फ़ोटो : अनिल रिसाल सिंह |
ग़ज़ल
एक एक पैसा बचाते थे जिस में घर में वह गुल्लक नहीं रहा
तुम्हारी आंख में मुझे खींचने वाला अब वह चुंबक नहीं रहा
अब वह बेकली अकुलाहट वह लजाते हुए बांहों में आ जाना
मिलते ही चिपक जाने वाला कटहल का वह लासा नहीं रहा
तुम मुझे वैसे ही गुहराओ वैसे ही मिलने के लिए दौड़ आओ
तुम्हारी पुकार में ललक लय फुसफुसाने का गहना नहीं रहा
तुम्हारी देह की गायकी में मन का हुलस-हुलस लहक जाना
पियानो की तरह बजना फिर बांसुरी सा बज जाना नहीं रहा
वह तड़प वह कसमसाहट बाहों में आने की वह गुनगुनाहट
प्रेम की धार में बेसुध हो कर बेलौस बहना बहाना नहीं रहा
उजड़ गया है वह मधुबन वह नदी जिस में हम गाते नहाते
ठहर गया समय जैसे गोया कह रहा वह ज़माना नहीं रहा
लेकिन उस राह उस मधुमास से हम क्या कहें कैसे कहें
मेरा चांद डूब रहा है उस की चांदनी का सहारा नहीं रहा
जैसे कोहरे में डूब रही हो वह राह वह जंगल और वह वृक्ष
धड़कता था हमारा दिल जिस सबब वह फ़साना नहीं रहा
हमारी जान हमारी शान का क़िला आख़िर टूटा भी कैसे
हमारे प्यार का यह फ़साना यह तराना गाने वाला नहीं रहा
[ 27 फ़रवरी , 2016 ]
क्या बात है!
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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