Tuesday 11 September 2018

विश्वनाथ त्रिपाठी : बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

दयानंद पांडेय 




वाद-विवाद-संवाद सर्वदा से ही साहित्य की बड़ी ताकत है। विवाद दुनिया भर की भाषाओँ के साहित्य और साहित्यकारों में होते हैं । ख़ूब राजनीति भी । लेकिन उन का एक साहित्यिक उत्कर्ष भी होता है । लेकिन हिंदी में तो इन दिनों पतन की पराकाष्ठा है । हाल के दिनों में दो ही तरह के विवाद अभी तक देखने को मिलते आए हैं । कि कौन कितना औरतबाज है , कौन कितनी छिनार है । कौन भाजपाई है , कौन वामपंथी। कौन कितना कट्टरपंथी , कौन कितना उदार। अब थोड़ा जय भीम , जय मीम की नफ़रत भी जुड़ गई है । पुरस्कारों की तल्खी , नफ़रत और फ्रस्ट्रेशन भी बदबू मारती मिलती रहती है । राजनीति के आगे चलने वाली साहित्य की मशाल अब वामपंथ की मजदूरिन बन कर राजनीति का मल साफ़ करने का पोतड़ा बन चुकी है । खैर , विभूति नारायण राय ने वर्तमान साहित्य में जब राजेंद्र यादव का एक अश्लील लेख होना , सोना एक दुश्मन के साथ , छापा तो जब बचाव में कुछ नहीं मिला तो कहने लगे कि मैं तो राजेंद्र यादव को नंगा करना चाहता था । बतौर संपादक अजब मासूमियत थी यह भी विभूति की । फिर जब मैत्रेयी पुष्पा और गगन गिल को इंगित करते हुए लेखिकाओं को विभूति ने छिनार घोषित किया तब भी यही मासूमियत दिखाई । लेकिन दिलचस्प यह कि शहर-दर-शहर तमाम स्त्रियां ही विभूति के बचाव में तलवार ले कर खड़ी मिलीं । तो भी रवींद्र कालिया को इस दोस्त की नंगई वाली दोस्ती निभाने के लिए खेद-प्रकाश छापना पड़ा था , नया ज्ञानोदय में । लेकिन हासिल क्या हुआ ? मैत्रेयी पुष्पा जो राजेंद्र यादव की ताकत पर लेख पर लेख लिख-लिख कर विभूति नारायण राय की लंपटई उदघाटित करती रही थीं उन्हीं विभूति नारायण राय के साथ एक दिन पाखी का मंच शेयर कर बतकही कर रही थीं । 

ऐसे तमाम विवाद हैं हिंदी में जो पानी के बुलबुले की तरह किसी गटर में बह जाया करते हैं । था कभी हिंदी में भी विवाद का उत्कर्ष । जब निराला हुंकार भरते थे । जब आलोचना में रामविलास शर्मा और डाक्टर नागेंद्र भिड़ते थे । रामविलास शर्मा जब नामवर को चिकोटा , चिढ़ाया करते थे या नामवर रामविलास शर्मा की शव साधना करते थे । फिर नामवर द्वारा किए गए रामविलास शर्मा की शव साधना की पड़ताल विश्वनाथ प्रसाद तिवारी करते थे और नामवर निरुत्तर रह जाते थे । यही विश्वनाथ त्रिपाठी , रामविलास शर्मा से टकराते थे। कभी हजारी प्रसाद द्विवेदी व्योमकेश बन कर लिखा करते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी जब लोगों को आलोचना की राह दिखाते थे। प्रेमचंद जब जयशंकर प्रसाद को स्नेहवत लताड़ते हुए कंकाल जैसा कालजयी लिखवा लेते थे। लेकिन अब न वह संपादक रहे , न लेखक और आलोचक । न वह सार्थक वाद-विवाद-संवाद। बच्चन जी की रुबाई पंक्ति में जो कहूं कि  , अब न रहे वे पीने वाले , अब न रही वह मधुशाला। अब तो छियासी वर्ष का एक वृद्ध लेखक और दो साल की दुधमुंही बच्ची इन के शिकार का सबब है। कि शिकार , विवाद और सौंदर्य भी शर्मा जाए। 

अज्ञेय को बहुत धिक्कारा और ख़ारिज किया वामपंथी साथियों ने । अशोक वाजपेयी जैसों ने भी । लेकिन अज्ञेय लोगों की मूर्खताओं और धूर्तताओं से विचलित नहीं हुए । नतीज़ा सामने है कि अज्ञेय आज की तारीख में हिंदी में इकलौते हैं जो लेखन में अंतरराष्ट्रीय कद रखते हैं। तो दोस्तों किसी विवाद को व्यक्तिगत और स्तरहीन नहीं बनाएं। साहित्य को साहित्य ही रहने दें , पत्रिका को पत्रिका ही रहने दें , न्यूज चैनल नहीं बनाएं। साहित्य टी आर पी का तलबगार नहीं होता। नफ़रत का सौदागर भी नहीं है साहित्य। साहित्य सेतु है , समाज को जोड़ने का , तोड़ने का नहीं। मन में मिठास घोलिए , जहर और नफ़रत नहीं । एजेंडा नफ़रत और मतभेद का अखाड़ा कहीं और खोजिए । बलात्कार के छ्लात्कार का स्वांग ही अब शेष रह गया है ? यह तो हद है !

आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ की याद आती है। आदि शंकराचार्य उन दिनों शास्त्रार्थ विजय भ्रमण पर थे। शास्त्रार्थ के लिए वह कुमारिल भट्ट के पास पहुंचे। कुमारिल भट्ट उन दिनों गुरुद्रोह की यातना में खुद को धान की भूसी में जला रहे थे। आदि शंकराचार्य ने उन से कहा कि आप को मैं योग से ठीक कर दूंगा। आप शास्त्रार्थ के लिए तैयार होइए। कुमारिल भट्ट ने कहा कि अब यह संभव नहीं। आप मेरे शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ कर लें। हार-जीत का जो भी निर्णय होगा , मुझे स्वीकार होगा। अब शास्त्रार्थ शुरू हुआ। निर्णायक तय हुईं मंडन मिश्र की पत्नी भारती। शास्त्रार्थ शुरू हुआ। दिन पर दिन बीतते गए। शास्त्रार्थ नहीं। इस बीच भारती को किसी कार्य से कहीं जाना पड़ा। जाने के पहले भारती ने आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र को ताज़े फूलों की एक-एक माला पहना कर कहा कि आप लोग शास्त्रार्थ जारी रखिए। मैं लौट कर निर्णय सुना दूंगी। अपने समय से लौट कर भारती ने निर्णय सुनाते हुए अपने पति मंडन मिश्र को पराजित घोषित किया। तर्क दिया कि मंडन मिश्र के गले की माला के फूल शास्त्रार्थ के दौरान क्रोध के ताप में सूख गए थे। पराजित होने के भय से वह क्रोध में आ गए थे। जब कि आदि शंकराचार्य के गले की माला के फूल ताजे थे। अलग बात है कि भारती ने कहा कि अभी आप आधा जीते हैं। मैं मंडन मिश्र की अर्धांगिनी हूं। आधी जीत मेरे साथ शास्त्रार्थ कर जीतनी होगी। शास्त्रार्थ शुरू हुआ। जब भारती भी हारने लगीं तो उन्हों ने संभोग के बाबत प्रश्न पूछ लिया। शंकराचार्य प्रश्न का मतलब और उसकी गहराई समझ गए। यदि वे इसी हालत में और इसी शरीर से भारती के प्रश्न का उत्तर देते तो उनका संन्यास धर्म खंडित हो जाता  । क्यों कि संन्यासी को बाल ब्रह्मचारी को संभोग का ज्ञान होना असंभव ही था। उन्हों ने इस का जवाब देने के लिए छ महीने का समय मांगा। फिर एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश कर संभोग का अनुभव लिया। और जवाब दिया। पराजित हो कर मंडन मिश्र और उन की पत्नी आदि शंकराचार्य के शिष्य बन गए। बहुत लंबी कथा है यह ।

संयोग देखिए कि इस पाखी के टी आर पी शास्त्रार्थ में भी आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी के गले की माला के फूल नहीं सूखे हैं।  असल में होते हैं कुछ लोग कि जिन पर अगर आप कीचड़ फेंकें तो पलट कर वह कीचड़ आप के ही चेहरे पर आ गिरती है । आदरणीय आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी ऐसे ही ऋषि व्यक्तित्व हैं । वह कहते हैं न , आकाश पर थूकना। उन पर थूकने वालों ने यही चरितार्थ कर दिया है । संयोग यह कि आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी , आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के चुने हुए शिष्यों में हैं । दुर्भाग्य यह कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की नातिन अल्पना मिश्र भी इस कीचड़ कार्यक्रम में कंधे से कंधा मिला कर उपस्थित दिख रही हैं । हिंदी में विवाद पहले भी बहुत हुए हैं , होते रहेंगे लेकिन हिंदी विवाद की हीनता और छुद्रता का यह स्वर्णकाल है । धिक्कार है इस हिंदी विवाद की हीनता और छुद्रता के स्वर्णकाल को । मज़रूह सुल्तानपुरी के एक गीत का मिसरा याद आ रहा है :

मार लो साथी जाने न पाए !

खैर , अब तो खबर है कि अपने और पाखी के सारे पंख नुचवा कर प्रेम भारद्वाज ने ऋषि तुल्य आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी के घर जा कर उन से माफ़ी मांग ली है । विश्वनाथ जी ने बताया है कि शुभेच्छुओं के दबाव को देखते हुए पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज मेरे पास आए खेद प्रकट किए और 15 मिनट मुंह लटकाये बैठे रहे। मैं बहुत बात करने की अवस्था में नहीं था। और वह चले गए। विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस विवाद को यहीं समाप्त करने को कहा है। 

सोचिए कि विश्वनाथ जी इस समय दामाद के शोक में डूबे हुए हैं , बेटी को उन्हें संभालना है , खुद को संभालना है और हमारा हिंदी का निकृष्ट समाज बिना कुछ जाने, समझे उन पर निरंतर चढ़ाई किए जा रहा था । भला यह लेखकों का समाज है , लेखकों का कृत्य ऐसा ही होता है ! यह तो गुंडों , मवालियों का समाज है । इस हिंसक समाज से तौबा ! विश्वनाथ जी ने क्या-क्या खोया है , कैसे-कैसे घाव दिए हैं इस अराजक हिंदी समाज ने कि मत पूछिए। कुछ लोगों ने तो उन को ब्राह्मण बता कर भी गाली देने का आनंद लिया है । तो कुछ ब्राह्मणों ने प्रगतिशीलता का मुखौटा लगा कर विश्वनाथ जी को निरंतर गरियाया। इन मूर्खों और धूर्तों को जान लेना चाहिए कि विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे निष्कलुक , सहृदय और अध्ययनशील लोग किसी समाज को बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। उन को मान देना , खुद को सम्मान देना होता है । तुलसी और मीरा पर विश्वनाथ जी की लिखी पुस्तकें जिस ने भी पढ़ी होंगी , वह विश्वनाथ त्रिपाठी को सर्वदा सलाम ही करेगा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा पर उन का लिखा पढ़ कर लोग साहित्य का सलीक़ा सीखते रहे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और फ़िराक पर लिखे उन के संस्मरण हमारी धरोहर हैं। अपने गांव पर लिखा उन का संस्मरण अप्रतिम है। हिंदी कहानी पर जिस तरह से विश्वनाथ जी ने नज़र डाली है वह अविरल है। हरिशंकर परसाई को भी विश्वनाथ जी की आलोचना एक नई दृष्टि से देखती है। विश्वनाथ जी न किसी पोलोमिक्स का सहारा लेते हैं , न किसी गुटबंदी का। वह इकबाल का एक शेर है न ;

हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

अपने विश्वनाथ त्रिपाठी हमारे वही दीदावर हैं। उन को प्रणाम कीजिए। हिंदी समाज के छुद्र , अराजकों अपने आप पर शर्म कीजिए। अपने आस-पास कहीं चुल्लू भर पानी ढूंढिए। किसी बहस को इतना नीचे गिरा देने के लिए।

Wednesday 5 September 2018

हितैषियों से सीखा पीठ में छुरा घोंपना

उदयभान मिश्र , गोवा में 

मां से सीखा
उंगली पकड़ कर उठना

पिता से सीखा 
सीना तान कर चलना

पड़ोसियों से सीखा
अकड़ कर रहना

हितैषियों से सीखा 
पीठ में छुरा घोंपना

उदयभान मिश्र 
यह सीखा शीर्षक कविता उदयभान मिश्र के नए कविता संग्रह आग की नीली नदी में संकलित है । कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि उन के जीवन में भी यह सब हुआ। पूरी ताकत से लोगों ने उन की पीठ में छुरा घोंपा। लेकिन उन्हों ने किसी पर भी पलट वार नहीं किया। सब को सतत प्यार और सम्मान दिया। लेकिन अपनी रचनाओं में अपनी पीड़ा जब-तब परोसते रहे। आग की नीली नदी कविता-संग्रह का पूरा संकलन ऐसी ही मारक , बेधक और सरल कविताओं से भरा है । आग की नीली नदी को सार्थक करती उदयभान मिश्र की कविताएं एक गहरी आश्वस्ति जगाती हैं । आश्वस्ति कविता के प्रति , जीवन के प्रति । उदयभान मिश्र की कविताएं एक तरह से खुद उन की कथा भी है । वह कथा की कथा में लिखते ही हैं , वे लिख रहे थे / तुम्हारी कथा / मैं लिख रहा था अपनी कथा । पिता , गांव , यात्राएं और यातना बांचती उदयभान की कविताएं उन की तड़प का एक सांघातिक तनाव बुनती हैं , जीवन का उतार चढ़ाव और उस के तापमान का दिनमान लिखती हैं । मन की कई-कई गिरह और गांठ खोलती आग की नीली नदी की कविताओं के उदयभान मिश्र अब जब नहीं रहे तो कहानी सिर्फ़  मेरी नहीं की याद आ रही है। कहानी सिर्फ़  मेरी नहीं उन का संस्मरणात्मक उपन्यास है। जैसे कभी नरसिंहा राव ने इनसाइडर लिखा था , वैसे ही। उदयभान जी के जीवन के एक से एक मनमोहक लेकिन सरल विवरण इस में उपस्थित हैं। उन के परिजन , उन के मित्र और तमाम सारे लोग। गोया वह बहती नदी हैं और शहर-दर-शहर , पड़ाव-दर-पड़ाव आते जा रहे हैं। कंकड़ , पत्थर , हीरा , जवाहरात सभी। वह किसी को छांटते नहीं , सभी को परोसते जाते हैं। जिस को जो छांटना , बीनना हो बीन ले। वह इसे स्मृति आख्यान बताते थे । लेकिन मैं इसे उन की आत्मकथा मानता हूं। ढेर सारे कविता संग्रह , यात्रा संस्मरण , कहानी संग्रह , उपन्यास और उन की आलोचना की पुस्तकें अब हमारी धरोहर हैं। तुलसीदास पर भी अभी उन की एक पुस्तक आई थी। उन का व्यक्तित्त्व इतने हिस्सों में बंटा  हुआ था , उन की रचनाओं को देख-पढ़ कर पता चलता था। बाकी तो वह संत प्रवृत्ति के थे। देना ही जानते थे , लेना नहीं। पर अफ़सोस कि हिंदी पट्टी ने उन का प्राप्य नहीं दिया। पर यह बात भी वह किसी से कहते नहीं थे। 

उदयभान जी जब भी मुझ से मिलते थे धधा कर मिलते थे । आत्मीयता से उन का रोया-रोया आप्लावित रहता । वह जब आकाशवाणी , गोरखपुर में निदेशक थे , तभी मेरी पहली मुलाकात हुई उन से । तब से ही वह मेरे आत्मीय हो गए । असाधारण ऊर्जा से भरे उदयभान जी में आलस एक पैसे का भी नहीं था । अच्छे ब्राडकास्टर रहे उदयभान जी ने आकाशवाणी और दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों पर अपनी प्रतिभा तो दिखाई ही , तमाम प्रतिभाओं को भी आगे बढ़ाया । प्रतिभा खोजी और उन्हें निखारा । यायावरी भी उन में खूब थी । दिल्ली-लखनऊ एक किए रहते थे । रामदरश मिश्र उन के जीवन में बहुत रहते थे । उन के संस्मरणात्मक उपन्यास यह कहानी मेरी नहीं में रामदरश जी बार-बार आते हैं । रामदरश मिश्र की आत्मकथा में भी उदयभान जी की निरंतर आवाजाही मिलती है । उदयभान जी लखनऊ जब भी आते थे , मेरे घर आते थे । मैं भी गोरखपुर में उन के घर जा कर मिलता था । वह मेरे गांव बैदौली भी आते थे । बेटे के यज्ञोपवीत पर , बेटी की शादी , अम्मा के निधन यानी मेरे हर सुख-दुःख में शरीक रहे । बीते जनवरी में अम्मा का श्राद्ध जब हुआ तो गज़ब की शीतलहरी चल रही थी , गोरखपुर में। लेकिन उस भयंकर सर्दी और अपनी उम्र की परवाह किए बिना वह मेरे गांव आए थे। 


उदयभान जी की बड़ी इच्छा थी कि कभी गोरखपुर में उन के घर पर हफ्ता-दस दिन उन के साथ रहूं , बात करूं । उन के साथ किसी यात्रा पर चलूं । बहुत मलाल रहेगा कि उन की यह इच्छा पूरी नहीं कर पाने का । बहुत सी यादें और बातें हैं , उन की कविताएं हैं , लेख और स्मृतियां हैं । उन के आत्मकथात्मक उपन्यास के कई दुर्निवार हिस्से याद आ रहे हैं । उन के जैसा प्यार और आदर देने वाला मुझे दूसरा आत्मीय नहीं मिला । वह मेरे लिखे के भी बहुत बड़े प्रशंसक थे । अभी अस्पताल में जब भर्ती थे तब मेरे उपन्यास मैत्रेयी की मुश्किलें का अंश पढ़ कर फेसबुक पर टिप्पणी लिखी थी उन्हों ने कि इस उपन्यास पर उन्हों ने नोट बना लिए हैं । अस्पताल से छुट्टी पाते ही इस उपन्यास पर लिखेंगे । संयोग से यह उपन्यास मैं ने उन्हें ही समर्पित किया था । रामदेव शुक्ल जी ने बताया था कि वह इस से बहुत प्रसन्न थे । बहुत दिनों तक मेरा यह उपन्यास मैत्रेयी की मुश्किलें अपने साथ लिए घूमते रहे थे और जिस-तिस को दिखाते रहे थे । उदयभान जी मेरे पिता की उम्र के थे लेकिन जब भी मिलते , मित्रवत मिलते थे । प्रिय भाई दयानंद लिख कर अपनी किताबें भेंट करते थे। सरयू की धारा की सी रवानी थी उन में । ख़ूब बहते हुए मिलते रहते थे । खाने-खिलाने और आतिथ्य के बेहद शौक़ीन । लेकिन लिखने की जब बात आती तो वह कहते थे , मैं अपने लिए लिखता हूं , लोगों के लिए नहीं। लेकिन जब उन का लिखा पढ़ता था तो पाता था कि उन के लिखे में लोग ही समाए रहते थे। उन की एक कविता है , चलो घर चलें। अब वह अपने नए घर चले गए हैं।

उदयभान मिश्र और श्रीकांत वर्मा 
गोरखपुर के अपने गांव बसावनपुर में उन्हों ने अंतिम सांस ली । उन के नाती ऋषभ नारायण ओझा ने फ़ोन पर  यह सूचना दी थी आधी रात । बीते महीने भर से पेट की बीमारी से वह परेशान थे । इधर कुछ समय पहले वह ठीक हो रहे थे । ठीक होने के बाद उन्हों ने लिखा था :

गोरखपुर में अस्पताल से निकलने के बाद मेरे पास दो विकल्प थे । एक दिल्ली जाने का , दूसरा लखनऊ जाने का । मगर मेरा कोष ,जवार गाँव बसावनपुर याद आने लगा । वह मिट्टी ,जहां मैं पैदा हुआ हूँ ,जहां कि धूप और हवा मुझे पालती पोसती रही ,मुझे लगातार बुलाने लगी , और मैँ पंद्रह अगस्त की आधी रात के बाद रामधनी मेमोरियल हॉस्पिटल बड़हलगंज गोरखपुर में पहुच गया । इसके संस्थापक डॉ संजय कुमार मेरे पूरे परिवार से जुड़े हुए हैं । वे गहरी आत्मीयता से मेरा उपचार कर रहे हैं ,सांस फूलने का कष्ट लगभग दूर हो गया है । उपचार जारी है ।

रामदरश मिश्र और उदयभान मिश्र 

और अब वह अपनी माटी में मिल गए । उन्हें अंतिम प्रणाम ।  आप आप बहुत याद आएंगे उदयभान जी । ख़ूब -खूब याद आएंगे।  विनम्र श्रद्धांजलि !




Sunday 2 September 2018

आडवाणी के अपमान और उपेक्षा की दहकती चिता ।


आज दिल्ली में उप राष्ट्रपति वेकैया नायडू की पुस्तक विमोचन कार्यक्रम हुआ। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने विमोचन किया । आदत और रवायत के मुताबिक़ बहुत बढ़िया भाषण दिया । वेंकैया की तारीफ़ के पुल बांध दिए । इस पुल के नीचे से तारीफ़ की जाने कितनी नदियां बह गईं । इस मौक़े पर नीचे जनता में लालकृष्ण आडवाणी भी पहली पंक्ति में सिट डाऊन थे । लेकिन अपने संबोधन में मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी का नाम भी नहीं लिया । न उन की तरफ देखा । मंच पर पूर्व प्रधान मंत्री देवगौड़ा और मनमोहन सिंह समेत , लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन , अरुण जेटली और कांग्रेस के आनंद शर्मा भी सिट डाऊन थे । तो क्या आडवाणी को भी मंच पर एक कुर्सी नहीं दी जानी चाहिए थी । खैर , मोदी ने अपने संबोधन में मंच पर उपस्थित इन सभी का नाम लिया। नीचे बैठे अपने कैबिनेट के साथियों का ज़िक्र किया । लेकिन आडवाणी मुंह बाए बैठे रह गए , उन का नाम नहीं लिया । गनीमत रही कि वेंकैया ने अपने संबोधन ने उन्हें आदरणीय आडवाणी जी कह कर संबोधित किया । तो जैसे उन्हें सांस मिली ।

खैर , जब राष्ट्रपति पद से प्रणव मुखर्जी विदा हो रहे थे , तब भी उस समारोह में आडवाणी की उपस्थित के बावजूद उन्हों ने आडवाणी को घास नहीं डाली थी और बारंबार प्रणव मुखर्जी के यशगान गाते हुए बताते रहे कि कैसे प्रणव मुखर्जी ने उन्हें अपनी उंगली पकड़ा कर दिल्ली में चलना-रहना सिखाया । आडवाणी जैसे अनुपस्थित थे उन के जीवन से । उन के दिल्ली के जीवन से । उन के राजनीतिक जीवन से । जो भी कुछ थे बस प्रणव मुखर्जी ही थे । आडवाणी तो कुछ थे ही नहीं । आडवाणी होठ बंद कर यह सब वहां बैठ कर सुनते रहे और टी वी पर हम भी । मोदी द्वारा आडवाणी की उपेक्षा की ऐसी दैनंदिन घटनाएं अब आम हो चली हैं । भाजपा के नवनिर्मित कार्यालय के उदघाटन पर भी आडवाणी की उपेक्षा का वर्णन टी वी पर बिना किसी उदघोष के सुना गया । अटल जी की अंत्येष्टि पर भी जैसे आडवाणी भी अपमान और उपेक्षा की चिता पर लेटे देखे गए । जैसे एक साथ दो चिताएं दहक रही थीं । एक अटल जी के शव की चिता , दूसरे आडवाणी के अपमान और उपेक्षा की दहकती चिता ।

राष्ट्रपति चुनाव के अधिसूचना के ठीक पहले सी बी आई द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले को फिर से खोलने और सुनवाई की अपील के बाद ही आडवाणी की जो यातना और अपमान कथा मोदी द्वारा निरंतर बांची जा रही है वह अबूझ , अकल्पनीय और अवर्णनीय है । मोदी जो अपने गुरु , अपने नेता और मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी के साथ जिस भी कारण से यह सब कर रहे हैं , यह वह ही जानें । लेकिन लालकृष्ण आडवाणी किस मिट्टी के बने हैं , किस हाड़-मांस के बने हैं , यह समझ पाना भी कठिन और अबूझ है । स्वाभिमान और आत्म-सम्मान भी कोई चीज़ होती है , यह वह भूल गए हैं । जाने किस उम्मीद और प्रत्याशा में लालकृष्ण आडवाणी अपमान और उपेक्षा का यह गरल , यह विष निरंतर पिए जा रहे हैं । चुपचाप । कायदे से अब उन्हें सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लेना चाहिए । कम से कम एहसान फ़रामोश नरेंद्र मोदी के सामने या उस कार्यक्रम में जाने से जहां नरेंद्र मोदी उपस्थित हों , हर संभव बचना चाहिए ।

क्यों कि इस तरह के सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अपमान और उपेक्षा उन की परछाई बन कर उन के साथ उपस्थित है । इस परछाई के जिन्न से उन्हें मुक्ति पा लेनी चाहिए । या अगर सत्ता के गलियारे में घूमने और उपस्थित रहने की बीमारी इतनी ही प्रबल हो चली है तो अब से सही मोदी के आगे समर्पण कर उन की गोद में बैठ जाना चाहिए । ताकि सार्वजनिक रुप से नित नए अपमान से छुट्टी पा सकें क्रांति और बगावत के मशाल की वह पुरानी लपट बुझा लेनी चाहिए । जो कभी सुलगाई थी । क्यों कि सत्ता के गुंबद के नीचे रहने , सत्ता के गलियारे में घूमने की पहली और आख़िरी शर्त ही होती है बिना शर्त समर्पण । बिना किसी चू-चपण के । बगावत के बारूद की गंध बर्दाश्त नहीं होती किसी भी सत्ताधारी या सत्ता प्रतिष्ठान को । भले ही वह अपने बेटे की ही सत्ता हो , अपने शिष्य की ही सत्ता हो । क्यों कि सत्ता तो सत्ता ही होती है । कैसी भी सत्ता हो । किसी भी की हो । और सत्ता निरंकुश होती है , निर्मम भी । फ़िराक ने लिखा ही है :

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी 
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी ।

फिर यह तो राजनीति है । सत्ता की राजनीति । जहां बेटा , बाप का नहीं होता । पत्नी , पति की नहीं होती । अनेक किस्से हैं । जो फिर कभी ।