नारा कारपोरेट का साथ , कारपोरेट का विकास में तब्दील हो चुका है। बस दिक्कत एक ही शेष रह गई है कि जैसे 2014 में देश को कांग्रेस का विकल्प भाजपा मिल गई थी , आज भाजपा का कोई विकल्प नहीं मिल पा रहा। यकीन मानिए विकल्प मिलते ही कांग्रेस से बुरी दुर्गति भाजपा की होने जा रही है। रही बात कांग्रेस की तो वर्तमान में वह शिखंडी की भूमिका में उपस्थित है। सो कांग्रेस तो भाजपा का विकल्प बनने से रही। 

Friday 12 October 2018

इंदिरा , फिरोज और लखनऊ की दो औरतें

दयानंद  पांडेय 


इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी के आपसी झगड़े जब बहुत बढ़ गए तो नेहरु ने फिरोज गांधी और इंदिरा को लखनऊ भेज दिया । लखनऊ में रहने के लिए फिरोज गांधी को नेशनल हेराल्ड का काम धाम थमा दिया । लखनऊ के शाहनज़फ़ रोड पर एक बंगले में फिरोज और इंदिरा गांधी रहने लगे थे। लेकिन झगड़े खत्म होने के बजे बढ़ने लगे । फिरोज इंदिरा गांधी को किक कर ज्यादा समय सरोजनी नायडू की बेटी के साथ राजभवन में बिताने लगे । सरोजनी नायडू उन दिनों उत्तर प्रदेश की राज्यपाल थीं । फिर फ़िरोज़ गांधी सिर्फ सरोजनी नायडू की बेटी के अलावा लखनऊ की एक और औरत पर फ़िदा हुए । वह औरत तब कविताएं लिखती थी । महत्वाकांक्षी बहुत थी । बाद के दिनों में राजनीति में भी आई । ताकतवर मंत्री रहीं ।

फिरोज गांधी के निधन के बाद भी इंदिरा गांधी उस औरत को हमेशा सिर पर बिठा कर रखती रहीं । कि वह कहीं कोई निजी बात न बोल दे । सो मुख्यमंत्री कोई हो , सरकार में ताकतवर मंत्री बन कर यह औरत हमेशा रही , जब तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही । मंत्री रहते एक से एक अजब-गज़ब फैसले लिए । जैसे एक बार जब छात्र संघ आंदोलन पूरे उत्तर प्रदेश में सरकार की सांसत का सबब बन गया तो बतौर शिक्षा मंत्री सभी वाईस चांसलर की मीटिंग बुला कर कह दिया कि सभी जगह सेशन अनियमित कर दिए जाएं । कहीं जुलाई में सेशन शुरू हो तो कहीं जनवरी में । सेशन अनियमित रहेंगे तो छात्र एकजुट नहीं हो पाएंगे और आंदोलन टूट जाएगा । यही हुआ भी । इस चक्कर में कई जगह सेशन दो-दो साल पीछे हो गए , रद्द हो गए । छात्रों का जो नुकसान हुआ सो हुआ , सरकार सांसत से बच गई । ऐसे और भी कई सारे फ़ैसले और घटनाएं हैं ।

एक बार एक दारोगा का ट्रांसफर रोकने के लिए वह एस एस पी , लखनऊ पर बहुत दबाव बनाती रहीं । एस एस पी ने हाथ खड़े कर दिए । कहा कि बात डी जी पी तक पहुंच गई है , उन्हीं से बात करें । डी जी पी से भी कहा । डी जी पी ने भी उस दारोगा का ट्रांसफर नही रोका तो एक दिन सारा प्रोटोकाल तोड़ कर वह डी जी पी के आफिस पहुंच गईं । डी जी पी पर बरसने लगीं । एक चतुर्वेदी जी तब डी जी पी थे । जब बहुत हो गया तो उन्हों ने कमरे में टंगी अपनी फ़ोटोदिखाते हुए कहा , मैडम यह फ़ोटो यहां टंग गई है , अब उतरेगी नहीं । बोर्ड पर डी जी पी की सूची में लिखा अपना नाम दिखाया और कहा कि अब यह मिटेगा नहीं । बाकी आप माननीय मिनिस्टर हैं , जो चाहें कर सकती हैं । लेकिन इस दारोगा का ट्रांसफर मेरी कलम से नहीं रद्द होने वाला । वह जैसे भड़भड़ाती हुई आई थीं , वैसे ही भड़भड़ाती हुई चलीं गईं । संयोग से तब मैं चतुर्वेदी जी के साथ ही बैठा था , एक ख़बर के सिलसिले में । मैं ने पूरा विवरण लिख दिया । खबर उछाल कर छपी अख़बार में ।

सुबह-सुबह चतुर्वेदी जी का फोन मेरे पास आया । वह बहुत नाराज थे । बोले , कम से कम यह ख़बर आप को नहीं लिखनी चाहिए थी । एक बार मुझ से पूछ तो लिया होता । दिन में जब आफिस पहुंचा था मंत्री जी का खंडन और फोन दोनों आ चुका था । मंत्री जी ने लिखा था , खबर पूरी तरह मनगढ़ंत है । मैं कभी डी जी आफिस नहीं गई थी । न ऐसे किसी दारोगा को वह जानती हैं । प्रोटोकाल के मुताबिक उन्हें डी जी पी आफिस जाना भी नहीं चाहिए था । मैं ने फोन कर चतुर्वेदी जी को बताया कि आप की मैडम का खंडन आ गया है जिस में उन्हों ने लिखा है कि वह आप के पास कभी गई ही नहीं । न ऐसे किसी दारोगा को जानती हैं । अमूमन संजीदा और गंभीर रहने वाले चतुर्वेदी जी हंसे और बोले , फिर आप भी भूल जाईए और कोई फालोअप न ही लिखें तो अच्छा रहेगा । इन मंत्री मैडम के ऐसे और भी बहुत किस्से हैं जो फिर कभी । वह घोड़े पर सर्वदा इस लिए सवार रहती थीं कि फ़िरोज़ गांधी की सूची में वह कभी रही थीं और कि इंदिरा गांधी उन्हें सिर पर बिठाए रखती थीं ।

एक बार एक सेक्सलाजिस्ट के खिलाफ मैं ने खबर लिखी । इन मंत्री जी ने उस खबर को रोकने की जी तोड़ कोशिश की । खबर रुक भी गई तब । मालिकान ही रोक दिए उस खबर को । लेकिन संपादक की दिलचस्पी के चलते कुछ दिन बाद वह खबर छप गई । मंत्री मैडम धड़धड़ाती हुई संपादक की केबिन में पहुंची । और जो-जो नहीं कहना चाहिए था , कहा । संपादक ने हंसते हुए पूछ लिया कि , मैडम इस डाक्टर से आप भी अपना इलाज करवाती हैं क्या ? वह बिलकुल चुप हो गईं और चुपचाप चली गईं ।

एक पुराने राजनीतिज्ञ कान में फुसफुसा कर बताते थे कि जब यह औरत फ़िरोज़ से मिलने जाती थी , तो जाने के पहले बाथटब में शराब भर कर कुछ देर उस में लेट जाती थी। अजब नुस्खा था यह भी । इंदिरा गांधी भी खाली नहीं रहीं । तब के उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के साथ उन का समय गुजरने लगा था । शाहनज़फ़ रोड पर इन सब चीजों को ले कर इंदिरा और फ़िरोज़ के बीच झगड़े जब बहुत बढ़ गए , झगड़े का शोर सड़क तक सुनाई देने लगा तो नेहरु ने दोनों को लखनऊ से वापस दिल्ली बुला लिया । फ़िरोज़ गांधी के साथ जुड़ी वह औरत आज भी जीवित है । सेंचुरी में कदम हैं । स्वस्थ और सक्रिय हैं।

तो क्या यह मैडम मिनिस्टर रही भी कभी मी टू लिखेंगी ?

यह कौन सा मी टू है भला , क्या यह और ऐसे पत्रकार भी कभी कोई मी टू लिखेंगे ?

उन दिनों उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव मुख्य मंत्री हुआ करते थे। नारायणदत्त तिवारी बस विदा ही हुए थे । तिवारी जी की सूची में किसिम-किसिम की औरतें थीं । महिला पत्रकार भी । एक अंगरेजी अख़बार की पत्रकार तो सुंदर भी बहुत थीं और तिवारी जी की प्रिय भी बहुत । सब के सामने ही उन्हें तिवारी जी जब-तब उन के कंधे से पकड़ कर एक बांह में ले लेते थे । मोहतरमा को कोई ऐतराज नहीं होता था । उन दिनों एक किस्सा यह भी हुआ था कि तिवारी जी की पत्नी सुशीला जी के जन्मदिन पर एक आई ए एस अफसर ने हीरों का हार भेंट में दिया था । वही हीरों का हार तिवारी जी ने अपने एक सचिव की बेटी के जन्म-दिन पर उसे भेंट में दे दिया , उस अफ़सर के सामने ही । बाद में पता चला कि उस सचिव की बेटी भी तिवारी जी की सूची में शुमार हो गई । आई ए एस की बेटी होने के बाद भी वह एक अंगरेजी अख़बार में तब तिवारी जी की सिफारिश पर लखनऊ में ही काम करने लगी , हैंडसम सेलरी पर । खैर कांग्रेस चुनाव हार गई , मुलायम सिंह मुख्य मंत्री बन गए । मुलायम सिंह भी पत्रकारों पर मेहरबान हुए । खूब खुल कर । किसिम-किसिम से उपकृत किया पत्रकारों को । लेकिन देखा गया कि अचानक दो पत्रकार मुलायम के बहुत करीब हो गए । दोनों अनुभवहीन थे लेकिन युवा थे , गोरे-चिट्टे । देखते-देखते मुलायम के हरम के सदस्य हो गए ।

तिवारी जी महिलाओं के शौक़ीन थे लेकिन मुलायम का शौक बदला हुआ था । इस में एक पत्रकार तो भाजपा पृष्ठभूमि से थे । ट्रेनी से स्टाफर बने थे । लेकिन लिखना-पढ़ना जानते थे । जब कि दूसरा टोटल जाहिल था । अपनी जहालत के चक्कर में वह जल्दी ही मुलायम की सूची से बाहर भी हो गया । फिर एक संपादक की सेवा में लग गया । देखते-देखते दलाली में एक्सपर्ट हो गया । दलाली में निपुण भाजपा पृष्ठभूमि वाला पत्रकार भी हुआ । बाद में इस पत्रकार की शादी में भी मुलायम शामिल हुए मय मंत्रिमंडल के । विवाह के बाद जनाब स्टेट हेलीकाप्टर से नैनीताल गए हनीमून मनाने । अब स्टेट हेलीकाप्टर के लिए साथ में कोई मंत्री या सरकारी अफसर भी साथ होना चाहिए था , प्रोटोकाल का तकाजा था । सो एक कैबिनेट मंत्री भी साथ भेजे गए नैनीताल । यह मंत्री भी दूसरी लाईन वाले शौक़ीन थे ।

तो एक अख़बार ने अपने टिट-बिट कालम में छापा कि डबल हनीमून मना । बाद के दिनों में इस पत्रकार ने मुड़ कर नहीं देखा । मुलायम की पहल पर अखिलेश सरकार ने यश भारती से भी बाद के समय में नवाजा । मुलायम के बाद भाजपा सरकार बनी तो भाजपा का दुलारा । कल्याण सिंह , राजनाथ सिंह जो भी मुख्य मंत्री बना , सब का दुलारा । लखनऊ का सब से बड़ा पावर ब्रोकर । लेकिन पूरी शालीनता से । फिर एक बड़े चैनल में दिल्ली स्थापित हो गया । अचानक देखते ही देखते पहले करोड़ों में फिर दिल्ली जा कर अरबों में खेलने लगा । एक मामले में सी बी आई के फेर में आया । नौकरी से भले विदा होना पड़ा पर बाक़ी राजनाथ सिंह की कृपा से बाल भी बांका नहीं हुआ । नया चैनल खोलने की तैयारी है ।

यह कौन सा मी टू है भला ? क्या यह और ऐसे पत्रकार भी कभी कोई मी टू लिखेंगे ?

तारकेश्वरी सिनहा , नेहरु और न्यूड पेंटिंग


तारकेश्वरी सिनहा की याद है आप को ? वही बिहार वाली । बोल्ड एंड व्यूटीफुल । गज़ब की पर्लियामेंटेरियन थीं । उन की शेरो-शायरी से उन के भाषण ही नहीं , संसद भी गुंजायमान रहती थी । उन की शेरो शायरी , उन की सुंदरता , उन की दिलफरेब अदाएं , तिस पर उन का युवा होना चहुँ ओर चर्चा में रहता था । पंडित नेहरु के समय जब वह पहली बार सांसद चुन कर आईं तो एक दिन नेहरु के पी ए मथाई ने उन को फोन कर बताया कि पंडित जी आप से मिलना चाहते हैं । तारकेश्वरी बहुत खुश हुईं । तब वह 26 साल की थीं। तय समय पर वह पहुंचीं भी पंडित नेहरु से मिलने । लेकिन मथाई ने बहुत देर तक अपने पास ही बिठाए रखा और इधर-उधर की बातें करते रहे । मथाई की बातों से ऊब कर तारकेश्वरी ने पूछा कि आखिर कब मिलेंगे पंडित जी । मथाई ने बताया जल्दी ही । फिर कहा कि आइए तब तक आप को कुछ पेंटिंग दिखाते हैं। 

पेंटिंग रुम में जब मथाई के साथ वह पहुंचीं तो वहां बहुत सारी न्यूड पेंटिंग भी दीवार पर उपस्थित थीं , जिन्हें मथाई उन्हें दिखाने लगे । तारकेश्वरी सिनहा सहसा न्यूड पेंटिंग देख कर असहज हो गईं । थोड़ी देर बाद जब वह पंडित नेहरु से मिलीं तो उन्हों ने सकुचाते हुए , मथाई की शिकायत करते हुए बताया कि यह तो आज मुझे न्यूड पेंटिंग दिखा रहे थे । यह सुन कर नेहरु मुस्कुरा कर रह गए । नेहरु ने साथ उपस्थित मथाई से इस बाबत एक शब्द भी नहीं कहा । एक समय धर्मयुग में लिखे अपने एक लेख में तारकेश्वरी सिनहा ने यह विवरण विस्तार से दर्ज करते हुए यह भी दर्ज किया है कि मथाई ने नेहरु की ब्रीफिंग के मुताबिक ही उन्हें न्यूड पेंटिंग दिखाने की हिमाकत की थी । यह न्यूड पेंटिंग दरअसल थर्मामीटर था , जिस से नेहरु तारकेश्वरी का मिजाज और खुलापन नाप कर अपने करीब लाने के लिए आजमा रहे थे । 

तारकेश्वरी ने उस लेख में तो यह बात नहीं दर्ज की है पर समय की दीवार पर यह बात दर्ज है कि वह नेहरु की करीबी बन गई थीं । दिलचस्प यह भी है कि तारकेश्वरी ने यह बात धर्मयुग में छपे लेख में तब लिखी जब नेहरु नहीं रहे थे । नेहरू मंत्रिमंडल में रही तारकेश्वरी सिनहा मोरार जी देसाई से भी जुड़ी रहीं थीं ।  मोरार जी के चक्कर में एक बार तारकेश्वरी ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या की कोशिश भी की थी ।  मोरार जी ने किसी तरह उन्हें बचा लिया । लोहिया और फिरोज गांधी के साथ भी तारकेश्वरी सिनहा अटैच रही थीं। 

तो क्या यह भी मी टू था ?

Thursday 11 October 2018

मी टू मतलब औरत , दौलत और शोहरत का एक्स्टेंशन


अगर मैं कहूं कि खाई-पीई अघाई , मौकापरस्त और बिगडैल औरतों की कुंठा और ब्लैकमेलिंग का एक नाम मी टू भी है , तो आप क्या कहेंगे । मेरा स्पष्ट मानना है कि मी टू मतलब औरत , दौलत और शोहरत का एक्स्टेंशन । अंतिम सच यही है । आप शानदार नौकरी में हैं , फिल्म में हैं और आप के साथ कोई अभद्रता करता है तो आप बरसों इंतज़ार करेंगी यह बात कहने के लिए ? सीधी सी बात है कि तब आप अपनी देह का अपनी तरक्की में इस्तेमाल कर रही थीं , अब बरसों बाद आप को वह दर्द याद आया है । अरे आप को तभी चप्पल खींच कर , झाड़ू खींच कर या जो भी हाथ में मिलता , उस व्यक्ति को पूरी ताकत से मारना था , तभी पुलिस के पास जाना था , कोर्ट जाना था , समाज में चीख-चीख कर यह सब बताना था । कोई छोटी बच्ची नहीं थीं , पूरी तरह समर्थ थीं आप , जब यह कुछ अप्रिय आप के साथ गुज़रा । उसी क्षण वह नौकरी , वह काम छोड़ देना था । आख़िर तरुण तेजपाल ने शराब के नशे में धुत्त हो कर जिस लड़की के साथ बदसलूकी की थी , उस लड़की ने तुरंत प्रतिरोध किया था , पुलिस में गई और तरुण तेजपाल को जेल हुई ।लेकिन आप तो सब कुछ हासिल करते हुए , सब कुछ निभाती रही थीं तब ।

बहुत सी मशहूर औरतें तो अपने पति तक के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट करती हुई दिखी हैं । ज़ीनत अमान और विद्या सिनहा जैसी हीरोइनें पुलिस में अपने पतियों के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा चुकी हैं । लेकिन वहीँ रेखा , परवीन बाबी जैसी औरतें कभी नहीं गईं अमिताभ बच्चन के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाने । परवीन बाबी ने एकाध बार शराब के नशे में दबी जुबान कुछ कहा भी अमिताभ के लिए । लेकिन महेश भट्ट के खिलाफ नहीं । मधुबाला दिलीप कुमार या अशोक कुमार के खिलाफ नहीं बोलीं । नरगिस ने राज कपूर के खिलाफ कुछ नहीं कहा , वहीदा रहमान ने देवानंद के खिलाफ नहीं कहा । सुरैया ने देवानंद के खिलाफ कुछ नहीं कहा । जब कि वहीँ मीना कुमारी अपने पति कमाल अमरोही के खिलाफ खुल कर बोलीं । ऐसी बहुत सी कही-अनकही कथाएं हैं फिल्मों में । तो अब आलोकनाथ या नाना पाटेकर के खिलाफ इतने सालों बाद बिगुल बजाने का क्या मतलब ?

इसी तरह क्या एक एम जे अकबर ही हैं पत्रकारों में लंपट और औरतबाज । अब तो लगभग हर संपादक औरतबाज है । और देख रहा हूं कि औरतें खुशी-खुशी उन के साथ हमबिस्तरी करती हुई तमाम लोगों का हक़ मार रही हैं । दर्जनों नाम हैं । दैनिक भास्कर के समूह संपादक रहे , कल्पेश याज्ञनिक और सलोनी अरोड़ा की ब्लैकमेलिंग की कहानी बस अभी-अभी की है । कल्पेश ने कूद कर जान दे दी और सलोनी अरोड़ा जेल में हैं । ऐसी तमाम दबी ढंकी , जानी-पहचानी कहानियां हैं ।

लखनऊ में तो एक ऐसे संपादक थे जो हर व्यूरो में एक रखैल रखते थे । जब कि एक संपादक खुले आम अपनी सहकर्मी स्त्रियों के साथ नोच-खसोट करते रहते थे और औरतें हंसती रहती थीं । हमबिस्तरी भी करते थे और सार्वजनिक रूप से लात भी मार देते थे , गालियां देते हुए दुत्कार देते थे । औरतें फिर भी उन से लिपटी रहतीं । एक पत्रकार तो लखनऊ के कुकरैल जंगल में एक रिपोर्टर लड़की के साथ शराब पी कर कार की बोनट पर निर्वस्त्र मिले एक दारोगा को । जब दारोगा ने टोका तो वह पत्रकार बोला , तुम्हारी नौकरी खा जाऊंगा ! दारोगा ने वायरलेस पर एस एस पी को यह संदेश दिया और बताया कि मेरी नौकरी खा जाने की धमकी भी दे रहे हैं । तो एस एस पी ने दारोगा से कहा , वह ठीक कह रहे हैं । तुम वहां से चले जाओ ।

और तो और अयोध्या में एक तरफ बाबरी ढांचा गिराया जा रहा था और दूसरी तरफ लखनऊ से गए दो संपादक एक रिपोर्टर को अपने साथ सुलाने की प्रतिद्वन्द्विता में उलझे हुए थे । गज़ब यह कि वह रिपोर्टर दोनों ही को उपकृत कर रही थी । छोड़िए लखनऊ में एक ऐसा भी संपादक भी हुआ है जो काना और अपढ़ होने के साथ ही अपनी औरतबाजी और दलाली के लिए भी खूब जाना गया । तरह-तरह की दर्जन भर से अधिक औरतें उस की सूची में उपस्थित हैं । सहकर्मी महिला पत्रकार , सहकर्मी पत्रकारों की बीवियों से लगायत गायिका तक । इस काने संपादक का परिवार टूट गया इस औरतबाजी के फेर में लेकिन इस की औरतबाजी नहीं गई । पैसा भी खूब कमाया इस ने अरबपति भी है । औरतों के साथ ही बारात घर से लगायत इंजीनियरिंग कालेज , मैनेजमेंट कालेज और फार्म हाऊस की बहार भी है इस के पास । लखनऊ के एक संपादक जो अब दिल्ली के एक अख़बार से बतौर संपादक रिटायर हो गए हैं , लौंडेबाजी के लिए भी जाने जाते थे ।

दिल्ली के तमाम संपादकों के अनगिन किस्से हैं । प्रणव रॉय के अनगिन किस्से हैं , बरखा दत्त से लगायत किन-किन का नाम लूं । सुधीर चौधरी तो नोएडा के अट्टा बाजार में एक रात एक सहयोगी एंकर को कार की डिग्गी में संभोगरत स्थिति में पुलिस द्वारा पकड़े गए थे । बाद में इस महिला एंकर का सुधीर चौधरी से अनबन हो गया तो उस ने इन का एक आपत्तिजंक आडियो जारी कर दिया । तो सुधीर चौधरी ने उस एंकर का अपने साथ संभोगरत वीडियो जारी कर दिया ।

किन-किन का बखान करूं , किन-किन को छोड़ दूं । लेकिन कोई औरत इन सब के बारे में नहीं लिख रही - मी टू । तो क्यों ? यह सवाल भी समझना बहुत कठिन नहीं है । अगर यह सारे पत्रकार भी आज एमं जे अकबर की तरह मंत्री बन जाएं तो देखिए क्या-क्या गुल खिलते हैं । बात वही कि तब स्वीटू थे , अब मीटू हैं ।





गांधी को महात्मा की उपाधि रवींद्रनाथ टैगोर ने दी थी लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि गांधी ने जयप्रकाश नारायण को समाजवाद का आचार्य कहा था । यह बात भी कम लोग ही जानते हैं कि आखिरी समय में नेहरु और पटेल की निरंतर उपेक्षा से आहत हो कर महात्मा गांधी ने जयप्रकाश नारायण को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव दिया था । यह प्रस्ताव पा कर जयप्रकाश नारायण ख़ुश भी बहुत हुए थे । लेकिन यह प्रस्ताव देने के बाद दूसरे ही दिन गांधी की हत्या हो गई । जयप्रकाश नारायण और उन की पत्नी प्रभावती गांधी की हत्या कि ख़बर से इतना हताश हो गए , उन का सपना इस कदर टूट गया कि गांधी के अंतिम दर्शन के लिए भी वह नहीं गए । दिल्ली में रहने के बावजूद तब दिल्ली में नहीं रुके । गांधी की अंत्येष्टि में शामिल होने के बजाय सीधे पटना की ट्रेन पकड़ लिया । रही बात प्रभावती की तो वह गांधी के सत्य का प्रयोग की साझेदार भी लंबे समय तक रही थीं । वह गांधी के प्रभाव में इतना थीं कि एक समय जयप्रकाश को छोड़ने के लिए भी तैयार हो गई थीं । तलाक़ की नौबत आ गई थी । जयप्रकाश नारायण ने अंततः गांधी को इस बाबत कई चिट्ठियां लिखीं और कहा कि प्रभावती को अपने आश्रम और अपनी सेवा से मुक्त कर वापस उन के पास भेज दें । लेकिन प्रभावती गांधी का साथ छोड़ने के लिए हरगिज तैयार नहीं थीं । गांधी ने जयप्रकाश नारायण को लिखा कि तुम चाहो तो दूसरा विवाह कर लो , प्रभावती तुम्हारे पास नहीं जाएगी । सरोजनी नायडू के पति बार-बार गांधी के पास उन के आश्रम आते। चीखते-चिल्लाते। लेकिन सरोजनी नायडू गांधी को छोड़ कर नहीं जातीं। राजकुमारी अमृता कौर , मेडेलीन स्लेड उर्फ मीराबेन , निला क्रैम कुक , सरला देवी चौधरानी , डॉ सुशीला नय्यर , आभा गांधी और मनु गांधी समेत कुछ और देशी , विदेशी स्त्रियां थीं , जो सब कुछ के बावजूद गांधी को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं होती थीं। 

तो क्या यह सब भी मी टू था ? 


मेरे एक आई ए एस मित्र हैं । बहुत बड़े-बड़े पदों पर रह चुके हैं । तबीयत से पूरे फक्कड़ और बेलौस । साहित्य की गहरी समझ । मीर उन के पसंदीदा शायर । बल्कि मीर को वह जब-तब मूड में आ कर सुनाने भी लगते हैं । भाव-विभोर हो कर । हरियाणा के मूल निवासी , गोरा , लंबा कद , और हरियाणवीपन में तर-बतर । लेकिन बेहद ईमानदार और दिल के साफ़ । उन के साथ के तमाम खट्टे-मीठे किस्से हैं । बाद में उत्तर प्रदेश की राजनीति से आजिज आ कर वह उत्तराखंड चले गए । वहां भी मुख्य मंत्री के सचिव रहे । एक समय हम लोगों का नियमित मिलना-जुलना और उठाना-बैठना होता था । मेरे घर के पास ही बटलर पैलेस कालोनी में रहते थे । कभी वह मेरे घर आ जाते , कभी हम उन के घर । मेरे लिखे पर फ़िदा रहते थे वह । नब्बे के दशक के शुरुआती दिन थे जब वह लंदन भेजे गए ट्रेनिंग पर । लंदन से भी जब तब मूड में आ कर वह फ़ोन करते रहते । जेनरली रात को । बहकते हुए वहां की किसिम-किसिम की बातें बताते । एक सुबह अचानक उन का फ़ोन आया । मैं सोया हुआ था । उन के फ़ोन से उठा और पूछा कि इतनी सुबह-सुबह ? वह बोले , हां । और संजीदा हो कर बतियाने लगे । मुझे जब मुश्किल हुई तो पूछा , आप लंदन में हैं कि आ गए हैं ? वह बोले , आ गया हूं । मैं अचकचाया और पूछा कि आप तो साल भर के लिए गए थे , इतनी जल्दी ? वह बोले , शाम को घर आइए फिर तफ़सील से बतियाते हैं ।

गया शाम को ।

अपनी तमाम दिक्कतें लंदन की बताने लगे । लेकिन ट्रेनिंग छोड़ कर अचानक भारत कैसे आ गए ? पूछने पर वह हंसे और बोले , आया नहीं , भेजा गया हूं कि फ़ेमिली को साथ ले कर वहां रहूं । तो फेमिली लेने आया हूं । किस्सा कोताह यह था कि वह जब भारत से लंदन भेजे गए तो जाने से पहले ही यहां भी एक ट्रेनिंग दी गई थी । बताया गया था कि अगर कोई अंगरेज औरत मिले तो उस से हाथ जोड़ कर मिलें । हाथ नहीं मिलाएं , गले नहीं मिलें , चूमा-चाटी नहीं करें। आदि-इत्यादि । वह एड्स के आतंक के दिन थे और कहा जाता था कि किस से भी एड्स हो जाता है । अब एक दिन किसी पार्टी में कोई अंगरेज औरत आई और हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया । इन्हों ने हाथ मिलाने के बजाए हाथ जोड़ लिया । उस औरत ने तंज किया कि हैंड शेक से इतना डरते हो , कैसे मर्द हो ? इन का भी तीन-चार पेग हो गया था । बहकते हुए बोले , हैंड शेक क्या , मैं तो तुम्हारे साथ लेग शेक भी करने को तैयार हूं , लेकिन अपने देश की परंपरा और अनुशासन से बंधा हूं । तंज के जवाब में कही यह बात इन को भारी पड़ गई। दूसरे दिन किसी भारतीय अफ़सर ने इन के लेग शेक वाली बात की रिपोर्ट कर दी । उन को तुरंत भारत जा कर अपनी फ़ेमिली ले कर ट्रेनिंग पर लौटने की हिदायत दी गई । कहा गया कि लेग शेक के लिए अपनी फेमिली ले आइए । तो तब वह फ़ेमिली लेने लखनऊ लौटे थे ।

तो क्या यह भी मी टू था ?



एक समय उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव थे रामलाल । मुख्य सचिव मतलब प्रदेश का सब से बड़ा अफ़सर । नारायणदत्त तिवारी मुख्य मंत्री थे और इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री । लंदन से एक मिनिस्टर सपत्नीक आए थे सरकारी यात्रा पर । मंत्री की पत्नी के पिता ब्रिटिश पीरियड में लखनऊ की रेजीडेंसी में रह चुके थे । मिनिस्टर की पत्नी बिना किसी प्रोटोकाल के लखनऊ घूमना चाहती थीं । रेजीडेंसी देखना चाहती थीं । पिता की यादों को ताज़ा करना चाहती थीं । इंदिरा जी ने नारायणदत्त तिवारी से बिना किसी प्रोटोकाल के किसी सीनियर अफ़सर को उन के साथ लगा देने को कहा । तिवारी जी ने सीधे मुख्य सचिव को ही उन के साथ लगा दिया । मुख्य सचिव रामलाल ने मोहतरमा के साथ पूरा सहयोग करते हुए लखनऊ घुमाया। मोहतरमा उन के साथ बहुत ही सहज हो गईं । कह सकते हैं कि खूब खुल गईं ।

देर शाम कोई आठ बजे रामलाल ने मोहतरमा का हालचाल लेने के लिए फ़ोन किया और पूछ लिया , कैसी हैं । मोहतरमा बेकत्ल्लुफ़ हो कर बोलीं , अकेली हूं । रामलाल तब तक देह में शराब ढकेल चुके थे । कुछ शराब का असर था , कुछ मोहतरमा की बेतकल्लुफी । रामलाल बहक गए । सो बोले , कहिए तो मैं जाऊं , अकेलापन दूर कर दूं । मोहतरमा ने बात टाल दी और पलट कर अपने पति से रामलाल की लंपटई की शिकायत की । पति ने इंदिरा गांधी को यह बात बताई । इंदिरा गांधी फोन कर नारायणदत्त तिवारी पर बरस पड़ीं कि किस बेवकूफ को साथ लगा दिया ! अब दूसरे दिन रामलाल जब आफिस पहुंचे तो वहां उन के आफ़िस में ताला लटका मिला । ताला देखते ही वह भड़क गए । बरस पड़े कर्मचारियों पर । लेकिन ताला फिर भी नहीं खुला । तो वह और भड़के , कि तुम सब की नौकरी खा जाऊंगा ! लेकिन ताला नहीं खुला तो नहीं खुला ।

मौका देख कर एक जूनियर अफ़सर उन के पास आया और धीरे से बताया कि माननीय मुख्य मंत्री जी के निर्देश पर यह सब हुआ है , कृपया माननीय मुख्य मंत्री जी से मिल लीजिए । अब रामलाल के होश उड़ गए कि क्या हो गया भला ? भाग कर मुख्य मंत्री आवास गए । तिवारी जी शालीन व्यक्ति हैं , संकेतों में सब समझा दिया । लेकिन रामलाल अब मुख्य सचिव नहीं रह गए थे । उन्हें परिवहन निगम का चेयरमैन बना दिया गया था । लेकिन तब यह खबर किसी अख़बार में नहीं छपी । लेकिन बहुत पहले जब यह किस्सा एक आई ए एस अफ़सर ने मुझे सुनाया तो मैं ने उन्हें खुमार बाराबंकवी का एक शेर सुना दिया :

हुस्न जब मेहरबां हो तो क्या कीजिए 
इश्क के मग्फिरत की दुआ कीजिए ।

कोई धोखा न खा जाए मेरी तरह 
सब से खुल कर न ऐसे मिला कीजिए ।

तो क्या यह भी मी टू ही था ?



मी टू को ले कर एम जे अकबर का लोग ख़ूब मज़ा ले रहे हैं । जानने वाले जानते हैं कि एम जे अकबर औरतों के बाबत मुग़लकाल के शासक अकबर से ज़रा भी कम नहीं रहे हैं । खुशवंत सिंह के शिष्य रहे पैतीस साल की कम उम्र में संडे जैसी पत्रिका के संपादक बन जाने वाले एम जे अकबर से जुड़ी औरतों की एक लंबी फेहरिस्त है । तमाम नामी महिला पत्रकार अकबर से जुड़ कर फख्र महसूस करती रही हैं । अकबर की करीबी रही मशहूर पत्रकार सीमा मुस्तफ़ा तो जैसे एक समय अकबर के लिए ही जीती थीं । लेकिन ऐसा नहीं कि सीमा मुस्तफ़ा सिर्फ़ अकबर की दीवार में कैद थीं । एक समय पाकिस्तान क्रिकेट टीम भारत आई थी । तब सीमा मुस्तफ़ा इंडियन एक्सप्रेस में थीं और सीमा ने इमरान खान का इंटरव्यू लिया । इंटरव्यू में सीमा मुस्तफ़ा ने लिखा था कि इमरान खान ने कहा कि बिना हमबिस्तरी किए मैं इंटरव्यू नहीं देता । और मैं इंटरव्यू ले आई । यह सब इंडियन एक्सप्रेस में तब छपा और इंटरव्यू से ज़्यादा इस प्रसंग की चर्चा हुई थी तब । क्या यह भी मी टू था ? वैसे भी इमरान खान की मी टू वाली फेहरिस्त दुनिया भर में है । भारत में भी बहुतेरी हैं । फ़िल्म अभिनेत्री ज़ीनत अमान से ले कर सीमा मुस्तफ़ा तक । बहरहाल . एम जे अकबर आज की तारीख में भले भाजपा में हैं , केंद्र सरकार में विदेश राज्य मंत्री भी हैं लेकिन एक समय अकबर जबर सेक्यूलर हुआ करते थे और कि कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत कर किशनगंज , बिहार से सांसद भी रहे हैं । अकबर की ही तरह सीमा मुस्तफ़ा ने भी एक बार उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थ नगर ज़िले की डुमरियागंज लोक सभा सीट से चुनाव लड़ा था पर हार गईं ।



एम जे अकबर से भी ज़्यादा लंपट और उजड्ड संपादक भारतीय पत्रकारिता में हुए हैं । भोगी हुई औरतों की सेंचुरी बनाने वाले संपादक तो हिंदी में भी हुए हैं । अंगरेजी पत्रकारिता के तो खैर कहने ही क्या । एक से एक तरुण तेजपाल सामने हैं । लेकिन कुछ औरतें सिर्फ़ एम जे अकबर के पीछे पड़ी हैं और एक ख़ास पाकेट इसे खूब हवा दे रहा है । तो सिर्फ इस लिए कि यह लोग एम जे अकबर पर हमला नहीं कर रहे , भाजपा पर हमला कर रहे हैं । अकबर तो बस बहाना हैं , भाजपा निशाना है । अकबर की बड़ी ग़लती यह है कि वह पत्रकारिता और कांग्रेस छोड़ कर न सिर्फ़ भाजपा में हैं बल्कि सरकार में विदेश राज्य मंत्री भी हैं । आज अगर एम जे अकबर भाजपा सरकार में मंत्री न होते तो अकबर से कभी उपकृत होने और मलाई काटने वाली यह औरतें मुंह न खोलतीं । जो लोग अकबर को उन के मी टू के लिए कोस रहे हैं , वह लोग एम जे अकबर की भारतीय पत्रकारिता में दमदार उपस्थिति को क्यों भूल जाते हैं । एम जे अकबर जैसे जीनियस पत्रकारिता में मुश्किल से मिलते हैं । एम जे अकबर अंगरेजी के जीनियस तो हैं ही , हिंदी पत्रकारिता को भी एक नया तेवर देने के लिए हम जानते हैं । लेकिन यह सब लिखने का मतलब यह हरगिज नहीं कि अकबर के गलत कामों की मैं पैरवी कर रहा हूं । स्त्री अस्मिता हर हाल में एम जे अकबर और एम जे अकबर के काम से बड़ी है । और किसी भी सभी समाज के लिए बहुत ज़रूरी ।


अभी तक अभिनेता नाना पाटेकर के कारण मी टू की चिंगारी फूट रही थी लेकिन ज्यों ही विदेश राज्य मंत्री एम जे अकबर मी टू के सीन में आए , मी टू शोला बन गया है , एजेंडा लेखकों और पत्रकारों के भाग्य से छींका टूट गया है । अब यह गुजरात से उत्तर प्रदेश और बिहार के मज़दूरों को जबरिया भगाने से बड़ी खबर हो गई है एजेंडाधारियों की नज़र में ।




1996 में संजय लीला भंसाली निर्देशित एक फिल्म आई थी जिस के हीरो सलमान खान थे और हिरोइन मनीषा कोइराला । नाना पाटेकर मनीषा कोइराला के पिता की भूमिका में थे और सीमा विश्वास मां की भूमिका में । नाना और सीमा विश्वास इस फ़िल्म में गूंगे और बहरे थे । गूंगे-बहरे का अद्भुत अभिनय किया था नाना पाटेकर और सीमा विश्वास ने । इस फिल्म में नाना पाटेकर भले मनीषा कोइराला के पिता की भूमिका में थे लेकिन मनीषा कोइराला उन को ले कर बहुत पजेसिव थीं । नहीं चाहती थीं कि कोई और औरत नाना पाटेकर के आस-पास भी फटके । लेकिन उन दिनों की एक मशहूर अभिनेत्री थीं आयशा जुल्का , जो इस फिल्म में कोई भूमिका तो नहीं कर रही थीं लेकिन नाना पाटेकर के चक्कर में सेट पर आती रहती थीं । न सिर्फ़ आती रहती थीं , अक्सर नाना पाटेकर के मेकप रुम में भी पहुंचती रहती थीं । मनीषा कोइराला जब कभी आयशा जुल्का को नाना के साथ देखती थीं तो बुरी तरह भड़क जाती थीं नाना पाटेकर पर । खैर फिल्म पूरी हुई और नाना मुम्बई लौट कर उस अभिनेत्री आयशा जुल्का के साथ लिव इन में रहने लगे । मनीषा कोइराला यह सब बस अवाक देखती रह गईं ।

तो क्या यह भी मी टू था ?



यह सिर्फ मशहूर लोग ही मी टू की जद में क्यों हैं ? गुमनाम लोग , सामान्य और साधारण लोग इस बीमारी से दूर क्यों हैं ? या फिर अमिताभ बच्चन , शाहरुख़ खान , आमिर खान आदि के तमाम किस्से मी टू वाले नहीं हैं ? कि साहब नाम से ख्यातिनाम हुए नरेंद्र मोदी गलत बदनाम हुए थे ? कि अपने नारायणदत्त तिवारी जी पर भी मोहतरमा लोग चुप क्यों हैं ? तमाम अफसरों के रंगीन किस्से , राजनीतिज्ञों के चटखारे भी सिर्फ़ अफवाह नहीं हैं । बहुतेरे किस्से मुझे निजी तौर पर मालूम हैं । थिएटर वालों के भी । रिक्शे वाले , ड्राइवर , सिक्योरिटी गार्ड आदि के भी तमाम किस्से हैं । मोहतरमा लोगों को इन किस्सों पर भी गौर फरमाना चाहिए । एक कारपोरेट घराने में तो तमाम गार्ड इस के लिए उपकृत किए जाते रहे हैं । मेरठ में एक पी सी एस अफसर जब अपने सरकारी ड्राइवर के साथ बहुत ज्यादे आगे निकल गईं तो उन के बॉस डी एम ने जब हस्तक्षेप किया तो दूसरे दिन वह उस ड्राइवर से शादी कर के डी एम के पास पहुंच गईं , मीट माई हसबैंड , कहती हुई । गरज यह कि जब तक आप का काम निकले तब तक ठीक नहीं , मी टू । किसी मित्र ने एक वाट्स अप भेजा है कि चालीस साल पहले जब मैं पैदा हुई तो डाक्टर ने मेरी हिप थपथपाई थी । तो मी टू की स्थिति इस विद्रूप स्थिति तक आ गई है । सवाल है कि क़ानून तब भी आप के साथ था , यह समाज भी , आप को तभी एफ़ आई आर लिखवानी थी , तभी मी टू लिखना था । रोका किस ने था ?



पता नहीं क्यों हिंदी लेखिकाओं , कवियत्रियों , महिला पत्रकारों आदि ने झमाझम मी टू के घनघोर समय में अपना मी टू शुरु नहीं किया। जब कि यहां भी मी टू की भरमार है । और कि यह लेखिकाएं साहसी भी भरपूर हैं । आख़िर शोहरत भी एक महत्वपूर्ण तत्व है । अंगरेजी में तो शुरु हो गया है ।


भोजपुरी में एक बहुत मशहूर गाना हुआ है , जब से सिपाही से भईलें हवलदार हो , नथुनिए पे गोली मारें ! बात थोड़ी पुरानी है , लेकिन अख़बारों में तब यह ख़बर उछाल कर छपी थी । बिहार में किसी कार्यक्रम में एक गायिका यह गीत गा ही रही थी कि एक बाबू साहब ने उस की नथुनिया पर गोली मार दिया । बेचारी तुरंत मर गई । बाबू साहब ख़ूब पिए हुए थे । बाबू साहब को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया । लोगों ने पूछा , ई का कर दिया बाबू साहब ! बाबू साहब बोले , कुछ भी हो मजा आ गया !

एक मी टू यह भी था ।




मी टू मतलब औरत , दौलत और शोहरत का एक्स्टेंशन । अंतिम सच यही है ।