Friday 27 January 2012

हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे

दयानंद पांडेय 



लगता है नर्मदा किनारे प्रभाष जोशी की देह नहीं जली है, मैं ही जल गया हूं। प्रभाष जोशी तो मुझ में ज़िंदा हैं। मेरी कलम में उन के हाथ सांस ले रहे हैं। पूछता हूं अपने आप से कि क्या उन की सांस को कोई तोड़ भी पाएगा भला? कोई उत्तर नहीं मिलता। न हां में न ना में। अजीब बेचैनी है। अनिश्चितता बढ़ती जाती है। ख़ास कर तब और जब पाता हूं कि दिल्ली पहुंचने वाले नवधा पत्रकारों में से हर दूसरा या तीसरा राजीव शुक्ला बनना चाहता है। रजत शर्मा या प्रभु चावला बनना चाहता है। प्रभाष जोशी नहीं। ख़ैर, पुरानी यादें कुलबुलाती हैं। बताते हुए अच्छा लगता है कि 1983 में जनसत्ता की पहली टीम में पहले ही दिन से मैं भी था। थोड़े समय ही रहा, पर यादें ढेरों हैं।

अख़बार छपने के शुरुआती दिनों की बात है। जोशी जी जनरल डेस्क पर बैठे कोई ख़बर लिख रहे थे। उन की आदत सी थी कि जब कोई ख़ास घटना घटती थी तो वह टहलते हुए जनरल डेस्क पर आ जाते थे और ‘हेलो चीफ सब!’ कह कर सामने की एक कुर्सी खींच कर किसी सब एडीटर की तरह बैठ जाते थे। संबंधित ख़बर से जुड़े तार मांगते और ख़बर लिखने लगते। लिख कर शिफ्ट इंचार्ज को ख़बर देते हुए कहते, ‘जैसे चाहिए इस का इस्तेमाल करिए।’ हां, तब वह अपने संबोधन में ‘हेलो चीफ सब’ कहते ज़रूर थे पर तब तक जनसत्ता में सिर्फ़ एक ही चीफ़ सब एडीटर थे मंगलेश डबराल। और वह रविवारीय देखते थे, शिफ़्ट नहीं। जोशी जी की आदत थी कि जब वह कोई ख़बर लिख रहे होते या कुछ भी लिख रहे होते तो डिस्टरवेंस पसंद नहीं करते थे। लेकिन तभी एक फ़ोन आया। मनमोहन तल्ख़ ने रिसीव किया। और जोशी जी से बताया कि, ‘मोहसिना किदवई का फ़ोन है।’

‘यह कौन हैं?’ जोशी जी ने बिदक कर पूछा।

‘यू.पी. में बाराबंकी से एम.पी. हैं।’ मनमोहन तल्ख़ ने अपनी आदत और रवायत के मुताबिक़ जोड़ा, ‘बड़ी खूबसूरत महिला हैं।’

‘तो?’ जोशी जी और बिदके। बोले, ‘कह दीजिए बाद में फ़ोन करें।’

लेकिन पंद्रह मिनट में जब कोई तीन बार मोहसिना किदवई ने फ़ोन किया तो जोशी जी को फ़ोन पर आना पड़ा। मोहसिना किदवई के खि़लाफ जनसत्ता में बाराबंकी डेटलाइन से एक ख़बर छपी थी। उसी के बारे में वह जोशी जी से बात कर रही थीं। वह उधर से जाने क्या कह रही थीं, जो इधर सुनाई नहीं दे रहा था। पर इधर से जोशी जी जो कह रहे थे वह तो सुनाई दे रहा था। जो सभी उपस्थित लोग सुन रहे थे। जाहिर है मोहसिना किदवई उधर से अपने खि़लाफ ख़बर लिखने वाले रिपोर्टर की ऐसी तैसी करती हुई उसे हटाने की तजवीज दे रही थीं। पर इधर से जोशी जी अपनी तल्ख़ आवाज़ में उन्हें बता रहे थे कि, ‘रिपोर्टर जैसा भी है उसे न आप के कहने पर रखा गया है, न आप के कहने से हटाया जाएगा। रही बात आप के प्रतिवाद की तो उसे लिख कर भेज दीजिए, ठीक लगा तो वह भी छाप दिया जाएगा।’ उधर से मोहसिना किदवई ने फिर कुछ कहा तो जोशी जी ने पूरी ताकत से उन से कहा कि, ‘जनादेश की बात तो हमें आप समझाइए नहीं। आप पांच साल में एक बार जनादेश लेती हैं तो हम रोज जनादेश लेते हैं। और लोग पैसे खर्च कर, अख़बार ख़रीदते हैं और जनादेश देते हैं। बाक़ी जो करना हो आप कर सकती हैं, स्वतंत्र हैं।’ कह कर उन्हों ने फ़ोन रख दिया।

जनता द्वारा अख़बारों को दिए गए इस जनादेश की ताकत का इस तरह बखान प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। अब विज्ञापन को ख़बर बता कर, पैसे ले कर ख़बर छापने वाले संपादक किस बूते पर और किस मुंह से इस ताकत का बखान कर सकते हैं?

दरअसल जोशी जी ने कई असंभव चीज़ों को संभव बनाया। भारतीय पत्रकारिता में हिंदी को उन्हों ने जो मान दिलाया वह अद्वितीय है। इस के लिए उन्हों ने बड़ी तपस्या की। विनोबा और जे.पी. सरीखों के साथ काम कर चुके प्रभाष जोशी में धैर्य और उस का संतुलन ज़बरदस्त था। कई बार वह अपना गुस्सा भी बहुत धीमे से व्यक्त करते थे। कई बार संकेतों में। और बात असर कर जाती थी। जनसत्ता के लिए जब मेरा इंटरव्यू हुआ तो इंटरव्यू लेने वालों में जोशी जी के साथ इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक एम.वी. देसाई और तत्कालीन संपादक वी.जी. वर्गीज तथा एक रिटायर्ड आई.पी.एस. अफसर भी थे। अपने लेखों आदि की छपी कतरनों को एक बड़े ब्रीफकेस में भर कर मैं पहुंचा था। अंदर जाते ही ब्रीफकेस अपने आप खुल गया। रविवार, दिनमान, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं वहां फैल कर बिखर गईं। जोशी जी यह देख कर मुसकुराए। बोले, ‘समझ गया कि आप हर जगह छपे हैं। अब इस सब को बटोर लीजिए।’ मैं ने कहा, ‘देख तो लीजिए।’ वह संक्षिप्त सा बोले, ‘देख लिया। अब रख लीजिए।’ बातचीत शुरू हुई। वर्गीज साहब को जब पता चला कि मैं गोरखपुर का रहने वाला हूं तो उन्हों ने गंडक नहर प्रोजेक्ट के बारे में पूछा। मुझे इस बारे में बिलकुल जानकारी नहीं थी। पर चूंकि सवाल था तो जवाब देना ही था। मैं ने पूरी ढिठाई से कहा, ‘जैसा कि सरकारी योजनाओं के साथ होता है, यह गंडक नहर परियोजना भी वैसी ही है।’

वर्गीज साहब ने टोका, ‘फिर भी?’

मैं ने अपनी ढिठाई जारी रखी और कहा कि, ‘सारी योजना काग़ज़ी है। फर्जी है।’ वर्गीज साहब ने फिर धीरे से पूछा, ‘पर प्रोजेक्ट में है क्या?’ मैं ने अपनी ढिठाई में थोड़ा कानफिडेंस और मिलाया और पूरी दृढ़ता से बोला, ‘कहा न पूरी परियोजना काग़ज़ी है और फर्जी भी।’

बाद में बनवारी जी के हस्तक्षेप से मुझे जनसत्ता में नौकरी मिल गई। बहुत बाद में एक बार एक ख़बर के सिलसिले में डा. लक्ष्मीमल्ल सिंधवी से बात करने जाना था तो जोशी जी ने सख़्त हिदायत दी कि, ‘बातचीत में बहकिएगा नहीं। और कि जिस बारे में जानकारी नहीं हो, उस बारे में उड़िएगा नहीं।’

‘मैं समझा नहीं।’ कह कर मैं अनमना हुआ तो जोशी जी बोले, ‘आप को अपना इंटरव्यू याद है?’
‘जी क्यों?’

‘वर्गीज साहब ने आप से गंडक नहर प्रोजेक्ट के बारे में पूछा था तो आप ने उसे काग़ज़ी और फर्जी करार दिया था?’
‘जी वो तो है।’ मैं अचकचाया।

‘ख़ाक जानते हैं आप?’ जोशी जी बिदके। बोले, ‘आप जानते हैं कि वर्गीज साहब गंडक नहर प्रोजेक्ट पर लंबा काम कर चुके हैं। और आप पूरी बेशर्मी से उन से उसे काग़ज़ी और फर्जी बता रहे थे?’ वह बोले, ‘किसी पत्रकार में कानफिडेंस होना बहुत ज़रूरी है पर यह ओवर कानफिडेंस, फर्जी कानफिडेंस? बिलकुल नहीं चलेगा। अरे नहीं आता तो चुप रहिए। स्वीकार कर लीजिए कि नहीं मालूम। खामखा उड़ने की क्या ज़रूरत है?’

मुझे सचमुच बड़ी शर्मिंदगी हुई। बाद में एक दिन जा कर वर्गीज साहब से मिला और उन से अपनी ग़लती स्वीकार कर क्षमा मांगी। पर वह तो जैसे पहले ही से क्षमा किए हुए थे। बोले, ‘इट्स ओ.के.।’ वर्गीज साहब वैसे भी बहुत कम बोलने वाले आदमी हैं। एक बार इंडियन एक्सप्रेस में किसी बात पर कर्मचारी गरमाए हुए थे। वर्गीज साहब दफ्तर आने के लिए एक्सप्रेस बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। कर्मचारियों ने उन्हें रोका। धक्का-मुक्की में उन का चश्मा फर्श पर गिर कर टूट गया। पर वह चुपचाप रहे। किसी से कुछ बोले नहीं। चुपचाप चले गए।

वर्गीज साहब की एक बात और याद आ रही है। जनता पार्टी की सरकार के दिनों में गांधी शांति प्रतिष्ठान के काम काज को ले कर इंदिरा गांधी की सरकार ने जांच के लिए एक आयोग बनाया था। जांच आयोग के लपेटे में वर्गीज साहब भी थे। जांच आयोग ने जब रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो उस की सिफ़ारिशों को पी.टी.आई. ने चार पांच टेक में जारी किया। हिंदुस्तान टाइम्स से एक सज्जन ने उन्हें फ़ोन किया। आपरेटर ने फ़ोन ग़लती से जनसत्ता में दे दिया। उन को बताया गया कि फ़ोन है तो बड़ी विनम्रता से फ़ोन पर आ गए। उधर से जो भी कुछ कहा गया हो। पर इधर से वर्गीज साहब बोले, ‘आप इस ख़बर का क्या करें, मैं कैसे बता सकता हूं। हां, यह ज़रूर बता सकता हूं कि मैं अपने यहां पूरी ख़बर ले रहा हूं। आप को क्या करना है, यह आप तय कर लीजिए। हां, मैं अपना जवाब कल दे रहा हूं।’ जाते-जाते वह जनसत्ता डेस्क पर भी कह गए कि, ‘आयोग की सिफ़ारिश मेरे खि़लाफ है इस लिए इस ख़बर को अंडर प्ले नहीं किया जाना चाहिए। ख़बर जो प्लेसमेंट मांगती है, वही दिया जाना चाहिए।’

और सचमुच दूसरे दिन इंडियन एक्सप्रेस में पहले पेज़ पर तीन कालम में वह ख़बर छपी। पर उस के बाद अपने जवाब में वर्गीज साहब ने आयोग की सिफ़ारिशों की जो धज्जियां उड़ाईं तो फिर बात ही ख़त्म हो गई। बाद में वर्गीज साहब से पूछा कि, ‘आप चाहते तो पी.टी.आई. से ही ख़बर ड्राप करवा सकते थे। फिर कहीं नहीं छपती।’

‘अरे फिर तो वह ख़बर हो जाती। इस का मतलब होता कि फिर मैं कहीं गिल्टी हूं।’

प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर की दोस्ती के चर्चे आम हैं। पर एक समय अपनी टीम के चयन में दोनों ही आमने-सामने थे। 1983 में जब दिल्ली से जनसत्ता निकालने की तैयारी हो रही थी तभी नवभारत टाइम्स में राजेंद्र माथुर संपादक हो कर आए थे और लखनऊ नवभारत टाइम्स की तैयारी में थे। बहुतेरे लोग जनसत्ता और नवभारत टाइम्स को एक साथ साध रहे थे। ख़ास कर उत्तर प्रदेश के लोग। प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर में एक अघोषित सी होड़ थी कि कौन किस को ले जा रहा है।

जनसत्ता छपना शुरू होने के पहले की बात है। उन दिनों जोशी जी रोज शाम को एक मीटिंग करते थे। पूरी टीम को एक साथ बिठा कर। कैसा अख़बार निकाला जाए, और फिर किस ने क्या काम किया, काम काज पर यहां तक कि रिपोर्टरों की रिपोर्टों पर भी दूसरे अख़बारों से तुलनात्मक चर्चा होती। घंटों चलने वाली इस मीटिंग में सब की बातें भी जोशी जी बड़े धैर्य से सुनते। सब की एक-एक बात नोट करते। कई बार बहुतेरी मूर्खता भरी बातें भी एकाध लोग करते तो लोग ऊब जाते। पर जोशी जी का धैर्य नहीं चुकता। वह ऐसी तल्लीनता से लोगों को सुनते गोया कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी को सुन रहे हों। मीटिंग के बाद भी वह कभी किसी के कंधे पर हाथ रख कर बतियाते या पीछे से पीठ पर अचानक धौल जमा देते। कमर में हाथ डाल कर बतियाते चलने लगते। इस सब को ले कर उन के बारे में तब तरह-तरह की चर्चाएं होतीं।

ख़ैर, उन्हीं मीटिंग्स में एक दिन उन्हों ने बसंत गुप्त को पुलक भरी नज़रों से देखा और छाती फुला कर ऐलान किया कि बसंत गुप्त को उन्हों ने सब एडीटर भले नियुक्त किया है पर वह उन्हें ऐज स्पोर्ट एडीटर ट्राई कर रहे हैं। सभी लोग जानते हैं कि प्रभाष जोशी स्पोर्ट के आदमी थे। और वह बसंत गुप्त को लगभग स्पोर्ट एडीटर घोषित कर रहे थे। बसंत गुप्त सभी की नज़रों में यकायक चढ़ गए। लोग उन के आगे पीछे डोलने लगे।

प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर रोज मिलते थे। अपनी-अपनी टीम के बारे में भी चर्चा करते थे। कौन किधर टूट रहा है, कौन किधर जुड़ रहा है पर भी चर्चा होती। एक दिन राजेंद्र माथुर ने मजाक ही मजाक में जोशी जी से कह दिया कि बाक़ी की बात छोड़िए आप के एक खेल वाले को ही जो एक दो इनक्रीमेंट ज़्यादा दे दूं तो वह भी चला आएगा। राजेंद्र माथुर की इस बात को प्रभाष जोशी ने दिल पर ले लिया। अगले दिन की मीटिंग में वह बिफर पड़े। बसंत गुप्त का नाम तो उन्हों ने खुल कर नहीं लिया पर उन की जितनी मरम्मत और मजम्मत वह कर सकते थे कर गए। फिर अफसोस जताते हुए जोशी जी ने कहा कि जिस पर मैं ने सब से ज़्यादा विश्वास किया वह यहां सिर्फ़ इस लिए रुका हुआ है कि उस को दो इंक्रीमेंट वहां ज़्यादा नहीं मिल रहा है? यह तो मेरे विश्वास को तोड़ना हुआ। ऐसे कैसे काम चलेगा? ऐसे आदमी को हमारी टीम में रहने का क्या हक़ है? कुछ ऐसा ही कहा था जोशी जी ने।

समझने वाले समझ गए। पर ज़्यादातर लोग कयास लगाते रहे। कि यह कौन है। पर बसंत गुप्त का चेहरा धुआं पड़ गया। दूसरे दिन वह दफ़्तर आए तब भी चेहरा उतरा हुआ। परेशानी में तर बतर। बनारस में आज की नौकरी छोड़ कर आए थे। भैया जी बनारसी के सुपुत्र। बड़े भाई शिशिर गुप्त रविवार में थे। खु़द जनसत्ता दिल्ली में आ गए थे। सब कुछ ठीक चल रहा था। पर अब अचानक सब कुछ उलट-पुलट।

पत्रकारों की जाति नौकरी के मामले में वैसे भी बड़ी कायर होती है। कहां लोग आगे पीछे डोल रहे थे, अब कतराने लगे। अंततः बसंत गुप्त ने चुपचाप इस्तीफ़ा दे दिया। वह समझ गए थे कि यहां अब मुश्किल होगी। नवभारत टाइम्स लखनऊ चले गए। कम से कम मुझे यह अच्छा नहीं लगा। अरे अगर आप बसंत गुप्त में स्पोर्ट एडीटर की प्रतिभा देख रहे थे तो उन की इस नादानी पर उन्हें माफ भी कर सकते थे। और कि उन्हें प्यार से, दुलार से समझा कर रोक सकते थे। पर नहीं आप ने सरे आम एक प्रतिभा को दुत्कार दिया। ज़रा सी बात के लिए।

ख़ैर, फिर तो लोग जोशी जी से डरने भी लगे। पर जोशी जी ने अपनी सहजता बरकरार रखी। अख़बार छपने की तारीख़ कुछ तैयारियों के चलते लगातार बढ़ती जाती थी। 15 अगस्त, 2 अक्टूबर फिर नवंबर में छपने का समय आ ही गया। पर जब तक छपा नहीं अनिश्चितता बढ़ती जाती। मुझे याद है संपादकीय विभाग में एक गोरखा चपरासी था तब। जनसत्ता के साथियों पर बड़ी हिकारत के साथ कमेंट करता, ‘ये सब बैठ कर दो लाख रुपए महीने तनख्वाह खा रहे हैं कंपनी का!’ हालां कि जोशी जी किसी को तब बैठने ही कहां देते थे? तरह-तरह के प्रयोग करते। ख़बर लिखने से ले कर वर्तनी, एडिटिंग, पेज मेकिंग तक पर सब को माजते रहते। आठ कालम के बजाय पांच कालम से सोलह कालम तक का प्रयोग किया। अंततः पांच कालम पर आए फिर छः कालम पर फ़ाइनल किया। जनसत्ता की डमी जितनी छपी, उतने लंबे समय तक शायद ही तब तक या अब तक किसी अख़बार की डमी छपी होगी या छपेगी। लेकिन अख़बार जब छप कर बाक़ायदा बाज़ार में आया तो धूम मच गई। इंडियन एक्सप्रेेस की नेटवर्किंग और साख तो थी ही, जनसत्ता की अपनी धार भी कुछ कम नहीं थी। पहले दिन क्या बाद में भी कई दिन तक लगभग सभी साथी सुबह 9-10 बजे से रात दो बजे तक डटे रहते। ऐसा समर्पण, ऐसा उत्साह, ऐसा रोमांच शायद ही किसी अख़बार को नसीब हुआ हो! बताने में अच्छा लगता है कि अख़बार छपने के कुछ महीने पहले ही साठ हज़ार से अधिक की बुकिंग एजेंटों ने पहले ही से कर दी थी।

हिंदी पट्टी में ख़बरों के मामले में इतना कड़क अख़बार पहले कभी देखा नहीं गया था और क्षमा कीजिए कि अब तक नहीं देखा गया। नतीज़ा सामने था। गिनती के दिनों में ही जनसत्ता ढाई लाख की प्रसार संख्या को छू गया। कभी मीटिंग में उन दिनों जोशी जी बताते नहीं अघाते थे कि उस समय देश में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अख़बार था बांग्ला में छपने वाला आनंद बाज़ार पत्रिका। जिस की प्रसार संख्या तब सात लाख बताते थे जोशी जी। और कहते थे कि अगर बांग्ला में कोई अख़बार सात लाख बिक सकता है तो हिंदी में क्यों नहीं? पर क्या कीजिएगा कि गिनती के दिनों में ही जनसत्ता के ढाई लाख की प्रसार संख्या छूने पर वही प्रभाष जोशी विशेष संपादकीय लिख कर पाठकों से निहोरा कर रहे थे कि कृपया अब अख़बार ख़रीद कर नहीं, मांग कर पढ़ें। संपादकीय में तो नहीं पर मीटिंग में जोशी जी ने पूछने पर बताया कि गोयनका जी ने कहा है कि या तो दो मशीनें लगा कर अख़बार अब पांच लाख छापिए या फिर यहीं रोकिए। अख़बार की छपाई और व्यवसाय का यह गुणा भाग था।

दरअसल एक बात बताना यहां ज़रूरी जान पड़ती है। बात थोड़ी अप्रिय है पर है सच! रामनाथ गोयनका ने एक्सप्रेेस ग्रुप से हिंदी अख़बार जनसत्ता निकाला तो हिंदी की सेवा के लिए नहीं, अपनी सेवा के लिए निकाला था। मतलब एक व्यावसायिक गणित थी। उन दिनों दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस तीनों ही अख़बारों में ट्रेड यूनियनों का ज़बरदस्त दबदबा था। ज़बरदस्त दबाव भी। यूनियन की मांग अगर मैनेजमेंट न माने तो बात-बेबात काम बंद या हड़ताल हो जाती थी। कभी-कभी यह हड़ताल लंबी भी खिंच जाती थी। तो अगर टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल हो या हिंदुस्तान टाइम्स दोनों ही जगहों की हड़ताल का फ़ायदा इंडियन एक्सप्रेस को नहीं मिल पाता था। बढ़ी हुई कापियों का। क्यों कि एक्सप्रेस के पास हिंदी अख़बार नहीं था। ऐसे में अगर हिंदुस्तान में हड़ताल होती तो हाकरों की बाध्यता थी कि वह हिंदुस्तान टाइम्स की जगह टाइम्स आफ इंडिया ही लें तभी उन्हें नवभारत टाइम्स बढ़ा कर मिल पाता। यही हाल जब टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल होती तब होता। जो हाकर हिंदुस्तान टाइम्स की बढ़ी प्रतियां लेता उस को ही हिंदुस्तान हिंदी की बढ़ी प्रतियां मिलतीं। इंडियन एक्सप्रेस हर बार गच्चा खा जाता। हिंदी अख़बार न होने से। तो उसे जनसत्ता निकालना पड़ा। और बताता चलूं कि प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक नहीं हैं। हकीकत यह है कि जनसत्ता पचास के दशक में भी हिंदी में निकल चुका था। संभवतः दो तीन साल निकला था। एक विवाद के चलते रामनाथ गोयनका ने हिंदी जनसत्ता तब बंद कर दिया था। बहुत बाद में एक्सप्रेस गु्रप ने मुंबई से गुजराती में भी जनसत्ता नाम से अख़बार छापा। और मराठी में लोकसत्ता। हिंदी में जनसत्ता का पुनर्प्रकाशन हुआ था 1983 में। इस जनसत्ता की प्रतीक्षा में प्रभाष जोशी को इंडियन एक्सप्रेस में नौ साल गुज़ारना पड़ा था। दिल्ली, चंडीगढ़, अहमदाबाद में। तब के दिनों में जनसत्ता के आने की ख़बर दिल्ली में हर साल चलती। उन्हीं दिनों दिल्ली में स्टेट्समैन से हिंदी अख़बार नागरिक की भी चर्चा चलती। यहां तक कि चर्चा में एक बार नागरिक के संपादक के रूप में रघुवीर सहाय का नाम भी आ गया। उन की टीम के लोगों के नाम भी। खै़र, नागरिक नहीं निकला।

जनसत्ता निकल गया। जनसत्ता क्या निकला हिंदी की पृथ्वी में प्रभाष जोशी नाम का सूर्य भी निकला। कहूं कि जनसत्ता और उस के संपादक प्रभाष जोशी दोनों की चमक उन दिनों देखने लायक़ थी। एक दूसरे की चमक से दोनों ही आप्लावित। ग़ज़ब मंजर था वह भी। जो ही देखता जनसत्ता और संपादक के रूप में नाम देखता प्रभाष जोशी का तो वह बरबस पूछ बैठता, ‘यह आदमी था कहां अभी तक।’ हिंदी में यह नाम पहले भी था पर इतनी चमक और धमक इस के हिस्से नहीं थी तो लोग नहीं जान पाए थे, प्रभाष जोशी को। उन दिनों हिंदी में लोग जानते थे अक्षय कुमार जैन को, गोपाल प्रसाद व्यास, और अज्ञेय को, इलाचंद्र जोशी, मोहन राकेश और रामानंद दोषी को। और चमक रहे थे धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन, राजेंद्र अवस्थी। और हां, सुरेंद्र प्रताप सिंह। जिन्हें लोग एस.पी. कहते। सभी के सभी हिंदी पत्रिकाओं के संपादक। हिंदी दैनिक अख़बारों के संपादकों की जैसे तब कोई हैसियत ही नहीं थी! और सच कहूं तो हिंदी के दैनिक अख़बारों की दरिद्रता मंुह बाए हुए थी। प्रभाष जोशी नाम के सूर्य ने हिंदी की पृथ्वी में जो रोशनी, जो ऊष्मा और जो सुंदरता परोसी वह अविरल थी। अद्भुत थी।

अंगरेजी अख़बारों की जूठन और उतरन पर जी खा रही हिंदी पत्रकारिता को दरअसल प्रभाष जोशी के संपादन में निकलने वाले जनसत्ता ने अंगरेजी अख़बारों के जूठन और उतरन के सहारे जीने से इंकार कर दिया था। अंगरेजी अख़बारों के छिछले अनुवादों से पटी हिंदी अख़बारों की संपादकीय या संपादकीय पेज वाले लेखों में अंगरेजी अख़बारों के कचरे से छुट्टी दिला दी थी प्रभाष जोशी ने। नवभारत टाइम्स के प्रबंधन ने हिंदी में आई इस नई करवट की शिनाख्त कर ली थी और इंदौर के नई दुनिया से जहां से प्रभाष जोशी भी आए थे, वहीं से राजेंद्र माथुर को बुला लिया था। जो काम प्रभाष जोशी जनसत्ता में कर रहे थे, वही काम राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स में। हिंदुस्तान प्रबंधन तो बहुत बाद में नींद से जागा। और कि अब जगा हुआ है। खै़र, बात प्रभाष जोशी और उन के जनसत्ता की हो रही थी। राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी दोनों में कुछ बातें सामान्य थीं। पत्रकारिता की समझ, लिखने की ललक और हिंदी पत्रकारिता को बदलने की बेचैनी दोनों में ही थी। वहीं हिंदुस्तान के तत्कालीन संपादक विनोद मिश्र के लिए कहा जाता था कि वह जेब से पेन ही नहीं निकालते थे। तो कोई कहता कि वह पेन रखते ही नहीं थे। बहुत बाद में एक व्यंग्यकार ने चुटकी लेते हुए लिखा कि वह बहुत समझदार थे। लिखते तो नौकरी न चली जाती? बहरहाल यह भी एक विरल संयोग ही था कि तब दिल्ली में तीनों प्रमुख हिंदी अख़बारों जनसत्ता, नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान के संपादक मध्य प्रदेश से आते थे।

पर वो जो कहते हैं कि छोटे बच्चे की ग्रोथ ज़्यादा तेज़ी से होती है। तो जनसत्ता की ग्रोथ दिन दूनी रात चौगुनी थी। बिलकुल किसी बछड़े जैसा उछाह था। दूसरे, प्रभाष जोशी को जनसत्ता में जितनी आज़ादी थी, स्टाफ रखने से ले कर, ख़बर और कंटेंट तक की उतनी किसी को नहीं थी। जैसे कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री जब अपनी कैबिनेट बनाता है तो क्षेत्रीय, जातीय संतुलन का भी ध्यान रखते हुए अपने करीबियों का भी ध्यान रखता है। अपनी पसंद और नीति की भी। प्रभाष जोशी ने यही किया था। हर फील्ड के लोगों को वह ले आए थे। हर तरह के लोग। हिंदी में भले उन्नीस थे एक सहयोगी पर तमिल के जानकार थे। मराठी और उर्दू जानने वाले सहयोगी भी थे। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल से भी लोग थे। हां, लेकिन सच यह है कि दबदबा दो जगह के लोगों का ज़्यादा था। एक मध्य प्रदेश के लोगों का जो प्रभाष जोशी का गृह प्रदेश था। दूसरे, कानपुर का जहां प्रभाष जोशी की ससुराल थी। गावसकर की भी ससुराल कानपुर है। इनमें भी कनपुरिया फैक्टर ज़्यादा आक्रामक और प्रभावी था।

देवप्रिय अवस्थी जो सर्वाधिक पांच इनक्रीमेंट के साथ आए थे, इस लिए भी कि वह टाइम्स ट्रेनी वाले थे और अपनी सिक्योरिटी जब्त करवा कर आए थे। तिस पर उन की आक्रामकता इतनी कि तब के कार्यकारी समाचार संपादक गोपाल मिश्र उन के आगे पानी मांगते और नहीं पाते। वैसे भी वह सिफारिशी थे और कि हफ्ते का एक ड्यूटी चार्ट बनाने और स्ट्रिंगर टाइप संवाददाताओं से चिट्ठी पत्री में ही खेत हो जाते। सत्य प्रकाश त्रिपाठी, राजीव शुक्ला, शंभुनाथ शुक्ला भी कानपुर के थे। और मिल कर सब पर भारी हो जाते। हालां कि उन दिनों पूरी जनसत्ता टीम दो क्षत्रपों में अघोषित रूप से बंटी रहती। एक बनवारी, दूसरे हरिशंकर व्यास। दरअसल यही दोनों अख़बार के पहले दौर में प्रभाष जोशी के आंख और कान थे। यह लोग जैसा और जिस के बारे में जोशी जी को बताते वह वही जान पाते थे। दोनों सहायक संपादक थे। हालां कि एक तीसरे सहायक संपादक भी थे सतीश झा। फाइनेंसियल एक्सप्रेस से ट्रांसफर ले कर जनसत्ता में आए थे। मतलब अंगरेजी से हिंदी में। तिस पर एक अफसर के बेटे थे। और बहुत तीन पांच में नहीं रहते थे। मुझे याद है 23 नवंबर, 1983 को जब जनसत्ता का प्रवेशांक छप रहा था, आधी रात को 12 बजे के बाद सतीश झा बहुत भावुक हो कर सब को बता रहे थे कि मेरी पत्नी या बेटी याद नहीं आ रहा का जन्म दिन भी आज ही है और अपने अख़बार का भी।

बहरहाल जोशी जी की किचेन कैबिनेट में तब दो ही थे। बनवारी और हरिशंकर व्यास। दोनों एक दूसरे के उलट। दो ध्रुव। बनवारी सर्वोदयी थे तो हरिशंकर व्यास संघी। बनवारी खादी पहनने वाले तो हरिशंकर व्यास पालिएस्टर। दोनों की सोच समझ में तो फरक था ही, ज़मीनी हकीकत भी जुदा-जुदा। हरिशंकर व्यास को जोशी जी जनसत्ता में क्यों लाए थे, मैं आज तक नहीं समझ पाया। हिंदी का एक वाक्य छोड़िए कई शब्द भी वह ठीक से नहीं लिख पाते थे। अकसर उन का लिखा टाइपिस्ट ठीक करता था। सोच और समझ में भी वह पैदल ही थे। तिस पर देखते वह विदेशी मामले थे। ख़ैर, बनवारी पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे। फिर रघुवीर सहाय उन्हें दिनमान में ले आए। एक साथ दस इंक्रीमेंट दे कर। दिनमान के पुराने संपादकीय सहयोगियों में नाराजगी घर कर गई। बस बगावत भर नहीं हुई। बाक़ी सब हुआ। धीरे-धीरे बनवारी ने अपने काम और व्यवहार से सब को अपना बना लिया। लेकिन जब दिनमान से रघुवीर सहाय के जाने और कन्हैयालाल नंदन के आने की ख़बर चली तो बनवारी ने रघुवीर सहाय को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। सहाय जी ने उन्हें समझाया भी कि, ‘मैं कहीं नहीं जा रहा।’ पर बनवारी नहीं माने। बोले, ‘मैं मुगालते में नहीं जीता।’ और जोड़ा कि, ‘आप जा रहे हैं। अच्छा है कि मेरा इस्तीफ़ा मंजूर कर के जाएं। क्यों कि जो संपादक आ रहे हैं, उन्हें मैं संपादक नहीं मानता, उन के साथ काम करना मेरे लिए नामुमकिन है।’ और इस्तीफ़ा दे कर चले गए। हालां कि थोड़ा समय लगा और रघुवीर सहाय को दिनमान से नवभारत टाइम्स ट्रांसफर कर नंदन जी को दिनमान का संपादक बना दिया गया। उन दिनों नंदन जी को 10, दरियागंज का संपादक कहा जाता था। क्यों कि इसी पते से दिनमान, सारिका, पराग छपती थी। और वह इन तीनों पत्रिकाओं के एक साथ संपादक थे। यहीं से छपने वाली खेल भारती और वामा में भी उन का पूरा हस्तक्षेप था। अब अलग बात है कि बाद में नंदन जी को भी प्रबंधन ने रघुवीर सहाय की राह पर लगा कर नवभारत टाइम्स भेज दिया था। उन के मूल पद असिस्टेंट एडीटर पद पर। सहाय जी और नंदन जी दोनों ही का मूल पद असिस्टेंट एडीटर का ही था। एडीटर का काम देखते थे। तो जो आदमी 10, दरियागंज का संपादक कहा जाता था और पांच-पांच पत्रिकाओं का कामकाज देखता था, उसे नवभारत टाइम्स के रविवारीय में सिर्फ़ और सिर्फ़ पुस्तक समीक्षा देखने का काम दिया गया। बैठने की व्यवस्था भी ठीक नहीं। और धर्मयुग में कभी अपने अप्रैंटिश रहे सुरेंद्र प्रताप सिंह को रिपोर्ट करना होता था। इस के पहले रघुवीर सहाय के साथ भी यही हुआ था। वह भी पुस्तक समीक्षा देखते थे और तब के साक्षर संपादक आनंद जैन को रिपोर्ट करते थे। ख़ैर, सहाय जी के जाने के बाद नंदन जी आ गए पर दिनमान की प्रिंट लाइन में बनवारी का नाम जाता रहा। अब बनवारी ने टाइम्स प्रबंधन को नोटिस दी कि जब वह इस्तीफ़ा दे चुके हैं तो उन का नाम प्रिंट लाइन पर क्यों जा रहा है? नंदन जी ने सहयोगियों के मार्फ़त उन्हें समझाने की कोशिश की। पर वह नहीं माने। फिर उन का इस्तीफ़ा मंजूर हुआ, प्रिंट लाइन से नाम हटा। बनवारी कुछ दिन बेरोजगार रहे। फिर गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़ गए। वहीं प्रभाष जोशी से भेंट हुई। जनसत्ता की जब बात शुरू हुई तो जोशी जी बनवारी को भी ले आए। बनवारी ने कामधाम भी ठीक से संभाला। और दिलचस्प यह कि एक जमाने में दिनमान में बनवारी का विरोध करने वाले लोगों में से कई लोग अब जनसत्ता में उन्हीं से नौकरी मांग रहे थे। बल्कि कतार में थे। पर जोशी जी के बनाए एक बैरियर में तब लोग फंस गए। जोशी जी का मानना था कि जनसत्ता में युवा ही लिए जाएंगे। पैंतीस साल से ऊपर के लोग हरगिज़ नहीं। हालां कि तीन चार लोग अपवाद के तौर पर रखे भी गए। यथा मंगलेश डबराल, राम बहादुर राय, मनमोहन तल्ख़।

जोशी जी की समझ यह थी कि युवा लोगों को अपने अनुरूप ढालने में आसानी होती है। ज़्यादा अनुभवी और पुराने लोग बात-बात पर यह तो ऐसे होता है, हम तो ऐसे ही करेंगे का खटराग होता है। लेकिन एकदम अनुभवहीन लोगों से भी अख़बार नहीं निकल सकता था। सो बाइस-पचीस से तीस-पैंतीस साल के लोगों को उन्हों ने रखा। अकसर अपनी यह मंशा वह मीटिंग में भी बताते रहते। और अंततः बाद के दिनों में हुआ भी यही कि जो कोई सहयोगी जोशी जी की सोच से ज़रा भी इधर-उधर होता, उन के कोप का शिकार हो जाता। इस फेर में कई सारे प्रिय उन की अप्रिय की सूची में जाते रहे। हालां कि अब तो कमोवेश हर जगह का प्रबंधन अपने मातहतों को रोबोट में ही तब्दील कर देता है। और जो भी कोई रोबोट से आदमी बनने की कोशिश करता है, अपनी हैसियत, अपना अस्तित्व हेरने की कोशिश करता है, प्रबंधन उस का अस्तित्व, उस की हैसियत को डस लेता है, सिस्टम से बाहर कर पैदल कर देता है। अब यह तथ्य अपनी पूरी प्रखरता में है, गोया दस्तूर बन गया है। पर तब के दिनों में यह अजीबोगरीब लगता था। खास कर प्रभाष जोशी के अर्थ में। वह प्रभाष जोशी जो सर्वोदयी था, जो कभी जे.पी. के साथ चंबल के डाकुओं का आत्मसमर्पण जैसे बड़े काम में लगा था। और फिर वह प्रभाष जोशी जो इमरजेंसी के दिनों में जे.पी. की अगुवाई में लोकतंत्र की बहाली के लिए लड़ाई लड़ा था, वही अब अपने संपादकीय सहयोगियों के साथ लोकतांत्रिक नहीं रह गया था। मैं क्या बहुतेरे सहयोगी देख रहे थे कि जनसत्ता छपने के पहले का प्रभाष जोशी कोई और था, जनसत्ता छपने के बाद, सफलता के शिखर छूने के बाद का प्रभाष जोशी कोई और था। वह प्रभाष जोशी जो जनसत्ता छपने के पहले संपादकीय सहयोगियों के कंधे पर हाथ रख कर बतियाने लगते थे, कभी पीठ पर, कमर पर हाथ रख देेते थे, कहीं गुम हो रहे थे। उन दिनों वह अमूमन पैंट बुशर्ट पहनते थे। वह अब कभी-कभार जनसत्ता संपादकीय विभाग में आते तो पैंट की जेब में हाथ डाले फर्श देखते हुए आते और फिर छत देखते हुए लौट जाते थे। उन की तानाशाही की यह कौन सी इबारत थी, कौन सी आहट थी, कौन सी कुलबुलाहट थी, समझना बहुत कठिन था। क्या संपादक नाम की संस्था इतनी ही क्रूर, इतनी ही तानाशाह होती है। इस के पहले धर्मयुग में अपने सहयोगियों के साथ धर्मवीर भारती की तानाशाही के क़िस्से सुनता था। रही सही कसर रवींद्र कालिया ने काला रजिस्टर कहानी लिख कर पूरी कर दी थी। उन की तानाशाही की बखिया उधेड़ दी थी। बाद में तो रवींद्र कालिया ने गालिब छुटी शराब में भी धर्मवीर भारती की तानाशाही के क़िस्से बयान किए। और लिखा कि धर्मयुग में धर्मवीर भारती के बाद बाक़ी सहयोगियों की हैसियत प्रूफ़ रीडर से अधिक की नहीं थी। कन्हैयालाल नंदन की यातना के भी कई तार उन्हों ने छुए हैं गालिब छुटी शराब में। पर यह तो बाद की बात है। उन दिनों तो मैं देखता कि कन्हैयालाल नंदन के पास भी सहयोगियों के लिए ज़्यादा समय या ज़्यादा मान नहीं होता था। मिलने जाने वालों के लिए भी उन के पास कम ही समय होता था। आते ही वह कहीं जाने की तैयारी में बताए जाते थे। कई बार लोग उन के पी.ए. नेगी से ही मिल कर काम चला लेते थे।

और रघुवीर सहाय!

विचारों से लोहियावादी। पर व्यवहार में उतने ही सामंतवादी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसों तक से भी उन का व्यवहार सामान्य नहीं था। सत्ता निरंकुश होती है। पर संपादक नाम की सत्ता भी निरंकुश हो जाए तो तकलीफदेह होती है। पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि दूसरों को लोकतांत्रिक होने का पाठ पढ़ाने वाले तमाम संपादक आंतरिक तौर पर अपने सहयोगियों के साथ लोकतांत्रिक नहीं थे। उन की इस हिप्पोक्रेसी ने ही संपादक नाम की संस्था का ह्रास किया। बाद में बात इतनी बढ़ी कि संपादक की हैसियत पी.आर.ओ. या लायजनर्स की हो गई और अंततः कम से कम अख़बारों में अब संपादक नाम की संस्था ही समाप्त हो चली है। तो यह तब के समय के संपादकों की हिप्पोक्रेसी ने ही इस बबूल को बोया था। और क्षमा करें, कहते हुए तकलीफ भी होती है कि अपने आदरणीय प्रभाष जोशी जी भी इस हिप्पोक्रेसी के शिकार थे।

उन की हिप्पोक्रेसी के एक नहीं अनेक वाकए हैं, कथाएं हैं। यहां ज़्यादा नहीं दो तीन घटनाओं का हवाला दे रहा हूं। जनसत्ता के शुरुआती दिनों में प्रभाष जोशी की आदत थी ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से मिलने की, लिखने की। विविध लोगों से वह मिलते थे, विविध विषयों पर लिखते थे। कुछ लोगों को बाक़ायदा चिट्ठी लिख कर समय तय कर के वह अपने दफ़्तर में बुलाते थे। लोग आते भी थे। एक बार हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक रामदरश मिश्र को भी उन्हों ने बुलाया। रामदरश जी उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते भी थे। तय समय पर वह जनसत्ता के दफ़्तर आए। पर जोशी जी के पी.ए. राम बाबू ने उन्हें यह कह कर बैठा दिया कि, ‘जोशी जी अभी व्यस्त हैं और कि अंदर मीटिंग चल रही है।’ रामदरश जी सरल प्रकृति के आदमी हैं, बैठ गए। इसी बीच किसी काम से मैं जोशी जी के कमरे में गया। थोड़ी देर में कमरे से बाहर निकला तो रामदरश जी को अनमनस्क ढंग से बैठे पाया। जा कर उन्हें नमस्कार किया। औपचारिक बातचीत के बाद उन्हों ने पूछा कि, ‘क्या अंदर कोई बड़ी मीटिंग चल रही है?’

‘नहीं तो!’ मैं ने बताया।

‘अरे फिर?’ रामदरश जी ने पूछा। तो मैं ने पूछा, ‘बात क्या है?’ उन्हों ने जोशी जी की चिट्ठी दिखाते हुए धीरे से कहा कि, ‘खुद मिलने के लिए बुलाया है, मैं समय से आ भी गया। पर आधे घंटे से बैठा हूं। पी.ए. बता रहा है कि मीटिंग चल रही है।’
मैं ने उन्हें फिर बताया कि कोई मीटिंग फ़िलहाल नहीं चल रही है।’

‘अंदर कौन-कौन है?’

‘जोशी जी हैं और उन के साथ शरद जोशी हैं। बस!’

‘ओह!’ कह कर रामदरश मिश्र उठे और जोशी जी के पी.ए. राम बाबू को कुपित नज़र से देखा और बोले, ‘मैं जा रहा हूं। कह दीजिएगा जोशी जी से वह अपने दोस्त के साथ खूब गप्पें मारें।’ तब तक जोशी जी के कमरे से शरद जोशी का ठहाका भी सुनाई दिया। रामदरश जी ने राम बाबू को हाथ जोड़ा और चल दिए। राम बाबू भाग कर जोशी जी के कमरे में गए और उन्हें रामदरश जी के नाराज हो कर जाने की सूचना दी। जोशी जी तुरंत कमरे से बाहर आए। पर रामदरश जी जा चुके थे। उन्हों ने राम बाबू से कहा, ‘दौड़ कर देखिए और उन्हें मना कर ले आइए।’ राम बाबू दौड़ कर गए भी। रामदरश जी एक्सप्रेस बिल्डिंग की सीढ़ियों से उतर रहे थे। राम बाबू ने उन्हें हाथ जोड़ कर रोका पर रामदरश जी अब तक पूरे परशुराम बन चुके थे। नहीं आए तो नहीं आए। रामदरश मिश्र मेरी वजह से भड़के यह जान कर जोशी जी मुझ पर भी कुपित हुए पर मुझ से कुछ कहा नहीं। बस घूर कर रह गए।

अशोक वाजपेयी उन दिनों मध्य प्रदेश शासन में संस्कृति सचिव थे। भारत भवन का काम भी उन के ज़िम्मे था। जाने क्यों प्रभाष जोशी सर्वदा अशोक वाजपेयी के पीछे पड़े रहते थे। कोई न कोई रिपोर्ट उन के खिलाफ छापते रहते थे। एकाधिक बार मुहिम की तरह। पूरी टीम लगा देते। भोपाल से जनसत्ता के संवाददाता महेश पांडेय, इंडियन एक्सप्रेेस के संवाददाता एन.के. सिंह और दिल्ली से आलोक तोमर लगातार एक साथ लिखते रहते। खोज-खोज कर, खोद-खोद कर लिखते। प्रभाष जोशी खुद भी लिखते। हालां कि अशोक वाजपेयी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आती। लेकिन जब एक बार बहुत हो गया तो एक लंबा प्रतिवाद भेजा अशोक वाजपेयी ने। हम भी मुंह में जुबां रखते हैं लेकिन.....! शीर्षक से। प्रभाष जोशी ने अशोक वाजपेयी के इस प्रतिवाद को बिना किसी काट-छांट के छापा भी जनसत्ता के पूरे आधे पेज में। बिलकुल ऊपर। बाक़ी के आधे पेज पर नीचे अशोक वाजपेयी के प्रतिवाद पर प्रतिवाद छपा था। जिसे तीन लोगों ने लिखा था। प्रभाष जोशी, आलोक तोमर और एन.के. सिंह ने। किसी मसले पर किसी दैनिक अख़बार ने इस के पहले या बाद में भी इस तरह पूरे पेज़ पर प्रतिवाद छापा हो, वह भी किसी अफसर की ओर से, मुझे नहीं याद आता। इस प्रतिवाद में भी कई दिलचस्प प्रसंग थे। जैसे कि एक जगह अशोक वाजपेयी ने लिखा था कि आप कुछ लाख रुपयों के पीछे पड़े हैं और यहां मेरी कलम से हर साल करोड़ो रुपए खर्च होते हैं। फिर उन्हों ने एकाउंट से संबंधित किसी शब्द का ज़िक्र करते हुए लिखा था कि उस शब्द का हिंदी अनुवाद भी आप को ठीक से नहीं मालूम तो किस हैसियत से किसी लेखा-जोखा का आप हिसाब-किताब करेंगे?

जोशी जी ने अशोक वाजपेयी का जवाब कुछ इस तरह से तब दिया था कि- चूक हुई। क्यों कि यह रिपोर्ट कलकत्ता से पटना की फ़्लाइट में लिखी गई। पटना से फिर दिल्ली की फ़्लाइट में देखी गई। दिल्ली आ कर रिपोर्ट आफ़िस में दे कर जल्दी में चला गया क्यों कि बंबई की फ़्लाइट पकड़नी थी। इस लिए चूक हुई।

गरज यह कि ग़लती भी इस मठाधीशी से स्वीकारी जोशी जी ने कि अगर आप करोड़ों रुपए का बजट खर्च करते हैं तो हम भी कोई ऐरे-ग़ैरे नहीं हैं। एक दिन में तीन-तीन फ़्लाइट पकड़ते हैं। और कि फ़्लाइट में भी काम करते रहते हैं। जो हो अशोक वाजपेयी का पीछा जोशी जी ने फिर भी नहीं छोड़ा। लगातार वार पर वार करते रहे। बाद के दिनों में प्रभाष जोशी जनसत्ता के संपादक पद से विश्राम ले बैठे। अशोक वाजपेयी भी दिल्ली आ गए। तो भी जोशी जी ने एक बार कागद कारे में अशोक वाजपेयी की चर्चा करते हुए लिखा कि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में अब हिंदी गालियां भी सुनाई देती हैं।

जनसत्ता के शुरुआती दिनों में जोशी जी एक बार लखनऊ गए। लखनऊ में जनसत्ता के तब के संवाददाता जय प्रकाश शाही ने राजकीय अतिथि गृह में जोशी जी के रहने की व्यवस्था करवाई। और सूचना विभाग से कह कर एक सरकारी कार उन की सेवा में ले कर अमौसी एयरपोर्ट पहुंचे। जोशी जी ने सरकारी कार एयरपोर्ट से ही वापस कर दी। एक टैक्सी ली और राजकीय अतिथिगृह में ठहरने के बजाय तब के एक सब से बड़े होटल में ठहरे। जयप्रकाश शाही को समझाया भी कि अच्छा पत्रकार बनने के लिए ज़रूरी है कि सरकारी सुविधाएं न ली जाएं। बाद के दिनों में कभी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मोती लाल वोरा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बन कर लखनऊ आ गए। फिर दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया। शासन प्रशासन का काम काज बतौर राज्यपाल मोती लाल वोरा देखने लगे। प्रभाष जोशी को उन्हों ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की गांधी समिति का सदस्य नामित करवा दिया। फिर वोरा जी ने हिंदी संस्थान का एक लखटकिया पुरस्कार भी जोशी जी को दिलवा दिया। जल्दी ही उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन ख़त्म हो गया। मायावती मुख्यमंत्री बनीं। और गांधी को शैतान की औलाद कहने लगीं। बहुत बवाल मचा पर मायावती टस से मस न हुईं। उन्हीं दिनों हिंदी संस्थान का पुरस्कार वितरित किया गया। प्रभाष जोशी भी अपना लखटकिया पुरस्कार लेने आए। राजकीय अतिथि बन कर राजकीय विमान से। सपरिवार आए और राजभवन में ठहर कर मोती लाल वोरा का आतिथ्य स्वीकार किया। मायावती से लखटकिया पुरस्कार ले कर राजकीय विमान से ही वापस दिल्ली लौटे। वापस लौटने पर हफ़्ते भर के भीतर ही उन्हों ने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की गांधी समिति की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया। क्या तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती महात्मा गांधी को शैतान की औलाद कह रही हैं। ऐसे में गांधी समिति का सदस्य बने रहना उन के लिए संभव नहीं है। और कि वह इस का विरोध करते हैं।

यह क्या था?

पुरस्कार लेने के पहले भी आप विरोध कर सकते थे, पुरस्कार ठुकरा भी सकते थे आप। पर पुरस्कार ले लेने, राजकीय अतिथि का भोग लगा लेने के बाद ही आप को यह सूझा? जब कि यह विवाद पहले ही से गरम था। इधर के दिनों में उन पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप गहरा गया था। हालां कि जब मैं मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि प्रभाष जोशी और तो बहुत कुछ थे पर ब्राह्मणवादी हरगिज नहीं थे। इस पर कागद कारे में उन्होंने सफाई भी दी थी। गो कि इस की ज़रूरत थी नहीं।

ख़ैर। तो बात बनवारी की हो रही थी। बनवारी जनसत्ता टीम में जाहिर है प्रभाष जोशी की पहली पसंद थे। सती प्रथा के समर्थन का जो दाग लगा प्रभाष जोशी पर उस के मूल में बनवारी का लिखा संपादकीय ही था। बनवारी का लिखा यह संपादकीय चर्चा में आ गया और प्रभाष जोशी समेत जनसत्ता भी। तब इस का खूब विरोध हुआ था। पर जोशी जी नहीं झुके तो नहीं झुके। कई लेखकों ने तब बाक़ायदा हस्ताक्षर अभियान चला कर जनसत्ता का न सिर्फ़ बहिष्कार करने का आह्वान किया बल्कि जनसत्ता में नहीं लिखने का भी फ़ैसला किया। जोशी जी तब भी नहीं डिगे तो इस लिए भी शायद कि इस नाते अख़बार खूब चर्चा में बना रहा था बहुत दिनों तक। जोशी जी के न झुकने का मिजाज तो बहुतेरे लोग जानते थे। पर एक सामाजिक कुप्रथा को ले कर अड़ जाने पर लोग अचरज में थे। पर मैं नहीं था। क्यों कि मुझे याद था कि जनसत्ता के शुरुआती दिनों की मीटिंग में जोशी जी राजस्थान पत्रिका के अचानक उछाल पाने की चर्चा करते नहीं अघाते थे। और बताते थे कि राजस्थान पत्रिका ने अपने शुरुआती दिनों में एक चर्चा चलाई कि परिवार नियोजन के चलते तमाम लोग जो मनुष्य योनि में पैदा नहीं हो पा रहे हैं और ऊपर ही लटके पड़े हैं, उन का क्या होगा? यह चर्चा ज़ोर पकड़ गई। खुली बहस में पाठकों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और राजस्थान पत्रिका अख़बार न सिर्फ़ चल पड़ा बल्कि छा गया राजस्थान में तब। तो शायद जोशी जी के मन में यह मनोविज्ञान भी कहीं गहरे बैठा रहा होगा और सती प्रथा जैसी कुप्रथा के भी महिमामंडन में लगे रहे।

तो क्या यह सिर्फ़ राजस्थान पत्रिका द्वारा चलाई गई बहस कि परिवार नियोजन के चलते जो लोग मनुष्य योनि में नहीं पैदा हो पा रहे हैं, उन का क्या होगा? वाली बहस का मनोविज्ञान भर ही था? शायद पूरी तरह नहीं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जनसत्ता छपने के साल भर के भीतर ही बनवारी प्रभाष जोशी से रूठ गए थे। बुरी तरह रूठ गए थे। हुआ यह कि बनवारी की लिखी एक संपादकीय में जोशी जी ने कुछ बदलाव कर दिए। दूसरे दिन बनवारी दफ़्तर नहीं आए। उन का इस्तीफ़ा आया। जोशी जी हिल गए। उन को यह कतई अंदाज़ा नहीं था कि उन का एक सहायक संपादक जिस को कि वह चाहते भी बहुत थे, एक संपादकीय में बदलाव को ले कर इतना खफा हो जाएगा कि इस्तीफ़ा दे जाएगा। उन्हों ने बहुत मनाया, समझाया बनवारी को। पर वह हरगिज़ तैयार नहीं हुए दफ़्तर आने को। बनवारी का कहना था कि अगर मेरी लिखी संपादकीय आप को पसंद नहीं थी तो आप संपादक थे, आप उसे रोक सकते थे। पर आप ने तो उस को बदल दिया। बात ही बदल दी और मुझे सूचित तक नहीं किया। जोशी जी सपत्नीक बनवारी के घर गए। उन को मनाने। बनवारी फिर भी नहीं माने। वे दिन बड़ी मुश्किल के थे। इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी। देश में और दिल्ली में भी दंगे बढ़ते जा रहे थे। दिल्ली में कर्फ्यू था। और बनवारी जो तब न सिर्फ़ प्रभाष जोशी के दिल के क़रीब रहते थे, जनसत्ता दफ़्तर से भी सब से क़रीब रहते थे, मिंटो रोड पर, वह ही नहीं आ रहे थे। कर्फ्यू और दंगे के चक्कर में डेस्क के कुछ सहयोगी दफ़्तर नहीं आ पा रहे थे। दिल्ली सेना के हवाले थी। सेना के लोग प्रेस का मतलब समझना ही नहीं चाह रहे थे। एक रात दफ़्तर से घर लौट रहे कुछ सहयोगियों को सेना के जवानों ने पकड़ लिया। दफ़्तर की जिस कार से सहयोगी जा रहे थे, उस कार के नाम तो कर्फ्यू पास था, पर कुछ सहयोगियों के पास नहीं। बस इतना काफी था। जवान किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। सभी धर लिए गए। तब मोबाइल का ज़माना भी नहीं था। बहुत दौड़ धूप के बाद दूसरे दिन लोग छूट पाए थे। तब जोशी जी खुद जनरल डेस्क पर घंटों जमे रहते थे। किसी सब एडीटर की तरह ख़बरें छांटते, बीनते, बनाते हुए। ख़ैर, दंगा बीत गया, कर्फ्यू बीत गया पर बनवारी नहीं आए। पर जोशी जी उन को मनाना नहीं भूले। अंततः बनवारी मान गए। दफ़्तर आने लगे। जोशी जी की पुलक तब देखने लायक़ थी।

यह प्रभाष जोशी का बड़प्पन भी था। मैं ने कई संपादकों के साथ काम किया है। जिन में अरविंद कुमार, प्रभाष जोशी और वीरेंद्र सिंह को मैं दुर्लभतम संपादकों में गिनता हूं। कुछ मूर्ख, जाहिल, साक्षर, गधे और दलाल टाइप रीढ़हीन संपादकों के साथ भी काम करने का दुर्भाग्य मिला है। तमाम और भी अच्छे संपादकों से भी लगातार बाबस्ता रहा हूं। जैसे रघुवीर सहाय, कमलेष्वर, मनोहर श्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन, रवींद्र कालिया। अरविंद कुमार जो टाइम्स आफ इंडिया की हिंदी फ़िल्म पत्रिका माधुरी के संस्थापक संपादक हैं, 16 साल तक माधुरी निकालने के बाद सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के भी संस्थापक संपादक वह हुए। सर्वोत्तम में ही उन के साथ काम किया। बाद में वह हिंदी थिसारस के लिए जाने गए। अरविंद जी को मैं उन की विद्वता, सरलता और काम सिखाने की विह्वलता में उदारता के लिए याद करता हूं। वीरेंद्र सिंह स्वतंत्र भारत लखनऊ के संपादक थे। रीढ़ के पक्के थे। प्रबंधन या सत्ता के आगे कभी झुके नहीं। और ऐसा कोई विषय नहीं था जिस के बारे में उन्हें जानकारी न हो, खेल, फ़िल्म, साहित्य, राजनीति से ले कर खगोलशास्त्र तक में वह निपुण थे। लेकिन प्रभाष जोशी अकेले मिले जो अपने आप में एक चलता फिरता अख़बार थे। एक साथ क्रिकेट से शास्त्रीय संगीत तक पर लिखते थे। दूसरे, जब ज़्यादातर संपादक रिपोर्टरों को दोयम दर्जे का मानते रहे तब भी प्रभाष जोशी रिपोर्टरों को अव्वल दर्जे का मानते थे। वह कहते थे कि रिपोर्टर हमारी भुजा हैं। हमारी भुजा जो कमजोर होगी, तो हम भी कमजोर होंगे। अख़बार कमजोर होगा। इस लिए रिपोर्टर को मज़बूत करिए, आप मज़बूत होंगे, अख़बार मज़बूत होगा। ऐसा डेस्क पर आ कर वह अकसर कहा करते। आलोक तोमर तब यों ही नहीं स्टार हो गए थे। प्रभाष जोशी अकेले ऐसे संपादक मिले मुझे जिन्हें मैं ने देखा कि जब वह दफ़्तर आते तो बाक़ायदा पीली पर्ची पर लिख कर डेस्क को भेजते कि फला ख़बर पर बाइलाइन क्यों नहीं है? वह तो कहते कि अगर रुटीन ख़बर भी रिपोर्टर ने ट्रीट की है तो उसे बाइलाइन दी जानी चाहिए। भले वह प्रेस कांफ्रेंस भी क्यों न हो? एक दिन में दो ख़बर पर भी जो बाइलाइन देनी पड़े तो दीजिए! रिपोर्टरों से भी वह कहते कि आप अपने को रुटीन ख़बरों में मत उलझाइए। वह तो एजेंसी से मिल जाएगी। आप एक्सक्लूसिव ख़बर भेजिए। उन के पास जो कोई यह शिकायत भी ले कर आता कि आप का फला रिपोर्टर मुझे ब्लैकमेल कर रहा है! तो वह छूटते ही पूछते कि वह तो ग़लत कर ही रहा है, पर आप बताइए कि आप ब्लैकमेल हो क्यों रहे हैं? और जो रिपोर्टर के खि़लाफ ज़रा भी कुछ मिल जाता तो वह उसे भी बख्शते नहीं थे। वह चाहे आलोक तोमर रहे हों या राकेश कोहरवाल। रास्ता दिखा दिया। अब तो तमाम संपादकों को अख़बार मालिकों और उन के बच्चों के चरण चूमते-चाटते देखता हूं। पर मैं ने ही क्या बहुतों ने विवेक गोयनका को बार-बार प्रभाष जोशी के पीछे-पीछे चलते देखा है जब कि रामनाथ गोयनका के वह बगल में चलते थे। और जी हूजूरी भी करते किसी ने नहीं देखा उन को। उलटे विवेक गोयनका को मैं ने जोशी जी की मनुहार करते भी देखा है। और जोशी जी हर बार मान ही गए हों ऐसा भी नहीं था।

शुरू के दिनों में जोशी जी जब जनसत्ता संपादकीय विभाग में आते तो सहयोगियों से लगभग आह्वान करते हुए आते, ‘ख़बर छोटी, ख़बर ज़्यादा।’ पर लाख कोशिश के बावजूद ख़बर तो ज़्यादा ज़रूर हो जाती थी, छोटी नहीं हो पाती थी। कारण यह था और अख़बारों की अपेक्षा जनसत्ता अख़बार का पेट कहीं ज़्यादा बड़ा था। ख़बरें ज़्यादा खाता था यह अख़बार। क्यों कि अख़बार में विज्ञापन नाम मात्र का होता। कई बार नहीं भी होता। यह एक बड़ी प्रबंधकीय चूक थी। पर खामियाजा लांग रन में अंततः जनसत्ता को उठाना पड़ा। हुआ यह कि जनसत्ता का संपादकीय स्टाफ़ तो जैसे और जितना जोशी जी ने चाहा रखा। पर बाक़ी विज्ञापन, प्रसार तथा अन्य कार्यों के लिए वह इंडियन एक्सप्रेस के स्टाफ पर निर्भर हो गए। दिक़्क़त यह थी कि इंडियन एक्सप्रेस कुल मिला कर एक अंगरेजी सेट-अप वाला संस्थान था। वहां हिंदी की बढ़ती खुशबू को अंगरेजी सेट-अप में जीने वालों ने बर्दाश्त नहीं किया। पता नहीं सब कुछ देखने और समझने वाले प्रभाष जोशी इस चूक और इस छेद को क्यों नहीं देख पाए। विज्ञापन के लिए इंडियन एक्सप्रेस की अंगरेजीदां लड़कियां फ़ील्ड में जातीं तो इंडियन एक्सप्रेस के लिए तो विज्ञापन लातीं साथ में फाइनेंसियल एक्सप्रेस के लिए भी। पर वह हिंदी अख़बार जनसत्ता के लिए भूल जातीं। सरकारी विज्ञापनों में भी मैनेजर लोग जनसत्ता के लिए कुछ ख़ास मैनेज नहीं कर पाते थे। हां, अख़बार का सरकुलेशन इस सब के बावजूद अपनी शान और रफ़्तार पर था। क्यों कि उस में जनता की धड़कन थी। एक रिश्ता था। सरोकार का रिश्ता। पर यह शान और रफ़्तार भी ज़्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रह पाई। तो भी उन दिनों जोश था हिंदी पट्टी में जनसत्ता पढ़ने का, गुनने का और बुनने का।

मुझे याद है जोशी जी ने एक बार मीटिंग में सभी सहयोगियों से जनसत्ता के लिए एक-एक स्लोगन लिखने के लिए कहा। कहा कि कवितामय होना चाहिए। सभी ने बड़े उत्साह से लिखा। पर जनसत्ता का स्लोगन बना कुमार आनंद का लिखा हुआ स्लोगन ‘सब की ख़बर ले, सब को ख़बर दे!’ जोशी जी को सब से ज़्यादा यही पंसद आया। और दिल्ली शहर सहित देश में भी तमाम होर्डिंग्स पर या विज्ञापनों में यही स्लोगन फहराया। सचमुच जनसत्ता तब सब की ख़बर ले, सब को ख़बर दे का पर्याय बन गया था। तब के दिनों में देश का हर खासो-आम जनसत्ता में अपनी आवाज़, अपना अक्स देखता था। और माफ कीजिए जनसत्ता मतलब तब रामनाथ गोयनका का या एक्सप्रेस ग्रुप का अख़बार भर नहीं, प्रभाष जोशी के अख़बार के रूप में लोग जानते थे। यह बहुत बड़ी परिघटना थी हिंदी पत्रकारिता में। किसी अंगरेजी संस्थान में हिंदी की तूती इस तरह बजी कि न भूतो न भविष्यति। वो जो कहते हैं न कि आंख अपना मजा चाहे है, दिल अपना मज़ा! तो खासियत यह भी थी कि जनसत्ता एक साथ अख़बार और पत्रिका दोनों का मज़ा एक साथ देता था तब। ख़ास ख़बर और खोज ख़बर पन्ने के मार्फ़त देश भर की जनपदीय पत्रकारिता से जुड़ने का यह दुर्लभ संयोग था। जिस में संवाददाता के अलावा भी कोई कैसी भी लेकिन प्रामाणिक ख़बर लिख कर छप सकता था। छपते ही थे लोग। दरअसल सचाई यह थी कि कलकत्ता से छपने वाली पत्रिका रविवार ने हिंदी पत्रकारिता में जो तेवर; जो रवानी रोपी थी, उसी रवानी और उसी तेवर को जनसत्ता ने परवान चढ़ाया।

बहुत कम लोग इस बात को संजो कर याद कर पाते हैं कि हिंदी पत्रकारिता में दरअसल अंगरेजी के एम.जे. अकबर का बहुत बड़ा योगदान है। तब के दिनों वह भारतीय पत्रकारिता में सब से यंगेस्ट एडीटर कहलाए थे। आनंद बाज़ार पत्रिका ग्रुप के अंगरेजी साप्ताहिक संडे का एडीटर बन कर। हिंदी में रविवार भी एम.जे. अकबर की ही परिकल्पना थी। वह खुद इलस्ट्रेटेड वीकली से गए थे। तो जब रविवार की बात हुई तो वह धर्मयुग से सुरेंद्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा सरीखों को भी ले गए। मेला के लिए धर्मयुग से योगेंद्र कुमार लल्ला को। हिंदी में तब दिनमान पत्रिका थी ज़रूर पर अंगरेजी अनुवाद के जूठन से अटी और रघुवीर सहाय के ठसपने से सटी पड़ी थी। रविवार ने अंगरेजी अनुवाद और ठसपने से हिंदी पत्रकारिता को लगभग मुक्त करने की पहल की थी। और जनसत्ता ने प्रभाष जोशी के नेतृत्व में इस को ले कर हल्ला बोल दिया। चिंगारी शोला बन गई और हिंदी पत्रकारिता में एक नया बिरवा रोप गई। प्रभाष जोशी के संपादन और उन की भाषा ने एक नई चमक उपस्थित की हिंदी पत्रकारिता में। जिसे अभी तक फिर से दुहराया नहीं जा सका। हिंदी पत्रकारिता में भाषा और समाज को बदलने का वह उफान, वह इबारत प्रभाष जोशी के बाद फिर कोई नहीं रच पाया वह उफान, नहीं लिख पाया कोई नई इबारत! प्रभाष जोशी इसी लिए हमारे लिए सैल्यूटिंग हो जाते हैं। और सिर्फ़ इसी लिए भर नहीं कारण और भी बहुतेरे हैं कि प्रभाष जोशी को हम सदा-सर्वदा सैल्यूट करते रहें। उन की कुछ ज़िद, कुछ तानाशाही, कुछ हिप्पोक्रेसी और कुछ नापसंदगी को दरकिनार कर दें तो प्रभाष जोशी के पास इतने सारे प्लस हैं, इतने सारे अवयव हैं, इतने सारे काम हैं कि उन्हें सिर्फ़ हिंदी पत्रकारिता में ही नहीं, भारतीय पत्रकारिता में भी बार-बार याद किया जाएगा। मैं पाता हूं कि जीते जी तो वह किसी खोह में नहीं ही थे, मरने के बाद भी किसी खोह में नहीं जाएंगे। वह जब जीवित थे तब अकसर कबीर को कोट करते हुए कहते थे, ‘जंह बैठे तंह, छांव!’ और सच ही कहते थे।

उन का कालम कागद कारे संभवतः इकलौता कालम है जो इतने लंबे समय तक कोई 17 साल तक लगभग अविराम लिखा गया। बाई पास के बावजूद अस्पताल से भी वह कागद कारे लिखते ही रहे। इतनी संलग्नता, इतनी जीवटता मैं ने किसी और कालमिस्ट में नहीं देखी, नहीं पाई। ख़ास कर ऐसे समय में जब अपने देश का एक प्रधानमंत्री बाई पास के लिए गणतंत्र की परेड छोड़ देता है। पर प्रभाष जोशी मरते हुए भी अपना कालम नहीं छोड़ते। सच कहना नहीं छोड़ते। सोचिए कि प्राण त्यागने की घड़ी आ पहुंची है और वह कागद कारे भेज रहे हैं इस की सूचना जनसत्ता में भेजना नहीं भूलते। यह प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। बीच में उन के कागद कारे में जब उन की माता जी, भेन जी यानी पत्नी ज़्यादा आने लगीं, या क्रिकेट ज़्यादा छाने लगा तो लोग उबने लगे कागद कारे से। पर जल्दी ही वह पारिवारिक प्रसंगों और क्रिकेट के ताप को बिसार कर कारे कागद को तोप मुकाबिल बना बैठे। कागद कारे पढ़ना अनिवार्यता बन गया लोगों के लिए। कभी प्रभाष जोशी हिंदी में शब्दों के दुरुपयोग और अज्ञानता के बोझ से उबारने के लिए ‘सावधान पुलिया संकीर्ण है’ जैसे लेख लिखा करते थे। राजनीति और समाज के चौखटे तो उन के नियमित लेखन के हिस्से थे। कई बार वह लामबंद भी हुए। पर इधर पत्रकारिता में बढ़ते नरक को ले कर, व्यूरो को नीलाम होने से ले कर, विज्ञापन को ख़बर बना कर छापने को ले कर जिस तरह और जिस कदर टूट पड़े थे, हल्ला बोल रहे थे, किसी एक्टिविस्ट की तरह वह हैरतंगेज भी था, लोमहर्षक भी। इस उम्र और तमाम बीमारियों के बावजूद उन के जीवट होने का तर्क भी। कभी विनोबा के साथ मिल कर जमींदारों से भूदान करवाया था, कभी चंबल के डाकुओं का आत्मसमर्पण कराने में उन्होंने जे.पी. का सहयोग किया था, इमरजेंसी में लोकतंत्र बहाली का आंदोलन चलाया था, अब वह पत्रकारिता के डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाने की मुहिम में लग गए थे। मीडिया में लोकतंत्र बहाली की लड़ाई लड़ रहे थे, कि देश में लोकतंत्र तभी बचेगा जब मीडिया बचेगा। वह जल रहे थे और पूरा देश घूम-घूम कर एक किए थे इस ख़ातिर। अख़बारों में उन के इन भाषणों की रिपोर्ट नहीं छपती थी। तो भी वह अलख जगा रहे थे जिस की गूंज उन के कागद कारे के साथ ही इंटरनेट के तमाम पोर्टलों और ब्लागों पर लगातार सुनाई देती थी।

एक समय प्रभाष जोशी पंजाब में भिंडरांवाला की करतूतों के खि़लाफ सिलसिलेवार लिख रहे थे। तकरीबन हर हफ़्ते। पहले पेज से ले कर संपादकीय और रविवारीय पेज तक पर। तब कुछ सहयोगी उन्हें दबी जबान हिंदू भिंडरांवाला कहते। पर वह इस सब की परवाह किए बिना जैसे भिंडरांवाला और उस के आततायियों की गोलियों का जवाब अपनी कलम से ताबड़तोड़ देते रहते थे। और इन दिनों जब वह ख़बरों को बेचने के खि़लाफ ताबड़तोड़ हल्ला बोल रहे थे तो भी उन ताकतों पर कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ रहा था तो मुझे जाने क्यों कई बार लगा कि इस महाभारत में प्रभाष जोशी विदुर की भूमिका में आ गए हैं। कोई कौरव उनकी सुन नहीं रहा था, पांडव अद्भुत रूप से अनुपस्थित थे और वह लगातार ख़बरों की पवित्रता का आलाप लगा रहे थे, अजान कर रहे थे, घंटा-घड़ियाल बजा रहे थे। लेकिन उन की नमाज, या पूजा में कोई कौरव शामिल होने के लिए उन की आवाज़ सुनने को भी तैयार नहीं दिखा, शामिल होना तो बड़ी दूर की कौड़ी थी। तो भी जोशी जी के जोश में कभी कमी नहीं दिखी।

बीते साल 26 नवंबर को लोगी टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहे थे और मुंबई में समुद्री रास्ते से आतंकवादी घुस आए थे और मुंबई में कई जगह सिलसिलेवार हमला बोल दिया था। कागद कारे में प्रभाष जोशी ने उस क्रिकेट मैच को कोसा था। क्यों कि समुद्र किनारे किसी मजदूर बस्ती की एक औरत ने बयान दिया था न्यूज़ चैनलों पर कि पूरी बस्ती में लोग अपने-अपने घरों में क्रिकेट मैच देख रहे थे इस लिए आतंकवादियों को जाते किसी ने नहीं देखा। प्रभाष जोशी को पहली बार क्रिकेट मैच को कोसते पाया था। तब भला क्या जानता था कि क्रिकेट मैच के हार के ग़म में ही वह विदा भी हो जाएंगे। पूछना चाहता हूं उन से कि हे प्रभाष जोशी, देश में क्या और समस्याएं कम थीं आप को मारने के लिए या आप को हिलाने के लिए, आप के पेस मेकर को बंद करने के लिए जो आप क्रिकेट जैसे टुच्चे खेल की हार की ग़म में निसार हो गए! अगर यह सच है तो! अरे जाना ही था तो इस ख़बर बेचने की पूंजीपतियों की रवायत पर जाते, मंहगाई पर जाते, किसानों की आत्महत्या पर जाते सरकार और समाज के लगातार अमरीकापरस्त होते जाने के विरोध में जाते, जातीयता या क्षेत्रीयता के बढ़ते दबाव के प्रतिरोध में जाते! पर आप भी! आप का आत्म वृत्तांत ओटत रहे कपास अब कौन लिखेगा?

जाने क्यों कई बार लगता है कि जैसे उन्हें अपने जाने का एहसास हो गया था। जैसे अब वह अपने सभी कामों को समेट रहे थे। एक इंटरव्यू में कागद कारे का जिक्र करते हुए उन्हों ने कहा था कि 75 की उम्र तक सब निपटा दूंगा। 75 के बाद कोई लिखना नहीं।

इसी लिए मैं ने शुरू में लिखा कि नर्मदा के किनारे प्रभाष जोशी की देह नहीं जली है, मैं ही जल गया हूं। मेरी कलम में उन के हाथ सांस ले रहे हैं। तो यह यों ही नहीं लिख दिया है भावुकता में बह कर। महात्मा गांधी ने कहीं लिखा है कि, ‘महापुरुषों का सर्वश्रेष्ठ सम्मान हम उन का अनुकरण कर के ही कर सकते हैं।’ तो प्रभाष जोशी भारतीय पत्रकारिता के महापुरुष थे, इस में कोई शक नहीं। हम उन का अनुकरण कर अपनी कलम में उन के हाथों की सांस भर सकते हैं। मैं ही क्यों तमाम-तमाम लोग जो उन के चाहने वाले हैं कर सकते हैं। कहते हैं कि हर बाप की मौत में बेटे की मौत होती। बेटा परंपरा है, सफर करता रहता है! इसी लिए फिर दुहरा रहा हूं कि प्रभाष जोशी नहीं जले नर्मदा किनारे, हम जले हैं, प्रभाष जोशी तो हम जैसे बहुतेरों में ज़िंदा हैं, ज़िंदा रहेंगे। क्यों कि प्रभाष जोशी तो न भूतो, न भविष्यति!

प्रभाष जोशी और रामनाथ गायेनका के संबंध हमेशा अपरिभाषित ही रहे। तो भी जैसे आज की तारीख़ में कोई प्रभाष जोशी को कोई कुछ कहे तो मैं समझता हूं कि सब से पहले कोई अगर कूद कर उन के बचाव में खड़ा होगा तो वह आलोक तोमर दीखते हैं। लाख किंतु परंतु के आलोक तोमर की प्रभाष जोशी के प्रति निष्ठा अतुलनीय है। और किसी से तुलना करनी ही पड़ जाए तो मैं हनुमान से करना चाहूंगा। प्रभाष जोशी की पसंदगी-नापसंदगी अपनी जगह आलोक तोमर की प्रभाष जोशी के प्रति हनुमान की तरह निष्ठा अपनी जगह। मुझे लगता है कि कुछ-कुछ प्रभाष जोशी भी रामनाथ गोयनका के प्रति आलोक तोमर की तरह ही निष्ठावान थे। गोयनका के खि़लाफ जोशी जी ने कभी चूं तक नहीं की। बल्कि कई बार वह राणा के चेतक की तरह गोयनका के इशारों को भाप लेते थे। गोयनका की इंदिरा गांधी से लड़ाई विख्यात थी। पर एक्सप्रेस बिल्डिंग के एक्सटेंशन मसले पर उन्हों ने राजीव गांधी से निगोशिएट किया यह भी छुपा नहीं है। फिर तो राजीव गांधी के लिए जो कसीदे लिखे जोशी जी ने वह कैसे भूला जा सकता है? राजीव लोंगोवाल समझौते से जो वह शुरू हुए तो बाद में राजीव गांधी के नाक-नक्श पर भी लिखने में गुरेज नहीं किए। पर बाद में जब बोफ़ोर्स को ले कर वी.पी. सिंह ख़ातिर लामबंदी में गोयनका उतरे तो प्रभाष जोशी के कलम की तलवार भी वी.पी. सिंह के पक्ष में खूब चमकी। वह वी.पी. सिंह के साथ गलबहियां डाले भी बार-बार देखे गए। चंद्रशेखर के दिनों में भी प्रभाष जोशी उन के साथ बार-बार देखे गए। वैसे भी गोयनका और चंद्रशेखर के संबंध जे.पी. के समय से ही फलीभूत थे। गरज यह कि गोयनका के चेतक थे ही थे जोशी जी। इतना कि उन के खि़लाफ वह एक शब्द भी नहीं सुन सकते थे।

एक बार एक मीटिंग में वह रामनाथ गोयनका की यशगाथा सुना रहे थे। मेरे मुंह से बरबस निकल गया कि, ‘चाहे जो हो, गोयनका भी अंततः बनिया ही हैं, पूंजीपति ही हैं।’ सुन कर जोशी जी व्यथित हो गए। और बड़ी देर तक वह मुझे समझाते रहे कि गोयनका कैसे बनिया नहीं है, कैसे पूंजीपति नहीं हैं। वह बताते रहे कि कैसे ब्रिटिश के खि़लाफ वह अख़बार निकालते थे मद्रास से। खुद ख़बर लिख कर कंपोज करते थे, खुद मशीन चला कर छापते थे, अंबेस्डर में लाद कर खुद बेचते थे। और कि इमरजेंसी में इंदिरा गांधी से कैसे तो उन्हों ने मोर्चा लिया और उन्हें नाको चने चबवा दिए। लोहे के चने। रामनाथ गोयनका के प्रति उन के मन में बहुत श्रद्धा थी। प्रभाष जोशी अपने प्रियजनों के निधन पर श्रद्धांजलि ही सही पर ज़रूर कुछ न कुछ लिखते ही थे। पर रामनाथ गोयनका के निधन पर उन्हों ने नहीं लिखा। आलोक तोमर ने एक बार उन से इस बारे में पूछा तो वह बोले, ‘आर.एम.जी मर गए हैं यह मैं आज तक स्वीकार ही नहीं पाया।’ तो क्या प्रभाष जोशी तभी मर गए थे? रामनाथ गोयनका उन में जीते थे? वैसे ही जैसे प्रभाष जोशी हम में से कइयों में जीते हैं और कि हम मर गए हैं कि जल गए हैं? पूछता हूं अपने आप से। कोई उत्तर नहीं मिलता। उम्मीद थी कि अपनी आत्मकथा ओटत रहे कपास में जोशी जी रामनाथ गोयनका की विस्तार से चर्चा करेंगे। पर अब यह बात भी जोशी जी की देह की तरह हम से बिला गई है। लेकिन हिंदी की पृथ्वी में प्रभाष जोशी नाम का सूर्य जो अपनी रोशनी में हमें नहला गया है वह रोशनी, वह सूर्य हिंदी की पृथ्वी में चमकता रहेगा। कोई बाज़ार, कोई सौदागर उसे लील नहीं पाएगा, हम से छीन नहीं पाएगा। जोशी जी अपन का भी आप से यह वादा है। और इस वादे में हम कोई अकेले नहीं हैं, हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे हैं। उस सूर्य की रोशनी, ऊष्मा और उस की सुन्दरता को सहेजने के लिए।
(वागर्थ से साभार)

7 comments:

  1. sir ji aankhe bhat aayi, aur kya kahu

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  2. Brajbhushan Prasad9 February 2014 at 03:42

    धन्यवाद ।आपने अपना समझ कर पढने के लिये भेजा। प्रभाष जोशी का मैं भी बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूँ। बहुत सुन्दर है आपका ये लेख। पुनः आभार।

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  3. इस ईमानदार संस्मरण के लिए आपको एक बार फिर सलाम दयानंद जी

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  4. प्रभाष जोशी सचमुच अदभुत व्यक्तित्व वाले थे ।
    उनके व्यक्तित्व के बारे में विस्तृत जानकारी देने के लिये धन्यवाद ।

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  5. जनसत्ता के बारे मे चर्चा तो सुनी थी ।परिचय आपकी कलम से हुआ ।सादर धन्यवाद

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  6. जनसत्ता के बारे मे चर्चा तो सुनी थी परिचय आपकी कलम से हुआ

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  7. शानदार आलेख

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