Tuesday 29 May 2018

तो क्या प्रणव मुखर्जी भारत रत्न की राह पर हैं ?

प्रणव मुखर्जी 

प्रणव मुखर्जी अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रम में जा रहे हैं तो कांग्रेसियों को इतनी हाय-तौबा नहीं करनी चाहिए । अब वह कांग्रेस के ही नहीं , राष्ट्रीय धरोहर हैं । कहीं भी आ जा सकते हैं । सब को कैद में रखने और डिक्टेशन पर रखने की आदत छोड़ देनी चाहिए । प्रणव मुखर्जी के 48 साल के संसदीय अनुभव पर भरोसा किया जाना चाहिए । किसी के कहीं आने-जाने से विचारधारा प्रभावित होती है , यह कहना नितांत बचपना है । हमारे भारत में वामपंथी साथियों की यही छुआछूत उन्हें ले डूबी है । आखिर संसद में सभी विचारधारा के लोग एक साथ बैठते हैं । अपनी-अपनी बात कहते हैं । कहीं भी जा कर कोई बात कहे । वैचारिक आवाजाही तो हर जगह बनी रहनी चाहिए । किसी भी बागीचे में हर तरह के पेड़ , किसी भी पार्क में हर तरह के फूल रहें तो हर्ज क्या है । खतरा किस बात का है भला । कहीं न आना-जाना , किसी की बात न सुनना ही फासिज्म है । हर दीवार में खिड़की रहनी चाहिए । ताज़ी हवा , ताज़ी रौशनी के लिए । वैचारिक आवाजाही के लिए भी ।

नाना जी देशमुख और यशपाल के बीच की एक घटना याद आती है जो कभी कहीं पढ़ी थी । नाना जी देशमुख एक बार लखनऊ आए तो यशपाल जी से मिलने उन के घर गए और कहा कि आप पांचजन्य के लिए लिखिए । यशपाल ने कहा कि मेरा लिखा वहां कैसे छप सकता है भला ? नाना जी देशमुख ने यशपाल जी से कहा कि , आप जो भी लिखेंगे वही छपेगा । एक शब्द नहीं बदला जाएगा। और यशपाल जी पांचजन्य के लिए लिखने लगे । बता दें कि यशपाल जी बड़े लेखक तो थे ही , घोषित कम्युनिस्ट थे । जाति से ब्राह्मण ज़रूर थे यशपाल जी पर जनेऊ वगैरह तोड़ कर फेंक चुके थे । अब प्रणव मुखर्जी जा रहे हैं संघ के कार्यक्रम में । दिक्कत क्या है । संघ का कार्यक्रम कोई संसद में राष्ट्रपति का अभिभाषण तो है नहीं जो सरकार का लिखा ही पढ़ना होगा । प्रणव मुखर्जी जो चाहे बोल सकते हैं । क्या पता इस बहाने नरेंद्र मोदी सरकार प्रणव मुखर्जी के लिए भारत रत्न की भूमिका बना रही हो । क्यों कि प्रणव मुखर्जी बतौर राष्ट्रपति मोदी सरकार के लिए कभी भी कोई बाधा ले कर नहीं खड़े हुए । सर्वदा सहयोगी भाव रखा । आधी रात जी एस टी सेशन तक वह सहयोगी ही रहे । अभी सिर्फ़ संघ के कार्यक्रम में जाने पर कांग्रेस भड़की हुई है ।

क्या पता इस चुनावी साल में प्रणव मुखर्जी को भारत-रत्न दे कर मोदी सरकार कांग्रेस को और चिढ़ाए , और भड़काए । तो कांग्रेस को बात-बेबात भड़कना और चिढ़ना बंद कर शांत बैठना चाहिए । कांग्रेस के एक गलत फैसले से इमरजेंसी में समाजवादी जय प्रकाश नारायण संघ के साथ कदम से कदम मिला कर न सिर्फ चले थे बल्कि और तमाम लोगों को भी साथ चलने के लिए खड़ा कर दिया था । संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य बता ही रहे हैं कि महात्मा गांधी भी संघ के कार्यक्रमों में जा चुके हैं । कांग्रेस को अपना घर फ़िलहाल ठीक करना चाहिए । अपनी हालिया विजय कर्नाटक संभालने पर ध्यान देना चाहिए । मुख्य मंत्री कुमारस्वामी के इस कहे में कि हम कांग्रेस की कृपा पर हैं , बगावत के बारूद की गंध है । इस की पड़ताल करनी चाहिए । प्रणव मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में जाने पर विधवा विलाप नहीं । यह बेमकसद और बेमानी है , कांग्रेस का बचपना परिलक्षित होता है । भाजपा ने 2019 के चुनाव के लिए बिसात बिछानी शुरू कर दी है , कांग्रेस को इस बात को गंभीरता से सोचना चाहिए । बहुत हो गया , संघी-संघी का भेड़िया कहना । अब जनता संघी भेड़िए के डर के झांसे से निकल आई है । भाजपा के खिलाफ कोई और हथियार खोजना चाहिए कांग्रेस और समूचे प्रतिपक्ष को । संघी जुमला जंग खा चुका है ।

Monday 28 May 2018

ओह , हरिकेश बाबू !


ओह हरिकेश बाबू !

बरसों बाद आज उन से अभी-अभी बात हुई । दिल्ली से उन का फोन आया । एक समय था कि गोरखपुर के इलाहीबाग़ मुहल्ले में हम लोग पड़ोसी थे । पड़ोसी क्या एक ही कैंपस में रहते थे । बतौर किरायेदार। वह उम्र में हम से कुछ साल बड़े थे । लेकिन साथ खेलते थे । बाद के दिनों में वह बी एच यू चले गए , बी ई करने । फिर बी एच यू से ही उन्हों ने एम ई टाप किया । इस के पहले बी एच यू छात्र संघ के अध्यक्ष हुए थे । बाद के दिनों में उत्तर प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष बने। हेमवतीनंदन बहुगुणा उन के गुरु । इमरजेंसी खत्म हुई तो 1977 के संसदीय चुनाव में वह गोरखपुर से जनता पार्टी के टिकट पर सांसद बने। दो बार सांसद रहे । मूल्यों और आदर्श की राजनीति करने के कारण वह जल्दी ही सक्रिय राजनीति से किनारे कर दिए गए । जब वे जो हारे हुए उपन्यास लिख रहा था तब अचानक हरिकेश बाबू भी उस उपन्यास में एक चरित्र बन कर उतर गए । एक आदर्शवादी राजनीतिज्ञ के रुप में । और खूब विस्तार से । 2011 में यह उपन्यास छपा था । हरिवंश जी अब तो राज्यसभा में हैं , तब के दिनों वह रांची में प्रभात खबर के संपादक थे । वे जो हारे हुए उपन्यास पढ़ कर एक रात उन्हों ने मुझे फोन किया और पूछा कि आप के उपन्यास में जो राकेश बाबू वाला चरित्र है , वह हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह तो नहीं हैं ? मैं ने पूछा कि अरे , आप ने कैसे जान लिया ? तो बताया उन्हों ने कि मैं भी बी एच यू का पढ़ा हुआ हूं । सब कुछ इतना साफ है कि कोई भी पहचान लेगा । फिर उन्हों ने हरिकेश बाबू के बारे में कई बातें बताईं और बताया कि जब वह झारखंड के कांग्रेस प्रभारी थे तब भी एक पैसा नहीं छुआ । जब कि बाकी प्रभारी करोड़ो रुपए बटोर ले गए । बात बीत गई ।

आज यही वे जो हारे हुए उपन्यास पढ़ कर हरिकेश बाबू ने फोन किया । वह बहुत विह्वल और भावुक थे । उपन्यास में मेरा नंबर पा कर फोन किया था । हम लोगों ने अपना बचपन याद किया । उन को हमारे घर के सभी सदस्यों के नाम तक याद थे । सब का कुशल क्षेम पूछा । तब जब कि चालीस बरसों से भी अधिक समय बीत गया उन्हें वह मुहल्ला छोड़े । मैं ने कहा आप को तो सब याद है बाबू साहब ! उन्हों ने कहा , आप को अकेले ही सब याद रहेगा और हम भूल जाएंगे ? सच यही है कि बचपन की स्मृतियां सब को याद रहती हैं । वैसे ही जैसे आदर्शवादी राजनीतिज्ञ सब को याद रहते हैं । हरिकेश बाबू बहुत खुश थे कि मैं ने उपन्यास में उन के बारे में लिखा । वह बार-बार कृतज्ञता ज्ञापित करते रहे । मैं ने उन से सिर्फ इतना कहा कि मेरा सौभाग्य कि आप ने इतने बरस बाद सही उपन्यास पढ़ा और मुझे फोन किया । वह बोले , उपन्यास मुझे मिला आज ही और पढ़ा भी आज ही तो आप को फोन करने से रोक नहीं पाया। मैं ने कहा कि आप ने आज का दिन मेरा सुंदर कर दिया ।उपन्यास छपने के सात साल बाद भी पढ़ कर कोई बड़ा राजनीतिज्ञ और आदर्शवादी राजनीतिज्ञ फोन करे तो दिन तो सुंदर हो ही जाता है । नहीं लोग तो अब पढ़ना ही भूल गए हैं ।


कृपया यह लिंक भी पढ़ें :
1 वे जो हारे हुए 
2. जब नाबालिग हो कर भी मैं ने ढेर सारे वोट डाले 

Saturday 26 May 2018

शिवपालगंज की सैर के बहाने रागदरबारी का वैभव


श्रीलाल शुक्ल 

पंडित श्रीलाल शुक्ल के क्लासिक उपन्यास राग दरबारी के पचास साल होने पर राग दरबारी को इस तरह भी पढ़ा जा सकता है। श्रीलाल जी अगर आज जीवित होते तो अपने पात्रों की इन परछाइयों से इस तरह परिचित हो कर ख़ूब मुदित होते और कहते आइए दयानंद जी इसी बात पर दो पेग हो जाए। पर आज श्रीलाल जी नहीं हैं । तो अनिल सिंह का लिखा शिवपालगंज की सैर पढ़ कर मैं एक बार फिर से रंगनाथ की तरह राग दरबारी के उस ट्रक में सवार हो गया हूं। मन करे तो आप भी सवार हो जाइए। राग दरबारी का यह अविकल पाठ भी पुलकित करता है। बता दूं कि अनिल सिंह पावर ग्रिड, लखनऊ में इंजीनियर हैं। तो जो करंट होता है बिजली में कि अगर पकड़ ले तो फिर छोड़े नहीं। अनिल सिंह के इस लिखे में वही करंट है। वही तिलिस्म , वही जादू और वही वैभव जो श्रीलाल जी के राग दरबारी में पृष्ठ दर पृष्ठ उपस्थित है। संयोग देखिए कि जैसे श्रीलाल जी संगीत के रसिक थे , अपने अनिल सिंह भी संगीत के रसज्ञ हैं। इस लिए भी उन के इस लिखे में श्रीलाल जी की लय , भंगिमा और रस भी गुंफित है। 

शिवपालगंज की सैर

अनिल सिंह 


कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा कि (स्वर्गीय) श्रीलाल शुक्ल के अमर ग्रंथ 'राग दरबारी' के प्रकाशन के 50 वर्ष पूरे हो गये। पढ़ कर दिमाग बरबस ही उस दिन की ओर चला गया जब पहली बार यह पुस्तक मुझे पढ़ने को मिली थी। मुझे अच्छी तरह याद है: जून 1981 की बात है; किताब मैंने रात 10 बजे के आसपास पढ़नी शुरू की, और सुबह सात बजे पढ़ कर खत्म कर दी। यही नहीं, अगले दिन फिर उसे पढ़ना शुरू किया, और इस बार धीरे-धीरे रस लेकर पढ़ा। तब से लेकर आज तक न जाने कितनी बार-कई बार यूँ ही बीच में कहीं से भी और कहीं तक, राग दरबारी पढ़ चुका हूँ, और न जाने कितने लोगों को पढ़ा चुका हूँ। जितने लोगों को मैंने राग दरबारी की प्रतियाँ भेंट कीं, सभी ने बाद में कृतज्ञता-ज्ञापन किया। आज भी गाहे-बगाहे विद्वानों के बीच 'राग दरबारी' के उद्धरण सुनाकर मैं गर्व और आनंद का अनुभव करता हूँ। अन्य किसी पुस्तक के लिए इस तरह की दीवानगी मेरे मन में नहीं है। दरअसल अपने अनेक मित्रों की तरह मेरी साहित्यिक अभिरुचि भी राग दरबारी से शुरु होकर राग दरबारी पर ही समाप्त हो जाती है। मुझे गर्व है कि मैंने राग दरबारी पढ़ रखी है। राग दरबारी के प्रकाशन के 50 वर्ष पूरे होने के समाचार ने मस्तिष्क को इस प्रकार के विचारों से ओतप्रोत कर दिया, और रंगनाथ, वैद्यजी, रामाधीन भीखमखेड़वी, बद्री पहलवान, प्रिंसिपल साहब, खन्ना मास्टर, गयादीन जी, सनीचर, छोटे पहलवान और लंगड़ जैसे कितने ही पात्र दिमाग पर हावी हो गये। दिमाग उन वास्तविक पात्रों के बारे में सोचने लगा जिनसे जीवन में भेंट हुई जो सीधा 'राग दरबारी' से ही निकले जान पड़ते थे। तभी एक विचार आया कि क्यों न शिवपालगंज चल कर देखा जाय कि इन पात्रों में से कितने जीवित हैं, इनके बाल-बच्चे क्या कर रहे हैं, और शिवपालगंज खुद इन पचास सालों में कितना विकसित हो गया है।

यह शिवपालगंज आखिर है कहाँ? शुक्ल जी ने इस सम्बंध में कुछ संकेत दिये हैं। उन्होंने लखनऊ के देहाती और शहरी रिक्शेवालों का ज़िक्र किया है। बद्री पहलवान एक बार अपने संदूक के साथ रिक्शे पर बैठकर शिवपालगंज आये थे जिसे एक शहरी रिक्शेवाला खींच रहा था, और उसने बातचीत में लखनऊ के माल अवेन्यू और फ्रैम्प्टन स्क्वायर मुहल्लों का ज़िक्र किया था। इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने एक संकेत और दिया है: शहर का किनारा; उसे छोड़ते ही देहात का महासागर शुरू हो जाता था। फिर रंगनाथ का ट्रक ड्राइवर से कहना: पंद्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। इन बातों का विचार करके मैंने अपनी कार से ही शिवपालगंज को ढूँढने का निश्चय किया। जहाँ शहर खत्म हो जाय, उसके बाद पंद्रह मील अथवा 20-22 किमी पर कहीं शिवपालगंज होना चाहिये, यह सोचकर एक दिन अच्छा मौसम और शुभ मुहूर्त देखकर मैंने अपनी यात्रा शुरु की। मेरा पहला लक्ष्य था: शहर का किनारा!

अपने आप को रंगनाथ की भूमिका में रख कर मैं शहर के उस छोर को ढूँढ रहा था जहाँ आज से 50 साल पहले रंगनाथ ने एक ट्रक खड़ा देखा था, पर लगभग 40 किमी गाड़ी चला लेने के बाद भी जब शहर का किनारा नहीं दिखा, तो मुझे ध्यान आया कि रंगनाथ की शिवपालगंज-यात्रा को 50 साल बीत चुके हैं, और पहले जहाँ शहर का किनारा रहा होगा, वह जगह अब शहर निगल चुका होगा। मैंने गाड़ी वापस मोड़ी, और इस बार सावधानी से एक-एक साइनबोर्ड देखते हुए धीमी गति से वापस शहर की ओर चलने लगा। अचानक एक साइनबोर्ड पर नज़र पड़ी: दंगनाथ स्टेशनरी ऐंड जनरल स्टोर्स।

गाड़ी रोक कर मैंने दुकान को ध्यान से देखा। दुकान की बनावट किसी रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह थी: सामने ज्यादा जगह नहीं थी, पर अंदर पर्याप्त गहराई थी। दुकान को बड़े करीने से दो भागों में बाँट दिया गया था: एक भाग में स्टेशनरी स्टोर था जिसमें मुख्य रूप से इंजीनियरिंग की किताबें और स्थानीय अखबार और पत्र-पत्रिकाएं दिख रही थीं, और दूसरे भाग में जनरल स्टोर चल रहा था जिसमें बिकने वाला मुख्य पदार्थ रंग-बिरंगी बोतलों में बिकने वाला एक पेय था, जिसकी खाली बोतलें बता रही थीं कि वह पेय वहाँ काफ़ी लोकप्रिय था। बीच में एक लड़की जो स्पष्टतया दुकान की मालकिन या मैनेजर थी, किसी स्कूल की यूनीफॉर्म सी पहने बड़ी तल्लीनता से अपने मोबाइल से उलझी हुई थी। दुकान के नाम और दुकान की मालकिन से आकर्षित होकर में गाड़ी से उतर पड़ा और दुकान के सामने जाकर लड़की से पूछा: शिवपालगंज किधर पड़ेगा? लड़की ने मोबाइल से सिर उठाये बिना आवाज़ लगायी: छोटे, देखो साहब को क्या चाहिए! पहले दंगनाथ, और अब छोटे! मैं समझ गया कि में अपनी मंज़िल के बहुत नज़दीक हूँ। इसी बीच एक दो पन्ने के अखबार पर नज़र पड़ी जिसका नाम था: गंज टाइम्स, और नीचे लिखा था-मास्टर मोतीराम द्वारा स्थापित। खिली हुई बाँछों के साथ मैंने छोटे की ओर रुख किया। छोटे एक दस-बारह साल का लड़का था, जो सिर्फ निकर पहने हुए था और कुछ ग्राहकों को 'ठण्डा' पिलाने में व्यस्त था। मैंने प्यार से उससे कहा: 
"बेटा, शिवपालगंज जाना है।"
मेरी ओर देखे बिना छोटे ने जवाब दिया: " तो जाओ, रोका किसने है?"
मैं समझ गया कि यह खालिस गॅंजहा है; मैंने उसे आदर की दृष्टि से देखते हुए एक बार और कोशिश की: 
"अरे भाई, में तो शिवपालगंज जाने का रास्ता पूछ रहा हूँ।"
छोटे पर इस प्रेम और आदर का कोई असर नहीं हुआ, और एक बार फिर बिना मेरी ओर देखे ही जवाब दिया: "पूछते रहो; हम यहाँ रास्ता बताने को थोड़े ही बैठे हुए हैं!"
मैंने मदद के लिए लड़की की ओर देखा, पर वह पहले की तरह मोबाइल से ही खेलने में व्यस्त थी। दोबारा छोटे की तरफ देखते हुए मैंने कहा: "बेटा; गॅंजहापन झाड़ रहे हो!"
छोटे ने अब टेढ़ी निगाह से मेरी तरफ देखते हुए कहा: "यहाँ जो आता है, गंज का रास्ता पूछते हुए ही आता है!" इसके बाद उसने भुनभुनाना शुरू किया: "सबको शिवपालगंज जाना है; सालों, हजरतगंज से मन नहीं भरता जो घूमने के लिए शिवपालगंज चले आते हो?"
बालक की विलक्षण प्रतिभा को देखकर मैंने मन ही मन छोटे पहलवान को याद किया, और मुस्कराते हुए एक बार फिर कोशिश की: "इतना नाराज़ क्यों हो रहे हो पहलवान? गर्मी बहुत है; एक ठण्डा पी लो, और आराम से बताओ।"
"आराम-वाराम शहर के चिड़ीमार किया करते हैं; यहाँ आराम कहाँ? और ठण्डा हम क्यों पियें? ठण्डा तुम पियो; कुछ जेब ढीली करो, तब पता चलेगा शिवपालगंज ठण्डा है कि गरम!" मैंने लड़की की ओर देखा; वह बिना सर उठाये मुस्कराई। उत्साहित होकर मैंने कहा: "एक गंज टाइम्स देना।"
"छुट्टे नहीं हैं।" लड़की ने फिर बिना सर उठाये कहा।
"ठीक है, फिर एक ठण्डा ही पिलाओ; पहलवान, तुम भी पी लो; मैडम आप भी लीजिए।"
मैडम ने अब घबरा कर सिर उठाया, और कहा-"नहीं-नहीं, में ठण्डा नहीं पीती; आप छोटे को ही पिलाइए।"
छोटे ने एक बोतल मुझे पकड़ाने के बाद बिना किसी तकल्लुफ़ के एक बोतल खोलकर मुँह से लगा ली, और बातचीत करने के लिए मेरे पास सरक आया, और आत्मीयता के साथ कहने लगा: "यह शिवपालगंज साला गरीब की जोरू हो गया है; जिसे देखो वही देखने चला आ रहा है! फोकट की फुट्टफैरी! साले आते हैं, और हमारे घरों के पिछवाड़े मूत कर चले जाते हैं; फिर ऊपर से सवाल पर सवाल! सनीचर कहाँ है, बेला का क्या हुआ? क्या लंगड़ को नकल मिली? और जाने क्या-क्या! सब एक से एक बेहया! कितना भी गरियाओ, टलने का नाम नहीं लेते। सब बड़ी-बड़ी गाड़ियों में खाने-पीने के सामान के साथ आते हैं, और कूड़ा हमारे यहाँ फेंक जाते हैं!" अचानक छोटे ने सुर बदला, और कहा: "अंकल, कुछ खाएंगे आप? एक चिप्स लीजिए।" इतनी सारी गालियों के बाद छोटे के मुँह से 'अंकल' और 'आप' जैसे शब्द सुनकर मुझे उसी तरह चक्कर आ गया जिस तरह प्रिंसिपल साहब के मुँह से पिकासो का नाम सुनकर रंगनाथ को आ गया था, पर मैंने किसी तरह अपने को लड़खड़ाने से बचाते हुए कहा: "हाँ-हाँ, क्यों नहीं?" इतना कहते ही छोटे ने एक चिप्स का पैकेट खोलकर उसमें से खाना शुरू किया, और फिर से अपने स्थायी भाव पर आ गया। "इधर तो पता नहीं क्या हो गया है-झुण्ड के झुण्ड लोग चले आ रहे हैं जैसे शिवपालगंज में ही इन सबकी नाल गड़ी हो! शिवपालगंज सबको देखना है, पर शिवपालगंज में रहने वालों से किसी को मतलब नहीं; सब मरे हुए लोगों का हाल जानना चाहते हैं, जिंदा लोगों की कोई कद्र नहीं! बैदजी का क्या हुआ? क्या लौण्डे अब भी अमराइयों में जुआ खेलते हैं? अबे हम क्या जानें बैदजी को, और अमराइयाँ अब कहाँ हैं? किसी से प्यार से बात करने के लिए घर के अंदर बुलाएं, तो ससुरे ऐसे भागते हैं जैसे घर में घुसते ही कोई छूत की बीमारी लग जायेगी; हमारे घर में बैठकर एक लोटा पानी नहीं पी सकते, पर हमारे परबाबा की इनको खबर चाहिए।"

तभी एक दुबला-पतला भला सा दिखने वाला प्रौढ़ आदमी सामने से आता हुआ दिखा; उसे देखते ही लड़की ने कहा: "पापा आ गये।"
'पापा' के कानों में भी छोटे के कुछ वाक्य पड़ चुके थे, इसलिए उन्होंने छूटते ही कहा-क्या बात है छोटू पहलवान? आज बहुत गुस्से में हो!" फिर वह मुझसे मुखातिब हुए, और नमस्कार करते हुए अपना परिचय दिया-"में दंगनाथ हूँ: रंगनाथ का बेटा।" खुशी के मारे मेरे हाथ से ठण्‍डे की बोतल छूट गयी, और मैंने भावावेश में उनसे हाथ मिलाते हुए कहा: "अहोभाग्य, जो आपके दर्शन प्राप्त हुए!"

दंगनाथ ने विनम्रतापूर्वक कहा: तो आप भी शिवपालगंज को खोजते हुए आये हैं?! आपका दोष नहीं; शुक्लजी ने उसका वर्णन ही इतना जीवन्त किया है! इधर लोगों की आमदरफ्त काफी बढ़ गयी है, पर अधिकांश लोग जो शिवपालगंज जाते हैं, उन्हें निराश ही होना पड़ता है। लोग 50 साल पहले वाला शिवपालगंज ढूँढते हैं, जो उन्हें नहीं मिलता। शिवपालगंज यहाँ से करीब तीन मील की दूरी पर है; आप जाना चाहें तो में आपको रास्ता बताता हूँ, पर अगर आप कुछ देर मेरे साथ बैठें, तो मैं यहीं बैठे-बैठे आपको वह सारी जानकारियाँ दे सकता हूँ जो आपको चाहिए।"

"क्यों नहीं?" मैंने कहा। "शिवपालगंज मैं जाना तो अवश्य चाहूँगा, पर आपको भी मैं इतनी आसानी से छोड़ने वाला नहीं हूँ। कहीं इतमीनान से बैठ कर लंच करते हैं; इस बीच ज़रूरी बातें भी हो जायेंगी।" पास के एक रेस्तराँ में एक कोने की मेज पर बैठने और खाने का ऑर्डर देने के बाद मैंने बातचीत शुरू की।

-"तो अपने पिताजी से ही शुरू कीजिए; अपनी आत्मा के तारों पर पलायन-संगीत गूँजने के बाद उन्होंने तो शिवपालगंज छोड़ दिया था; फिर आप यहाँ कैसे आये? लेकिन ठहरिए; उससे पहले यह बताइए कि यह छोटे कौन है? क्या इसका छोटे पहलवान वल्द कुसहर प्रसाद से कुछ सम्बंध है?" दंगनाथ हँस पड़ा। "बिल्कुल सही पहचाना आपने; यह छोटे उस छोटे पहलवान का पोता है, और आपके लिए खुशी की बात यह है कि छोटे पहलवान अभी जीवित हैं, और आप उनसे मिल भी सकते हैं।"

"अरे वाह! उनसे तो मैं ज़रूर मिलूँगा, पर अभी आप रंगनाथ से शुरू कीजिए; कहाँ हैं वह आजकल?

"रंगनाथ!" पानी का एक लम्बा घूँट भरने के बाद दंगनाथ ने बोलना शुरू किया: "अभी जीवित हैं, और उतरेटिया के पास अपने पुश्तैनी मकान में अकेले रहते हैं। जीवन में बहुत कुछ देखा, पर चार-छह महीनों के शिवपालगंज-प्रवास में जो कुछ देखा, उसे देखकर दंग रह गये और शायद इसीलिए मेरा नाम उन्होंने दंगनाथ रखा। शिवपालगंज में जो कुछ उन्होंने देखा, आज तक उसी को समझने में लगे हैं। शिवपालगंज से लौटने के बाद वह बहुत चिड़चिड़े हो गये थे और हर किसी से खामखा भिड़ जाते थे। वह अपने गाइड से भी भिड़ गये; उसने सालों झुला कर भी उनकी पीएचडी पूरी नहीं होने दी, और परिणामस्वरूप उन्हें किसी सरकारी कॉलेज में नौकरी नहीं मिल सकी। उनके जीवन में प्रिंसिपल साहब की वह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य हुई जिसमें उन्होंने कहा थथा: 'जहाँ भी जाओगे, तुम्हें किसी खन्ना की ही जगह मिलेगी।' ज़िन्दगी भर अपनी योग्यता की माँग की अपेक्षा नीचे के पदों पर काम करने और अपने से अक्षम व्यक्तियों से अपमानित होने के बाद भी शिवपालगंज ही है जिसने उन्हें प्रसन्न रखा है। आज भी शिवपालगंज को याद करके कभी अकस्मात् हँसने लगते हैं, और कभी रोने भी लगते हैं। प्रिंसिपल साहब की बातों के नये-नये अर्थ निकालना आज भी उनका पसन्दीदा शगल है। उन्हें यह समझने में ही कई साल लग गये कि प्रिंसिपल साहब बात कहीं से शुरू करें, खत्म हमेशा खन्ना मास्टर पर ही करते थे।

वैद्यजी के साथ सम्बन्धों के असहज हो जाने के कारण शिवपालगंज लौटना उनके लिए सम्भव नहीं था, पर शिवपालगंज उनसे अलग कभी नहीं हुआ; वह आज भी शिवपालगंजमय हैं।"

"समझा।" मैंने कहा: "पर आप यहाँ कैसे पहुँचे?

"लम्बी कहानी है।" दंगनाथ ने पानी का एक और लम्बा घूँट लिया। "गयादीन ने बेला की शादी अपना सबकुछ दहेज में देकर उसी शहरी नौजवान के साथ कर दी जो बच्चे कम पैदा करने के फ़ायदे बताने शिवपालगंज आया था। यहाँ से कुछ दूरी पर ही गयादीनजी के दामाद का शॉपिंग मॉल है। नाम भी बेला के नाम पर ही रखा है। आप वहाँ भी जा सकते हैं, पर वहाँ शिवपालगंज का नाम न लीजिएगा। बेला की शादी के बाद बद्री पहलवान कुछ ढीले पड़ गये, और पहलवानी के काम में भी ढिलाई बरतने लगे। इसी बीच उनके एक पालक-बालक ने-वही जिसकी बाम्हन की जोरू के साथ घसड़-फसड़ हो गयी थी, ने बाम्हन का खून कर दिया और फ़रार हो गया। उसके ज़ामिन होने के कारण बद्री पहलवान पुलिस और कानून की लपेट में आ गये, और उन्हें भी उन्नाव की जिला अदालत ने छह महीने के लिए जेल भेज दिया। जेल से छूटने के बाद बद्री पहलवान और भी अनमने से रहने लगे। वैद्यजी ने उनकी शादी कराने की कोशिश की, पर पहलवान एक तो प्रौढ़ हो चुके थे, फिर जेल काट कर आये थे, और बेला से सम्बन्धों की उनकी ख्याति दूर-दूर तक पहुँच चुकी थी। कोई अपनी लड़की उन्हें देने को तैयार नहीं हुआ। जेल हो आने और पहलवानी से बेज़ार हो जाने के कारण उनके सम्पर्क-सूत्र भी उनके हाथों से छूटने लगे, और एक दिन उन्होंने देखा कि वह बाज़ार से बिल्कुल उखड़ चुके हैं। वह बीमार रहने लगे, और उनकी बीमारी से वैद्यजी का साम्राज्य भी लड़खड़ा गया। बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी ने मौके का फ़ायदा उठा कर बैजेगाँव के लाल साहब को अपनी ओर कर लिया, और छंगामल इंटर कालेज की मैनेजरी वैद्यजी के हाथ से जाने वाली ही थी कि रामाधीन भीखमखेड़वी को एक नया आइडिया आया। शिक्षा के व्यवसाय में फायदा देखकर उन्होंने छंगामल विद्यालय की मैनेजरी हड़पने के बजाय अपना कालेज खोलने की सोची और वैद्यजी को इस बात के लिए मना लिया कि वह अपने सम्पर्कों का इस्तेमाल रामाधीन के कालेज को मान्यता दिलाने में करें; बदले में वह छंगामल कालेज के मैनेजर बने रह सकते थे। नतीजा है बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी कालेज ऑफ़ इन्जीनियरिंग ऐन्ड मैनेजमेंट। रामाधीन के कालेज में बाहर के लड़कों के आ जाने के बाद मार-पीट में भी छंगामल कॉलेज के लड़के पिटने लगे जिससे वैद्यजी का आभामण्डल और प्रभावित हुआ, और लगा जैसे वैद्यजी के साम्राज्य का सूर्य अस्त होने ही वाला है, पर तभी रुप्पन बाबू जिन्हें वैद्यजी ने अपनी विरासत से बेदखल कर दिया था, ने छोटे पहलवान की मदद से पहले छंगामल कॉलेज पर हस्तक्षेप किया, और उसके छात्रों को उत्तम कोटि का शारीरिक प्रशिक्षण और हथियार उपलब्ध कराये जिससे रामाधीन कॉलेज के छात्रों पर युद्ध में उन्हें निर्णायक विजय मिली, और उसके बाद उन्होंने रामाधीन के कॉलेज पर भी हस्तक्षेप करके परिस्थिति को पूर्ण नियंत्रण में ले लिया।" तब तक भोजन सामने आ गया और हम दोनों ही बातचीत रोककर भोजन में लग गये। खाते-खाते मैंने पूछा: "रामाधीन कॉलेज पर रुप्पन बाबू ने कैसे हस्तक्षेप किया?" दंगनाथ मुस्कराया। "भूल गये रुप्पन बाबू का बेला-प्रकरण? रुप्पन बाबू युवा थे; वैद्यजी और बद्री पहलवान थक चुके थे, और उनके साथ रोक-टोक करने वाला कोई था नहीं; अवसर का लाभ उठाकर उन्होंने रामाधीन कॉलेज की एक मास्टरनी के साथ प्रेम की पींगें बढ़ाना शुरू किया जो रामाधीन भीखमखेड़वी की रिश्तेदार थी; बात खुल जाने पर उन्होंने उसके साथ शादी भी कर ली। वैद्यजी ने इस विवाह के लिए उसी प्रकार सहर्ष स्वीकृति दी जिस प्रकार आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस की कन्या हेलेन के विवाह की स्वीकृति दी थी क्योंकि यह विवाह भी केवल दो व्यक्तियों के बीच नहीं दो साम्राज्यों के बीच था। इस विवाह का तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि दोनों कॉलेजों के छात्रों में लड़ाई-झगड़े हमेशा के लिए बंद हो गये, और रुप्पन बाबू रामाधीन इंजीनियरिंग कॉलेज की मैनेजिंग कमिटी के भी सदस्य हो गये। वैद्यजी ने भी शुभ मुहूर्त देखकर एक दिन छंगामल कॉलेज की मैनेजरी भी रुप्पन बाबू को सौंप दी, और रुप्पन बाबू ने वैद्यजी की जगह पूरी तरह से ले ली। वैद्यजी एक व्यक्ति नहीं एक संस्था है: वैद्यजी थे, हैं, और रहेंगे!"

तब तक खाना खत्म हो चुका था; हाथ धोने के बाद हमने कॉफी का ऑर्डर दिया, और बातचीत फिर शुरू हुई।

"दिलचस्प!" मैंने कहा: "पर आप यह बता रहे थे कि आप यहाँ कब और कैसे आये।"

लंबे मौन के बाद दंगनाथ ने फिर कहना शुरू किया: "ह्म, मैं यहाँ कैसे आया?!" कॉफ़ी के घूँट भरते हुए दंगनाथ ने बात को जैसे तौलते हुए आगे बोलना शुरू किया: "पिताजी तो शिवपालगंज आने के बाद शिवपालगंजमय हो गये थे, पर उन्होंने वैद्यजी और बद्री पहलवान से सम्बंध खराब कर लिए थे, इसलिए चाहते हुए भी उनकी दोबारा शिवपालगंज आने की हिम्मत नहीं हुई। उनकी इच्छा भी रही होगी कि में भी शिवपालगंज देखूँ, पर परिस्थितियाँ भी कुछ ऐसी बनीं कि मुझे यहाँ आना पड़ा, और मैं एक बार आया तो यहीं का होकर रह गया। एमए करने के बाद जब मुझे भी कोई नौकरी मिलने के आसार नहीं दिखे, तो पिताजी ने मुझे भी रिसर्च करने की सलाह दी; यही नहीं, उन्होंने मुझे अपने इंडॉलोजी के प्रॉजेक्ट को ही आगे बढ़ाने की सलाह भी दे डाली जिस पर उन्हें कई सालों के अथक परिश्रम के बाद भी डॉक्टरेट नहीं मिल सकी। बेचारे ज़िंदगी भर लंगड़ को न्याय दिलाने के लिए कॉफ़ीहाउसों और गोष्ठियों में लेक्चर देते रहे, पर कब वह खुद लंगड़ बन गये उन्हें पता ही नहीं चला। न जाने कितनी बार वह अपनी थीसिस लेकर गाइड के पास गये, पर गाइड हर बार उसमें कोई न कोई कमी बताकर उन्हें उसी तरह लौटा देता था जिस तरह नकलनवीस लंगड़ की दरख्वास्त में कमियाँ निकालकर उसे लौटा देता था। एक दिन थक-हार कर वह बैठ गये: पता नहीं लंगड़ का क्या हुआ होगा! अब वह चाहते थे कि उनका काम मैं आगे बढ़ाऊँ। शायद लंगड़ का लड़का भी इसी तरह तहसील के धक्के खा रहा होगा! पीएचडी के प्रति मन में कोई उत्साह न होने के बावजूद पिताजी की इच्छा का मान रखने के लिए मैंने भी विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रेशन करा लिया, और पिताजी की लिखी थीसिस लेकर गाइड जो शायद पिताजी के गाइड का ही लड़का या कोई रिश्तेदार हो, के आगे-पीछे घूमना शुरू किया। गाइड हर बार उसमें कोई कमी बताता था, और हर बार मैं थीसिस में बिना हेर-फेर किये फिर उसके पास पहुँच जाता था। गाइड की इतनी तारीफ तो करनी पड़ेगी कि वह हर बार उसमें नयी-नयी कमियाँ निकालता था! गाइड और स्कॉलर दोनों अपनी-अपनी रस्मों का पालन कर रहे थे: रिसर्च चल रहा था। मामला बिल्कुल आगे न बढ़ते देखकर पिताजी को शिवपालगंज की याद आयी। तब तक रुप्पन बाबू वैद्यजी की जगह स्थापित हो चुके थे। पिताजी के उनसे सम्बंध काफी अच्छे थे, और उसी सम्बंध का फायदा उठाकर पिताजी ने रुप्पन बाबू से उसी छंगामल विद्यालय में मास्टरी के लिए मेरी सिफारिश की, जिसमें वह खुद कभी नहीं जा सकते थे। छंगामल इंटर कॉलेज उसी साल छंगामल महाविद्यालय बना था जिसमें एमए तक की पढ़ाई शुरू हो रही थी; उन्हें भी मास्टरों की ज़रूरत थी, और रुप्पन मामा की कृपा से वहाँ मुझे नौकरी मिल गयी। दिन में दो लेक्चर लेता हूँ, कॉलेज का कुछ हिसाब-किताब देख लेता हूँ, और यहाँ में रोड पर एक दुकान खोल ली है, उसे भी सँभालता हूँ; दिन कट रहे हैं।"

"ओह!" मैंने कहा: "अच्छा; वैद्यजी और बद्री पहलवान का क्या हुआ? क्या यह लोग अभी हैं?" "नहीं। वैद्यजी ने तो अपने सामने रुप्पन बाबू को सबकुछ सँभालते और अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण होते देख लिया था और जीवन से पूर्ण सन्तुष्ट थे; ऊपर से सनीचर जैसा सेवक उनके पास था; वह तो पूर्णायु होकर शान्ति के साथ मरे, पर बद्री पहलवान इतने भाग्यशाली नहीं थे। बेला-काण्ड के कारण रुप्पन बाबू ने उनको कभी माफ़ नहीं किया और मौके-बेमौके उनको जली-कटी सुनाया करते थे; रही-सही कसर उनकी 'हेलेन' ने पूरी कर दी, जिसने आने के बाद उनको घर के एक कोने में सीमित कर दिया। पहलवानों के बारे में ऐसे भी सुना है कि उनका बुढ़ापा बहुत कष्ट में बीतता है। बद्री पहलवान घर के एक कोने में पड़े-पड़े रुप्पन बाबू और अपने उस पालक-बालक जिसके कारण उन्हें जेल-यात्रा करनी पड़ी थी, को कोसते-कोसते और उनपर कलाजंग दाँव लगाने का संकल्प लेते-लेते एक दिन दादा दूरबीन सिंह की तरह शिवपालगंज की धरती को वीर-विहीन बनाते हुए अपने समय से काफ़ी पहले ही टें हो गये।" "और रामाधीन भीखमखेड़वी? उनका क्या हुआ?" "बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी ज़िंदगी भर वैद्यजी से लो इन्टेन्सिटी कनफ्लिक्ट में उलझे रहे, और रुप्पन बाबू के विवाह के उपरान्त वैद्यजी से उनकी दोस्ती हो गयी जिसके बाद पहली बार उन्हें जीवन में शान्ति का अनुभव हुआ। वह अक्सर वैद्यजी के पास बैठते थे और उनके बीच लम्बी चर्चाएं होती थीं। वह भी सुक़ून से गये। उनकी अंतिम कविता मानो विश्व को शान्ति का संदेश देने के उद्देश्य से ही लिखी गयी थी:

'क्या मिला भीखमखेड़वी ताज़िंदगी लड़ कर? जब दोस्ती हुई तो जाकर सुकूँ मिला!'

"क्या कहने हैं!" मैं अपने को दाद देने से नहीं रोक सका। "और सनीचर का क्या हुआ? और प्रिंसिपल साहब? उनका क्या हुआ?"

-"वैद्यजी के मरने के बाद सनीचर का मन शिवपालगंज से उचट गया। सुना है वैद्यजी ने अपनी वसीयत में उसके नाम कुछ रकम छोड़ी थी; एक दिन अचानक रुप्पन बाबू से छुट्टी और वह रकम लेकर सनीचर शिवपालगंज से गया तो फिर नहीं लौटा।" -"और ग्राम प्रधान? सनीचर के बाद ग्राम कौन बना?" -"रामाधीन के भइया; और कौन? दोनों परिवारों के बीच सम्बंध स्थापित हो जाने के बाद प्रधानी का कोई झगड़ा ही न रहा।" -"और प्रिंसिपल साहब?" -"प्रिंसिपल साहब समय से रिटायर हो गये, यद्यपि रुप्पन बाबू के मैनेजर बनने के बाद उनको कुछ दिक्कतें हुईं, पर अपने अनुभव और वैद्यजी के आशीर्वाद के सहारे वह अपने दिन काट ले गये; आज भी वह कॉलेज की मैनेजिंग कमिटी के मेम्बर हैं। खन्ना मास्टर और मालवीय जी के कॉलेज छोड़ने के बाद प्रिंसिपल साहब ने कॉलेज को अपने चचेरे-ममेरे भाइयों से भर दिया, पर उन्हीं मास्टरों ने खन्ना मास्टर की परम्परा में एक प्रिंसिपल-विरोधी गुट बना लिया जिसे सुना था कि रुप्पन बाबू का आशीर्वाद प्राप्त था। गुटों में किचकिच चलती रही, पर प्रिंसिपल साहब किसी तरह पार हो गये।"

-"और गयादीन?"

-"गयादीन? उनका क्या होना था? जोगनाथ वाले मामले में कोर्ट में छोटे पहलवान की बेला को लेकर दिये गये बयान के बाद गयादीनजी की जो बदनामी हुई, वह उनके लिए असह्य थी। इसे लोकापवाद नहीं तो और क्या कहा जाएगा? जिस आदमी ने कभी चींटी तक नहीं मारी, जिसने घर में हुई चोरी को भगवान की मर्जी मान कर स्वीकार कर लिया था, उसके दुनिया के सामने कपड़े उतार दिये गये। गयादीन ने अगर आत्महत्या नहीं की, तो इसलिए नहीं कि वह कायर थे, बल्कि इसलिए कि उनके खानदान में किसी ने आत्महत्या नहीं की थी। बेला की बदनामी को ढकने के लिए उसकी शादी में गयादीनजी को अपनी भैंस तक बेचनी पड़ी, और बेला की विदाई के बाद भी शिवपालगंज में रहना उनके लिए असम्भव हो गया। अपनी सारी जायदाद बेचकर रायबरेली रोड पर उन्होंने एक दुकान खरीदी, और वहाँ नये सिरे से धन्धा शुरू किया। आज भी वह उड़द की दाल से परहेज करते हैं, पर शिवपालगंज का नाम सुनते ही गुस्सा होने से अपने को रोक नहीं पाते। यही हाल बेला और उसके पति का है। शिवपालगंज का नाम सुनते ही वह चुप हो जाते हैं।"

इन महापुरुषों का हाल जानने के बाद मैं तृप्त हो गया। अब बस छोटे पहलवान से मिलना बाकी था। मैंने अब दंगनाथ से कहा: "तो अब शिवपालगंज चला जाय?"

थोड़ी ही देर में हम शिवपालगंज की धरती पर थे। मैंने गाँव की मिट्टी को माथे पर लगाया और दंगनाथ के साथ छोटे पहलवान के घर जाकर उनका दरवाजा खटखटाया।

"कौन है बे?" अन्दर से आवाज़ आयी। छोटे की आवाज़ पहचान कर मैं मन ही मन मुस्कराया।

"मैं दंगनाथ।" दंगनाथ ने उतनी ही तेज़ आवाज़ में जवाब दिया।

"कौन दंगनाथ? बाप का नाम?"

"छोटे, गँजहापन मत झाड़ो; चुपचाप दरवाजा खोलो। तुम्हारे दादा से कोई मिलने आये हैं।"

शायद मेरे पिलाये ठण्डे को याद करके छोटे ने दरवाजा खोल दिया। सामने ही एक आरामकुर्सी पर कमर में लुंगी बाँधे नंगे बदन घुटे सिर और लम्बी मूँछों वाले एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हुए थे, जो काफ़ी कमजोर दिख रहे थे, पर उनके शरीर की बनावट उनके जवानी में पहलवान होने का इतिहास बयान कर रही थी। पीछे दीवार पर एक पुरानी फोटो जिस पर हार चढ़ा हुआ था, और जिसमें एक व्यक्ति घुटा सिर, लम्बी मूँछ, कुर्ता, लुंगी और बूट धारण किये हुए चन्द्रशेखर आज़ाद स्टाइल में अपनी मूँछें उमेठता हुआ दिख रहा था। मैं समझ गया कि वह बद्री पहलवान के अलावा कोई दूसरा नहीं हो सकता। दंगनाथ ने झुक कर छोटे पहलवान के पैर छुए, तो मैंने उन्हें साष्टांग दण्डवत किया। छोटे पहलवान ने झुक कर मुझे उठाने की कोशिश की, तब मैंने गौर किया कि उनका एक हाथ स्लिंग में झूल रहा था, और उनके माथे पर एक घाव था जिस पर हल्दी का लेप लगा हुआ था।

छोटे पहलवान मेरा भक्तिभाव देखकर काफ़ी प्रसन्न हुए, और मेरी ओर देखते हुए बोले: "तुम आदमी ठीक जान पड़ते हो, पर तुम्हारी तंदुरुस्ती कुछ ढीली है।" फिर तुरंत ही वह दंगनाथ से मुखातिब हुए: "और तुम्हारे क्या हाल हैं दंगनाथ? चाय-वाय पियोगे?" दंगनाथ को जवाब देने का मौका दिये बिना वह कहते रहे: "पहिले के ज़माने में घर आये मिहमान का बादाम मिले दूध से स्वागत होता था, अब तौ ससुरी चाय मिल जाय वही बहुत है। बद्री गुरु के अखाड़े पर शुरू-शुरू में हम लोगों को गुड़-चने के साथ बादाम मिला दूध पिलाया जाता था, तब जाकर भूत जैसी ताकत देह में आती थी; आजकल वहाँ भी चाय-बिस्कुट खिलाया जा रहा है; ज़माने का हाल बुरा है!" "हम तो बिल्कुल फिट हैं चचा! दंगनाथ ने जवाब दिया: "अपनी सुनाइए; यह चोट कैसे लगी? क्या फिर जगेसर दादा से आपकी लड़ाई हुई? दादा हैं कहाँ?" में तुरन्त समझ गया कि जगेसर दादा छोटे पहलवान के सुपुत्र का नाम है; एक क्षण में छोटे पहलवान के खानदान की विशिष्ट परम्परा जिसमें बेटा बालिग होते ही बाप की धुनाई शुरू कर देता था, और कुसहर प्रसाद से लेकर बाबा भोलानाथ तक के छोटे पहलवान के पूर्वजों के नाम दिमाग में कौंध गये।

"अरे नहीं; उसने तो मुझे पीटना कब का बंद कर दिया। वैसे भी आजकल के लौंडों में वह दम कहाँ? भरी जवानी माँझा ढील! एक हम थे जो सोलह साल की कच्ची उमर में ही अपने बाप कुसेहर प्रसाद को उठा कर पटक देते थे; जगेसरा के हाथ में अगर लाठी न हो, तो वह आज भी मुझे नहीं हरा सकता। यह चोट तो इस छोटे पहलवान की वजह से लगी है।" उन्होंने हँस का अपने पोते की ओर इशारा किया जो तुरन्त ही शरमा कर वहाँ से हट गया। छोटे पहलवान कहते रहे: "दिन भर टीवी पर डब्लूडब्लूयफ देखता रहता है और सब मेरे ऊपर आजमाता है, बाद में अपने बाप को उसी तरह पटकेगा।" यह कह कर छोटे पहलवान ठठाकर हँस पड़े। छोटे पहलवान का अपनी वंश-परम्परा के प्रति गर्व और समर्पण देखकर मैंने मन ही मन उनका नमन किया। पहलवान कहते रहे: पहले हर साल पचैयाँ पर कुश्ती के मुकाबले होते थे। एक बार हमारे गाँव में पता नहीं कहाँ से एक पहलवान आया: बिल्कुल काला भुजंग, नौगजा पीर जैसा; उसने आकर पूरे गाँव को चुनौती दे दी। भीखमखेड़ा के कल्लू पहलवान को उसने हँसी-हँसी में धोबीपाट दाँव से चित्त कर दिया था। बद्री वस्ताद उस दिन कहीं बाहर गये थे, और किसी की अखाड़े में उतरने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मेरी अभी मसें भी नहीं भीगी थीं, पर अपने बाप को मैं पटकने लगा था। ऐसे में बैद महराज ने मजबूर होकर मेरी तरफ देखा। मैंने मन ही मन लाल लँगोटी वाले और अपने बद्री वस्ताद को याद किया, और अखाड़े की मिट्टी माथे पर लगा कर अखाड़े में उतर पड़ा। पहलवान ने पहले मेरे ऊपर जाँघिया दाँव लगाने की कोशिश की, पर मैं किसी तरह उसका हाथ अपने लँगोट उसके हाथ में आने से बचाता रहा। उसने मुझ पर धोबीघाट आजमाने की कोशिश की, पर मैं निकाल दाँव खेलकर उसकी टाँगों के बीच से निकल गया। अगर वह उतना भारी-भरकम न होता तो मैंने उसे कन्धे पर उठाकर पटक दिया होता, पर साला बहुत भारी था। थोड़ी देर जोड़ करने के बाद उसकी कलाई मेरे हाथ में आयी; मैंने तुरन्त साँडीतोड़ दाँव लगाया। वह दर्द से बिलबिला उठा। मैं मौका देखकर उसकी टाँगों के बीच से निकला, और बिना उसका हाथ छोड़े ही बैठे-बैठे ही मैंने उसे उलट दिया। दर्द के मारे वह खुद ही चित्त हो गया।बैद महराज ने खुश होकर मुझे गले से लगा लिया, और साल भर अपने घर से मेरे लिए रोजाना चार सेर दूध भिजवाने का एलान किया, जिसमें से आधा हमारे बाप पी जाते थे।"

तभी छोटे चाय लेकर आ गया। चाय के दौरान पहलवान ने दूसरा किस्सा शुरू किया जिसमें उन्होंने बद्री पहलवान को काँखी दाँव में उलझा लिया था, पर वस्ताद होने का लिहाज करते हुए चित नहीं किया था। दंगनाथ यह सब शायद पहले भी सुन चुका था; चाय खत्म होते ही उसने चलने के लिए छोटे पहलवान से आज्ञा माँगी। पहलवान ने मेरी ओर देखते हुए कहा: "कभी इन्हें लेकर अखाड़े पर आओ।"

-"ज़रूर; क्यों नहीं चाचाजी!" दंगनाथ ने छोटे पहलवान के पाँव छूते हुए कहा।

मैंने छुटकू पहलवान के हाथ में सौ रूपये का एक नोट रखा जिसे उसने इस तरह लपका जैसे छिपकली अपना भोजन लपक लेती है। मैंने दोबारा छोटे पहलवान को दण्डवत प्रणाम किया और हाथ जोड़े-जोड़े दंगनाथ के साथ घर से बाहर निकल गया। मन ही मन मैं उस मुकदमे के बारे में सोच रहा था जो कुसहर प्रसाद ने अपने पुत्र छोटे पहलवान के खिलाफ़ किया था, कि दंगनाथ ने कहा: "रुप्पन बाबू से नहीं मिलेंगे?"

वापस वर्तमान में आते हुए मैंने खुश होकर कहा: "क्यों नहीं?"

"पर ध्यान रहे!" दंगनाथ ने सावधान किया: "आज के रुप्पन बाबू में ५० साल पहले के रुप्पन बाबू को न ढूँढने लग जाइएगा, वर्ना आप निराश तो होंगे ही, आपकी बेइज्जती भी हो सकती है। रुप्पन बाबू अब छात्र-नेता नहीं, पूरे नेता हैं और वैद्यजी के तख़्त पर विराजमान हैं। वैद्यजी के अलावा वह रामाधीन भीखमखेड़वी का भी साम्राज्य सँभाल रहे हैं। उनके पास अब टाइम कहाँ है? जैसे छोटे पहलवान के यहाँ चुपचाप रहे, वैसे ही रुप्पन बाबू के यहाँ भी रहिएगा।"
जल्द ही हम बैठक के सामने थे। बाहर दो बन्दूकधारी गार्ड खड़े थे, जो दंगनाथ को पहचानते थे। बिना रोकटोक के हम अंदर पहुँच गये।

अंदर जो देखा उससे आँखें चौंधिया गयीं। वैद्यजी का दरबार लगा हुआ था। बीच में एक तख़्त पर जिसपर एक गद्दा बिछा हुआ था, एक गावतकिये के सहारे रुप्पन बाबू आधे बैठे और आधे लेटे थे। उनका मुँह पान से भरा हुआ था, और पान की पीक बंद मुँह से भी बाहर की ओर झाँक रही थी। एक आदमी उनके पैर दबा रहा था और दूसरा उनका हाथ। लोग एक-एक करके आ रहे थे और रुप्पन बाबू के चरण छूकर हाथ जोड़े हुए अपनी बात कह रहे थे। रुप्पन बाबू किसी की बात का जवाब न देकर बगल में खड़े एक आदमी को इशारा भर कर रहे थे जो उनके हर इशारे पर अपनी नोटबुक में कुछ लिखता जा रहा था। एक कोने में एक नौजवान पूरी ताकत से भंग पीसने पर लगा हुआ था। उसने अचानक सिल के चारो ओर से भंग को समेत कर सिल के बीच में उसे इकठ्ठा किया, और बट्टे को उसपर रख कर बट्टे के सहारे सिल को उठा लिया। प्रभु का यह चमत्कार देखकर कुछ गँजहे खुश होकर तालियाँ बजाने लगे। नौजवान ने पीसी हुई भंग का एक गोला बनाया और उसे एक भगोने में शिवलिंग के आकर में रखकर शिव-शिव करते हुए पानी मिले दूध से उसका अभिषेक करना शुरू किया; गँजहे और खुश होकर तालियाँ पीटने लगे, तभी दंगनाथ ने रुप्पन बाबू के पास पहुँच कर उनके पाँव छुए। रुप्पन बाबू ने पास खड़े एक युवक को इशारा किया जिसने तुरंत पीकदान उनके आगे कर दिया। पान थूककर रुप्पन बाबू बोले: "कैसे हो दंगनाथ? आज किसे साथ लाये हो?"

दंगनाथ ने मेरा परिचय कराया: "आप लखनऊ से शिवपालगंज देखने आये हैं; मैंने सोचा आपसे भी मिलवा दूँ।"
-"तुमने सोचा तो ठीक ही सोचा होगा।" रुप्पन बाबू ने मुस्करा कर कहा और उसी मुद्रा में मेरी ओर दृष्टि डाली; -"तो देख लिया आपने भी शिवपालगंज? क्या देखा?"
जवाब देने की कोशिश में मैं हकलाने लगा। यह देखकर रुप्पन बाबू अकस्मात् हँस पड़े।
-"दरअसल आप लोग शिवपालगंज को देखने-समझने नहीं, शिवपालगंज वालों पर हँस कर अपना मनोरंजन करने आते हैं! कभी-कभी तो श्रीलाल शुक्ल जी के ऊपर गुस्सा भी आता है; शिवपालगंज का नाम उन्होंने पूरी दुनिया में मशहूर तो कर दिया, पर इसका वर्णन इस तरह किया है जैसे हम सब सिर्फ़ जोकरई करने के लिए ही पैदा हुए हैं। इस जोकरई के पीछे की जो मजबूरियाँ हैं, उसे कोई-कोई ही देख पाता है! 'राग दरबारी' कोई मामूली सटायर नहीं-एक चीख है, जो अभी तक उसी तरह गूँज रही है।" रुप्पन बाबू के मुँह से इतनी गम्भीर बात सुनकर मेरी तो फूँक सरक गयी। मेरी हालत देखकर रुप्पन बाबू दोबारा हँस पड़े, और वातावरण को हल्का करने के लिए हँसते-हँसते ही बोले: "पूरा शिवपालगंज ही वेदना का मेटाफ़र है! कुछ याद आया?"
मैं भकुआ जैसा मुँह बाये रुप्पन बाबू की बातों का अर्थ निकालने की कोशिश करता रहा। रुप्पन बाबू बोले: "अभी तो मुझे कहीं जाना है; अपना पता और मोबाइल नंबर दंगनाथ को दे जाइए; किसी दिन इत्मीनान से आइए, तो इस पर बात हो कि शिवपालगंज को कैसे देखा जाय! और हाँ; शरबत पीकर जाइएगा।" तभी भंग पीसने वाले कलाकार ने भंग का गिलास रुप्पन बाबू के आगे बढ़ाया, उसे एक साँस में पीकर रुप्पन बाबू बाहर निकल गये।

शिवपालगंज को समझने के लिए गँजहों की तरह भंग पीने को आवश्यक जानकर मैंने बिना किसी संशय के मैंने भी शरबत का एक गिलास लिया और एक ही साँस में उसे खाली कर के सिर उठाने के बाद मैंने देखा कि दंगनाथ भी ऐसा ही कर रहा था। उसके बाद हम दोनों भी बाहर निकल गये।

थोड़ी देर तो वातावरण गम्भीर रहा, फ़िर मैंने बात शुरू की। "सबकी बात हो गयी, या कोई बचा है? जोगनाथ? पं राधेलाल?"
दंगनाथ भी हँस पड़ा। "आपकी याददाश्त की दाद तो देनी पड़ेगी। आपको यह सब भी याद हैं! सनीचर के जाने के बाद उसकी दुकान पर जोगनाथ ने कब्ज़ा कर लिया; दूकान का सारा सामान बेचकर वह दारू पीने के एकसूत्रीय कार्यक्रम में लगा है; आज भी की मात्रा में कोई अंतर नहीं आने देता, और सर्फ़री बोली बोलता है। और पण्डित राधेलाल! उनका चेला बैजनाथ-अरे वही जिसने जोगनाथ की ओर से गयादीन के यहाँ चोरी वाले मामले में गवाही दी थी: उनकी घरवाली जो उसके पहले उनके साथी चौकीदार की घरवाली थी, को लेकर भाग निकला, और उसके बाद पण्डित राधेलाल भी कहीं भाग निकले।" मोबाइल में समय देखते हुए दंगनाथ ने आगे कहा: "काफ़ी देर हो गयी; अब आप मुझे अपनी दुकान पर छोड़ दीजिए, जिसकी ऊपरी मंज़िल पर मैं रहता हूँ; वहाँ मैं आपको एक कप चाय पिलाऊँगा, उसके बाद आप भी वापस जा सकते हैं।"

चाय पीते-पीते मैंने दंगनाथ से कहा: "आपके पिताजी कुछ महीने शिवपालगंज में रहे, और उन्होंने राग दरबारी लिख डाली; आप इतने सालों से यहाँ हैं, आप उसकी उत्तरकथा क्यों नहीं लिखते?"
दंगनाथ हँस पड़ा: "आप बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं। 'राग दरबारी' रंगनाथ ने नहीं- श्रीलाल शुक्ल जी ने लिखी थी। दरअसल 'राग दरबारी' लिखने के लिए शिवपालगंज आना भी ज़रूरी नहीं है; शुक्ल जी ने लिखा भी है- 'जो यहां है वही सब जगह है, और जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है!' रुप्पन बाबू ने भीम कहा था: 'मुझे तो लगता है दादा पूरे मुल्क में शिवपालगंज ही फैला हुआ है!' 'राग दरबारी लिखने के लिए चाहिए श्रीलाल शुक्ल जी की पैनी दृष्टि, जो मुझमें तो नहीं है, पर मुझे लगता है आपमें है, तो आप ही लिख डालिए 'राग दरबारी' का सीक्वल। मुझसे जो मदद हो सकेगी, मैं करूँगा।"

अनिल सिंह 
मन ही मन मैंने श्रीलाल शुक्ल जी को एक बार और श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। मैं समझ गया कि 'राग दरबारी का सीक्वल लिखना मेरे बस की बात नहीं, पर दंगनाथ से मैंने कहा: "अभी तो मेरे पास फुरसत नहीं, रिटायरमेंट के बाद सोचूँगा।"
दंगनाथ बिना कहे ही मेरे मन की बात समझ गया, और ठठा कर हँस पड़ा।
इसके बाद हमने एक दूसरे से विदा ली, और मैं वापस लखनऊ की ओर चल पड़ा।

फिर भी नरेंद्र मोदी ने अपनी ताक़त और क्षमता भर देश की दिशा तो बदली ही है


आज भाजपा के नरेंद्र मोदी सरकार की चौथी सालगिरह है। सालगिरह बधाई देने का दिन होता है। मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूं , न किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित , न किसी गिरोह का सदस्य कि आरोप प्रत्यारोप और पूर्वाग्रह की बात करूं। सामान्य नागरिक हूं , शिष्टाचार जानता हूं सो नरेंद्र मोदी और उन की सरकार को बहुत बधाई देता हूं । हार्दिक बधाई ! कांग्रेस का आज विश्वासघात दिवस मनाना दुर्भाग्यपूर्ण पूर्ण है। इस लिए भी कि कांग्रेस ने देश के साथ जितंना विश्वासघात किया है , किसी और ने नहीं। तमाम असहमतियों के बावजूद बतौर नागरिक मैं तो कहना चाहता हूं कि काश , नरेंद्र मोदी जैसे ईमानदार , मेहनती , जोशीले और स्पष्ट विजन वाले नेता देश में और भाजपा में दस-बीस और होते तो देश की दशा , दिशा और दृश्य कुछ और होता। फिर भी नरेंद्र मोदी ने अपनी ताक़त और क्षमता भर देश की दिशा तो बदली ही है। देश भर में शानदार सड़कों का शानदार जाल बिछा कर बुलेट ट्रेन की आस जगाई है। अब तो दिल्ली से मेरठ तक चौदह लेन की 45 मिनट के सफ़र वाली सड़क बनने जा रही है। नेट और मोबाईल की दुनिया स्मूथ हुई है। सस्ती और सुंदर भी। दुनिया में देश का झंडा ऊंचा किया है और भारत को दुनिया के शक्तिशाली देशों के समक्ष शान से खड़ा किया है। मोदी की विदेश नीति ने सिर उठा कर स्वाभिमान से चलना सिखाया है। पाकिस्तान को दुनिया में अलग-थलग कर अकेला किया है। चीन , रूस , अमरीका , इंग्लैण्ड , ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से बराबरी से बात करने और बराबर होने का मान दिया है। फिलिस्तीन और इजराइल को एक साथ साधने की डिप्लोमेसी आसान नहीं है। यह बड़ी उपलब्धि है। देश के भीतर जोड़-तोड़ , लायजनिंग और दलाली की कांग्रेसी संस्कृति को नष्ट किया है। सर्जिकल स्ट्राइक , नोटबंदी और जी एस टी जैसे कड़े फैसले लिए हैं। काला धन पर कड़ाई से लगाम लगाई है। बेईमानों को उन की औकात बता दी है। रियल स्टेट को ज़मीन दिखा दी है। बेनामी संपत्ति ज़ब्त करने की बड़ी कार्रवाई भी इस सरकार के नाम दर्ज है। आर्थिक कदाचार में एक साथ चार पूर्व मुख्य मंत्री जेल में हैं। कुछ पूर्व मंत्रियों के साथ ढेर सारे आई ए एस अफसर भी आर्थिक कदाचार में जेल काट रहे हैं। इंजीनियर , डाक्टर और तमाम लोग भी। यह बड़ी बात है। हालां कि अभी यह कार्रवाइयां बहुत थोड़ी हैं। ऊंट के मुंह में जीरा जैसी हैं। 

राबर्ट वाड्रा जैसे भ्रष्ट लोग अभी भी जेल से बाहर हैं। मुलायम और मायावती जैसे आर्थिक घोटालेबाज लोग अभी भी कानून की पकड़ से दूर क्यों हैं। यह सवाल तो उठता ही है। टू जी स्पेक्ट्रम के अपराधी बरी हो चुके हैं। हज़ारो करोड़ ले कर चंपत हुए विजय माल्या , नीरव मोदी , मेहुल चौकसी , ललित मोदी जैसे भगोड़े अभी तक क़ानून की पहुंच से दूर क्यों हैं। यह ठीक है कि आतंकी घटनाएं अब कश्मीर से बाहर थम चुकी हैं लेकिन कश्मीर में भी आतंकी घटनाएं क्यों नहीं थमतीं। पत्थरबाजी पर लगाम क्यों नहीं लगती। पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक सिलसिलेवार क्यों नहीं होती ताकि उस के आतंक की कमर टूट जाए। दाऊद इब्राहिम , हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकियों के गिरेबान तक सरकार क्यों नहीं पहुंची। धारा 370 को हटाना ठंडे बस्ते में क्यों डाल दिया। मंहगाई की तुलना अगर मनमोहन सरकार से कर के ही खुश होने की बात है तो फिर मोदी सरकार की ज़रूरत ही क्या थी। पेट्रोल , डीजल को जी एस टी से बाहर रखने की साज़िश और हिप्पोक्रेसी कब तक चलेगी। करोड़ों बेरोजगारों को अगर झुनझुना थमाना ही मकसद है तो मोदी सरकार अन्य सरकारों से अलग कैसे हुई भला। दलित एक्ट के धुआंधार दुरूपयोग पर अगर सरकार अंधी हो जाती है और सुप्रीम कोर्ट उस पर लगाम लगाती है तो दलित वोट के लालच में सुप्रीम कोर्ट की इस लगाम को लंगड़ी मारने की कवायद ज़रूरी क्यों है। यह तो कांग्रेसी रवैया हुआ। कांग्रेस इन्हीं सारे कारणों से तो जनता की नज़र में गिर गई। सत्ता से बाहर हो गई। 

सत्ता में बैठे रहने के लिए तिकड़म , छल-कपट और जोड़-तोड़ अब बाध्यकारी हो चला है , आप भी करिए लेकिन यह सब राजनीतिक पार्टियों तक ही सीमित रहे तो बेहतर है , जनता जनार्दन पर इन तौर-तरीकों को न ही आजमाएं तो बेहतर है। यह गाय , यह जिन्ना , यह हिंदू , मुसलमान राजनीति के विषय न ही बनें तो बेहतर। गाय बचाना ज़रूरी है लेकिन गाय बचाने के लिए इंसान को मारना भी ज़रूरी क्यों है। मनुष्यता है , तो ही गाय है , तो ही राजनीति है। हम हैं , आप हैं। तो नरेंद्र मोदी आप सालों-साल राज कीजिए।  देश , दुनिया और मनुष्यता की सेवा कीजिए। बस प्राथमिकताएं सही और संतुलित रखिए। कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना छोड़ दीजिए। लोकतंत्र में मज़बूत विपक्ष भी ज़रूरी है। लेकिन आप की इस कांग्रेस मुक्त तमन्ना के चक्कर में एक लतीफ़ा राहुल गांधी को नेता की स्वीकृति मिलती जा रही है। यह कांग्रेस का ही नहीं , देश का भी दुर्भाग्य है। इस ज़िद से मुक्ति लीजिए। देश में ढेर सरे शौचालय बनाइए , लतीफ़ा घर भी बनाइए लेकिन किसी व्यक्ति को लतीफ़ा में तब्दील नहीं कीजिए , व्यक्ति को लतीफ़ा बनाने से बचिए। लोग आप को जुमलेबाज कहते हैं , अपने ऊपर लगे इस लांछन से मुक्त होइए। 

नरेंद्र मोदी , अगले साल देश आज की तारीख में भरसक एक और चुनाव पार कर चुका होगा।  फिर सरकार आप की होगी या किसी और की सरकार होगी , हम नहीं जानते। लेकिन देश खूब खुशहाल हो , हिंसा और नफ़रत से दूर हो , नौजवानों को खूब रोजगार मिले , देश  भ्रष्टाचार मुक्त हो , मंहगाई मुक्त हो , आतंक और नक्सलियों से मुक्त हो , सड़क , बिजली , पानी और रोजगार से युक्त हो। विकास का सागर उछाल मारे। देश दुनिया में सिर उठा कर चले। यह कामना तो हम कर ही सकते हैं। चार साल की सरकार के लिए बहुत बधाई  ! भारत माता की जय , वंदे मातरम !

Wednesday 23 May 2018

2019 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी और उन की भाजपा के लिए वाटरलू साबित होने वाला है


कर्नाटक ने नाटक का दृश्य बदल दिया है । विपक्ष एकजुट है , जनता बेतरह नाराज । जनता तो खैर पहले से नाराज चल रही है । हालां कि विपक्षी पार्टियों के भाजपा के घेराव पर मुझे बिलकुल भरोसा नहीं है , न ही इन से कोई उम्मीद । यह अपने अंतर्विरोध में मारी जाएंगी । लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी और उन की भाजपा के लिए वाटरलू साबित होने वाला है । यह तो तय है । इस के  लिए ज़िम्मेदार नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार का निकम्मापन है । बदलती और बिगड़ती प्राथमिकताएं हैं । बेतहाशा मंहगाई , बेरोजगारी और भ्रष्टाचार है । 2014 के चुनाव में किए गए एक भी वादे को पूरा नहीं कर पाना है । अच्छे दिन का झूठा झांसा है । नरेंद्र मोदी भूल गए हैं कि देश ने उन को भारी विजय लफ्फाजी झोंक कर बढ़िया भाषण सुनने के लिए नहीं दिलाई थी । इस्लामिक आतंकवाद , मुस्लिम तुष्टिकरण मुख्य मुद्दा था । कोई माने न माने इस एक  केंद्रीय बिंदु पर भारी जीत मिली थी मोदी को । कांग्रेस समेत कमोवेश सभी पार्टियां सेक्यूलरिज्म के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण में टापर थीं और कि हैं । लगा था नरेंद्र मोदी इस से कड़ाई से निपटेंगे । लेकिन नरेंद्र मोदी तो दांत चियारने लगे इस मुद्दे पर । घुटने टेकने लगे । लगातार । कश्मीर से धारा 370 हटाना , कश्मीर को देश की मुख्य धारा में जोड़ने में भी वह फेल हो गए । उलटे कश्मीर नीति पर उन के दोगलेपन ने उसे और उलझा दिया है । श्रीनगर से अलगाववाद की लपट जम्मू तक बढ़ आई है । पाकिस्तान के आतंकवादी मंसूबे और बढ़ते गए हैं । एक सिर के बदले दस सिर लाने का दावा भी झांसा ही साबित हुआ है । रमजान के बहाने एकतरफा सीजफायर जैसे दोगले फ़ैसले तुष्टीकरण की पराकाष्ठा है । नक्सल भी सिर उठाए खड़े हैं ।

बेंगलोर में मायावती सोनिया की केमेस्ट्री 
सेना हताश हुई है जनता और निराश हुई है , लेकिन कार्पोरेट ख़ूब खुश हुआ है। भाजपा का हार्डकोर वोटर मारे शर्म के कशमकश में है । राम मंदिर मुद्दे पर अटल जी के राज में भाजपा कहती थी , बहुमत की सरकार होती तो कुछ करते । साझा सरकार है । विवशता है । जब बहुमत की नरेंद्र मोदी सरकार आई तब इस सरकार ने चुप्पी साध ली । बिचौलियों को बातचीत पर लगाया मंथरा की तरह और सुप्रीम कोर्ट की तकिया लगा कर सो गई । दशरथ ने राम को वनवास पर भेजा था , नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर मुद्दे को वनवास दे दिया । तो कश्मीर में 370 और राम मंदिर बट्टे खाते में । बेरोजगार पकौड़े तलेंगे , नीरव मोदी , मेहुल और विजय माल्या  जैसे मक्कार हजारो करोड़ गड़प कर ऐश भोगेंगे । अच्छा राहुल गांधी, रॉबर्ट वाड्रा जैसे आर्थिक अपराधी जेल गए क्या ? चार साल बीत गए हैं । मुलायम , मायावती जैसे आर्थिक अपराधियों का क्या हुआ ? बस लालू जैसे एक आर्थिक अपराधी को जेल भेज कर कौन सा तीर मार लिया । साल , छ महीनों में क्या हथेली पर सरसों उगा लेने का इरादा है  । टू जी स्पेक्ट्रम के सारे आरोपी बरी हो गए । छल-कपट से जगह-जगह सरकारें बना लेना विजयी नहीं बनाता , तिकड़मी बनाता है । कर्नाटक में तो यह तिकड़म भी त्राहिमाम मांग गई । इस बहाने सारे क्षत्रप एक मंडप में खड़े हो कर भाजपा के बाल उतारने को तैयार खड़े हो गए । यह ठीक है कि वह सभी कभी चुनाव में एक साथ सचमुच कभी खड़े नहीं हो सकते । सब के अपने-अपने भय और अपने-अपने स्वार्थ हैं । पर आप तो कायरों की तरह आंबेडकर की पैंट की जेब में जा कर बैठ गए हैं । नरेंद्र मोदी बताते नहीं अघा रहे हैं कि आंबेडकर ने मुझ को प्रधान मंत्री बनाया। अरे भाई कब और कैसे ? आंबेडकर भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में कब से समा गए । अम्बेडकर और आरक्षण की ड्रामेबाजी में सवर्ण वोटर भी भाजपा के कोटर से बाहर निकल गया है । दलित एक्ट के दुरूपयोग पर सुप्रीम कोर्ट की लगाम आप को रास नहीं आ रही । फिर कश्मीर में महबूबा शरणम गच्छामि ने भाजपा को किस गड्ढे में भेज दिया है , भाजपा के नीति नियंताओं को कुछ खबर भी है भला । बिलकुल नहीं है । आंबेडकर का नाम ले कर देश को कार्पोरेट के हाथ गिरवी रख देना , राज करना नहीं होता । देश को गुलाम बनाना होता है । इस समय देश में मोदी नहीं , कार्पोरेट का शासन है । बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी इसी का परिणाम है । सरकार जब बनी तो गांधी का नाम राम की तरह ले रहे थे । अब सिर पर चुनाव है तो आंबेडकर का नाम राम की तरह लेने लगे । तो सिर्फ इस लिए कि अम्बेडकर के नाम पर वोट की फसल है , गांधी के नाम पर नहीं , राम के नाम पर नहीं । यह तो सरासर धूर्तई है । मुंह में राम बगल में छुरी है ।

बेंगलोर में अखिलेश मायावती 
राम-राम करते-करते , अम्बेडकर-अम्बेडकर जपना सिर्फ़ छल-कपट है । पराया माल अपना वाली बात है ।दलित वोट ऐसे तो मिलने से रहे । आज की तारीख में देश में जो माहौल है भाजपा के प्रति दलित और मुस्लिम वोट भाजपा को जाते नहीं दिख रहे । दलितों के यहां भोजन की नौटंकी फोटो सेशन और खबर भर के सेंसेशन के लिए है , वोट में यह दलित भोज कनवर्ट नहीं होने जा रहे । ठीक वैसे ही जैसे विदेश यात्राएं वोट में कनवर्ट नहीं होतीं । फिर दलितों और मुस्लिमों की जी हुजूरी करने के लिए , उन की कोर्निश बजाने के लिए , विदेश यात्राएं कर कार्पोरेट की दलाली करने के लिए जनता ने वोट नहीं दिया था । यह बात नरेंद्र मोदी और उन की भाजपा को जितनी जल्दी समझ आ जाए , उतना अच्छा होगा ।  मीडिया रिपोर्ट और इंटेलिजेंस रिपोर्टें अकसर सत्ताधारियों को खुश रखने के लिए बनती हैं । भगवान की तरह पूजा करती हैं । लेकिनमीडिया और इंटेलिजेंस ,  इन दोनों को भगवान बदलने में क्षण भर की भी देरी नहीं लगती । पेट्रोल , डीजल के दाम कारतूस बन कर नरेंद्र मोदी सरकार पर दगने को तैयार है । आलू , प्याज , दाल , अनाज हर चीज़ में आग लगी है । गरीब और ईमानदार आदमी का जीना दूभर हो गया है । मंहगाई , बेरोजगारी , भ्रष्टाचार सब कुछ कांग्रेस राज जैसा ही है । भारत की धरती पर इस चार में साल बदला क्या है । कुछ भी नहीं। फर्क बस इतना ही है कि मनमोहन चुप रहते थे , मोदी बोलते बहुत हैं । पर चीजें और बदरंग हुई हैं । हिंदू , मुस्लिम सांप्रदायिकता में खाई और चौड़ी हुई है । ईसाई सांप्रदायिकता ने भी फन काढ़ लिया है । जी डी पी , और रुपए के नित नए अवमूल्यन ने जैसे स्थाई घर बना लिया है । नोटबंदी , जी एस टी जैसे मुद्दे तात्कालिक विजय की फूल माला बन कर रह गए हैं । फायदा कम , नुकसान ज्यादा हुआ है । हर मोर्चे पर फेल इस फासिस्ट सरकार ने अगर अपनी गलतियां और प्राथमिकताएं समय रहते नहीं बदलीं तो कोई गाय माता भी 2019 में नरेंद्र मोदी की सरकार को नहीं बचा पाएंगी । राहुल गांधी जैसे गड्ढे के भरोसे भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव जीतने का सपना तोड़ लेना चाहिए । 

राहुल गांधी लाख लतीफ़ा हों पर अब उन की माता सोनिया गांधी के पीछे सारा विपक्ष लामबंद हो चुका है । भाजपा और नरेंद्र मोदी को इस निकम्मे विपक्ष से भले डर न लगे लेकिन भारत की जनता से ज़रुर डरना चाहिए । भारत की जनता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी से बेतरह नाराज है । तबाह है । नरेंद्र मोदी ने मनमोहक भाषण देने के अलावा बीते चार साल में कुछ नहीं किया है । चुनाव घोषणा पत्र के अपने एक भी वादे को पूरा नहीं किया है । सिर्फ़ अच्छे दिन आने वाले हैं के स्लोगन का झांसा दिया है । अच्छे दिन के बजाय देश के बहुसंख्यक लोग बुरे दिन का सामना कर रहे हैं । इसी लिए फिर दुहरा रहा हूं कि 2019 नरेंद्र मोदी और उन की भाजपा के लिए वाटरलू साबित होने वाला है । भारत की जनता वह जनता है जो वक्त आने पर राजा राम को माफ़ नहीं करती , नेहरु , इंदिरा को माफ़ नहीं करती , नरेंद्र मोदी क्या चीज़ हैं भला । इस बात को नरेंद्र मोदी और उन की भाजपा को भी जान लेना चाहिए । जिस कांग्रेस से नाराज हो कर लोगों ने भाजपा को सिर माथे पर बिठाया था , आंख मूद कर बिठाया था , वह भाजपा और उस के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस से भी गए बीते साबित हुए हैं ।

बेंगलोर में एकजुट विपक्ष की हुंकार 

Saturday 19 May 2018

रोमेश भंडारी और केशरीनाथ त्रिपाठी की काली कथा

दयानंद पांडेय 

जानने वाले जानते हैं कि अगर विधानसभा अध्यक्ष सत्ता पक्ष का हो , क़ानून जानता  हो , जूनून का धनी हो तो खुदा भी कोई सरकार नहीं गिरा सकता। लोकसभा के कभी अध्यक्ष रहे सोमनाथ चटर्जी को भूल जाइए।  जिन्हों ने संसदीय परंपरा के आगे पार्टी को भी पूरी सख्ती से नो कह दिया था। और बेरहम पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। लेकिन यह एक अपवाद है। लोकसभा और और तमाम प्रदेशों की विधान सभा के अध्यक्ष संसदीय परंपरा  और नियम क़ानून से नहीं , अब हाईकमान के निर्देश पर चलते हैं। उत्तर प्रदेश में तब मुलायम सिंह यादव ने मुख्य मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। मायावती की सरकार आ गई। लेकिन धनीराम वर्मा परंपरा के मुताबिक इस्तीफा देने के बजाय अड़े रहे तो अड़े रहे। सब लोग समझा कर हार गए। धनीराम वर्मा लेकिन अंगद के पांव की तरह जमे रहे।  फुल बेशर्मी से जमे रहे।  मुलायम सिंह भी किनारे बैठ कर मजा लेते रहे। लंबा नाटक चला था तब। विधानसभा अध्यक्ष की ऐसी कहानियां और बेईमानियां कई हैं। लेकिन केशरीनाथ त्रिपाठी जब विधानसभा अध्यक्ष थे तब की उन की बेईमानियां और कारगुजारियां तो न भूतो , न भविष्यति ! 

ऐसे ही कमीने राज्यपालों की जब कथा लिखी जाएगी तो पहला नाम हरियाणा के कांग्रेसी तत्कालीन दलित राज्यपाल जी डी तपासे का नाम पहला होगा । जिसे आयाराम , गयाराम के चक्कर में देवीलाल ने यह कहते हुए कि इंदिरा गांधी के चमचे तुम्हें पता नहीं है कि तुम ने लोकतंत्र की हत्या कर दी है , ज़ोरदार थप्पड़ मारा था । सुरक्षा कर्मी तपासे को बचा कर न ले गए होते तो देवीलाल लात-जूते भी मार सकते थे राज्यपाल तपासे को । लेकिन दूसरा कमीना नाम निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी का है । बूटा सिंह , सिब्ते रजी , हंसराज भारद्वाज , रामलाल , जगन्नाथ पहाड़िया आदि तमाम और नाम भी हैं । खैर , तब लार्जेस्ट पार्टी भाजपा थी तब और कल्याण सिंह नाक रगड़ कर रह गए लेकिन रोमेश भंडारी ने उन्हें मुख्य मंत्री पद की शपथ के लिए नहीं बुलाया । तब जब कि कोई और दल सरकार बनाने के लिए आगे नहीं आया था । कहना न होगा कि यह सब समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव के इशारे पर हो रहा था । उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन जारी रहा । लेकिन एक दिन अचानक भाजपा और बसपा में समझौता हो गया । समझौता हुआ कि बारी-बारी मायावती और कल्याण सिंह मुख्य मंत्री बनेंगे । पहले मायावती बनीं । फिर कल्याण सिंह का नंबर आया । लेकिन कुछ दिन बाद ही कल्याण सिंह से मायावती ने समर्थन वापस ले लिया । अब रोमेश भंडारी ने कल्याण से छत्तीस घंटे में बहुमत साबित करने को कहा । मायावती ने अपने सभी विधायकों को नज़रबंद कर लिया । कांग्रेस दो फाड़ हो चुकी थी । विधानसभा में बहुमत साबित करने के दिन बस में भर कर विधायकों को ले कर मायावती पहुंची । जब कि उन के पार्टी आफिस और विधानसभा की दूरी बमुश्किल दो सौ मीटर की थी । उत्तर प्रदेश विधान सभा परिसर में पहली बार किसी बस में भर कर विधायक पहुंचे थे । बस से उतार कर मायावती ने विधायकों की लाईन लगवा कर दो तीन बार गिनती करवाई । यह सब देख कर एक वरिष्ठ पुलिस अफसर बोले , ऐसी गिनती तो हम लोग पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में भी नहीं करते । 

खैर मायावती आगे-आगे चलीं । बिलकुल किसी मानिटर की तरह । पीछे-पीछे लाईन से विधायक । नसीमुद्दीन सिद्दीकी ,  मुख़्तार अंसारी जैसे लोगों की निगरानी में । विधान सभा में पहुंच कर मायावती पहले ही से बैठे कांग्रेस के प्रमोद तिवारी के पास बैठ गईं और विह्वल हो कर बोलीं , कि आप की कांग्रेस तो टूट गई पर हमारा एक भी विधायक नहीं टूटा । मायावती अभी यह बात प्रमोद तिवारी से कह ही रही थीं कि मायावती के विधायक जो उन के पीछे-पीछे आए थे , लगभग परेड करते हुए भाजपा के विधायकों की तरफ बढ़ गए । मैं विधान सभा की प्रेस गैलरी में बैठा यह सब देख रहा था । एक गया , दो गया , कई सारे । प्रमोद तिवारी मायावती से कुछ बोले नहीं , जवाब क्या देते खो गए सवालों में की स्थिति आ गई थी । उन्हों ने सिर्फ इशारों से मायावती को इंगित किया । मायावती के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई । चेहरा उड़ गया । सारी शेखी उतर गई थी । मायावती ने अपने विधायकों को नाम ले-ले कर पुकारा । पर उन की किसी ने नहीं सुनी । विधायक और तेज़ी से भाजपा पाले में बढ़ते चले गए । एक-एक कर चौदह विधायक मायावती के भाजपा की तरफ जा कर बैठ गए । प्रमोद तिवारी औचित्य का प्रश्न ले कर खड़े हो गए । पूरी विधानसभा में अफरा तफरी मच गई । आरोप-प्रत्यारोप के साथ ही हाथापाई शुरू हो गई । मायावती बहुत होशियार महिला हैं । उन्हों ने इशारे से मुख़्तार अंसारी को अपने पास बुलाया । फिर इशारा किया कि मुझे कवर करो । और खुद बकैया-बकैया चल कर ताकि उन्हें कोई देख न सके , फौरन विधानसभा से बाहर निकल गईं । 

फिर तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में जो बेमिसाल खून खराबा हुआ वह अब एक इतिहास है । सब को मालूम है । कितनों के सिर फूटे , कितनों के हाथ पैर । मेज पर लगी तमाम माईक तोड़ कर विधायकों ने मार पीट की । कुर्सियां चलीं । तब की मार पीट के एक से एक लाजवाब प्रसंग अभी भी मेरी आंखों और यादों में कैद हैं ।विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी ने खुद मेज के नीचे छुप कर कार्रवाई चलाई । उन के चारो तरफ मार्शल अलग खड़े थे । अंततः केशरीनाथ त्रिपाठी ने सदन में जब पुलिस के कमांडो बुलाए तब जा कर शांति बनी । लेकिन सारी मार पीट में भी केशरीनाथ त्रिपाठी ने एक क्षण के लिए भी बोलना बंद नहीं किया । बहुमत साबित होने की हर्षध्वनि के बाद केशरीनाथ त्रिपाठी ने बाकायदा इंगित किया कि माननीय राज्यपाल महोदय के निर्देशानुसार विधानसभा की कार्रवाई बिना एक क्षण भी रुके बहुमत साबित हो चूका है कृपया प्रेक्षक गण यह नोट कर लें । स्थितियां ऐसी थीं तब कि विधायकों की तोड़-फोड़ के बाद बवाल होना ही था , यह बात रोमेश भंडारी ठीक से जानते थे । इस लिए ही यह शर्त रखी थी कि बिना एक क्षण कार्रवाई रुके विश्वास मत प्राप्त करें कल्याण सिंह । लेकिन रोमेश भंडारी तब विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी की क्षमता को नहीं जानते थे । नहीं जानते थे कि वह कितने घाघ वकील हैं । रोमेश भंडारी को तब कल्याण सिंह ने नहीं , केशरीनाथ त्रिपाठी ने पानी पिलाया था । और विधायकों के बीच जो भी तोड़-फोड़ हुई थी तब वह की थी राजनाथ सिंह ने । कल्याण सिंह तो बस दूल्हा बने बैठे रहे थे । अब यह भी अलग बात है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में यह सारी मार-पीट समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव द्वारा प्रायोजित थी। और उन का निशाना एक साथ दो था । एक तो कल्याण सिंह की सरकार गिर जाए लेकिन यह दूसरा निशाना था । पहला निशाना मायावती की तबीयत भर पिटाई की थी । लेकिन मायावती ऐन वक्त भर भाग गईं । सो सब योजना धूल-धुसरित हो गई ।

हां , बाद के दिनों में केशरीनाथ त्रिपाठी ने जो किया वह संसदीय परंपरा पर एक गहरा दाग है । बसपा से टूटे लोगों ने जनतांत्रिक बसपा भले बना ली थी , सभी चौदह के चौदह मंत्री बन गए थे लेकिन दल बदल कानून के तहत वह लोग अयोग्य हो चुके थे । बसपा ने विधानसभा अध्यक्ष के पास यह शिकायत भी की । लेकिन विधानसभा का टर्म खत्म हो गया , केशरीनाथ त्रिपाठी ने यह सुनवाई नहीं खत्म की । तारीख पर तारीख देते रहे । केशरीनाथ त्रिपाठी की यह कार्रवाई एक गहरा धब्बा है , संसदीय परंपरा पर । लेकिन वह कहते हैं न कि जैसे को तैसा मिला । मायावती ने समझौते के तहत अपना मुख्यमंत्री का कार्यकाल तो पूरा किया भाजपा के समर्थन से पर भाजपा को पूरे समय समर्थन देने के बजाय समर्थन वापस ले लिया था । भाजपा ने तब उन्हें सबक सिखा दिया था । अब रियाज में पक्की हो चुकी भाजपा इन दिनों निरंतर कांग्रेस को उस के ही छल-कपट से सबक सिखा रही है तो लोग त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगे हैं । यह गुड बात नहीं है ।

Thursday 10 May 2018

सच तो यह है कि कबीर के बाद कोई लेखक सेक्यूलर नहीं हुआ

दयानंद पांडेय 

फेसबुक पर तमाम लेखक लोग सेक्यूलर होने का चोंगा ओढ़ कर बैठे हैं । लेकिन सच यह है कि इन में एक भी सेक्यूलर नहीं हैं । यह अपने को सेक्यूलर कहने वाले सभी लेखक एकपक्षीय हैं । एजेंडा चलाने वाले सेक्यूलर हैं । सच तो यह है कि कबीर के बाद कोई लेखक सेक्यूलर नहीं हुआ । यह Asghar Wajahat , Giriraj Kishore आदि जैसे तमाम आदरणीय लेखक भी सेक्यूलर नहीं रह गए हैं । कबीर जैसे तो कतई नहीं हैं । क्या सांप्रदायिकता इतनी इकहरी होती है ? जैसा कि यह लेखकगण जता और बता रहे हैं । बिलकुल नहीं । सांप्रदायिकता बहुरंगी होती है । दोतरफा होती है । क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया की तरह । इकतरफा नहीं होती कोई भी सांप्रदायिकता । लेकिन तमाम सेक्यूलर लेखकों को सांप्रदायिकता सिर्फ़ सावरकर जैसे हिंदूवादियों में दिखती है । लीगियों में नहीं । मिशनरियों में नहीं । सो हर बात का जवाब यह लोग सिर्फ़ संघी , भाजपाई आदि शब्दों में खोजते हैं । खोजते क्या हैं , जैसे इन शब्दों को वह गाली का पर्यायवाची बना बैठे हैं । हिंदू , मुस्लिम सौहार्द्र पर असग़र वजाहत ने क्या तो खूबसूरत नाटक लिखा है , जिन लाहौर नई देख्या । लेकिन फेसबुक पर उन का यह लाहौर कहीं गुम हो गया है । उन का कबीर गायब हो गया है । इसी लिए असग़र वजाहत , गिरिराज किशोर जैसे तमाम आदरणीय लेखकों को जब एकतरफा बात करने के लिए सामान्य लोगों की गालियां और भद्दी बातें सुनता-पढ़ता हूं तो तकलीफ़ होती है । लेकिन इन की एकपक्षीय बातें पढ़ कर भी तकलीफ़ होती है ।

किन-किन का नाम लूं यहां । बहुत से लोग हैं जिन्हों ने निरंतर एकपक्षीय बात कर के अपने लिए अपना लेखकीय आदर नष्ट कर लिया है । इन तमाम लेखकों की वाल पर जा कर देख लीजिए कि यह लोग कभी भी मिशनरी फंडिंग से चल रहे जहर की खेती पर नहीं बोलते । इन दिनों जिन्ना का मौसम है । तो यह लोग या तो जिन्ना पर ख़ामोश हैं या फिर जिन्ना को बंटवारे का दोषी बता कर किनारे हो गए हैं । जिन्ना की फ़ोटो रहे न रहे , इस पर ख़ामोश हैं । ओवैसी जैसों के ख़िलाफ़ भी यह लोग ख़ामोश हैं । अफजल गुरु , कश्मीर , पत्थरबाजी आदि पर भी ख़ामोश हैं । सेना को बलात्कारी बताने वालों के साथ खड़े दीखते हैं । जे एन यू में भारत तेरे टुकड़े होंगे , इंशा अल्ला नारे को डाक्टरड बता कर निकल जाएंगे। बाकी संघी , भाजपाई आदि की एकतरफा गाली तो है ही तरकश में ।

तो क्या बहुतायत देशवासी भाजपाई और संघी हो गए हैं ? हो गए हैं तो क्यों हो गए हैं ? इन लेखकों को क्या इस पर विचार नहीं करना चाहिए । जैसा कि हर असहमत को इन के द्वारा भाजपाई , संघी कहने से लगता भी है कि यह भाजपाई , संघी होना अपराध है । और यह लोग इन शब्दों का इस्तेमाल ठीक उसी तरह करते हैं जैसे भाजपाई अपने से असहमत को सीधे पाकिस्तान भेज देते हैं । तो लेखकों और भाजपाइयों में फर्क क्या रह गया है ? हमारे लेखकों में कबीर की सी सलाहियत क्यों नहीं है । क्यों इतना एकपक्षीय हो गए हैं हमारे लेखक । क्या लेखकों को राजनीतिक पार्टियों की तरह एजेंडा चलाना चाहिए । वंदे मातरम से इतना भड़कना लेखकों का काम है । लोकसभा और राज्यसभा सहित विभिन्न विधानसभाओं में वंदेमातरम का गायन शुरू करने वाली कांग्रेस भी क्या भाजपाई थी तब के दिनों । भारत माता की जय बोलने का विरोध करना सेक्यूलर होना है । गाय का मांस खाने की पैरवी करना लेखकों का काम है । तब जब कि आप को मालूम है कि एक वर्ग की गाय पर आस्था है । भाजपा विरोध के बस यही सारे तरीके रह गए हैं । आप का सारा लेखन मनुष्यता के पक्ष में होने के बजाय सिर्फ़ भाजपा , संघी की गालियों में ही खर्च क्यों हो रहा है । राजनीति के आगे चलने वाली मशाल इतनी संकुचित और एकपक्षीय क्यों हो गई है । एकपक्षीय बात कर , एजेंडे पर चल कर सिर्फ़ अपने पाठकों की गालियां सुनने के लिए । बाहर वामपंथ का झंडा ले कर चलना , नारे लगाना , भाषण देना , फिर घर में पूजा करना , आरती और भजन गाना और बात है । वैसे ही सेक्यूलर होना और सेक्यूलरिज्म की दुकान चलाना और बात है ।

हमारे आदरणीय लेखकों का काम समाज को दिशा दिखाने का है । राजनीति की गोद में बैठ कर अपने पाठकों की गालियां सुनने का नहीं । राजनीति की गोद में बैठ कर एजेंडा चलाने का चालू काम आप से बहुत बेहतर ज़्यादा बेहतर ढंग से मीडिया कर रही है । आप जानते ही होंगे कि मीडिया को हमारा समाज अब दलाल नाम से जानता है । क्या आप लोग चाहते हैं कि आने वाले दिनों में मीडिया की तरह लेखक समाज भी दलाल कह कर जाना जाए । माफ़ कीजिए हमारे आदरणीय लेखक मित्रों आज के दिन , आज की तारीख में यह दस्तक हो चुकी है । आप की एकपक्षीय बातों , नजरिए और एजेंडे की भेड़चाल ने समय की दीवार पर यह इबारत लिख दी है । आप अपनी झोंक , ज़िद , सनक और पूर्वाग्रह में यह इबारत नहीं पढ़ पा रहे हैं तो यह गलती आप की है , समय की नहीं । ताज़ा उदाहरण आप नामवर सिंह के उस कहे में खोज लें कि हमारा ईश्वर कोई कमज़ोर थोड़े है । नामवर के इस कहे में लोगों ने उन का अपराध खोज लिया । इस से उपजे विवाद और उस पर हुई सतही बहस से उपजे तहस नहस में अब लेखक समाज को अपने आप को खोजना शेष है कि वह है कहां । माई गाड में , या ख़ुदा में या भगवान में या इस से उपजी बहस के तहस नहस में । हमारे समाज के लेखक का कबीर आख़िर कहां गुम हो गया है । कि किसी एकपक्षीय एजेंडे में घायल हो कर किसी गुफा में कैद हो गया है ।

दिक्कत यही है कि हमारे लेखकों ने अपने कबीर को सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह अपने लालच , स्वार्थ और दंभ में मार डाला है । कबीर को मार कर अपने को नफ़रत और जहर का केंद्र बना लिया है । ज़रुरत अपने कबीर को जिंदा कर लेने की है , जगा लेने की है । लेखक हिंदू , मुसलमान नहीं होता । लेखक किसी समुदाय या किसी पार्टी का प्रवक्ता नहीं होता । लेखक वामपंथी और भाजपायी नहीं होता । लेखक मनुष्यता का पैरोकार होता है । वंचितों और शोषितों का पैरोकार होता है । लेकिन यह जो पोलिटिकली करेक्ट होने की चौहद्दी बना ली गई है न , यह लेखक को सिर्फ़ गाली दिलवा रही है । किताबों के पन्नों पर , सेमिनारों में आप अपना गाल और ढपली बजाने के लिए स्वतंत्र हैं । क्यों कि वहां आप लिखते हैं , आप ही पढ़ते हैं । आप ही बोलते हैं और आप ही सुनते हैं । तो कोई कुछ नहीं कहता । या लिहाज कर जाता है । लेकिन सोचिए फेसबुक तो चौराहा है । लोकतांत्रिक प्लेटफार्म है । हर तरह के लोग हैं यहां । तो फेसबुक के पन्नों पर आप को इंतनी बहुतायत में गाली क्यों मिल रही है , यह सोचना चाहिए । और अपने को करेक्ट करना चाहिए । आप चाहें तो फेसबुक को भी या फिर फेसबुक पर उपस्थित लोगों को फासिस्ट कह कर निकलने की तरकीब निकाल लें तो बात और है । यह आप पर मुन:सर है । पर लेखक मित्रों को एक बार मुड़ कर अपने को दर्पण में देखना ज़रूर चाहिए । इस लिए भी कि पूरा देश हिंदूवादी नहीं है । कभी नहीं हो सकता । अब आप यह कह कर शुतुरमुर्ग न बन जाईएगा कि फेसबुक पर अधिकांश हिंदूवादी हैं । फेसबुक पर या बाहर समाज में भी हर असहमत को हिंदूवादी , संघी , भाजपाई कह कर अनफ्रेंड करना या ब्लाक कर देना भी विकल्प या समाधान नहीं है । समाधान है , सब को जागरूक करना , शिक्षित और सावधान करना । समाज तभी बदलेगा । राजनीति के आगे चलने वाली साहित्य की मशाल जलनी चाहिए । बुझी-बुझी और गाली सुनती हुई नहीं दिखनी चाहिए ।

Friday 4 May 2018

शराब , शबाब , सूअर और सिगार के शौक़ीन जिन्ना ने कठमुल्लों का इस्तेमाल कर पाकिस्तान बनाया


जो हक़ है मैं उस बात को सौ बार कहूंगा 
घर में भी कहूंगा , सरे बाज़ार कहूंगा 

जिन्ना के लिए जिन के दिलों में है मोहब्बत 
उन लोगों को इस मुल्क का गद्दार कहूंगा 

- आसिफ़ जाफ़री 'नश्तर '

कितने लोग इस बात को जानते हैं कि जिन्ना इस्लाम को नहीं मानता था । न तो वह नमाज पढ़ता था , न रोजा रखता था । उस ने इस्लाम से बगावत कर के एक पारसी लड़की से शादी की थी । जो उस से उम्र में बहुत छोटी थी । शराब , शबाब , सूअर और सिगार के शौक़ीन जिन्ना ने जब देखा कि हिंदुस्तान में प्रधानमंत्री नहीं बन सकता तो मूर्ख कठमुल्लों का इस्तेमाल कर अंगरेजों से दुरभि संधि कर भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना कर कायदे आज़म बन गया ।

जिन्ना के पाकिस्तान में जो भी मुसलमान भारत से गए , वहां मुहाजिर का दर्जा मिला उन्हें । मुहाजिर मतलब दूसरे दर्जे का नागरिक । आज भी वह वहां मुहाजिर हैं । और जो अपनी कायरतावश वहां नहीं गए , मुहाजिर बनने से बच गए वही अपनी पीठ ठोंकते हुए कहते हैं , इंडियन बाई च्वायस । यह इंडियन बाई च्वायस नहीं हैं , मौकापरस्त लोग हैं । कि जब देखा , उधर मज़ा नहीं है तो यहीं रुक गए । आप ने कभी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे लोगों को कहते सुना है कि वह इंडियन बाई च्वायस हैं । नहीं सुना । क्यों कि यह लोग सच्चे भारतीय थे । बाई च्वायस नहीं थे । इंडियन बाई च्वायस वही लोग कहते हैं जो जिन्ना प्रेमी होते हैं । अलगाववादी होते हैं । श्रीनगर में यह खुल कर अलगाववाद की भाषा बोलते हें , अलीगढ़ और अन्य जगहों में बाई च्वायस बोलते हैं । इस लिए भी कि माता , पिता और देश बाई च्वायस कभी नहीं हो सकते । लेकिन ऐसा कहने वाले लोग अपने को हरामी क्यों बताना चाहते हैं , मैं आज तक नहीं समझ पाया ।

कभी-कभी सोचता हूं तो पाता हूं कि इस्लाम को न मानने वाला जिन्ना कितना तो जानता था इस्लाम जानने वालों को । इतना कि इस्लाम की अफीम चटा कर , नफ़रत के बीज बो कर लाखो हिंदू , मुसलमान की हत्या करवा कर , बेघर करवा कर , पाकिस्तान बना कर कायदे आज़म बन गया । इस बिंदु पर आ कर लगता है कि कार्ल मार्क्स ठीक ही कहते थे कि धर्म अफीम है । यह धर्म की अफीम न होती तो जिन्ना पाकिस्तान की जलेबी कैसे खाता भला । और देखिए कि भारत में अभी भी ऐसे मूर्खों और धूर्तों के अवशेष छोड़ गया है , जो जिन्ना की फ़ोटो ले कर जिन्ना के नारे , डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया को पूरी ताकत से अंजाम दे रहे हैं । और हमारे वामपंथी दोस्त जो दिलोजान से मानते हैं कि धर्म अफीम है लेकिन धर्म के नाम पर देश को बांटने वाले जिन्ना के साथ , जिन्ना प्रेमियों के साथ पूरे दमखम के साथ खड़े हैं । वह जिन्ना जिस ने कभी इस्लाम को नहीं माना लेकिन भारत में इस्लाम मानने वालों को अपने अलगाववादी नज़रिए के लिए आज भी पागल बनाए हुए है । जिन्ना इस्लाम को नहीं मानता था , मुसलमान होने के बावजूद क्यों कि शुरू में वह तरक्कीपसन्द था । इसी लिए इस्लाम के बाबत उस के कोई विचार नहीं मिलते । हां , अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उस की फ़ोटो ज़रूर मिलती है । जिस फ़ोटो की हिफाज़त के लिए लोग खून बहाने पर आमादा हैं । जिन्ना के डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया के मकसद को पूरा करने के लिए । 


इंडियन बाई च्वायस कहने वाले ऐसे कितने मुस्लिम लोग हैं जो पाकिस्तान से चल कर भारत में बसने आए हैं । किसी के पास कोई आंकड़ा , कोई तथ्य हो तो ज़रूर बताए । बहुत दिलचस्प होगा । फिर यह लोग अगर ऐसा कहते हैं तो फिर तो उन्हें सलाम है । लेकिन मेरी जानकारी में ऐसे लोग नहीं हैं । हां , पर जो यहीं बैठ कर अलगाववादी बन कर चूहों की तरह देश को कुतर रहे हैं , उन का इंडियन बाई च्वायस कहना , अपने को हरामी कहना हुआ ।

जिन्ना और उस की पारसी बीवी 
मोहम्मद अली जिन्ना नाम नहीं , प्रवृत्ति है । दुर्भाग्य से भारत में पाकिस्तान और जिन्ना के लिए खून बहाने वाले बहुतेरे हैं । हालां कि बहुत सारे मुस्लिम भी हैं , देश में , जो जिन्ना और पाकिस्तान को पसंद नहीं करते पर इन की संख्या दुर्भाग्य से अनुपात में कम है । दिलचस्प यह भी है कि जिन्ना की एक फ़ोटो के लिए कुर्बान होने वाले सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं हैं । अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी तो इस खेती की नर्सरी ही है । मोदी फोबिया वाले भी हैं जिन्ना और पाकिस्तान का झंडा उठाने वालों में । पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को भी आप क्या समझते हैं ? जिन्ना प्रेम की तासीर उन में भी बहुत है । कूट-कूट कर भरी है । याद कीजिए उपराष्ट्रपति पद छोड़ते ही इस हामिद अंसारी को यह देश रहने लायक नहीं लगा था । इस मूर्ख और कृतघ्न आदमी ने कहा था , भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं । तभी इस जिन्ना प्रेमी को माकूल जवाब नहीं दिया गया । तो नौबत यहां तक आ गई है । और फिर हामिद अंसारी के बहाने भी कई सारे लोगों ने आंख लाल-पीली कर रखी है । यह तो लोग जो हैं , सो हैं ही , देश और प्रदेश की सरकारें भी कायर हैं । इन सारे जिन्ना प्रेमियों के साथ कड़ाई से पेश क्यों नहीं आती सरकार ? कोई जनरल डायर जैसा पुलिस अफ़सर ही इन जिन्ना और पाकिस्तान प्रेमियों की दवा हो सकता है । इस बात को समाज समझता है पर सरकारें नहीं । एक सख्त कार्रवाई बहुत सारे मर्ज की दवा साबित हो सकती है । नहीं , अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और श्रीनगर के आतंकवादियों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है । दोनों ही पाकिस्तान और जिन्ना में अपना सुकून ढूंढते हैं । इसी लिए कहता हूं , सरकार इन अतिवादियों से ज़्यादा कायर और ज़्यादा दोषी है ।

यह कौन लोग हैं जो कभी मनुष्यता प्रेमी और उदारमना अब्दुल कलाम के लिए नहीं , अत्याचारी औरंगजेब के लिए लड़ते हैं । गांधी को भूल , जिन्ना की फ़ोटो पर मातम और कोहराम रचते हैं । पहचानिए इन जहरीले लोगों को और इन का पूरी ताकत से विरोध कीजिए । इन में सिर्फ़ मुस्लिम ही नहीं हैं , बाकी हिप्पोक्रेट्स भी हैं , इन का इगो मसाज करने के लिए । 

अलीगढ़ हो या श्रीनगर जिन्ना प्रेमी तत्व दोनों ही जगह उपस्थित है । यह बात कुछ लोग क्यों नहीं समझना चाहते ? दोनों ही लोग एक ही हैं । कोई श्रीनगर में बंदूक उठा लेता है , कोई पत्थर उठा लेता है तो कोई अलीगढ़ में जिन्ना की फ़ोटो । अलगाववादी दोनों ही हैं । जिन्ना कहता ही था , खुल कर कहता था , डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया । जिन्ना का जहर न होता तो कश्मीरी पंडित बेघर न हुए होते । खालिस्तान की आग न लगी होती । याद दिलाता चलूं कि पाकिस्तान का बीज अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में ही बोया गया । जिन्ना जिस का वृक्ष बना और पाकिस्तान का फल उगा । आज तक यह जिन्ना प्रेम , पाकिस्तान प्रेम खत्म नहीं हुआ । बेशर्म लोग जिन्ना की फ़ोटो लगाने के लिए कटने मरने को तैयार क्यों हैं ? यह कौन लोग हैं ? वही लोग , और वही प्रवृत्ति जिन्हों ने कश्मीरी पंडितों को विस्थापित किया । स्वर्ग जैसे कश्मीर को जहन्नुम बना दिया । वही लोग जिन्हों ने बंटवारे के समय लाखों हिंदू , मुसलमानों का कत्ल किया । जिन्ना की फ़ोटो उठाए वही लोग घूम रहे हैं । और उप राष्ट्रपति का पद भोगने के बाद भी बता रहे हैं कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं । होगा आप की नज़र में यह जिन्ना की फ़ोटो , गौण मुद्दा । लेकिन मेरी नज़र में यह महत्वपूर्ण मुद्दा है । इस लिए कि डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया का जिन्ना का संदेश अभी भी लोग जाने-अनजाने अमल में लिए हुए हैं । डिवाइड इंडिया , डिस्ट्राय इंडिया का खेल अभी भी जारी है । 

मुल्क और मज़हब में जब मज़हब भारी हो जाता है तो एक जिन्ना खड़ा हो जाता है और पाकिस्तान पैदा हो जाता है । दुर्भाग्य से अब कई सारे जिन्ना खड़े हो गए हैं । बताइए कि कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर मुंह खोलने में जिन विद्वानों की घिघ्घी बंध जाती है , जिन्ना की पैरोकारी में उन का खून उबाल खाने लगता है । वह खून बहाने में सब से आगे दीखते हैं । जाने किस कुमाता की कोख से जन्मे हैं यह हिजड़े कि सोच कर भी घिन आती है । यह जो लोग बार-बार हम इंडियन बाई च्वाइस हैं , कह कर अपनी पीठ ठोंकते हैं , इन को भी कंडम किया जाना चाहिए । यह इंडियन बाई च्वाइस हैं , कहना भी अपने आप में कमीनगी है और कि अपने आप को हरामी घोषित करना है । देश , मां और पिता किसी के लिए बाई च्वाइस कैसे हो सकते हैं भला ।