Friday, 26 July 2013

सियासी हकीकत का दस्तावेज़



डा. मुकेश मिश्रा 

राजनीति एक ऐसा विषय है जिस में आंशिक या पूर्ण दखल हर नागरिक रखता है। क्यों कि राजनीति भी आम आदमी के जीवन का एक रंग है। जिसको वह अपनी निश्छल भावना के रंग में रंगीन देखना चाहता है। खास कर भारत जैसे देश में जहां मौजूदा राजनीति को पाने में हर भारतीय का खून-पसीना किसी न किसी प्रकार से बहा है। किसी के बाप, दादा तो किसी के नाना, मामा अथवा पड़ोसी-मुहल्ले का कोई सख्श आजादी की जंग में शामिल जरूर रहा है। भले उसका जुड़ाव भावनात्मक ही क्यों न रहा हो। लेकिन आज देश की राजनीति का जो रंग है वह इस कदर बदरंग है कि साधारण आदमी उस का हिस्सा किसी भी तरह से नहीं बनना चाहता। यहां तक कि वोट बूथ तक जाकर भी नहीं। इसका एक कारण यह है कि आम आदमी को आज की राजनीति और राजनीतिज्ञों के अस्तित्व पर भरोसा भी नहीं है और उसे उनके अंदरूनी अंतर्विरोधों की समझ भी नहीं है। लेकिन कुछ लोग आज के दौर में भी राजनीति, राजनीतिज्ञों और राजनीतिक घटनाक्रमों पर बारीक नर रखते हैं। और न सिर्फ़ नज़र रखते हैं बल्कि हर उस संभव मंच से उसका खुलासा करने को आगे भी आते हैं। सम-सामयिक राजनीतिक लेखों पर आधारित ‘एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी’ पुस्तक के लेखक दयानंद पांडेय ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी हैं। जिन्हें समाज के हर पहलू की गंभीर समझ है और उस के साथ-साथ उसे व्यक्त करने के लिए भाषा की अद्भुत कूची भी है। अपनी बारीक भाषाई कूची का इस्तेमाल वे बेधड़क और साफगोई से करते हैं। यह उन की लेखनी की खासियत है जो कम ही लेखकों में देखने को मिलती है।
पेशे से पत्रकार दयानंद पांडेय का कार्यक्षेत्र बड़ा व्यापक रहा है। जिस का फ़ायदा उन्हें मिला या नहीं मिला यह कहना कठिन है लेकिन यह कहना अति सरल है कि उन्हों ने उस का फ़ायदा पूरी शिद्दत से उठाया। और फ़ायदा उन की लेखनी के माध्यम से समाज भी उठा रहा है। यह उपरोक्त पुस्तक में भी देखने को मिलता है। जो विशुद्ध रूप से शोध और खोज से इतर रचना है। यह पूरी तरह अनुभववादी रचना है। जो देखा, समझा, अनुभव किया, वही समय आने पर व्यक्त कर दिया। ‘एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी’ में कुल १७ अध्याय हैं और सभी राजनीति, राजनीतिज्ञ और राजनीतिक हालात का सीधा प्रसारण की तरह उपस्थित हैं।
 पुस्तक की शुरूआत वर्तमान भारत के एक ऐसे जनांदोलन से की गई है जिस को ले कर देश दुनिया में बड़ी उम्मीदें थीं। खास कर भारतीय समाज के नई पीढ़ी के लिए वह एक ऐतिहासिक घटना थी जिस की आग में वह भस्म होने को भी तैयार दिख रहा था। लेकिन  उस का अंत जिस तरह से हुआ वह किसी त्रासदी से कम नहीं था। अन्ना हजारे के हालिया आंदोलन के बारे में दयानंद पांडेय लिखते हैं ‘लोग यह भूल गए कि कोई भी जनांदोलन हथेली पर सरसो उगाना नहीं है। यह लगभग एक तरह की किसानी है। खेती-बारी है। बरसों लग जाते हैं मिट्टी बनाने में। खाद पानी देते-देते मिट्टी बनती है। और फिर इसमें भी पपीते की खेती भी नहीं है कि लगाते ही छह महीने में फल मिलने लगता है पर छह महीने में ही पपीता खत्म भी हो जाता है। जनानंदोलन जैसे कटहल की खेती है। कि लगाती एक पीढ़ी है, खाती आगे की पीढ़ियां हैं।’ आगे वह उसे ‘गगन विहारी’ आंदोलन बताते हैं। जो पब्लिसिटी तो पा गया पर जमीन नसीब नहीं हुई। अन्ना हजारे की खासियतों को उकेरते हुए उन की गलतियों को रेखांकित करना और फिर सोनिया गांधी की ताकत को आडवाणी, प्रणव मुखर्जी सहित तमाम नेताओं की स्थिति के सापेक्ष अंदर की हकीकत को सामने लाना इस लेख की विशिष्टता है। लेख में दयानंद पांडेय ने अनुभवहीनता और जल्दबाजी को एक जनांदोलन के गर्भपात का कारण बता कर यह सिद्ध किया है कि वे न केवल सामयिक मुद्दों पर पकड़ रखते हैं बल्कि उन के समाधान की राह सुझाने को भी तत्पर हैं।
उक्त लेख के अलावा ‘धृतराष्ट्र, कोसल और अन्ना’, ‘संसद में आग लगाने वाले राहत इंदौरी के शेर पर सांसद मौन क्यों?’, ‘लोकपाल और अन्ना की बहस में नानाजी देशमुख जैसे फकीरों का असली चेहरा भी देखें’, ‘अब चुनाव निशान भर नहीं हाथी हथियार है मायावती के लिए’, ‘एक्जिट पोल की त्रासदी’ जैसे कुछ उल्लेखनीय लेख हैं जिनमें लोकतांत्रिक भारत की मौजूदा राजनीतिक विडंबनाओं की सर्जरी है। धृतराष्ट्र, कोसल और अन्ना में यह लाइनें इसकी बानगी हैं- ‘रामदेव की पतंग काटने की बजाय उन के हाथ से चर्खी ही छीन ली। उन को औरतों की सलवार पहन कर भागना पड़ा।’ दयानंद पांडेय को इतिहास की समझ है और वे उस के प्रसंगों को वर्तमान के जोड़ने में भी माहिर लगते हैं। उक्त लेख में कांग्रेस पार्टी की करतूतों को जिस ढंग से व्यक्त किया गया है वह तो काबिले गौर है ही उस से कहीं अधिक भाजपा के चरित्र की व्याख्या गौर करने लायक है। एक लतीफे के बहाने इसे कुछ यूं रखा है- ‘एक सज्जन थे जो अपने पड़ोसी रामलाल को सबक सिखाना चाहते थे। इस के लिए उन्हों ने अपने एक मित्र से संपर्क साधा और कहा कि कोई ऐसी औरत बताओ जिस को एड्स हो। उस के साथ मैं सोना चाहता हूं। मित्र ने कहा कि इस से तो तुम्हें भी एड्स हो जाएगा। जनाब बोले यही तो मैं चाहता हूं। मित्र ने पूछा ऐसा क्यों भाई? जनाब बोले कि मुझे अपने पड़ोसी रामलाल को सबक सिखाना है।

मित्र ने पूछा कि इस तरह रामलाल को कैसे सबक सिखाओगे भला? जनाब बोले- देखो इस औरत के साथ मैं सो जाऊंगा तो मुझे एड्स हो जाएगा। फिर मैं अपनी बीवी के साथ सोऊंगा तो बीवी को एड्स हो जाएगा। मेरी बीवी मेरे बड़े भाई के साथ सोएगी तो बड़े भाई को एड्स हो जाएगा। फिर बड़ा भाई से भाभी को होगा और भाभी मेरे पिता जी के साथ सोएगी तो पिता जी को एड्स हो जाएगा। फिर मेरी मां को भी एड्स हो जाएगा। और जब पड़ोसी रामलाल मेरी मां के साथ सोएगा तो उस को भी एड्स हो जाएगा। तब उस को सबक मिलेगा कि मेरी मां के साथ सोने का क्या मतलब होता है! तो अपनी यह भाजपा भी सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को सबक सिखाना चाहती है हर हाल में। देश की कीमत पर भी’। अपने इसी लेख में वे श्रीकांत वर्मा की एक कविता को संदर्भित करते हुए लिखते हैं ‘कोसल में विचारों की बहुत कमी है।’ इसी कमी को वे इस लेख के माध्यम से उकेरने में सफल हैं।
किसी व्यक्ति विशेष पर कुछ लिखना और वह भी निष्पक्ष हो कर, थोड़ा कठिन है। वह भी तब, जब किसी समकालीन राजनीतिज्ञ के विषय में लिखना हो। दरअसल, इस में संदर्भित व्यक्ति की आलोचना और समर्थन दोनों के ही अपने खतरे होते हैं। लेकिन खतरे कम हो जाते हैं जब लेखक के पास जानकारी का खजाना हो। दयानंद पांडेय के इन राजनीतिक लेखों के संग्रह में कुछ लेख नितांत व्यक्तिवादी होते हुए भी जानकारियों से भरपूर हैं और सार्थक भी। इस कड़ी में ‘कभी मायावती कभी अखिलेश हूं अभी न सुधरूंगा उत्तर उत्तरप्रदेश हूं’,और ‘का हो अखिलेश कुछ बदली उत्तर प्रदेश’ जैसे लेख मील का पत्थर हैं। जिस में उत्तर प्रदेश की सियासत की उन तमाम परतों को खोला गया है जो शायद बड़ी संख्या में लोगों के संज्ञान में न हों। ‘चाचाओं के चक्रव्यूह में अखिलेश और फिर चोरों के चक्रव्यूह में उत्तर प्रदेश’, ‘मुलायम का चरखा ममता की हेकड़ी और समय की दीवार पर प्रणब मुखर्जी’, ‘बेनी की बेलगाम बयानबाजी के मायने और बहाने’, आदि लेखों में लेखक ने गजब का राजनीतिक परिदृष्य पेश किया है। जो इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-‘सब पी गए पूजा नमाज बोल प्यार के, और नखरे तो रा देखिए परवरदिगार के ।’
राजनीतिक लेखों के इस संग्रह की खासियत यह भी है कि यह लेखक की स्वानुभूतिक अनुभवों और अधिकांशतः देखे गए माहौल पर आधारित है। यही इस की ताकत कही जा तो गलत नहीं होगा। बानगी देखें कि ‘मुलायम सिंह यादव एक समय चरण सिंह के चरणों में बैठे रहते थे। कम से कम मैं ने ऐसे ही बैठे देखा है मुलायम को चरण सिंह के साथ।’ आज़ाद भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में से एक अटल बिहारी बाजपेयी पर लिखे अंतिम लेख में भी यह खासियत झलकती है। और इसी किताब में उद्घृत एक कविता ‘ऊपर ऊपर लाल मछलियां नीचे ग्राह बसे। राजा के पोखर में है पानी की थाह किसे’ पुस्तक की भावना को व्यक्त करने के लिए काफी है। 

 







समीक्ष्य पुस्तक :
एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी
लेखक- दयानंद पांडेय
प्रकाशक- जनवाणी प्रकाशन
३०/३५-३६, गली नंबर ९, विश्वास नगर, दिल्ली-११००३२
मूल्य- २०० रुपए
पृष्ठ- १०४

मम अरण्य : राम कथा का अमृत-पान तो है ही भाषा का अमृत-पान भी है

- दयानंद पांडेय

हर किसी का अपना अरण्य होता है। सुधाकर अदीब का भी अपना अरण्य है। फ़र्क बस इतना है कि उन्हों ने अपना अरण्य लक्ष्मण बन कर रचा है। और सच यह भी यही है कि लक्ष्मण से ज़्यादा अरण्य जानता भी कौन है? राम भी नहीं। असली वनवासी तो लक्ष्मण ही थे। लेकिन लक्ष्मण भी यहां राम कथा ही कह रहे हैं। बिलकुल नए अंदाज़ और नए अर्थ में। राम कथा बहुतों ने कही है लेकिन सुधाकर अदीब जो लक्ष्मण बन कर मम अरण्य में जिस तरह कहते हैं किसी ने नहीं कही। लगता ही नहीं कि हम राम कथा पढ़ रहे हैं। लगता है जैसे सब कुछ हमारी आंखों के सामने ही घट रहा है। दृष्य दर दृष्य। ऐसे जैसे सिनेमा की कोई रील चल रही हो। कथा भले जानी पहचानी है पर उसे पढ़ने का चाव कम इस लिए नहीं होता क्यों कि इस में सुधाकर अदीब ने लक्ष्मण का राम के प्रति आदर का वह पाग मिला दिया है और साथ ही राम का लक्ष्मण के प्रति स्नेह का बंधन सहेज दिया है और इस तरह उसे परोस दिया है कि यह कथा अनूठी हो जाती है। इतना ही नहीं लक्ष्मण की ही तरह हनुमान को भी राम के अनुज की तरह लक्ष्मण के सखा की तरह पेश कर सुधाकर अदीब राम कथा का जो अमृत बरसाते हैं वह मन में अमृत ही की तरह संचित होता जाता है।

सुधाकर अदीब का मम अरण्य पढ़ते हुए कई बार त्रिलोचन की एक बात रह-रह कर याद आती रही। त्रिलोचन एक जगह लिखते हैं कि यदि तुम एक आम के वृक्ष को देख रहे हो तो उसे बहुत ध्यान से देखो। इसे कालिदास ने भी देखा, निराला ने भी। अब तुम्हारी बारी है। तुम इसे देखते रहो जब तक तुम्हें यह विश्वास न हो जाए कि तुम ने इस में ऐसा कुछ देख लिया जो पहले कोई और नहीं देख पाया। इस के बाद ही तुम्हें उस पर लिखने का अधिकार है। सचमुच सुधाकर अदीब ने त्रिलोचन के इस कहे की कसौटी पर आ कर ही राम कथा को मम अरण्य में बांचा है। बिलकुल तन्मय हो कर। ऐसे जैसे चैतन्य कृष्ण को गा रहे हों। सुधाकर अदीब के इस कथा-अमृत में मीरा का भाव भी पुलकित होता है और तुलसी का वह अनूठा चाव भी अब लौ नसानी अब ना नसैहों ! तुलसी की तपस्या भी आलोड़ित दिखती है बारंबार मम अरण्य में। तुलसी का विनय भी सुधाकर के सौमित्र में वास करते-करते अनायास ही उन की भाषा में भी सुगठित हो कर सुगंध की तरह मन हुलसित करता मिलता है। एक जगह वर्णन देखें:

'श्रीराम अपना लंबा धनुष संभालते हुए उसी शिलाखंड पर बैठ गए। उन्हों ने अपना तरकश उतार कर कुछ देर को उसी शिलाखंड पर अपने बराबर में रख लिया। वह सामने गिरते निर्झर की सुषमा को अनिमेष निहारने लगे। उधर वह प्राकृतिक सौंदर्य। उस पर इधर से टिके हुए दो कमलनयन। हनुमान मेरे साथ श्रीराम की अदभुत मुखछवि का रसपान करने लगे। मेरे भइया थे ही ऐसे कि कोई भी उन के श्याम सुंदर मुख की भव्यता पर मुग्ध हो जाए।'

कई बार तो लगता है वीरवर लक्ष्मण सु्धाकर अदीब की कलम खुद ही आ कर समा गए है। जो भी कुछ हम पढ़ रहे हैं वह सुधाकर अदीब लिख नहीं रहे हैं बल्कि लक्ष्मण ही उसे नैरेट कर रहे हैं। किसी कमेंटेटर की तरह। वैसे भी लक्ष्मण पर लिखने वालों की नज़र कम ही गई है। इस लिए भी कि लक्ष्मण को लिखना आसान नहीं है। लक्ष्मण आसान चरित्र हैं भी नहीं। राम पर लिखना आसान है। सीता पर लिखना आसान है। पर लक्ष्मण और उर्मिला पर लिखना आसान नहीं है। हजारी प्रसाद द्विवेदी एक जगह लिखते हैं कि लक्ष्मण हमारे साहित्य में सेवा और त्याग के आदर्श हैं। उन की बुद्धि सहज और दृष्टि ल्क्ष्य भेदिनी है। वीरता, साहस और कभी-कभी अधीरता की सीमा तक पहुंछ जाने वाली निर्भीकता उन के चरित्र में पाई जाती है। परंपरा से वे लोक हृदय में अपनी अकुंठ सेवा, अकातर त्याग, अदृष्टपूर्ण ब्रह्मचर्य और अकुलांभय वीरता के प्रतीक रहे हैं। संयोग से यह जितने भी गुण हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लक्ष्मण के बताए हैं सुधाकर अदीब के मम अरण्य के लक्ष्मण में यह सारे रंग मम अरण्य में यत्र-तत्र ऐसे उपस्थित हैं। एक बानगी देखें :

एक बेचैनी-सी मेरे मन में उसी क्षण घर कर गई थी। नीति-अनीति के द्वंद्व में जनहित के प्रसंगों को भी नहीं घसीटा जाना चाहिए। ये सारा ज्ञान, ये सारा प्रशिक्षण, यह सारा दायित्व आखिर हमारे किस काम का? यदि समय पर हम उस का उपयोग न कर सकें। दूसरों के संसार को उजाड़ कर अपनी उदरपूर्ति का अधिकार किसी को नहीं है। सही मानें तो यही नीति है। और उस नीति की सही शिक्षा यह कि ऐसे घोर आत्मकेंद्रित और असामाजिक प्राणी को जितने शीघ्र दंड दिया जा सके, वही सर्वहितकारी है।

मम अरण्य न सिर्फ़ राम कथा के रुप में हमारे सम्मुख उपस्थित है बल्कि नीति-अनीति और राजनीति, सुशासन की सुसंगत पहल के रुप में भी उपस्थित है। लक्ष्मण चिंतित हैं ताड़का वध के लिए और वही सोच रहे हैं । अपने ही से तर्क-वितर्क करते हुए। मम अरण्य की एक बड़ी खासियत इस की सरल और मोहित करने वाली भाषा तो है ही, कई उप-शीर्षकों में बंटी इस की सहजता भी है। जो कथा में न सिर्फ़ मिश्री घोलती है वरन पाठक में निरंतर पढ़ते रहने का चाव और और विश्राम भी देती है। एक निरंतर ललक जगाए रहते हैं इस मम अरण्य के उप शीर्षक। मैं अनुयायी अग्रज से लगायत मेरी माटी मेरा चंदन तक। धन्य हुआ मैं परिचय पा कर, होगा अब अभियान भयंकर, अग्नि परीक्षा क्यों दें माता जैसे उप-शीर्षक मन में उत्सुकता की घंटी बजाते ही रहते हैं। कौन अहेरी आया है यह, यह मेरी रक्षा रेखा है, क्या तुमने मां को देखा है जैसे उप-शीर्षक से कब कौन सी कथा पढ़नी है का भान भी कराते चलते हैं।

हालां कि समूची कथा लक्ष्मण के एक संवाद में क्यों कि मै अनुज हू। अपने अग्रज की छाया हूं। में ही पगी पड़ी है। क्यों कि यह कथा लक्ष्मण के बहाने राम ही की है, राक्षसों के नाश की है, अनीति पर नीति के विजय की है लेकिन जो भी है अग्रज की छाया ही तले है। जैसे कोई भोजन आग में पके वैसे ही यह कथा भी अग्रज की छाया में ही पकी हुई है। सुधाकर अदीब ने कैसे लक्ष्मण बन कर इस कथा को पकाया है, अग्रज की छाया में, इस की अनुभूति इस कथा का स्वाद लिए बिना जानना मुश्किल है।

हनुमान जी राम जी के चरणों के निकट दूब घास की प्राकृतिक बिछावन पर बैठ गए। मैं भी वज्रासन में उन के निकट अपना धनुष धरती पर रख कर बैठ गया। किंतु मेरा बाणों से बोझिल तरकश मेरे कांधे पर ही टिका रहा।

ऐसी मनोहारी भाषा ही असल में मम अरण्य की थाती है। लेकिन राम की छाया लक्ष्मण कहीं-कहीं जब राम भी अनीति करते हैं तब चीत्कार उठती है। प्रसंग सीता की अग्नि-परीक्षा का है:

मेरा मन भी अब भीतर से हाहाकार कर उठा। पहली बार मुझे मेरे राम भइया आज एक विरुप खलनायक-से दिखे। उन का ऐसा व्यवहार भाभी मां के प्रति लंकाभियान की सफलता के पश्चात मैं देखूंगा इस की मैंने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। जो व्यक्ति गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या के उद्धार के समय इतना उदार था आज अपनी स्वयं की पत्नी के विपत्तिमोचन के समय एकाएक इतना निष्ठुर और इतनी गर्हित सोच वाला कैसे हो गया?

हालां कि कहीं-कहीं कथा में गति देने और उस को लालित्य देने के लिए सुधाकर अदीब पद्य का भी सहारा लेते हैं। लेकिन सच यह है कि समूचा मम अरण्य ही पद्यात्मक है। उन के गद्य में भी पद्य का निरंतर वास मिलता है। मम अरण्य को पढ़ना इसी लिए राम कथा का अमृत-पान तो है ही भाषा का अमृत-पान भी है। ज्यों सोने पर सुहागा शायद इसी को कहते हैं।

समीक्ष्य पुस्तक: मम अरण्य
उपन्यासकार- सुधाकर अदीब
प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशनपहली मंज़िल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद
मूल्य-४२५ रुपए
पृष्ठ- ३५६


Friday, 19 July 2013

प्राण का पिता रूप और उन के चंदन अभिनय की खुशबू

दयानंद पांडेय 

विलेन आफ़ द मिलेनियम कहा ज़रूर गया है प्राण के लिए पर मुझे उन के  अभिनय का पिता रूप ज़्यादा प्रभावित करता है। पाश्चात्य सभ्यता में डूबा वह चाहे पूरब और पश्चिम का पिता हो, बॉबी का पिता हो, अमर, अकबर, एंथोनी का पिता हो या शराबी का पिता। या फिर डॉन का भी पिता क्यों न हो। हर जगह उन के पिता रूप का अभिनय अपनी पूरी दमक में उपस्थित है।

 इसी कड़ी में उपकार का मलंग चाचा। धर्मा का मिर्जा और जंजीर के शेर ख़ान या फिर कालिया के जेलर रघुवीर को भी जोड़ लें। ऐसे ही उन की ललकार, दस नंबरी, शहंशाह और तमाम ऐसी फ़िल्मों को भी जोड़ सकते हैं, फेहरिस्त ख़त्म नहीं होगी उन के अभिनय के दमक की। उन के अभिनय के अवदान की। इस लिए भी कि उन का अभिनय अलहदा है। उन का अंगाभिनय उन की संवाद अदायगी और उन का तन कर खड़े रहना, ज़िद की हद तक अड़े रहना और अचानक मोम की तरह पिघल जाना उन के  कड़ियल चरित्रों की खूबी रही है।

 धर्मा फ़िल्म में एक कव्वाली है, इशारों को अगर समझो राज़ को राज़ रहने दो। उस में प्राण के हिस्से में एक मिसरा है, ‘मैं चंदन हूं, मैं चंदन हूं ,मैं चंदन हूबहू हूं !’ वह सचमुच अभिनय के चंदन थे।

उन का किरदार जैसा भी हो, उन के सहयोगी कलाकार जो भी हों, जैसे भी हों, प्राण के अभिनय की पुलक और उस की आंच में वह तिर ही जाते थे। पग ही जाते थे प्राण के प्राणवान अभिनय में वह चरित्र जैसे प्राण पा जाता था। उन के अभिनय के चंदन में जैसे गमक जाता था। उन के अभिनय की अंतरधारा में नहा जाता था। और उन की संवाद अदायगी जैसे भेड़िया रूक-रूक कर हड्डियां चबा रहा हो। संवाद अदायगी की उन की यह अदा और अंदाज़ ही उन्हें प्राण बनाता था। उपकार फ़िल्म में उन का वह मशहूर संवाद ‘राशन पर भाषण मिल सकता है, पर भाषण पर राशन नहीं, मिलता बरखुरदार!’ यों ही नहीं मशहूर हो गया था। उपकार फ़िल्म का ही वह गीत ‘कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या!’ लिखा ज़रूर इंदीवर ने था, और कल्याण जी आनंद जी के संगीत में मन्ना डे ने गाया ज़रूर पर लगता है कि जैसे यह सब कुछ प्राण पर ही कुर्बान था। ‘देते हैं भगवान को धोखा, इंसा को क्या छोड़ेंगे!’ में जब प्राण का मलंग ‘आसमान को अपनी बैसाखी से इंगित करता है तो यह गीत, गीत नहीं समय की चीख़ बन जाता है, चीख़ चित्कार बन जाती है। तो यह उन के अभिनय का निर्वाह ही तो है जो उन के अंग-अंग से अनायास ही चीख़ और चित्कार के रूप में छलकती है। वास्तव में उपकार में प्राण द्वारा जिया मलंग का चरित्र सिर्फ़ एक फ़िल्मी चरित्र भर नहीं है बल्कि नेहरू की औद्योगिक नीतियों की चक्की तले पिस कर पिछड़ गए किसान की आह का मुक़म्मल प्रतिनिधित्व भी है। नेहरू की नीतियों से उपजी विडंबनाओं का जीता-जागता दस्तावेज़ है उपकार का मलंग जिसे प्राण के अभिनय ने प्राण दिया, इंदीवर ने शब्द दिए और मन्ना डे ने जिसे आवाज़ दी कस्मे वादे, प्यार वफ़ा सब बातें है, बातों का क्या!’

यह एक प्रतिमान है, एक रूपक है धोखा खाई जनता का। शायद इसी लिए यह गीत प्राण के अभिनय का भी एक प्रतीक बन गया।

 नहीं गीत तो प्राण पर और भी बहुतेरे फ़िल्माए गए हैं। ‘यारी है ईमान मेरा, यार मेरी ज़िंदगी!’ जंज़ीर फ़िल्म में उन पर फ़िल्माया गया गीत भी मुहावरा बन कर छा गया लोगों के दिलों पर और प्राण के अभिनय ने इस में जो आंच दे दी तो वह परवान चढ़ गया। प्राण की भूमिका अपनी फ़िल्मों में वास्तव में वही हुआ करती थी जो भूमिका रामायण में हनुमान की थी। जैसे समूची रामायण है तो राम चरित लेकिन हनुमान के कंधों पर ही लिखी गई है, उन्हीं के गुणगान में न्यस्त है। ठीक वैसे ही फ़िल्म कोई भी हो, हीरो कोई भी हो समूची फ़िल्म प्राण के कंधों पर बैठी मिलती है। चाहे वह खल पात्र जी रहे हों चाहे सहयोगी पात्र। जैसे हनुमान ही पहले राम से मिले, सीता को खोजा, लंका में आग लगाई, पुल बनाने में योगदान दिया, अहिरावण के अपहरण से राम-लक्ष्मण को छुड़ाया, संजीवनी लाए, आदि-आदि किया ठीक ऐसे ही अपनी फ़िल्मों में सारा काम तो प्राण ही करते हैं। हीरो हिरोइन तो बस फ़िलर ही होते हैं। यह भी अनायास तो नहीं होता था कि एक राजेश खन्ना को छोड़ दें तो सभी हीरो के मुक़ाबले प्राण ज़्यादा पैसे लेते थे। जैसे कि कहा जाता है कि डॉन में अमिताभ बच्चन को तब ढाई लाख रुपए मिले थे और प्राण को पांच लाख रुपए। तो इसी लिए कि प्राण ही अपनी फ़िल्मों के प्राण थे।

कहा जाता है कि समाज पर फ़िल्मों का असर बहुत होता है। कहीं यह सच भी है। सोचिए कि सत्तर के दशक में पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के स्कूलों में किए गए एक सर्वे में पाया गया था कि पिछले तीस सालों से प्राण नाम के किसी भी बच्चे का एडमीशन नहीं हुआ।

क्यों कि तब के दिनों प्राण हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के सब से बड़े खलनायक थे। और खलनायक के नाम पर कोई अपने बच्चे का नाम रखने को तैयार नहीं था। लेकिन अपनी खलनायकी का डंका बजाने वाले, फ़िल्मों में सब से ज़्यादा पैसा लेने वाले प्राण किसी फ़िल्म में एक रुपए में भी काम कर सकते थे। और उन्हों ने यह किया। बात उन दिनों की है जब मेरा नाम जोकर बना कर राज कपूर भारी नुकसान उठा चुके थे और बॉबी बनाने की फ़िराक़ में थे। ऋषि कपूर के पिता की भूमिका के लिए वह प्राण को लेना चाहते थे पर उन के पास   पैसे की किल्लत थी। सो प्राण को एप्रोच नहीं कर पा रहे थे। प्राण को जब यह पता चला तो वह खुद राज कपूर के पास गए और एक रुपए शगुन के तौर पर ले कर बॉबी फ़िल्म में काम किया। बॉबी का वह कड़ियल पिता आज भी लोगों की जेहन में ज़िंदा है। मैं ने पहले ही कहा कि मुझे प्राण के अभिनय का पिता रूप ज़्यादा प्रभावित, ज़्यादा आह्लादित करता है। पूरब और पश्चिम में वह लंदन में हैं। प्रेम चोपड़ा के पिता के रूप में। दोनों ही खल चरित्र हैं। पाश्चात्य सभ्यता, शराब और शबाब में डूबे हुए।

पूरब और पश्चिम में हालां कि तीन पिता और हैं। सभी अपनी-अपनी यातना में डूबे हुए। एक पिता रूप ओम प्रकाश का भी है। जो ऐसी बेटी का पिता है जिस का पति गोरी मेम के चक्कर में पड़ कर पत्नी और बेटे को बिसार कर उस गोरी मेम से शादी के फेर में पड़ जाता है। गरीब ओम प्रकाश बेटी का जीवन बचाने, बेटी और नाती के साथ लंदन पहुंचे हैं। सायरा बानो के पिता रूप में मदन पुरी हैं। जो बीवी और बेटी के पश्चिमी रंग में रंग जाने पर आहत हैं। और सहगल की आवाज़ में बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए सुन कर सुकून ढूंढते हैं। अशोक कुमार भी हैं पिता रूप में। बल्कि पितामह रूप में भी। लेकिन इन सब में सब से प्रखर पिता भले खल ही सही प्राण ही हैं जो अपने बेटे की इच्छा पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जाहिर है पूरब और पश्चिम का द्वंद्व है समूची फ़िल्म में। भारत बने मनोज कुमार का पूरब जीतता ही है फ़िल्म में पर अभिनय में बाज़ी प्राण के पिता रूप की है। परिचय में भी उन के पिता की तासीर देखते बनती है।

बॉबी में प्राण ऋषि कपूर के पिता हैं। रईस पिता। बच्चे को सुधारने के फेर में उसे बोर्डिंग भेज कर उस से दूर होते पिता। प्राण का यह पिता रूप वास्तव में उस दौर के रईस पिताओं का वह रूप है जो अपनी रईसी में धुत जेनरेशन गैप की राह चले जाते हैं। उस के प्रेम के भी दुश्मन बन जाते हैं। इस लिए वह नौकरानी की बेटी से इश्क फ़रमा बैठता है। पर पिता अंतत: पिता होता है और बेटा, बेटा। पिता पिघलता ही है, बेटे को बचाने के लिए गुंडों से भी लड़ता है और पहाड़ी नदी में भी कूदता है बेटे को बचाने के लिए। बेटे के फेर में नायिका डिंपल को बचाता है। और बेटे को नायिका के पिता प्रेमनाथ बचाते हैं। यह फ़िल्मी ध्रुव है, फ़िल्मी माजरा है पर इन दोनों पिताओं में बीस प्राण ही हैं।

 जाने क्या है कि ऐसे कुछ कलाकार है हिंदी फ़िल्मों के जिन के कंधे पर फ़िल्म लदी होती है पर उन्हें वह सुर्खी, वह इज्ज़त, वह लोकप्रियता कभी नहीं मिलती। प्राण और प्रेमनाथ ऐसे ही कलाकारों में शुमार हैं। अरुणा ईरानी, फ़रीदा जलाल भी ऐसी ही कलाकार हैं। ओम पुरी, नाना पाटेकर, परेश रावल, बोमन ईरानी भी इसी फ़ेहरिस्त में हैं। यह फ़ेहरिस्त लंबी है। लेकिन इन्हें जो इज्ज़त, हैसियत और शोहरत नसीब होनी चाहिए थी, नहीं हुई।

खैर, बात प्राण के पिता रूप की चल रही थी। अमर अकबर एंथोनी में वह फिर पिता हैं इन तीनों किरदारों के। जिन्हें वह खो चुके हैं। पर उन के पिता की तड़प छलक-छलक पड़ती है। देसाई समीकरण और टोटके में लथ-पथ होने के बावजूद इस फ़िल्म में बच्चों के लिए प्राण के पिता रूप की छटपटाहट की इबारत साफ पढ़ी जा सकती है।

 उन की इस पिता रूप की छटपटाहट की इबारत और तल्ख़ और घनी हो कर उभरती है प्रकाश मेहरा की शराबी में। जिस में वह अमिताभ बच्चन के किरदार के पिता हैं। एक बार फिर रईस पिता। रईस पिता की तनहाई एक तरफ़ है, बेटे की जुदाई और तनहाई दूसरी तरफ़। बेटे से एक पिता कितना टूट कर प्यार कर सकता है, करता ही है यह प्राण के पिता रूप का अभिनय, उस की इबारत उन के हर फ़िल्मी पिता रूप ने बार-बार बांची है।

फ़िल्मों में बहुत सारे अभिनेता हुए हैं पर प्राण जैसा प्राण फूंकना, उस को अभिनय का सच देना किसी-किसी ही के हिस्से आया है। और इस में प्राण का पिता हमें हमेशा बीस दिखता है। पिता-पुत्र का द्वंद्व, जैसे फ़िल्मी परदे पर प्राण जीते हैं, जिस तल्ख़ी तुर्शी और तेवर में जीते हैं वह दुर्लभ है, अविरल है और अमिट है। उन के अभिनेता के पर्सेप्शन आफ़ सेल्फ़ के क्या कहने!

 उन के अभिनेता के शेड कई हैं और कहा जाता है कि अपनी कोई साढ़े तीन सौ फ़िल्मों में प्राण ने कभी भी अपने को दुहराया नहीं। दुहराया उन्हों ने जो बार-बार और कमोवेश हर फ़िल्म में तो वह एक शब्द है बरखुरदार ! विक्टोरिया नंबर 203 में वह अशोक कुमार के जोड़ीदार हैं। एक चाभी का ताला खोजते हुए। पूरी रंगीनी में धुत्त, मैं हूं राना, ये है राजा ये दीवाना मैं मस्ताना!’ गीत गाते हुए। अशोक कुमार और प्राण की केमेस्ट्री यहां देखते बनती है।

असल में प्राण का जैसे पिता रूप मुझे प्रभावित करता है वैसे ही उन का दोस्त या भाई रूप भी आंखों के सामने है। जैसे कि जानी मेरा नाम में वह देवानंद के भाई मोती हैं तो कालिया में एक कड़ियल जेलर के साथ-साथ वह परवीन बाबी के भाई भी हैं ही। जंज़ीर में तो वह अमिताभ के साथ यारबास हैं ही यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी गाते हुए। मज़बूर में भी माइकल दारू पी कर दंगा करता है गाते हुए हैं। जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले, बोले हम कुछ नहीं बोलेगा गाते हुए भी उन की यारी की सिफ़त देखते बनती है। जिस देश में गंगा बहती है में एक गीत है आ अब लौट चलें। फ़िल्माया राजकपूर पर गया है। पर   फोकस प्राण पर ही हैं। प्राण डाकू हैं इस फ़िल्म में। डाकुओं के समर्पण के समय का यह गीत है। प्राण पराजित मन से घोड़े पर बैठे लौट रहे हैं और गाना चल रहा है, अपना घर फिर अपना घर है। प्राण घोड़े को ऐसे चाबुक मारते हैं गोया खुद को चाबुक मार रहे हैं। उन के चेहरे पर समर्पण के मलाल की इबारत इसी रूप में उभरती है। प्राण का एक रूप पुलिस वाले का भी है। उन की चुहुलबाज़ी के भी शेड बहुतेरे हैं। पर उन के  सारे अभिनय पर भारी है उन का खलनायक। जैसे मधुमती में वह उग्र नारायण बने हैं।

उस में दिलीप कुमार उन के लिए एक जगह  कहते हैं नाग की तरह खूबसूरत, डरावना और चपल! सचमुच वह खल अभिनेता रूप में किसी नाग की तरह खूबसूरत, डरावना और चपल तो हैं ही जिस को परदे पर देखते ही दर्शक की देह में अंदेशे की एक लहर पैदा हो जाती है। डर की एक नदी बहने लगती है। उन का धोखादेह अभिनय उन के खूंखार और शातिर रूप को और दहका देता था। इतना कि उन्हें परदे पर देखते ही लोग चिल्ला पड़ते थे, ‘हरमिया!’ सचमुच अभिनय में प्राण फूंकने वाले प्राण जैसे अभिनेता विरले हुए हैं। हिंदी सिनेमा उन्हें सर्वदा शलाका पुरुष के रूप में ही याद करेगा।

एक समय अपने शहर की राम लीला में सीता की भूमिका करने वाले प्राण बहुत पढ़े लिखे लोगों में से नहीं थे। फ़ोटोग्राफ़र बनने की हसरत लिए वह मैट्रिक तक यानी दसवीं तक ही पढ़ पाए थे। पर तब के दिनों मैट्रिक तक पढ़ लेना भी बड़ी बात मानी जाती थी। उन्हों ने एक्टिंग की भी पढ़ाई नहीं की थी। पर अपनी एक फ़िल्म में वह कहते हैं कि मैं ए डब्लू डी हूं। मतलब एडवोकेट विदआऊट डिग्री! तो  विदआऊट डिग्री वाला यह अभिनेता सचमुच धर्मा की कव्वाली के उस मिसरे में जो कहूं तो मैं  चंदन हूं, मैं चंदन हूं, मैं चंदन हूबहू हूं! चंदन ही है। उन के इस अभिनय के चंदन की खुशबू सर्वदा महकती रहेगी। ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली के बल्लीमारान में पैदा हुए ग़ालिब की ग़ज़लों की गमक और खुशबू हमारे मन में आज भी बसी हुई है। उसी बल्लीमारान में पैदा हुए प्राण के अभिनय की खुशबू, उन के अभिनय की आंच और उन के संवाद अदायगी की सदा सर्वदा गूंजती रहेगी।