Friday 29 September 2023

'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास अपने पाठ में जितना डेंजरस है, उतना ही सरस भी

सुधाकर अदीब 

दारिया और विनय की इस दैहिक कहानी को एक अनोखी प्रेम-कथा 

वरिष्ठ कवि-कथाकार और पत्रकार भाई दयानंद पांडेय के लेखन और उनके व्यक्तित्व से हम सभी भली भांति परिचित हैं। उनके अब तक प्रकाशित 13 उपन्यास, 13 कहानी संग्रह समेत हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं की अनेक पुस्तकें उनके सक्रिय एवं श्रेष्ठ लेखन की स्वतः परिचायक हैं।

'अपने अपने युद्ध' 'बांसगांव की मुनमुन' 'लोककवि अब गाते नहीं' 'हारमोनियम के हज़ार टुकड़े' 'यादों का मधुबन' जैसी एक से बढ़ कर एक साहित्यिक कृतियां उन्होंने हिंदी साहित्य जगत को दी हैं। 

आज से लगभग दो दशक पूर्व उनका एक अत्यंत चर्चित और बोल्ड उपन्यास *अपने अपने युद्ध* लीक से हट कर रचा गया और प्रकाशित हुआ था। इस का लेखक भारतीय समाज की विकृतियों का चित्रण करते समय हमारी न्याय व्यवस्था को भी कठघरे में खड़ा करने से नहीं हिचकता। दयानंद पांडेय ने अपने उस दुस्साहस के लिए वर्षों उच्च न्यायालय के चक्कर काटे और वे अंततः बरी हुए। 

उनका एक अन्य बेहद महत्त्वपूर्ण उपन्यास 2012 में प्रकाशित हुआ था - *बांसगांव की मुनमुन*, एक अत्यंत संवेदनशील उपन्यास जिसमें लेखक का स्त्री-अस्मिता पर केंद्रित चिंतन इसमें अपनी सम्पूर्ण गरिमा और सकारात्मकता के साथ व्यक्त हुआ है। चार-चार उच्च पदस्थ अफसर बेटों (जज, एसडीएम, बैंक अफसर और एनआरआई) के होते हुए भी एक नितांत उपेक्षित पिता मुनक्का राय, जिन की कभी वकालत में तूती बोलती थी और जो अपने एक पट्टीदार के षड्यंत्रों के चलते बाद में आर्थिक रूप से विपन्न हो चले थे, उनका दयनीय चित्रण लेखक 'बांसगांव की मुनमुन' में करता है और आख़िर में अपने वृद्ध माता-पिता का सहारा बनती है तो उन की एक स्वयं पीड़ित, प्रताड़ित किंतु दुर्दमनीय हौसले वाली उनकी सबसे छोटी बेटी मुनमुन राय ही। एक ऐसी संघर्षरत  लड़की जिसके उत्कर्ष की गाथा इस उपन्यास को एक क्लासिक कृति बना देती है। क्यों कि आज की हर पढ़ी लिखी और स्वप्नदर्शी लड़की उस मुनमुन में निश्चित रूप से अपना आदर्श खोज सकती है।

अंत में हम भाई दयानंद पांडेय के नवीनतम उपन्यास की चर्चा करेंगे। इस विषय पर अपने आपमें कदाचित प्रथम उपन्यास *विपश्यना में प्रेम* के लिए समर्थ कथाकार दयानंद पांडेय और वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली  दोनों को मेरी हार्दिक बधाई।

यह उपन्यास आकार में छोटा होते हुए भी अपने कथ्य में बहुत बड़ा है। इसे पढ़ते हुए एक ओर ओशो के ध्यान शिविर की ओर हमारा ध्यान जाता है, दूसरी ओर इस बात पर भी हम चिंतन के लिए विवश होते हैं कि आज जिस समय और समाज में हम सब रह रहे हैं, उसमें विपश्यना अर्थात_ आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि के लिए ध्यान पर मन को एकाग्र कर पाना स्वयं में ही कितनी बड़ी चुनौती है? विनय और मल्लिका का प्रेम जिस गुपचुप तरीके से एक ध्यान शिविर में पनपता है और उनका ध्यानयोग जिस तरीके से अपने लक्ष्य से विचलित होता है, उसे उपन्यासकार का  अभिव्यक्ति-कौशल एक अलग ही धरातल पर चित्रित करने में सफल हुआ है। और मज़े की बात यह भी कि 'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास अपने पाठ में जितना डेंजरस है, उतना ही सरस भी।

कोई भी कृति अपने कथ्य से खड़ी होती है, किंतु अपने उद्देश्य की ऊंचाई से सार्थक एवं कालजयी होती है। कथा और कल्पना में मणिकांचन संयोग होना अनिवार्य है। अतः कल्पना,चाहे वह कोई यथार्थवादी उपन्यास हो चाहे ऐतिहासिक, यदि इतनी स्वाभाविक न होगी कि पाठक उसके साथ अपना तादात्म्य बैठा सके तो वह कथा कालजयी नहीं हो सकती। दरअसल यह उपन्यास लगभग अपने अंत तक जो विपश्यना केंद्र के भीतर एक भारतीय साधक विनय और एक अज्ञात रूसी साधिका (जिसको अपनी ओर से कथानायक विनय ने काल्पनिक नाम 'मल्लिका' दे रखा था और जिसका वास्तविक नाम 'दारिया' था) के गुप्त वासनामय प्रेमप्रसंगों को अनेक बार संगीत की सरगम की भाँति दोहराते हुए, काफ़ी कुछ विचित्र ढंग से दोनों प्रेमियों को तरंगित भी कर रहा था और आतंकित भी, अंत में लेखक अचानक दारिया और विनय की इस दैहिक कहानी को एक अनोखी प्रेम-कथा में परिवर्तित कर *विपश्यना* को एक नवीन अर्थ देकर इस पुस्तक को एक विशिष्ट उद्देश्यपूर्ण औपन्यासिक कृति में तब्दील कर देता है। इसके लिए लेखक को, उसी के शब्दों में -- 

साधु! - साधु ! 


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 



समीक्ष्य पुस्तक :

विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

अर्नेस्ट हेमिंग्वे जैसा साहसी लेखन है उपन्यासकार दयानंद पांडेय का

महेंद्र भीष्म 



           वाणी प्रकाशन से प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार श्री दयानंद पांडेय  के नवीनतम उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' को पढ़ते हुए मुझे उपन्यासकार दयानंद पांडे के पूर्व उपन्यास जो मैंने पढ़े हैं और  मुझे याद है जिनमें उनके चर्चित उपन्यास 'बांसगांव की मुनमुन' हो या 'अपने-अपने युद्ध' या फिर विगत वर्ष प्रकाशित ' मैत्रेयी की मुश्किलें' आदि। यह वह उपन्यास थे जिनको पढ़ते हुए किताब हाथ से नहीं हटती थी। जब हम देखते हैं अमिताभ बच्चन की फिल्में और फिर जब उनके सुपुत्र अभिषेक बच्चन की अभिनय की हुई कोई फिल्म देखते हैं, तो कहीं ना कहीं हमारा ध्यान अमिताभ बच्चन की पहले की फिल्मों में जाता है और उन के बेटे के अभिनय की तुलना करने बैठ जाते हैं। 'विपश्यना में प्रेम' उपन्यास को पढ़ते हुए अगर जिन्होंने दयानन्द पांडेय  जी को पहले पढ़ा है, तो निश्चित ही वह पहले उपन्यासों को ध्यान में रखते हुए इस नवीनतम उपन्यास को पढ़ते हैं और ऐसा लगभग सभी के साथ होता है। प्रारंभ में हमें इस नए शब्द 'विपश्यना' से ही परिचित होना होता है। 'विपश्यना' यह है क्या? मेडिटेशन को सभी जानते हैं, 'ध्यान' और 'ज्ञान' की अवस्था को भी लगभग सभी जानते हैं। विपश्यना यद्यपि नया सा दिखता है, परंतु  वास्तव में है यह बहुत ही प्राचीन शब्द जो गौतम बुद्ध जी की ज्ञान की स्थितियों को विवेचित करता है, 'स्वयं को देखना'।

         उपन्यास प्रारंभ भी होता है 'चुप की राजधानी से' सन्नाटा है और लेखक जो विनय के रूप में उपस्थित है। मैं बताऊं कहीं ना कहीं लेखक अपने भोगे हुए यथार्थ को भी जोड़ देता है पर यह भी जरूरी नहीं है वह परकाया प्रवेश या किसी के जीवनानुभवों को पिरोता भी है। वह कल्पनाजीवी कल्पनाओं में भी रहता है, तो हम लोग जो बतौर पाठक हैं उपन्यास के। वे भी ध्यान के उन पलों को जीने लगते है जो विनय जी रहा है। यही विशेषता एक लेखक की होती है कि वह अपने पाठकों को अपने साथ जोड़कर आगे कथा कहता है, विनय जब वहां जाता है और उसे विपश्यना में भी वही स्थितियां मिलती है जो उसने एनसीसी कैडेट के रूप में विद्यार्थी जीवन में अनुभव में ली थीं। अनुशासन विपश्यना केंद्र में भी है, परंतु दंड का प्रावधान नहीं है। हां, यदि गंभीरतम अनुशासन भंग होता है  तो ऐसे अनुशासनहीन को विपश्यना केंद्र से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। लेखक का परिचय धीरे-धीरे वहां पर जो लोग आए हैं उनसे मौन परिचय प्रारंभ होता है और वहीं पर विनय को रूसी महिला मिलती है, जिसे वह 'मल्लिका' नाम देता है और विपश्यना में प्रेम नहीं बल्कि वासना का प्रारंभ होता है, यहां वासना और प्रेम के बीच की जो बहुत महीन सी विभाजक रेखा है। वह बहुत ही अच्छे से लेखक ने वर्णित की है। निसंदेह लेखक अनुभवी और बहुत विद्वान है, हजारों पुस्तकें उन्होंने पढ़ रखीं हैं। पत्रकारिता और साहित्यकार होने का उन्हें लाभ प्राप्त है, यह विदुता उनके लेखन में झलकती है, उन्हें बहुत सी चीजों का अध्ययन और ज्ञान है जो उनके सरोकारनामा ब्लॉग में या फेसबुक पोस्टों में पढ़ते हुए हम समझ सकते हैं कि उनका जो बौद्धिक स्तर है, वह उच्च स्तर का है, जिस तरह से उन्होंने धर्म, अर्थ और काम की व्याख्या करते हुए ओशो, कबीर आदि का वर्णन देते हुए विनय और मल्लिका के मिलन को सार्थक बताने का प्रयास किया और पाठक उपन्यास को पढ़ते हुए भाव विभोर हो कहीं उपन्यास के सूक्ति वाक्य को रेखांकित करने को विवश हो उठता, तो कभी विचारक खलील जिब्रान से लेखक की तुलना करने लग जाता है। उनकी सूक्तियां को याद करने लगता है।

       साहित्य के नोबल प्राइज से सम्मानित अपने समय के सुप्रसिद्व उपन्यासकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे की तरह उपन्यासकार दयानंद पांडेय हिंदी साहित्य में अपने साहसी और बोल्ड लेखन के लिए जाने जाते हैं। वह पक्ष और विपक्ष किसी के मोह में नहीं फंसते न ही झूठ को सच या सच को झूठ कह पाते हैं। अपना पराया नहीं जानते और न किसी की चाटुकारिता करते हैं और न ही चाटुकारों को पसंद करते हैं। पटरी से भटकों की जमकर बखिया भी उधेड़ देते हैं, फिर चाहे वह कितना भी बड़ा लेखक, साहित्यकार, आलोचक , नौकरशाह या राजनेता ही क्यों न हो वह अपने कथन पर अडिग रहते अपने सिद्धांतों से कतई समझौता नहीं करते भले ही उनका कितना भी बड़ा व्यक्तिगत नुकसान क्यों न हो।

       अंत तक उपन्यास अपनी पठनीयता बनाए रखता है या कहूं  कि उपन्यास स्वयं को पढ़ा ले जाने का माद्दा रखता है। ध्यान की अवस्था में नींद आ जाना और नाक का बजना हो या प्रेमिका की याद या किसी सुंदर स्त्री की देहयष्टि का ध्यान में आना। नींद में डूब जाना सब ऐसा लगता है जैसे पाठक स्वयं विपश्यना केंद्र के ध्यान कक्ष में उपस्थित हो गया है और ध्यानस्थ हो स्वयं को देख पा रहा हो। यह लेखक की लेखन शैली की कुशलता है। उपन्यास का अंत क्या होगा यह पाठक के मन में दसवें पृष्ठ के बाद से आना शुरू हो जाता है और जब वह अस्सी पृष्ठ पढ़ लेता है तब भी वह समझ नहीं पता है कि आगे इसका अंत लेखक जो बहुत ही विद्वान और अनुभवी हैं वह किस तरह से करेंगे और वही होता है। एक उपन्यास की अपनी विशेषता है किस तरह से वह टर्निंग पॉइंट आता है। कैसे कथा नायक विनय का विपश्यना केंद्र में साक्षात्कार ऐसे लोगों से होता है जो केवल पैसे बचाने के लिए या वहां समय पास करने के लिए या अन्य छोटे-मोटे उद्देश्यों के लिए वहां पर आए हुए हैं। उनको विपश्यना से कोई सरोकार नहीं,  कोई मतलब नहीं है । उनको भी जो महाराष्ट्र सरकार के कर्मचारी हैं और उन्हें विपश्यना केंद्र में तनाव से मुक्ति के लिए विशेष रूप से भेजा गया है । बहुत अच्छे से लेखक ने उनपर तंज और व्यंग्य कसा है।  अकस्मात लेखक पाठक को ऐसा टर्निंग पॉइंट देता है कि वह जो खुशी होती है कृति को पढ़ने के बाद की, एक जो आह्लाद का समय होता है और वह पाठक जो प्रारंभ से उस उपन्यास से बंधा चला आ रहा है और उपन्यास की अंतिम पंक्ति पढ़ चुकने के बाद मन ही मन बोल उठता है साधुवाद! साधुवाद!  

       उपन्यास का अंत यदि अभी बता दिया जाए तो वह आनन्द जो मुझे मिला उससे पाठकगण वंचित रह जाएंगे। इस लिए इस उपन्यास को पढ़ने के बाद स्वयं उस आनंद से रूबरू होइए और देखिए, परखिए 'विपश्यना में प्रेम' या विपश्यना में वासना' को । यह पाठक को तय करना है।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 



समीक्ष्य पुस्तक :

विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


Thursday 28 September 2023

विराट दुनिया है स्त्री की देह और स्त्री का मन उस की देह से भी विराट

  डॉ अनिल मिश्र

प्रपात का प्रवाह, शांति की चाह, सागर की गहराई, अल्हढ़ की अँगड़ाई, ऋषि की अनुभूति, देह की प्रीति, मौन की हलचल, महकता संदल, दमन की दहक, चिड़ियों की चहक, आना-पान, खंडित ध्यान, रातों की बात, मादक सौगात, प्रश्नों का जाल, आचार्य का हाल, विपश्यना की साधना और काम की आराधना की जानी-अनजानी दुनिया को यदि देखना हो तो 'विपश्यना में प्रेम' अवश्य पढ़िए।

जी, विविध बिधाओं में 75 से अधिक प्रकाशित पुस्तकों की रचना करने वाले विद्रोही कथाकार, निडर पत्रकार और संपादक श्री दयानंद पांडेय जी का वाणी प्रकाशन ग्रुप द्वारा सद्य: प्रकाशित उपन्यास-'विपश्यना में प्रेम'।

इस कृति में आप देख पाएंगे साथ-साथ चलती विपश्यना और वासना को, शांति की चाह और मन के भटकाव को, देह से ध्यान और ध्यान में देह को, अपेक्षा और परिणाम के अंतर को, विपश्यना शिविर के बंद कपाट के अंदर स्थिर दिनचर्या में भी आगे क्या होगा के कौतूहल को और आप की सोच को हैरान करता कथा के परिणाम को।

दारिदा का किरदार गढ़ते हुये उपन्यासकर, पाठक के समक्ष यह सार्वकालिक, सार्वजनिक और सार्वभौमिक सत्य रखना चाहता है कि, "विराट दुनिया है स्त्री की देह और स्त्री का मन उसकी देह से भी विराट। वह जितना दिखाना चाहती है और जितना पढ़ाना चाहती है, उससे अधिक न आप देख सकते हैं, न पढ़ सकते हैं।"

कथा में गोरख बाबा का निर्गुण से लेकर ग़ालिब का सगुण ऐसे घुल गया है, जैसे पानी में चीनी तथा कथा का गला साफ़ रखने के लिये बीच-बीच में माता सीता के वन निर्वासन से लेकर बुद्धत्व का आधार और बौद्ध चीन का व्यवहार, ग्रामीण महिलाओं के भूत और ओझाओं की करतूत, सूडो सेकुलरिज्म पर मुहर्रम का मुबारकबादी व्यंग्य जैसी सह कथाओं का गरारा, उपन्यासकार के कथा प्रबंध और शैली की विशेषता है।

परिस्थिति और पात्र के अनुरूप भाषा का सौष्ठव और शैली का सौंदर्य देखते बनता है। कुछ उदाहरण-

1. वह जैसे चुप की राजधानी थी। आदमी तो आदमी पेड़, पौधे, फूल, पत्ते, प्रकृति, वनस्पति सब चुप थे।... न भीतर की आवाज़ बाहर जाती थी, न बाहर की भीतर। अगर कोई आवाज़ कभी-कभार सुनाई देती थी, तो आचार्य की, या टेप पर आचार्य के निर्देश।

2. ज़्यादातर लोग अनुशासन में वैसे ही निरुद्ध रहते हैं, जैसे सुर में संगीत और उसके साज। होते हैं एकाध विनय जैसे अव्यवस्थित तो उन्हें आचार्य व्यवस्थित कार देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में सांसदों, मंत्रियों को व्यवस्थित करता है।

3. अचानक उसका ध्यान टूटता है। एक गोरी सी रशियन स्त्री के अकुलाये वक्ष पर उसकी निगाह धँस जाती है... जब मन नें देह का ध्यान आ जाये तब सारे ध्यान बिला जाते हैं।

और उपन्यासकार जब शब्दों का पुष्प बाण, मदन के धनुष पर कान तक खींच कर छोड़ता है, तब विनय की विपश्यना, मल्लिका उसी तरह खंडित कर देती है, जैसे मेनका विश्वामित्र की तपस्या।

विश्व की प्रथम यौन-संहिता, 'कामसूत्र' के रूप में, भारत में महर्षि वात्सायन द्वारा रची गई, जिसमें यौन-प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धांतों और प्रयोगों की विस्तृत व्याख्या और विवेचना है। पूज्य आदिशंकराचार्य जी को भी, परमविद्वान मंडन मिश्र जी की विदुषी भार्या से शास्त्रार्थ करने के लिये, इन कामसूत्रों को समझने वास्ते, पर काया प्रवेश करना पड़ा था।

1883 में कामसूत्र का पहला संपादित अंग्रेजी अनुवाद,  ओरिएंटलिस्ट सर रिचर्ड फ्रांसिस बर्टन द्वारा करके जब निजी तौर पर मुद्रित किया गया था, तब ब्रिटेन में इसे खरीदने के लिये लोग टूट पड़े थे और एक-प्रति 150-150 पाउंड में बिकी थी, जो आज के लाख रुपये से अधिक है। 

उपन्यास की नायिका रशियन दारिदा कामसूत्र के मनोशारीरिक सिद्धांतों और प्रयोगों में भारतीय नायक विनय से ज़्यादा पारंगत है और उपन्यासकार उससे भी अधिक पारंगत है, उसके इन क्रिया-कलापों को शब्द देने में। साधु-साधु...

उपन्यास की कथा एक विपश्यना शिविर के प्रारंभ से प्रारंभ होती है और शिविर की समाप्ति के साथ पूरी हो जाती है, कई महीने बाद मास्को से दारिदा का विनय को आये अंतिम फोन के अतिरिक्त, जो पूरे उपन्यास को लगभग पढ़ चुके पाठक की नायिका के चरित्र और उपन्यास के अन्त की सारी कल्पना को ही पलट देता है। मल्लिका कहती है-

"तुम्हें मालूम नहीं विनय! मैं बहुत परेशान थी मां बनने के लिये। बहुत ट्राई किया (पति का) इलाज़ पर इलाज़ पर हार गई। बीच विपश्यना तुम क्लिक कर गये, तो ट्राई कर लिया। सारा रिस्क लेकर ट्राई किया और सक्सेस रही।.... मालूम है बेटे का नाम विपश्यना ही रखा है।"

विनय पूछता है, क्या तुम्हारे हस्बैंड को मालूम है कि विपश्यना किसका बेटा है?"

दारिया बोलती है- हां , मालूम है।

क्या?  वह अचकचा जाता है।

दारिया कहती है- उसे मालूम है कि विपश्यना उसी का बेटा है।... पर किसी को क्यों कुछ बताना!"

विपश्यना शिविर में रूस, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और भारत के कई प्रांतों से लोग आये हैं, लगभग 25-30, पर कहानी दो पात्रों के इर्द-गिर्द ही घूमती है- भारतीय अधेड़ विनय और रशियन सुंदरी दारिदा। भूतहा प्रलाप करने वाली महिला, अंग्रेज लड़का, उसकी गर्ल फ्रेंड, शिविर-सेवक और शिविर आचार्य भी अपने-अपने परिस्थिति पर्व पर सामने आते हैं।

चुप की राजधानी का अनुशासित आत्मबोधात्मक विपश्यना ध्यान शिविर, पूर्ण होने के तत्काल बाद विपश्यना के विपरीत आचरण का अखाड़ा बन जाता है। मौन को कोलाहल निगल लेता है और साधना को संभोग। कितने लोग इसके कारण शिविर से निष्कासित किये जाते है और बचे लोग, पता चलता है कि इंग्लैंड का लड़का और उसकी गर्ल फ्रेंड गूगल पर सस्ती रहने कि जगह तलाश करते इस शिविर में आए हैं, और महाराष्ट्र के दर्जन भर लोग हवा-पानी बदलने और घूमने के लिए। इनमे से कोई आना-पान-ध्यान के लिये, विपश्यना की साधना के लिये नहीं आया है।

इस के अतिरिक्त उपन्यास इस ओर भी संकेत कर रहा है कि जिस के पास जो है, वह वही तो दे सकता है, जो है ही नहीं उसे कहाँ से देगा? राजकुमार सिद्धार्थ ने विपश्यना की साधना की, सिद्धि पर बुद्ध बने और जब बुद्ध बन गए , तब बुद्धत्व को बांटा , पर विपश्यना शिविर के आचार्य के अंतस में बुद्धत्व प्रतिष्ठित नहीं है, उनकी विपश्यना की मूर्ति में वासना का प्राण प्रतिष्ठित है, जिसे साधना के मध्य सुंदर साधिका के रूपरस का पान करते विनय देख लेता है, फिर यदि वासना के बासंती बयार में मल्लिका के साथ उसकी रातें गुलजार होती हैं, तो दोषी कौन है? यदि विपश्यना- शिविर की अपेक्षा के विपरीत परिणाम मिलता है, तो अधिक दोषी कौन है, आचार्य या साधक? यह प्रश्न  बिना पूछे, पाठक से पूछ लेता है उपन्यासकार।

विपश्यना शिविर में विवाहित भारतीय विनय और पति के संग आई रशियन दारिया के बीच विवाहेतर शारीरिक संबंध स्थापित हो जाता है। यद्यपि यह समाज का नैतिक और स्वीकार्य कृत्य नहीं है, परंतु समाज के अंदर की सच्चाई अवश्य है। विनय घर से पगहा तोड़ कर भाग कर आया है, कारण रूप में पत्नी का व्यवहार इस में छिपा है और दारिदा के अंतस में मां बनने की सुसुप्त अभिलाषा है, जिसे उस का बीमार पति, इलाज़ पर इलाज़ कराने पर भी, पूरा नहीं कर पा रहा है, इस लिए मनोशारीरिक अतृप्ति दोनों के बीच परिस्थितिजन्य विवाहेतर शारीरिक संबंध  स्थापित करा देती है। मेरी दृष्टि में न तो यहां शुद्ध वासना है, न ही शुद्ध प्रेम। एक प्रश्न यहाँ फिर  पाठकों पर छोड़ता है उपन्यासकार कि पति-पत्नी में एक दूसरे को समझने के प्रयास में शून्यता और एक-दूसरे द्वारा एक-दूसरे की मनोशारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न करने पर, जो विवाहेतर शारीरिक संबंध बनता है, वह परिहार्य और अनुचित है, अथवा नहीं?

इन मौन प्रश्नों के अतिरिक्त उपन्यासकार बड़ा प्रश्न छोड़ता है पाठकों पर, "कितना आसान है यह बता देना और सिखा देना, पर कितना कठिन है इसे अंगीकार करना!"

मुझे अपना एक शे'र याद आ रहा है-

तूर  की वह  रौशनी  जब हुस्न  वेपरवा  लगे

जान लेना तुम ख़ुदा से इश्क़ करना आ गया

शायद यही वासना से विपश्यना की ओर प्रेम मार्ग से प्रस्थान है और निर्विकारी आत्मबोधी विपश्यना में प्रेम का साहचर्य...

यही है मेरा बीज-वक्तव्य वाणी प्रकाशन ग्रुप द्वारा श्री दयानंद पांडेय जी के सद्य: प्रकाशित उपन्यास 'विपश्यना में प्रेम' पर परिचर्चा में, जिस की अध्यक्षता श्रेष्ठ कथाकार श्री शिवमूर्ति जी ने किया और वक्ता रहे इतिहासविद् कथाकार भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी डॉ सुधाकर अदीब जी, प्रसिद्ध कथाकर श्री महेन्द्र भीष्म जी संपादक डॉ हरिराम त्रिपाठी जी, कवयित्री-कहानीकार पूर्व पुलिस अधिकारी डॉ सत्या सिंह जी। अंग्रेजी की प्रवक्ता सुश्री रत्ना श्रीवास्तव जी का संचालन यह संकेत दे रहा है कि वाणी प्रकाशन ग्रुप इस उपन्यास का अंग्रेजी संस्करण अति शीघ्र लाने वाला है।

अग्रिम हार्दिक बधाई आदरणीय श्री दयानन्द पाण्डेय जी को आंग्ल संस्करण के लिये और साधुवाद एक गंभीर चिंतन युक्त कृति को साहित्य-जगत को देने के लिए।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
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Wednesday 27 September 2023

राजनीति में लालू यादव के कारिंदे मनोज झा का कुआं अब उन का काल बन कर सामने है

दयानंद पांडेय 

राजद के राज्य सभा सांसद मनोज झा ने ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता का पाठ क्या राज्य सभा में कर दिया  कि सारा दांव उल्टा पड़ गया। मनोज झा ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता के मार्फ़त नरेंद्र मोदी को ठाकुर बनाने की फ़िराक़ में थे। पर बिहार के सारे ठाकुर अब मनोज झा को पटक कर मारने की बात कर रहे हैं। भाजपा , राजद , जद यू आदि सभी पार्टियों के ठाकुर मनोज झा को तरह-तरह से रगड़ रहे हैं। आनंद मोहन जैसे माफ़िया कह रहे हैं मारना ही है तो ठाकुर को क्यों , अपने ब्राह्मण को मारो। मनोज झा ख़ामोश हैं। हो सकता है इन दिनों अगर वह बिहार जाएं तो सचमुच पिट जाएं। ऐसे समय में उन्हें बिहार जाने से तो बचना ही चाहिए। दिल्ली में भी बच कर रहना चाहिए। क्यों कि उत्तर प्रदेश और बिहार में यादव और ठाकुर अपनी जाति को ले कर , जातीय अस्मिता को ले कर बहुत सतर्क और आक्रामक हैं। तहज़ीब और क़ानून की सारी सरहद लांघ कर मार-पीट पर उतर आते हैं। गोली-बंदूक़ पर आ जाते हैं। रणवीर सेना का रण लोग अभी भूले नहीं हैं। मनोज झा क्या भूल गए हैं ? बिहार में भाकपा माले इसी में ध्वस्त हो गई। यह वही बिहार है जहां पप्पू यादव ने एक वामपंथी विधायक की दिन दहाड़े हत्या कर दी। और वामपंथी न सिर्फ़ ख़ामोश रहे , उसी पप्पू यादव के साथ खड़े रहते हैं। शहाबुद्दीन का यह वही बिहार है , जो जेल से शासन चलाता था। लालू यादव जैसों को जेल से फ़ोन पर निर्देश था कि यह एस पी नहीं चलेगा , इसे तुरंत हटाइए। बिना देरी किए लालू हटा देते थे। शहाबुद्दीन जेल से निकल कर किसी भी की हत्या कर जेल लौट आता था। किसी का अपहरण करवा कर जेल बुलवा लेता था। जंगलराज वैसे ही तो नहीं कहा जाता था। वैसे ही तो जंगलराज - 2 अब कहा जा रहा है। 

अच्छा इतने सारे ठाकुरों ने मनोज झा को धमकी दी है। मारने , पटकने की बात की है। कोई एफ़ आई आर हुई क्या ? मनोज झा की पार्टी सरकार में है। न सही किसी और पार्टी , भाजपा के धमकी देने वाले नेता के ख़िलाफ़ तो एफ़ आई आर हो ही सकती है। 

क्यों नहीं हुई ? यही सुशासन है ? कि सत्ता पक्ष के एक सांसद को खुले आम धमकी पर धमकी ऐसे आ रही है गोया आम के पेड़ से आम टपक रहा हो। महुआ के पेड़ से महुआ टपक रहा हो। 

मेरी एक लंबी कहानी है घोड़े वाले बाऊ साहब। कोई दो दशक पूर्व एक अख़बार में धारावाहिक छपी थी। पहली किश्त छपते ही , कुछ ठाकुरों ने मुझे पर धमकियों की बरसात कर दी। और तो और उस अख़बार में कार्यरत ठाकुरों ने भी मुझे जो-जो नहीं कहना चाहिए था , कहा। लखनऊ में उस अख़बार में तब के रेजिडेंट एडीटर तक ने मुझ से चिल्ला कर कहा , लोग बम मार देंगे ! मैं ने मुस्कुरा कर पूछा कौन ? तो वह रेजीडेंट एडीटर बोला , ठाकुर सब ! मैं ने उस जाहिल रेजिडेंट एडीटर से कहा , तुम ठाकुर हो भी ? वह झुंझला कर रह गया। मैं ने कहा , ठाकुर होते तो किसी पढ़े-लिखे आदमी से इस टोन में बात नहीं करते। ठाकुर तो ब्राह्मणों की इज़्ज़त करते हैं। और तुम इस तरह बात कर रहे हो ? अलग बात है कि यह रेजिडेंट एडीटर एक समय मेरे पांव छूते नहीं अघाता था। तब वह मुझ से जूनियर था। अब लोगों के पांव छू-छू कर , कमीनगी और धूर्तई कर रेजीडेंट एडीटर बन गया था। बाद में ग्रुप एडीटर तक बना और अंतत: नौकरी  से अपमानित कर बर्खास्त कर दिया गया। पर तब तो दिल्ली में तत्कालीन संपादक पर दबाव डाला कि कहानी की किश्त अब न छापी जाए। संपादक ने कहा किश्त तो नहीं रुक सकती। क्यों कि घोषणा हो चुकी है , अगली किश्त की। पर दबाव और धमकी इतनी पड़ी कि उन्हें कहानी के कुछ हिस्से संपादित कर छापना पड़ा। ऐसी अनेक घटनाएं हैं। किसी यादव के ख़िलाफ़ भी कुछ बोल कर या लिख कर देख लीजिए। जीना हराम हो जाता है। मुलायम सिंह के इनकाउंटर से बचने के लिए साइकिल से दिल्ली भाग कर चौधरी चरण सिंह की शरण में जा कर जान बचाने की घटना का एक बार ज़िक्र कर दिया था तो पूरी यादव ब्रिगेड मुझ पर राशन-पानी ले कर टूट पड़ी थी। क्या-क्या नहीं कहा , क्या-क्या नहीं किया। ऐसे अनेक वाक़ये हैं , मेरे साथ। बहुतों के साथ। 

मनोज झा भले अपने को जो मानें , अंतत : ब्राह्मण हैं। मनोज झा के बहाने जनेश्वर मिश्र की याद आ गई है। जनेश्वर मिश्र खांटी समाजवादी थे। लोहियावादी थे। यहां तक कि लोग उन्हें छोटा लोहिया भी कहते थे। पर यह सार्वजनिक सच था। व्यक्तिगत सच यह था कि जब वह ओ बी सी या दलित आदि के साथ बैठते थे , भोजन करते थे वह लोग उन्हें ब्राह्मण ही मानते थे और एक दूरी बना लेते थे। जब ब्राह्मणों के साथ बैठते थे , भोजन करते थे तो ब्राह्मण भी उन से दूरी बना कर रखते थे। कहते थे , तुम तो छोटी जातियों के साथ खाते-पीते हो। अब ब्राह्मण कहां रह गए हो। जाति के स्तर  पर न वह इधर के रह गए थे , न उधर के। दोनों तरफ से बहिष्कृत। समाजवादी के नाम पर भी वह आख़िरी समय में मुलायम के कारिंदे बन कर रह गए थे। कभी छोटे लोहिया कहे जाने वाले जनेश्वर मिश्र , हल्ला बोल , हल्ला बोल , बोल मुलायम हल्ला बोल ! का नारा लगाने के लिए अभिशप्त हो गए थे। मुलायम सिंह यादव का ईगो मसाज ही उन का काम रह गया था। राज्य सभा में वह किसी तरह , इसी नाते बने रहे। यह ज़रूर है कि दिवंगत हुए तो मुलायम ने जनेश्वर मिश्र के नाम एशिया का सब से बड़ा पार्क बनवा दिया। 

लेकिन मनोज झा ?

मनोज झा भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते भले हैं पर राजनीति में वह लालू यादव के महज़ कारिंदे हैं। मनोज झा के नाम पर तो कोई लालू अब कोई पार्क बनाने की हैसियत में नहीं है। न मनोज झा की ऐसी कोई हैसियत है। राज्य सभा में अगला कार्यकाल भी उन को मिलता नहीं दिखता। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ठाकुर का कुआं उन्हें ठाकुरों के निशाने पर ले चुकी है। वामपंथियों का उन का चोला उतर चुका है। समूची सेक्यूलर ब्रिगेड सिरे से ख़ामोश है। मनोज झा के पक्ष में कोई चूं भी करने को तैयार नहीं है। मनोज झा ने नरेंद्र मोदी को ठाकुर यानी खलनायक बताने के लिए राज्य सभा में ठाकुर का कुआं कविता पढ़ी और ख़ुद ठाकुरों की घृणा का ग्रास बन गए।  फ़िलहाल वह कविता ठाकुर का कुआं यहां पढ़िए और जहां-जहां ठाकुर लिखा है , वहां-वहां नरेंद्र मोदी लिख कर पढ़ लीजिए। क्यों कि मनोज झा ने जब राज्य सभा में यह कविता पढ़ी तो उन का सारा मंतव्य , सारा मेटाफ़र , सारा रुपक , सारा बिंब , हाव-भाव , दांव और संदेश यही था। अब यह तीर ख़ुद के गले की फांस बन गया है सो बात अलग है। मनोज झा को सचमुच बहुत सतर्क रहना चाहिए। याद रखना चाहिए कि फूलन देवी की जब हत्या हुई थी , वह भी सांसद थी। सांसद के नाते मिले सरकारी आवास और सरकारी सुरक्षा में हत्या हुई थी। ठाकुरों के प्रतिशोध में उस डकैत की हत्या हुई थी। वह डकैत जिस ने पुलिस के ही नहीं तमाम दुर्दांत दस्युओं के दांत खट्टे कर दिए थे। मौत के घाट उतार चुकी थी। बेहमई जैसा नृशंस कांड कर एक साथ 22 ठाकुरों को मौत के घाट उतार चुकी थी। तो मनोज झा किस खेत की मूली हैं। फ़िलहाल ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता  : 


ठाकुर का कुआं / ओमप्रकाश वाल्मीकि 


चूल्हा मिट्टी का 

मिट्टी तालाब की 

तालाब ठाकुर का। 


भूख रोटी की 

रोटी बाजरे की 

बाजरा खेत का 

खेत ठाकुर का। 


बैल ठाकुर का 

हल ठाकुर का 

हल की मूठ पर हथेली अपनी 

फ़सल ठाकुर की। 


कुआँ ठाकुर का 

पानी ठाकुर का 

खेत-खलिहान ठाकुर के 

गली-मुहल्ले ठाकुर के 

फिर अपना क्या? 


गाँव? 

शहर? 

देश? 

Thursday 14 September 2023

हम हिंदी की जय जयकार करने वाले कुछ थोड़े से बचे रह गए लोग

दयानंद पांडेय 


जैसे नदियां , नदियों से मिलती हैं तो बड़ी बनती हैं , भाषा भी ऐसे ही एक दूसरे से मिल कर बड़ी बनती है। सभी भाषाओँ को आपस में मिलते रहना चाहिए। संस्कृत , अरबी , हिंदी , उर्दू , फ़ारसी , अंगरेजी , तमिल , तेलगू , कन्नड़ , मराठी , बंगाली , रूसी , जापानी आदि-इत्यादि का विवाद बेमानी है। अंगरेजी ने साइंस की ज्यादातर बातें फ्रेंच से उठा लीं , रोमन में लिख कर उसे अंगरेजी का बना लिया। तो अंगरेजी इस से समृद्ध हुई और फ्रेंच भी विपन्न नहीं हुई। भाषा वही जीवित रहती है जो नदी की तरह निरंतर बहती हुई हर किसी से मिलती-जुलती रहती है। अब देखिए गंगा हर नदी से मिलती हुई चलती है और विशाल से विशालतर हुई जाती है। हिंदी ने भी इधर उड़ान इसी लिए भरी है कि अब वह सब से मिलने लगी है। भाषाई विवाद और छुआछूत भाषा ही को नहीं मनुष्यता को भी नष्ट करती है। भाषा और साहित्य मनुष्यता की सेतु है , इसे सेतु ही रहने दीजिए।

हम तो जानते और मानते थे कि हिंदी हमारी मां है , भारत की राज भाषा है। लेकिन कुछ साल पहले हिंदी दिवस पर माकपा महासचिव डी राजा ने एक नया ज्ञान दिया था कि हिंदी हिंदुत्व की भाषा है। उधर हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी ने भी यही जहर उगला। ओवैसी ने कहा है कि भारत हिंदी , हिंदू और हिंदुत्व से बड़ा है। यह सब तो कुछ वैसे ही है जैसे अंगरेजी , अंगरेजों की भाषा है। उर्दू , मुसलामानों की भाषा है। संस्कृत पंडितों की भाषा है। इन जहरीलों को अब कौन बताए कि भाषा कोई भी हो , मनुष्यता की भाषा होती है। संस्कृत , हिंदी हो , अंगरेजी , उर्दू , फ़ारसी , अरबी , रूसी , फ्रेंच या कोई भी भाषा हो , सभी भाषाएं मनुष्यता की भाषाएं है। सभी भाषाएं आपस में बहने हैं , दुश्मन नहीं। पर यह भी है कि जैसे अंगरेजी दुनिया भर में संपर्क की सब से बड़ी भाषा है , ठीक वैसे ही भारत में हिंदी संपर्क की सब से बड़ी भाषा है। तुलसी दास की रामायण पूरी दुनिया में पढ़ी और गाई जाती है। लता मंगेशकर का गाना पूरी दुनिया में सुना जाता है।

तीन वर्ष पहले तमिलनाडु के शहर कोयम्बटूर गया था , वहां भी हिंदी बोलने वाले लोग मिले। शहर में हिंदी में लिखे बोर्ड भी मिले। ख़ास कर बैंकों के नाम। एयरपोर्ट पर तो बोर्डिंग वाली लड़की मेरी पत्नी को बड़ी आत्मीयता और आदर से मां कहती मिली। मंदिरों में हिंदी के भजन सुनने को मिले। मेरी बेटी का विवाह केरल में हुआ है। वहां हाई स्कूल तक हिंदी अनिवार्य विषय है। मेरी बेटी की चचिया सास इंडियन एयर लाइंस में हिंदी अधिकारी हैं। मेरे दामाद डाक्टर सवित प्रभु बैंक समेत हर कहीं हिंदी में ही दस्तखत करते हैं। मेरे पितामह और पड़ पितामह ब्राह्मण होते हुए भी उर्दू और फ़ारसी के अध्यापक थे। हेड मास्टर रहे। महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश के लोगों ने मेरे हिंदी उपन्यासों पर रिसर्च किए हैं। अभी भी कर रहे हैं। पंजाबी , मराठी , उर्दू और अंगरेजी में मेरी कविताओं और कहानियों के अनुवाद लोगों ने अपनी पसंद और दिलचस्पी से किए हैं। मराठी की प्रिया जलतारे जी [ Priya Jaltare ] तो जब-तब मेरी रचनाओं , कविता , कहानी , ग़ज़ल के मराठी में अनुवाद करती ही रहती हैं ।

मुंबई में भी लोगों को बेलाग हिंदी बोलते देखा है । नार्थ ईस्ट के गौहाटी , शिलांग , चेरापूंजी , दार्जिलिंग , गैंगटोक आदि कई शहरों में गया हूं , हर जगह हिंदी बोलने , समझने वाले लोग मिले हैं। कोलकाता में भी। श्रीलंका के कई शहरों में गया हूं। होटल समेत और भी जगहों पर लोग हिंदी बोलते , हिंदी फिल्मों के गाने गाते हुए लोग मिले। तमाम राष्ट्राध्यक्षों को नमस्ते ही सही , हिंदी बोलते देखा है। लेकिन भारत ही एक ऐसी जगह है जहां लोग हिंदी के नाम पर नफ़रत फैलाते हैं। महात्मा गांधी गुजराती थे लेकिन उन्हों ने हिंदी की ताकत को न सिर्फ़ समझा बल्कि आज़ादी की लड़ाई का प्रमुख स्वर हिंदी ही को बनाया। अंगरेजी वाले ब्रिटिशर्स को हिंदी बोल कर भगाया। गुजराती नरेंद्र मोदी भी दुनिया भर में अपने भाषण हिंदी में ही देते हैं। उन की हिंदी में ही दुनिया भर के लोग उन के मुरीद होते हैं। अभी जल्दी ही अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि नरेंद्र मोदी अंगरेजी अच्छी जानते हैं पर बोलते हिंदी में ही हैं। प्रधान मंत्री रहे नरसिंहा राव तेलुगु भाषी थे पर हिंदी में भाषण झूम कर देते थे।

जयललिता भले हिंदी विरोधी राजनीति करती थीं पर हिंदी फ़िल्मों की हिरोइन भी थीं। धर्मेंद्र उन के हीरो हुआ करते थे। जयललिता हिंदी अच्छी बोलती भी थीं। वैजयंती माला , वहीदा रहमान , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी , विद्या बालन आदि तमाम हीरोइनें तमिल वाली ही हैं। बंगाली , मराठी , पंजाबी और तमिल लोगों का हिंदी फिल्मों में जो अवदान है वह अद्भुत है। निर्देशन , गीत , संगीत , अभिनय आदि हर कहीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर विदेश मंत्री जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दे कर हिंदी की वैश्विक पताका फहराई थी तो पूरा देश झूम गया था। सुषमा स्वराज ने बतौर विदेश मंत्री , संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी द्वारा बोए हिंदी के बीज को वृक्ष के रूप में पोषित किया। यह अच्छा ही लगा कि आज एक और गुजराती अमित शाह ने हिंदी के पक्ष में बहुत ताकतवर और बढ़िया भाषण दिया है। अमित शाह के आज के भाषण से उम्मीद जगी है कि हिंदी जल्दी ही राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। शायद इसी लिए डी राजा समेत ओवैसी समेत कुछ लोग बौखला कर हिंदी को हिंदुत्व की भाषा बताने लग गए हैं। इन की बौखलाहट बताती है कि हिंदी भाषा का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।

राजनीतिक दलों के बगलबच्चा विभिन्न लेखक संगठनों ने राजनीतिक दलों का एजेंडा सेट करने के अलावा क्या कभी लेखकों की भी कोई लड़ाई लड़ी है ? लड़ाई तो छोड़िए अपने लिखे की मजदूरी यानी सो काल्ड रायल्टी तक की लड़ाई भी लड़ते किसी ने देखा है कभी ? तब जब कि कम से कम सरकारी ख़रीद में ही बाकायदा नियम है कि लेखक को रायल्टी दी गई है , इस की एन ओ सी देने पर ही प्रकाशक को भुगतान दिया जाए। सारे बेईमान प्रकाशक लेखकों के फर्जी दस्तखत से सरकारी भुगतान के लिए एन ओ सी दे कर भुगतान ले लेते हैं। करोड़ो रुपए का यह खेल है । और यह दुनिया भर की लड़ाई का स्वांग भरने वाले लेखक और लेखक संगठन अपनी ही लड़ाई लड़ने से सर्वदा भाग जाते हैं। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसा लेते हैं। कांग्रेस और वाम दलों के टुकड़ों पर खेलने , खाने वाले लेखक संगठनों की यह हिप्पोक्रेसी अब किसी से छुपी नहीं है। सोचिए कि जो लोग अपनी और अपने श्रम की मेहनत का दाम पाने के लिए टुच्चे और भ्रष्ट प्रकाशकों से नहीं लड़ सकते , वह लोग फासिस्ट ताकतों से , बाज़ार से , सांप्रदायिकता से और जाने किस , किस और इस , उस से लड़ने का दम भरते हैं। जैसे भारत का विपक्ष जनता जनार्दन से कट कर सारी लड़ाई सोशल मीडिया पर लड़ने की हुंकार भरता रहता है , हमारे लेखक और लेखक संगठन भी जनता जनार्दन से कट कर हवा में काठ की तलवार भांजते हैं। 

नकली कहानी , नकली कविता और एक दूसरे की पीठ खुजाती आलोचना के औजार से वह समाज को , व्यवस्था को एक झटके से बदल देने का सपना देखते हैं , लफ्फाजी झोंकते हैं और शराब पी कर सो जाते हैं। नहीं जानते कि अधिकांश जनता आखिर क्यों गेरुआ हुई जा रही , नहीं चाहते कि जनता का मिजाज बदले । चाहते तो लफ्फाजी और हिप्पोक्रेसी की अपनी यह चादर उतार कर जनता से मिलते , जनता को समझते , समझाते। समाज और व्यवस्था को बदलने की ज़मीनी बात करते। बात करना तो दूर इन हिप्पोक्रेट लेखकों , कवियों की सारी रचनात्मकता एक व्यक्ति और एक पार्टी की नफ़रत में खर्च हुई जाती दिखती है। कोई किसी पन्ने पर उल्टी कर रहा है , कोई किसी पन्ने पर पेशाब कर रहा है , कोई किसी पन्ने को कमोड बना कर आसीन है। लेकिन इस फासिज्म , इस सांप्रदायिकता , इस बाज़ार से लड़ती एक कारगर रचना नहीं कर पा रहा कोई। कालजयी रचना तो बहुत दूर की बात है। जो लोग खुद की सुविधा नहीं छोड़ सकते , खुद को नहीं बदल सकते , वह लोग व्यवस्था बदल देने का नित नया पाखंड भाख रहे हैं। नफरत और घृणा का प्राचीर रच रहे हैं। भूल गए हैं कि साहित्य समाज को तोड़ने का औजार नहीं , साहित्य समाज का सेतु होता है। धन्य , धन्य कवि और धन्य , धन्य कविता ! और क्या कहें , कैसे और कितना कहें !

हर भाषा का सम्मान करना सीखिए। हर भाषा स्वाभिमानी होती है । आन-बान-शान होती है । याद रखिए कि भाषा का भेद और भाषा का अपमान दुनिया का भूगोल बदल देता है। मनुष्यता चीखती है । अगर भारत के विभाजन का कारण धार्मिक था , इस्लामिक कट्टरपन था और पाकिस्तान बना । तो भाषाई भेद भाव ही था जो बांग्लादेश बना । बांग्ला भाषियों पर अगर जबरिया उर्दू न थोपी गई होती , फौजी बूटों तले बांग्ला न दबाई गई होती तो दुनिया का भूगोल नहीं बदलता , बांग्लादेश नहीं बनता । मनुष्यता अपमानित न हुई होती । लाखो-करोड़ो लोग अनाथ और बेघर न हुए होते । हिंदी दिवस पर हिंदी की जय ज़रुर कीजिए , ख़ूब जोर-शोर से कीजिए पर दुनिया भर की भाषाओँ का सम्मान करते हुए । किसी का अपमान करते हुए नहीं । भाषाई औरंगज़ेब बनने से हर कोशिश , हर संभव बचिए ।

पहले अ पर ए की मात्रा लगा कर एक लिखा जाता था। गांधी की पुरानी किताबें उठा कर देखिए। कुछ और ही वर्तनी है। गुजराती से मिलती-जुलती। भारतेंदु की , प्रेमचंद की पुरानी किताबें पलटिए वर्तनी की लीला ही कुछ और है। सौभाग्य से मैं ने तुलसी दास के श्री रामचरित मानस की पांडुलिपि भी देखी है। श्री रामचरित मानस के बहुत पुराने संस्करण भी। वर्तनी में बहुत भारी बदलाव है। वर्तनी कोई भी उपयोग कीजिए , बस एकरूपता बनी रहनी चाहिए। अब यह नहीं कि एक ही पैरे में सम्बन्ध भी लिखें और संबंध भी । आए भी और आये भी। गयी भी और गई भी। सभी सही हैं , कोई ग़लत नहीं। लेकिन कोशिश क्या पूरी बाध्यता होनी चाहिए कि जो भी लिखिए , एक ही लिखिए। एकरूपता बनी रहे। यह और ऐसी बातों का विस्तार बहुत है। भाषा विज्ञान विषय और भाषाविद का काम बहुत कठिन और श्रम साध्य है। लफ्फाजी नहीं है। पाणिनि होना , किशोरी प्रसाद वाजपेयी होना , भोलानाथ तिवारी होना , रौजेट होना , अरविंद कुमार होना , बरसों की तपस्या , मेहनत और साधना का सुफल होता है। व्याकरणाचार्य होना एक युग की तरह जीना होता है। वर्तनी और भाषा सिर्फ़ विद्वानों की कृपा पर ही नहीं है। छापाखानों का भी बहुत योगदान है। उन की सुविधा ने , कठिनाई ने भी बहुत से शब्द बदले हैं। चांद भले अब सपना न हो , पर चंद्र बिंदु अब कुछ समय में सपना हो जाएगा। हुआ यह कि हैंड कंपोजिंग के समय यह चंद्र बिंदु वाला चिन्ह का फांट छपाई में एक सीमा के बाद कमज़ोर होने के कारण टूट जाता था। तो कुछ पन्नों में चंद्र बिंदु होता था , कुछ में नहीं। तो रसाघात होता था। अंततः धीरे-धीरे इस से छुट्टी ली जाने लगी। बहस यहां तक हुई कि हंस और हंसने का फर्क भी कुछ होता है ? पर छापाखाने की दुविधा कहिए या सुविधा में यह बहस गुम होती गई। यही हाल , आधा न , आधा म के साथ भी होता रहा तो इन से भी छुट्टी ले ली गई। ऐसे और भी तमाम शब्द हैं । जब कंप्यूटर आया तो और बदलाव हुए। यूनीकोड आया तो और हुए। अभी और भी बहुत होंगे। तकनीक बदलेगी , बाज़ार और मन के भाव बदलेंगे तो भाषा , शब्द और वर्तनी भी ठहर कर नहीं रह सकेंगे। यह सब भी बदलते रहेंगे। भाषा नदी है , मोड़ पर मोड़ लेती रहेगी। कभी करवट , कभी बल खा कर , कभी सीधी , उतान बहेगी। बहने दीजिए। रोकिए मत। वीरेंद्र मिश्र लिख गए हैं , नदी का अंग कटेगा तो नदी रोएगी। भाषा और नदी कोई भी हो उसे रोने नहीं दीजिए , खिलखिलाने दीजिए।

हम हिंदी की जय जयकार करने वाले कुछ थोड़े से बचे रह गए लोगों में से हैं । हिंदी हमारी अस्मिता है । हमारा गुरुर , हमारा मान है । यह भी सच है कि सब कुछ के बावजूद आज की तारीख में हिंदी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है । पर एक निर्मम सच यह भी है कि आज की तारीख में हिंदी की जय जयकार वही लोग करते हैं जो अंगरेजी से विपन्न हैं । हम भी उन्हीं कुछ विपन्न लोगों में से हैं । जो लोग थोड़ी बहुत भी अंगरेजी जानते हैं , वह हिंदी को गुलामों की भाषा मानते हैं । अंगरेजी ? अरे मैं देखता हूं कि मुट्ठी भर उर्दू जानने वाले लोग भी हिंदी को गुलामों की ही भाषा न सिर्फ़ मानते हैं बल्कि बड़ी हिकारत से देखते हैं हिंदी को । बंगला , मराठी , गुजराती , तमिल , तेलगू आदि जानने वालों को भी इन उर्दू वालों की मानसिकता में शुमार कर सकते हैं । नई पीढ़ी तो अब फ़िल्में भी हालीवुड की देखती है , बालीवुड वाली हिंदी फ़िल्में नहीं । पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी के लिए हिंदी अब दादी-दादा , नानी-नाना वाली भाषा है । वह हिंदी की गिनती भी नहीं जानती । सो जो दयनीय हालत कभी भोजपुरी , अवधी की थी , आज वही दयनीयता और दरिद्रता हिंदी की है । तो जानते हैं क्यों ? हिंदी को हम ने कभी तकनीकी भाषा के रुप में विकसित नहीं किया । विज्ञान , अर्थ , कानून , व्यापार कहीं भी हिंदी नहीं है । तो जो भाषा विज्ञान और तकनीक नहीं जानती , उसे अंतत: बोली जाने वाली भाषा बन कर ही रह जाना है , मर जाना है । दूसरे हिंदी साहित्य छापने वाले प्रकाशकों ने हिंदी को रिश्वत दे कर सरकारी ख़रीद की गुलाम बना कर मार दिया है । लेखक-पाठक का रिश्ता भी समाप्त कर दिया है । साहित्यकार खुद ही लिखता है , खुद ही पढ़ता है । हम हिंदी की लाख जय जयकार करते रहें , पितृपक्ष में हिंदी दिवस मनाते रहें , हिंदी अब सचमुच वेंटीलेटर पर है , बोलने वाली भाषा बन कर । ऐसे में भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह कविता और ज़्यादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हो जाती है :


मातृ-भाषा के प्रति / भारतेंदु हरिश्चंद्र


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।


अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।

पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।


उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।

निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।


निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।

लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।


इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।


और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।


तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।

यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।


भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।


सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

Wednesday 13 September 2023

बीच विपश्यना में दारिया नाम की लड़की के प्रेम के दरिया में डूबा विनय

शन्नो अग्रवाल

'विपश्यना' उपन्यास के लेखक दयानंद पांडेय जी की सरस, सरल और रोचक भाषा शैली के सभी कायल हैं। वह अपने लेखन में जीवन के तमाम बिंदुओं को अपने काल्पनिक किरदारों के माध्यम से उतारने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।

इस उपन्यास को भी उन्होंने अपनी उसी रोचक भाषा-शैली का लिबास पहनाया है। जिसे पढ़ते हुये पाठक अंत तक ऊबता नहीं। इसके कथानक में मुख्य किरदार हैं विनय बाबू जो अपने गृहस्थ जीवन से दुखी होकर कुछ दिनों के लिये मानसिक शांति की खोज में चिंतन करने एक शिविर में आते हैं। लेकिन बाद में उन्हें पता लगता है कि वह जिस तरह के आश्रम की कल्पना करके आये थे वह माहौल यहाँ नहीं है। यहाँ तो चारों तरफ हर समय मौन ही मौन पसरा था। और उनसे चिंतन नहीं हो पाता था। मौन रहना उन्हें खलने लगा क्योंकि उनके अंदर का शोर बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था। न जाने वह कैसा शोर था कि उसके बारे में वह खुद भी नहीं जानते थे।  

आश्रम के नियमों के अनुसार आने वाले लोगों पर शारीरिक, मानसिक हर तरह के सुखों पर प्रतिबंध थे। मनोरंजन का कोई साधन नहीं, नमकीन, मिठाई, बिस्किट आदि सभी चीजें खाना मना था। सात्विक भोजन ही खाने को मिलता था। बाहर जाने पर प्रतिबंध था और न ही आश्रम में किसी से मिल-जुल कर बतिया सकते थे। लेकिन उन्हें एक खास तरह की बेचैनी है जिसे वह खुद ही नहीं समझ पाते हैं। उनके मन में एक अजीब शोर है जिसे वह शांत करने में असमर्थ हैं। आचार्य जी से अपनी चिंता बताते हैं तो वह बस उन्हें टके सा जबाब दे देते हैं कि 'मौन साधते रहो। समय के साथ एक दिन यह शोर बंद हो जायेगा' हर बार यही जबाब देकर गुरु जी उन्हें टरका कर मौन हो जाते हैं।

खैर, उस शोर को बंद करने की जब सारी उम्मीदें टूट जाती हैं तो अचानक एक दिन उनकी तकदीर पलटा खाती है। 'बिल्ली के भाग छींका टूटा' वाली बात हो जाती है। एक दिन शिविर में ही मौन साधने के दौरान एक विदेशी लड़की से आँखें चार हो जाती हैं। 'नयन लड़ि जइहैं तो मनवा में कसक हुइवे करी'....और बस उसी पल से विनय के मन में जैसे सावन की रिमझिम होने लगती है। उनकी जिंदगी में उस मौन के पतझर में भी बहार आ जाती है। 

एक दिन बाग में घूमने के दौरान दोनों फिर टकरा जाते हैं एक दूसरे से। और बस वहीं से उनका प्रेम प्रसंग शुरू हो जाता है। सतर्कता बरतते हुये रोज ही चोरी छिपे दोनों मिलने लगते हैं। अब विनय के मन का शोर भी कम होने लगता है और मौन साधना में भी चित्त लगने लगता है। जैसे कोई चमत्कार हो गया हो। 

दारिया नाम की उस लड़की के प्रेम के दरिया में वह इतना डूब जाते हैं कि उन्हें अपना होश नहीं रहता। आगे के परिणाम के बारे में कुछ नहीं सोचना चाहते। उन दोनों के बीच भाषा थोड़ी बाधक बनती है। किंतु उस जंजीर को तोड़कर, आश्रम के  नियमों के विरुद्ध, आचार्य जी व अन्य लोगों की आँखों में धूल झोंक कर उन दोनों की वासना की पैगें बढ़ती रहती हैं। उनका मिशन सफल रहता है। और फिर एक दिन आश्रम में रहने की अवधि समाप्त होते ही सब एक दूसरे से विदा लेते हैं।

विनय के जीवन में क्या उथल-पुथल होने वाली है इस बात से वह अनजान हैं। और कुछ महीनों बाद ही उन दोनों के कर्मों का परिणाम उन्हें सुनने को मिलता है....विपश्यना। जिसने दारिया की कोख से जन्म लिया है। दारिया फोन करके विनय को बताती है कि बेटे का नाम वह विपश्यना रखने जा रही है। जिसका बीज आश्रम की विपश्यना के दौरान पड़ा था। और अब वह बच्चा उन दोनों को जीवन भर उस विपश्यना की याद दिलाता रहेगा जिसके लिये वह आश्रम गये थे। रिश्तों की यह कैसी विडंबना है? 

आश्रम जैसी जगह में आचार्य जी की नाक के नीचे दोनों इस तरह का कांड करते रहे। जैसे बिल्ली आँख मूँदकर दूध पीती रहती है कि कोई उसे देख नहीं रहा....वैसा ही उनका हाल था। विनय को इस बात का कोई अंदेशा नहीं था कि दारिया शादी-शुदा होते हुये भी सिर्फ माँ बनने के लिये उसका इस्तेमाल कर रही थी। क्योंकि उसका पति उसे माँ बनने का सुख देने में असमर्थ था। आश्चर्य तो इस बात से होता है कि वह भी उसी आश्रम में रहते हुये इन दोनों की प्रेमलीला से बेख़बर था। 

यह उपन्यास आजकल के उन लोगों की तरफ इंगित करता है जो शिविरों में अपने मन की शांति खोजने आते हैं। पर मन चंचल होने से वह आश्रम के सख्त नियमों की परवाह न करके किसी तरह सबकी आँखों में धूल झोंक कर अपनी मनमानी करने में समर्थ हो जाते हैं। इस उपन्यास का नायक विनय भी ऐसा ही है। 

उपन्यास में दयानंद जी की पैनी दृष्टि ने समाज के ऐसे ही विकृत मानसिकता के लोगों की झाँकी दिखाई है। कुछ लोग तो छुट्टी मनाने के उद्देश्य से आश्रम में दाखिल हो जाते हैं। उनका इरादा वहाँ साधना करना नहीं बल्कि आश्रम के शांत वातावरण में रहकर कुछ दिन बिताने का होता है। किसके मन में क्या है किसी को पता नहीं चलता। ऐसे लोग 'मन में राम बगल में ईंटे' लेकर आश्रम जैसी पवित्र जगह में मन की शांति ढूँढने आते हैं। लेकिन वहाँ भी वासना की भावना उनका पीछा करती रहती है। शांत वातावरण में भी उनका चित्त स्थिर नहीं रहता। 

यही बात आजकल के साधु, संतों और महंतों के बारे में भी कही जा सकती है। उनके दुराचारों की कहानियाँ भी अक्सर सुनी जाती हैं। गेरुआ वसन के पीछे की असलियत पता चलने पर भी लोगों का ऐसे लोगों के प्रति सम्मान व अंधविश्वास बना रहता है। आश्रम की दीवारें कितने भेद छिपाये हुये हैं इसका खुलासा अक्सर होता रहता है। इस तरह के साधु-संतों की ढकोसलेबाजी अब जनता जानने लगी है। 

'पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ

पर्दा जो उठ गया तो राज खुल जायेगा

अल्लाह मेरी तोबा, अल्लाह मेरी तोबा....'

लेकिन....कभी न कभी, कहीं न कहीं, कोई न कोई तो पर्दाफाश कर ही देता है। और तब उनकी अच्छी मलामत होती है।

उपन्यासकार दयानंद जी के इस निर्भीक लेखन ने आश्रमों की जो तसवीर उकेरी है उसके लिये उन्हें बहुत बधाई। शुभकामनाओं के साथ.....

[ शन्नो अग्रवाल जी , लंदन में रहती हैं। ]


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

 

Sunday 10 September 2023

जी-20 से दमकता भारत और मोदी निंदकों की मुश्किलें

दयानंद पांडेय 

मोदी विरोधियों को इस एक तथ्य से भी ज़रुर परिचित हो लेना चाहिए कि चुप रहना भी एक कला है। कबीर कह ही गए हैं : अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, / अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप। यू ट्यूबर टाइप बीमार लोगों समेत कुछ संपादकों को भी जान लेना चाहिए कि वह संपादक हैं , सम-पादक नहीं। जान लीजिए कि जी -20 ने भारत और नरेंद्र मोदी की कीर्ति में बेतहाशा इज़ाफ़ा किया है। नरेंद्र मोदी और भारत विश्व में सूर्य की तरह दमक रहे हैं। इन्हें दमकने दीजिए। विरोध और निंदा के लिए बहुतेरे विषय हैं। जी -20 के आयोजन और उस की सफलता पर गर्व करना सीखिए। सूर्य पर थूकने से बाज आइए। जिस जी -20 पर समूची दुनिया गर्व कर रही है , आप उस में छेद खोज-खोज कर , विष-वमन कर ख़ुद को अपमानित कर रहे हैं। मत सम्मान कीजिए भारत और नरेंद्र मोदी का पर मुसलसल अपना अपमान भी मत कीजिए। 

कोणार्क और नालंदा के प्रतीक को समझिए। यह बहुत बड़ा प्रतीक है और संदेश भी। आप अगर इस संदेश को अभी तक नहीं समझ पाए हैं तो राजघाट पर साबरमती आश्रम के प्रतीक और संदेश को ही समझ लीजिए। एक साथ इतने सारे राष्ट्राध्यक्ष गांधी समाधि पर कभी एक साथ सिर झुकाने नहीं गए। आज ही गए। यू के , यू एस , अरब देश , अफ्रीकी यूनियन सहित सभी भारत की कूटनीति के आगे नतमस्तक हैं। चीन के भी सुर बदल गए हैं। फिर भी आप अगर इतने विक्षिप्त हो गए हैं कि यह सारा कुछ जो दो दिन में सहसा घट गया है , और इस बड़ी घटना को नहीं समझ पा रहे हैं तो भी कोई दिक़्क़त नहीं है। मौज़ कीजिए। 

पर जो इसी तरह अपना सिर दीवार में अकारण मारते रहेंगे तो सिर आप का ही फूटेगा। नुकसान आप का ही होगा। कोणार्क सिर्फ़ एक चक्र भर नहीं है। सूर्य बन पूरी पृथ्वी को रौशनी देने वाला चक्र है। गरमी-बरसात-सर्दी  बताने वाला भी। नालंदा सिर्फ़ एक विश्वविद्यालय नहीं है। विद्या और ज्ञान की पुरातन क्षमता का एहसास है। साबरमती सिर्फ़ आश्रम नहीं है , शांति और अहिंसा का संदेश है। भारत के गौरव और ऐश्वर्य का यह दर्पण है। जी-20 के बहाने भारत के इस दर्पण को निहारना सुखद है। नालंदा के पुस्तकालय में खिलजी ने आग लगाई थी। अब वही आग आप अपनी हताशा में अपने भीतर लगाए बैठे हैं। मोदी विरोध की बीमारी में झुलस कर अपने भीतर के नालंदा को क्यों जला रहे हैं। बचिए इस आग को लगाने से। बचाइए अपने भीतर के नालंदा को। यूक्रेन युद्ध की आग में झुलस रहा है। लेकिन आज देखा कि एक यूक्रेनी डेलीगेट जाकेट ख़रीद और पहन कर किसी को बता रहा था कि , यस मोदी जाकेट ! अच्छा अक्षर धाम मंदिर में मत्था टेक कर नारायण का दर्शन करने वाले ब्रिटेन का प्रधानमंत्री भी आप को नहीं दिखा ? इस संदेश को भी आप नहीं समझ पाए ? चश्मा बदलिए और इस शक्ति को समझिए। 

सनातन की शक्ति यही तो है। 

नरेंद्र मोदी और भारत अब आप के लिए चीन की दीवार से भी बड़ी दीवार बन कर उपस्थित हैं। भारत से यूरोप तक जो आर्थिक कारीडोर बनाने की राह बनी है , इसे क्या समझते हैं आप ? पाकिस्तान की राह पर चीन को अनायास धकेल दिया है मोदी के इस मास्टरस्ट्रोक ने। जी-20 की अध्यक्षता और मेज़बानी के अन्य अनेक संदेश हैं। वसुधैव कुटुंबकम की खिल्ली उड़ाने में आप की उस्तादी किसी से छुपी नहीं है। पर यह देखिए कि दुनिया इसी वसुधैव कुटुंबकम के सूत्र में बंध गई है। ऐसे जैसे किसी रक्षाबंधन पर बहन राखी बांध कर भाई से अपने संबंध को ताक़त  और ताज़गी से भर लेती है। तो ठीक वैसे ही बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर अब दुनिया के सामने इसी वसुधैव कुटुंबकम के सूत्र में बंध कर। भारत के साथ बिना किसी हिच के समूची दुनिया क़दमताल कर रही है।

नरेंद्र मोदी बहुत बड़े इवेंट मैनेजर हैं , यह बात उन के विरोधी भी तंज में अकसर कहते ही रहते हैं। मोदी के इन निंदकों को अब जान लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी इवेंट मैनेजर तो हैं ही बड़े , मेज़बान और कूटनीतिज्ञ भी बहुत बड़े हैं। अब यह एक तथ्य है और सत्य भी। विश्व गुरु का तंज भी कसिए ज़रुर , और ज़ोर से कसिए , पूरी ताक़त से कसिए। पर नरेंद्र मोदी ने आज साबित कर दिया है कि विश्व गुरु किसे कहते हैं। गांधी समाधि पर सभी राष्ट्राध्यक्षों की अगुवाई करते मोदी को देख कर आप की तो छाती फट गई होगी। पर मनोज कुमार की फ़िल्म पूरब और पश्चिम के लिए इंदीवर के लिखे , कल्याण जी -आनंद जी के संगीत में महेंद्र कपूर के गाए गीत भारत का रहने वाला हूं / भारत की बात सुनाता हूं , के साथ मोदी का यह वीडियो वायरल हो गया है। सब को मालूम है कि अब आप खीझ कर एक बार फिर गोडसे और सावरकर को फिर से धो-पोंछ कर गरियाने के लिए निकाल लेंगे। शी जिनपिंग की तरह कुढ़ कर आंख चुराने के लिए अब आप के पास रह भी क्या गया है भला। भारत के गौरव से आप की यही चिढ़ , मोदी को निरंतर मज़बूत करती रहती है। इस तथ्य से , इस सत्य से जाने कब आप का साक्षात्कार होगा भला। होगा भी कि नहीं , कौन जाने ! 

फिर भी लीजिए मनोज कुमार की फ़िल्म पूरब और पश्चिम के लिए इंदीवर के लिखे , कल्याण जी -आनंद जी के संगीत में महेंद्र कपूर के गाए गीत भारत का रहने वाला हूं / भारत की बात सुनाता हूं , गीत को यहां पूरा पढ़िए , सुनिए और भारत के दर्पण में ख़ुद को देख कर चुपके से एक बार इतरा भी लीजिए। आनंद मिलेगा। निर्मल आनंद। बाक़ी इंडिया रत्न बन कर भी सीना तान लीजिएगा। कोई हर्ज नहीं। कौन रोकता है भला !


जब जीरो दिया मेरे भारत ने

भारत ने मेरे भारत ने

दुनिया को तब गिनती आयी

तारों की भाषा भारत ने


दुनिया को पहले सिखलायी

देता ना दशमलव भारत तो

यूँ चाँद पे जाना मुश्किल था


धरती और चाँद की दूरी का

अंदाजा लगाना मुश्किल था


सभ्यता जहाँ पहले आयी

पहले जनमी है जहाँ पे कला

अपना भारत वो भारत है

जिसके पीछे संसार चला


संसार चला और आगे बढ़ा

यूँ आगे बढ़ा, बढ़ता ही गया

भगवान करे ये और बढ़े

बढ़ता ही रहे और फूले फले


होहो होहो हो हो


है प्रीत जहाँ की रीत सदा

है प्रीत जहाँ की रीत सदा

है प्रीत जहाँ की रीत सदा


मैं गीत वहाँ के गाता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

है प्रीत जहाँ की रीत सदा


होहो होहो हो हो


काले-गोरे का भेद नहीं

हर दिल से हमारा नाता है

कुछ और न आता हो हमको

हमें प्यार निभाना आता है


जिसे मान चुकी सारी दुनिया

हो जिसे मान चुकी सारी दुनिया


मैं बात

मैं बात वो ही दोहराता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

है प्रीत जहाँ की रीत सदा


जीते हो किसी ने देश तो क्या

हमने तो दिलों को जीता है

जहाँ राम अभी तक है नर में

नारी में अभी तक सीता है


इतने पावन हैं लोग जहाँ

हो इतने पावन हैं लोग जहाँ

मैं नित नित

मैं नित नित शीश झुकाता हूँ


भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

है प्रीत जहाँ की रीत सदा


होहो होहो हो हो


इतनी ममता नदियों को भी

जहाँ माता कह के बुलाते हैं

इतना आदर इन्सान तो क्या

पत्थर भी पूजे जाते हैं


इस धरती पे मैंने जनम लिया

हो इस धरती पे मैंने जनम लिया


ये सोच


ये सोच के मैं इतराता हूँ

भारत का रहने वाला हूँ

भारत की बात सुनाता हूँ

है प्रीत जहाँ की रीत सदा


होहो होहो हो हो