दयानंद पांडेय
खुशवंत सिंह की याद तो हमेशा ही आएगी। हमारे दिल से वह कभी नहीं जाएंगे। और कि यह आह भी मन में कहीं भटकती ही रहेगी कि, हाय ! हम क्यों न हुए खुशवंत ! लेखक और पत्रकार तो वह बड़े थे ही, आदमी भी बहुत बड़े थे वह। जितने अच्छे थे वह, उतने ही सच्चे भी थे वह। एकदम खुली तबीयत के आदमी। लोग अब उन का औरतबाज़ और शराबी आदमी के रुप में ज़िक्र करते हैं तो मुझे यह बहुत बुरा लगता है। सच यह है कि वह सच्चे आदमी थे। बहुत ही सच्चे। अपनी खूबी-खामी हर चीज़ के बारे में वह खुल कर बोलते और लिखते थे। अगर वह खुद अपने बारे में इतने खुलेपन से न बताते या लिखते तो वह ऐसी तोहमत से बच सकते थे। पर दिखावा उन की तासीर में नहीं था। कितने लोग हैं आज की तारीख में जो इतना खुला जीवन जिएं और उसे कुबूल भी करें। हिप्पोक्रेटों से दुनिया भरी पड़ी है। भीतर कुछ , बाहर कुछ। कथनी कुछ, करनी कुछ। पर खुशवंत सिंह को हिप्पोक्रेसी छूती तक नहीं थी। सरलता और सच उन की बड़ी ताकत थे। सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत उन की आत्मकथा का हिंदी अनुवाद है। जिसे निर्मला जैन ने बड़ी तबीयत से किया है। ऐसा सरल अनुवाद और ऐसी निर्मल आत्मकथा मैं ने अभी तक नहीं पढ़ी है। खुशवंत सिंह से दो बार मिला भी हूं। एक बार दिल्ली में दूसरी बार लखनऊ में। मिलते भी वह तबीयत से थे। बाद में वह ज़रा ऊंचा सुनने लगे थे। लेकिन फ़ोन पर बात करते थे। और बता कर करते थे कि ज़रा जोर से बोलिए, कम सुनता हूं। ज़्यादातर समय वह फ़ोन भी खुद ही उठाते थे। वर्ष २००० में जब मेरा उपन्यास अपने-अपने युद्ध छपा था तब उन को भी भेजा था। किताब मिलने पर एक शाम उन का फ़ोन आया था । कहने लगे आप का नावेल तो मिल गया है पर क्या करें हमें हिंदी पढ़ने नहीं आती। माफ़ कीजिएगा। सुन कर मैं उदास हो गया था। लेकिन फिर कुछ दिन बाद उन का फ़ोन आया कि मैं ने कुछ हिस्सा उलट-पुलट कर पढ़वा कर सुना है आप के नावेल का। इस नावेल का हिंदी में क्या काम? इसे तो इंग्लिश में होना चाहिए। इसे ट्रांसलेट करवाइए। मैं ने हामी भर ली। लेकिन कोई ट्रांसलेटर ऐडवांस पैसा लिए बिना तैयार नहीं हुआ। और कि पैसे भी बहुत ज़्यादा मांगे। मैं ने तौबा कर लिया। गलती हुई तब कि किसी प्रकाशक से सीधी बात नहीं की कि वह अनुवाद कर के छापे। खैर बात फिर भी कभी कभार फ़ोन पर होती रही खुशवंत सिंह से।
हालां कि उन दिनों यहां लखनऊ में लोग अपने-अपने युद्ध को ले कर पीठ पीछे मुझ पर तंज करते कि यह तो खुशवंत सिंह को भी मात कर रहा है। गरज यह थी कि अपने-अपने युद्ध में कुछ देह प्रसंग थे। और पढ़ सभी रहे थे एक दूसरे से मांग-मांग कर। और अंतत: अघोषित तौर पर मुझे अश्लील लेखक करार दे दिया गया। घोषणा होती-होती कि हाईकोर्ट में कंटेंप्ट आफ़ कोर्ट हो गया इस उपन्यास को ले कर और राजेंद्र यादव का चार पेज का संपादकीय हंस में आ गया, केशव कहि न जाए, का कहिए ! इस उपन्यास को ले कर। सो लोगों के मुंह सिल गए। घोषणा स्थगित हो गई मुझे अश्लील लेखक करार देने की। मैं ने यह सारी दिक्कत बताई थी एक बार खुशवंत सिंह को भी फ़ोन पर। तो उन्हों ने छूटते ही कहा था कि इस सब की फिकर छोड़ कर सिर्फ़ लिखने की फिकर कीजिए। और गालिब का एक शेर भी सुनाया था। जो मुझे तुरंत याद नहीं आ रहा।
खैर, उषा महाजन के हिंदी अनुवाद के मार्फ़त उन की कुछ कहानियां पढ़ी हैं मैं ने। जब युवा था तब उन की बाटमपिंचर कहानी पढ़ी थी और जब तब बाटमपिंचरी का जायजा भी। उन की दिल्ली और बंटवारे को ले कर चले दंगे का लोमहर्षक कथ्य परोसता ट्रेन टू पाकिस्तान भी। छिटपुट लेख भी। और उन के कालम का तो मैं नियमित पाठक रहा हूं। शनिवार को पहले उन का कालम पढ़ता था फिर बाकी अखबार। लेकिन जब उन की आत्मकथा सच, प्यार और ठोड़ी सी शरारत पढ़ी तो मैं जैसे दीवाना हो गया खुशवंत सिंह का। ऐसी निर्मल और ईमानदार आत्मकथा दुर्लभ है। दुनिया की किसी भी भाषा में। खुशवंत सिंह के जीवन में इतना रोमांच है, इतने मोड़, इतने सच और इतने बाकमाल अनुभव हैं कि पूछिए मत। और इन सब को कहने के लिए उन के पास जो पारदर्शिता है, जो बेबाकी है और जो आत्म-निरीक्षण की ताकत है वह किसी और आत्मकथा में मुझे तो नहीं मिली अभी तक। शायद ही मिलेगी।
भारतीय क्या किसी भी समाज में कोई अपनी मां की शराबनोशी के बारे में खुल कर लिखे और बताए कि मरते समय हमारी मां की अंतिम इच्छा ह्विस्की थी। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में यह बात लिखी है और बड़ी आत्मीयता से लिखी है। न सिर्फ़ लिखी है बल्कि इस बात को अपने पिता से भी जोड़ा है। बहुत ही सिलसिलेवार। बताया है कि पिता जब जीवित थे तो नियमित शराब पीते थे। शराब पार्टियां देते ही रहते थे। घर में शराब पीने का भी उन का एक समय निश्चित था। मां सारी व्यवस्था रोज खुद करती थीं। लेकिन खुद शराब छूती तक न थीं। बाद के दिनों में जब पिता का निधन हो गया, वह अकेली हो गईं तो अचानक पिता के शराब के समय खुद शराब पीने बैठने लगीं। नियमित। और जब मृत्यु का समय आ गया तो उन्हों ने अंतिम इच्छा हिचकी लेते हुए ह्विस्की की ही बताई। तो जाहिर है कि वह ह्विस्की नही, ह्विस्की के बहाने पति को याद कर रही थीं। यह और ऐसा रुपक, ऐसी संवेदना खुशवंत बिना किसी घोषणा या नैरेशन के रच देते हैं। और समझने वाले पाठक, समझ लेते हैं। वह भी आत्मकथा में। आत्मकथा उन की इतनी विविध है, इतने मोड़ और इतने रोमांच हैं उस में इतनी सारी घटनाएं भरी हैं कि सब का ज़िक्र कर पाना यहां अभी और अभी तो बिलकुल संभव नहीं है। फिर भी एक जायजा तो ले ही सकते हैं।
इतना ही नहीं वह अपने तमाम प्रेम और देह प्रसंग तो अपनी आत्मकथा में बांचते ही हैं, अपनी पत्नी के प्रेम प्रसंग को भी उसी निर्ममता से बांचते हैं। उन का एक दोस्त है और उन से एक दिन मजाक-मजाक में उन की बीवी की सुंदरता के बाबत चर्चा करता है और कहता है कि मुझे तो तुम्हारी बीवी से इश्क हो गया है। मेरा लव लेटर पहुंचा दो उस तक। खुशवंत सिंह मजाक ही मजाक में इस बात पर न सिर्फ़ हामी भर देते हैं बल्कि उस का प्रेम पत्र बीवी तक पहुंचाने भी लगते हैं। नियमित। और यह देखिए कि खुशवंत सिंह की पत्नी सचमुच उस आदमी के साथ न सिर्फ़ प्यार में पड़ जाती हैं बल्कि इन का दांपत्य भी खतरे में पड़ जाता है। अब खुशवंत सिंह अपना दांपत्य बचाने के लिए गुरुद्वारे में अरदास करते रहते हैं। अब उन का ज़्यादातर समय गुरुद्वारे में बीतने लगता है। इस पूरे प्रसंग को इतना भीग कर लिखा है कि खुशवंत सिंह ने कि खुशवंत सिंह से प्यार हो जाता है। मेरे जैसा आदमी उन का मुरीद हो जाता है। नहीं लिखने को तो हरिवंश राय बच्चन ने भी अपनी आत्मकथा में ऐसा एक छिछला सा प्रसंग लिखा है और अपनी आत्ममुग्धता में डूब कर बड़ी बेइमानी से लिखा है कि पता चल जाता है कि वह सारा का सारा कुछ झूठ लिख रहे हैं। कि बच्चन लंदन में हैं। इलाहाबाद में एक आदमी उन की पत्नी तेजी बच्चन के चक्कर में पड़ जाता है। तेजी उस की कार में बैठ कर यमुना किनारे तक जाती भी हैं पर अचानक उतर कर भाग आती हैं आदि-आदि। लेकिन इन को नहीं बतातीं अपनी चिट्ठी में तो इस लिए कि कहीं पढ़ाई में विचलित न हो जाएं। बताइए कि तेजी बच्चन के तमाम प्रसंग लोगों की जुबान पर आज भी हैं, अमरनाथ झा से लगायत, सुमित्रानंदन पंत और जवाहरलाल नेहरु आदि तमाम-तमाम लोगों तक। लेकि्न बच्चन की आत्मकथा इन सारे प्रसंगों पर खामोश है और कि आत्म-मुग्धता के सारे प्रतिमान ध्वस्त करती हुई है। यह इस बिना पर मैं कह रहा हूं कि कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें बच्च्न और शमशेर दोनों ने लिखा है। शमशेर के विवरण में तटस्थता है अपने प्रति। पर बच्चन के विवरण में मैं ही मैं तो है ही, आत्ममुग्धता और झूठ भी है। मैं तो कहता हूं कि अगर हरिवंश राय बच्चन की ज़िंदगी के खाते से मधुशाला, तेजी बच्चन और अमिताभ बच्चन को हटा लिया जाए तो हरिवंश राय बच्चन को लोग कैसे और कितना याद करेंगे भला? खैर यह दूसरा प्रसंग है। इस पर फिर कभी।
पर यहीं खुशवंत सिंह की आत्म-कथा अन्य से अनन्य हो जाती है। यह और ऐसे तमाम प्रसंग इस सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत को अप्रतिम बना देते हैं।
दूतावास की नौकरियों के कई विवरण हैं उन के पास। एक मध्यवर्गीय परिवार कैसे तो पैसे बचाता रहता है, इस बाबत उस की कंजूसी, चालाकी और बेशर्मी का वर्णन भी है। वह परिवार एक कमरे के मकान में रहता है। रोज रात को बच्चों को कार में सुला देता है। शाम का खाना अकसर नहीं बनता है। दूतावास में अकसर पार्टी वगैरह होती रहती हैं। तो उस पार्टी में कभी मिया, बीवी को खोजते हुए आ जाता है, कभी बीवी मिया को खोजते हुए आ जाते हैं। फिर बच्चे भी। यह्य उन का नियमित सिलसिला है। और खा पी कर चले जाते हैं।
मुंबई के दिनों के भी कई सारे दिलचस्प विवरण हैं। जैसे कि एक व्यवसाई की पार्टी का विवरण है। वह एक शीशे की छत का स्विमिंग पुल बनाए हुए है। पार्टी के दौरान औरतें नंगी हो कर तैरती रहती हैं और नीचे से लोग शराब पी्ते हुए इन औरतों को देखते रहते हैं। एक समय वह भी आता है जब खुशवंत के बेटे राहुल सिंह भी टाइम्स आफ़ इंडिया में सब एडीटर बन कर नौकरी करने आ जाते हैं। खुशवंत खुद इलस्ट्रेटेड वीकली में संपादक हैं।
बताइए कि पत्रकारिता में लायजनर्स और दलालों की जैसे फौज खड़ी है हमारे सामने लेकिन हर कोई अपने को पाक साफ और सती-सावित्री बताने में सब से आगे है। एक से एक एम जे अकबर, रजत शर्मा, प्रभु चावला, आशुतोष आदि पूरी तरह नंगे खड़े हैं पर सूटेड बूटेड दिखते हैं। बिलकुल शहीदाना अंदाज़ में। लेकिन इन सब में से किसी एक में यह हिम्मत नहीं है जो खुशवंत सिंह बन सके और उन की तरह खुल कर कह सके जैसे कि वह अपने बारे में कहते हैं अपनी आत्मकथा में। खुशवंत सिंह बहुत साफ लिखते हैं कि हां, मैं संजय गांधी का पिट्ठू था। और बार-बार। और तमाम सारे किस्से। एक जगह उन्हों ने लिखा है कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद जब कांग्रेस की दुबारा सरकार बनी तो संजय गांधी ने उन के सामने दो प्रस्ताव रखे। एक कि वह कहीं राजदूत बन जाएं या फिर कहीं संपादक और राज्य सभा सद्स्य बन जाएं। यह दूसरा प्रस्ताव खुशवंत ने स्वीकार कर लिया। फिर वह जल्दी ही हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बना दिए गए। और एक दिन वह भी आया जब वह राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हो गए। उन्हों ने लिखा है कि जब उन्हें यह सूचना फ़ोन पर संजय गांधी ने दी तो वह किसी बच्चे की तरह खुश हो कर चिल्ला पड़े।
लेकिन एक समय वह भी था कि इमरजेंसी और सेंसरशिप लगते ही खुशवंत सिंह ने कहा था कि सारे अखबार बंद कर दिए जाने चाहिए। तब के दिनों वह टाइम्स आफ़ इंडिया ग्रुप की पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक थे। लेकिन बाद में मेनका गांधी की वज़ह से वह पलट गए। मेनका गांधी जो तब मणिका हुआ करती थीं, खुशवंत सिंह की रिश्तेदार हैं। यह बात माधुरी के तब के संपादक अरविंद कुमार ने लिखी है। खैर, बाद में यही खुशवंत सिंह इमरजेंसी के न सिर्फ़ अच्छे खासे पैरोकार बन कर उभरे बल्कि एक किताब भी इस बाबत लिखी। बाद के दिनों में इंदिरा गांधी और संजय गांधी के कसीदे भी उन्हों ने खूब लिखे। और अपनी इस कमी को स्वीकार भी किया।
लेकिन वह सिख दंगों के दिन थे जब खुशवंत सिंह का कांग्रेस से जब मोहभंग हो गया। एहतियात के तौर पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने उन्हें राष्ट्रपति भवन बुला लिया था और कई सिख परिवारों ने रा्ष्ट्रपति भवन में शरण ली थी तब। लेकिन दिक्कत यह थी कि राष्ट्रपति भवन में भी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह समेत तमाम सिख अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे थे और मारे भय के दुबके हुए थे।
राष्ट्रपति भवन के उन दिनों का बहुत ही लोमहर्षक विवरण खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में परोसा है। यह पढ़ कर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह पत्ते की तरह कांप रहे थे कि कहीं वह भी न मार दिए जाएं। राष्ट्रपति खुद थानों को फ़ोन कर रहे थे, अफ़सरों को फ़ोन कर रहे थे, सिख भाइयों को बचाने के लिए और इक्का दुक्का कोछोड़ कर कोई भी उन की सुनने को जल्दी तैयार नहीं हो रहा था। राष्ट्रपति असहाय थे।
राज्यसभा के भी एक से एक किस्से उन्हों ने लिखे हैं। सदन में सोने वालों से ले कर बदबूदार पादने वालों तक के। यह भी कि सिख दंगों पर कैसे तो कांग्रेसियों ने उन्हें न सिर्फ़ बोलने नहीं दिया सदन में बल्कि अपमानित भी बहुत किया। अगली बार लेकिन राज्यसभा जाने को वह फिर उतावले हुए। भाजपा की बांह तक थामी पर सफल नहीं हुए। यह सब कुछ बड़ी सहजता और पूरी ईमानदारी से। अपनी उपल्ब्धियां भी उतनी ही ईमानदारी से और अपनी कमजोरियां, अपनी क्षुद्रताएं और कमीनगी भी उसी ईमानदारी से। एक रत्ती भी बेईमानी नहीं।वह ट्रेन से भोपाल जा रहे हैं। ट्रेन टु पाकिस्तान लिखने की योजना बना कर। वहां के ताल में एक गेस्ट हाऊस है उन का। ट्रेन में तब के दिनों के एक बड़े बिस्कुट व्यापारी भी उन के सहयात्री हैं। उन को खाने के लिए बिस्कुट पेश करते हैं औपचारिकता में। खुशवंत सिंह मना कर देते हैं तो वह कहते हैं कि देखो तो सही कि यह बिस्कुट तुम्हें खिला कौन रहा है? और अपना परिचय बताते हैं। खुशवंत सिंह बिस्कुट ले लेते हैं और अपना परिचय भी बताते हैं। अपने अमीर पिता शोभा सिंह का नाम बताते हैं। जो दिल्ली के न सिर्फ़ सब से बड़े ठेकेदार हैं बल्कि अमीर भी। अपने कैंब्रिज़ की पढ़ाई, दूतावासों की नौकरियों आदि की भी फ़ेहरिश्त बताते हैं। अपने संपादक और लेखक होने के व्यौरे में जाते हैं। यह सोच कर कि उस व्यापारी पर अपना रौब पड़े। पर वह तो अपने एक संवाद से ही खुशवंत को ज़मीन पर बिठा देता है।
वह यह सब सुन कर जब कहता है कि अरे तब तो तुम ने अपने बाप का पैसा डुबो दिया, अपनी पढ़ाई का भी खर्च नहीं निकाल पाए तुम तो ! यह सुन कर खुशवंत सिंह सन्न रह जाते हैं।
वह अपनी आत्मकथा में कई सारे मिथ भी जहां तहां तोड़ते चलते हैं। जैसे कि वह लंदन दूतावास की नौकरी में हैं। कृष्णा मेनन हाई कमिश्नर हैं। प्रधान मंत्री नेहरु आने वाले हैं। मेनन खुशवंत को ज़िम्मेदारी देते हैं कि प्रेस को ठीक से संभालें और कि नेहरु को किसी अच्छी किताब की दुकान पर ले जाना शेड्यूल कर लें। नेहरु आते ही हवाई अड्डे से सीधे बिना किसी शेड्यूल के लेडी माउंटबेटन से मिलने चले जाते हैं। लेडी माउंटबेटन गाऊन मे ही उन का दरवाज़े पर वेलकम करती हैं। एक लंबे आलिंगन और चुंबन के साथ। छुपे हुए फ़ोटोग्राफ़र जो पहले ही से वहां उपस्थित हैं, फ़ोटो खींच लेते हैं। दूसरे दिन अखबारों में यही फ़ोटो छा जाती है। मेनन और नेहरु दोनों नाराज होते हैं। खैर एक शाम वह नेहरु के साथ किताबों की दुकान पर जा रहे हैं। दुकानदार को पहले से ही तैयार किए हुए हैं। रास्ते में औपचारिकता वश नेहरु से पूछ लेते हैं कि कैसी किताबें उन्हें पसंद हैं? यह सुनते ही नेहरु बिदक जाते हैं। कहते किसी भी तरह की नहीं। टाइम कहां है कोई किताब पढ़ने के लिए? नेहरु यहीं नहीं रुकते। बिदक कर पूछते हैं कि यह किताबों की दुकान पर जाना शेड्यूल करने की क्या ज़रुरत थी?
इसी दूतावास में एक दिन अचानक एक एजेंट आता है। हिंदुस्तान की एक महारानी का लंदन में निधन हो गया है। उन की अंत्येष्टि हिंदू तौर तरीके से की जानी है। ऐसा निर्देश वह मरने के पहले दे गई हैं किसी एजेंसी को। पैसा भी दे गई हैं। सब कुछ हो भी गया है। पर एक दिक्कत आ गई है उन्हें साड़ी पहनाने की। सो वह भारतीय दूतावास आ गया है और खुशवंत सिंह के पास चला गया है। यह सुन कर खुशवंत सिंह बहुत खुश हो जाते हैं। कि चलो मरने के बाद ही सही एक महारानी की नंगी देह तो देखने को मिलेगी। पर उन का हंसोड़ मन उन की इस तमन्ना पर पानी फेर देता है। वह कहते हैं उस एजेंट से कि साड़ी पहनाने तो नहीं पर साड़ी उतारने उन्हें ज़रुर आता है। इस का बहुत तजुर्बा भी है। एजेंट खुशवंत के इस मजाक का बुरा मान जाता है और सीधे मेनन से उन की शिकायत कर देता है। पर खुशवंत को उस की शिकायत से कोई शिकवा नहीं होता। शिकवा अपने आप से होता है कि मजाक-मजाक में एक महारानी की नंगी देह देखने से वंचित हो गए वह। एक मशहूर महिला चित्रकार से अपने संबंधों का बखान करते हुए वह लिखते है कि वह बहुत होशियार थी। कपड़े उतारने में नखरे करने के बजाय खुद कपड़े उतार कर तैयार रहती। वक्त बिलकुल नहीं खराब करती थी बेवकूफ़ी की बातों में।
खुशवंत सिंह स्कूल में हैं। नर्सरी, के जी टाइप क्लास में। और एक दिन वह स्कूल में बैठी अपनी शिक्षिका के प्राइवेट पार्ट किसी तरह देख लेते हैं और उस का भी वर्णन शिशु उत्सुकता-जिज्ञासा में अपनी आत्मकथा में लिख देते हैं। वह प्राइमरी क्लास में ही एक चीफ़ इंजीनियर की बेटी से प्यार भी कर बैठते हैं। संयोग से तमाम और किस्सों के बावजूद इसी प्राइमरी वाली लड़की से विवाह भी हो जाता है खुशवंत सिंह का।
अब तो दिल्ली से लाहौर बस जाती है। लेकिन खुशवंत सिंह अपनी जवानी में दिल्ली से लाहौर मोटरसाइकिल से जाते हैं। लाहौर में अपने विद्यार्थी जीवन और वकालत के भी एक से एक नायाब प्रसंग उन्हों ने लिखे हैं। एक धोबिन का प्रसंग है। जो सुंदर है, युवा है और लड़कों से कुछ पैसे मिलते ही उन के साथ हमबिस्तरी करने में उसे गुरेज नहीं है। लेकिन लड़कों के तमाम प्रयास के बावजूद खुशवंत उस धोबिन के साथ नहीं सोते। लाहौर में उन के कई स्त्रियों से संबंध के रोचक विवरण हैं। पर एक प्रसंग तो अदभुत है। एक पार्टी में इन के बेटे की कुछ शरारत को ले कर एक औरत का इन की पत्नी के साथ विवाद हो जाता है तो वह औरत बाद में पता करती है कि इस का शौहर कौन है ? और फिर वहां उपस्थित औरतों से बाकायदा चैलेंज दे कर कहती है कि इसे तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी। और वह खुशवंत के साथ हमबिस्तरी कर के ही उन की पत्नी को सबक सिखा देती है। खुशवंत सिंह ने हालां कि अभी हाल के एक इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि उन के संबंध ज़्यादातर मुस्लिम औरतों से ही रहे हैं, सिख औरतों से नहीं और इसी लिए वह मुसलमानों के बारे में हमेशा से उदार रहे हैं। दिल्ली में भी एक मुस्लिम औरत उन की आत्मकथा में मिलती है जो उन के साथ उन की फ़िएट में घूमती रहती रहती है। उन्हों ने लिखा है कि तब फ़िएट में गेयर स्टेयरिंग के साथ ही होता था सो उन का एक हाथ में स्टेयरिग पर होता था और दूसरे हाथ से उसे अपने से चिपटाए रहते थे।
बहुत कम लोग जानते हैं कि खुशवंत सिंह के पिता दिल्ली के न सिर्फ़ सब से बड़े ठेकेदार थे बल्कि उन्हों ने सामान ढोने के लिए खुद रेल लाइन बिछाई थी। उन की खुद की रेल भी थी। और कि राष्ट्रपति भवन के सामने बने नार्थ ब्लाक और साऊथ ब्लाक खुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह के ही बनवाए हुए है। तब के दिनों में वह जनपथ के एक बड़े से बंगले में रहते थे। तब कहा जाता था कि आधा कनाट प्लेस उन्हीं का था। हालां कि यह पूरा सच नहीं है। खैर तमाम अमीरी के बावजूद खुशवंत सिंह ने कुछ दिनों तक लाहौर में वकालत भले की पर बाद की ज़िंदगी लिखने-पढ़ने और नौकरी में ही गुज़ारी। आज़ादी के बाद वह भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका योजना के संपादक हो गए। एक बार क्या हुआ कि वह अंगरेजी के प्रसिद्ध लेखक नीरद सी चौधरी से मिलने उन के घर किंग्ज्वे कैंप गए। वह आर्थिक रुप से मुश्किल में थे। खुशवंत सिंह ने उन की मदद की सोची। पर उन्हों ने इंकार कर दिया। तब एक दूसरा रास्ता निकाला उन्हों ने उन की मदद का। कहा कि आप योजना के लिए लिखिए। और यह एडवांस ले लीजिए। जब जो मन हो लिख कर दे दीजिएगा। नीरद चौधरी मान गए। हालां कि वह लिख कर कभी कुछ दे नहीं पाए योजना को। बाद के दिनों में नीरद चौधरी इंगलैंड चले गए। एक बार खुशवंत सिंह को फिर पता चला कि वह आर्थिक मुश्किल में हैं। इस का विवरण अपने कालम में लिखा जब हिंदुस्तान टाइम्स में तब के के बिरला ने खुशवंत सिंह को यह पढ़ कर बुलाया और कहा कि हम आप के दोस्त की मदद करना चाहते हैं। आप उन से यह भर पूछ कर बता दीजिए कि वह पौंड, डालर या किस मुद्रा में लेना चाहेंगे? खुशवंत सिंह ने बिरला के कहे मुताबिक नीरद चौधरी से यह बात पूछी। पर नीरद चौधरी ने बिरला के इस मदद के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया।
अब इन दिनों तो पत्रकारों की नौकरी रोज ही खतरे में पड़ी रहती है। इतनी कि पत्रकार काम करने पर कम नौकरी बचाने पर ज़्यादा ध्यान देते हैं। पर पहले ऐसा नहीं था। खुशवंत ने एक जगह लिखा है कि जब उन्हों ने हिंदुस्तान टाइम्स ज्वाइन किया तो ज्वाइन करने के हफ़्ते भर बाद ही के के बिरला उन से मिले। और पूछा कि काम-काज में कोई दिक्कत या ज़रुरत हो तो बताइए। खुशवंत ने तमाम डिटेल देते हुए बताया कि अल्पसंख्यक नहीं हैं स्टाफ़ में और कि फला-फला और लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों को रखना पड़ेगा और कि स्टाफ़ बहुत सरप्लस है, सो बहुतों को निकालना भी पड़ेगा। तो के के बिरला ने उन से साफ तौर पर कहा कि आप को जैसे और जितने लोग रखने हों रख लीजिए, पर निकाला एक नहीं जाएगा। के के बिरला एक बार खुशवंत के अनुरोध पर उन के घर खाने पर गए। वह लहसुन, प्याज भी नहीं खाते थे यह बताने के लिए अपना एक आदमी उन के घर अलग से भेजा जो उन के खाने की पसंद बता गया। बिरला जब पहुंचे तो बड़ी सादगी और विनम्रता से वहां रहे। उन्हें यह बिलकुल एहसास नहीं होने दिया कि वह उन के कर्मचारी भी हैं।
पर क्या आज भी ऐसा मुमकिन है?
अब न खुशवंत सिंह जैसे लोग हैं न के के बिरला जैसे। आज तो संपादक मालिकान तो मालिकान उन के बच्चों, चमचों, चपरासियों, ड्राइवरों और कुत्तों तक के चरण चूमते देखे जाते हैं। जैसे बेरीढ़ ही पैदा हुए हों।
खैर बात यहां हम खुशवंत सिंह की कर रहे हैं। वह खुशवंत सिंह जो खुद को संजय गांधी का पिट्ठू कहता था। पर क्या सचमुच ही वह पिट्ठू था किसी का? मुझे तो लगता है कि खुशवंत सिंह अगर किसी एक का पिट्ठू था तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ एक कलम का पिट्ठू था। हम तो खुशवंत सिंह को उन की कलम के लिए ही याद और सैल्यूट करते हैं।
खुशवंत सिंह ने दो खंड में सिखों का इतिहास लिखा है। बल्कि सिख इतिहास लिखने के लिए ही दुनिया में उन को पहली बार जाना गया और वह प्रसिद्धि के शिखर पर सवार हो गए। फिर पीछे मुड़ कर उन्हों ने नहीं देखा। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता आदि तो बाद की बात है। उन के जीवन में पहले सिख इतिहास ही है। पर सोचिए कि सिख इतिहास लिखने वाले खुशवंत सिंह का बाद के दिनों में सिख धर्म ही नहीं सभी धर्मों से यकीन उठ गया। उन की आत्मकथा का आखिरी और लंबा हिस्सा इसी धर्म से यकीन उठ जाने पर है। यह हिस्सा एक लंबी और गंभीर बहस की मांग करता है। जो कभी हुई नहीं। होनी चाहिए। खुशवंत सिंह ने जो मुद्दे और जो सवाल तमाम धर्म को ले कर उठाए हैं और विस्तार से उठाए हैं, सुचिंतित और सुतर्क के साथ उठाए हैं। उस पर खुल कर बात होनी चाहिए। जो अब तक नहीं हुई। खुशवंत सिंह की आत्मकथा का यह हिस्सा इतना महत्वपूर्ण और सारगर्भित है कि उन के जीवन और यौवन के सारे रोमांच इस के आगे फीके पड़ जाते हैं। वह एक जगह जैसे मुक्त होते हुए लिखते हैं कि वह यही गुरुद्वारा है जहां अपना दांपत्य बचाने के लिए मैं घंटों बैठा रहता था ! ऐसा लिखना खुशवंत के ही वश की बात थी। क्यों कि खुशवंत ने जीवन को पूरी तरह जिया है और भरपूर जिया है। भरपूर जीने के बाद ही ऐसा कोई लिख सकता है।
मुक्तिबोध की एक कविता याद आती है :
अब तक क्या जिया, जीवन क्या जिया
लिया बहुत ज़्यादा, और दिया बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रहे तुम !
हमारे जैसे सामान्य लोगों पर तो यह कविता भले फिट बैठती हो लेकिन बड़ी विनम्रता से यहां यह कहना चाहता हूं कि खुशवंत सिंह ने जो जीवन जिया और जिस तरह जिया, जिस रोमांच, जिस सलीके और पारदर्शिता से जिया उस में दिया बहुत ज़्यादा और लिया बहुत कम। ऐसा जीवन और ऐसा लिखना काश कि सब के नसीब में होता ! और कि हमारे भी नसीब में काश कि होता। निन्यानबे साल की उम्र में भी ऐसा ज़िंदादिल आदमी हम ने न सुना न देखा। आप ने देखा हो तो हम नहीं जानते। सच कई बार उन को पढ़ कर रश्क होता है और कहने का मन होता है कि हाय ! हम क्यों न हुए खुशवंत !