क्या आदमी इतना कृतघ्न हो गया है? खास कर हिंदी लेखक नाम का आदमी।इस में हिंदी पत्रकारों को भी जोड सकते हैं। पर फ़िलहाल यहां हम हिंदी लेखक नाम के आदमी की चर्चा कर रहे हैं क्यों कि पूरे परिदृष्य में अभी हिंदी पत्रकार इतना आत्म केंद्रित नहीं हुआ है, जितना हिंदी लेखक। हिंदी लेखक सिर्फ़ आत्म केंद्रित ही नहीं कायर भी हो गया है। कायर ही नहीं असामाजिक किस्म का प्राणी भी हो चला है। जो किसी के कटे पर क्या अपने कटे पर भी पेशाब करने को तैयार नहीं है। दुनिया भर की समस्याओं पर लफ़्फ़ाज़ी झोंकने वाला यह हिंदी लेखक अपनी किसी भी समस्या पर शुतुर्मुर्ग बन कर रेत में सिर घुसाने का आदी हो चला है। एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। ताज़ा उदाहरण अदम गोंडवी का है। अदम गोंडवी की शायरी में घुला तेज़ाब समूची व्यवस्था में खदबदाहट मचा देता है। झुलसा कर रख देता है समूची व्यवस्था को। और आज जब वह खुद लीवर सिरोसिस से तबाह हैं तो उन की शायरी पर दंभ करने वाला यह हिंदी लेखक समाज शुतुरमुर्ग बन गया है। अदम गोंडवी कुछ समय से बीमार चल रहे हैं।उन के गृह नगर गोंडा में उन का इलाज चल रहा था। पैसे की तंगी वहां भी थी। पर वहां के ज़िलाधिकारी राम बहादुर न प्रशासन के खर्च पर उन का इलाज करवाने का ज़िम्मा ले लिया था। न सिर्फ़ इलाज बल्कि उन के गांव के विकास के लिए भी राम बहादुर ने पचास लाख रुपए का बजट दिया है। लेकिन जब गोंडा में इलाज नामुमकिन हो गया तो अदम गोंडवी बच्चों से कह कर लखनऊ आ गए। बच्चों से कहा कि लखनऊ में बहुत दोस्त हैं। और दोस्त पूरी मदद करेंगे। बहुत अरमान से वह आ गए लखनऊ के पी जी आई। अपनी रवायत के मुताबिक पी जी आई ने पूरी संवेदनहीनता दिखाते हुए वह सब कुछ किया जो वह अमूमन मरीजों के साथ करता ही रहता है। अदम को खून के दस्त हो रहे थे और पी जी आई के स्वनामधन्य डाक्टर उन्हें छूने को तैयार नहीं थे। उन के पास बेड नहीं था। अदम गोंडवी ने अपने लेखक मित्रों के फ़ोन नंबर बच्चों को दिए। बच्चों ने लेखकों को फ़ोन किए। लेखकों ने खोखली संवेदना जता कर इतिश्री कर ली। मदद की बात आई तो इन लेखकों ने फिर फ़ोन उठाना भी बंद कर दिया। ऐसी खबर आज के अखबारों में छपी है। क्या लखनऊ के लेखक इतने लाचार हैं? बताना ज़रुरी है कि लखनऊ से गोंडा दो ढाई घंटे का रास्ता है। गोंडा भी उन्हें देखने कोई एक लेखक उन्हें लखनऊ से नहीं गया। हालां कि लखनऊ में करोडों की हैसियत वाले भी एक नहीं अनेक लेखक हैं। लखपति तो ज़्यादातर हैं ही। यह लेखक अमरीका और उस की बाज़ारपरस्ती पर चाहे जितनी हाय तौबा करें पर बच्चे उन के मल्टी नेशनल कंपनियों में बडी बडी नौकरियां करते हैं। दस बीस हज़ार उन के हाथ का मैल ही है। लेकिन वह अदम गोंडवी को हज़ार पांच सौ भी न देना पड जाए इलाज के लिए इस लिए अदम गोंडवी के बच्चों का फ़ोन भी नहीं उठाते। देखने जाने में तो उन की रूह भी कांप जाएगी। अब आइए ज़रा साहित्य की ठेकेदार सरकारी संस्थाओं का हाल देखें। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष का बयान छपा है कि अगर औपचारिक आवेदन आए तो वह विचार कर के पचीस हज़ार रुपए की भीख दे सकते हैं। इसी तरह उर्दू अकादमी ने भी औपचारिक आवेदन आने पर दस हज़ार रुपए देने की बात कही है। अब भाषा संस्थान के गोपाल चतुर्वेदी ने बस सहानुभूति गीत गा कर ही इतिश्री कर ली है। अब इन ठेकेदारों को यह नहीं मालूम कि अदम इलाज कराएं कि औपचारिक आवेदन ले कर इन संस्थानों से भीख मांगें। और इन दस बीस हज़ार रुपयों से भी उन का क्या इलाज होगा भला, यह इलाज करवाने वाले लोग भी जानते हैं। रही बात मायावती सरकार की तो खैर उन को इस सब से कुछ लेना देना ही नहीं। साहित्य संस्कृति से इस सरकार का वैसे भी कभी कोई सरोकार नहीं रहा। वह तो भला हो मुलायम सिंह यादव का जो उन्हों ने यह पता चलते ही कि अदम बीमार हैं और इलाज नहीं हो पा रहा है, खबर सुन कर अपने निजी सचिव जगजीवन को पचास हज़ार रुपए के साथ पी जी आई भेजा। पैसा पाते ही पी जी आई की मशीनरी भी हरकत में आ गई। और डाक्टरों ने इलाज शुरु कर दिया। मुलायम के बेटे अखिलेश का बयान भी छपा है कि अदम के पूरे इलाज का खर्च पार्टी उठाएगी। यह संतोष की बात है। कि अदम के इलाज में अब पैसे की कमी तो कम से कम नहीं ही आएगी। और अब यह जान कर कि अदम को पैसे की ज़रुरत नहीं है उन के तथाकथित लेखक मित्र भी अब शायद पहुंचें उन्हें देखने। हो सकता है कुछ मदद पेश कर उंगली कटा कर शहीद बनने की भी कवायद करें। पर अब इस से क्या हसिल होगा अदम गोंड्वी को?
अपने हिंदी लेखकों ने तो अपना चरित्र दिखा ही दिया ना !
तो क्या अब यह हिंदी के लेखक अदम गोंडवी से मिलने जाएंगे अस्पताल? पचास हज़ार ही सही उन्हें इलाज के लिए मिल तो गया ही है। आगे का अश्वासन भी। और मुझे लगता है कि आगे भी उन के इलाज में मुलायम कम से कम पैसे की दिक्कत तो नहीं ही आने देंगे। क्यों कि मुझे याद है कि इंडियन एक्सप्रेस के एस के त्रिपाठी ने मुलायम के खिलाफ़ जितना लिखा कोई सोच भी नहीं सकता।मुलायम की हिस्ट्रीशीट भी अगर आज तक किसी ने छापी तो इन्हीं एस के त्रिपाठी ने। पर इसी पी जी आई में जब एस के त्रिपाठी कैंसर से जूझ रहे थे तब मुलायम न सिर्फ़ उन्हें देखने गए थे बल्कि मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष से उन्हें दस लाख रुपए भी इलाज के लिए दिए थे। मुझे अपना इलाज भी याद है कि जब मैं अस्पताल से घर लौटा था तब जा कर पता चला कि आंख का रेटिना भी डैमेज है। किसी ने मुलायम को बताया। तब वह दिल्ली में थे। मुझे फ़ोन किया और कहा कि, 'पांडेय जी घबराइएगा नहीं, दुनिया में जहां भी इलाज हो सके कराइए। मैं हूं आप के साथ। सब खर्च मेरे ऊपर।' हालां कि कहीं बाहर जाने की ज़रुरत नहीं पडी। इलाज हो गया। लखनऊ में ही। वह फिर बाद में न सिर्फ़ मिलने आए बल्कि काफी दिनों तक किसी न किसी को भेजते रहे थे। मेरा हालचाल लेने। पर हां, बताना तकलीफ़देह ही है पर बता रहा हूं कि मेरे परिचित लेखकों में से [मित्र नहीं कह सकता आज भी] कभी कोई मेरा हाल लेने नहीं आया। मैं तो खैर जीवित हूं पर कानपुर की एक लेखिका डा सुमति अय्यर की ५ नवंबर, १९९३ में निर्मम हत्या हो गई। आज तक उन हत्यारों का कुछ अता-पता नहीं चला। सुमति अय्यर के एक भाई हैं आर सुंदर। पत्रकार हैं। उन्हों ने इस के लिए बहुत लंबी लडाई लडी कि हत्यारे पकडे जाएं। पर अकेले लडी। कोई भी लेखक और पत्रकार उन के साथ उस लडाई में नहीं खडा हुआ। एक बार उन्हों ने आजिज आ कर राज्यपाल को ग्यापन देने के लिए कुछ लेखकों और पत्रकारों से आग्रह किया। वह राजभवन पर घंटों लोगों का इंतज़ार करते खडे रहे। पर कोई एक नहीं आया। सुंदर बिना ग्यापन दिया लौट आए। राजभवन से। और बहन के हत्यारों के खिलाफ़ लडाई बंद कर दी। लेकिन वह टीस अभी भी उन के सीने में नागफनी सी चुभती रहती है कि क्यों नहीं आया कोई उस दिन राजभवन ग्यापन देने के लिए ! तो अदम गोंडवी आप ऐसे हिंदी लेखक समाज में रहते हैं जो संवेदनहीनता और स्वार्थ के जाल में उलझा पैसों, पुरस्कारों और जुगाड के वशीभूत आत्मकेंद्रित जीवन जीता है और जब माइक या कोई और मौका हाथ में आता है तो पाठक नहीं हैं का रोना रोता है। समाज से कट चुका यह हिंदी लेखक अगर आप की अनदेखी करता है तो उस पर तरस मत खाइए। न खीझ दिखाइए। अमरीकापरस्ती को गरियाते - गरियाते अब यह लेखक अमरीकी गूगल और फ़ेसबुक की बिसात पर क्रांति के गीत गाता है। और ऐसे समाज की कल्पना करता है जो उसे झुक झुक कर सलाम करे। फासीवाद का विरोध करते करते आप का यह लेखक समाज खुद बडा फ़ासिस्ट बन गया है अदम गोंड्वी ! आप गज़ल लिखते हैं तो एक गज़ल के एक शेर में ही बात को सुनिए, ' पत्थर के शहर,पत्थर के खुदा, पत्थर के ही इंसा पाए हैं/ तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं !' तो आमीन अदम गोंड्वी, आमीन !
[2] अदम के बाद
अदम गोंडवी आज सुबह क्या गए लगता है हिंदी कविता की सुबह का अवसान हो गया। हिंदी कविता में नकली उजाला, नकली अंधेरा, बिंब, प्रतीक, फूल, पत्ती, चिडिया, गौरैया, प्रकृति, पहाड आदि देखने- बटोरने और बेचने वाले तो तमाम मिल जाएंगे पर वह मटमैली दुनिया की बातें बेलागी और बेबाकी के साथ करने वाले अदम को अब कहां पाएंगे? कबीर सा वह बांकपन, धूमिल सा वह मुहावरा, और दुष्यंत सा वह टटकापन सब कुछ एक साथ वह सहेजते थे और लिखते थे - गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे/पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें। अब कौन लिखेगा- जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/ कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे। या फिर काजू भुनी प्लेट मे ह्विस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में। या फिर, जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में/ परधान बन के आ गए अगली कतार में।
गुज़रे सोमवार जब वह आए तभी उनकी हालत देख कर अंदाज़ा हो गया था कि बचना उन का नमुमकिन है। तो भी इतनी जल्दी गुज़र जाएंगे हमारे बीच से वह यह अंदाज़ा नहीं था। वह तो कहते थे यूं समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी गज़ल में। और जो वह एशियाई हुस्न की तसवीर लिए अपनी गज़लों में घूमते थे और कहते थे कि, आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में/ मैं रहूं न रहूं भूख मेज़बां होगी। और जिस सादगी से, जिस बुलंदी और जिस टटकेपन के ताव में कहते थे, जिस निश्छलता और जिस अबोधपन को जीते थे कविता और जीवन दोनों में अब वह दुर्लभ है। तुम्हारी फ़ाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आंकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है। या फिर ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चांद-आइना-गुलाब/भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब। उनके शेरों की ताकत देखिए और फिर उनकी सादगी भी। देखता हूं कि लोग दू ठो कविता, दू ठो कहानी या अलोचना लिख कर जिस अहंकार के सागर में कूद जाते हैं और फ़तवेबाज़ी में महारत हासिल कर लेते हैं इस बेशर्मी से कि पूछिए मत देख कर उबकाई आती है। पर अदम इस सब से कोसों दूर ठेंठ गंवई अंदाज़ में धोती खुंटियाये ऐसे खडे हो जाते थे कि उन पर प्यार आ जाता था। मन आदर और श्रद्धा से भर जाता था। और वो जो शमशेर कहते थे कि बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही को साकार करते जब उन की गज़लें बोलती थी और प्याज की परत दर परत भेद खोलती थीं, व्यवस्था और समाज की तो लोग विभोर हो जाते थे। हम जैसे लोग न्यौछावर हो जाते थे।
अदम मोटा पहनते ज़रूर थे पर बात बहुत महीन करते थे। उनके शेर जैसे व्यवस्था और समाज के खोखलेपन और दोहरेपन पर तेज़ाब डालते थे। वह उनमें से नहीं थे कि कांख भी छुपी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे। वह तो जब मुट्ठी तानते थे तो उनकी कांख भी दीखती ही थी। वह वैसे ही नहीं कहते थे कि- वर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी गज़ल। तो गज़ल को जामो मीना से निकाल कर शमशीर की शक्ल देना और कहीं उस पर पूरी धार चढा कर पूरी ताकत से वार भी करना किसी को जो सीखना हो तो अदम से सीखे। हां वह व्यवस्था से अब इतना उकता गए थे कि उनकी गज़लों में भूख और लाचारी के साथ साथ नक्सलवाद की पैरवी भी खुले आम थी। उन का एक शेर है- ये नई पीढी पे मबनी है वही जजमेंट दे/ फ़लसफ़ा गांधी का मौजू है के नक्सलवाद है। वह यहीं नहीं रुके और लिख गए कि -लगी है होड सी देखो अमीरों और गरीबों में/ ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है/ तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के/ यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।
अदम के पास अगर कुछ था तो बेबाक गज़लों की जागीर ही थी। और वही जागीर वह हम सब के लिए छोड गए हैं। और बता गए हैं कि - घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/ बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है। वह तो बता गए हैं - भीख का ले कर कटोरा चांद पर जाने की ज़िद / ये अदा ये बांकपन ये लंतरानी देखिए/ मुल्क जाए भाड में इससे इन्हें मतलब नहीं/ कुर्सी से चिपटे हुए हैं जांफ़िसानी देखिए। वह बताते भी थे कि अदम के साथ गमों की बरात होती है। तो लोग ज़रा नहीं पूरा बिदक जाते थे। घुटनों तक धोती उठाए वह निपट किसान लगते भी थे। पर जब कवि सम्मेलनों में वह ठेंठ गंवई अंदाज़ में खड़े होते थे तो वो जो कहते हैं कि कवि सम्मेलन हो या मुशायरा लूट ले जाते थे। पर यह एक स्थिति थी। ज़मीनी हकीकत एक और थी कि कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उन्हें वाहवाही भले सब से ज़्यादा मिलती थी, मानदेय कहिए, पारिश्रमिक कहिए उन्हें सब से कम मिलता था। लतीफ़ेबाज़ और गलेबाज़ हज़ारों में लेते थे पर अदम को कुछ सौ या मार्गव्यय ही नसीब होता था। वह कभी किसी से इसकी शिकायत भी नहीं करते थे। रोडवेज की बस या रेलगाडी के जनरल डब्बे में सवारी बन कर चलना उन की आदत थी। वह आम आदमी की बात सिर्फ़ कहते भर नहीं, आम आदमी बन कर रहते जीते भी थे। उन के पांव की बिवाइयां इस बात की बराबर चुगली भी खाती थीं। वह वैसे ही नहीं लिख गए कि, भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो/ या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो/ जो गज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई/ उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो। और वह बेवा की माथे की शिकन से और आगे भी गज़ल को ले भी आए इस बात का हिंदी जगत को फख्र होना चाहिए। उनकी शुरुआत ही हुई थी चमारों की गली से। कि- ''आइए, महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को/ मैं चमारो की गली तक ले चलूंगा आप को''। इसी कविता ने अदम को पहचान दी। फिर ''काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में'' शेर ने उन्हें दुनिया भर में परिचित करवा दिया। उनकी तूती बोलने लगी। फिर तो वह हिंदी गज़ल की मुकम्मल पहचान बन गए।
उर्दू वालों ने भी उन्हें सिर माथे बिठाया और उनकी तुलना मज़ाज़ से होने लगी। ''समय से मुठभेड़'' नाम से जब उनका संग्रह आया तो सोचिए कि विजय बहादुर सिंह ने लंबी भूमिका लिखी और उन्हें फ़िराक, जोश और मज़ाज़ के बराबर बिठाया। हिंदी और उर्दू दोनों में उनके कद्रदान बहुतेरे हो गए। तो भी अदम असल में खेमे और खाने में भी कभी नहीं रहे। लोग लोकप्रिय होते हैं वह जनप्रिय थे, जनवाद की गज़ल गुनगुनाने और जनवाद ही को जीने ओढने और बिछाने वाले। यह अनायास नहीं था कि उनके पास इलाज के लिए न पैसे थे न लोगबाग। अपने जन्म दिन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में मुलायम भी उनकी सादी और बेबाक गज़लों पर रीझ जाते थे। मुलायम उन्हें भूले नहीं। अबकी जब वह बीमार पडे तो न सिर्फ़ सब से पहले उन्होंने इलाज खर्च के लिए हाथ बढाया बल्कि आज सुबह जब पांच बजे उनके निधन की खबर आई तो आठ बजे ही मुलायम सिंह पीजीआई पहुंच भी गए। बसपा की रैली की झंझट के बावजूद। न सिर्फ़ पहुंचे उन का पार्थिव शरीर गोंडा में उन के पैतृक गांव भिजवाने के लिए सारा प्रबंध भी करवाया। लखनऊ से गोंडा तक रास्ते भर लोगों ने उनका पार्थिव शरीर रोक रोक कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। लखनऊ में भी बहुतेरे लेखक और संस्कृतिकर्मियों समाजसेवियों ने उन्हें पालिटेक्निक चौराहे पर श्रद्धांजलि दी। उनके एक भतीजे को पानीपत से आना है। सो अंत्येष्टि कल होगी। अदम अब नहीं हैं पर कर्जे में डूब कर गए हैं। तीन लाख से अधिक का कर्ज़ है। किसान सोसाइटी से डेढ लाख लिए थे अब सूद लग कर तीन लाख हो गए हैं। रिकवरी को लेकर उनके साथ बदतमीजी हो चुकी है। ज़मीन उनके गांव के दबंगों ने दबा रखी है। है कोई उनके जाने के बाद भी उन के परिवारीजनों को इस सब से मुक्ति दिलाने वाला? एक बात और। अदम गोंडवी का निधन लीवर सिरोसिस से हुआ है। यह सभी जानते हैं। पर यह लीवर सीरोसिस उन्हें कैसे हुई कम लोग जानते हैं। वह ट्रेन से दिल्ली से आ रहे थे कि रास्ते में उनके साथ जहर खुरानी हो गई। वह होश में तो आए पर लीवर डैमेज करके। जाने क्या चीज़ जहरखुरानों ने उन्हें खिला दी। पर अब जब वह बीमार हो कर आए तो उन की मयकशी ही चरचा में रही। यह भी खेदजनक था। उनके ही एक मिसरे में कहूं तो- आंख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे। तो कोई कुछ भी नहीं कर सकता। उनके एक शेर में ही बात खत्म करुं कि, एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए/ चार छै चमचे रहें माइक रहे माला रहे। अब यह बात हर हलके में शुमार है अदम गोंडवी, यह भी आप जान कर ही गए होंगे। पर क्या कीजिएगा गीतों के राजकुमार भारत भूषण का भी अभी निधन हुआ है। उन का एक गीत है कि ये असंगति ज़िंदगी के साथ बार बार रोई/ चाह में और कोई/ बांह में और कोई! तो यह अदम के साथ भी हो गया। दोनों रचनाकारों को हमारी भाव-भीनी श्रद्धांजलि !
अदम जी के ये संस्मरण आप ने बड़े मनोयोग से लिखे हैं , जिन से कवि का व्यक्तित्त्व
ReplyDeleteऔर कृतित्त्व जीवन्त हो उठा है । पर आश्चर्य है कि सन २०१२ से लेकर अब तक इन पर
किसी ने टिप्पणी नहीं लिखी ।
आपकी लेखनी का स्तर बहुत उच्च है, लेकिन इतने उच्च स्तर के लेखन के पाठक अब बहुत कम हैं...
ReplyDeleteनिसंदेह आपने जो विचार व्यक्त किये हैं उससे भी कहीं अधिक प्रभावी व्यक्तित्व था नहीं वल्कि है जो उनके चाहने वालों का हमेशा मार्गदर्शन करता रहेगा . साहित्यकर्मी हमेशा अपने रचनाओं से अस्तित्व में रहता है इसलिए मेरे विचार से उसके लिए कभी भी था का प्रयोग नहीं कर सकते
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteMulayam Singh yadav bhi apne purane sathi ko bhool chuke hai. Adam ji ko padm vibhushan diye jane ki tatkalin DM Ram Bahahur ki sanstuti aaj bhi Gopan Vibhag me dhool chat rahi hai. Kitna achchha hota yadi vah bharat sarkar ko jati aur Adam ji ko marnoprant hi sahi, Padm Vibhushan milta.
ReplyDeleteनमस्कार! फेसबुक पर आज इस संसमरण का लिंक मिल गया. "सरोकारनामा" और आपकी प्रस्तुति दोनों स्तुत्य हैं.
ReplyDeleteनमस्कार.
बहुत मनभावन। यह मेरे लिए परम सौभाग्य का विषय है कि मैंने अदम गोंडवी जी और भारत भूषण जी दोनों के साथ बतौर युवा कवि कई काव्य मंच साझा किए और उनका आशीर्वाद पाया। दोनों ही बेहद विनम्र, मिलनसार और अत्यंत सज्जन पुरुष थे। कवि तो ख़ैर श्रेष्ठ थे ही। दुनिया जानती है।
ReplyDeleteजीवन दे
ReplyDeleteनिर्मल दे,अविरल दे,
मन सोख सही,चंचल दे। की प्रार्थना करने वाले कवि को मेरा शत शत नमन।