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साक्षी के कार्यक्रम में बोलते हुए दयानंद पांडेय |
बहुत सुनता था यह गाना, ' पधारो म्हारो देश !' तो गया अब की राजस्थान भी। बुलावे पर ही। उदयपुर की शकुंतला सरुपरिया की सलाह पर भीलवाड़ा के अमिताभ जोशी ने बुलाया था। शकुंतला जी मेरे ब्लाग सरोकारनामा की दीवानी हैं। और वहीं मुझे पढ़ती रहती हैं। पढ़-पढ़ कर अपने तनिमा अखबार में छापती रहती हैं मेरी नई-पुरानी टिप्पणियां आदि। और फ़ेसबुक पर बताती रहती हैं। शकुंतला जी की सलाह पर एक बार बीती मई में अजमेर में भी एक सम्मेलन में बुलाया गया था। मैं ने रिज़र्वेशन भी करवा लिया था आने-जाने का। मन में था कि उन का सम्मेलन भी अटेंड कर लूंगा और अजमेर के पुष्कर में सरोवर और ब्रह्मा जी के दर्शन कर ख्वाज़ा साहब की दरगाह पर मत्था भी टेक आऊंगा। पर अचानक जाना मु्ल्तवी करना पड़ा। वो कहते हैं न कि जब तक ख्वाज़ा साहब का बुलावा न आ जाए कोई जा नहीं पाता। शायद इसी लिए तब नहीं जा पाया। पर लगता है कि अब की ख्वाज़ा साहब ने बुला लिया। तो भले जयपुर होते हुए भीलवाड़ा गया और बीच में अजमेर भी पडा़। पर जाते वक्त अजमेर से गुज़र गया। ट्रेन से उतरा नहीं। क्यों कि दूसरे दिन भीलवाडा़ में अमिताभ जोशी द्वारा आयोजित कार्यक्रम था। उन की साक्षी का विमोचन था। साक्षी पत्रिका है कि किताब? वह यह खुद भी तय नहीं कर पा रहे थे। वह कभी किताब बोलते थे कभी पत्रिका। हालां कि पुस्तकाकार रुप में वह पत्रिका ही थी। क्यों कि उस में विज्ञापन भी भरपेट था।
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भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और उन के सहयोगियों के साथ बातचीत करते दयानंद पांडेय |
खैर जब उतरा भीलवाडा़ स्टेशन पर तो एक युवा लड़के ने मुझे रिसीव किया। मैं अभी इधर-उधर देख ही रहा था कि वह लड़का मेरे पास भागा-भागा आया और पूछा कि, 'आप पांडेय जी हैं?' तो मैं चौंक पड़ा। बोला कि, 'हां। पर क्यों?' वह लड़का बोला, 'मैं आप को लेने आया हूं। अमिताभ जी ने भेजा है।' कह कर उस ने मेरी अटैची उठा ली। कार जब गंतव्य की तरफ चल पड़ी तो मैं ने उस नौजवान से कौतूहलवश पूछा कि, ' मुझे कैसे पहचान लिया?' तो वह बोला, 'गूगल पर आप की फ़ोटो देखी थी।' उस ने जैसे जोड़ा, 'सरोकारनामा पर है ना आप की फ़ोटो।'
'ओह अच्छा हां।' मैं ने कहा और पूछा कि, ' तुम सरोकारनामा पढ़ते हो?' तो वह बोला, 'हां।' मैं चक्कर में पड़ गया। फिर उस ने बताया कि अमिताभ जी ने इस के बारे में बताया था। और मुझ से कह कर उन्हों ने ही गूगल पर सर्च करवाया था। मैं समझ गया कि यह आयोजक की मुझे जानने की एक औपचारिकता भर है। सरोकारनामा पढ़ने-पढाने से उस का कोई वास्ता या रिश्ता नहीं है। वैसे भी वह लड़का जिस का नाम मयंक पारिख है, उदयपुर में टैक्सटाइल की पढा़ई कर रहा है, साहित्य या पढ़ने जैसी और चीज़ों से उस का बहुत नाता-रिश्ता है नहीं। है तो बस इतना ही कि मंगलेश डबराल की तरह ही उस का अटक-अटक कर बोलना। बस! खैर, भीलवाडा़ शहर के एक बाइपास पर बने अग्रवाल धर्मशाला में ले जा कर उस लड़के ने मुझे ठहरा दिया। और बताया कि कल का कार्यक्रम भी इसी जगह होगा। धर्मशाला नई बनी हुई थी। सो साफ-सुथरी थी। होटल के कमरों जितनी ही सुविधाओं से चाक चौबंद। ए. सी. वगैरह सब। बस कहने भर को ही धर्मशाला थी। पर किसी पांच सितारा होटल से भी ज़्यादा खुला-खुला और रौनकदार। बस कारपेट नहीं थी और वेटर भी नहीं थे। बाकी सब। अभी नहा धो कर बैठे ही थे कि भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर मय दल-बल के आ गए। एक बुके लिए हुए। बडी़ आत्मीयता से मिले। प्रदीप भटनागर ठेंठ इलाहाबादी हैं। मैं जब लखनऊ में स्वतंत्र भारत में था तब प्रदीप जी स्वतंत्र भारत में इलाहाबाद के संवाददाता थे। इलाहाबाद में अमिताभ बच्चन का चुनाव कवर करने के उत्साह से लबालब वह मुझे पहली बार लखनऊ में ही मिले थे। प्रदीप जी उन थोडे़ से रिपोर्टरों में तब शुमार थे जो लिखने-पढने में दिलचस्पी रखते थे। और इसी लिए स्वतंत्र भारत के तब के संपादक वीरेंद्र सिंह उन्हें बहुत प्यार करते थे। और उन की रिपोर्टें उछाल कर छापते थे। वीरेंद्र सिंह जी मुझे भी बहुत प्यार करते थे बल्कि दिल्ली से स्वतंत्र भारत, लखनऊ मुझे वह ही ले भी आए थे। तो यह एक एका भी था मुझ में और प्रदीप भटनागर में। जो इलाहाबाद और लखनऊ की दूरी को मिटा देता था। यह १९८५ की बात है। बाद में वीरेंद्र सिंह जी स्वतंत्र भारत से गए तो धीरे-धीरे हम लोग भी विदा हुए। मैं तो स्वतंत्र भारत से अगस्त, १९९१ में विदा हुआ। लखनऊ में ही नवभारत टाइम्स चला गया। प्रदीप जी बाद में स्वतंत्र भारत से विदा हुए। तब जब स्वतंत्र भारत अपनी गरिमा, अपने पंख और अपनी मर्यादा बिसार तार-तार हो गया। मैं ने हालां कि लखनऊ नहीं छोड़ा। तमाम मुश्किलों, विपरीत स्थितियों और नौकरी में अपमान जीते-भुगतते भी लखनऊ में पडा़ हुआ हूं। अब तो रोज-रोज ही नौकरी करना सीखने की बात हो चली है। तो भी ओ अपने उस्ताद कह गए हैं न कि कौन जाए दिल्ली की गलियां छोड़ कर। तो यहां भी वही हो गया है कि कौन जाए लखनऊ की गलियां छोड़ कर ! सो पडा़ हुआ हूं लखनऊ में। हूं गोरखपुर का पर लखनऊ की गलियों ने मोह रखा है। जाने नहीं देतीं कभी, कहीं ये गलियां। बीच में एक बार थोड़े दिनों के लिए दिल्ली वापस गया भी पर लखनऊ की गलियों ने फिर पुकार लिया। वापस आ गया। पर प्रदीप जी ने रोजी रोटी के फेर में इलाहाबाद छोड़ दिया। जैसे कि तमाम मित्रों ने अपने-अपने शहर छोड़ दिए। और बैतलवा फिर डाल पर गुहराते हुए अपने शहर आते-जाते रहते हैं। घर-परिवार के फेर में। प्रदीप जी भी शहर दर शहर बदलते हुए अभी डेढ़ महीने पहले अलवर से भीलवाड़ा पहुंचे हैं। वह जब अलवर में थे तब भी बुलाते रहते थे कि आइए कभी घूम जाइए। पर प्रदीप जी के बार-बार इसरार पर भी नहीं जा पाया अलवर। अब की जब भीलवाडा़ जाने की बात हुई तो एक दिन शाम को प्रदीप जी का फ़ोन आया कि क्या आप भीलवाड़ा आ रहे हैं? मैं ने ज़रा हिचकते हुए बताया कि आ तो रहा हूं, पर आप को कैसे पता चला? तो वह बोले कि एक विज्ञप्ति आई है, उसी में बताया गया है कि आप मुख्य वक्ता हैं।
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भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और उन के सहयोगियों के साथ बातचीत करते दयानंद पांडेय
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खैर जब प्रदीप जी मिलने आए तो तमाम बातें हुईं। नई-पुरानी। व्यक्तिगत भी और राजनीतिक, सामाजिक भी। बात ही बात में कब उन के एक सहयोगी नरेंद्र जाट बातचीत को नोट कर इंटरव्यू लिख बैठे, पता ही नहीं चला। दूसरे दिन भास्कर अखबार में वह इंटरव्यू देख कर पता चला। खैर थोडी़ देर में अमिताभ जोशी भी आ गए। और बात खत्म हो गई। प्रदीप जी अपने साथियों के साथ चले गए। यह वादा ले कर कि कल की शाम भास्कर दफ़्तर में उन के सहयोगियों के साथ बिताऊं। खाना खाने के लिए अमिताभ जोशी अपने घर ले गए। बीच-बीच में वह अपनी तमाम योजनाएं बताते रहे। दूसरे दिन साक्षी का विमोचन हुआ। स्त्री विमर्श पर मुझे विषय प्रवर्तन करना था। मैं भाषण लिख कर ले गया था। पर वहां माहौल व्याख्यान, विमर्श या सेमिनार का न हो कर व्यक्तिगत-पारिवारिक कार्यक्रम का हो गया। माइक सिस्टम भी साथ नहीं दे रहा था। एक हैंडसेट माइक था। जो जब-तब आवाज़ पकड़ता-छोड़ता रहता था। बीच-बीच में स्वागत और औपचारिकताएं होती रहीं। ऐसे गोया कोई मुहल्ला स्तर की रामलीला हो। जिस भी किसी के हाथ में माइक आ जाए अपने को ज़माने में लग जाए। कार्यक्रम का औपचारिक संचालन उदयपुर से आई शकुंतला सरुपरिया जी कर रही थीं। पर बीच-बीच में अजमेर से आईं वर्तिका जी भी आ जाती थीं, संचालन के लिए। अमिताभ जोशी भी जब-तब कूद पड़ते थे। जयपुर से आई कोई एक ज्योति जोशी थीं, जब-तब संचालन कर रही शकुंतला जी को दर्शक दीर्घा से ही बोल-बोल कर निर्देश देती रही थीं कि यह नहीं यह करिए। ऐसे करिए, वैसे करिए। अजीब हौच-पौच था। कोई भी वक्ता विषय पर बोलने को उत्सुक नहीं था। न ही किसी की तैयारी दिखी। इसी बीच शकुंतला जी ने बिटिया पर एक गीत सस्वर पढा। मन में मिठास घुल गई। इस पर एक सज्जन इतना बह गए कि बाकायदा फ़िल्मी गाना गाने लगे। और लोगों ने उस पर खूब तालियां भी बजाईं। सिर्फ़ एक नूर ज़हीर ही विषय पर बोलीं। वह भी संक्षिप्त। ज़्यादा बोलने की गुंजाइश ही नहीं थी। नूर ज़हीर अब रहती हैं गज़ियाबाद कि दिल्ली में। पर लखनऊ की ही हैं। उर्दू के मशहूर लेखक सज़्ज़ाद ज़हीर की बिटिया हैं। जिन को हम लोग अब भी बन्ने मियां और बन्ने भाई कह कर याद करते हैं। इस पूरे कार्यक्रम में नूर ज़हीर और शकुंतला सरुपरिया जी से मिलना ही सार्थक रहा बाकी तो सब बदमगजी ही रहा।
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भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और उन के सहयोगियों के साथ बातचीत करते दयानंद पांडेय
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साक्षी जिस का कि विमोचन मैं ने भी किया सब के साथ। पर अब उस का क्षोभ भी है। एक नज़र में देखने पर लगता है कि अमिताभ जोशी ने बडा़ क्रांतिकारी काम किया है। कि तमाम-तमाम काम करती हुई सामाजिक सरोकार से जुड़ी कोई ३५ महिलाओं की तमाम फ़ोटो सहित उन की उपलब्धियों का बखान साक्षी के पृष्ठों पर वर्णित है। उन में दो आई.ए.एस. और एक पी.सी.एस. स्त्रियां भी हैं। डाक्टर, कारोबारी और तमाम ऐसी ही औरतें हैं जो साक्षी के पृष्ठों पर सामाजिक काम के मद्देनज़र अवतरित हैं। मैं यह देख कर पहली नज़र में बहुत खुश हुआ। और अपने आधे-अधूरे भाषण में अमिताभ जोशी को बधाई देते हुए कहा भी कि इस काम को वह राजस्थान से बाहर भी ले जाएं। पर बाद में जब साक्षी के आखिरी पृष्ठों की तरफ़ नज़र गई तो देखा कि जिन महिलाओं का गुण-गान साक्षी के पृष्ठों पर है, उन्हीं के विज्ञापनों से भी लदी फनी है साक्षी। खेल साफ समझ में आ गया। कि पेड न्यूज़ का यह एक्सटेंशन है। अफ़सर और कारोबारी महिलाएं, डाक्टर आदि इस आयोजन में आई भी नहीं थीं। वैसे भी इस साक्षी की छपाई, कागज़, फ़ोटो आदि जितना दिव्य है, प्रूफ़ और भाषा की गलतियां भी उतनी ही दिव्य हैं। वाक्य विन्यास, ले-आऊट आदि भी पानी मांगते हैं। मैं ने इस तरफ़ अमिताभ जोशी जो इस साक्षी के लेखक और प्रधान संपादक भी हैं का जब ध्यान दिलाया तो उन्हों ने बताया कि चूंकि सारा काम उन्हों ने अकेले-दम पर किया है तो कुछ गलतियां रह गई होंगी। फिर वह बताने लगे कि आप के उत्तर प्रदेश के राज्यपाल जोशी जी हमारे भीलवाडा़ के ही हैं। और जब उन्हें पता चला कि मैं जनसत्ता, दिल्ली में भी रहा हूं तो वह बताने लगे कि हरिशंकर व्यास भी यहीं भीलवाड़ा के हैं। फिर वह उन की पुरानी विपन्नता के दिन भी बताने लग गए। लेकिन वह साक्षी की कमियों के बाबत कुछ सुनना नहीं चाहते थे। और कि उन को लग रहा था कि उन्हों ने हल्दी घाटी बस चुटकी बजाते ही जीत ली है। इसी रौ में वह पत्रकारिता का स्कूल भी खोलने की बात करने लगे। ऐसे ही वहां पहुंचने के पहले जब उन्हों ने फ़ोन पर मुझे भीलवाडा़ आने का निमंत्रण दिया तो फ़ोन पर ही उन के बारे में कुछ पूछना चाहा तो वह बोले कि बस जान लीजिए मैं खुद अपने आप में एक संस्था हूं। मुझे खटका तभी लगा। और जाना मुल्तवी करने की सोची। पर उदयपुर से शकुंतला सरुपरिया जी का इसरार जब ज़्यादा हो गया कि पधारो म्हारो देस ! का तो जाना ही पडा़। गया। तो भी ज़रा भी अंदेशा होता कि मामला घुमा कर ही सही नाक पकड़ने का है, खुल्लम-खुल्ला पेड न्यूज़ के एक्सटेंशन का है तो नहीं गया होता। मेरा ख्याल है कि नूर ज़हीर भी शकुंतला जी के इसरार पर ही वहां आई रही होंगी। नहीं वहां तो ज़रुरत जुमलेबाज़ों, फ़तवेबाज़ो और गलेबाज़ों की ही थी। ऐसे कार्यक्रमों में होती ही है। तिस पर अमिताभ जोशी की आत्म-मुग्धता तो और परेशान करने वाली थी। ठीक वैसे ही जैसे जयपुर से भीलवाडा़ के रास्ते दो तिहाई से अधिक ज़मीन पर मीलों-मील बबूल का विस्तार चुभता है और परेशान करता है। ऐसे गोया बबूल की खेती हो। बबूल का समुद्र हो। बताइए कि इतनी सारी ज़मीन बेकार पड़ी है पर हमारे उद्योगपति सिंगूर और नंदीग्राम जाते हैं उपजाऊ खेती में उद्योग लगाने। किसानों से उन की मां छीनने। क्यों नहीं आते राजस्थान उद्योग लगाने?
बहरहाल अमिताभ जोशी जैसे लोग यहां पेड न्यूज़ का उद्योग लगा बैठे हैं। पता चला कि यह साक्षी उन का दूसरा उपक्रम है। इस के पहले भी वह यह काम कर चुके हैं नारायणी नाम की पत्रिका निकाल कर। बतौर लेखक, अन्वेषक और प्रधान संपादक बन कर कई स्वनाम-धन्य स्त्रियों को नारायणी के पृष्ठों पर अवतरित कर के।
कार्यक्रम के बाद शाम ६ बजे ही आमंत्रित लोगों का भोजन भी शुरु हो गया। पर मैं चला गया भास्कर दफ़्तर। प्रदीप भटनागर के सहयोगियों के साथ बैठ कर कोई दो घंटे विभिन्न मसलों पर बात हुई। प्रदीप भटनागर भी साथ थे। उन की केबिन में ही बात हुई। नवीन जोशी, जसराज ओझा, नरेंद्र जाट, ज्ञान प्रकाश, प्रदीप व्यास, भूपेंद्र सिंह, पवन, और तेज़ नारायन जैसे युवा साथियों के साथ। चिंता वहां के साथियों में भी यही थी कि पत्रकारिता के बिगड़ते स्वरुप को कैसे बचाया जाए? मैं ने उन्हें दो टूक बताया कि किसी भी अखबार में चाहे कितने भी समझौते क्यों न हों, सामाजिक सरोकार से जुड़े रह कर ही पत्रकारिता को साफ-सुथरा रख कर बचाया जा सकता है। सामाजिक सरोकार से जुड़े़ मसलों पर मालिकों, मैनेजमेंट, सत्ता या अफ़सरों आदि का कभी कोई दबाव आदि भी नहीं होता। समाज में इस की स्वीकार्यता भी होती है। अखबार और पत्रकारिता की विश्वसनीयता और साख भी बनती है। और फिर जब समाज बदलेगा तो राजनीति आदि भी बदलेगी ही, सिस्टम भी बदलेगा ही। भ्रष्टाचार, पेड न्यूज़, प्रभाष जोशी, अन्ना, रामदेव, एफ़.डी.आई., मंहगाई आदि पर भी बात हुई। भास्कर के साथियों से यह बतियाना सुखद लगा। अखबार छोड़ने की गहमागहमी थी, नहीं हम लोग और बैठते। कुछ साथियों ने दूसरे दिन भी बैठने की बात की। पर मुझे दूसरे दिन सुबह ही निकलना था अजमेर के लिए। इस लिए उन से क्षमा मांग ली।
दूसरे दिन नाश्ता कर के अजमेर के लिए चला।
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पुष्कर में मनमोहक सरोवर पर |
रास्ते में फिर वही बबूल के समुद्र और वही चुभन पीछा करते रहे, मिलते रहे। दिन के कोई ११-३० बजे अजमेर पहुंचा। स्टेशन पर आटो और रिक्शा वालों ने वही अफ़रा-तफ़री दिखाई जो सभी शहरों में टूरिस्टों के साथ वह दिखाते हैं। होटल ले जाने की उन्हें बडी़ जल्दी होती है। किराए से ज़्यादा उन्हें होटल से मिलने वा्ले कमीशन की परवाह होती है। प्रदीप जी ने यहां भास्कर के संपादक जय रमेश अग्रवाल से बात कर ली थी। अग्रवाल जी ने रिपोर्टर निर्मल जी से कह कर डाक बंगला में एक कमरा दिलवा दिया। जैसे डाक बंगले होते हैं, वैसा ही था यह भी। अव्यवस्था और बदमगजी के शिकार। कदम-कदम पर लापरवाही। शिकायत करने पर चौकीदार और बाबू ने तज़वीज़ दी की फिर तो मैं सर्किट हाऊस ही चला जाऊं। वहां साफ-सफाई भी है और सारी सहूलियत भी। खैर एक्सीयन से फ़ोन पर कह कर साफ-सुथरा ए.सी. कमरा किसी तरह मिल गया। सामान रख कर, एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर मैं पुष्कर के लिए निकल पडा़। अजमेर से थोडी़ देर का सफ़र है पुष्कर। बिलकुल सुहाना सफ़र। पहाड़ियों को चीरती हुई बस ने अपनी ऊंचाई से पूरे अजमेर शहर को दिखाना शुरु कर दिया। आना सरोवर की सुंदरता और निखर गई। बस ने जल्दी ही पुष्कर पहुंचा दिया।
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ब्रह्मा-गायत्री मंदिर पर |
पुष्कर ने पुश-पाश की तरह बांध लिया। जैसे किसी बागीचे के सुंदर फूल आप को बांध लें। पहाड़ियों से घिरे सरोवर की सुंदरता और सफाई ने मन मोह लिया। विदेशी जोड़ों को देख कर अपने बनारस की याद आ गई। पंडों की कपट भरी बातों ने, उन की पैसा खींचने की अदा ने वृंदावन और विंध्याचल की याद दिला दी। हालां कि सीज़न न होने के चलते बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी तो भी पंडा लोगों ने कोई कोर-कसर छोडी़ नहीं। पूजन की दक्षिणा के बाद ज़बरिया रसीद कटवाने की बात भी आई। हां यह बदलाव भी ज़रुर था कि जींस पहने भी कुछ पंडा लोग मिले। नहाने की तैयारी से मैं गया भी नहीं था सो आचमन कर के ब्रह्मा जी के मंदिर दर्शन के लिए चल पडा़। सड़क पर छुट्टा गाय और सांड़, जगह-जगह गोबर और सजी धजी दुकानें किसी गांव के से मेले का भान करा रही थीं। पर यह कोई गांव तो नहीं था। पुष्कर था। ज़्यादातर कपडों की दुकानें। और झोले आदि की। राजस्थानी महक कम, चीनी महक ज़्यादा। मतलब चीनी स्टाइल के कपडे़ ज़्यादा। क्या जेंट्स, क्या लेडीज़ सभी कपड़ों पर चीनी तलवार लटकी हुई थी। हां, वैसे यहां राजस्थानी पगड़ी, राजस्थानी तलवार और ढाल भी कुछ जगह बिकती देखी। मंदिर और धार्मिक स्थल पर तलवार और ढाल की भला क्या ज़रुरत? पर सोच कर ही चुप रह गया। किस से और भला क्या पूछता? वैसे भी सीज़न न होने के कारण दुकानों पर गहमागहमी की जगह सन्नाटा सा था। एक नींद सी तारी थी भरी दोपहर में पूरे पुष्कर में। बनारस में काशी विश्वनाथ मंदिर सा नज़ारा यहां भी था मंदिर के बाहर का। कि अगर जूता-चप्पल, मोबाइल आदि सुरक्षित रखना है तो प्रसाद और फूल संबंधित दुकान से लेना अनिवार्य है। प्रसाद दस रुपए से लगायत पचास रुपए तक के थे। खैर विश्वनाथ मंदिर की तरह न तो यहां भारी भीड़ थी न अफरा-तफरी। न ही पुलिस की ज़्यादतियां, बेवकूफियां और न बूटों की तानाशाही। आराम से दर्शन हुए। मंदिर की तमाम सीढ़ियों पर तमाम नाम दर्ज़ थे। उन नामों को कुचलते हुए सीढ़ियों पर से गुज़रना तकलीफ़देह था। इन सीढ़ियों के पत्थरों पर अपना या अपने परिजनों का नाम लिखवाने वालों ने क्या कभी यह भी सोचा होगा कि उन के नामों पर लोगों के अनगिनत पैर पड़ेंगे? या कि ताजमहल फ़िल्म के लिए साहिर के लिखे गीत की याद रही होगी कि पांव छू लेने दो, फूलों को इनायत हो्गी/ हम को डर है कि ये तौहीने मोहब्बत होगी। क्या पता? खैर, ज़्यादातर श्रद्धालु हर जगह की तरह यहां भी निम्न वर्ग के ही लोग थे। कुछ मध्यम वर्ग के भी। पर पूरी श्रद्धा में नत। मंदिर परिसर में फ़ोटो खींचने पर एक सुरक्षाकर्मी आया और बडे़ प्यार से बोला, 'आप का कैमरा जमा करवा लिया जाएगा। फ़ोटो मत खींचिए।' कैमरा हम ने अपनी ज़ेब में रख लिया। फिर बाहर आ कर फ़ोटो खिंची।
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पुष्कर के एक और मंदिर पर |
मंदिर परिसर से बाहर आते समय सीढ़ियों से सटी एक दुकान के लोग अपनी दुकान में आने का विनयवत निमंत्रण दे रहे थे। इस दुकान में किसिम-किसिम की मूर्तियां थीं। छोटी-बड़ी सभी आकार की। विभिन्न धातुओं की। राजस्थानी कला से जुड़ी और तमाम चीज़ें। कपड़े, जयपुरिया रजाई आदि। पर इतने मंहगे कि बस पूछिए मत। तीन हज़ार से शुरु पचास हज़ार, लाख तक की मूर्तियां। छोटी-बड़ी। हर तरह की। खैर आगे बढे़। कहा जाता है कि पूरी दुनिया में ब्रह्मा और गायत्री का यही इकलौता मंदिर है। खैर यहां भगवान नरसिंह का भी मंदिर है खूब ऊंचा। पर जाने क्यों यहां लोग बहुत नहीं जाते। मैं जब गया इस मंदिर में तो जाते-आते अकेला ही रहा। पुष्कर की समूची सड़क लगभग बाज़ार है। सड़क भी बड़ी है और बाज़ार भी। बनारस की तरह तमाम घाट भी हैं यहां। वृद्ध लोग सीढ़ियां चढ़ते उतरते थक जाते हैं। यही हाल बाज़ार का भी है। समूचा बाज़ार घूमना वृद्धों के वश का है नहीं। और तीर्थ, मंदिर ज़्यादातर वृद्धों और स्त्रियों से ही गुलज़ार रहते हैं। उन की मिज़ाज़पुर्सी में ही युवा उन के साथ होते हैं। सो वृद्ध लोग बाज़ार के बाहर वाले रास्ते से आटो से आते-जाते हैं, जिन की सामर्थ्य होती है। यहां मैं ने देखा कि फूलों की खेती भी अच्छी है। एक दुकान पर देखा कि एक व्यक्ति अपने साथ की स्त्रियों के साथ साड़ियां खरीदने में लगा था। वह ठेंठ गंवई राजस्थानी ही था। मोल-तोल कर ढाई-ढाई सौ की कुछ साड़ियां खरीदने के बाद वह दुकानदार से पक्की रसीद मांगने लगा। तो दुकानदार ने उसे समझाया कि रसीद लोगो तो पैसा बढ़ जाएगा। टैक्स लग जाएगा। तो वह खरीददार बोला कि मैं जानता हूं कि टैक्स एक साथ जहां से सामान आता है, वहीं लग जाता है। तो दुकानदार भी एक घाघ था। बोला कि टैक्स तो लग जाता है पर वैट और सर्विस टैक्स यहीं लगता है। बोलो दोगे? दूं रसीद? वह बिना रसीद के चला गया। ज़ाहिर है कि साड़ियों में शिकायत की गुंज़ाइश थी और वह आदमी लोकल लग रहा था, वापस आ सकता था शिकायत ले कर। बाहरी तो था नहीं कि वापस नहीं आ सकता था। सो रसीद होती तो विवाद बढ़ सकता था। सो उस ने रसीद नहीं दी। आखिर ढाई सौ में चमकीली साड़ी निकलेगी भी कैसी? आसानी से जाना जा सकता है। बनारस की तरह यहां भी दुकानदारों द्वारा विदेशी जोड़ों को भरमाने की कवायद बदस्तूर दिखी। यहां एक हलवाई की दुकान पर रबड़ी का मालपुआ देशी घी में लिखा देख मुह में पानी आ गया। पर उस का सब कुछ खुला-खुला देख कर हिम्मत नहीं हुई। बीमार पड़ने का खतरा था। मन को काबू करना पड़ा।
शाम हो चली थी। एक और मंदिर दिखा। यहां भी भीड़ मिली। यहां भगवान जी को घुमाया जा रहा था। बाकायदा पुजारी लोग पालकी में ले कर घुमा रहे थे। आरती का दिया भी घूम रहा था। चढ़ावा लेने के लिए। आरती ली, फ़ोटो खिंची और चल दिए। बस स्टैंड के ठीक पहले एक जगह एक स्त्री घास बेचती मिली। वहीं कुछ गाय झुंड में घास खा रही थी। वह स्त्री आते-जाते लोगों से गुहार लगाती रहती थी कि गाय को घास खिलाते जाइए। पांच रुपए में, दस रुपए में। कुछ लोग उस स्त्री की सुन लेते थे, कुछ नहीं। इसी तरह पुष्कर झील के किनारे भी एक जगह गऊ घाट भी दिखा था। वहां शायद गऊ दान होता हो। मैं देखते हुए ही चला आया था। गया नहीं। वापसी के लिए बस स्टैंड पर आ गया। एक बस सवारियों से भर चुकी थी। दूसरी के इंतज़ार में बैठ गया। थोड़ी देर में दूसरी बस भी आ गई। और तुरंत भर गई। पर अभी चली भी नहीं थी कि पता चला कि पंक्चर हो गई। हार कर उस पहली ही बस में आना पड़ा।
जब अजमेर शहर करीब आ गया तो कंडक्टर से मैं ने कहा कि, ' दरगाह जाना है सो वहां जाने के लिए जो करीब का स्टापेज़ हो बता दीजिएगा उतरने के लिए।' उस ने बता दिया कि, 'आगरा गेट पर उतर जाइएगा।' मैं ने कहा कि, 'यह भी आप को बताना पड़ेगा कि आगरा गेट कहां है?' कंडक्टर शरीफ़ आदमी था। उस ने हामी भर दी। पर मेरी सीट के पीछे बैठे एक दो लोग मेरी पड़ताल में लग गए। यह कहते हुए कि, 'आ रहे हो पुष्कर से और जा रहे हो दरगाह?' उन्हों ने नाम पूछा। और बोले, 'पंडत हो कर भी दरगाह?' मैं ने कहा कि, 'हां।' फिर, 'कहां से आए हो?' पूछा। मैं ने बताया कि, 'लखनऊ से। ' तो वह बोले, 'तब तो तुम्हें जाना ही है। यह तुम्हारा दोष नहीं लखनऊ का है। पर क्यों पुष्कर का सारा पुण्य दरगाह में जा कर भस्म कर देना चाहते हो?' इस के बाद वह और उस का एक साथी नान स्टाप फ़ुल वाल्यूम में जितना और जैसा भी ऊल-जलूल बक सकते थे बकते रहे। पहले तो मैं ने टाला। पर जब ज़्यादा हो गया तो मैं कुछ प्रतिवाद करने के लिए मुंह खोल ही रहा था कि बगल में बैठे व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर दबाया और कुछ न बोलने का संकेत किया। मुझे भी लगा कि प्रतिवाद में बात बढ़ सकती है सो चुप लगा गया। बस में उस व्यक्ति की बात के समर्थन में कुछ और लोग भी बोलने लगे। अंट-शंट। आपत्तिजनक। खैर तभी आना सरोवर के पास से बस गुज़री तो मुझे गौहाटी में ब्रह्मपुत्र की याद आ गई। पर बात को बदलने की गरज़ से मैं ने उस लगातार बोलते जा रहे आदमी से पूछा कि, 'यह आना सरोवर है ना !'
'हां है तो।' वह ज़रा रुका और बोला, 'नहाओगे क्या?' वह ज़रा देर रुका और बोला, 'अरे शहर का सारा लीवर-सीवर यहीं गिरता है।' फिर वह एक श्मशान घाट की प्रशंसा में लग गया और कहने लगा कि कुछ मांगने जाना ही है तो वहां जाओ। कोई निराश नहीं लौटता। आदि-आदि। और वह फिर मुझे समझाने में लग गया कि, 'पंडत पुष्कर का पुण्य दरगाह में जा कर मत नष्ट करो ।' कि तभी कंडक्टर ने बताया कि, 'आगरा गेट आने वाला है, गेट पर चले जाइए।'
मैं आगरा गेट पर उतर गया।
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अजमेर में ख्वाज़ा साहब की दरगाह पर |
चला पैदल ही दरगाह की ओर। लोगों से रास्ता पूछते हुए। पहले दिल्ली गेट और फिर थोडी़ देर में दरगाह की मुख्य सड़क पर आ गया। एक मौलाना से पूछ भर लिया। कि, 'क्या यही दरगाह है?'
'जी जनाब !' कह कर वह भी शुरु हो गए। नान स्टाप। वहा की बदइंतज़ामी पर, सड़कों में जगह-जगह गड्ढे दिखाते हुए। गंदगी दिखाते हुए। कहने लगे कि, 'लूट मचा रखी है !'
'किस ने?' मैं ने पूछा।
'अफ़सरान ने !' वह बोले, 'कलक्टर से लगायत सब के सब। नहीं कितना पैसा गवर्नमेंट देती है, बाहर से फ़ंड आता है, पर सब लूट कर खा जाते हैं यह सब ! आप जाइए पुष्कर ! फिर देखिए कि वहां क्या चमाचम सड़कें है। क्या इंतजामात हैं, सफाई है। पर यहां तो अंधेरगर्दी है लूट है।' मौलाना जैसे फटे पड़ रहे थे। उन की शिकायतों का कोई अंत नहीं था।
थोडी देर बाद मैं ने बात बदलने के लिहाज़ से कहा कि, 'यहां सवारी नहीं आती?'
'बादशाह अकबर यहां पैदल आए थे !' वह बड़े नाज़ से बोले, 'चलिए पैदल ! हर्ज़ क्या है?' और वह फिर शुरु हो गए। जल्दी ही हम दरगाह के मुख्य दरवाज़े पर आ गए। यहां भी काशी में विश्वनाथ मंदिर की तरह और पुष्कर में ब्रह्मा-गायत्री मंदिर की तरह जूते-चप्पल रखने के लिए फूल, प्रसाद, चढ़ाने के लिए चद्दर आदि लेना अनिवार्य था। लेकिन चढ़ाने के लिए चद्दर, अगरबत्ती और प्रसाद मैं पहले ही ले चुका था। अब यहां सिर्फ़ फूल लेना बाकी था। खैर मुख्य दरवाज़े के बगल में जूता-चप्पल जमा करने की एक जगह थी। पांच रुपए जोड़ा की दर से। मैं ने वहीं जमा किया। अंदर भी जा कर सब सामान मिल रहे थे। तो मैं ने फिर एक टोकरी फूल लिया। और चला मत्था टेकने ख्वाज़ा साहब की दर पर। पर भीतर जाते ही गुमान यहां भी टूटा। पंडे यहां भी थे, खादिम के रुप में। रसीद कटवाने के लिए फ़रेब और दादागिरी यहां भी थी। पैसे चढ़ाने की पुकार यहां भी थी और लाज़िम तौर पर। चिल्ला-चिल्ला कर। एक खादिम तो बाकायदा चिल्लाते हुए कह रहे थे गल्ले का पैसा यहां जमा करो। और हाथ से चादर, फूल सब झपट कर खुद पीछे की तरफ़ फेंक देते थे। और लोगों को भेड़-बकरी की मानिंद हांक देते थे कि, 'उधर चलो !' ज़बरदस्ती। हमारे लखनऊ में खम्मन पीर बाबा की मज़ार पर तो ऐसा कुछ भी नहीं होता। भीड़ वहां भी खूब होती है। खैर यहां मैं ने ऐतराज़ किया और कहा भी उन से कि, ' पुलिस वालों जैसा सुलूक तो मत करिए।' और ज़रा तेज़ आवाज़ में ऐतराज़ दर्ज़ करवाया। तो वह थोडे़ नरम पड़े। और जब मैं ने कहा कि, 'देखिए उस तरफ़ तो लोग खुद फूल और चादर चढ़ा रहे हैं। और यहां आप ने हम जैसों को खुद फूल और चादर चढ़ाने नहीं दिया।' तो वह हिकारत से बोले, 'ध्यान से देखो, वह भी खादिम लोग ही हैं।' कह कर वह फिर भेंड़-बकरी की तरह सब को हांकने में लग गए। भीड़ हालां कि ज़्यादा नहीं थी आफ़ सीज़न के चलते। पर कम भी नहीं थी। कोई आधा घंटा से ज़्यादा लग गया दो कदम की दूरी चल कर मत्था टेकने में। वी. आई.पी. ट्रीटमेंट होता है हर जगह । हर मंदिर, हर दरगाह में। यहां भी था। उसी दिन पूर्व मंत्री और भाजपा नेता शाहनवाज़ भी चादर चढ़ाने गए थे। और भी बहुतों की फ़ोटो देखी थी मैं ने वहां चादर चढा़ते हुए। पर हमारी चादर और फूल चढाई नहीं गई बस पीछे फेंक दी गई खादिम के द्वारा। और सब की ही तरह। पर मत्था टेकने और सिर झुकाने का सुख मिला, सवाब मिला, इसी से संतोष किया। बाहर आ कर फ़ोटो भी खिंची। फ़ोटो खींचने पर किसी को ऐतराज़ भी नहीं हुआ। बस एक आदमी ने सलाह दी और ज़रा डपट कर दी कि पीठ ख्वाज़ा साहब की तरफ़ कर के खडे़ हो कर फ़ोटो मत खिंचवाइए। यह खादिम नहीं, हमारी तरह श्रद्धालु थे। तो भी मुझे हंसी आई और वह शेर याद आ गया कि:
जाहिद शराब पीने दे मस्ज़िद में बैठ कर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो !
पूरे परिसर में खूब रोशनी और चहल-पहल है। लोग-बाग भी खूब हैं। औरत-मर्द, बूढे-बच्चे सभी। श्रद्धा में नत और तर-बतर। कोई नमाज़ पढ़ता, कोई आराम करता और परिवारीजनों से बतियाता हुआ। हाथ पैर धोता सुस्ताता हुआरास्ते में एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर लौट रहा हूं बरास्ता दिल्ली गेट, आगरा गेट डाकबंगला। आ कर सो जाता हूं। सवाब और सुख से भरा-भरा।
सुबह ११ बजे लखनऊ वापसी की ट्रेन है। गरीब-नवाज़ है। कूपे में अजमेर से अकेला हूं। अजमेर छूट रहा है। जयपुर से बाटनी के प्रोफ़ेसर स्वर्णकार श्रीमती स्वर्णकार के साथ आ गए हैं हैं। इधर-उधर की बातचीत है। बबूल की चुभन की उन से बात करता हूं। वह कहते हैं कि हां बहुत सारा डेज़र्ट है तो। बात जयपुर के गुलाबीपन की होती है। बात ही बात में वह बताते हैं कि राजस्थान के बाकी हिस्से तो कंगाल हैं। खास कर मेवाड़ वगैरह। लड़-भिंड़ कर खजाना खाली कर दिया। वह जैसे तंज़ पर आ जाते हैं और कहते हैं कि पर जयपुर के राजा लोग लड़ने-भिड़ने में कभी यकीन नहीं किए। चाहे जय सिंह रहे हों या मान सिंह। मुगल पीरियड रहा हो या ब्रिटिश पीरियड। सो खज़ाना हमेशा भरा रहा। वह हंसते हैं। उन के बच्चे सेटिल्ड हो गए हैं और वह हरिद्वार जा रहे हैं। शाम को हरकी पैड़ी पर आरती का आनंद लेने की योजना बना रहे हैं। राजस्थान छूट रहा है धीरे-धीरे। हरियाणा आ रहा है। हरियाणा छूट रहा है। दिल्ली आ रहा है। प्रोफ़ेसर स्वर्णकार को दिल्ली में ट्रेन बदलनी है। वह उतर जाते हैं। एक जैन साहब आ जाते हैं। व्यापारी हैं। खाना हम दोनों खा रहे हैं। वह घर का लाया खाना खा रहे हैं। बता रहे हैं कि बाहर का खाना नहीं खाते वह। लहसुन प्याज वाली दिक्कत है। अमरीका तक में वह महीने भर रहे पर बचा गए। देशी घी वाला खाना है, बताना नहीं भूलते वह। अब दिल्ली छूट रही है। जाते वक्त ट्रेन आगरा के रास्ते राजस्थान ले गई थी, भरतपुर, बांदीकुई वगैरह होती हुई जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा। अब की राजस्थान छूटा अलवर होते हुए, हरियाणा, दिल्ली के रास्ते। सोते हुए। गए थे जागते हुए। भरतपुर में तब नींद टूटी थी। अब की वापसी में शाहजहांपुर में टूटी है। कुछ परिवार हैं जो अजमेर से लौटे हैं सबाब ले कर। उतरते वक्त खामोशी के बजाय हलचल मचाते हुए उतर रहे हैं। भोर के पौने तीन बजे हैं। लोग उतर रहे हैं। सोए हुए बच्चों और सामान को हाथ में लिए हुए। सवाब का सुकुन चेहरे पर है ज़रुर पर बोल रहे हैं कि अपना मुल्क ही अपना मुल्क होता है। अपने मुल्क की बात ही कुछ और है। तो क्या अजमेर उन का दूसरा मुल्क था? क्या रघुवीर सहाय इसी लिए, इसी तलाश और तनाव में लिख गए हैं दिल्ली मेरा परदेस ! याद आता है कि साक्षी के कार्यक्रम में रोमिला ने स्त्रियों के संदर्भ में एक वाकया सुनाया था। कि एक कुम्हार घड़ा बना रहा था। घडा़ बनाते-बनाते वह किन्हीं खयालों में खो गया। कि तभी मिट्टी बोली कुम्हार-कुम्हार यह क्या कर रहे हो? घड़े की जगह मुझे सुराही क्यों बना रहे हो? कुम्हार ने कहा कि माफ़ करना मेरा विचार बदल गया। मिट्टी तकलीफ़ से भर कर बोली तुम्हारा तो सिर्फ़ विचार बदला, पर मेरी तो दुनिया बदल गई।
तो यहां अजमेर से शाहजहांपुर की यात्रा में इन लोगों का मुल्क बदल गया। अपने मुल्क आने की खुशी में वह लोग भूल गए कि हमारे जैसे लोगों की नींद भी टूट गई है। बशीर बद्र याद आ गए हैं :
वही ताज है, वही तख़्त है, वही ज़हर है, वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है, ये वही बुतों का निज़ाम है
वापस जा कर सोने की कोशिश करता हूं। सोने में ट्रेन कहीं लखनऊ से आगे न निकल जाए, यह सोच कर सो नहीं पाता हूं। पर कब सो गया पता नहीं चला। आगे की यात्रा करने वाले लोग आ गए हैं। नींद उन के आने से टूट गई है। सुबह हो गई है। लखनऊ आ गया है। गरीब-नवाज़ छूट रही है। आमीन !