Friday 27 January 2012

जीते जी मर जाना और करियर का मर जाना


अशोक और धर्मेंद्र के बहाने कुछ बातें : हम अभिशप्त हैं बीवी-बच्चों को लावारिस छोड़ जाने के लिए : चाहे एसपी हों या एसपी त्रिपाठी, सहयोगियों के हितों के खिलाफ अखबार मालिकानों को बुद्धि देने वाली इन प्रजातियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है : ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे-कैसे! धर्मेंद्र सिंह की पत्रकारिता में और अशोक उपाध्याय की जीवन में मौत मुश्किल में डालने वाली है। दोनों ही खबरें क्रिसमस क्लांत कर गईं। मैं दोनों साथियों से परिचित नहीं हूं पर दोनों की तकलीफों से खूब परिचित हूं। हालांकि पत्रकारिता में बंधुआ होने की परंपरा की यह दैनंदिन घटनाएं हैं।
फिर भी बेचैन करती हैं। अशोक जी को तो काल ने छीन लिया, भगवान उन की आत्मा को शांति दे और परिजनों को बिछोह बर्दाश्त करने की ताकत। पर धर्मेंद्र सिह से क्या कहूं? समझ नहीं आता। जीते जी मर जाना, कैरियर का मर जाना, इस की यातना, इसकी मार को हममें से बहुतेरे जानते हैं। कह नहीं पाते, कहते नहीं। दोनों बातें हैं। लेकिन हैं कौन लोग जो यह यातना की पोटली हमें थमा देते हैं कि लो और भुगतो। क्या सिर्फ़ अखबार मालिक और पूंजीपति? जी नहीं। यह दीमक हमारे भीतर से ही निकलते हैं। ये कुकुरमुत्ते हमारे ही घूरे से निकलते हैं और गुलाब बन कर इतराने लगते हैं। और अचानक एक दिन ये इतने बडे़ हो जाते हैं कि हमारे दैनंदिन जीवन में हमारे लिए रश्क का सबब बन बैठते हैं। हमारे भाग्य विधाता बन जाते हैं।
ज़्यादा नहीं एक दशक पहले अखबारों में डीटीपी आपरेटर हुआ करते थे। कहां गए अब? अब सब-एडीटर कंपोज भी कर रहा है, पेज़ भी बना रहा है। अखबारों से भाषा का स्वाद बिसर गया तो क्या हुआ? गलतियां हो रही हैं, खबर कहीं से कहीं कट पेस्ट हुई जा रही है तो पूछता कौन है? अखबार मालिक का तो पैसा बच गया न ! चार आदमी के काम को एक आदमी कर रहा है। और क्या चाहिए? अखबार नष्ट हो रहा है तो क्या हुआ?
अखबार में विज्ञापन कम हो रहा था, तो यह ऐडवोटोरियल की बुद्धि अखबार मालिकों को किसने दी? फिर खुल्लमखुल्ला पैसे लेकर खबरें छापने का पैकेज भी किसने बताया अखबार मालिकों को? मंदी नहीं थी अखबारों में फिर भी मंदी के नाम पर आपके पैसे कम करने, और जो आप भन्नाएं तो आप को ट्रांसफ़र करने या निकाल देने की बुद्धि भी किसने दी अखबार मालिकों को?
अरे भाई, अभी भी नहीं समझे आप? आप जान भी नहीं पाए? अच्छा जब हमारी सेलरी लाखों में पहुंची, लग्ज़री कारों में हम चलने लगे, आकाशीय उडानें भरने लगे बातों में भी और यात्राओं में भी। और ये देखिए आप तो हमारे पैर भी छूने लगे, हमारे तलवे भी चाटने लगे और फिर भी नहीं जान पाए? अभी भी नहीं जान पाए? अरे मेरे भाइयों, हमी ने दी। ये धर्मेंद्र सिंह जैसों की फ़ौज़ भी हमीं ने खड़ी की। अब हम भी क्या करें, हमारे ऊपर भी प्रबंधन का दबाव था, है ही, लगातार। तो भैया हम बन गए बडे़ वाले अल्सेसियन और आप को बना दिया गलियों वाला कुता। बंधुआ कुत्ता। जो भूंक भी नहीं सकता। भूख लगने पर। खुद बधिया बने तो आप को भी बंधुआ बनाया।
बहुत हो गई भूल भूलैया। आइए कुछ वाकए भी याद कर लें। शुरुआती दिनों के।
अब तो स्वतंत्र भारत और पायनियर बरबाद अखबारों में शुमार हैं। और कि अलग-अलग हैं। पहले के दिनों में पायनियर लिमिटेड के अखबार थे ये दोनों। जयपुरिया परिवार का स्वामित्व था। और कि कहने में अच्छा लगता है कि तब यह दोनों अखबार उत्तर प्रदेश के सबसे बडे़ अखबार के रूप मे शुमार थे। हर लिहाज़ से। सर्कुलेशन में तो थे ही, बेस्ट पे मास्टर भी थे। पालेकर, बछावत लागू थे। बिना किसी इफ़-बट के। लखनऊ और बनारस से दोनों अखबार छपते थे। बाद में मुरादाबाद और कानपुर से भी छपे।
तो कानपुर स्वतंत्र भारत में सत्यप्रकाश त्रिपाठी आए। कानपुर के ही रहने वाले थे। कानपुर जागरण से जनसत्ता, दिल्ली गए थे। वाया जनसत्ता स्वतंत्र भारत कानपुर आए रेज़ीडेंट एडीटर बन कर। लखनऊ और बनारस में वेज़बोर्ड के हिसाब से सबको वेतन मिलता था। पर सत्यप्रकाश त्रिपाठी ने यहां नई कंपनी बनाने की तज़वीज़ दी जयपुरिया को। ज्ञानोदय प्रकाशन। और सहयोगियों को कंसोलिडेटेड वेतन पर रखा। किसी को वेतनमान नहीं। तब पालेकर का ज़माना था। तो जितना लखनऊ में एक सब एडीटर को मिलता था लगभग उसी के आस-पास वहां भी मिला। पर पी.एफ़, ग्रेच्युटी आदि सुविधाओं से वंचित। जल्दी ही बछावत लागू हो गया। अब कानपुर के सहयोगियों का हक मारा गया। बेचारे बहुत पीछे रह गए। औने-पौने में। खुद जयपुरिया को यह बुद्धि देने वाले सत्यप्रकाश त्रिपाठी भी लखनऊ के चीफ़ सब से भी कम वेतन पर हो गए। साथ में वह जनसत्ता से अमित प्रकाश सिंह को भी ले आए थे समाचार संपादक बना कर। सबसे पहले उन का ही मोहभंग हुआ। वह जनसत्ता से अपना वेतन जोड़ते, नफ़ा नुकसान जोड़ते और सत्यप्रकाश त्रिपाठी की ऐसी तैसी करते। वह जल्दी ही वापस जनसत्ता चले गए। कुछ और साथी भी इधर उधर हो गए। बाद के दिनों में स्वतंत्र भारत पर थापर ग्रुप का स्वामित्व हो गया। अंतत: सत्यप्रकाश त्रिपाठी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। हालांकि उन्होंने प्रबंधन के आगे लेटने की इक्सरसाइज़ भी बहुत की। पर बात बनी नहीं।
जाते समय एक बार वह लखनऊ आए और वह भी अपना पी.एफ़ ग्रेच्युटी वगैरह अमित प्रकाश सिंह की तरह जनसत्ता से तुलनात्मक ढंग से जोडने लगे और कहने लगे कि मेरा तो इतना नुकसान हो गया। जब यह बात उन्होंने कई बार दुहराई तो मुझ से रहा नहीं गया। उनसे पूछा कि यह बताइए कि जयपुरिया को यह बुद्धि किसने दी थी? और फिर आप सिर्फ़ अपने को ही क्यों जोड़ रहे हैं? अपने उन साथियों को क्यों भूल जा रहे है? आपने तो संपादक बनने की साध पूरी कर ली, पर वह सब बिचारे? उनका क्या कुसूर था? उन सबको जिनको आपने छला? और तो और एक गलत परंपरा की शुरुआत कर दी सो अलग !
वह चुप रह गए।
सत्यप्रकाश त्रिपाठी का अंतर्विरोध देखिए कि वह कई बार प्रभाष जोशी बनने का स्वांग करते। जोशी जी की ही तरह लिखने की कोशिश करते। फ्रंट पेज़ एडीटॊरियल लिखने का जैसे उन्हें मीनिया सा था। भले ही कानपुर रेलवे स्टेशन की गंदगी पर वह लिख रहे हों पर जोशी जी की तरह उस में 'अपन' शब्द ज़रूर ठोंक देते। जबकि कानपुर का 'अपन' शब्द से कोई लेना-देना नहीं था। वह तो जोशी जी के मध्य प्रदेश से आता है। उनके इस फ़्रंट पेज़ एडीटोरियल मीनिया पर लखनऊ के साक्षर संपादक राजनाथ सिंह जो तब लायजनिंग की काबिलियत पर संपादक बनवाए गए थे, एक जातिवादी मुख्यमंत्री की सिफ़ारिश पर, अक्सर उन्हें नोटिस भेज देते थे। अंतत: वह एडीटोरियल की जगह बाटम लिखने लगे। खैर, जोशी जी बनने का मीनिया पालने वाले सत्यप्रकाश त्रिपाठी जोशी जी की उदारता नहीं सीख पाए, न उनके जैसा कद बना पाए| पर हां, जयपुरिया की आंखों में चढ़ने के लिए अपने साथियों का अहित ज़रूर कर गए। अपना तो कर ही गए। जोशी जी ने गोयनका की आंखों में चढने के लिए सहयोगियों का वेतन नहीं कम किया। हां, एक बार अपना बढा हुआ वेतन, सुनता हूं कि ज़रूर लेने से इंकार किया। यहीं कमलेश्वर भी याद आ रहे हैं। एक संस्थान में एक महाप्रबंधक ने उनसे कुछ सहयोगियों को हटाने के लिए कहा। पर कमलेश्वर जी टाल गए। पर जब दुबारा उस महाप्रबंधक ने सहयोगियों को फिर से हटाने के लिए कहा तो कमलेश्वर जी ने खुद इस्तीफ़ा दे दिया। पर सहयोगियों पर आंच नहीं आने दी। पर बाद में स्थितियां बद से बदतर हो गईं। रक्षक ही भक्षक बनने लगे।
पत्रकारों के एक मसीहा हुए हैं सुरेंद्र प्रताप सिंह। रविवार के उनके कार्यकाल पर तो उन्हें जितना सलाम किया जाए, कम है। पर नवभारत टाइम्स में उन्होंने क्या-क्या किया? विद्यानिवास मिश्र जैसे विद्वान को उन्होंने सहयोगियों को भड़का-भड़का कर गालियां दिलवाईं। उनको वह प्रधान संपादक स्वीकार ही नहीं पाए। चलिए आगे सुनिए। समीर जैन को खुश करने के लिए उसी नवभारत टाइम्स में इन्हीं सुरेंद्र प्रताप सिंह ने पंद्रह सौ से दो हज़ार रुपए में स्ट्रिंगर रखे, खबर लिखने के लिए। तब जब वहां विशेष संवाददाता को उस समय दो हज़ार रुपए कनवेंस एलाऊंस मिलता था। वरिष्ठों की खबरें काट-काट कर फेंक देते, उन्हें अपमानित करते, इन स्ट्रिंगर्स की खबर उछाल कर छापते। इन्हीं उठापटक और राजनीति में नवभारत टाइम्स लखनऊ बंद हो गया। और भी ऐसे कई काम इन एसपी ने किए जो सहयोगियों के हित में नहीं थे। लेकिन वह लगातार करते रहे। और अंतत: जब अपने पर बन आई तो उसी टाइम्स प्रबंधन के खिलाफ संसद में सवाल उठवाने लग गए। यह वही सुरेंद्र प्रताप सिंह थे जिनका प्रताप उन दिनों इतना था कि वह अक्सर दिल्ली से लखनऊ सिर्फ़ शराब पीने आते थे राजकीय विमान से। रात नौ बजे आते और बारह बजे तक लौट भी जाते। 45 मिनट की फ़्लाइट होती थी। और तबके मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से दोस्ती भी निभ जाती थी। वे दिन मंडल की पैरोकारी के दिन थे उनके। सो चांदी कट रही थी। और गरीबों की बात भी हो रही थी। वाया राजकीय विमान और शराब। और कि देखिए न, उनके चेले भी आजकल क्या-क्या नहीं कर रहे हैं?
खैर, चाहे पत्रकारों के मसीहा एसपी हों या छुट्भैय्या सत्यप्रकाश त्रिपाठी हों, इन प्रजातियों की अखबार मालिकानों को सहयोगियों के हितों के खिलाफ बुद्धि देने वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। अनुपात वही यहां भी है जो देश में गरीबों और अमीरों के बीच है। जैसे देश के ज़्यादतर लोग बीस रुपए भी नही कमा पाते रोज और खरबपतियों की संख्या बढती जाती है। ठीक वैसे ही धर्मेंद्र सिंह जैसों की संख्या बढती जाती है और दूसरी तरफ अपने अल्सेसियंस की भी। नहीं समझे? अरे बुद्धि देने वालों की भाई!
धर्मेंद्र सिह ने अपनी यातना कथा में भी कुछ अपने मसीहा लोगों का ज़िक्र किया है। अरे भैय्या धर्मेंद्र, यह सभी छुटभय्या मसीहा भी उन्हीं बुद्धि देने वालों की कतार में हैं। यहीं धूमिल याद आ रहे हैं:
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी सेंकता है
एक तीसरा आदमी और है
जो इस रोटी से खेलता है
मैं पूछ्ता हूं
यह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है
तो मेरे भाई ज़रूरत इस तीसरे आदमी के शिनाख्त की है। पलायन की नहीं। देखिए अब यहीं देवेंद्र कुमार भी याद आ रहे हैं। उन की एक लंबी कविता है- बहस ज़रूरी है। उस में एक जगह वह लिखते हैं
रानी पद्मावती का इतिहास तुम ने सुना होगा
बीस हज़ार रानियों के साथ जल कर मरने के बजाय
जो वह लड कर मरी होती
तो शायद तुम्हारा और देश का इतिहास.
कुछ और होता
हम असल में इतिहास से सबक नही लेते, गलती हमारी है। नतीज़ा सामने है। कभी हम धर्मेंद्र सिंह की तरह बता कर मरते हैं तो कभी अशोक उपाध्याय की तरह खामोश। जैसे हम अभिशप्त हो गए हैं। बीवी-बच्चों को लावारिस छोड़ जाने के लिए। अपनी ज़िंदगी होम कर पूंजीपतियों और भडुओं की तिजोरी भर जाने के लिए। ये पद्मश्री, पद्मभूषण का खिताब लेकर भोगेंगे, हम गांव मे गोबर बटोरने चले जाएंगे। पता नहीं धर्मेंद्र सिंह के गांव में गोबर है भी कि नहीं। हमारे गांव में तो गोबर भी अब नहीं है, काछने के लिए। हल बैल की खेती ही खतम हुए ज़माना हो गया। किराए का ट्रैक्टर आ कर जोत देता है, किराए का ही कंबाइन आ कर काट देता है। तो गोबर कहां से रहेगा? हां गांव में गरीबी है, पट्टीदारी है और माफ़ करें दुरूपयोग की हद पार करते हुए हरिजन ऎक्ट भी है। गरज यह कि जितने फन उतनी फ़ुंफकारें ! इतने साल बधिया बन कर व्यर्थ की ही सही पत्रकारिता कर, शहर में रहने के बाद अब गांव में? कैसे रहेंगे गांव में भी धर्मेन्द्र सिंह? बिजली के अभाव में, मच्छर के प्रभाव में। और फिर जो गांव वाले अज्ञेय जी की कविता में प्रतिप्रश्न कर बैठें-
सर्प तुम नगर में गए भी नहीं
न ही सीखा तुमने वहां बसना
फिर कहां से तुम ने विष पाया
और कहां से सीखा डंसना
और मेरे गांव में तो नहीं पर पास के एक गांव में दो साल पहले एक आदमी मुंबई में राज ठाकरे के गुंडों से पिट कर गांव की शरण में वापस आ गया। यहां भी गांव वालों ने उसे ताने दे दे कर आज़िज़ कर दिया। अपनों के ही ताने सुन-सुन कर वह बेचारा एक दिन, एक पेड से लटका मिला।
तो मेरे भाई धर्मेंद्र सिंह ज़रा गांव भी बच कर जाइएगा।

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