फ़ोटो : शायक आलोक |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
ज़िंदगी बड़ी मुश्किल से होती अब बसर है
शिकारियों की चूजों पर बहुत तगड़ी नज़र है
काली यमुना मटमैली गंगा मिलती हैं रोज संगम पर
नदियों का ही नहीं यह सारे संसार का सर्द मंज़र है
ठगना और लिपटना हरदम विज्ञापन के भाव में दिखना
संबंधों में यही कालिमा और ऐसा ही खतरनाक खंजर है
साधू यहां उचक्का दीखता और मौलवी बड़ा फ़रेबी
इसी लिए मज़हब के कट्टरपन का खड़ा रोज बवंडर है
गरम कपड़ा नहीं कंबल रजाई आग कुछ भी नहीं
रास्ता लंबा है पथरीला है और सर्दियों का सफ़र है
दुनिया में सिस्टम ही कुछ ऐसा बन गया है हर तरफ
मालिक चार सौ बीस बेईमान और ईमानदार नौकर है
लंपट चोर उचक्के काबिज हैं हर कहीं हर ठिकाने पर
शरीफ़ लोग घबराए और अफनाए खड़े हैं अजब मंज़र है
सपन्दर रचना ।
ReplyDelete