Wednesday, 28 May 2014

तो क्या क्रांतियां हमेशा लूट ली जाती हैं?

तो क्या क्रांतियां हमेशा लूट ली जाती हैं? भारत ही नहीं दुनिया भर में  क्रांतियां लूटी जाती रही हैं।  चीनी कहानीकार लुशुन की एक मशहूर कहानी है द  ट्रू स्टोरीज आफ़ आह क्यू  । इस कहानी में इस क्रांति के लूटे जाने की ही तफ़सील है। बहुत बारीक तफ़सील।  सो भारतीय राजनीति के मद्दे नज़र जाने क्यों बीते कुछ समय से रह-रह कर यह कहानी याद आ रही है। इस कहानी का सार यही है कि क्रांतियां तो न सिर्फ़ लूट ली जाती हैं बल्कि व्यवस्था  में भी उन्हीं  का प्रभुत्व बना रहता है जो पहले भी शासक थे । इस कहानी का नायक लंबे समय से उत्पीड़ित है ।  वह सामान्य मानवीय  स्थितियां पाने के लिए निरंतर विद्रोह और समर्पण के द्वंद्व से गुज़रता  है । उस की एक मुश्किल यह भी है कि  वह जब कभी भी पराजित होता है तो न सिर्फ़ दूसरों को बल्कि अपने आप को भी धोखा देता रहता है । और कि  अपने आप को झूठी तसल्ली देता रहता है कि उस की नैतिक विजय तो हो ही गई है ।  इस तरह वह न सिर्फ़ पराजयवाद का शिकार हो जाता है बल्कि जल्दी ही वह अपने उत्पीड़कों और दुश्मनों को भी भूला देता है । इतना ही नहीं वह अपने से कमजोर लोगों से उत्पीड़क भाव  बना कर उन से बदला लेने लगता है ।


अब इस कहानी में  आप अन्ना हजारे और अरविंद  केजरीवाल को फिट कर लीजिए । यह ठीक है कि अन्ना आंदोलन को हम क्रांति  तो नहीं कह सकते पर यह एक बड़ा आंदोलन था इस से भी  भला कैसे इंकार कर सकते हैं? जे पी मूवमेंट के बाद इतना बड़ा और देशव्यापी आंदोलन कम  से कम मेरी जानकारी में तो नहीं है । यह ठीक है की इस आंदोलन की सफलता में में भी इलेक्ट्रानिक मीडिया का भी बहुत बड़ा योगदान था । लेकिन देश एक बार भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ जाग तो गया ही था । अब यह अन्ना आंदोलन की विफलता कहिए या अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा से इसे जोड़ लीजिए यह आप की अपनी सुविधा और आप का अपना विवेक है । पर इस का  गर्भपात हो गया  यह तो तय है। यह गर्भपात तभी हो गया था जब अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में आने का फैसला किया था । अन्ना ने उन्हें लाख बताया की राजनीति कीचड़ है, मत जाओ उस में । पर अरविंद  अपनी ज़िद पर आ गए । किसी की नहीं सुनी  और मुंह की खा गए । उन के कीचड़ से कमल कब खिला यह भी वह नहीं जान पाए । नहीं कौन नहीं जानता की यू  पी ए  सरकार के खिलाफ सारा आंदोलन, सारा माहौल अन्ना आंदोलन की ही उपज है । लोकपाल आंदोलन के बहाने अन्ना ने भ्रष्टाचार, मंहगाई और काला धन का मसला उठाया । कि  समूचा देश यू पी  ए सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया । इस कदर कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया ।   अन्ना आंदोलन की ही जोती बोई ज़मीन की फसल पहले अरविंद  केजरीवाल ने काटी । और अब मोदी काट ले गए हैं । लेकिन अन्ना हजारे का, उन के आंदोलन का अब कोई भूले से भी नाम नहीं ले रहा है। सारा कुछ और सब कुछ नरेंद्र मोदी के नाम दर्ज हो रहा है। कन्हैयालाल नंदन अपनी एक कविता में कहते हैं:

तुम्हें नहीं मालूम 
कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं सेनाएं
तो योग और क्षेम नापने का तराजू
सिर्फ़ एक होता है
कि कौन हुआ धराशायी
और कौन है  
जिसकी पताका ऊपर फहराई !

और कि शायद ऐसे ही क्षणों में कहा गया होगा कि : हम नींव के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते !


लोकतंत्र बहाली के लिए जे पी मूवमेंट में भी कई सारे दाल और संगठन जुड़े थे । बाद में वह बिखर गए । यह दूसरी बात थी । पर वह अपने मकसद में कम से कम आंशिक ही सही कामयाब तो हुए । जे पी मूवमेंट को दूसरी आज़ादी का नाम दिया गया था । पर अन्ना आंदोलन क्यों अपने भ्रूण अवस्था में ही बिखर गया ? क्यों उस की भ्रूण हत्या हो गई ? लोकपाल के लिए जब अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, किरन  बेदी, शांति भूषण, प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश आदि एकजुट हुए थे जंतर-मंतर पर तो क्या तो समा बंध गया था तब ! क्या तो मंजर था ! कि आज भी वह मंजर याद कर के मन में रोमांच  सा छा  जाता है । यह मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना वाले नारे के दिन थे । अन्ना से जुड़े इस नारे की इबारतों वाली इन टोपियों के दिन थे । और एक बार तो लगा था की संसद भी झुक गई है । मैं ने खुद लिखा था तब के दिनों कि  झुकती है संसद झुकाने वाला चाहिए ! अन्ना आंदोलन का वह शिखर था । कि  यू पी ए  सरकार को अध्यादेश ला कर सिविल सोसाइटी के तौर पर अन्ना टीम को लोकपाल कमेटी में शामिल किया गया था । जिस का संसद में भाजपा ने पुरजोर विरोध किया था । शरद यादव जैसे सांसदों ने भी सरकार की जम कर खिल्ली उड़ाई थी । मुलायम और लालू यादव जैसे लोगों ने भी मनमोहन सरकार को आड़े हाथ लिया था । लालू तो इतना अभद्र  ढंग से पेश आए थे संसद में तब कि  पूछिए मत । मनमोहन सिंह को लगभग धिक्कारते हुए लालू ने कहा था कि  इस तरह लुंज-पुंज हो कर सरकार नहीं चलानी  चाहिए । पूरे संसद की राय लगभग यही थी । और भी तमाम ड्रामा हुआ । मान लिया गया कि राजनीतिक पार्टियां  जनता की भावना नहीं समझ पा रहीं । पर कांग्रेस ने जैसे जनता की भावना समझने का ड्रामा किया । रामलीला मैदान में यशवंत देशमुख को अपना प्रतिनिधि  बना कर भेजा । लेकिन इसी नरमी के साथ-साथ कांग्रेस ने अन्ना आंदोलन के खिलाफ लाक्षागृह भी रचने शुरु  कर दिए । शुरुआती दौर में वह इस में कामयाब भी रही । अन्ना आंदोलन के स्तंभ में से पहले शिकार बने स्वामी अग्निवेश । उन का  फ़ोन एक चैनल पर ट्रैप हो गया और वह कपिल सिब्बल के साथ यह कहते हुए पकड़े गए कि  इन्हें संभालिए नहीं यह तो हाथी की तरह सब को कुचल देने पर आमादा हैं सब को ।  उन की बात  भले कपिल सिब्बल से हो रही थी पर बात का केंद्र अरविंद  केजरीवाल ही थे । अग्निवेश से तब तक अरविंद केजरीवाल का इगो क्लैश हो चुका था । स्वामी अग्निवेश इस के बाद गद्दार डिक्लेयर कर के टीम से बाहर कर दिए गए ।  अरविंद  केजरीवाल के इगो  के दूसरे शिकार फिर बने एक दूसरे स्वामी । स्वामी  रामदेव । स्वामी रामदेव अन्ना टीम के सक्रिय  सदस्य तो नहीं थे पर बाहर से रह कर वह उन के आंदोलन को मदद  कर रहे थे । अरविंद ने शुरू से ही स्वामी रामदेव से एक निश्चित दूरी बना रखी थी और की अन्ना से भी बनवा रखी थी । बाद के दिनों में अरविंद से इतना घायल हुए रामदेव की रामलीला मैदान में उन्हों ने खुद का डेरा तंबू गाड़ लिया और योग  शिविर के बहाने आंदोलनरत  हो गए । उन की महत्वाकांक्षाएं  भी जाग गईं । इस के पहले एयरपोर्ट पर पांच -पांच मंत्री उन की अगवानी में पहुंचे सो वह मुदित हो गए । यह भी नहीं समझ पाए की कांग्रेस ने बहेलिया की तरह दाना दिखा कर जाल बिछाया है ।  और वह कांग्रेस के बिछाए जाल में निरंतर फंसते गए । और संयोग देखिए कि बहेलिया और पंछी दोनों ही की किरकिरी हो गई । एक साथ सरकार और रामदेव दोनों की मति  मारी गई । दिल्ली पुलिस ने आधी रात रामदेव के शिविर पर धावा बोल दिया, दूसरी तरफ रामदेव स्त्री के कपडे में वेश बदल कर औरतों में छुप  गए और रंगे हाथ पकड़े गए । इस के पहले वह सरकार से लिखित  समझौता भी कर आए थे । तब उन की इतनी छीछालेदर हुई कि  वह आज तक उस दाग को धो नहीं पाए । शायद ही कभी वह दाग उन के जीवन से धुल पाए । रामदेव पूरी तरह एक्सपोज हो गए । चाहे जो हो इस रामदेव प्रकरण ने भी अन्ना आंदोलन को धक्का लगाया ।  अन्ना फिर-फिर आंदोलनरत हुए । गए मुंबई भी । पर फ्लॉप हो गए । कहा गया  साथ रामदेव ने छोड़ दिया है, आर एस एस ने भी साथ नहीं दिया सो उन का मुंबई धरना फ्लॉप हो गया । अन्ना आंदोलन पर आर एस का ठप्पा शुरु से ही लगा रहा । अरविंद  केजरीवाल अन्ना आंदोलन पर इस आर एस  एस  के आरोप से निकलने की छटपटाहट में रामदेव से लगातार दूरी बनाने में लग गए ।  इसी बीच  अन्ना ने एक और धरना अगस्त में आयोजित कर दिया । अगस्त क्रांति के नाम पर । रामदेव को पानी पिलाने की खुशी में सरकार पगला गई थी तब   । अन्ना को गिरफ़्तार कर लिया । कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने तू तकार की भाषा में अन्ना को भला बुरा कहा । कांग्रेस फिर मात खा गई । यह पहली बार हुआ देश में कि  तिहाड़ जेल के सामने हज़ारों कार्यकर्ता धरने पर बैठ गए । चारो तरफ थू-थू होने लगी कांग्रेस की । बिना शर्त छोड़ना  पड़ा अन्ना को । अब गुपचुप अरविंद केजरीवाल की किरन बेदी से ठन गई । अरविंद  केजरीवाल और किरन  बेदी के इगो क्लैश में अन्ना आंदोलन की अभी और झटका खाना था जैसे । अरविंद केजरीवाल का इगो क्लैश अन्ना से भी सामने आ गया । अब अरविंद केजरीवाल ने नई पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया । आम आदमी पार्टी का ऐलान हो गया । अन्ना चुपचाप टुकुर-टुकुर देखते रह गए । पर कुछ बोले नहीं । बोले अपने गांव रालेगण सिद्धी जा कर । कहा कि  अरविंद केजरीवाल की पार्टी से उन का कोई लेना देना नहीं । अब अन्ना आंदोलन में जैसे पलीता लग चुका था । कांग्रेस का लाक्षागृह अपना काम पूरा कर गया था ।  आंदोलन जल कर भस्म हो चुका था  अगर कुछ  था तो अन्ना आंदोलन के नाम पर अरविंद केजरीवाल और उन की आम आदमी पार्टी का बुलबुला था । अब अरविंद ने दिल्ली विधान सभा के चुनाव के मद्दे नज़र दिल्ली के लोकल मुद्दों को उठाना शुरू किया । पानी-बिजली के मुद्दे उन के खूब चले भी । शीला दीक्षित की सरकार की बेअंदाज़ी ने अरविंद केजरीवाल के बिजली मुद्दे को जैसे परवान चढ़ा दिया । अब अरविंद कटी  बिजली जोड़ने लगे खंभों पर चढ़-चढ़ कर ।  दिल्ली की जनता जैसे अरविंद  की दीवानी हो गई । प्रशांत भूषण , मनीष सिसोदिया, आनंद कुमार, योगेंद्र  यादव, शाजिया इल्मी, संजय सिंह, कुमार विश्वास जैसे अन्ना के साथी अब टूट कर अरविंद केजरीवाल के साथ हो गए थे । अब मैं भी अन्ना , तू भी अन्ना की टोपी मैं हूं आम आदमी की इबारत में बदल चुकी थी । अन्ना अब हवा में भी नहीं रह गए थे । अन्ना अब  अगर कहीं थे तो बस अपने गांव रालेगण सिद्धी  में । उन के साथ अब किरन  बेदी रह गई  थीं । नए साथी जनरल वी के सिंह और संतोष भारतीय भी । अजब मंजर था यह भी । कि  एक पूर्व  सैनिक अन्ना  एक पूर्व  जनरल वी के सिंह की अगुवाई कर रहा था । और यह जनरल वी के सिंह इस विनम्रता से अन्ना के पीछे बैठे मिलते की लोगों का मन जुड़ा जाता यह दृश्य देख कर । लेकिन यह सब बहुत दिनों तक नहीं चला ।


 अब अरविंद केजरीवाल की आंधी में मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना की  टोपी और टीम उड़ चुकी  थी । समय ने इस बात को दर्ज कर लिया था । लोग मसोस कर रह गए । अन्ना की यह दुर्दशा देख कर । अन्ना भी संयम तोड़ कर खुल कर अरविंद के खिलाफ खड़े हो गए । अन्ना अब जैसे अपने आंदोलन की कब्र खुद खोद रहे थे । दिल्ली में अब हर जगह अरविंद की तूती बज रही थी । पता नहीं अन्ना को क्या हुआ की वह अचानक ममता बनर्जी के साथ खड़े हो कर ममता बनर्जी को आशीर्वाद देने लगे । बात यहीं तक नहीं रुकी । अन्ना अचानक ममता बनर्जी के लिए चुनाव प्रचार के विज्ञापन में बोलते दिखने लगे । यह दिल्ली विधान सभा का चुनाव था । लोगों ने अन्ना  का यह हश्र देख कर दांतों तले  अंगुलियां दबा लीं । यह वही अन्ना थे जो अरविंद केजरीवाल को राजनीति में जाने से इस लिए  मना कर रहे थे क्यों की राजनीति कीचड़ है । दिल्ली में एक सभा हुई ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस की । अन्ना हजारे को भी आना था । अन्ना के नाम पर भी भीड़ नहीं आई । पूरा मैदान खाली था । अन्ना भी नहीं आए । बता दिया की तबीयत खराब है ।

अरविंद केजरीवाल की जय-जय हो रही थी, अन्ना का कहीं अता-पता नहीं था । आम आदमी पार्टी दिल्ली में 28  सीट ले कर अपना डंका बजा चुकी थी । पर बहुमत से  8   सीट दूर थी । कांग्रेस का बाजा बज चुका था । भाजपा 32  सीट पा कर बहुमत से 4  सीट दूर थी । कांग्रेस 8  सीट पा कर सरकार बनवाने की हैसियत में बाकी रह गई  थी ।  भाजपा को दिल्ली की केंद्र सरकार दिख रही थी । उस ने सरकार बनाने से हाथ बटोर लिए और तोड़-फोड़ से भी । कांग्रेस ने फिर बिसात बिछाई । एक नया लाक्षागृह बनाया । अरविंद केजरीवाल के लिए ।  जाल बिछाया दाना  दिखा कर ।  अपमान सह कर । और यह देखिए बिना मांगे कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे दिया ।  मजा यह कि  दुनिया भर का ड्रामा कर के अरविंद केजरीवाल ने सरकार बना ली । शपथ में गाना-वाना भी गा  दिया । सब ने अरविंद केजरीवाल की जय-जय की । मैं  ने भी की । अरविंद केजरीवाल मुख्य मंत्री बन गए पर ड्रामा नहीं छोड़ा  उन्हों ने । वह निरंतर जारी रहा । क्या कि सरकारी गाड़ी, सरकारी बंगला सब हराम हो गया उन के लिए । अपनी वैगनार में चलते रहे वह बतौर मुख्य मंत्री । बिना ताम-झाम के । हालां की बाद में घर ले लिया सरकारी । सुरक्षा भी । यहां तक भी चलिए सब ठीक था । लेकिन जनता से किए वायदों में भी उन का ड्रामा बदस्तूर जारी रहा । बिजली का बिल कम करने का मुख्य वायदा था उन का । इस में भी वह ड्रामा कर गए । पानी में भी यही किया । और यह देखिए की मीडिया ने उन को इतनी हाइक  दे दी इन सब बातों पर, उन की सादगी पर कि  अपनी सादगी पर वह खुद  मर मिटे । 28  विधायकों वाली सरकार को 49  दिन में ही होम कर बैठे । उन को लगा की उन की किस्मत में प्रधान मंत्री की कुर्सी लिखी है, वह खामखा दिल्ली के मुख्य मंत्री के रूप में वक्त बरबाद कर रहे हैं । यह उन के मफलर और खांसी के दिन थे । इस बीच  वह अपनी पार्टी के विधायक बिन्नी से भी अपना इगो भिड़ा चुके थे । दिल्ली  महिला आयोग की अध्यक्ष बरखा सिंह को हटाने का मन बना चुके थे । उन की मंत्री राखी बिड़लान  कई करनामे  कर चुकी थीं । उन के मंत्री सोमनाथ भारती भी पराक्रम दिखा चुके थे । दिल्ली  के  उप राज्यपाल से भी वह दो-चार हाथ कर चुके थे । अब उन को लग रहा था की दिल्ली के मुख्य मंत्री की कुर्सी बहुत छोटी है उन के लिए । सो उन्हों ने मुख्य मंत्री की कुर्सी लोकपाल के बहाने होम की । और कहा की वह मुख्य मंत्री बनने नहीं देश की राजनीति बदलने आए हैं । और वह कूच  कर गए नरेंद मोदी की माद में । यानी सीधे गुजरात । वहां भी उन्हों ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में सब का ध्यान खींचा ।  मीडिया कवरेज के सारे यत्न किए । मिला भी मीडिया कवरेज । वह बिना टाइम मांगे मोदी से मिलने का ड्रामा भी कर आए ।  सब कुछ  करते-करते अंतत: लतीफा बन गए । अब जैसे उन की खांसी, मफलर के साथ-साथ जब-तब थप्पड़ खाना भी  उन का पर्याय बन गया । मौसम बदल गया  मफलर उत्तर गया, खांसी भी जाती रही ।  पर इन की जगह   तमाम सारे थप्पड़ और लतीफों ने ले ली । अब कब उन पर थप्पड़ पड़े और कब उन पर लतीफे बने इस का हिसाब भी लोग भूल गए । वह चुनाव लड़ने जब बनारस गए तो एक लतीफा यह भी चला की मोदी कहते हैं कि मुझे गंगा ने बुलाया है, अरविंद केजरीवाल कहते हैं की मुझे मोदी ने बुलाया है ।

बताइए कि लोग चुनाव लड़ते हैं जीतने के लिए । पर अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे थे हारने के लिए । सब ने कहा कि उन्हें किसी जीतने वाली सीट से भी लड़ना चाहिए । दिल्ली की ही किसी सीट से सही । पर अपनी ज़िद और सनक पर सवार किसी की सुनने का अवकाश कहां था उन के पास ? सिर्फ़ मुसलमानों की सहानुभूति पा कर बाकी जगह मुस्लिम वोट पाने के लिए  वह मोदी से वैसे ही भिड़े रहे गोया किसी बाघ से बिल्ली लड़ जाए । और बताइए की राजनीति को बदलने का ताव भी और तेवर भी साथ में । ऐसे ही  राजनीति होती है भला? कि  किसी ट्रक के मालिक से नाराज हो कर उस ट्रक  से ही जा कर भिड़ जाना कौन सी बुद्धिमानी है भला ? जो आदमी खुद को न बदल सके वह राजनीति को बदलने का दम  भरे !  सच अगर अरविंद केजरीवाल इगो में, ज़िद में पड़ कर राजनीति करने के बजाय थोड़ी सोच-समझ और दृष्टि  के साथ, थोड़ा अनुभव के साथ राजनीति किए होते तो सचमुच वह देश की राजनीति को बदल सकने में ज़रूर कामयाब हुए होते इस में कोई दो राय नहीं थी । उन्हों ने न सिर्फ़ गलती की, बल्कि गलती पर गलती की । अभी भी करते जा रहे हैं । सच यह है की अरविंद केजरीवाल का आर टी आई एक्टिविस्ट वाला रोल ज़्यादा चमकदार और ज़्यादा सफल था । उन्हें न सही ता-ज़िंदगी, बल्कि  कुछ दिन के लिए ही सही अन्ना हजारे की उस बात को मान लेना चाहिए था कि राजनीति कीचड़ है, मत जाओ राजनीति में । पर वह नहीं माने राजनीति करने आ गए । राजनीति में भी उन्हों ने पपीते की खेती करनी सीखी । पपीता छ  महीने में फल ज़रूर देने लगता है पर फिर छ  महीने बाद उस का पता नहीं चलता है । कि  कहां गया ? अरविंद केजरीवाल को राजनीति में कटहल की खेती करना सीखना चाहिए । कटहल सोलह साल बाद पहला देता ज़रूर है पर बाद में पीढ़ियां उस का फल खाती रहती हैं । अरविंद केजरीवाल को यह जान लेना चाहिए कि राजनीति करने के लिए ही नहीं, राजनीति को साफ करने के लिए भी बड़े मनोयोग और साधना की ज़रूरत होती है, धैर्य और दृष्टि  के साथ योजना की भी ज़रूरत होती है । राजनीति हड़बड़ी का काम कतई नहीं है । राजनीति ज़िद, सनक  और झख से भी नहीं चलती । जिस तिस को बिना प्रमाण चोर कह देना और खुद को पाक-साफ कह देना, गैर ज़िम्मेदारी और अति से भी राजनीति और जीवन नहीं चला करता । अरविंद की इस हड़बड़ी और अधैर्य  ने न सिर्फ़  उन का बल्कि देश के करोड़ों-करोड़ लोगों का वह सपना तोड़ कर रख दिया है जिन लोगों ने अन्ना हजारे  और अरविंद केजरीवाल के मार्फ़त देश में साफ-सुथरी राजनीति का सपना देखा था । अरविंद केजरीवाल को यह भी जान लेना चाहिए  कि देश की राजनीति जो बदलते-बदलते रह गई  है  अभी भी गुंजाइश बाकी है, देश की राजनीति बदल सकती है । वह अब से सही सक्रिय राजनीति छोड़ कर एक्टिविस्ट  की भूमिका में आने की कवायद शुरू करें । इस लिए भी की सत्ता की राजनीति उन के वश की नहीं है । दूसरे अब उन के पीछे ड्रामेबाज, भगोड़ा जैसे पुछल्ले जुड़  गए हैं जो बहुत आसानी से उन का पीछा छोड़ने वाले हैं नहीं । वह बांड न भरने के फेर में जेल यात्रा कर अंतत: बांड भर कर कर जेल से लौट चुके हैं । दिल्ली की सरकार असमय छोड़ने की गलती भी वह स्वीकार चुके हैं । पर उन्हें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए की दिल्ली की सरकार बना कर भी उन्हों ने बड़ी गलती की थी । अगर दिल्ली की सरकार बनाने के बजाए सीधे वह लोकसभा चुनाव में उत्तर गए होते तो शायद नरेंद्र मोदी कम से कम इस तरह अजर-अमर हो कर इतने बहुमत से तो न आए हुए होते ।  बहुत संभव है कि तब अरविंद केजरीवाल उन के सामने एक मज़बूत विपक्ष के रूप में सामने होते।  खैर राजनीति और समाज कोई एक दो दिन में तय नहीं होता। अब वह फिर से रालेगण सिद्धी लौट जाने की सोचें । अन्ना हजारे उन को बहुत मिस करते हैं । अन्ना हजारे को अपना गुरु फिर से मान कर नए ढंग से लड़ाई शुरू करें अपनी टीम को ले कर । अपनी ऊर्जा ड्रामा करने में खर्च करने के बजाय समाज को बदलने में खर्च करें । समाज बदलेगा तभी राजनीति बदलेगी । दूसरे, अपने भीतर के अहंकार से भी छुट्टी ले लें। क्यों कि आम आदमी की तरह दिखना ही नहीं, आम आदमी की तरह होना भी ज़रुरी है। उन के तमाम सारे साथियों ने न सिर्फ़ उन का साथ छोड़ा है बल्कि उन पर तानाशाह होने का भी आरोप लगाया है। और बार-बार । लोकतांत्रिक होना भी बहुत ज़रुरी है और पारदर्शी भी। सो अपनी हिप्पोक्रेसी से छुट्टी लेना बहुत ज़रुरी है। नहीं क्रांतियां  ऐसे ही लुटती रहेंगी । अरविंद  केजरीवाल और अन्ना हजारे यों  ही अपनी ऊर्जा बरबाद करते रहेंगे । जनता आखिर किस पर और कितना विश्वास करेगी ? और यह सवाल सर्वदा शेष रहेगा कि क्या  क्रांतियां  ऐसे ही लुटती रहेंगी? लेकिन कब तक? आखिर कब तक क्रांतियां  ऐसे ही लुटती रहेंगी? आखिर लशुन की वह कहानी द ट्रू स्टोरी आफ आह क्यू  कब तक प्रासंगिक बनी रहेगी ? अपनी पराजय को आखिर कब तक हमारे नायक अपनी नैतिक विजय बता कर खुद को धोखा देते रहेंगे ? और की साफ सुथरी राजनीति का का सपना दिखा कर जनता के सपनों को भी लूटते रहेंगे? और कि  क्रांतियां और आंदोलन  ऐसे ही लुटते रहेंगे? और कि  हम लशुन की इस कहानी की चर्चा करते हुए एक दूसरे से पूछते फिरेंगे कि क्या क्रांतियां हमेशा लूट ली जाती हैं?


Monday, 26 May 2014

जहां सांसों में बसता है सिनेमा

 प्रदीप श्रीवास्तव  
  
सौ बरस से भी पहले 7 जुलाई 1886 को जब फ्रांस के ल्यूमेरे बंधुओं ने मुंबई में वाटकिंस होटल (तब बंबई) में कुछ लोगों के समक्ष चलचित्र के छह टुकड़े दिखाए थे तब शायद ही किसी को यह अंदाज़ा रहा होगा कि उन्हों ने तो जाने-अनजाने में भारतीय सिनेमा उद्योग का बीज ही रोप दिया है। और भविष्य में यह सिनेमा उद्योग ऐसा बरगदी रूप धारण करेगा कि इस की छांव में भारतीय शास्त्रीय-संगीत, रंगमंच, लोक-संगीत आदि अपनी आभा ही लगभग खो देंगे। उन के अस्तित्व को ले कर प्रश्न खड़े होने लगेंगे। ठीक वैसे ही जैसे इसी भीमकाय फ़िल्म इंडस्ट्री की जीते जी किंवदंती बन चुकीं विश्व विख्यात पार्श्व गायिका लता मंगेशकर की बरगदी छांव के तले तमाम बेहतरीन पार्श्व गायिकाएं ऐसा कुम्हला गईं कि वह फिर कभी पनप ही न पाईं। यहां तक की खुद उन की सगी छोटी बहन और पार्श्व गायिका आशा भोंसले भी उन पर आरोप लगाती हैं और कहती हैं कि उन के साथ अन्याय हुआ। ऐसा ही आरोप हेमलता का है कि मंगेशकर बैरियर था। 

वास्तव में यह जो भारतीय सिनेमा उद्योग इतना विशाल इतना विराट बना है तो यह यूं ही नहीं हो गया है। यहां हर वक़्त कुछ न कुछ ऐसा होता रहा है या होता ही रहता है जो इसे बेहद दिलचस्प बना देता है। बिलकुल यहां बनने वाली फ़िल्मों की तरह, जैसे कोई यादगार फ़िल्म बनाने के जुनून में जहां स्टूडियो में ही चटाई बिछा कर सोता है, तो कोई नैतिकता के तकाजे के चलते करीब-करीब दिवालिया हो जाने के बाद भी अगली फ़िल्म के लिए एक स्मगलर द्वारा सम्मानपूर्वक पैसा दिए जाने की पेशकश भी ठुकरा देता है। हीरो दृश्य में जान डाल दे इस के लिए सोने का जूता बनवाया जाता है, तो दूसरी ओर ऐसे जुनूनी लोग भी रहे जो फ़िल्म से जुड़े लोगों, कलाकारों आदि के एक-एक कर मरते रहने के बावजूद भी फ़िल्म पूरी कर के ही माने। किसी ने बीस बरस तक रोटी ही नहीं खाई। गीत-संगीत ऐसे प्रभावशाली कि पैरों का थिरकना रोका न जा सके, दुःख भरे गीत ऐसे कि आंसू छलछला ही आएं। प्रदीप का लिखा और लता का गाया कालजयी गीत ऐ मेरे वतन के लोगों......सुन कर नेहरू जैसे प्रधानमंत्री भी आंसू न रोक पाए। और फिर जल्दी ही हालात यह हो गए कि इस गाने के बिना तो जैसे गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस समारोह अधूरा ही माना जाने लगा।

इंडस्ट्री ने वह दौर भी देखा जब व्यवसाय से पहले फ़िल्म की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाता था। आज यह इंडस्ट्री उस दौर से गुज़र रही है जब सब कुछ सिर्फ़ व्यवसाय के लिए किया जाता है। जितनी दिलचस्प बातों, घटनाओं से भरी है यह फ़िल्म इंडस्ट्री उतनी ही रोचक और तथ्यपरक है यह समीक्ष्य पुस्तक ‘सिनेमा-सिनेमा’ भी। इस में उपरोक्त कई बातों के साथ-साथ ढेर सारी ऐसी बातें हैं जो अपने साथ पाठक को एकदम बांध लेती हैं। लेखक दयानंद पांडेय ने दिलचस्प हिंदी सिनेमा उद्योग जो कि अन्य भारतीय भाषाओं के फ़िल्म उद्योग के लिए प्रेरक ऊर्जा भी बना की बहुरंगी दुनिया का बेहद प्रामाणिक ब्योरा बड़े दिलचस्प ढंग से रखा है। वास्तव में यह पुस्तक उन की करीब दो दशकों की मेहनत का परिणाम है। जिस में सिनेमाई दुनिया के अंदर खाने की ढेरों दिलचस्प बातें हैं। तमाम ऐसे अनछुए किस्से हैं जिन्हें बहुत ही कम लोग जानते होंगे। जिसे लेखक ने सिनेमाई दुनिया की तमाम हस्तियों से बातचीत कर के, कई तरह से जांच पड़ताल कर के लिखा है। जैसे यही बात कि आशा भोंसले चौदह की उम्र में घर छोड़ कर चली गईं और शादी कर ली। दो बच्चे हो गए तो पति छोड़ कर चला गया। फिर घर वापस आ कर रहने लगीं, परिवार ने पूरा सहारा दिया फिर भी परिवार से उन्हें शिकायत है। उन के बडे़ भाई संगीत मर्मज्ञ हृदयनाथ मंगेशकर ने लेखक को यह बातें एक इंटरव्यू में बताईं । जिन्हों ने फ़िल्मी संगीत से इस लिए दूरी बनाई क्यों कि उन का मानना है कि फ़िल्मी संगीत के कारण शास्त्रीय-संगीत का स्तर गिरता है और इस से उन की शास्त्रीय-संगीत की साधना अधूरी रह जाएगी। वह यह भी बताते हैं कि उन्हें ढाई हज़ार बंदिशें याद हैं। 

कहां तो बंदिश गाना और दो-चार को याद रखना ही बड़ा मुश्किल होता है वहां वह इस को गाने में  ही पारंगत नहीं हैं बल्कि आश्चर्यजनक रूप से ढाई हज़ार बंदिशें याद भी रखी हैं। वास्तव में  शास्त्रीय-संगीतकारों और फ़िल्मी-संगीतकारों के बीच संगीत के स्तर को ले कर गहरे मतभेद हैं। शास्त्रीय-संगीतकार दृढतापूर्वक कहते हैं कि फ़िल्मी संगीत शास्त्रीय-संगीत को नुकसान पहुंचा रहा है। वह उस की आत्मा को नष्ट कर रहा है। संगीत को बेच रहा है। मुनाफे के लिए हर समझौता कर रहा है। बिरजू महाराज जैसे लोग अपने गुस्से का इज़हार करने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। फ्यूज़न म्यूज़िक को कन्फ्यूज़न म्यूज़िक तक कह देते हैं। जिस से बिदक कर फ़िल्मी दुनिया के संगीतकार शंकर महादेवन और लुईस कहते हैं कि जो लोग फ्यूज़न नहीं करते वह लोग कन्फ्यूज़न करते हैं। तथ्य यह है कि व्यवसाय और शास्त्रीयता एक साथ नहीं चल सकते। दोनों की दिशा और उद्देश्य अलग हैं। और अपनी जगह दोनों सही हैं। रंगमंच के तमाम दिग्गज रंगमंच छोड़ कर फ़िल्मों में जाते हैं, अभिनय उन को वहां भी करना है। मगर उन की प्राथमिकता में पहले नंबर पर पैसा आ गया तो दिशा बदल दी। चले गए फ़िल्मों में। 

पुस्तक में पच्चीस लेख एवं सत्ताइस नामचीन फ़िल्मी हस्तियों के इंटरव्यू हैं। इन सब में एक से बढ़ कर एक रोचक बातें बताई गई हैं, खुलासे किए गए हैं। लेखक अमरीका, चीन तक में सुनी जाने वाली भारत रत्न लता मंगेशकर को हिंदी की लाठी बताते हुए यह मानते हैं कि उन की आवाज़ ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मगर कैसे ? इस प्रश्न का उत्तर नदारद है। इस पर वह थोड़ा भी प्रकाश डालते तो अच्छा होता।

लता मंगेशकर के जीवन संघर्ष के ज़िक्र के क्रम में वह बताते हैं कि पिता की जल्दी मृत्यु के बाद उन्हों ने कैसे परिवार को संभाला। और फिर वह व़क्त भी आया जब वह दशकों पहले मर्सीडीज़ कार में चलने लगीं, मगर उन के छोटे भाई हृदयनाथ तब भी लोकल ट्रेन या बस से ही चलते रहे। क्योंकि फ़िल्मी संगीत से लता ढेरों कमाई करने लगी थीं। और दूसरी ओर उन के भाई को शास्त्रीय-संगीत से पैसा नहीं मिल रहा था। यह भी खुलासा संगीतकार सी.रामचंद्र की आत्मकथा के माध्यम से करते हैं कि लता ने एक-एक गाना पाने के लिए रात-रात भर सी.रामचंद्र के पांव दबाए। लेखक से यह बात सुन कर उन के भाई हतप्रभ रह गए।

ऊपर से चमक-दमक भव्यता से भरपूर फ़िल्मी दुनिया के अधिकांश लोगों का जीवन अंदर ही अंदर कितनी घुटन, कितने संत्रास से भरा होता है पुस्तक में इस के एक से बढ़ कर एक वृत्तांत हैं। बंगला और हिंदी फ़िल्मों की आला दर्जे की अभिनेत्री सुचित्रा सेन के लिए बहुत ही मार्मिक बातों का उल्लेख है कि कैसे तो मीडिया द्वारा उन का नाम उत्तम कुमार से जोड़े जाने के बाद उन्हों ने अपने को घर में कैद कर लिया और फिर जीवन के शेष तैंतीस वर्ष तीन बार अपवाद छोड़े दें तो कभी किसी से मिलीं ही नहीं। इसी क्रम में अमरीकी अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो और जापानी तारिका सेत्सुको हारा का उल्लेख है। पहली जहां पैंतीस वर्ष के बाद किसी से नहीं मिली, वहीं दूसरी बयालीस के बाद जो लोगों से दूर हुई तो तिरानवे की होने तक भी किसी से नहीं मिली।

प्राण, अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, रेखा, नूतन, संजीव कुमार, राज कपूर, दीप्ती नवल, हेमा मालिनी आदि कलाकारों के अभिनय और उन के जीवन के बारे में ऐसी बहुत-सी बातें लिखी गई हैं जो कम ही लोग जानते हैं। जैसे अभिनय सरताज संजीव कुमर ने अपना कॅरियर इप्टा में स्टेज पर परदा खींचने से शुरू किया था। और दिलीप कुमार आर्मी कैंप में लेमन वगैरह बेचते थे। लेकिन तब अभिनय साम्राज्ञी देविका रानी ने सहारा दिया तो वह अभिनय की दुनिया की अहम शख्सियत बन गए। इन कलाकारों ने किस प्रकार अपनी प्रतिभा अपने उत्कृष्ट अभिनय, लगन से भारतीय फ़िल्मी अभिनय की दुनिया को नई ऊंचाई प्रदान की इस के बड़े ही रोचक वर्णन हैं। पुस्तक में कई ऐसे फ़िल्म निर्देशकों का भी वर्णन है जिन्हों ने अपनी निर्देशकीय क्षमता से अभिनेता-अभिनेत्रियों की प्रतिभा को ठीक से पहचान कर उन्हें ऐसा तराशा कि वह सितारे बन चमक उठे। ऐसे निर्देशकों में श्याम बेनेगल, सत्यजीत रे, राजकपूर, मनोज कुमार, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, गुलजार, मुज़फ़्फर अली आदि खास तौर से जाने जाते हैं।

राजकपूर तो अपनी फ़िल्मों को अलग ही ढंग से ट्रीट करने के लिए पहचाने जाते हैं। सत्यजीत रे को तो लेखक ने भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर स्थापित करने का श्रेय दिया है। हालांकि विडंबना यह थी कि जब सत्यजीत रे की फ़िल्म पाथेर पांचाली’ 1955 में रिलीज हुई तो देश में इसे तवज़्जोह ही नहीं मिली। मगर विदेशों में जब इस का डंका बजा तो देश में भी चर्चित हुई। लेकिन इस आरोप से सत्यजीत रे नहीं बच पाए कि वह भारत की गरीबी को दुनिया में बेच रहे हैं। 

पुस्तक ऐसे तथ्यों से भरी पड़ी है जो यह स्पष्ट करते हैं कि इस तरह की बातें चाहें जितनी की जाएं इस फ़िल्मी दुनिया को ऊर्जा देने, उसे परिपक्व बनाने में इन्हीं फ़िल्मी हस्तियों की मेहनत, लगन और उन का विज़न रहा है। जिस के चलते सिनेमा भारतीयों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है। यह जैसे उन की सांसों में बसता है। लेखक भी इस से अछूता नहीं दिखता। पूरी पुस्तक फ़िल्मों के प्रति उन के अतिशय लगाव का ही परिणाम है। फ़िल्मी दुनिया में एकदम गहरे पैठ कर ऐसे उत्कृष्ट लेख लिखे,  और साक्षात्कार लिए हैं जिन में लेखक की बेबाकी और फ़िल्मी हस्तियों की बातों की बड़ी रोचक जुगलबंदी है। जिस में अमिताभ बच्चन कहते हैं कि उन के पिता हरिवंश राय बच्चन का मानना था कि हिंदी फ़िल्में पोएटिक जस्टिस देती हैं, तो मुज़फ्फर अली अपने को भगवान विष्णु का भक्त बताते हुए कहते हैं हम तो राजा मोरध्वज के वंशज हैं। हमारा कोई कुछ बिगाड़ थोड़े ही सकता है विष्णु जी का आशीर्वाद है। हालां कि वह यह भी स्वीकारते हैं कि व्यावसायिकता की मार में खो गए हैं हम। वहीं पीनाज मसानी चोरी का आरोप लगाती हुई कहतीं हैं कि उमराव जानफ़िल्म का संगीत खैय्याम का नहीं जयदेव का है।

वास्तव में यह पुस्तक इतनी रोचक, इतनी तथ्यपरक है कि पाठक को एक उम्दा फ़िल्म की तरह आखिर तक बांधे रखने में सक्षम है। एक तथ्य यह भी है कि हिंदी सिनेमा पर यूं तो तमाम पुस्तकें आई हैं। लेकिन संभवतः यह अपनी तरह की अकेली पुस्तक है। जैसे सत्यजीत रे की पाथेर पांचालीफ़िल्म एक अलग ही स्थान बनाती है। मगर प्रश्न फ़िल्म पर फिर भी खड़े किए गए थे। तब की प्रख्यात अभिनेत्री नरगिस दत्त ने तो राज्य सभा में प्रश्न खड़े किए थे। वैसे ही प्रश्न इस पुस्तक पर भी हैं कि फ़िल्मों का ओढ़ने, बिछाने, जीने (यह पुस्तक लेखक के बारे में ऐसा ही प्रदर्शित करती है) और दो दर्जन से अधिक किताबें  लिखने का अनुभव रखने वाले, कई पुरस्कारों से नवाजे जा चुके दयानंद पांडेय इस इंडस्ट्री को खड़ा करने वाले, जीवन देने वाले बहुत से प्रमुख लोगों को कैसे भूल गए। कि हिंदी फ़िल्मी दुनिया की बात हो और एच. एस. भटवडेकर, हीरालाल सेन, दादा साहेब फाल्के, हिमांशु राय, व्ही. शांताराम, महबूब खान, ख्वाजा अहमद अब्बास, के.एल. सहगल, मोती लाल, पंकज मलिक, कुक्कू, देविका रानी, प्रदीप, गोपालदास नीरज, शाहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, शंकर-जयकिशन, गीता दत्त, ऊमा देवी, सोहराब मोदी, पृथ्वी राजकपूर आदि की बात न हो तो बात अधूरी ही लगती है। दूसरी बात अमिताभ बच्चन की, जिन के लिए वह स्वयं मानते हैं कि वह उस ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं जिसे छूने की बात छोड़िए कोई करीब तक नहीं पहुंच सकता है। उन्हीं के लिए पैसे के लिए पैंट उतारने जैसी शब्दावली का प्रयोग अनुचित जान पड़ता है। गुजरात के तत्कालीन सी.एम.नरेंद्र मोदी ही ने टी.वी. चैनल पर साफ कहा कि अमिताभ ने गुजरात पर्यटन के लिए की गई मॉडलिंग हेतु एक पैसा नहीं लिया। ऐसे ही यू.पी. पल्स पोलियो तथा अन्य कई सामाजिक कार्यों के लिए भी उन्हों ने पैसा नहीं लिया। जब कि वह चाहते तो करोड़ों रुपए  ले सकते थे। लेकिन नहीं लिया। समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया। जहां तक विज्ञापन करने का सवाल है तो वह उन के व्यवसाय का हिस्सा है। नहीं करेंगे तो खो जाएंगे मुज़फ़्फ़र अली की तरह। पाठकों के मन में पढ़ते व़क्त ऐसे ही कुछ और बातें भी आ सकती हैं। 

जहां तक पुस्तक की पठनीयता मात्र का सवाल है तो दयानंद पांडेय उन लेखकों में शुमार किए जाते हैं जिन के लिखे में ज़बरदस्त पठनीयता होती है। खासियत यह भी है कि वह अपना एक ख़ास तरह का शब्दकोश रचे हुए लगते हैं, जिस के सारे शब्दों का प्रयोग कर लेने की उन की जैसे जिद रहती है। गोया उन के बिना उन का लेखन अधूरा ही रहेगा। उदाहरण स्वरूप कुछ शब्द देखिए-विरह, विरवा, विरल, बिलाए, बिला, आंच, बांच, गुनने, गमक, चमक, महक-चहक, धमक, बेकली, शऊर, शोखी, परोस, हेरा, उभ-चूभ, ठसक, गंध, चटख, भहरा, भरभरा, पुलक, अकुलाए, अकुलाहट, कुम्हलाए, कलफ़, कैफ़ियत, टटकी, टटका, टटकापन आदि। शुरुआती कुछ लेखों में यह शब्द कुछ ज़्यादा ही हावी हैं। एक बात यह भी है कि बहुत से लेख ऐसे हैं जिन्हें कब लिखा गया इस का उल्लेख नहीं है। फिर भी यह कहना गलत न होगा कि लेखक का लंबा अनुभव और उन की ढेरों जानकारियों के कोश ने इस पुस्तक को ऐसा रूप दे दिया है जो आम पाठकों के साथ-साथ हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री पर यदि शोध की बात आए तो वहां भी बेहद उपयोगी साबित होगा।









समीक्ष्य पुस्तक - सिनेमा-सिनेमा
लेखक - दयानंद पांडेय
प्रकाशक-राष्ट्रवाणी प्रकाशन,
शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 450 रुपए
पृष्ठ - 231

प्रकाशन वर्ष- 2014

Sunday, 25 May 2014

तो क्या वायदा कारोबार पर लगाम लगा कर मंहगाई काबू करेगी मोदी सरकार ?

फ़ेसबुकिया नोट्स की एक और लड़ी 
 
  • मनमोहन सिंह ने मंहगाई कैसे रोकी जाए जानने के लिए एक कमेटी बनाई थी। नरेंद्र मोदी को इस कमेटी का चेयरमैन बनाया था। मोदी ने कई सारी संस्तुतियां दी थीं। उस में एक मुख्य संस्तुति यह थी कि वायदा कारोबार पर तुरंत रोक लगाई जाए। ताकि बिचौलियों पर लगाम लगाई जा सके। इस का खुलासा तब नरेंद्र मोदी ने खुद किया था। लेकिन मनमोहन सिंह ने जाने क्यों उस कमेटी की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई करने के बजाय उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। दिलचस्प यह कि पूरे चुनावी प्रचार में नरेंद्र मोदी ने भी इस का ज़िक्र नहीं किया। अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि मोदी आखिर मंहगाई काबू करने के लिए क्या उपाय करते हैं? क्यों कि मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी ही उन की परीक्षा के मुख्य प्रश्न हैं। इन में अगर वह फेल हो गए तो उन की सारी कामयाबी बंगाल की खाड़ी में डूब जाएगी। सड़क, बिजली, पानी और कानून व्यवस्था के साथ भी कदमताल न कर पाए तो भी उन के लिए कम आफत नहीं होगी।

  • सेना, आई एस आई और अपने तमाम आतंकवादी दस्तों के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज शरीफ़ तो नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आ रहे हैं लेकिन भारत में तो वोट बैंक की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उस की खुमारी अभी तक तारी है। ममता, जयललिता और नवीन पटनायक अभी भी मुस्लिम और तमिल वोटरों को 'प्रसन्न' करने में त्रस्त हैं।

  • सोच रहा हूं कि कहीं नरेंद्र मोदी और नवाज़ शरीफ़ की मुलाकात में भारत-पाकिस्तान संबंधों में सहजता आ गई, दोस्ती हो गई तो हमारी हिंदी के वीर रस के कवियों का क्या होगा? जो सीधे लाहौर तक भारत में मिला लेने की लफ़्फ़ाजी हांकते हैं। पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजा देने की ललकार लगा देते हैं अपनी कविताओं में।

  • इंडिया टी वी पर कुछ मुसलमान कह रहे हैं कि सेक्यूलरिज्म के लबादे ने हमारा बड़ा नुकसान किया है।

  • बहुजन समाज पार्टी से जुड़े दलितों और तमाम अन्य दलितों को कई बार लगता है कि ब्राह्मण वोटरों ने अब की बार दलितों को धोखा दे कर भाजपा को वोट दे कर धोखा दिया है दलित समाज को। मैं कहना चाहता हूं कि ज़रुर ऐसा किया होगा ब्राह्मण वोटरों ने। लेकिन दुर्भाग्य से यह पहला नहीं दूसरा सच है। पहला सच यह है कि दलितों की मसीहा मायावती ने दलितों को धोखा दिया है। न सिर्फ़ दलितों को बल्कि ब्राह्मणों को भी धोखा दिया है और उन का इस्तेमाल किया है अपने को महारानी बनाने के लिए। सत्ता पाने के लिए, खरबों रुपए कमाने के लिए मायावती ने दलितों का तो दोहन किया ही ब्राह्मणों का भी दोहन किया और अपनी तिजोरी भरी। दलितों को यह तथ्य भी ज़रुर देखना चाहिए और जानना चाहिए कि उन की तरक्की का रास्ता शिक्षा और रोजगार की राह से गुज़रता है। किसी का वोट बैंक और गुलाम बन कर नहीं। मुसलमानों के दिमाग का जाला साफ हुआ है इस बाबत कुछ हद तक। दलितों को भी इस दलित मोह से मुक्त हो कर देश की मुख्य धारा से जुड़ना चाहिए। किसी का वोट बैंक बन कर अपना और नुकसान करने से बचना चाहिए।

Saturday, 24 May 2014

तो क्या नरेंद्र मोदी ह्यूमन मैनेजमेंट भी जानते हैं?

फ़ेसबुकिया नोट्स की एक और लड़ी

  • कारपोरेट सेक्टर के मैनेजमेंट में एक शब्द बहुत मासूमियत से चलता है बिन बोले, ह्यूमन मैनेजमेंट का। तो क्या नरेंद्र मोदी ह्यूमन मैनेजमेंट भी जानते हैं? चुनावी बिसात पर बंपर जीत के बाद जिस तरह सार्क कार्ड खेल कर उन्हों ने पाकिस्तान में भी मोदी-मोेदी का जो समा बनाया है वह तो नायाब है। जिन पाकिस्तानी चैनलों पर चुनाव के दौरान मोदी की दहशत तारी थी, वहीं उन्हीं चैनलों पर नवाज शरीफ़ के कुबूल के बाद मोदी की जय- जयकार होने लगी है। मोदी पर यकीन की बरसात जारी है। तो क्या हिंदुस्तानी मीडिया के बाद पाकिस्तानी मीडिया को भी मोदी ने खरीद लिया है? या सिर्फ़ ह्यूमन मैनेजमेंट का जादू ही है? लेकिन यह तो एक दुश्मन देश को भी मैनेज कर लेने का सबब भी नहीं है?

  • मीडिया बना तो है सत्ता के प्रतिरोध के लिए। लेकिन हमारे देश में यह अब हमेशा सत्ता के साथ ही क्यों होता है? राजा का बाजा बजाता हुआ, कुत्तों की तरह दुम हिलाता हुआ ? तलवे चाटता और कोर्निस बजाता हआ?

  • रजत शर्मा को अब इंडिया टी वी का नाम बदल कर मोदी टी वी कर लेना चाहिए। राज्य सभा और पद्म पुरस्कार तो उन के तय हैं ही, कुछ और भी मिल जाए शायद।

  • नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल का इस तरह असमय पतन और भटकाव देख कर बहुत तकलीफ होती है।

  • समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक और मुलायम के भाई रामगोपाल यादव ने एक बार अरविंद केजरीवाल को भटकी हुई मिसाइल कहा था तो मुझे बहुत बुरा लगा था तब। लेकिन अब लगता है कि राम गोपाल यादव का आकलन बहुत सही था। बल्कि अरविंद केजरीवाल इस से भी आगे की चीज़ हैं।

  • बताइए कि दिल्ली में सरकारी घर बचाने के लिए लालू प्रसाद यादव और शरद यादव एक हुए हैं। सो इस के लिए अब राबड़ी यादव, शरद यादव और नीतीश कुमार को राज्य सभा जाना पड़ेगा। सो धर्मनिर्पेक्षता का कार्ड खेलने का स्वांग करना पड़ा है। केर बेर का यह संग काश कि चुनाव के पहले हुआ होता तो क्या धर्मनिर्पेक्षता का रंग कुछ और चोखा नहीं हुआ होता? लेकिन अब तो चिड़िया चुग गई खेत कहिए या का वर्षा जब कृषि सुखाने कहिए, बात एक ही है।

  • बिहार में आखिर नीतीश कुमार ने बिजली का नंगा तार छू लिया। अल्ला जाने क्या होगा आगे !

अंधेरे सवालों के उजले जवाब

अंधेरे समय में जवाब तलाशती कलम


 डा. मुकेश मिश्रा


लोकतांत्रिक प्रणाली में जब अधिकारिक तौर से सवाल पूछने की हैसियत रखने वाला तबका ही सवालों के घेरे में हो तब समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि बेहद खराब दौर आ चुका है। इस को इस तरीके से भी समझा जा सकता है कि किसी समूह के संरक्षक पर ही जब भरोसा नहीं रह जाय तो उस का भविष्य क्या होगा। मीडिया की भूमिका उसी संरक्षक की है भारतीय लोकतांत्रिक समाज में। लेकिन आज वही मीडिया सर्वाधिक संदेह की नजरों में न केवल चढ़ गया है बल्कि उस के प्रति भरोसा भी अब आखिरी सांसें गिन रहा है। कुछ साल पहले तक किसी को पता नहीं होता था कि खूब पढ़ा जाने वाला अमुक अखबार किसका है? या फिर कौन सी संस्था किस मकसद से कौन सा अखबार, पत्रिका, चैनल आदि चला रही है? लेकिन आज किसी अखबार या चैनल के समाज में आने से पहले ही न केवल उस का मकसद पता चल जाता है बल्कि बकायदा उस के लोग बड़े बड़े होर्डिंग्स लगा कर ढिंढोरा पीटते हैं कि अमुक समूह या व्यक्ति उस का मालिक है। हद तो यह है कि लोग अपनी फ़ोटो लगा कर अखबार व चैनल का प्रचार के बहाने खुद का चेहरा स्थापित करते नज़र आते हैं। खैर यह तो मीडिया की मौजूदा हकीकत का आधा सच भी नहीं है। पूरा सच यह है कि मीडिया अब माध्यम नहीं, मंडी हो गया है। मंडी भी खोवे-रबड़ी वाली नहीं, रंडी वाली मंडी। जहां बाज़ार में हर वेश्या रेट लिस्ट के साथ खड़ी है। क्या क्या नहीं बेच रहा आज का मीडिया? कैसे कैसे नहीं बिक रही हमारी मीडिया? मीडिया के तह तक पकड़ रखने वाले पत्रकार लेखक दयानंद पांडेय इस को बड़ी हिम्मत से बांचते हैं अपनी किताब ‘मीडिया तो अब काले धन की गोद में’ के पन्नों में। सर्वोदय प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित दयानंद पांडेय के आलेख संग्रह ‘मीडिया तो अब काले धन की गोद में’ कई प्रासंगिक विषयों का शोधपरक दस्तावेज है। जिसमें कुल ३० अध्याय हैं। स्वयं मीडियाकर्मी होने के कारण ही शायद उन्हों ने अपने इस पुस्तक को उपरोक्त शीर्षक दिया है। हालां कि इस किताब में मीडिया से इतर भी तमाम मुद्दों को खंगाला गया है। कई हस्तियों के बहाने सामयिक सवालों को उठाया गया है। बीते साल दिल्ली में निर्भया गैंग रेप जैसे जघन्य अपराध से उबलते देश को मानसिक संबल प्रदान करने और उस बहादुर बेटी को श्रद्धांजलि देने की नीयत से लिखे इस किताब के पहले अध्याय ‘एक बेटी की मौत का शिलालेख’ में लेखक ने एक लतीफे के सहारे देश की सरकारों और राजनीतिक जमातों की जमकर क्लास लगाई है। ‘काला दूध’ का वह लतीफा वाकई कितना सटीक है हमारे देश की सरकारों के लिए। इसकी तकरीर में जो-जो लिखा है दयानंद पांडेय ने वह काबिले तारीफ है। सियासत के काले दूध का हश्र वो इस तरह समझाते हैं कि ‘समय की दीवार पर लिखी इस आग को राजनीतिक पार्टियां पढ़ें और समय रहते यह चोर-सिपाही का खेल खेलना और नूरा-कुश्ती बंद करें नहीं जनता उन को जला कर भस्म कर देगी’। लेखक ने बड़ा दूरगामी संदेश दिया है हमारे सियासतदाओं को इस आलेक के माध्यम से।  


किताब के शुरुआती चरण में कुल छह आलेख मीडिया से सीधे तौर पर जुड़े हैं। जी न्यूज और नवीन जिंदल प्रकरण पर बेबाक टिप्पणी देते हुए लेखक दिल्ली पुलिस को बधाई देता है कि वह मीडिया के भ्रामक भयजाल में नहीं उलझ कर मीडिया की अस्मिता को बचाने का काम कर गई। अखबारनवीसों पर एक आलेख ‘बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी’ इसी पुस्तक में है जिस में अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों की पीड़ा और उन की नौकरी की त्रासदियों को उजागर किया गया है। अखबारनवीसों के सम्मान व अपमान की कहानी कहता यह आलेख कई प्रसंगों से प्रेरित है जिसमें राजेश विद्रोही का यह शेर बड़ा मौजूं है कि ‘बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी, खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है’। आगे पूर्व राज्य सभा सदस्य और पत्रकार राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ को लेकर भी एक अध्याय है ‘मार्निंग वाक या पत्रकारिता के नहीं दलाली के चैंपियन’। एक और अध्याय भड़ास फॉर मीडिया के यशवंत सिंह पर भी है। दोनों ही लेखों में लेखक ने अपनी निजी जानकारियों और अनुभवों को व्यक्तिगत धरातल पर लिखा है। हो सकता है कुछ पाठकों को ये दोनों अध्याय कुछ पूर्वाग्रही लगें लेकिन यह दयानंद पांडेय ही हैं जो बड़ी हिम्मत और दिलेरी से ऐसी बातों को कह जाते हैं जिसकी जुर्रत खुद भुगते हुए लोग भी नहीं कर पाते। खास कर राजनाथ सिंह सूर्य वाला अध्याय बड़ा रोचक और जानकारी भरा है। अपने समकालीन व्यक्ति के सारे दावों को सप्रमाण झूठ साबित करते हुए बहस की खुली चुनौती देना एक लेखक होने के नाते खतरे से खाली नहीं।

बहरहाल, क्रम से दूसरा आलेख ‘मीडिया तो अब काले धन की गोद में’ इस पुस्तक की रीढ़ है। जिसमें दयानंद पांडेय आज की समूची मीडिया को न केवल कटघरे में खड़ा करते हैं बल्कि तथ्यों के आलोक में उस से सवाल-दर-सवाल दागते हैं। वे मीडिया जगत के मालिकों के सौदेबाज काकस को बेनकाब करते हुए जरूरी मुद्दों पर मौन साध चुकी मीडिया की वर्तमान पीढ़ी को पुराने उदाहरणों, नायकों, किरदारों की चर्चा कर के ललकारते भी हैं। दरअसल इस अध्याय पर एक पूरा शोध ग्रंथ लिखा जा सकता है। इतनी सामग्री बड़े सारगर्भित तरीके से इस आलेख में पिरोयी है लेखक ने कि जैसे वह कोई थीसिस की सिनॉप्सिस हो। वॉच डाग कहा जाने वाला मीडिया क्या सिर्फ़ डाग रह गया है? ऐसे बेधड़क सवाल खड़ा करना और उस सवाल को तथ्यों से पुष्ट करना, लेखक की खासियत है। इसी आलेख में वे एक जगह लिखते हैं कि ‘भड़ुआगिरी में न्यस्त हमारी पत्रकारिता राजा का बाजा बजाने में न्यस्त भी है और ध्वस्त भी। हमारी एक समस्या यह भी है कि हम पैकेजिंग में सजी दुकानों में पत्रकारिता नाम के आदर्श का खिलौना ढूंढ रहे हैं’। 

मीडिया संबंधी एक बड़ा दिलचस्प सातवां आलेख है ‘हिंदी लेखकों और पत्रकारों के साथ घटतौली की अनंत कथा’। इस में लेखकों के भुगतान और उन की दशा पर बहुत उम्दा तकरीर की है दयानंद पांडेय ने। प्रकाशकीय कारोबार और लेखकों के लुटते जाने की तमाम सच्चाईयां इसमें बांची गई हैं। सरकारी तंत्र और प्रकाशकों के गिरोह का पर्दाफाश करते हुए उन परिस्थितियों को इस में उकेरा गया है जिस में लेखक सब कुछ जानते हुए भी ठगा जाता है। साहित्य जगत की मठाधीशी पर भी एक आलेख बहुत अच्छा है जो अमरकांत जी को ज्ञानपीठ मिलने के बहाने लिखा गया है लेकिन इस में बड़ी बेबाकी से लेखक ने पुरस्कारों की लॉबिंग को उजागर किया है। साहित्यिक सम्मानों से जुड़ा एक और आलेख ‘शेखर जोशी और श्रीलाल शुक्ल सम्मान की त्रासदी’ भी वर्तमान समय में पुरस्कारों की पोल खोलता है। इस में पुरस्कारों का जुगाड़ तंत्र और इस के बहाने सत्ता की चासनी चूसने की जुगत में उत्कृष्ट साहित्यकारों का आए दिन होने वाले अपमानों की बखिया उधेड़ने की कोशिश सराहनीय है।

हर लेखक की एक अपनी खासियत होती ही है जो उसे औरों से अलग करती है। पत्रकार लेखक दयानंद पांडेय की लेखनी की एक विशेषता यह है कि वे अपने आस-पास जो भी देखते हैं उसे अपनी कलम से नवाजते हैं। कोरी कल्पना के लेखक नहीं हैं दयानंद पांडेय। यही वजह है कि वे समय-समय पर लेख, टिप्पणी, ब्लॉग लिखते रहते हैं। उन की यह गैर व्यावसायिकता उन्हें विशिष्ट बनाती है। विशिष्टताओं को पहचानना और उस को कागज पर उतारना दयानंद की दूसरी खूबी है। समीक्ष्य पुस्तक में कई ऐसे लेख हैं जो किसी न किसी ऐसे व्यक्ति पर केंद्रित हैं जो लेखक के आस-पास है। नामवर सिंह और मुद्राराक्षस जैसे दिग्गजों के ऊपर एक लेख है जो एक समारोह में घटित सही घटना पर बेबाक टिप्पणी है। अमृतलाल नागर की उत्कृष्टता पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाने वाले मुद्राराक्षस को जिस भाषा में दयानंद पांडेय ने इस आलेख के माध्यम से जवाब दिया है वह अनुकरणीय है। कथाकार शिवमूर्ति, लोक गायक बालेश्वर पर भी एक-एक अच्छे आलेख हैं। 

दयानंद पांडेय हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी के भी आधिकारिक विद्वान हैं। उन के कई उपन्यासों का अनुवाद दूसरों ने भोजपुरी में तो किया ही है स्वयं उन्होंने भी कई रचनाएं, नाटक व धारावाहिक भोजपुरी में लिखे हैं। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि आज तमाम क्षेत्रीय भाषाएं समाप्त हो रही हैं। या फिर वे अश्लीलता, फूहड़ता या फिर निकृष्ट व्यावसायिकता की शिकार हैं। व्यापक क्षेत्र में बोली जाने वाली भोजपुरी का भी कुछ ऐसा ही हाल है। समीक्ष्य पुस्तक में एक आलेख के माध्यम से लेखक ने भोजपुरी की गति-दुर्गति पर बेहतरीन आपरेशन किया है। भोजपुरी गायकी की यात्रा पर आधारित यह लेख वास्तव में शोध पत्र है। दो लाइनें यहां पर इस किताब से लिखनी ही पड़ेंगी ‘दरअसल किसिम-किसिम के दबाव झेलती भोजपुरी गायकी अब जाने किस अतरे में समाती जा रही है’। यह भी कि ‘भोजपुरी गानों की मान-मर्यादा, मिठास और सांस इस कदर पतित हो गए हैं कि वह समय दूर नहीं जब भोजपुरी गाने भी लांग-लांग एगो की शब्दावली में आ जाएंगे। लोग कहेंगे कि भोजपुरी भी एक भाषा थी जिस में लोग अश्लील गाना गाते थे।’

दयानंद पांडेय का उपरोक्त बयान महज टिप्पणी नहीं, समय का स्वर है। एक सवाल उन्हों ने अगले अध्याय ‘भोजपुरी अइसे कब तक भकुआती फिरेगी’ में दागा है। जिस में वे पूछते हैं कि भोजपुरी दुनिया के पांच देशों के बीस करोड़ लोग बोलते हैं फिर उसे अपेक्षित सम्मान क्यों नहीं? भोजपुरी की विशिष्टता और उस की उपेक्षा दयानंद पांडेय को अंदर तक झकझोरती है। यही वजह है कि वे आगे एक और आलेख लिखते हैं ‘2025: कोई लोक भाषा भी हुआ करती थी’। इस में वे इस विषय पर चिंतित दिखते हैं कि क्या पता 2025 तक हमारी लोकभाषाएं एक-एक कर अपने प्राण छोड़ती जाएं। बड़ी बारीकी से इस आलेख में यह बताया गया है कि कैसे हमारी मां समान लोकभाषाओं का कत्ल हम अपने ही हाथों से कर रहे हैं। 

इस आलेख संग्रह में कई ऐसे आलेख हैं जिन का पाठन कर के एक नयापन का अनुभव होता है। हिंदी थिसारस लिखने वाले अरविंद कुमार, पत्रकार रवीश कुमार, भवानी मिश्रा, अज्ञेय इत्यादि लोगों पर भी लेख हैं। जिन में नवीन तथ्यों, सूचनाओं और ताजा विमर्शों की गंभीरता है। दयानंद पांडेय एक सवाली लेखक लगते हैं। और साथ में जवाबी भी। पुस्तक में प्रायः सभी लेख समय-समय पर उन के मन में ऊपजे सवालों की किश्त हैं। दरअसल वे समय के अंधकार में छिपती सच्चाईयों पर खरा सवाल करते हैं दयानंद पांडेय। बस खासियत ये है कि उन अंधेरे सवालों का जवाब भी वो देने में सफल हुए हैं।










समीक्ष्य पुस्तक- मीडिया तो अब काले धन की गोद में

[आलेख]

लेखक- दयानंद पांडेय

पृष्ठ- 208 मूल्य- 400

प्रकाशक- सर्वोदय प्रकाशन 512-B, गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032

प्रकाशन वर्ष- 2013