Friday 8 February 2013

ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां

[जनवाणी प्रकाशन , दिल्ली ने कुछ कहानीकारों की ग्यारह प्रतिनिधि कहानियों की एक श्रृंखला छापी है। इस श्रृंखला में एक संग्रह मेरा भी है।]


-मेरी पांच नई किताबें-


अब की पुस्तक मेले में एक साथ मेरी पांच नई किताबें होंगी।

१-यादों का मधुबन
[संस्मरण]
२-मीडिया तो अब काले धन की गोद में
[लेखों का संग्रह]
३-एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी
[राजनीतिक लेखों का संग्रह]
४-कुछ मुलाकातें, कुछ बातें
[ संगीत, सिनेमा, थिएटर और साहित्य से जुड़े लोगों के इंटरव्यू]
५- ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां
यह सभी किताबें जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं। दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में हा्ल नंबर १२ के स्टाल नंबर २५ और २६ पर आप को यह किताबें मिल सकती हैं।


सहजता का स्पेस


सुशील सिद्धार्थ

सहजता ही दयानंद पांडेय की कहानियों की शक्ति है। उन की कहानियों में व्यौरे बहुत मिलते हैं। ऐसा लगता है, जीवन को यथासंभव विस्तार में देखने की एक रचनात्मक जिद भी उन के कहानीकार का स्वभाव है। इस शक्ति और स्वभाव का परिचय देती उन की यह कहानियां इस संग्रह में पढ़ी जा सकती हैं। इन कहानियों में समकालीन समाज के कुछ ऐसे बिंब हैं जिनमें ‘अप्रत्याशित जीवन’ की अनेक छवियां झिलमिलाती हैं।‘स्त्री’ दयानंद पांडेय की कहानियों के मुख्य सरोकारों में से एक है। यह बात अलग है कि सुमि, मैत्रेयी,बडकी बबुआइन, छोटकी बबुआइन और बडकी दी जैसे चरित्र जीवन का अनुसरण करते हैं। किसी घोषित आंदोलन का नहीं। हो सकता है किसी पाठक-आलोचक को इन कहानियों और चरित्रों में बौद्धिक मारकाट या सैद्धांतिक संघर्ष ऊपरी सतह पर तैरता न दिखे, फिर भी शीर्षक लगा कर निष्कर्ष देने के स्थान पर ये रचनाएं जीवन को समस्त विचलनों के साथ सामने लाती हैं।

फेसबुक में फंसे चेहरे की बुनावट दिखने में बहुत साधारण है पर इस की जो मार है वह है बड़ी सांघातिक। जो खोखलापन हमारे समाज में व्याप रहा है, आदमी का जो अकेलापन सामने आ रहा है, जो हमारे सामाजिक सरोकार नष्ट हुए जा रहे हैं, एक सोशल नेटवर्किंग को कथ्य बना कर रामसिंगार भाई के बहाने जो इस की निर्मम पड़ताल दयानंद पांडेय ने की है वह भयावह तस्वीर पेश करती है। यह कहानी हमारे समय का एक निर्मम दस्तावेज भी कही जा सकती है। तो ‘सूर्यनाथ की मौत’ कहानी इसी दारुण सच का और बडी तसवीर पेश करती है। उपभोक्ता संस्कृति की जो मार हमारे जीवन पर पड़ रही है, समूचा बाज़ार कैसे तो किसी गोडसे में तब्दील हो कर किसी सांप की तरह मनुष्य और उस की इच्छाओं पर वज्राघात कर रहा है, इसके कई-कई दृश्य सूर्यनाथ की मौत में अपनी पूरी तल्ख़ी के साथ उपस्थित हैं। दरअसल सूर्यनाथ की मौत एक ऐसा क्रूर दर्पण है जिसे तोड़ने की जिद में ही सूर्यनाथ की शिनाख्त धूमिल होती जाती है। माल कल्चर का जो सर्वग्रासी रूप है वह सूर्यनाथ की मौत में बड़ी बेबाकी से बांचा जा सकता है।

हवाईपट्टी के हवा सिंह में भी यह गूंज आसानी से सुनी जा सकती है। मीडिया दयानंद पांडेय का हमेशा ही से प्रिय विषय रहा है। हवाईपट्टी के हवा सिंह में वह मीडिया के कार्पोरेट कल्चर की आग में झुलसने की बू साफ तौर पर देते दिखते हैं। कि कैसे तो रिपोर्टिंग सिर्फ भडुआगिरी बन कर रह गई है। इस कहानी में तमाम दृश्यों की तिरुपाई जिस तरह दयानंद पांडेय ने की है और उस में जो जगह-जगह गिरह लगाई है वह कहानी की ताकत को और बढ़ा देता है। मुख्यमंत्री, पायलट समेत समूचे प्रशासन की हिप्पोक्रेसी की आंच बांचती यह कहानी हमें कई कई नए पड़ावों से भी गुज़ारती है। हवाईपट्टी के हवा सिंह पढ़ते हुए दयानंद पांडेय की एक और कहानी मुजरिम चांद की याद आ जानी भी सहज-स्वाभाविक है। ‘मुजरिम चांद’ भी प्रशासन, पत्रकारिता और समाज की एक रोचक कहानी है। ‘हवाईपट्टी के हवा सिंह’ में मुख्यमंत्री हैं तो ‘मुजरिम चांद’ में राज्यपाल। किस तरह एक छोटी सी ‘त्रुटि’ के बाद पत्रकार राजीव का उत्पीड़न होता है और कैसे विशिष्ट के सामने सामान्य व्यक्ति उच्छिष्ट बन कर रह जाता है, इसे किस्सागोई के अंदाज में लेखक ने रेखांकित किया है। राज्यपाल और दिलीप कुमार के प्रसंग बेहद दिलचस्प हैं। पत्रकारिता के हुनर का सार्थक प्रयोग लेखक ने किया है। विवरण बहुत हैं, कई जगह बेवजह।

‘सुमि का स्पेस’ की सुमि का संघर्ष किसी भी मध्यवर्गीय परिवार की महत्वाकांक्षी लड़की का यथार्थ है। परिवार और समाज के बीच मित्र व शत्रु की पहचान करती सुमि अपना लक्ष्य तो प्राप्त करती ही है, दूसरी लड़कियों के लिए भी युक्तियों के रास्ते खोलती है। विवाह नामक संस्था की स्त्री जीवन में अनिवार्यता विषय पर बिना किसी वाचाल बहस के, सुमि ‘स्त्री अस्मिता’ का अर्थ बदल देती है। दयानंद पांडेय ने परिवेश की छोटी बड़ी प्रामाणिक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से रचना को विकसित किया है। सुमि के पापा शुक्ला जी का अंतर्द्वंद्व से भरा चरित्र यह बताता है कि लेखक की समझ सोलह आना दुरूस्त है। मैत्रेयी एक दूसरी तरह का स्त्री पक्ष है। ‘मैत्रोयी की मुश्किलें’ जैसी कहानी किसी को स्त्री विरोधी भी लग सकती है। मैत्रेयी का वर्जनाहीन यौनाचरण विचित्र लग सकता है, लेकिन है नहीं।

स्वच्छंद जीवन जीने की कामना और कुंठाओं से भरे पुरुष प्रधान समाज के बीच मैत्रेयी की मुश्किलें आकार लेती हैं। कई पुरुषों के साथ रह कर भी वह एक ईमानदार साहचर्य से वंचित है। रस, रहस्य और रौरव से भरी यह कहानी कहीं चौंकाती है....कहीं करुणा से भर देती है। अर्थात, ‘मैत्रेयी’ की यादें उस के साथ ऐसे चल रही थीं जैसे आकाश में बसे तारे,चांद और खुद आकाश भी साथ-साथ चलता है।....और क्या धरती भी साथ-साथ नहीं चलती?....हां धरती का भूगोल जरूर बदलता रहता है। बदलता तो आकाश का भी है पर पता नहीं पड़ता। जैसे मैत्रेयी का पता नहीं पड़ता।’ प्रेम और प्रवंचना के कठिन पाटों के बीच पिसती मैत्रेयी एक स्मरणीय चरित्र है। ‘मन्ना जल्दी आना’ भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान के त्रिकोण में छटपटाते जाने कितने हिंदुओं-मुसलमानों के दुखों का बयान है। अब्दुल मन्नान और उन के परिवार की कहानी में जाति, धर्म, सियासत के कई समकालीन धब्बे भी दिखते हैं। सहज विवेक से दयानंद पांडेय ने इस कहानी को ‘सांप्रदायिकता’ से बचा लिया है। लेखक ने एक पुरानी युक्ति के रूप में तोते का इस्तेमाल किया है, जो तोताचश्म जमाने को देखते हुए एक नया अर्थ भी दे सकता है।

‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ में घोड़े वाले बाबू गोधन सिंह और उन की दो पत्नियां अपनी-अपनी विसंगतियों में कैद हैं। ग्रामीण जीवन व्यवस्था में ध्वस्त होती कुलीनता, कम होती सवर्ण ठसक और कामनाओं के व्यग्र एकांत इस कहानी के मुख्य बिंदु हैं। संतान सुख से वंचित गोधन सिंह की पत्नी बड़की बबुआइन पहले ‘छोटकी बबुआइन’ लाती हैं, फिर ‘नियोग’ पद्धति से पहले स्वयं बाद में छोटकी को संतान सुख उपलब्ध कराती हैं। इन सब के साथ वह परंपरागत पुरुष दर्प है जो गोधन सिंह की तरह बजिद है, ‘बैलगाड़ी हो, घोड़ा हो, बीवी हो या कुछ और सही, लगाम अपने हाथ में होनी चाहिए।’ कुछ टूटती छूटती लगामों की पहचान लेखक ने पूरी ईमानदारी से की है। ‘मेड़ की दूब’ और संवाद में कठिन स्थितियों के बीच जीते संबंधों, खेतों और विचारों की चर्चा है। ‘बड़की दी का यक्षप्रश्न’ संग्रह की एक और महत्वपूर्ण कहानी है। भारतीय समाज में स्त्री के समेकित अस्तित्व का परीक्षण करती यह रचना विमर्श के इलाके में कुछ नए सूत्र उजागर करती है। बड़की दी का चरित्र कहीं-कहीं शरत के स्त्री पात्रों की याद दिलाता है। लंबे वैधव्य को जीती बड़की दी परिवार नामक संस्था की कई असफलताओं को पहचानने में मददगार है। नई पीढ़ी की ऊर्जा बड़की दी के साथ है। कहानी में एक पक्ष बनाती अन्नू की बहू कहती है, ‘आखि़र वह अपनी बेटी ही के पास तो गई हैं....रही बात जमीन जायदाद की तो वह भी अगर बेटी को लिख दिया तो क्या बुरा कर दिया?’ बड़की दी जैसे स्त्री के स्वतंत्र निर्णय की प्रतीक बन जाती है।

इन कहानियों की एक बड़ी विशेषता यह है कि यहां जीवन न तो सिद्धांतों से त्रस्त है न रचना के प्रचलित आलोचक रिझाऊ मुहावरों से आक्रांत। कहानियां अधिकांशतः चरित्र प्रधान हैं। यह कहना होगा कि दयानंद पांडेय अपने पात्रों के हत्यारे नहीं हैं,जैसा कि हिंदी के कुछ कहानीकारों के लिए प्रसिद्ध है। मैत्रेयी जैसा बहुपुरुषगामी स्त्री पात्र भी अवसर मिलते ही निष्कलुष लगने लगता है। कहानी में यह स्पेस दयानंद ने अपने सहज बोध से अन्वेषित किया है। यहां से पाठक मैत्रेयी को पाप और अपराध की पाखंडी अवधारणाओं से ऊपर उठ कर देखता है। दयानंद अपने पात्रों का आख्यान रचते हैं, उन का इस्तेमाल नहीं करते। विवरण उन का रचना स्वभाव है। किस्सागोई का एक नया संस्करण उन में मिल सकता है। भाषा प्रवाहपूर्ण है। यही कारण है कि विवरणप्रियता के चलते कुछ लंबी हो गई कहानियां भी रोचक बनी रहती हैं। ‘प्रतिनिधि कहानियां’ की कुछ कहानियां मुख्यधारा की कथात्मक सक्रियता के सम्मुख चुनौतियां भी प्रस्तुत करती हैं। यह और बात है कि हिंदी आलोचना सूचीबद्ध, तयशुदा एवं उपयोगी कहानीकारों में व्यस्त है।


[दयानंद पांडेय के कहानी संग्रह ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां संग्रह की भूमिका]

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