Saturday 9 February 2013

सब दुकानदारी में लग गए हैं : अमृतलाल नागर

दयानंद पांडेय 

नागर जी पिछले साल भर से सूरदास पर आधारित ‘खंजन-नयन’ उपन्यास लिखने में व्यस्त थे। जब उन से मेरी यह बातचीत हुई, उन दिनों भी वे ‘खंजन-नयन’ पर काम कर रहे थे। और उसी दिन मथुरा से वापस लखनऊ आए थे। बतौर नागर जी के ही, ‘यह पहला उपन्यास है जिसे मैं स्वयं अपने हाथ से लिख रहा हूं। जब कि अभी तक बोल-बोल कर किसी सहयोगी से लिखवाता रहा हूं। और भरसक इसे दो-एक महीने में ही पूरा कर लूंगा।’

नागर जी की एक खास आदत है कि जब किसी उपन्यास पर काम कर रहे होते हैं, लोगों से मिलते-जुलते नहीं, घर में भी कटे-कटे से रहते हैं। और खोए रहते हैं, उस अथाह रचना संसार में पूरी तन्मयता के साथ। और ऐसे में मैं पहुंचा था बातचीत करने। सूरदास से संबंधित किताबों और विचारों से घिरे नागर जी आज के हालातों और सवालों के बीच उलझे हुए थे। बोले, ‘भई दयानंद, मुझे मत छेड़ो नहीं तो लिंक टूट जाएगा तो गड़बड़ हो जाएगी। जानते हो कि नहीं मैं हज़ारों वर्ष पीछे डूब-उतरा हूं, और तुम हो कि मुझे आज के कड़वे माहौल में उतारना चाह रहे हो।

- तो क्या मैं यह कहूं कि आप अब आज के लायक नहीं रहे?
-नहीं ऐसा तो कतई नहीं।

-- तो फिर ?
-अच्छा भई, इंटरव्यू तो नहीं दे सकता- हां चलो हलकी-फुलकी एक छोटी सी बातचीत कर ली जाए।

-- तो बातचीत आप ही शुरू करें।
-कहां से ?

- अब मैं क्या जानूं? वैसे आप...
-चलो भाई यही सही (और एक सामूहिक हंसी का ठहाका...।) दरअसल साहित्य केवल विचार के क्षेत्र में अपनी नवानुभूति से, इस काल से स्पर्श की हुई संवेदनाओं से कुछ विचार पाता है, वही देता है। साहित्यकार प्रायः संगठनकर्ता नहीं होता, अपवाद छोड़ कर । वस्तुतः वह विचारों का संगठन करता है।

- आखिर ज़रूरत क्या है?
-इस लिए कि तन की रोटी के साथ मन की रोटी की भी ज़रूरत है- भले वह काल के तमाशे में खो जाए। एक बात मैं अकसर कहा करता हूं कि दुनिया से साम्राज्यवाद हट गया।

- वो कैसे? क्या साम्राज्यवादी शक्तियां फन फैलाए खड़ी नहीं दिखतीं आप को?
-लेकिन मेरा मंतव्य सम्राटों के साम्राज्यवाद से था और यह साम्राज्यवाद जो दीख रहा है वह आर्थिक और धार्मिक साम्राज्यवाद है- यह भी हटने- हटाने की प्रक्रिया में है। लेकिन यह जान लो कि एक साम्राज्यवाद ऐसा भी है कि जो कभी नहीं बदलेगा-हटेगा, और वह है विचारों का साम्राज्यवाद।

- लेकिन आप के देश में इस समय तो कहीं कोई वैचारिक क्रांति धुआं तो नहीं दे रही?
-हां, यह सच है कि आज कोई भी पार्टी या विचार नहीं दिखाई दे रहा जो सर्वव्यापी बन जाय। विचार का ऐसा कोई सशक्त माध्यम नहीं। फिर भी निश्चित ही विचार ही हमें आगे विकास की ओर बढ़ाएगा।

- लेकिन कब?
-भई, ज्योतिष तो हूं नहीं- फिर भी संघर्ष से। राजनीति तो इस समय इतनी भ्रष्ट हो गई है कि समाज को गति देने से रही। इस लिए जब तक जनमानस को आंदोलित नहीं किया जाता तब तक बदलाव की उम्मीद करना ख्याली पुलाव पकाना होगा। मैं यह मानता हूं कि चेतना परिस्थितियों के साथ उठती भी है और उठाती भी है।

- तो क्या आप यह भी मानते हैं कि स्थितियों के बदलाव में राजनीति की कोई भूमिका नहीं होगी ?
-हां, मैं इस बात को बगैर लाग लपेट के और बड़ी गंभीरता से मानता हूं, जब कि ऐसा सोचना गलत है।

- तो फिर आप गलत क्यों सोचने लगे? आखिर कौन सी मजबूरी आ पड़ी?
-क्यों कि आज की राजनीति ही गलत हो गई है। वैसे बगैर राजनीति के किसी प्रकार के बदलाव की बात करना सिद्धांततः तो गलत जान पड़ता है लेकिन आज के दौर में व्यावहारिक स्तर पर यह बात कि स्थितियों के बदलाव में राजनीति की कोई भूमिका नहीं होगी बिलकुल सत्य जान पड़ती है। दरअसल आज की और पूर्वार्द्ध की राजनीति में भारी अंतर है। पहले की राजनीति में उद्देश्य होता था। आर्थिक, राजनीतिक समानता की परिकल्पना होती थी। और आज की राजनीति पेशा है- पेशा ! पेशा बना दी गई है। स्थिति यह हो गई है कि एक आदमी दो रुपए ले कर पीली टोपी लगाए आज किसी जुलूस में है तो कल पांच रुपए ले कर सफ़ेद टोपी लगाए किसी और के जुलूस में तो परसों हरी टोपी लगाए किसी अन्य जुलूस में। और फिर तो भाव बढ़ता गया। और उस आदमी ने अपनी दुकान लगा ली।

- तो हम इसे एक तरह के पागलपन की संज्ञा क्यों न दे दें?
-चलो मैं भी देता हूं। लेकिन यह जो पागलपन ज़ोर-शोर से बढ़ रहा है- क्या समझते हैं आप कि यह पागलपन हमेशा बना रहेगा ।

-नहीं। कभी न कभी तो खत्म होगा ही।
-हां, मैं भी ज्योतिषी तो नहीं लेकिन दावे के साथ कहता हूं कि कमोवेश एक दशक के भीतर-भीतर यह पागलपन का निमोनिया निश्चित ही उतर जाएगा।

- व्यवस्था भी बदलेगी?
-हां।

- कैसी होगी?
-जनवादी ही होगी- क्यों कि अब बहुजन हिताय का जमाना लद रहा है। और सर्वजन सुखाय का जमाना आ रहा है।

- पिछले ५-७ महीनों की सामाजिक उपलब्धि ?
-पब्लिसिटी के दो तमाशे एक तो बलात्कार, दूसरे महंगाई। अब देखो, बलात्कार पहले से ही हो रहे हैं। लेकिन इधर स्वार्थी राजनीतिज्ञों की शह पर सारे अखबार बलात्कारों से छा गए। बताओ भला अखबार बलात्कार कहां रोक सकते हैं? लेकिन अब अखबारों से तो यही लगता है कि बलात्कार आ कर चला गया। लेकिन क्या अब बलात्कार नहीं हो रहे? और अब छाई है महंगाई। मैंने तो अपनी पत्नी से कह दिया है कि सब्जी अब हफ़्ते में दो जून ही बनाया करो। दरअसल स्थिति अब यह हो गई है कि औसत आमदनी वाला आदमी अब जी नहीं सकता। ऐसा लगता है कि समस्याएं कभी मिटती नहीं।

- या कि मिटाई नहीं जाती?
-हां क्यों कि फ़ायदेमंद हैं। अब तो मोक्ष सिर्फ़ तस्करों का है। शासन नाम की अब कोई चीज़ नहीं रही। अब तो बांकों का- सा राज्य हो गया है।

- लेकिन यह सारा कुछ किस का परिणाम है?
-ढोंग का और किस का? शुरू से ले कर आखिर तक ढोंग। जो नेता जनता की दुहाई देते फिरते हैं वो जनता उन से कहां जुड़ी है? दरअसल आज की राजनीति नेताओं के बीच चक्की पिस रही है, यही ढोंग है।
आज समस्याएं भी गांव-शहर दोनों की एक हैं। क्यों कि शहरी भी अबौद्धिक हैं। प्रोफेसर्स हैं, माफ करना कितना पढ़ते-पढ़ाते हैं? क्या करते हैं सिवाय स्कूलों में दमघोंटू राजनीति बिखेरने के। वकील हैं- वे वकालत नहीं दलाली करते हैं। डाक्टर भी दुकानदारी में लग गए हैं। साहित्यकार-पत्रकार-? कौन ऐसा है कि उन्हें बौद्धिक कहा जाए। यह सब ढोंग करते हैं। हमें इस ढोंग से लड़ना होगा। जो कि धर्म, अर्थ, राजनीति सब पर जबरिया लद गया है।

[1979  में लिया गया इंटरव्यू]

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