Thursday, 11 February 2016

जे एन यू में आतंक का कश्मीरी राग सुन कर हरगिज हैपी नहीं हैं




ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

वामपंथियों का यह देशद्रोही बवाल देख कर हम बिलकुल हैपी नहीं हैं 
जे एन यू में आतंक का यह कश्मीरी राग सुन कर हरगिज हैपी नहीं हैं 

कश्मीर देश का मुकुट है ज़न्नत है धरती की उसे ये तोड़ने की ज़िद में हैं 
कश्मीरी पंडित  कश्मीरी मुल्ला और  कश्मीरियत भी इन से हैपी नहीं हैं 

राष्ट्रीयता की मारी ढ़पोरशंखी दोगली सरकार भी हाथ पर हाथ धरे बैठी है 
निकम्मी सरकार की इस नपुंसकता भरी कायरता से भी हम हैपी नहीं हैं

लाखों सैनिक शहीद हो गए कश्मीर की सरहद पर  मासूमों की जान गई 
 जिस झेलम चिनाब में खून बहा वह नदियां रोती हैं यह नदियां हैपी नहीं हैं 
विदेशी फंडिंग के मारे हैं क्रांति का मुखौटा ओढ़ कर अमन के दुश्मन हैं 
इन को हर तरफ आग चाहिए देश में शांति हो यह सोच कर यह हैपी नहीं हैं

सेक्यूलरिज्म की चादर ओढ़ कर यह समाज बांटते रहते हैं देश तोड़ते हैं 
दलितों का दामन थाम कर पल-पल इन के जहर घोलने से हैपी नहीं हैं 

बुद्धिजीवी होने का स्वांग भर कर हिप्पोक्रेसी की हरदम हाइट तोड़ते हैं 
इन की चुनी हुई चुप्पियों चुने हुए विरोध से अब देश के लोग हैपी नहीं हैं 

संसद पर हमलावर अफजल को शहीद बता आज़ादी का नारा लगाते हैं
यह और ऐसी इन की नापाक हरकतों से आम शहरी भी कहीं हैपी नहीं है 

फेलोशिप की हड्डी पा कर कुत्तों की तरह चबाने वाले पत्रकार भी चुप हैं 
मिशनरियों से पैसा पा कर जहर उगलने वाले बंडलों से हम हैपी नहीं हैं

आत्म-मुग्धता अहंकार कुतर्क कुटिलता और दंभ में डूबे हुए यह लोग
सड़े हुए इन नासूरों से कोई हिस्सा कोई हलका कोई भूगोल हैपी नहीं हैं


 [ 11 फ़रवरी , 2016 ]

No comments:

Post a Comment