Sunday 2 September 2018

आडवाणी के अपमान और उपेक्षा की दहकती चिता ।


आज दिल्ली में उप राष्ट्रपति वेकैया नायडू की पुस्तक विमोचन कार्यक्रम हुआ। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने विमोचन किया । आदत और रवायत के मुताबिक़ बहुत बढ़िया भाषण दिया । वेंकैया की तारीफ़ के पुल बांध दिए । इस पुल के नीचे से तारीफ़ की जाने कितनी नदियां बह गईं । इस मौक़े पर नीचे जनता में लालकृष्ण आडवाणी भी पहली पंक्ति में सिट डाऊन थे । लेकिन अपने संबोधन में मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी का नाम भी नहीं लिया । न उन की तरफ देखा । मंच पर पूर्व प्रधान मंत्री देवगौड़ा और मनमोहन सिंह समेत , लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन , अरुण जेटली और कांग्रेस के आनंद शर्मा भी सिट डाऊन थे । तो क्या आडवाणी को भी मंच पर एक कुर्सी नहीं दी जानी चाहिए थी । खैर , मोदी ने अपने संबोधन में मंच पर उपस्थित इन सभी का नाम लिया। नीचे बैठे अपने कैबिनेट के साथियों का ज़िक्र किया । लेकिन आडवाणी मुंह बाए बैठे रह गए , उन का नाम नहीं लिया । गनीमत रही कि वेंकैया ने अपने संबोधन ने उन्हें आदरणीय आडवाणी जी कह कर संबोधित किया । तो जैसे उन्हें सांस मिली ।

खैर , जब राष्ट्रपति पद से प्रणव मुखर्जी विदा हो रहे थे , तब भी उस समारोह में आडवाणी की उपस्थित के बावजूद उन्हों ने आडवाणी को घास नहीं डाली थी और बारंबार प्रणव मुखर्जी के यशगान गाते हुए बताते रहे कि कैसे प्रणव मुखर्जी ने उन्हें अपनी उंगली पकड़ा कर दिल्ली में चलना-रहना सिखाया । आडवाणी जैसे अनुपस्थित थे उन के जीवन से । उन के दिल्ली के जीवन से । उन के राजनीतिक जीवन से । जो भी कुछ थे बस प्रणव मुखर्जी ही थे । आडवाणी तो कुछ थे ही नहीं । आडवाणी होठ बंद कर यह सब वहां बैठ कर सुनते रहे और टी वी पर हम भी । मोदी द्वारा आडवाणी की उपेक्षा की ऐसी दैनंदिन घटनाएं अब आम हो चली हैं । भाजपा के नवनिर्मित कार्यालय के उदघाटन पर भी आडवाणी की उपेक्षा का वर्णन टी वी पर बिना किसी उदघोष के सुना गया । अटल जी की अंत्येष्टि पर भी जैसे आडवाणी भी अपमान और उपेक्षा की चिता पर लेटे देखे गए । जैसे एक साथ दो चिताएं दहक रही थीं । एक अटल जी के शव की चिता , दूसरे आडवाणी के अपमान और उपेक्षा की दहकती चिता ।

राष्ट्रपति चुनाव के अधिसूचना के ठीक पहले सी बी आई द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले को फिर से खोलने और सुनवाई की अपील के बाद ही आडवाणी की जो यातना और अपमान कथा मोदी द्वारा निरंतर बांची जा रही है वह अबूझ , अकल्पनीय और अवर्णनीय है । मोदी जो अपने गुरु , अपने नेता और मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी के साथ जिस भी कारण से यह सब कर रहे हैं , यह वह ही जानें । लेकिन लालकृष्ण आडवाणी किस मिट्टी के बने हैं , किस हाड़-मांस के बने हैं , यह समझ पाना भी कठिन और अबूझ है । स्वाभिमान और आत्म-सम्मान भी कोई चीज़ होती है , यह वह भूल गए हैं । जाने किस उम्मीद और प्रत्याशा में लालकृष्ण आडवाणी अपमान और उपेक्षा का यह गरल , यह विष निरंतर पिए जा रहे हैं । चुपचाप । कायदे से अब उन्हें सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लेना चाहिए । कम से कम एहसान फ़रामोश नरेंद्र मोदी के सामने या उस कार्यक्रम में जाने से जहां नरेंद्र मोदी उपस्थित हों , हर संभव बचना चाहिए ।

क्यों कि इस तरह के सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अपमान और उपेक्षा उन की परछाई बन कर उन के साथ उपस्थित है । इस परछाई के जिन्न से उन्हें मुक्ति पा लेनी चाहिए । या अगर सत्ता के गलियारे में घूमने और उपस्थित रहने की बीमारी इतनी ही प्रबल हो चली है तो अब से सही मोदी के आगे समर्पण कर उन की गोद में बैठ जाना चाहिए । ताकि सार्वजनिक रुप से नित नए अपमान से छुट्टी पा सकें क्रांति और बगावत के मशाल की वह पुरानी लपट बुझा लेनी चाहिए । जो कभी सुलगाई थी । क्यों कि सत्ता के गुंबद के नीचे रहने , सत्ता के गलियारे में घूमने की पहली और आख़िरी शर्त ही होती है बिना शर्त समर्पण । बिना किसी चू-चपण के । बगावत के बारूद की गंध बर्दाश्त नहीं होती किसी भी सत्ताधारी या सत्ता प्रतिष्ठान को । भले ही वह अपने बेटे की ही सत्ता हो , अपने शिष्य की ही सत्ता हो । क्यों कि सत्ता तो सत्ता ही होती है । कैसी भी सत्ता हो । किसी भी की हो । और सत्ता निरंकुश होती है , निर्मम भी । फ़िराक ने लिखा ही है :

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी 
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी ।

फिर यह तो राजनीति है । सत्ता की राजनीति । जहां बेटा , बाप का नहीं होता । पत्नी , पति की नहीं होती । अनेक किस्से हैं । जो फिर कभी ।


3 comments:

  1. बलराम मिश्रा2 September 2018 at 11:34

    प्रधानमंत्री बनने के बाद 2014 में राम जेठमलानी जी के जन्मदिन के कार्यक्रम के आयोजन में नरेन्द्र मोदी जी ने लाल कृष्ण आडवाणी जी को पांव छू कर प्रणाम किया, पर आडवाणी जी ने नरेंद्र मोदी जी की तरफ देखा तक नहीं। वह दिन है और आज का दिन है, तब से आडवाणी जी नरेंद्र मोदी जी की तरफ देखते रहते हैं पर मोदी जी की तरफ से कोई भाव नहीं मिलता है। अगर आप झुकने वाले के सामने अकड़ दिखायेंगे, और वो भी जब झुकने वाला भारत की राजनीति में उस वक्त का सबसे ताकतवर नेता हो, आपके विरोध के बावजूद पार्टी का घोषित प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना हो, तो फिर आपकी हेकड़ी निकलनी तो तय ही है। इस में आश्चर्य सिर्फ नरेंद्र मोदी के विरोधीयों को ही हो सकता है, वह भी मोदी के प्रति उनके मन में घर कर गये पूर्वाग्रह रूपी अवसाद के कारण, न कि लालकृष्ण आडवाणी जी के प्रति किसी आदर या सहानुभूति के कारण।

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  2. आडवाणीजी का या किसी कभी व्यक्ति का अपमान जब तक वह न चाहे कोई नहीं कर सकता, अटल जी की अंत्येष्टि के अवसर पर उन्हें सुना था, वह अपनी किताब के विमोचन पर अटल जी के न आने की शिकायत कर रहे थे, जो व्यक्ति अब नहीं रहा उससे की गयी अपेक्षा का अब क्या अर्थ रह जाता है, आडवानी जी के हृदय में पीड़ा है, उन्हें जिस सम्मान की आशा थी वह न पाने की, फिर भी मोदीजी का व्यवहार सही नहीं ठहराया जा सकता.

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  3. किस्मत ने मोदीजी को एक ऐतिहासिक मौक़ा दिया था कि वो न केवल एक नए भारत नींव रखे बल्कि खुद इसको बनाने में अपना योगदान दें | लेकिन इस मौके को लगभग गंवाते हुए मोदीजी ने ऐसा आचरण किया है कि वो २ बार प्रधानमंत्री जरूर बन पाएंगे लेकिन इतिहास में अपने स्थान से च्युत रहेंगे |
    ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि उनमें अनुशासन की कमी है, लेकिन २०१४ के चुनाव में एक तरफ लोकलुभावन वायदे किये और दूसरा ये भी दिखाया कि वो नैतिक रूप से ईमानदार हैं| इन दोनों विरोधाभासी बातों का सच तो सामने आना ही था, व्यक्तिगत ईमानदारी पर तो न कोई मनमोहन सिंह पर उंगली उठा सका तो ये अकेला मायने नहीं रखता है | अगर मोदी केवल स्वच्छ भारत और गंगा की सफाई पर ही थोड़ा भी काम कर जाते तो देश उनको सर आँखों पर उठा लेता | ये दोनों भावनात्मक के अलावा तकनीकि समस्याएं हैं, इनका हल मीडिया विज्ञापन और दिखावे से नहीं हो सकता | घरों की दहलीज से निकलते ही कूड़े का जिस प्रकिया के जरिये निस्तारण करना है वो मेहनत मांगती है, गंगा की समस्या भी ऐसी ही है और स्वच्छ भारत अभियान से जुडी है, गंगा के किनारे बसे सभी शहरों से गंदे पानी की एक बूँद भी अगर गंगा में न गिरे उसके लिए वैज्ञानिक/तकनीकि एक्सपर्ट चाहिए न कि गंगा की आरती के हाई डेफिनिशन वीडियो |

    बचे खुचे अभियानों की तो बात ही छोड़ दें, नोटबंदी सबके सामने है, कॉर्पोरेट के हाथो बेबस सरकार लगता नहीं ५६ इंची सीने वाला चला रहा है | जो हाल पप्पू जोक्स का था वही हाथ भक्तों के साथ हो रहा है तो कुछ सालों में और बदलाव आएगा इसकी उम्मीद कम है | और मोदीजी का व्यक्तिगत आचरण कभी ऐसा नहीं रहा कि वो अनुकरणीय बने, दम्भ और अभिमान उनकी शारीरिक भाषा से ही झलकता है और उनके भाषण अब बेहद उबाऊ हो चले हैं |

    खैर, इस दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उम्मीद की जो आशा थी वो धीरे धीरे टूट रही है |

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