दयानंद पांडेय
उन दिनों मैं दिल्ली छोड़ कर लखनऊ आया था। 1985 की बात है। जनसत्ता , दिल्ली से स्वतंत्र भारत , लखनऊ । जैसे जनसत्ता इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का अख़बार था , वैसे ही स्वतंत्र भारत , पायनियर ग्रुप का। दिल्ली में प्रभाष जोशी के बावजूद जनसत्ता पर इंडियन एक्सप्रेस का रौब सर्वदा ग़ालिब रहता था। प्रणय रॉय की पत्नी राधिका रॉय उन दिनों इंडियन एक्सप्रेस में चीफ़ सब एडीटर थीं। तब विवाह नहीं हुआ था। मित्रता चल रही थी। प्रभाष जोशी मीटिंग में कई बार के काम की तारीफ़ करते मिलते थे। ख़ास कर उन की पेज मेकिंग के सेंस की। फाइनेंशियल एक्सप्रेस में सुनंदा थीं। राधिका और सुनंदा दोनों ही धुआंधार सिगरेट पीती रहती थीं। चेन स्मोकर। अलोक तोमर अकसर बड़ी हसरत से दोनों के पास जाता था। सिगरेट पी कर लौटता था। कई बार हम भी। कई बार आलोक के साथ , कभी-कभार अकेले भी। दोनों ही हम दोनों से उम्र में बड़ी थीं और हम दोनों अविवाहित। जवानी में क़दम रख रहे थे । पर आलोक अकसर फ्लर्ट पर आ जाता था। मुसाफ़िर हूं यारो , गाता हुआ , लौटता था। सुनंदा के पति गल्फ में थे। तो आलोक वहां अवसर भी तलाशता था। मिलता नहीं था। सुनंदा शाम को एक्सप्रेस कोर्ट में बैंडमिंटन रोज खेलती थीं। शाम को। उन को खेलते देखने के लिए बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग से गुज़रते लोग जैसे ठहर जाते थे। कुछ नियमित दर्शक थे। सुनंदा के पहले ही पहुंच जाते थे।
लखनऊ के पायनियर में ऐसा कुछ नहीं था। पायनियर का रौब स्वतंत्र भारत पर नहीं , बल्कि स्वतंत्र भारत का रौब पायनियर पर ग़ालिब था। स्वतंत्र भारत तब लखनऊ में रोज सवा लाख छपता था। स्त्रियां थीं पायनियर में भी तीन-चार। पर एक्सप्रेस ग्रुप वाली बात नहीं थीं। न ही यहां कोई आलोक तोमर जैसा सदाबहार दोस्त था। पर एक अप्रैंटिस थे , पायनियर में । ख़ूब गोरे-चिट्टे। सर्वदा अंगरेजी बोलते हुए। सिगरेट पीते हुए। किसी अंग्रेजीदां की तरह कंधे उचकाते हुए। कभी-कभार वह सिगरेट पेश भी करते रहते थे। बहुत अदब से सर-सर ! कहते हुए मिलते। उन की अदा और आदत देखते हुए अचानक एक दिन मेरे मुंह से निकल गया , आइए वानर नरेश ! यह सुन कर वह बहुत ख़ुश हुए। सीने पर हाथ रख कर , सिर झुका कर उन्हों ने मेरा अभिवादन किया। उन का अंग-अंग कृतार्थ था जैसे। वानर नरेश कह देने से। सिगरेट पेश किया। चले गए।
उन दिनों दूरदर्शन पर रामायण आता था। अब अकसर उन्हें देखते ही मैं वानर नरेश कह कर संबोधित करता और वह ग्लैड हो जाते। एक दिन वह धीरे से मुझ से पूछने लगे , सर , नरेश मींस ? मैं ने उन्हें बताया कि किंग ! वह और ज़्यादा खुश हो गए। अब तीन-चार और लोग उन्हें वानर नरेश कह कर संबोधित करने लगे। लेकिन मैं जिस गंभीरता से मैं उन्हें वानर नरेश कहता , लोग उस गंभीरता को त्याग कर मनोरंजन भाव में वानर नरेश कहते थे। अब मैं भी जब कभी संजीदगी से ही उन को वानर नरेश कहता तो उन को कुछ अटपटा सा लगने लगता। सिर फिर भी झुकाते रहे वह। पर वह लोच ग़ायब दीखती। अब तक वह अप्रैंटिश से कंफर्म हो चुके थे। हिंदी भी बोलने लगे थे , कभी-कभार। किसी दिन एक मदिरा महफ़िल में एक सहयोगी से उन्हों ने पूछ लिया नरेश मींस किंग ? सहयोगी बोला , यस ! फिर उन्हों ने पूछा , वानर मींस ? सहयोगी हंसते हुए बोला , मंकी ! उन्हों ने दुबारा प्रति प्रश्न किया , श्योर ? सहयोगी ने बताया , श्योर !
उस वक़्त वह सिर हिला कर ख़ामोश रह गए।
पर दूसरे दिन शाम को वह अचानक मेरे पास आए। मैं ख़बर लिख रहा था। वह मेरे सामने कुर्सी खींच कर बैठ गए। हमेशा की तरह गुड इवनिंग भी नहीं बोले। गुस्से से भरे हुए थे। पर धीरे से बोले , सर , आप मुझे मंकी समझते हैं ? मंकी किंग ? उन का वश चलता तो मेरे साथ हिंसक हो जाते। पर एक तो दफ़्तर था , दूसरे मेरे लिए कुछ सम्मान उन के मन में शेष था। मैं समझ गया कि जनाब को किसी ने भड़का दिया है। मैं ने कहा , नो नरेश ! वानर शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। तो थोड़ा वह सहज हुए। पर बोले , सर मैं आप की इतनी रिस्पेक्ट करता हूं और आप मुझे इंसल्ट करते हैं , मंकी कह कर ? मैं ने उन से कहा , आप कभी रामायण देखते हैं ? वह बोले , कभी-कभी ! मैं ने उन से कहा , कभी देखिए और पता कीजिए , रामायण में भगवान राम किसे कहते हैं , वानर नरेश ? रामायण का करेक्टर है , वानर नरेश।
मैं ने उन्हें समझाया कि जिस ने आप को भड़काया है , आप के हमारे संबंध नहीं जानता। आप नरेश हैं , नरेश ही रहेंगे। मतलब किंग ही रहेंगे। वह कहने लगे , राइट सर , राइट ! बट प्लीज़ डोंट से वानर नरेश ! मैं ने उन से कहा , ओ के ! उन के चेहरे पर थोड़ी ख़ुशी आई। सिर झुकाया , जेब से सिगरेट निकाली , मुझे पेश की , लाइटर से सुलगाई , ख़ुद की भी सुलगाई और लगाने वालों की सुलगा कर चले गए। क्यों कि वहां उपस्थित सभी लोग सांस बांधे हम दोनों को देख रहे थे। कि अब बम विस्फोट हुआ कि तब बम विस्फोट हुआ। पर आज तक वह बम नहीं फटा। जनाब का धैर्य और बर्दाश्त का मैं भी मुरीद हो गया। आज तक हूं। बरसों बाद आज भी जब कभी वह मिलते हैं तो उसी रिस्पेक्ट के साथ। उसी धैर्य के साथ। अलग बात है उन्हों ने इसी धैर्य और बर्दाश्त के बूते , अपने पी आर के बूते , अपने बड़े भाई को पहले हाईकोर्ट में सरकारी वकील बनवा दिया। फिर जस्टिस। बाद में तो इन के बड़े भाई एक प्रदेश में चीफ जस्टिस भी बने।
बाद के समय में रामायण के बाद दूरदर्शन पर महाभारत आने लगा। एक सहयोगी को उन का टीनएज बेटा जब भी कभी दफ़्तर आता या फ़ोन करता तो उन्हें पिताश्री कह कर संबोधित करता। एक दिन एक दूसरे सहयोगी ने उन से मजा लेते हुए कहा कि मन करता है , आप को धृतराष्ट्र कह कर बुलाया करुं। वह भड़के और बोले , ऐसा क्यों ? सहयोगी ने पूछा , आप महाभारत देखते हैं ? वह बोले , हां ! तो सहयोगी ने पूछा , दुर्योधन किसे पिताश्री कह कर संबोधित करता है ? वह भड़क कर बोले , अपने बाप को ! तो उस सहयोगी ने हंसते हुए कहा , आप का बेटा भी आप को पिताश्री कहता है , आप ने कभी नहीं सुना ? वह और भड़क गए। बोले , आप से मतलब !
पर घर जा कर बेटे की खूब ख़बर ली। बेटे ने उन को पिताश्री कहना बंद कर दिया। पर क्या योगी आदित्यनाथ , अखिलेश यादव को दंगेश कहना कभी बंद करेंगे ? यह यक्ष प्रश्न है। ग़ौरतलब है कि रामायण के खल पात्र रावण का एक नाम लंकेश भी है। इसी लंकेश की तर्ज पर योगी , अखिलेश यादव को अब दंगेश कहने लगे हैं। और इस के जवाब में अखिलेश यादव का कहना है कि यह चुनाव संविधान और लोकतंत्र बचाने का चुनाव है। भाषण में कह रहे हैं , न रहेगा सांप , न बजेगी बांसुरी ! मुहावरा ही बदल दिया , दंगेश ने। पर उन को दंगेश क्यों कह रहा है कोई , वह यह नहीं बता पाते। प्रियंका गांधी का कहना है कि आतंकवाद या दंगा इस चुनाव कोई मुद्दा नहीं है। बसपा ख़ामोश है। गरज यह कि दंगेश पर सभी ख़ामोश हैं।
लेकिन मतदाता ?
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