Thursday 26 January 2012

रंग बिरंगे साँप हमारी दिल्ली में, क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में



अरविंद कुमार

कहानी   शुरू होती है अस्पताल से. अस्पताल पहुँची है साल डेढ़ साल की ठुमक ठुमक चलने वाली बच्ची जिस ने अभी अभी चलना सीखा था और पड़ोसी के घर के बाहर कपड़े धोने के लिए रखे खौलते पानी के टब मेँ बैठ कर जल गई थी. छोटे शहर के प्राइवेट क्लीनिक मेँ जले का इलाज करने की कोई सुविधा नहीँ थी. फिर भी मुनाफ़े के लालची क्लीनिक ने बुरी तरह जली बच्ची को पूरे दस दिन अपने यहाँ रखा और हज़ारोँ रुपए ऐँठे. जब सुनिश्चित मौत सामने खड़ी नज़र आई, तो प्लेटलेट कम होने का बहाना बना कर उसे लखनऊ सरकारी अस्पताल रैफ़र कर दिया. यहाँ हालत सुधर नहीँ रही थी. पूरा कुनबा (पिता मुनव्वर भाई, माँ सादिया, नानी, मामा, गोदी का छोटा बच्चा सब) अस्पताल मेँ टक्करेँ खा रहे हैँ और परेशान भटक रहे हैँ. आख़िरकार तीसरी रात फ़ोन करते हैँ अपने मित्र आनंद को. बड़े रसूख़ वाला आनंद लखनऊ मेँ एक प्राइवेट कंपनी मेँ किसी ऊँचे ओहदे पर है. उस की पहुँच ऊपर तक है. आनंद और मुनव्वर भाई कभी नौजवानी मेँ राजनीति मेँ साथ साथ थे. घर छोड़ आए नौजवान सक्रिय छात्र नेता आनंद को सहारा देने  लिए मुनव्वर भाई ने ही ट्यूशनेँ दिलाई थीँ और हिम्मत बँधाई थी.

आनंद की ऊपर तक पहुँच का ही परिणाम था कि जब वह सुबह अस्पताल पहुँचा तो डाक्टर लोग बच्ची की देखभाल मेँ तत्पर हो चुके थे, और अब तक ट्रामा सैंटर ले गए थे. बच्ची के बचने का कोई चांस नहीँ है. दुर्घटना वाले दिन ही उसे इस बड़े अस्पताल मेँ आ जाना चाहिए था या दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल भेजा जाना चाहिए था जहाँ जले का इलाज होता है. पर वहाँ भेजी नहीँ गई थी. ट्रामा सैंटर मेँ वैंटिलेटर लाने की भागदौड़ मचती है. जैसे तैसे आ भी जाता है. पर लाभ नहीँ हो सकता था. हुआ भी नहीँ… बच्ची नहीँ रही – तो कभी वार्ड से काग़ज़ लाना है, कभी शव को पोस्टमार्टम होने से रोकना है, पर समय रहते किसी के हाथ गरम न करने के कारण चीरफाड़ के लिए भेज ही दिया जाता है… शव कभी मुर्दाघर से छुड़ाना है, कभी इस के लिए पंचनामा बनवाना है, पंचनामे के लिए पाँच आदमी जुटाने हैँ. कभी थाने, अस्पताल और मुर्दाघर के चक्कर पर चक्कर लगाने हैँ. हर जगह काग़ज़ी काररवाई होनी है, हर जगह दस्तख़त होने हैँ, हर जगह टालमटोल है, जेब गरम होने की तवक़्क़ो है.

क़दम क़दम की इस परेशानी और मज़बूरी का जो सजीव कँपकँपाऊ ब्योरेवार वर्णन दयानंद पांडेय ने उपन्यास के पहले 60-62 पेजोँ मेँ चलचित्र की तरह दिखाया है – वह एक तरह से पूरे देश की हालत का प्रतीक है. भ्रष्टाचार से पीड़ित देश अस्पताल मेँ है. शायद बहुत पहले ही उसे ट्रामा सैंटर मेँ होना चाहिए था. शायद किसी भी पल चीरफाड़ की नौबत आ सकती है. चीरफाड़ के बाद शीघ्र ही शायद वह मुर्दाघर मेँ पहुँच जाएगा… आधी रात देश की लाश को वहाँ से छुड़ाने के पंचनामे के लिए कौन कहाँ से किन पाँच जनोँ को लाएगा, ला भी पाएगा?…

क्योँकि मुनव्वर भाई और आनंद दोनोँ ही राजनीति से संबंधित रहे हैँ, अतः इन परेशानी के क्षणोँ मेँ भी कभी उन्हेँ पुरानी बातेँ और बहसेँ याद आती हैँ. कभी वे हालात के गिले शिकवे करते रहते हैँ. आनंद को याद आता है छात्र राजनीति के एक पुराने खिलाड़ी का उपदेश – ‘सिद्धांत की राजनीति कुछ और है और व्यवहार की कुछ और.’ एक जगह मुनव्वर भाई पूछते हैँ, ‘कहीँ हम लोग भी तो इस राजनीति मेँ, इस समाज मेँ चलने की सज़ा तो नहीँ भुगत रहे हैँ?’ बच्ची को देखने ट्रामा सैंटर पहुँचते पहुँचते आनंद उन्हेँ सलाह देता है, ‘अपने इंटैलैक्चुअल घावोँ का इलाज भी यहीँ करवा लीजिए.’

इसी प्रकरण से एक दृश्य—

आनंद डाक्टरोँ के कमरे से निकल कर बाहर आ कर बरामदे एक बार फिर खड़ा हो गया कि तभी पुलिस चौकी का दीवान दिख गया. बाक़ी ग़ुस्सा उस ने दीवान पर उतारा. “तुम लोग बिना पैसा लिए लाश भी नहीँ छोड़ते.”
“क्या करेँ, साहब, नीचे से ऊपर तक सब का बँधा है.” वह पूरी ढिठाई और बेशर्मी से बोला, “आप लोग बड़े आदमी हैँ, इतना भी नहीँ समझते. जहाँ पैसे के बिना एक क़दम भी नहीँ उठता वहाँ आप लोग दबाव और सिफ़ारिश से काम करवाने मेँ लगे हैँ.”

सशक्त उपन्यासकार दयानंद पांडेय वे जो हारे हुए में एक एक कर के सामाजिक जीवन के हर पहलू को टटोलते हैँ, हर कोण से कुरेदते हैँ. जो हालात अस्पताल मेँ थे, मुर्दाघर मेँ थे, वैसे ही हर तरफ़ हैँ. बाज़ार की माँगोँ को पूरा करने और मुनाफ़े, सिर्फ़ मुनाफ़े, के लिए चलाई जाने वाली बड़ी प्राइवेट कंपनियोँ मेँ तो हैँ ही, जो राजनीतिक स्तर पर निकट की जानपहचान वाले आनंद जैसे लोगोँ को लायज़न के लिए रखती हैँ, राजनीतिक पार्टियोँ के भीतर भी, नेताओँ की आपसी उठापटक मेँ भी, सरकारी इमदाद से चलने वाली तथाकथित समाजसेवी एन.जी.ओ. संस्थाओँ मेँ होने वाली हेराफेरी लूटमार दलाली स्वार्थ साधन मेँ भी, सामाजिक रिश्तेदारियोँ मेँ भी, शादी ब्याह मेँ भी, दान दहेज मेँ भी, बहुओँ को जलाने मेँ भी, न्यायालयोँ मेँ भी, न्यायाधीशोँ की ज़िंदगी मेँ भी… ईश्वर या कहेँ तो शैतान की तरह यही हालात हर जगह मिलते हैँ.
सांप्रदायिकता का विष गाँव गाँव तरह तरह के नाम वाली हिंदू और मुस्लिम सेनाएँ बन कर न सिर्फ़ फैला है, बल्कि लामबंद हो गया है. नारे लगाए जा रहे हैँ कि तथाकथित ‘सूडो’ धर्मनिरपेक्ष लोग गाँव गाँव मेँ पाकिस्तान बनाने मेँ लगे हैँ. दूसरी तरफ़ से माँग उठती है “राजधानी दी थी, राजधानी लेँगे.”
आतंकवाद पर एक सैमिनार मेँ नायक की मुलाक़ात होती है फ़िल्म लेखक और गीतकार जावेद अख़्तर से. कैफ़ी आज़मी के जन्म नगर आज़मगढ़ मेँ पनप रहे आतंकियोँ की बाढ़ के लिए कैफ़ी के दामाद जावेद अख़्तर ने बाबरी मस्जिद के गिराए जाने का वास्ता दे डाला. जावेद का तर्क आनंद को नहीँ पचता. इस वस्तुस्थिति को न समझ पाना लेखक की अक्षमता ही कहा जाएगा. भारतीय संदर्भ मेँ बाबरी मस्जिद का ध्वंस मुसलमानोँ को उग्र बनाने का एक शक्तिशाली कारण बना – इस तथ्य को नकारा नहीँ जा सकता. हाँ, इस संदर्भ मेँ यह बात भी कही जा सकती है कि जिस तरह एक मस्जिद के टूटने से मुस्लिम भावनाओँ को और उन के अहम् को ठेस पहुँची है, वैसी ही ठेस अभी तक समृत इतिहास मेँ हिंदुओँ को सैकड़ोँ मंदिरोँ को मिस्मार किए जाने से पहुँची थी और ऐतिहासिक अवशेष देख कर अब भी पहुँचती है… बाबरी मस्जिद का ध्वंस हिंदुओँ की इन्हीँ भावनाओँ को उकसाए जाने का परिणाम था. अतः जावेद आदि द्वारा ऐसे आधारोँ पर आतंकवाद पर लीपापोती करना उचित नहीँ ही ठहराया जा सकता.

दयानंद पांडेय यह दिखाना नहीँ भूलते कि राजनीति मेँ आए कई हिंदू नेता और मठोँ के ऐश्वर्यभोगी महंत इन्हीँ पुराने ज़ख्मोँ के हवाले दे दे कर माफ़िया संगठनोँ से साँठगाँठ कर के हिंदू और मुस्लिम सेनाओँ की मदद से, अपनी रोटी सेँकने के लिए दोनोँ संप्रदायोँ को भड़कवा कर दंगे करवाने, पूरे समाज को अस्पतालोँ के ट्रामा सैंटरोँ तक पहुँचाने मेँ, वोट कमाने के साथ साथ समाज को तोड़ने, देश को हाँकने और लगे हैँ.
इन सेनाओँ का नेतृ्त्व जिस तरह के नौजवानोँ के हाथ मेँ है, उन की मानसिकता मेँ जाने के लिए लेखक जावेद पर यह आरोप लगाना नहीँ भूलता कि स्वयं जावेद की ज़ंजीर, दीवार, शोले जैसी फ़िल्मोँ ने नायक और खलनायक का अंतर मिटा दिया. देश का नौजवान माफ़िया बनना शान की बात समझने लगा. नौजवानोँ की खलनायक बन कर अपने को महिमामंडित करने की यह भावना आज की ग्रामीण राजनीति मेँ प्रमुख भूमिका निभा रही है. यही ‘दबंग’ गुंडे बाद मेँ नेता और विधायक-सांसद बन जाते हैँ…

मीडिया जो कभी फ़ोर्थ एस्टेट कहा जाता था, वह भी अछूता नहीँ है… पेड न्यूज़ का ज़माना आ चुका है. पता नहीँ चलता कि हम अख़बारोँ मेँ जो पढ़ रहे हैँ, टीवी पर जो देख रहे हैँ वह कितना असली है, कितना बिका हुआ? दुखी आनंद को लगता है– क्या समाज शास्त्री, क्या इतिहासकार, क्या लेखक, क्या कवि… बाज़ार की प्रशस्तिगाथा का शिलालेख तैयार करने मेँ युद्धरत हैँ. युद्धरत हैँ सभी स्वामी रामदेवोँ की योगपताका का मीनू रचने, पढ़ने, बेचने और छलने की प्रवीणता हासिल करने मेँ. आसाराम बापू जा रहे हैँ, स्वामी रामदेव आ रहे हैँ. एक बाज़ार जा रहा है, एक आ रहा है. यह क्या है कि योग, अध्यात्म, गांधी – सभी बिकाऊ हो गए हैँ?
कुछ अन्य मार्मिक उद्धरण और प्रकरण—

क्या कीजिएगा, सिस्टम ही चौपट हो गया है. और सिस्टम के तराज़ू मेँ मानवीयता नहीँ अमानवीयता का ही बोलबाला रहता है…
क्या अब तक सब की देह से ग़ुस्सा ग़ायब हो गया था और सब को सिस्टम की नपुंसकता ने घेर लिया था?
‘आजकल तुम कितने ऐन.जी.ओ चलाते हो?’ …
 ‘यही कोई सात–आठ.’
रिश्वतख़ोरी को पहले लोग नफ़रत की नज़र से देखते थे, पर अब वही रिश्वतख़ोरी उन की योग्यता बन चली थी…

इस अंतिम वक्तव्य से सहमत होना मुझ जैसोँ के लिए संभव नहीँ है. जब से यानी 1945 से जब से मैँ ने होश सँभाला है ‘ऊपर की आमदनी’ को समाज मेँ आदर का स्थान पाते देखा है. शादी ब्याह के मामले मेँ लड़की वालोँ का यह प्रश्न आम हुआ करता था कि लड़के को ‘ऊपर की आमदनी’ होती है या नहीँ? वेतन कम होना कोई अवगुण नहीँ होता था, असली अवगुण होता था ‘ऊपर की आमदनी’ न होना. समाज मेँ तथाकथित भ्रष्टाचार यानी रिश्वतख़ोरी का चलन कोई आज की बात नहीँ है. आनंद स्वयं भ्रष्टाचार के विरुद्ध जे.पी. के आंदोलन का सक्रिय सदस्य रहा है. पर क्या हुआ, क्या हो पाया?

नायक आनंद का एक मित्र भ्रष्ट नेता उस से पूछता है–

वी.पी. सिंह जो बोफ़ोर्स के घोड़े पर सवार हो कर बड़ी तेज़ी से धराशायी हो गए, जानते हो कैसे?
और स्वयं जवाब भी देता है—

यह कारपोरेट लौबी के लोग… अरुण नेहरू जैसे लोग उन्हेँ धूल मेँ मिला दिए, पहले राजीव को खाया, फिर वी.पी. को.

आख़िर तक आते आते आनंद अपने दोहरे जीवन से आजिज़ हो उठता है. वह समाज मेँ आदर्शवादिता की तलाश मेँ है. समाज को महापतन की ओर बढ़ते देखते रहना उस के लिए गहन पीड़ा बन जाता है. वह स्वयं किसी बड़ी निजी कंपनी मेँ दिनरात अपने से समझौते करने मेँ लगा रहता है. यहाँ तक कि कंपनी के हित मेँ किसी एक उत्पाद की लांचिंग पर महंत के साथ एक ही मंच पर उत्पाद के गुणगान को विवश है, और इस घटना के बाद वह पूरी तरह टूट सा जाता है. भाग कर गाँव का रुख़ करता है. अब वहाँ उस के लिए कोई जगह नहीँ है…

वह धोबी के कुत्ते की तरह न घर का रह गया है, न घाट का. मित्र और हितैषी समझते हैँ कि वह मानसिक संतुलन खोता जा रहा है. शायद उसे भी अपने इंटैलैक्चुअल घावोँ का इलाज करवा लेना चाहिए. सच तो यह है कि मिडिल क्लास के तथाकथित बुद्धिजीवी जो हाशिए पर बैठे तूफ़ानोँ का नज़ारा कर रहे हैँ, कुछ ऐसी ही हालत मेँ वे ही हैँ जो हारे हुए हैँ.

उपन्यास जगह जगह व्यवस्था पर गहरी चोटेँ करता है, समाज मेँ कुचालोँ, संप्रदायवाद, दलित उद्धार के नाम पर होने वाले कांडोँ का सटीक वर्णन करता है, गाँव गाँव समाज के विघटन पर प्रकाश डालता है, मुझे जैसोँ के अंतर्तम अंतर्मन को गहराई तक छूता, कचोटता, झिँझोड़ता है.

दयानंद पांडेय की हर रचना मुझे उन की आत्मकथा ही लगती रही है. कारण है उन का शिल्प. उन की कहानियोँ उपन्यासोँ मेँ जो नाम हैँ, उन मेँ से कुछ ही हैँ जो बदले हुए हैँ, बाक़ी तो असली हैँ. कहना कठिन हो जाता है कि ये कहानियाँ हैँ या रिपोर्ताज. सब कुछ निर्मम, निष्ठुर, क्रूर… औ? ????, ???????. ?? ?? ???? ?? ???? ?? ????? ???? ?? ?? ?? ?? ?? ?? ???? ?? ??????. ?? ?? ???? ?? ?? ?? ??? ?? ?? ?? ???? ????.
??????? ?? ??? ?? ???? ???? ?? – क्या करेँ? यह सवाल मुनव्वर भाई और आनंद के मन से भी फूटा था. उपन्यास के घटना काल मेँ भी.

अब जन लोकपाल क़ानून के समर्थन मेँ अन्ना हज़ारे के अनशन के बाद हमारे सामने भी कुछ ऐसे ही सवाल हैँ:

क्या करेँ? क्या होगा?क्या हो सकता है?आंदोलनोँ से, लोकपालों से क्या भ्रष्टाचार ख़त्म किया जा सकता है?
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दयानंद पांडेय अपनी रचनाओँ मेँ जगह जगह बड़े मौजूँ और मारक शेर या कविता अंश उद्धृत करते रहते हैँ. वे जो हारे हुए मेँ कई बार उद्धृत की गई एक कविता पंक्ति है

रंगबिरंगे साँप हमारी दिल्ली मेँ – क्या कर लेँगे आप हमारी दिल्ली मेँ?

जो बड़े बड़े घाघ हैँ, मगरमच्छ हैँ, या जो छोटे मोटे पैसे ले कर ऊपर की कमाई करने वाले कर्मचारी हैँ, चाहे अस्पताल मेँ हैँ, चाहे पुलिस मेँ, बिजली के दफ़्तर मेँ, चुंगी मेँ, नगरपालिका मेँ, प्रदेश या देश की सरकार मेँ… वे बड़े आराम से, पूरी ढिठाई और बेशर्मी से, कहते नज़र आते हैँ:

रंगबिरंगे साँप हमारी दिल्ली मेँ – क्या कर लेँगे आप हमारा दिल्ली मेँ?

क़ानून और व्यवस्था कभी किसी का कुछ बिगाड़ते नज़र तो नहीँ आते. शायद नए आंदोलन कुछ सुपरिणाम दे पाएँ. लेकिन उन की माँग बस लोकपाल तक है. सिस्टम बदले बग़ैर लोकपाल ही किसी का क्या कर लेगा? सिस्टम की मूलभूत कमज़ोरी को रेखांकित करने के लिए वे जो हारे हुए मेँ एक जगह कहा गया है – ‘किसी की जवाबदेही नहीँ है.’

जब तक जवाबदेही नहीँ होती, तब तक किसी भी पार्टी की सरकार आ जाए, कितने ही आंदोलन खड़े कर लिए जाएँ, कितनी ही दूसरी आज़ादियाँ मिल जाएँ, यहाँ तक कि चाहे किसी जादू से रातोँरात अन्ना हज़ारे राष्ट्रपति, अरविंद केजरीवाल प्रधान मंत्री और किरण बेदी लोकपाल बन जाएँ, वे माफ़िया का कुछ नहीँ बिगाड़ पाएँगे. हाँ, यह हो सकता है कि सिस्टम मेँ फँस कर वे भी दिल्ली के नए रंगबिरंगे साँप बन जाएँ, फन उठा कर फुँकारने और जिस तिस को डँसने लगेँ|

( इंडिया टुडे से साभार)

समीक्षित पुस्तक-

उपन्यास – वे जो हारे हुए
उपन्यासकार – दयानंद पांडेय
प्रकाशक – जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर-9, विश्वास नगर, दिल्ली- 32
मूल्य – 400 रूपए

1 comment:

  1. बहुद सुन्दर भावपूर्ण रचना !
    JAI BHARAT !
    In past 100 years,
    Delhi has developed a lot
    but the river Yamuna has constantly decayed...
    It is time to stop destruction of Yamuna!
    In the coming new year,
    let us make a fresh beginning
    & bring back life to our beloved river Yamuna.

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