Thursday, 29 March 2012

भूलने के लिए बने ही नहीं संजीव कुमार

दयानंद पांडेय 

संजीदगी और सहजता भरे अभिनय का आइना हैं संजीव कुमार। इप्टा में स्टेज पर परदा खींचने से कैरियर शुरू करने वाले हरिभाई सेल्यूलाइड के परदे पर आ कर संजीव कुमार हो गए। पर सुपर स्टार नहीं हुए। सरताज हो गए अभिनय की दुनिया के। सेल्यूलाइड की दुनिया के।


अपने ज़माने में अभिनय का एक अलग ही अंदाज़ परोसने वाले दिलीप कुमार के साथ ‘संघर्ष’ में संजीव कुमार दस मिनट की भूमिका में ही जो असर छोड़ गए, तो दिलीप कुमार तो दूर बड़े बड़ों के दांत खट्टे हो गए और पसीने छूट गए। बाद में तो दिलीप कुमार जैसे दिग्गज संजीव कुमार के साथ आने में कतराने लगे। ‘साथी’ में राजेंद्र कुमार आए और मुंह की खा गए। पर संजीव कुमार की स्थिति फिर भी सह नायक की ही बनी रही। बीच-बीच में वह एकाध बार नायक भी बने पर सह नायक की नकेल अंत तक उन्हें नाथे रही। ‘खिलौना’ आई तो संजीव कुमार की उपस्थिति बाकायदा दर्ज हुई। राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजे गए।

‘खिलौना’ में लाचारगी को जिस तरह संजीव कुमार ने जिया, जिस सफाई, सलीके और संजीदगी से जिया उस समय के दिग्गज दिलीप कुमार, देवानंद और राजकपूर भी क्या उसे वही रंग दे पाते? हरगिज नहीं। क्यों कि उस मनोविज्ञान को मथने में महारथ उन्हें हासिल ही नहीं थी जिसे संजीव कुमार ने सत्य बना दिया था।

‘खिलौना जान कर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो’ गीत में जो उदासी की खनक मुहम्मद रफी की आवाज़ में उभरती है, लगभग उसी अनुपात में अभिनय की खराश खोजते-परोसते हैं संजीव कुमार इस गीत में। अभिनय की जो खाद इस दृश्य में संजीव कुमार डालते हैं तो यह दृश्य, यह गीत अमर हो जाता है।

‘खिलौना’ हालां कि गुलशन नंदा की लिखी फ़िल्म (उनके ही उपन्यास ‘पत्थर के होंठ’ पर आधारित) थी और फैंटेसी थी, पर संजीव कुमार के अभिनय की छुअन क्या मिली कि वह अमर हो गई। कई लोग कला फ़िल्म भी इसे बता गए। और राष्ट्रीय पुरस्कार भी पा गई यह फ़िल्म और संजीव कुमार भी। इस में फ़िल्म जितेंद्र भी थे और शत्रुघ्न सिन्हा भी। मुमताज हीरोइन। पर यह नहीं कहूंगा कि संजीव इन्हें खा गए। क्यों कि यह काम तो दूसरों के जिम्मे डाले रहे संजीव कुमार। कहूंगा कि संजीव कुमार के अभिनय में यह सब समा गए। मुमताज के हिस्से पीड़ा थोड़ी ज़्यादा थी तो वह संजीव के साथ उसी बेकली से दे गई जिस विकलता से, जिस विस्तार से संजीव कुमार के अभिनय का बारीक रेशा उस पागल के मनोविज्ञान में रंग जाता है। और वह अपनी ही तस्वीर बना कर कहता है, ‘यह देखो मिर्जा गालिब है।’ दरअसल यही सच था कि संजीव कुमार जिस किरदार को जीते थे, उस में ढल कर उस को जी कर सच कर देते थे।

‘नया दिन, नई रात’ भी समूची फैंटेसी थी। पर नौ भूमिकाएं कर के संजीव कुमार ने उसे यादगार फ़िल्म बना दिया। गुलज़ार को जब ‘कोशिश’ बनानी हुई तो उन्हें संजीव कुमार याद आए। कोशिश एक मनोवैज्ञानिक फ़िल्म थी। और गुलज़ार को मन को मथ देने वाला कलाकार चाहिए था जो उन्हें संजीव कुमार में मिला। इस फ़िल्म में जया भादुड़ी और संजीव कुमार की गूंगे बहरे वाली दांपत्य जोड़ी की दारुण गाथा न सिर्फ़ दिल दहला देने वाली है, उन की लयबद्धता, उन का रिदम, उन का भावावेश, आवेश, अकुलाहट तथा छटपटाहट को छूने और उसे क्षण-क्षण जीने की विकलता बरबस बांध लेने वाली है।

और ‘स्वर्ग और नरक’ में उन की कृपणता? इस फ़िल्म में भी वह हैं तो सहनायक। नायक जितेंद्र और नायिका मौसमी चटर्जी हैं। पर ‘स्वर्ग-नरक’ में संजीव कुमार का एक संवाद है ‘एडजस्ट कर लूंगा।’ तो संजीव के अभिनय के आगे जितेंद्र और मौसमी भी ‘एडजस्ट’ हो गए हैं। उसी तरह शोले में संजीव कुमार के आगे अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और अमजद खान ‘एडजस्ट’ हो गए। तो क्या कीजिएगा। दरअसल संजीव कुमार की संवाद अदायगी में कसैलेपन का जो स्वाद है, वह बड़ों-बड़ों को सुखा क्या साफ कर जाता है। वास्तव में यह कसैलापन ही संजीव कुमार के अभिनय की सेहत का राज है। जहां-जहां यह कसैली उन्हों ने कूटी है, वह कामयाब रहे हैं। नहीं होने को वह ‘सीता और गीता’ में धर्मेंद्र के साथ सहनायक ‘आप की कसम’ में वह राजेश खन्ना के साथ सहनायक हुए। यह और ऐसी ढेरों फ़िल्में हैं जहां संजीव कुमार सहनायक हैं, सह अभिनेता हैं। पर कुछेक फ़िल्मों को छोड़ दें तो संजीव कुमार सब जगह भारी हैं। शायद इसी लिए जब गुलज़ार ‘कोशिश’ बनाते हैं, तो संजीव कुमार को याद करते हैं। सत्यजीत रे जब प्रेमचंद की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनाते हैं, तो उन्हें संजीव कुमार सूझते हैं। और संजीव कुमार? वह शतरंज की बाजी चाहे जीतें चाहे हारें अभिनय का मैदान वह जीतते ही हैं।

शायद इसी लिए हृषीकेश मुखर्जी जब ‘आलाप’ बनाते हैं, तो संजीव कुमार ही होते हैं वृद्ध राजा की भूमिका में। ‘अर्जुन पंडित’ में भी संजीव कुमार ही सूझते हैं। सत्तर अस्सी के दशक में तो वृद्ध भूमिकाओं में संजीव कुमार जितनी फ़िल्मों में आए और जितना वैविध्य ले कर आए, शायद और कोई अभिनेता नहीं आया। उस का नतीज़ा क्या निकला? अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन (जो सुपर स्टार थे और अभी भी माने जा रहे हैं) हर दूसरी तीसरी फ़िल्म में वृद्ध भूमिकाएं डबल रोल के बहाने अपने लिए लिखवाने लगे। ‘अदालत’ से ‘खुदा गवाह’ ‘ तक अमिताभ वृद्ध भूमिकाएं करते आप को दिखेंगे। आखिरी रास्ता से लगायत सूर्यवंशम या फिर बागबान तक को भी ले लीजिए। पर संजीव कुमार की सी सिहरन नहीं उठती उन के अभिनय में। उन झुर्रियों का विस्तार नहीं मिलता अमिताभ के वृद्ध में जो विस्तार संजीव कुमार के वृद्ध में मिलता है। बागबान तो संजीव कुमार अभिनीत ज़िंदगी का ही रीमेक है। और संजीव कुमार वाली भूमिका को ही अमिताभ ने दुहरा दिया है। फ़िल्म भले चल गई पर अमिताभ संजीव कुमार के अभिनय को छू भी नहीं पाए हैं। यहां तक कि अनुपम खेर, आलोक नाथ, परेश रावल और बोमन इरानी तक के वृद्ध में उन झुर्रियों का विस्तार है। पर अमिताभ के वृद्ध में वह विस्तार बुझ जाता है। वह पीड़ा, वह सरलता अमिताभ के यहां नहीं है जो संजीव के अभिनय में अंगार बन जाती है। जो बेकली, जो अपमान, जो उपेक्षा, द्वंद्व और अहं की आग संजीव कुमार के वृद्ध के अभिनय में सुलगती है, सुलग कर शोला बनती है वह अमिताभ के यहां आ कर बुझ जाती है। बुझ कर एक झक, हठ और जिद के जद्दोजहद में बदल जाती है। तो यह अमिताभ के सुपर स्टार और संजीव कुमार के अभिनेता के बीच का ही फर्क भर नहीं है।

‘श्रीमान और श्रीमती’, ‘पति पत्नी और वो’, ‘उलझन’ तथा ‘स्वर्ग नरक’ जैसी ढेरों फ़िल्में हैं जिन में संजीव कुमार एक त्रासद हास्य भी बुनते हैं। और फैंटेसी होने के बावजूद आस पास की सचाई से रूबरू कराते हैं सहज-सरल, संजीदगी से।

गुलज़ार के ‘मौसम’ जैसी गंभीर फ़िल्म में भी ‘छड़ी रे छड़ी कैसे गले में पड़ी’ जैसे गीत में शर्मिला टैगोर के साथ चुहलबाजी का पाठ पढ़ लेते हैं। ठीक वैसे ही जैसे ‘पति पत्नी और वो’ में वह ‘ठंडे ठंडे पानी में नहाना चाहिए’ गीत में विद्या सिनहा के साथ ठिठोली करते हैं। ‘स्वर्ग नरक’ में तो खैर वह हंसाते-हंसाते पेट फुला देते हैं। ‘नया दिन नई रात’ में भी वह इसी पेट फुलाऊ हास्य को विस्तार देते हैं। श्रीमान और श्रीमती में भी। गुलज़ार की ‘आंधी’ जैसी संजीदा फ़िल्म में भी वह सुचित्रा सेन के साथ होटल में हास्य बुन लेते हैं। जो मैं ने पहले कहा कि संजीव कुमार की संवाद अदायगी का कसैलापन ही उन के अभिनय की सेहत का राज है। ‘आंधी’ में इस का पूरा खुलासा एक-एक फ्रेम में मौजूद है। पर एक खास किस्म की संक्षिप्तता लिए हुए। जैसे कि ‘शोले’ में भी उन का यह कसैलापन है, पर सघनता, ग्लैमर और ठसक लिए हुए।

‘मैं तो एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा’ या फिर ‘बलमा हमार मोटर कार लै के आयो रे’ जैसे गीतों में जहां उन के साथ लीना चंद्रावरकर हैं, में वह संभवत: उतने फिट नहीं पड़ते जैसे सीता और गीता में वह हेमामालिनी के साथ ‘हवा के साथ चल तू, घटा के साथ चल तू’ गीत में फिट नहीं पड़ पाते। पैबंद जान पड़ते हैं। पर ऐसी फ़िल्में भी उन्हों ने की और ढेरों की। जब मल्टी स्टारर फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ, तो संजीव कुमार दो जोड़ी नायक-नायिकाओं के साथ आने लगे। कभी अपनी नायिका के साथ तो कभी बिन नायिका के भी। जैसे ‘त्रिशूल’ में जिस टूटन को, अपनी गलती को रेशा रेशा जीया है संजीव कुमार ने वहीदा और् राखी के साथ कि शशिकपूर, अमिताभ बच्चन पानी भरने चले गए हैं अपनी अपनी नायिकाओं के साथ। यही हाल ‘शोले’ में हुआ है। जया की जोड़ी के नाते अमिताभ थोड़ा-थोड़ा टिकते भी हैं, पर धर्मेंद्र और हेमा मालिनी भागते फिरते हैं।

‘सिलसिला’ में भी संजीव, अमिताभ और शशिकपूर की तिकड़ी है। शशि तो खैर थोड़ी देर के लिए हैं और संजीव के सामने पड़े ही नहीं हैं। पर अमिताभ जहां-जहां जब-जब पड़े हैं, कन्नी काट गए हैं। कुतुर कर रख दिया है संजीव ने उन्हें। ‘रंग बरसे भीजै चूनरवाली, रंग बरसे’ गाते ज़रुर् अमिताभ हैं पर इस की लहर और लौ दोनों संजीव कुमार के हिस्से हैं। यही हाल ‘श्रीमान और श्रीमती’ में अमोल पालेकर सारिका और राकेश दीप्ति नवल का हुआ है राखी और संजीव कुमार की जोड़ी के सामने।

कुंआरे ही मर जाने वाले संजीव कुमार की अंतिम फिल्म ‘कत्ल’ थी। ‘कत्ल’ में वह खुद कातिल हैं अपनी पत्नी के। जो किसी और से रिश्ता जोड़ बैठी है। संयोग देखिए कि रिश्ते में संजीव कुमार की नातिन लगने वाली सारिका जो उन के साथ बाल कलाकार भी बरसों पहले बन चुकी थी, ‘कत्ल’ में उन की हीरोइन है। और उसी की उन्हें हत्या करनी है तब जब कि आंखों से वह लाचार हैं। मतलब अंधे हैं। वह अंधे हैं और उन्हें पत्नी की हत्या करनी है। उसके प्रेमी के घर में। एक-एक चीज़ की, एक-एक मिनट की वह रिहर्सल करते हैं। कइयों दिन। घर से दूर बहुमंजिले भवन में वह कत्ल कर देते हैं। नाटकीय और फ़िल्मी ढंग से नहीं। मनोवैज्ञानिक ढंग से और इस पूरे मनोविज्ञान को जिस तरह मथा है संजीव कुमार ने, उसे जीवन दिया है, वह दुर्लभ है।

हालां कि इस तरह की एक भूमिका वह शबाना आज़मी के साथ पहले ‘देवता’ फ़िल्म में कर चुके थे। पर फ़िल्म का एक हिस्सा थी वह भूमिका। हालां कि इसी फ़िल्म में सारिका और राकेश रोशन पर फ़िल्माए गए गुलज़ार के गीत ‘गुलमुहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसले गुल को खिलाना भी हमारा काम होता’ जैसे मादक गीत में संजीव कुमार एक तिलस्मी तनाव जीते हैं। और लगभग वही तिलस्मी तनाव वह ‘कत्ल’ में जीते हैं। और उस जीने में विस्तार देते हैं। शायद इसी लिए ‘कत्ल’ एक यादगार फ़िल्म बन जाती है। पर संजीव कुमार?

वह तो हैं ही न भूलने लायक। ‘आलाप’ में डॉ. हरिवंश राय बच्चन के गीत ‘कोई गाता मैं सो जाता’ जैसी ललक लिए। सेंत-मेत में भूल जाने के लिए बने ही नहीं संजीव कुमार। क्यों कि उनका ग्राफ बड़ा गाढ़ा है। जिस की थाह जल्दी मिलती नहीं। शायद उन पर फ़िल्माए गए उस गाने की तरह जिसे मुकेश ने गाया है, ‘ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना !’ सचमुच संजीव कुमार का अभिनय वही सागर सरीखा था, जिस में कई सारी नदियां आ कर मिल जाती हैं।


प्यार का सफ़र

संजीव कुमार के पास अभिनय संसार के अलावा इसी दुनिया से उपजा एक प्यार का संसार भी था उन का। हालां कि इस में वह बहुत कुछ क्या बिलकुल ही सफन नहीं रहे। पर प्यार की पेंगे उन्होंने मारी और एकाधिक बार। जब वह पेंगे परवान नहीं चढ़ पाई सो वह अकेले ही कोई चार दशक का साथ साध गए और कुंवारे ही कहला कर दुनिया से कूच कर गए।

वैसे तो वह फ़िल्म अभिनेता थे और परदे पर ढेरों सफल और असफल प्रेम प्रसंग जोते रहते थे। पर ज्यादातर परदे पर भी उन्हें असफल प्रेम ही जीना पड़ा। क्या पता उस परदे की काली छाया ही ने उन के असल प्रेम रंग को चटक नहीं होने दिया हो। और परदे पर जिस संकोच को वह शऊर और सलीके से अभिनय का रंग भरते थे वह रंग उन के जीवन में ज्यादा चटक हो गया। परदे के लिए कैमरे के सामने तो फिर भी उन्हें रोमांस करना होता था। तो असली जीवन में भी रोमांस से वह अछूते नहीं रहे होंगे।

लेकिन पहली बार उन के रोमांस की खिचड़ी फ़िल्मी पत्रिकाओं में जो पकी उस की सुर्खियों में हेमा मालिनी थीं। पर जल्दी ही भ्रम टूटा और धर्मेंद्र ने संजीव कुमार ही क्यों गिरीश कर्नाड भी जिन का नाम हेमा मालिनी से जुड़ने लगा था जैसे ढेरों दिग्गजों को धता बता ले ही उड़े हेमा मालिनी को।

संजीव कुमार के फिर कई छिटपुट फ़िल्मी गैर फ़िल्मी प्रसंगों का ज़िक्र होने लगा। पर सुलक्षणा पंडित से उन का प्रेम परवान चढ़ा। और वह लगभग घर वाली बन कर उन पर काबिज हो गईं। पर कहते हैं न कि ‘बीच कहीं कोई तारा टूटा’ और संजीव सुलक्षणा के प्रेम तंत्र के तार कहीं टूट गए, कहीं बिखर गए। कहीं उघड़ गई उन की प्रेम पुराण की सीवन, जो फिर बुन नहीं पाई। सुलक्षणा पंडित हालां कि अंत तक जोहती रहीं संजीव कुमार को और आज तक वह शायद अकेली ही हैं। पर संजीव जाने किस बात पर सनके सुलक्षणा से कि फिर बात नहीं बनी तो नहीं बनी। फिर सुनाई दिया सारिका का नाम। संजीव कुमार के साथ सुर्खियों में आनी शुरू ही हुई कि संजीव ने यह कह कर इस प्रसंग की छुट्टी कर दी कि सारिका तो रिश्ते में मेरी नातिन है और बच्ची है। ‘अनहोनी’ फ़िल्म में एक गीत संजीव कुमार पर फ़िल्माया गया, जिस में उन की नायिका हैं लीना चंद्रावरकर। गीत है ‘मैं तो एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा।’ शायद यह बात उन के जीवन में भी जाग गई और वह किसी का दिल नहीं बहला पाए। बावजूद इस के परदे पर दांपत्य जीवन की दारुणता, जटिलता, कुंवारे संजीव कुमार ने एक बार नहीं बार-बार जी है और वह विलक्षण है। आंधी में सुचित्रा सेन के साथ जिस दांपत्य दरार को वह जीते हैं, वह चिर स्मरणीय है ही, दहला देने वाला भी है। खिलौना में पागल बन के सही तवायफ के साथ ही सही वह दांपत्य ही जीते हैं। ‘पति, पत्नी और वो’ में तो दांपत्य और विवाहेत्तर संबंध भी जिस जटिलता और चुटीलेपन के साथ जीते हैं कि लगता ही नहीं कि इस व्यक्ति को दांपत्य का अनुभव नहीं है। उन के परदे पर दांपत्य का एक छोर ‘आप की कसम’ है, ‘बेरहम’ है तो दूसरा छोर ‘श्रीमान और श्रीमती’, ‘जिंदगी’ तथा ‘स्वर्ग और नरक’ है। ढेरों फ़िल्मों में दांपत्य की दारुणता और विकलता दोनों ही जिया है उन्हों ने और पूरे जीवन के साथ, पूरे रस के साथ। और दांपत्य ही क्यों, इस से एक पीढ़ी दो पीढ़ी आगे का वृद्ध जीवन भी तो जिया है और बार-बार। उसी लयबद्धता से।


अपशकुन
संयोग ही है कि संजीव कुमार के साथ एक अपशकुन भी नत्थी हो गया। के.आसिफ की फिल्म ‘लव एंड गॉड’ में उन की कैस की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण उन का इस फ़िल्म में होना है। के.आसिफ की इस ‘लव एंड गॉड’ जिसे कोई सालों बाद ढेरों खतरे उठा कर के सी बोकाडिया ने पूरा किया, के साथ अपशकुन कथाओं की एक लंबी कड़ी है। फ़िल्म जब शुरू हुई तो नायिका मर गई। फिर दूसरी नायिका ढूंढी गई तो नायक मर गया। इस तरह इस फ़िल्म का कोई न कोई कलाकार मरता ही गया तो इस फ़िल्म ही को अशुभ बता दिया गया और फिर जब के.आसिफ ही इस फ़िल्म को बनाते-बनाते अलविदा कह गए दुनिया तो इसे सिरे से ही अशुभ करार दे दिया गया। लेकिन के.आसिफ साहब की पत्नी ने हार नहीं मानी और उन्हों ने फ़िल्म फिर से शुरू कराई। लेकिन एक तो अपशकुन का अंदेशा, दूसरे पैसे की किल्लत में फ़िल्म फिर डिब्बे में बंद हो गई। बरसों बाद केसी बोकाडिया ने सारे अपशकुनों को अनदेखा करते हुए फ़िल्म शुरू की और गाज संजीव कुमार के सिर गिरी। बीमार वह थे ही और अंतत: नहीं रहे। पर केसी बोकाडिया ने हिम्मत फिर भी नहीं हारी और न ही संजीव कुमार के न रहने पर भी हीरो संजीव कुमार को ही बदला। शायद इस लिए भी कि ज्यादातर शूटिंग उन के हिस्से की पूरी हो चुकी थी। सो, आखिर के हिस्से संजीव कुमार के डुप्लीकेट पर फिल्मा कर फ़िल्म पूरी ही नहीं की, केसी बोकाडिया ने उसे रिलीज भी किया। पर कैस और लैला की जुनूनो इश्क की कहानी एक अलग ही अंदाज़ में कहने वाली लव एंड गॉड टिकट खिड़की पर हिट होने के बजाय पिट गई। सो, मान लिया गया कि इस फ़िल्म के साथ अपशकुन अंत तक बना रहा, लेकिन संजीव कुमार! दरअसल उन के करने के लिए इस में कुछ खास था ही नहीं। शायद इस लिए इस फ़िल्म में उन का अभिनय न तो है, न ही अपना असर छोड़ता है। हां, उन की संवाद अदायगी का कसैलापन यहां भी मौजूद है और कहीं बहुत तीखापन लिए हुए। हालां कि अंतिम दृश्यों में जहां उन के डुप्लीकेट जनाब हैं-हैं तो लांग शाट में ही पर अभिनय में तो वह और भी ‘लांग’ (दूर) हैं संजीव से। बस बोरे से खड़े हो जाते हैं। अपनी अदा में तो फ़िल्म का रहा-सहा असर भी चाट जाते हैं। नहीं होने को ‘कत्ल’ भी संजीव के दिल के आपरेशन के बाद और उन के अलविदा कह जाने के बाद ही रिलीज होने वाली फ़िल्म है। जैसे लव एंड गॉड है, पर कत्ल के कथ्य समेटते और संवारते दिखते हैं संजीव कुमार और वह एक अच्छी फ़िल्म बन जाती है। पर सारी ऐतिहासिकता और नाटकीयता के बावजूद लव एंड गॉड लकवाग्रस्त हो जाती है। तो क्या सिर्फ इस लिए कि उस के साथ अपशकुन की लंबी काली छाया थी? जाहिर है कि नहीं। दरअसल पूरी फ़िल्म इतनी हड़बड़ी में समेटते हैं के सी बोकाडिया कि उस की ऐसी की तैसी हो जाती है। दरअसल के सी बोकाडिया ने के.आसिफ का सपना ही सच करने के लिए लव एंड गॉड को हाथ में नहीं लिया था। उन का अपना सपना भी था। तिजोरी भरने का सपना। क्यों कि वह तब हिट फ़िल्मों के बादशाह मान बैठे थे अपने को, लेकिन उन का सपना टूट गया और लव एंड गॉड पिट गई।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जब एक लड़की से करुण रस के बारे में पूछा तो वह रो पड़ी

दयानंद पांडेय 


उन दिनों बी ए में पढता था। पर क्लास की पढाई-लिखाई से कहीं ज़्यादा कविता लिखने की धुन सवार थी। धुन क्या जुनून ही सवार था। कवि गोष्ठियों में जाने की लत भी लग गई थी। फिर कवि सम्मेलनों में भी जाने लगा। गोरखपुर में नया-नया आकशवाणी का केंद्र भी खुला था तब। वहां भी जाने लगा। कविताएं प्रसारित होने लगीं। और तो और एक संस्था भी बना ली- जागृति। जैसे कविता ही ज़िंदगी थी, कविता ही सांस, कविता ही ओढना-बिछौना। बाकी सब व्यर्थ। तब लगता था कि हमारी कविताएं ही समाज बदलेंगी, हम को सब कुछ दे कर हमारा प्रेम भी परवान चढाएंगी और कि हम धूमिल और दुष्यंत से भी कोसों आगे जाएंगे। आदि-आदि खयाली पुलाव हम तब पकाने में लगे थे। उम्र ही ऐसी थी। लोग उम्र को ले कर टोकते भी तो हम शेखी बघारते हुए कहते कि शरत ने भी देवदास १८ साल की उम्र में ही लिखी थी। तो अब जल्दी ही लगने लगा कि अपनी कविता की एक किताब भी होनी ही होनी चाहिए। पर लोगों ने कहा कि कम से कम सौ पेज की किताब तो होनी ही चाहिए। अब उतनी कविताएं तो थीं नहीं। पर किताब की उतावली थी कि मारे जा रही थी। उन्हीं दिनों लाइब्रेरी में तार सप्तक हाथ आ गई। लगा जैसे जादू की छडी हाथ आ गई है। अब क्या था, दिल बल्लियों उछल गया। साथ के अपनी ही तरह नवोधा कवि मित्रों से चर्चा की। पता चला कि सब के सब कविता की किताब के लिए छटपटा रहे हैं। सब की छटपटाहट और ताप एक हुई और तय हुआ कि सात कवियों का एक संग्रह तैयार किया जाए। सब ने अपनी-अपनी कविताएं लिख कर इकट्ठी की और एक और सप्तक तैयार हो गया। मान लिया हम लोगों ने कि यह सप्तक भी तहलका मचा कर रहेगा। अब दूसरी चिंता थी कि इस कविता संग्रह को छपवाया कैसे जाए? तरह-तरह की योजनाएं बनीं-बिगडीं। अंतत: तय हुआ कि किसी प्रतिष्ठित और बडे लेखक से इस की भूमिका लिखवाई जाए। फिर तो कोई भी प्रकाशक छाप देगा। और जो नहीं छापेगा तो जैसे सात लोगों ने कविता इकट्ठी की है, चंदा भी इकट्ठा करेंगे और चाहे जैसे हो छाप तो लेंगे ही। इम्तहान सामने था पर कविता संग्रह सिर पर था। किसी बैताल की मानिंद। अंतत: बातचीत और तमाम मंथन के बाद एक नाम तय हुआ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का। भूमिका लिखने के लिए।


उन दिनों आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक तो हमारे पा्ठ्यक्रम में थे सो इस लिए भी मन मे एक रोमांच सा था कि जिस की रचना हम पाठ्यक्रम में पढते हैं, उन से मिलेंगे। हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में तब यह भी प्रचलित था कि वह बहुत ही सहृदय हैं और कि बहुत जल्दी द्रवित हो जाते हैं। इस के पीछे एक घटना भी थी। कि एक बार यूनिवर्सिटी में वाइबा लेने आए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। वाइबा में एक लड़की से उन्हों ने करुण रस के बारे में पूछ लिया। लड़की छूटते ही जवाब देने के बजाय रो पडी। बाद में जब वाइबा की मार्कशीट बनी तब आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उस रो पडने वाली लड़की को सर्वाधिक नंबर दिया। लोगों ने पूछा कि, 'यह क्या? इस लड़की ने तो कुछ बताया भी नहीं था। तब भी आप उसे सब से अधिक नंबर दे रहे हैं?' हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा, 'अरे सब कुछ तो उस ने बता दिया था, करुण रस के बारे में मैं ने पूछा था और उस ने सहज ही करुण उपस्थित कर दिया। और अब क्या चाहिए था?' लोग चुप हो गए थे। हालां कि इस की पराकाष्ठा हुई जल्दी ही। अगली बार वाइबा के लिए नामवर सिंह आए। कुछ 'होशियार' अध्यापकों ने लडकियों को बता दिया कि यह नामवर उन्हीं हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य हैं। अब जो भी लड़की आए, जो भी सवाल नामवर पूछें लड़की जवाब देने की बजाय रो पडे। नामवर परेशान कि यह क्या हो रहा है? अंतत: उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदी का वह प्रसंग बता दिया गया। लेकिन नामवर नहीं पिघले। रोने वाली सभी लडकियों को वह फेल कर गए। तो भी क्या था हम कोई नामवर सिंह के पास जा भी नहीं रहे थे। हम तो कबीर को परिभाषित और व्याख्यायित करने वाले, वाणभट्ट की आत्मकथा लिखने वाले सहृदय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पास जा रहे थे।
खैर, तय हुआ कि इम्तहान खत्म होते ही बनारस कूच किया जाए मय पांडुलिपि के। और आचार्य से मिल कर भूमिका लिखवाई जाए। फिर तो कौन रोक सकता है अब प्यार करने से! की तर्ज पर मान लिया गया कि कौन रोक सकता है अब किताब छपने से ! इम्तहान खत्म हुआ। गरमियों की छुट्टियां आ गईं। स्टूडेंट कनसेशन के कागज बनवाए गए। और काशी कूच कर गए दो लोग। एक मैं और एक रामकृष्ण विनायक सहस्रबुद्धे। सहस्रबुद्धे के साथ सहूलियत यह थी कि एक तो उस के पिता रेलवे में थे, दूसरे उस का घर भी था बनारस में। सो उस को तो टिकट भी नहीं लेना था। और रहने-भोजन की व्यवस्था की चिंता भी नहीं थी। मेरे पास सहूलियत यह थी कि बुद्धिनाथ मिश्र एक कवि सम्मेलन में मिल गए थे, उन से जान-पहचान हो गई थी। उन्हों ने अपने घर काली मंदिर का पता भी दिया था। वह आज अखबार में भी थे। सो मान लिया गया कि वह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलवा देंगे।

बनारस पहुंचे तो नहा खा कर आज अखबार पहुंचे। पता चला कि बुद्धिनाथ जी तो शाम को आएंगे। उन के घर काली मंदिर पहुंचे। वह वहां भी नहीं मिले। कहीं निकल गए थे। शाम को फिर पहुंचे आज। बुद्धिनाथ जी मिले। उन से अपनी मंशा और योजना बताई। वह हमारी नादानी पर मंद-मंद मुसकुराए। और समझाया कि, 'इतनी जल्दबाज़ी क्या है किताब के लिए?' मैं ने उन की इस सलाह पर पानी डाला और कहा कि, 'यह सब छोडिए और आप तो बस हमें मिलवा दीजिए।' वह बोले कि, 'अभी तो आज मैं एक कवि सम्मेलन में बाहर जा रहा हूं। कल लौटूंगा। और कल ही अभिमन्यू लाइब्रेरी में शाम को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के तैल चित्र का अनावरण है। आचार्य जी ही करेंगे। वहीं आ जाना, मिलवा दूंगा। पर वह भूमिका इस आसानी से लिख देंगे, मुझे नहीं लगता।' मैं ने छाती फुलाई और कहा कि, 'वह जब कविताएं देखेंगे तो अपने को रोक नहीं पाएंगे।' बुद्धिनाथ जी फिर मंद-मंद मुसकुराए। और बोले, 'ठीक है तब।' और तभी श्यामनारायन पांडेय आ गए उन्हें लेने। वह चले गए।

उस बार बनारस में और भी तमाम लोगों से मिला। लोलार्क कुंड पर काशीनाथ सिंह से लगायत सोनिया पर शंभूनाथ सिंह तक से। लेकिन जैसी मुलाकात आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से हुई, जिस नाटकीय अंदाज़ में हुई, वह कभी भूल नहीं सकता। वह तो न भूतो न भविष्यति। लगता है १९७६ की गरमियों की वह घटना आज भी आंखों में वैसी की वैसी टंगी पडी है, मन में बसी पडी है। बहरहाल दूसरे दिन शाम को पहुंच गए अभिमन्यू लाइब्रेरी।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आए। छोटे-बड़े सभी लोग बारी-बारी उन के पांव छूने लगे। उन की भद्रता और विद्वता के बारे में ज्ञान होते हुए भी जाने क्यों, मुझे बड़ा बुरा लगा। पांव छूना तो दूर, नमस्कार भी नहीं किया उन को, बल्कि कनखियों से खिल्ली भी उड़ाने लगा। पांव छूने वालों की और छुलाने वाले की भी। हालां कि खिल्ली उड़ाने वाला अकेला मैं ही था, तिस पर बैठा भी था एकदम आगे, बल्कि द्विवेदी जी के ठीक पास में। फलत: बहुत बचाव करने पर भी मैं बार-बार उन की नजरों से टकरा ही जाता था। फिर भी बड़े विरक्त भाव से उन को देखने लगता। जाने क्या हो गया था अचानक मुझे। इसी ऊहापोह में तैलचित्र का अनावरण भी हो गया और गोष्ठी भी खत्म हो गई। इधर-उधर की बातें होने लगीं। अचानक किसी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी से किसी पत्रिका में उन के खिलाफ़ कुछ छपे और उस के संपादक का ज़िक्र किया तो वह नाराज होने के बजाय मंद-मंद मुसकुराए और विनोद में बोले, 'अरे, सम-पादक हैं!' लोग ठठा कर हंसने लगे। थोडी देर बाद लोग उठ कर जाने लगे। मैं यंत्रवत बैठा रहा। वे भी उठ कर फिर बैठ

गए। मैं ने समझा कि शायद वे मेरी हरकत से रुष्ट हैं और कुछ...असंमजस में ही लगभग उन को नकारते हुए उठ कर चलने लगा कि उन्हों ने बड़े सरल सहज भाव से कहा, ‘सुनो भई।’

मैं अचकचा कर रुक गया। बोला, ‘जी।’

‘क्या करते हो?’

‘पढ़ता हूं बी. ए. में।’

‘किस कॉलेज में?’

‘जी यहां नहीं...गोरखपुर में पढ़ता हूं।’

‘हूं, यहां कैसे आए?’

‘जी, घूमने आया था।’ हालां कि कहना चाहता था कि आप ही से मिलने आया हूं। पर मुंह से निकला घूमना। खैर।

‘क्या-क्या देखा?’

‘जी, अभी तो लोगों से मिल रहा हूं।’

‘चलो, लोगों से मिल रहे हो तो देख भी लोगे’ कहते हुए हंस कर वे उठ पड़े।

मेरा अक्खड़पन धीरे-धीरे टूटने सा लगा था। उन के सौम्य, सहज स्वभाव के आगे किसी आवाज में इतना ज़बरदस्त वाइब्रेशन और उस में भी स्नेह और स्निग्धता की छुअन इतने करीब से मैं ने इस से पहले कभी नहीं महसूस की थी। बात करते-करते हम सड़क पर आ गए थे। इसी बीच बुद्धिनाथ जी समझ गए कि मैं अपनी अकड में अपनी बात कहने में संकोच बरत रहा हूं। सो उन्हों ने बडी सहजता से आचार्य जी को बताया कि, 'वास्तव में यह आप ही से मिलने बनारस आए हैं।'

'अरे !' वह बोले, 'पर यह तो घूमने आने की बात बता रहा था।'

अब मैं और हडबडा गया। कविता संग्रह की पांडुलिपि हाथ में ही थी। फ़ौरन मैं ने उन के आगे रख दी।

'यह क्या है?' उत्सुक हो कर पूछा उन्हों ने।

'पांडुलिपि !' मैं ने संकोचवश जोडा, 'कविता संग्रह की पांडुलिपि।'

'अच्छा-अच्छा !'

'आप से भूमिका लिखवाना चाहता हूं।'

'अरे ! अभी?' अब वह अचकचाए।

'जी हां।'

'यहीं खडे-खडे भूमिका लिखी जाएगी? बुद्धिनाथ जी ने टोका।

'फिर?' मैं अचकचाया।

'अरे, कल घर चले जाना।'

फिर यह तय हो गया कि कल शाम को मैं रवींद्रपुरी स्थित उन के आवास पर मिलूंगा। द्विवेदी जी अपनी छड़ी घुमाते हुए एक रिक्शे पर बैठ गए। कुछ बाकी बचे लोगों ने फिर उन के पांव छुए। मैं ने भी चाहते न चाहते नमस्कार कर विदा ली। अगली दोपहर को मैं हाजिर था...आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के रवींद्रपुरी स्थित आवास पर। बाहर उन का माली कुछ काम कर रहा था। मैंने कहा कि जा कर द्विवेदी जी से कह दो कि गोरखपुर का दयानंद मिलने आया है। यहां यह बता दूं कि मेरी पूर्व अक्खड़ता मेरे दिल-दिमाग पर फिर जाने कहां से आ कर मंडराने लगी थी। खैर, माली भीतर गया और मैं खड़ा उन के उद्यान में लगे अमोले (आम) के टिकोरे निहारने लगा। तभी, फिर वही आवाज, जिस का कोई जादू मेरे अंतर्मन पर अभी भी छाया हुआ था, सुनाई दी। मैं अभी ‘नमस्कार’ करने की सोच ही रहा था कि ‘कहो भई नमस्कार! तुम आ ही गए। आओ, भीतर आओ।’ द्विवेदी जी के दोनों हाथ अब भी बंधे हुए थे।


मैं हकबक, पूरे बदन में सनसनी-सी दौड़ गई। यह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे, पानी-पानी हो गया था मैं। झट दौड़ कर मैं ने झुक कर उन के पांव छुए कि उन्हों ने मुझ उच्छृंखल लड़के को उठा कर सीने से लगा लिया। यह कहते हुए, ‘अरे, नहीं-नहीं। इस की क्या ज़रूरत थी।’ मैं ने फिर पांव छुए उन के। एक अजीब-सा सुख महसूस हो रहा था उन के पांव छू कर मुझे। फिर कमरे में बैठाया उन्हों ने। बडी देर तक जाने क्या-क्या बतियाता रहा था, उस दिन मारे खुशी के। अब वह ठीक-ठीक याद भी नहीं है।

इतना ज़रूर याद है कि मैं कभी उन की धोती-बंडी में समाई गोरी छलकती देह और निश्छल चेहरा देखता, तो कभी उन के उस बड़े से कमरे में चारों ओर सजी अनगिनत किताबों को। इतनी समृद्ध व्यक्तिगत लाइब्रेरी भी मैं ने नहीं देखी थी, तब तक। इस घटना के बाद भी एक बार और अपने छुटपन का एहसास करते हुए मैं उन से मिला, लेकिन उन्हों ने कभी मेरे छुटपन का एहसास, कम से कम अपनी ओर से, मुझे नहीं होने दिया। बहरहाल थोडी देर बाद मै ने उन के सामने फिर से वह पांडुलिपि रख दी।

थोडी देर वह उसे उलट-पलट कर देखते रहे। फिर एक गहरी सांस ली। और बोले, 'हूं !' और मेरी ओर ऐसे देखा गोया तुरंत-तुरंत मिले हों। वह जैसे मेरे चेहरे पर कुछ खोजते से रहे। पर बोले कुछ नहीं। मैं ही बोला, ' इस की भूमिका लिख दीजिए।'

'पर इसे छापेगा कौन?' पूछा उन्हों ने ज़रा बेचैन हो कर।

'अरे जब आप भूमिका लिख देंगे तो कौन नहीं छापेगा? मैं अतिरिक्त उत्साह में बोल गया।

'तो हम को बेंचोगे?' वह ज़रा रुष्ट हुए पर तनिक मुसकुरा कर बोले।

मैं चुप रहा। उन के इस सवाल का कोई माकूल जवाब नहीं मिल रहा था मुझे तब। वह फिर कविताओं को उलट-पुलट कर देखने लगे। थोडी देर बाद बोले, 'अभी इसे रख दो। पढाई लिखाई पूरी कर लो। फिर इस बारे में सोचना।'

'लेकिन हमें तो बस इसे छापना ही छापना है। हर कीमत पर।' मैं ने अपनी आवाज़ में पूरी दृढता और जोश भरा।

'मान लो मेरे भूमिका लिखने के बाद भी अगर कोई प्रकाशक न छापे तब?'

'तब हम लोग खुद छापेंगे।'

'पैसा कहां से लाओगे?'उन्हों ने जैसे जोडा, ' पिता का पैसा नष्ट करोगे?'

'नहीं, हम सभी कवि मिल कर चंदा बटोरेंगे।'

'चंदा ! किताब छापने के लिए चंदा?'

'हम लोग गोष्ठी के लिए आपस में चंदा करते रहते हैं। किताब छापने के लिए भी कर लेंगे।'

'तुम्हारी आयु कितनी है?'

'यही कोई १७ - १८ वर्ष।'

'तो अभी पढाई-लिखाई पर ध्यान दो। यह किताब छापना भूल जाओ।'

'तो कविता नहीं लिखूं?' मैं जैसे फूट पडा।

'नहीं कविता लिखो। पर पढाई पहले।'

'और यह किताब?' अब मैं अधीर हो चला था।

'पूरा जीवन पडा है इस सब के लिए।'

'आप प्लीज़ भूमिका लिख दीजिए। बहुत विश्वास के साथ आप के पास आए हैं।' मुझे लगा कि अब जैसे मैं रो दूंगा।

'विश्वास बुरी बात नहीं है। पर अभी बहुत जल्दी है।थोडा रुक जाओ।'

'आप जैसे भी हो भूमिका लिख दें।'

'अच्छा लिख दूं भूमिका और कोई नहीं छापे तब?'

'मैं ने आप को पहले ही बताया कि चंदा कर लेंगे।'

'चलो छाप भी लोगे तो बेचेगा कौन?'

'हम लोग ही।'

'और जो न बेच पाए तब?'

'बेच लेंगे। बस अब आप लिख दीजिए।'

'ठीक है लिख दूंगा।'

यह सुन कर मेरी जाती हुई जान में जैसे जान आ गई। लेकिन तभी वह बोले, 'जब एक दो फ़र्मा छप जाए तो भेज देना। मैं तुरंत भूमिका लिख दूंगा।'

'यह भी ठीक है।' मैं ने थोडी बच्चों जैसी होशियारी दिखाई। और बोला, 'यह बात भी आप लिख कर दे देंगे?'

'क्या?' वह जैसे कुपित हुए।

'जी इस लिए कि मेरे दोस्तों को यकीन हो जाए। नहीं मेरी बडी बेइज़्ज़ती हो जाएगी।'

'तो सब को बता कर आए हो?'

'जी !' कह कर मैं हाथ जोड कर खडा हो गया।

'बैठ जाओ।' वह बोले,' मेरी बात सुनो। ध्यान से सुनो।' वह बोलते जा रहे थे, 'अपने मा-बाप की कमाई किताब छापने में मत बर्बाद करो।'

'बर्बाद नहीं करेंगे।'मैं ने कहा, 'बेच कर पैसा वापस ले लेंगे। खर्चा तो निकाल ही लेंगे हम सब मिल कर।'

'चलो मानता हूं कि किताब तुम छाप भी लोगे और बेच भी लोगे। उत्साह और जोश से भरे हुए हो। कर लोगे। पर इस में भी दो खतरे हैं।' वह बोले, 'किताब अगर छाप कर बेच लोगे तो कविता भूल जाओगे। व्यवसाई बन जाओगे। पैसा कमाने में लग जाओगे।' वह ज़रा रुके और बोले, 'और अगर किताब नहीं बेच पाओगे तब भी कविता भूल जाओगे। यह सोच कर कि इतना नुकसान हो गया। इस से अच्छा है कि किताब छापना भूल जाओ। कविता लिखना तुम्हारे लिए ज़रुरी है, किताब छापना नहीं। यह तुम्हारा काम नहीं।'
बहुत देर तक मैं उन से अनुनय-विनय करता रहा। पर वह नहीं माने। समझाते रहे कि खुद किताब मत छापो। और कि छापने की ज़िद ही है तो फ़र्मे छाप कर ले आओ फिर भूमिका लिख दूंगा। अंतत: मैं चलने को हुआ तो उन के पैर छुए। उन्हों ने भरपेट आशीर्वाद दिया। गले लगाया। और फिर समझाया कि किताब खुद मत छापना। नहीं कविता लिखना भूल जाओगे।

मैं चला आया। उदास और हताश। दोस्तों ने खूब मजाक उडाया।

खैर बात आई गई हो गई। अंतत: वह कविता की किताब नहीं छपी। चंदा ही इकट्ठा नहीं हो पाया। एक ज्वार आया था, उतर गया था।

बाद के दिनों में मेरी कविताएं छिटपुट पत्रिकाओं-अखबारों में छपने लगीं। जिस तार सप्तक से अभिभूत मैं ने वह कविता संग्रह छपवाने की अनथक और असफल कोशिश की थी उस के संपादक अज्ञेय जी ने भी नया प्रतीक में मेरी कविताएं छापीं। तो भी धीरे-धीरे मैं कविता लिखना सचमुच भूल गया। खास कर अखबारी नौकरी ने कविता को जैसे चूस लिया। यह भी लगने लगा कि कविता, अच्छी कविता नहीं लिख पा रहा हूं। लगने लगा कि वह कविता ही क्या जो झट से जुबान पर न चढे। तो छोड दिया कविता लिखना। हां, कविता पढना और सुनना आज भी मेरा प्रिय काम है। खैर, बहुत बाद में कहानी, उपन्यास आदि लिखने लगा। बाकी दोस्त तो कुछ भी लिखना भूल गए। लेकिन मैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ घटी यह घटना कभी नहीं भूला। कुछ दोस्तों को जब कोई किताब या पत्रिका छापने का जुनून सवार होता है तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की वह बात बताना भी नहीं भूलता कि खुद मत छापना नहीं लिखना भूल जाओगे। कुछ दोस्त मान जाते हैं, ज़्यादातर नहीं मानते। बाद में पछताते हैं और सचमुच वह धीरे-धीरे लिखने-पढने की दुनिया से दूर होते जाते हैं। इक्का-दुक्का आधी-अधूरी सफलता पा भी जाते हैं।

बहरहाल इस घटना के कुछ समय बाद ही हजारी प्रसाद द्विवेदी एक व्याख्यान देने गोरखपुर आए। मिला उन से। उन्हों ने तुरंत पहचान लिया। और उसी तरह स्नेह छलकाते मिले। मैं ने लपक कर उन के पांव छुए तो उन्हों ने भी तपाक से गले लगा लिया।

'कविता लिख रहे हो न?'उन्हों ने तब भी पूछा था। और मैं ने सहमति में सिर्फ़ सिर हिला दिया था। वह मुसकुरा कर रह गए थे।

फिर उन से मुलाकात नहीं हुई। पर एक दिन दोपहर जब आकाशवाणी से समाचार में सुना कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निधन हो गया है। तो जाने क्यों बरबस रुलाई आ गई। उन का स्नेह बरबस याद आ गया। मैं फूट-फूट कर रो पडा। बहुतेरे साहित्यकारों, पत्रकारों से मैं वाबस्ता रहा हूं और कि हूं। पर दो ही साहित्यकारों के निधन पर मैं फूट-फूट कर रोया हूं अभी तक। एक हजारी प्रसाद द्विवेदी और दूसरे, अमृतलाल नागर के निधन पर। नागर जी से तो मैं खैर गहरे और लंबे समय तक जुडा रहा हूं पर हजारी प्रसाद द्विवेदी से तो कुल दो ही भेंट थी फिर भी।

अभी बीते साल बनारस गया था। गौतम चटर्जी ने बी एच यू के पत्रकारिता के छात्रों की कापियां जांचने को बुलाया था। एक शाम अस्सी घाट पर बैठे-बैठे मैं ने अपनी पहली बनारस यात्रा का ज़िक्र किया और हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिलने का विस्तार से वर्णन किया। तो गौतम उछल गया। और मुझ से पूछा कि, ' अभी तक सब कुछ याद है?'मैं ने बताया कि, ' हां, मुझे तो उन का मकान नंबर ए-15  रवींद्रपुरी तक याद है।'

'अच्छा?' उस ने पूछा,'उन का मकान आज भी पहचान सकते हो?'

'हां, बिलकुल !'

'अच्छा !' कह कर वह उठ कर खडा हो गया। बोला, 'आओ तुम्हें एक अच्छी जगह ले चलते हैं।' फिर वह घाट-घाट की सीढियां चढते-उतरते अचानक ऊपर की तरफ आ गया। बात करते-करते, गली-गली घूमते-घुमाते अचानक एक सडक पार कर के एक जगह खडे हो कर बिलकुल किसी फ़िलम निर्देशक के शाट लेने की तरह इधर-उधर हाथ से ही एंगिल लेते हुए बोला, 'यह एक,दो,तीन,चार!' और मेरी तरफ़ देख कर बोला, ' बताओ इस में से हजारी प्रसाद द्विवेदी का मकान कौन सा है?'

यह सुनते ही मैं अचकचा गया। मैं ने कहा कि,'उन के घर के सामने एक बडा सा पार्क था।'

'तो यह है न वह पार्क। यह पीछे।' उस ने पीछे मुड कर दिखाया। सचमुच हम उस पार्क के सामने ही खडे थे। जो हडबडाहट में मैं देख नहीं पाया। लेकिन मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी का वह 1976  में देखा गया घर पहचान नहीं पाया। तब उन के घर में बाहर बडा सा लान था। आम के पेड थे। ऐसा कुछ भी किसी भी मकान में नहीं था। तो भी मैं ने अनुमान के आधार पर एक मकान को चिन्हित कर दिया और कहा कि, 'यह मकान है।'

'बिलकुल नहीं।' गौतम किसी विजेता की तरह एक मकान दिखाते हुए बोला,'यह नहीं बल्कि यह मकान है।'

'पर इस में तो लान भी नहीं है, आम का पेड भी नहीं है और कि मकान भी छोटा है।' मैं भकुआ कर बोला।

'मकान वही है। छोटा इस लिए हो गया है कि मकान का बंटवारा हो गया है, उन के बेटों में। और उन्हों ने आगे लान के हिस्से में भी निर्माण करवा लिया है सो न पेड है आम का, न लान है।' कहते हुए उस ने जैसे पैक-अप कर दिया। बोला, 'अभी भी कुछ विवाद चल रहा है सो बंद है मकान।' और हाथ से इशारा किया कि अब चला जाए। हम लोग चलने लगे। मैं उदास हो गया था। एक तनाव सा मन में भर गया। ऐसे जैसे कोई तनाव टंग गया मन में। लगा कि जैसे चलते-चलते गिर पडूंगा। सोचने लगा कि कहां तो हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस घर को, इस घर की याद को साझी धरोहर मान कर संजोना चाहिए था, और कहां उस का मूल स्वरुप ही नष्ट नहीं था, विवाद के भी भंवर में लिपट गया था। दिल बैठने सा लगा। पर इस सब से बेखबर गौतम अचानक रुका और पीछे मुडते हुए बोला, 'ऐसी ही बल्कि इसी कालोनी में मैं भी एक छोटा सा मकान बनाना चाहता हूं। ताकि जहां शांति से रह और पढ-लिख सकूं।' गौतम के इस कहे ने मुझे जैसे संभाल सा लिया। मैं थोडा सहज हुआ। हम लोग अब वापस बी एच यू की ओर पैदल ही बतियाते हुए लौट रहे थे।
बीती जुलाई में फिर बनारस जाना हुआ। बी एच यू में साहित्य अकादमी की तरफ से दो दिवसीय बहुभाषी रचना-पाठ आयोजित था। मुझे भी कहानी पाठ करना था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की नातिन मुक्ता जी भी कहानी पाठ में थीं। बी एच यू से ज्ञानेंद्रपति के साथ पैदल ही अस्सी घाट चले गए। वहां से फिर पैदल ही होटल के लिए चलने लगे। ज्ञानेंद्रपति जी ने कहा कि चलिए आप को छोडते हुए उधर से ही घर चले जाएंगे। दो-तीन लोग और साथ हो लिए। बात-बात में मुक्ता जी की बात चली फिर बात आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मकान की आ गई। पता चला कि कई लोगों की नज़र बिल्डर से लगायत और तमाम लोगों की आचार्य के मकान पर गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। और तरह-तरह की बातें। हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद यह एक और धक्का था मेरे लिए।आखिर जिस ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा उसी का इतिहास और आवास हम नहीं बचा सकते?

हमारे समाज को क्या हो गया है? हम किस समय में जी रहे हैं? कि अपने लेखकों की रचना, उन का निवास भी नहीं सहेज सकते? । आखिर हमारे समय के अतुलनीय लेखक हैं यह दोनों आचार्य। सच्चे अर्थों में आचार्य। जिन से आचार्य शब्द की गरिमा बढती है। इस गरिमा को बचाना भी क्या ज़रुरी नहीं रह गया है अब हमारे लिए? इन दोनों आचार्यों को छोड कर हम हिंदी साहित्य और आलोचना की कल्पना भी कर सकते हैं क्या?

Wednesday, 28 March 2012

दीप्ति नवल के अभिनय की दमक और उन के गुम हो जाने की त्रासदी की तड़क

अभिनय में एक खास तेवर का पर्याय हैं दीप्ति नवल। मध्यमवर्गीय युवती का अक्स हैं वह। संजीदगी, सलीका शऊर और मंद मंद फूटती हंसी सहेजे, बेचारगी लपेटे दीप्ति नवल श्याम बेनेगल निर्देशित फ़िल्म जुनून में ‘घिरि आई काली घटा मतवारी!’ गाती हुई सिनेमा की दुनिया में आई थीं। फिर “एक बार फिर” में उन्हों ने अभिनय की सहजता की जो बयार बहाई तो वह एक ताजा झोंका बन गई हिंदी सिनेमा की दुनिया में। पर भला कौन जानता था कि बहुत जल्दी ही सचमुच वह काली घटा से घिर जाएंगी। बहरहाल।


उन दिनों शबाना आजमी और स्मिता पाटिल सरीखी अभिनेत्रियां हिंदी सिनेमा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा तहलका मचाए हुए थीं। ऐसे समय में दीप्ति नवल “एक बार फिर” में आ कर एक बार तो शबाना और स्मिता को भी दौड़ा ले गईं। फिर बहुत बाद में आई “सौदागर” की संक्षिप्त भूमिका में सन्निपात और संकोच की सिलवटों का कोलाज रचने वाली, मझधार में विधवा व्यथा जीने वाली दीप्ति नवल चंडीगढ़ में पैदा हुईं और लंदन में बढ़ी-पली और अचानक ही हिंदी फ़िल्मों में लैंड कर गईं बरास्ता विनोद पांडेय।

“साथ साथ” में वह फिर फारुख शेख के साथ आईं। फ़िल्म में वह फारुख शेख के साथ प्यार की बेकली भी जीती है और दांपत्य का बिखराव भी, तो उन का अभिनय एक अंदाज़ बन जाता है । उन की आकुलता भी इतनी सहजता सहेजे रहती है कि वह सौंदर्य का सागर बन तन-मन को हिचकोले देने लगती है उन की मदमाती हंसी। यह उनकी हंसी की ही झनक है और सहजता भरे अभिनय की आंच जिसने उन्हें दर्शकों में इतना लोकप्रिय बना दिया ।

“श्रीमान और श्रीमती” में उन की जोड़ी राकेश रोशन के साथ है और दांपत्य की दारुणता ही उन के हिस्से में है। पर गोबर पाथने से ले कर होटल में डांस तक का संसार वह इस खूबी से जीती हैं कि फ़िल्म की जान बन जाती है। इस फ़िल्म में संजीव कुमार- राखी और अमोल पालेकर-सारिका की भी जोड़ी है, पर निगाहें संजीव कुमार के बाद दीप्ति नवल ही पर टिकती है। इस फ़िल्म में संजीव कुमार के साथ दीप्ति नवल की ट्यूनिंग देखते बनती है।

सई परांजपे की कथा में दीप्ति नवल नसीरुद्दीन शाह और फारुख शेख के साथ त्रिकोणात्मक प्यार रचते हुए उपस्थित है। मुंबइया चाल की सामूहिकता को दीप्ति नवल इस खूबी और सहजता से जीती है कि फ़िल्म का चुटीलापन और चटक हो जाता है।

“मोहन जोशी हाजिर हो” में वह फिर चाल में है पर प्यार की पेंगे मारती हुई नहीं चाल की त्रासदी को तार-तार करती हुई, अदालती चक्कर घिन्नियों में टूटती हुई एक सामान्य दांपत्य को जीती हुई, एक लड़ाई लड़ती हुई। दरअसल मध्यमवर्गीय युवती की भूमिका जिस जिजिविषा और संजीदगी से वह जीती हैं, उस की जटिलता को जिस सरलता से जीती हुई अभिनय की बखिया सीती चलती हैं, वह अनुभव करने लायक है। एक “श्रीमान और श्रीमती” और दूसरे “एक बार फिर” को फ़िल्म छोड़ कर बाकी सारी फ़िल्मों में दीप्ति नवल मध्यमवर्गीय त्रासदी को ही तार-तार करती मिलती हैं। उन्हों ने ज़्यादातर यथार्थवादी फिल्में ही की हैं और “एक बार फिर” भले मध्य वर्गीय न सही यथार्थवादी फिल्म तो है ही। इस तरह फ़ैंटेसी फ़िल्म के नाम पर दीप्ति नवल के नाम संभवत: “श्रीमान और श्रीमती” ही है।

कमला में वह शबाना के साथ हैं। एक आदिवासी युवती की भूमिका में। जिसे एक पत्रकार खरीद कर उसे दिल्ली लाता है, यह दिखाने के लिए कि आदिवासी लडकियों की खरीद-फरोख्त कैसे तो जारी है। और सरकार चुप है। अब अलग बात है कि रैकेट चलाने वाले लोग फ़िल्म में भारी पड जाते हैं। यह फ़िल्म में एक अलग बहस का विषय है। पर दीप्ति नवल ने यहां अभिनय की जो झीनी चादर बुनी है, वह अविस्मरणीय है। खास कर उस के लिए जो प्रेस कानफ़्रेंस आयोजित की गई है और उस में वह बिन बोले अपनी यातना घोल जाती हैं, वह दृश्य भूलता नहीं। बिन बोले अपनी यातना अभिनय में बांचना जो किसी को सीखना हो तो वह इस फ़िल्म में दीप्ति नवल से सीखे।

“अंधी गली” में उन के साथ कुलभूषण खरबंदा हैं। एक नए फ्लैट की चाह में दोनों इस तरह तिल-तिल कर मरते हैं कि वह चाह एक त्रासदी बन जाती है। मायके का सारा कुछ बेच कर फ्लैट की बात बनती भी है तो दीप्ति को लगता है कि पति ने उसे इस्तेमाल कर लिया है। वह छली गई है। और अंतत: पति ही जब उस से बलात्कार करता है तो वह फ्लैट से नीचे कूद कर जान दे देती है। इस चरित्र की जटिलता को बड़ी ही बारीकी से दीप्ति नवल ने बुना और जिया है। तांगे से गांव जाने और आने वाले दृश्य इतने मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं कि मन भींग जाता है, आंखें नम हो जाती हैं।

अमोल पालेकर निर्देशित “अनकही” दीप्ति नवल की अविस्मरणीय फ़िल्म है। “अनकही” में अभिनय की दमक देखने लायक है। वह गांव की एक अबोध युवती है जो हिस्टिरिया की रोगी है। शहर आ कर कैसे कैसे मौकों से वह दो-चार होती है यह देखना एक अनुभव है। टेलीफ़ोन की घंटी बजती है तो वह भूत समझ कर डर जाती है। अमोल पालेकर के छल में फंस कर भी खुश हो जाती है। इस जटिल चरित्र को जीना हर किसी के वश की बात नहीं थी। पर दीप्ति नवल ने इस चरित्र को न सिर्फ़ जिया, अपितु अविस्मरणीय बना दिया। मराठी उपन्यास “कालाय तस्मै नम:” पर आधारित “अनकही” में सूर कबीर के पदों को भी इस अबोधता से दीप्ति ने पर्दे पर गाया है कि मन तरल हो जाता है।

इत्तेफाक है कि अस्सी के दशक की ढेर सारी अविस्मरणीय और चर्चित फ़िल्में अधिकतर दीप्ति नवल के ही नाम है। केतन मेहता की “मिर्च मसाला” उन्हीं फ़िल्मों से एक है।“मिर्च मसाला” में भी वह शोषित पत्नी हैं। और उन की जोड़ी सुरेश ओबेराय के साथ है। इस फ़िल्म में उन की भूमिका छोटी है पर है यादगार। खास कर दो दृश्य। एक जिस में वह अपने जमींदार सरपंच पति से विद्रोह कर अपनी बेटी को पढ़ने स्कूल भेजती है और दूसरा गांव की एक औरत को बड़े जमींदार के हवाले करने के विरोध में गांव भर की महिलाओं को इकट्ठा कर के थाली पीटने वाला दृश्य। वह दृश्य अंगार उगलता है।

प्रकाश झा की “हिप हिप हुर्रे” में उन की जोड़ी राजकिरण के साथ है। रांची जैसे कस्बाई मानसिकता वाले महानगर में कॉलेज अध्यापिका के चरित्र की जटिल बुनावट को बिना किसी अतिरेक के वह जीती हैं। “हिप हिप हुर्रे” में शफी इनामदार के साथ का प्रसंग और कॉलेज स्टूडेंट का छेड़छाड़ और फिर प्यार वाला प्रसंग भी अच्छा बन पड़ा है।

प्रकाश झा की ही “दामुल” में दीप्ति नवल विधवा पुजारिन की भूमिका में हैं, जो जमींदार बने मोहन सिंह की रखैल भी है।और जब-जब गर्भ ठहर जाता है तो वह पुजारिन काशी कूच कर जाती है गर्भ गिराने। बाद में वही पुजारिन जमींदार के शोषण के खिलाफ गांव की सर्वाधिक मुखर आवाज़ बनती है तो यहां दीप्ति नवल का अभिनय अंगार बन जाता है।

टेली फ़िल्म “दीदी” में कथा बंगाल की है। दीदी से तीसरे दर्जे की वेश्या बन जाने वाले चरित्र को दीप्ति चाबुक मारती हुई जिस आह के साथ जीती हैं कि वह छलकती भी है और कसकती भी है।
पर तकलीफ़ होती है कि इतनी समर्थ अभिनेत्री जीते जी हम से बिला गई है। यह दांपत्य की गांठ दो सफल निर्देशकों की दो सफल अभिनेत्री पत्नियों को इस तरह डस लेगी, भला कौन जानता था? गुलज़ार की पत्नी राखी की ज़िंदगी में तो आंधी फ़िल्म आंधी बन कर आ गई और उन का दांपत्य उजाड गई। राखी खुद आंधी की नायिका की भूमिका करना चाहती थीं। पर गुलज़ार नहीं माने और यह भूमिका सुचित्रा सेन को दे बैठे। और उन का दांपत्य साल भर में ही उजड गया। तो भी राखी ने लंबा फ़िल्मी कैरियर जिया। और अपना बेस्ट भी दिया। तमाम सारे बिखराव के बावजूद। और फिर गुलज़ार और राखी के बीच एक सेतु उन की बेटी बोस्की भी हैं। पर दीप्ति नवल और प्रकाश झा के बीच ऐसा क्या घट गया कि उन का दांपत्य भी बहुत जल्दी ही बिखर गया, यह शायद वही दोनों ही जानते हैं। गुलज़ार और राखी के बीच तो बोस्की है। पर दीप्ति नवल और प्रकाश झा के बीच तो कोई संतान भी नहीं है। और फिर प्रकाश झा के पास लगातार फ़िल्में हैं। लेकिन दीप्ति नवल के पास तो ऐसा भी कुछ नहीं है। कैसे और कैसा जीवन हमारी यह समर्थ और प्रिय अभिनेत्री गुज़ारती हैं, यह वह ही बेहतर जानती होंगी। एक वाकया यहां नहीं भूलता। जब दीप्ति नवल की नई-नई शादी हुई थी तो तब प्रकाश झा का इतना डंका नहीं बजता था, न ही वह बहुत सफल निर्देशक तब हो पाए थे। तब रेखा ने दीप्ति नवल से एक जगह तंज में पूछ लिया कि, ‘तुम ने ऐसा क्या देख लिया प्रकाश झा में जो शादी कर ली?’ दीप्ति नवल ने उसी गुरुर से रेखा का तंज तोड कर रख दिया था तब यह कह कर कि, ‘वह कुंवारे हैं !’ रेखा चुप लगा गई थीं। उन दिनों तमाम अभिनेत्रियों में चलन सा था, अब भी है, शादी-शुदा मर्दों से शादी करना। खैर, दीप्ति नवल का वह दर्प इतनी जल्दी टूट जाएगा, यह भी भला कौन जानता था। अब जो भी हो पर अफ़सोस होता है कि एक समर्थ अभिनेत्री हम से ऐसे बिला गई है।उन के इस तरह अभिनय की दुनिया से गुम हो जाने की त्रासदी की तड़क कहीं गहरे मन को छील देती है। ऐसे लगता है जैसे दीप्ति नवल अपनी ही अभिनीत फ़िल्म अंधी गली की त्रासदी को अपने जीवन में भी जीती हुई अभिनय के फ़्लैट से छलांग लगा गई हैं।यह बहुत तकलीफ़देह है मेरे जैसे उन के प्रशंसकों के लिए। ऐसे ही में देखिए न गुरुदत्त और गीता दत्त की भी याद आ गई है। और कि उन की त्रासदी भी। ऐसा क्यों होता है सफल और सुलझे हुए जीनियस निर्देशकों और उन की समर्थ-सुंदर और सफल अभिनेत्री पत्नियों के साथ? समझना कुछ नहीं बहुत कठिन है।

Tuesday, 27 March 2012

अंगूर नहीं खट्टे, छलांग लगी छोटी





‘क्षमा करें! मैं कुछ नहीं हूं।
न गाय, न जनता
मेरे सीने में अब दूध का समुद्र नहीं उफनता।’ सरीखी कविता लिखने वाले देवेंद्र कुमार बंगाली का २१ साल पहले जब निधन हुआ, तो वह अखबारों में छोटी से सुर्खी भी नहीं बन सके।

‘आते जाते राह बनाते। तुम से पेड़ भले।’ जैसे गीत लिखने वाले देवेंद्र कुमार का निधन खबर नहीं बन सका, तो शायद इस लिए भी कि वह बरगदी कवि नहीं थे। दंद-फंदी नहीं थे। मठाधीश, महफिली या विश्वविद्यालयी भी नहीं थे। लोग आजकल शिष्यों की बेल लगाते हैं। वह तो साथी भी उस अर्थ में नहीं बनते-बनाते थे। वह बस परिचित हो लेना जानते थे। वह जानते थे कि ‘कविता को अच्छी होने के लिए। उतना ही संघर्ष करना पड़ता है। जितना एक लड़की को। औरत होने के लिए।’

18 जुलाई, 1933 को देवरिया जिले के कसया (अब कुशीनगर) में जन्मे और 1958 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए करने वाले देवेंद्र कुमार का दरअसल सारा संघर्ष ही कविता को अच्छी बनाने के लिए था। इसी फेर में वह चौबीस कैरेट के ‘महाकवि’ नहीं बन पाए। नहीं तो उसी कसया में सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायायन ‘अज्ञेय’ भी जन्मे थे, जहां देवेंद्र कुमार जन्मे। बुद्ध की इस तपोस्थली में जन्मे अज्ञेय मशहूर हो जाए, पर देवेंद्र कुमार एक अच्छे किंतु अ-मशहूर कवि हो कर रह गए। उन की कमजोरी यह थी कि अच्छी कविता तो वह कर लेते थे, कवि होने की रद्दी दुकानदारी भी नहीं कर पाते थे। शायद इस लिए वह एक तो कवि सम्मेलनों में मंच पर नहीं जाते थे। या कभी-कभार जो स्थानीय मंचों पर पकड़ ले जाए गए, तो मंच पर वह होते थे। कहीं किनारे बैठे हुए सिगरेट फूंकते हुए और कोई ‘चालू’ कवि उन की कविता उन के ही सामने पढ़ कर आ कर उन के पांव छू लेता था, ‘क्षमा करें, बंगाली जी। जरूरत पड़ गई थी।’ और बंगाली जी मंद मुस्कान फेंक चुप रह जाते थे। वह लिखते भी थे, ‘एक पेड़ चांदनी लगाई है आंगने। फूल जाए/ तुम भी/ आ जाना मांगने।’

छोटे, दुबले कद काठी वाले बंगाली जी की आवाज थोड़ी पतली थी। लोग कहते थे वह मिमियाते हैं। पर वह सचमुच मिमियाते नहीं थे। कविता में तो वहां मुहावरा ही तोड़ते थे। बहुत मशहूर मुहावरा है, अंगूर खट्टे हैं। पर बंगाली जी ने इस मशहूर मुहावरे को तोड़ा। संघर्ष को रेखांकित करते हुए:

‘तावे से जल भुन कर
कहती है रोटी
अंगूर नहीं खट्टे
छलांग लगी छोटी।’

बंगाली जी वस्तुत: गीतकार थे। भोजपुरी गीतों में जो रूप, बिंब और उपमा उन्हों ने परोसी, वह विरल है। बात बहुत छोटी-सी है, पर उपमा देखिए:

‘उगल दुइजिया क चांद
कि अंगना टूटे लागल
रूपवा कै एतना जोर
कि ऐना फूटे लागल।’

(दूज का चांद निकला तो आंगन टूटने लगा और रूप इतना जबरदस्त था कि आईना फूटने लगा।)

बंगाली जी वास्तव में भोजपुरी गीतों को लाचारगी और आवारगी की खोह से निकालने की भरसक कोशिश की। पर उन के समकालीनों ने उन का साथ देने के बजाय उन की उपेक्षा ही की। अब कि जैसे उन का एक मशहूर भोजपुरी गीत है, ‘ना चली तोर ना मोर पिया/होखे द भोर/मारल जइहैं चकोर/आज पिया होखे द भोर’ में जो मांसलता है, वह कई को चुभ गई। और जब यह गीत मशहूर हो गया, तो महारथियों ने बंगाली जी को मारने की ठान ली। आखिर आजिज आ कर बंगाली जी भोजपुरी गीत भुला गए। अब वह ‘कल्पना’ और ‘लहर’ सरीखी पत्रिकाओं में नवगीतकार थे। चर्चित गीतकार।

जब बंगाली जी भोजपुरी गीतों के रसिया थे, तब उन्हें मंचीय गवैयों, भड़ैतों ने विवश कर दिया था और भोजपुरी गीतों को लाचारगी, आवारगी से विलग करने की उन की कोशिशों को कूट दिया था। अब जब वह नवगीत लिख कर झंडे गाड़ने लगे, तो विश्वविद्यालयी कवियों ने उन्हें कतरना-कुतरना शुरू कर दिया। मंच वाले छाती फुलाए हुए बोलते थे, ‘बोलने का सहूर नहीं और गीत लिखते हैं। गाएं तो समझ में आए तो कि गीत किसे कहते हैं।’ पर उन का गवैयों की इस बात को तीन लोक कलाकारों ने ही धो कर रख दिया बंगाली जी के गीतों को गा-गाकर। लेकिन बंगाली जी भोजपुरी की हीनता महसूसने लगे, तो नवगीत पर ज्यादा ध्यान देने लगे। अब विश्वविद्यालयी कवि जन दांत निपोरने लगे, ‘कविता लिखें तो समझ में आए। गीत-नवगीत में क्या धरा है।’ और इन लोगों के ताने में बंगाली जी ही क्यों और भी कई लोग सुधर गए। यही नहीं, केदार नाथ सिंह, तब सुनते हैं बहुत मन से लिखते ही नहीं, गाते भी थे। ‘धान उगेंगे कि प्रान उगेंगे’ पर केदारनाथ सिंह भी गीतों से शर्म खाने लगे। बंगाली जी भी गीतों को विसार कविता लिखने लग गए। यह धूमिल, राजकमल चौधरी, दुष्यंत कुमार की प्रसिद्धि के दिन थे।


‘अब तो अपना सूरज भी आंगन देख कर धूप देने लगा है’ लिखने और महसूसने वाले बंगाली जी चूंकि जुगाड़ी जीव नहीं थे, सो ‘स्थापित’ होने की कला भी उन से दूर थी। खुद कोई संग्रह छापने, छपवाने की उन्हों ने कभी सोचा ही नहीं। पर तभी अशोक वाजपेयी ने पहचान सीरीज की कैफियत में उन की कविताएं छाप दीं, तो शहर के महारथियों का माथा ठनका। फिर तो देवेंद्र कुमार बंगाली शहर में बंगाली जी और कविताओं में देवेंद्र कुमार हो गए। लेकिन बंगाली जी अंत तक दंद-फंदी नहीं हो पाए। वह अपनी छोटी-सी गृहस्थी और कविताई में ही लगे रहे। घर से रेलवे दफ्तर और रेलवे दफ्तर से उन की साइकिल उन्हें ले जाती, ले आती। क्यों कि मैंने देखा, वह साइकिल पर सवार कम ही होते थे। पर साइकिल उन की उन के साथ होती थी कि वह साइकिल के साथ होते थे, कहना कठिन है। रास्ते में कोई मिलता, तो यह फट साइकिल से उतर कर पैदल हो लेते। यह उन की आदत नहीं, दिनचर्या थी। उन की कविताओं का ताना-बाना भी रास्ते में ही बुनता था। शायद इस लिए वह कविता लिखने से ज्यादा ध्यान कविता साफ करने, उसे माजने में ज्यादा देते थे। शायद तभी लिख भी पाते थे, ‘कविता को अच्छी होने के लिए। उतना ही संघर्ष करना पड़ता है, जितना एक लड़की को औरत होने के लिए।’

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने जब उनकी भी कविता पांडुलिपि को पुरस्कृत किया, तो एक बार फिर वह शहर में ईर्ष्या के पात्र बने। पर गोरखपुर जैसे छोटे से शहर में पूरा जीवन गुजारने के बावजूद वह कभी कुढ कर नहीं रहे। पर दृष्टि भी धुंधली नहीं होने दी। बहस जरूरी है, कविता में उनकी अंतरदृष्टि साफ उभरती है। मुझे लगता है कि ‘बहस जरूरी है’ देवेंद्र कुमार की सबसे महत्वपूर्ण कविता है। और एक तरह से उनका आत्म-व्याख्यान भी लगती है यह कविता। विश्वविद्यालयी कवियों को तमाचा भी मारती है यह कविता।

‘बहस जरूरी है’ नाम से जब उन का दूसरा कविता संग्रह दिल्ली के एक प्रकाशक ने छापा, तो प्रयाग शुक्ल ने उसका आवरण बनाया। बंगाली जी इस बात पर बहुत प्रसन्न थे, पर गोरखपुर में बाद में कुछ ठाकुर-ब्राह्मण कवियों ने उन्हें हरिजन कह कर अपमानित करना शुरू किया, तो प्राध्यापक कवियों ने क्लर्क कवि कहकर खारिज करने की कोशिशें शुरू कीं। पर बंगाली जी इस सब से बहुत विचलित नहीं हुए। न ही किसी खेमे में शरण लेने गए। वह तो अपनी साइकिल लिए शहर में टहलते रहे और ‘छलांग लगी छोटी’ गुनगुनाते रहे। कभी रामसेवक श्रीवास्तव और माहेश्वर तिवारी, देवेंद्र कुमार बंगाली के पड़ोसी रहे थे। बंगाली जी का एक रुप सेवा और मदद का भी था। पर चुपचाप। बिना किसी को कुछ बताए।

बंगाली जी ने यह और ऐसे ढेरों कवियों, अकवियों की समय-असमय सेवा, मदद की, पर उन की मदद को कभी कोई नहीं आया। उन्हों ने कभी किसी से कोई उम्मीद भी नहीं की। वह तो स्वाभिमान से साइकिल चलाते, पान चबाते और कविता रचते, कविता माजते और उसे साफ करते रहे। वह जानते थे कि वह हरिजन हैं, कि वह क्लर्क हैं। पर वह यह भी जानते थे कि वह मनुष्य हैं। और यही उन की कविता का आधार भी था। शायद इस लिए उन में कवि होने की कातरता नहीं, कवि होने की कूबत गूंजती थी। उन में अपने समर्थ कवि होने का एहसास भी खूब था। पर वह इस को छलकाते नहीं घूमते थे, जैसे कि उन के समकालीन। मुक्तिबोध उन के आदर्श थे। यह मुझे तब पता चला, जब मुक्तिबोध पर एक बार उन से लिखने को कहा। वह गद्य लिखने में बड़े आलसी थे। पर जब मुक्तिबोध पर मैं ने उन से लिखने को कहा तो दो-एक बार ही ना-नुकुर के बाद उन्हों ने लेख लिख कर दे दिया। जब कि इस के पहले प्रेमचंद जन्म-शताब्दी के मौके पर कोई साल भर पीछे पड़ कर भी उन से प्रेमचंद पर नहीं लिखवा सका था। वह हर बार यही पूछते, ‘क्या लिखूं, प्रेमचंद पर? किसी और से लिखवाइए।’
एक बार आजिज आ कर मैंने उन से कहा कि प्रेमचंद पर कविता ही लिख दीजिए! वह बोले, कोशिश करता हूं। अंतत: काफी दिन बाद एक दिन वह मिले और सीधे-सीधे हथियार डाल दिए। हम से लिखते नहीं बनता। नहीं लिख पाऊंगा। और यह इतनी लाचारगी से उन्हों ने कहा कि मैं भी चुप रह गया। लगा ही नहीं कि यह ‘बहस जरूरी है’ का कवि देवेंद्र कुमार बोल रहा है। पर क्या कीजिएगा, बोल वही रहे थे। जीवन के अंतिम छोर पर उन को जवान बेटे का असमय निधन तोड़ ही नहीं, ध्वस्त कर गया था। जीवन के इस मोड़ पर उन्हों ने पाया कि वह हरिजन, क्लर्क और कवि होने के साथ-साथ एक बेटे के बाप भी थे। निधन तो खैर उन का अब हुआ है, पर वह तभी मर से गए थे। पर बेटे की पत्नी, बच्चों की जिम्मेदारी उन्हें ढकेल रही थी, तो वह जी रहे थे। ठीक अपनी उस कविता के अंश की तरह ‘न जनता/ न नेता/ आप पूछेंगे! फिर मुझे इस देश से
क्या वास्ता? सो तो है मगर...।’


अपनी कविताओं से मिथक रचने वाले, मुहावरे तोड़ कर संघर्ष को रेखांकित करने वाले देवेंद्र कुमार घास की जिजीविषा जीते-जीते हम से अब जब जुदा हो गए हैं, तो हम उन्हें उनकी कुछेक कविताओं के अंशों को याद करके ही श्रद्धा की अंजुरी परोसते हैं।
वह लिखते हैं:-

दिक्कत है कि तुम सोचते भी नहीं
सिर्फ दुम दबा कर भूंकते हो
और लीक पर चलते-चलते एक दिन खुद
लीक बन जाते हो
दोपहर को धूप में जब ऊपर का चमड़ा चलता है
तो सारा गुस्सा बैल की पीठ पर उतरता है
कुदाल,
मिट्टी के बजाय ईंट-पत्थर पर पड़ती है
और एकाएक छटकती है
तो अपना ही पैर लहुलुहान कर बैठते हो
मिलजुल कर उसे खेत से हटा नहीं सकते?
(बहस जरूरी है)

‘परिसंवाद’ कविता का एक अंश देखिए जो देवेंद्र कुमार की रचनाधर्मिता की चाह देता है:
चिड़ियों की चीख
झरनों की टापू
नदियों के बारह मासे सुनता है
तो पृथ्वी से कह दो कि वह अपने हाथ
कुछ देर के लिए ऊपर से
खींच ले,
ममता दिखाने के और भी रास्ते हो सकते हैं।

वह रूपवादी मतलब रूप कुमार नहीं थे। देवेंद्र कुमार की कविताओं के रेशे और रंग के ब्यौरों या शास्त्रीय व्याख्या में जाने के बजाय सीधे-सीधे उन की कुछ कविताओं के अंश पर मुलाहिजा करें:

रात को उस के समग्र रूप को आंकना
खानों में पैठ कर
कोयले के अंदर झांकना है।
इंजन की भट्टी पर जाने से पहले
मैं उस मजबूरी को जान लेना चाहता हूं
जिसके तहत चंद्रमा को
कछुए की चाल से,
आकाश की दूरी तय करनी पड़ती है
और दिन का सारा कारोबार
छछूंदर की एक चीख में बदल जाता है।
यह कैसी जड़ता है?
कि मेरा ही घर, दिशा ज्ञान
मेरे खिलाफ पड़ता है।
(काला जादूगर)

समन्वय, समझौता, कुल मिला कर
अक्षमता का दुष्परिणाम है
जौहर का किस्सा सुना होगा
काश! महारानी पद्मिनी, चिता में जलने के बजाए
सोलह हजार रानियों के साथ लैस हो कर
चित्तौड़ के किले की रक्षा करते हुए
मरी नहीं, मारी गई होती
तब शायद तुम्हारा और तुम्हारे देश का भविष्य
कुछ और होता!
यही आज का तकाजा है
वरना कौन प्रजा, कौन राजा है?
(बहस जरूरी है)

Monday, 26 March 2012

तो क्या फ़ेसबुक अब फ़ेकबुक में तब्दील है?

मित्रों पता नहीं क्यों अब कई बार लगता है कि फ़ेसबुक अब फ़ेकबुक में तब्दील है। बल्कि फ़ेकबुक का किला बन गया है यह फ़ेसबुक। छ्द्म क्रांतिकारिता के मारे मुखौटे पहने लोगों की फ़ौज, हर घंटे चार-छ लाइन की कविता और उस के साथ नत्थी एक फ़ोटो लगाई औरतें, जिन्हें न किसी शब्द की समझ, न वर्तनी की समझ, वाक्य विन्यास की, न कविता की। पर उन्माद कविता लिखने का यह कि जैसे कविता न रच रही हों, कविता की फ़ैक्ट्री लगा बैठी हों। तिस पर करेला और नीम चढा, तमाम कुत्तों की लार टपकाती लाइक और कमेंट करती फ़ौज! गोया ये आचार्य रामचंद्र शुक्ल हों और लाइक या कमेंट कर कविता को अमर कर जाएंगे। क्रांतिकारियों की भी कई-कई दल यहां सक्रिय हैं। जो अन्ना के तो जैसे पीछे ही पड गए हैं। ठीक है ज़रुर पडिए। मतभेद होना बुरी बात नहीं। खूब ऐसी तैसी कीजिए अन्ना की। बहुत कमियां है उन में। पर अन्ना और टीम ने जिन भ्रष्टचारियों के खिलाफ़ बिगुल बजा रखा है, उन के खिलाफ़ एक शब्द की भी सांस नहीं लेते ये क्रांतिकारी साथी। तो क्या उन भ्रष्ट लोगों के समर्थन में हैं यह भैया लोग? बहुत कुछ सांसदों का सा रवैया है इन क्रांतिकारियों का। अभी नीरा राडिया से लगायत टू जी, कामन वेल्थ गेम, आदर्श सोसाइटी या अभी-अभी दस लाख करोड रुपए के कोयला स्कैम पर भी यह क्रांतिकारी साथी या तो मौन हैं या फिर सांसदों की तरह बस रस्म अदायगी वाली चिंताएं जता कर सो गए हैं। बताइए कि एक सेनाध्यक्ष को चौदह करोड की रिश्वत देने की हिम्मत करने की हद तक बात पहुंच गई है और हमारे वैचारिक और क्रांतिकारी साथी इस सब का विरोध करने वाले के खिलाफ़ ही लामबंद हैं, इन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ़ बात करने में इन लोगों को जैसे नींद आ जाती है। कुछ और लोग भी हैं जो बाकायदा गिरोह बना कर बात कर रहे हैं। कुछ वैचारिकता की खोल ओढे हुए हिप्पोक्रेट हैं इन गिरोहों में तो कुछ बाकायदा ब्राह्मण, पिछडे, दलित आदि के खुल्लमखुल्ला गिरोह हैं। अपनी-अपनी जातियों का बिगुल बजाते, विष-वमन करते।
फ़्रस्ट्रेटेड लोगों की भी कई-कई जमाते हैं। आत्म-मुग्ध, आत्म-प्रचार के मारे लोग तो पग-पग पर हैं ही। वह अभी सो कर उठे हैं, अभी खाने जा रहे हैं, अभी घूमने जा रहे, अभी इतने लोगों को अनफ़्रेंड किया है, और लोगों को भी अनफ़्रेंड करने वाले हैं। अभी खांसी है, कल जुकाम था, अभी गुझिया बनाई, अभी रंग लगाया आदि जैसे पल-प्रतिपल का हिसाब देने वाले भी बहुतायत में हैं। एक संभोग छोड सारी नित्य क्रिया की कवायद की पोस्ट बेहाल किए है। क्या पुरुष, क्या स्त्री! सभी इस रोग के मारे हैं। यह सोशल साइट है और सामाजिक सरोकार ही यहां से लगभग लापता हैं। तो यह फ़ेकबुक नहीं है तो और क्या है? मैं ने अभी कोई नौ महीने पहले इन्हीं और ऐसे ही तमाम अंतर्विरोधों को ले कर एक कहानी लिखी थी फ़ेसबुक में फंसे चेहरे। इसी नाम से एक कहानी संग्रह भी छप कर अब आ गया है। पर फ़ेसबुक इन नौ महीनों में ही एक क्या लगता है कई-कई जन्म ले चुका है। अब एक नया ही फ़ेसबुक हमारे सामने उपस्थित क्या नित नया और खोखला रुप ले कर उपस्थित है। अभी जाने क्या-क्या रुप लेगा यह फ़ेसबुक, यह तो समय ही जाने। लेकिन अभी और बिलकुल अभी तो यह फ़ेसबुक फ़ेकबुक में तब्दील होता जा रहा है, इस में तो कोई दो राय नहीं है।
हां, यह भी ज़रुर है कि इस फ़ेसबुक पर फ़र्जी लोगों का भी ज़बरदस्त जमावडा है। कुछ मित्र तो यह भी बताते हैं कि कुछ लोग दस-दस, बीस-बीस या और भी कई-कई नामों से उपस्थित हैं। आखिर एक प्रश्न तो यह भी है ही कि एक कोई अधपकी, कच्ची कविता जो किसी स्थापित कवि की भी नहीं है, दो सौ, तीन सौ कमेंट या हज़ार, दो हज़ार से भी ज़्यादा लाइक भला कैसे हो जाता जा रहा है और हर बार की कविता पर? अभी किसी महादेवी, प्रसाद, निराला, दिनकर, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन , बच्चन, नीरज, कुंवर नारायन आदि की कविता पर भी क्या इतने कमेंट या लाइक आ सकते या हो सकते हैं? हरगिज नहीं। तो फ़ेसबुक की इन कवियत्रियों को कैसे भला मिल जाते हैं? अच्छा आप अभी घूम कर आए हैं या आप ने अपने बच्चे को खाना खिला दिया, इस पर भी ढेरों कमेंट या लाइक? यह क्या फ़ेसबुक है या फ़ेकबुक? अच्छा कुछ लोग ब्लू फ़िल्मों की क्लिपिंग भी लगा दे रहे हैं। तो कुछ लोग नंगी या अधनंगी स्त्रियों की फ़ोटो भी टांग दे रहे हैं, इस का क्या करेंगे? हां, आप एक परिचय के बाद किसी स्त्री से फ़्लर्ट भी करने लगें तो? यह सारे सवाल भी इस फ़ेसबुक-फ़ेकबुक पर गूंजने लगे हैं और बार-बार। खैर फ़्लर्ट आदि से मुझे कुछ बहुत ऐतराज है भी नहीं। यह सब का अपना 'व्यक्तिगत' है। लेकिन इधर देखने में आया है कि कुछ लोगों ने आपसी बातचीत का पूरा, अधूरा कनवर्सेसन भी पोस्ट किया है। और कि एक दूसरे को नंगा भी किया है, कहानी आदि भी लिखी है। खैर यह भी व्यक्तिगत के खाने में डाल देते हैं। तो भी यह तो मानना ही होगा कि यह सब व्यक्तिगत सार्वजनिक करने से बचा भी जा सकता है।
एक बात ज़रुर इस फ़ेसबुक बनाम फ़ेकबुक पर अप्रत्याशित रुप से और निरंतर देखने को मिलने लगी है कि स्त्रियां अब दिखावे ही के तौर पर सही पुरुषों के खिलाफ़ कोडे ले कर खडी हैं। बंदूक ले कर खडी हैं। लेकिन बहुत अमूर्त ढंग से। जैसे कि अभी एक किताब की चर्चा हुई है जिस में एक मौलवी ने बीवियों को काबू करने के लिए कोडे मारने की तजवीज की है, जाने क्यों फ़ेसबुक पर बैठी स्त्रियां जो जब तब पुरुषों के खिलाफ कविता आदि में ही सही भडास निकालती रहती हैं, इस पर कुछ बहुत उद्वेलित नहीं दिखीं। यह और ऐसे तमाम विषयों पर स्त्रियां कभी बहुत उद्वेलित नहीं होतीं। अब कि जैसे लगभग हर विज्ञापन के मूल में पहले औरत की अधनंगी फ़ोटो रहती रही है पर अब लडकी को पटाना भी ज़रुरी हो गया है। चाहे् मोबाइल का  विज्ञापन हो, कोल्ड ड्रिंक का हो, पाउडर या सेंट का हो, मोटरसाइकिल का हो या किसी और चीज़ का। सारे  विज्ञापन लडकी पटाने में व्यस्त है। क्या इतनी सस्ती हैं लडकियां? पर कोई स्त्री इस पर भी कहीं नहीं बोलती। न फ़ेसबुक-फ़ेकबुक पर, न इस से बाहर। तो यह क्या है? कोई चिंतक भी इस पर राय देना या विरोध करना ठीक नहीं समझता। जब कि इस पर तो आंदोलन खडा करने की ज़रुरत दिखती है। ऐसे और भी तमाम मसले हैं। जो फ़ेसबुक पर नहीं हैं। इसी लिए खोखली और दिखावटी बातों पर झूम-झूम जाने वाला फ़ेसबुक, अब फ़ेकबुक में तब्दील हो चुका है। है कोई क्रांतिकारी, कोई जो मशाल ले कर खडा हो, जो इस पर चिंता बघारे  मशाल जलाए? अभी और बिलकुल अभी तो सिर्फ़ एक कार्टून याद आ रहा है जो दो तीन दिन पहले इसी फ़ेसबुक पर किसी ने पोस्ट किया था। जिस में एक व्यक्ति किसी व्यक्ति से कह रहा है कि मेरे पास आर्कुट है, ट्विट है, फ़ेसबुक है, तुम्हारे पास क्या है? और अगला आदमी उसे जवाब देता है कि मेरे पास काम-धंधा है ! तो क्या हम या हमारे जैसे लोग सचमुच निठल्ले हैं? जो जब देखिए तब फ़ेसबुक पर जा कर आलू छीलने लगते हैं? आलू-चना करने लगते हैं। और कि लोगों के अहं-ब्रह्मास्मि की आंच में झुलसने चले जाते हैं? अहंकार की बहती नदी में बहने, आत्म मुग्धता के सागर मे बहकने, आत्म-प्रचार में लीन लोगों का दर्शन करने फ़ेसबुक क्षमा कीजिए फ़ेकबुक के बदबू मारते नाले के मुहाने पर जा कर बैठ जाते हैं? फ़ेकबुक का यह किला इतना मज़बूत हो गया है? कि हम उस से बाहर भी निकलने में मुश्किल पा रहे हैं?

Saturday, 24 March 2012

२०२५ : कोई लोक भाषा भी हुआ करती थी

बाजार के दबाव में तिल-तिल कर मरती हुई भोजपुरी भाषा की दुर्दशा को लेकर मैं ने कुछ समय पहले एक उपन्यास लिखा - लोक कवि अब गाते नहीं। इंडिया टुडे में इस उपन्यास की समीक्षा लिखते हुए प्रसिद्ध भाषाविद् अरविंद कुमार ने तारीफों के पुल बाँधते हुए एक सवाल भी लिख दिया कि अगर लेखक को भोजपुरी से इतना ही लगाव है और भोजपुरी कि उसे इतनी ही चिंता है तो यह उपन्यास भोजपुरी मे ही क्यों नहीं लिखा? हिंदी में क्यों लिखा? यह मुझ पर सवाल नही् तमाचा था। पर सवाल यह था कि अगर मैं यह उपन्यास भोजपुरी में लिखता भी तो उसे पढ़ता भी भला कौन? इससे भी बड़ा प्रश्न था कि उसे छापता भी भला कौन और क्यों? मैं ने उन्हें यह बात बताते हुए बड़ी तकलीफ से लिखा कि घबराइए नहीं, शायद वह दिन भी ज्यादा दूर नही् है जब हिंदी की दुर्दशा को लेकर कोई उपन्यास अंगरेजी में लिखा जाए। तो फिर आप पूछेंगे कि यह हिंदी में क्यों नहीं लिखा गया? अरविंदजी ने मेरी तकलीफ को समझा और माना कि ये तो है!


ऐसे में सवाल बड़ा गूढ़ है कि वर्ष २०२५ में भारतीय लोक भाषाओं की स्थिति क्या होगी? लेकिन शायद यह दूसरा सवाल है। पहला सवाल तो यह है कि वर्ष २०२५ में हिंदी की स्थिति क्या होगी? और फिर उसकी हैसियत क्या होगी? अभी तो आलम यह है कि हर छठवें मिनट में एक हिंदी भाषी अंगरेजी बोलने लगता है. यह चौंकाने वाली बात एंथ्रोपोलिजकल सर्वे आफ इंडिया ने अपनी ताजी रिपोर्ट में बताई है। संतोष की बात है कि इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हर पांचवे सेकेंड में हिंदी बोलने वाला एक बच्चा पेदा हो जाता है। गरज यह कि हिंदी बची रहेगी। पर सवाल यह है कि उसकी हैसियत क्या होगी? क्योंकि यह रिपोर्ट इस बात की तसल्ली तो देती है कि हिंदी भाषियों की आबादी हर पांच सेकेंड में बढ़ रही है। लेकिन साथ ही यह भी चुगली खाती है कि हिंदी भाषियों की आबादी बेतहाशा बढ़ रही है। और जिस परिवार की जनसंख्या ज्यादा होती है, उसकी दुर्दशा कैसे और कितनी होती है यह भी हम सभी जानते हैं। आज की तारीख में दावा है कि २० करोड़ से अधिक लोग भोजपुरी बोलते हैं। लेकिन यह आंकड़ा है। जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है। हकीकत यह है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में तमाम माँग के बावजूद भोजपुरी नहीं आ सकी है। जब कि दो ढाई लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली डोगरी या कुछ लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली नेपाली भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में हैं।


आज गाँवों में ही भोजपुरी और अवधी जैसी भाषाएं विलुप्त हो रहीं हैं। लोग अंगरेजी मिश्रित खड़ी बोली बोल रहे हैं। "दो साल तक टॉक टाइम फ्री" तथा "लाइफ टाइम प्रीपेड" जैसे विज्ञापन गाँवों में भी लहालोट हैं। एक साथ अंगरेजी और बाजार का दबाव इतना ज्यादा है कि लोक भाषाएं तो क्या हिंदी जैसी विशाल भाषा भी अपने आप को बचा ले जाए, यही बहुत है. हालांकि बाजार पर एक नजर डालें और अखबारी रिपोर्टों पर गौर करं तो पता चलता है कि इन दिनों मुंबई तक में भोजपुरी फिल्मों की बहार है। भोजपुरी सीडी और कैससेट से बाजार अटे पड़े हैं। लेकिन अश्लीलता, फूहड़ता और लंपटई की सारी हदें तोड़ती यह फिल्में, कैसेट और सीडी भोजपुरी को कलंकित करते हुए उसे बेमौत मार रही हें। हालांकि अमिताभ बच्चन जैसे लोग भी भोजपुरी फिल्मों में काम करेंगें यह बताया जा रहा है. अमिताभ बच्चन की कुछ फिल्में भोजपुरी में डब भी की गई है। लेकिन भोजपुरी की यह बाजारु छवि है। सचाई यह है कि भोजपुरी अवधी समेत तमाम लोक भाषाएं इस कदर उपेक्षित हैं कि अगर इनकी तुलना करनी ही हो तो कहूंगा कि ज्यादातर मध्यवर्गीय घरों में जैसे वृद्ध उपेक्षित और अपमानित एक कोनें में खांसते-खंखारते बोझ बने पड़े रहते हैं, हमारी लोक भाषाएं भी उसी गति को प्राप्त हें. जेसे अशक्त वृद्धों को अपनी मौत का हर क्षण इंतजार होता है. हमारी लोक भाषाओं का भी यही बुरा हश्र है. क्या पता २०२५ से पहले ही हमारी लोकभाषाएं एक एक कर अपने प्राण छोड़ती जाएं. और हमारी सरकारें उन्हें बचाने के लिए परियोजनाएं बनाती दीखें। जैसे कि पाली और संस्कृत भाषाओं के साथ हुआ है.


लेकिन परियोजनाएं क्या भाषाएं बचा पाती हैं? और कि क्या सरकारी आश्रय से भाषाएं बच पाती हैं? अगर बच पातीं तो उर्दू कब की बच गई होती. सच यह है कि कोई भाषा बचती है तो सिर्फ इस लिए कि उसका बाजार क्या है? उसकी जरूरत क्या है? और कि उसकी माँग कहाँ है? वह रोजगार दे सकती है क्या? अगर नहीं तो किसी भी भाषा को हम आप क्या कोई भी नहीं बचा सकता। संस्कृत, पाली और उर्दू जैसी भाषाएं अगर बेमौत मरी हैं तो सिर्फ इसलिए कि वह रोजगार और बाजार की भाषाएं नहीं बन सकीं. चाहे उर्दू हो, संस्कृत हो या पाली जब तक वह कुछ रोजगार दे सकती थीं, चली। लेकिन पाली का तो अब कोई नामलेवा ही नहीं है.बहुतेरे लोग तो यह भी नहीं जानते कि पाली कोई भाषा भी थी. इतिहास के पन्नों की बात हो गई पाली. लेकिन संस्कृत? वह पंडितों की भाषा मान ली गई. और जन बहिष्कृत हो गई। इस लिए भी कि वह बाजार में न पहले थी और न अब कोई संभावना है। उर्दू एक समय देश की मुगलिया सल्तनत में सिर चढ़ कर बोलती थी। उसके बिना कोई नौकरी मिलनी मुश्किल थी. जैसे आज रोजगार और बाजार में अंगरेजी की धमक है तब वही धमक उर्दू की होती थी। बड़े-बड़े पंडित तक तब उर्दू पढ़ते-पढ़ाते थे। मुगलों के बाद अंगरेज आए तो उर्दू धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई. फिर जैसे संस्कृत पंडितों की भाषा मान ली गई थी, वैसे ही उर्दू मुसलमानों की भाषा मान ली गई. आज की तारीख में उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में राजनीतिक कारणों से वोट बैंक के फेर में उर्दू दूसरी राजभाषा का दर्जा भले ही पाई हुई हो लेकिन रोजगार की भाषा अब वह नहीं है। और न ही बाजार की भाषा है। सो, उर्दू भी अब इतिहास में समाती जाती दिखाई देती है। उर्दू को बचाने के लिए भी राजनेता और भाषाविद् योजना-परियोजना की बतकही करते रहते हैं। पुलिस थानों तथा कुछ स्कूलों में भी मूंगफली की तरह उर्दू-उर्दू हुआ हआ। पर यह नाकाफी है और मौत से भी बदतर है.


हां, हिंदी ने इधर होश संभाला है और होशियारी दिखाई है. रोजगार की भाषा आज अंगरेजी भले हो पर बाजार की भाषा तो आज हिंदी ही है। और लगता है आगे भी रहेगी क्या, दौड़ेगी भी। कारण यह है कि हिंदी नें विश्वविद्यालीय हिंदी के खूंटे से अपना पिंड छुड़ा लिया है। शास्त्रीय हदों को तोड़ते हुए हिंदी ने अपने को बाजार में उतार लिया है। और हम विज्ञापन देख रहे हैं कि दो साल तक टॉक टाइम फ्री। लाइफ टाइम प्रीपेड। दिल माँगे मोर हम कहने ही लगे हैं। इतना ही नहीं अंगरेजी अखबार अब हिंदी शब्दों को रोमन में लिख कर अपनी अंगरेजी हेडिंग बनाने लगे हैं. अरविंद कुमार जैसे भाषाविद् कहने लगे हैं कि विद्वान भाषा नहीं बनाते। भाषा बाजार बनाती है। भाषा व्यापार और संपर्क से बनती है। हिन्दी ने बहुत सारे अंगरेजी, पंजाबी, कन्नड़, तमिल आदि शब्दों को अपना बना लिया है। इस लिए हिंदी के बचे रहने के आसार तो दिखते हैं। लेकिन लोक भाषाओं ने यह लचीलापन अबतक तो नहीं दिखाया है। गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी में अगर रामचरित मानस न लिखा होता तो मैं पूछता हूं कि अवधी आज होती कहाँ? इसी तरह अगर भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी में बिदेसिया और आरा हिले बलिया हिले छपरा हिले ला. हमरी लचके जब कमरिया सारा जिला हिले ला, जैसे कुछ लोक गीत न लिखे होते तो भोजपुरी कहाँ होती? भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, मैथिली, मगही, वज्जिका, अंगिका, कन्नौजी, कुमाऊंनि, गढ़वाली, छत्तीसगढ़ी आदि तमाम लोक भाषाएं तेजी से विलुप्ति के कगार पर हैं।


आज तो आलम यह है कि लोक भाषाओं की जो सबसे बड़ी थाती थी वह थी संस्कार गीत और श्रम गीत। आज हमसे संस्कार गीत भी बिला गए हैं. शादी ब्याह में, मुंडन निकासन में तमाम और सारे मौकों पर गाए जाने वाले संस्कार गीतों की जगह अब फिल्मी पैरोडियों ने ले ली है। लेडीज संगीत ने ले ली है। भजनों और देवी गीतों की जगह अश्लील फिल्मी पैरोडियों वाले भजन और देवी गीत सुनाई देने लगे हैं। श्रम गीत तो कब के विदा हो चुके हैं। गरज यह कि सारा लोक और लोक भाषा लोगों के ठेंगे पर आ गया हैं। तो ऐसे में अचरज क्या कि २०२५ तक लोक भाषाएं अपने संरक्षण के लिए भीख मांगने लगें! निश्चित ही यह हमारी और हमारे समाज की सबसे बड़ी त्रासदी होगी। ठीक वैसे ही जैसे कोई बहुत पढ़ा लिखा कैरियर प्रेमी लड़का अपनी माँ को माँ कहने से कतराए। क्या तो उसकी माँ पढ़ी लिखी नहीं है, उसकी फिगर ठीक नहीं है, वह लोगों में उठने बैठने लायक नहीं है। तो जैसे अगर कोई कैरियर प्रेमी लड़का इन कारणों से अपनी माँ को माँ नहीं कहता है और शर्म खाता है। ठीक वैसे ही क्या हम सब भी अपनी मातृभाषा के साथ आज यही नहीं कर रहे? मातृभाषा जो हमारी लोक भाषाएं ही हैं। जिन्हें बोलने बरतने से हम शरमा रहे हैं। जीते जी उन्हें हम मार रहे हैं। इस पर हमें सोचना ही चाहिए कि आखिर हम ऐसा क्यों कर रहे हैं? अपनी माँ के प्राण क्यों ले रहे हैं?

Wednesday, 21 March 2012

कहां जा रही है ददरी मेले वाली लोक संस्कृति?

- अरविंद कुमार


उपन्यास ‘अपने अपने युद्ध’ से एकदम चर्चित दयानंद पांडेय इस बार एक और भी चर्चित उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ ले कर आए हैं। ‘लोक कवि...’ के दो पहलू हैं जो चर्चा की मांग कर रहे हैं। पहला है बाज़ारीकरण, दूसरा है लोक संस्कृतियां और आज का भारत। दूसरे पहलू को और भी केंद्रित करें तो वह है हिंदी का स्वरूप-खड़ी बोली बनाम आंचलिक भाषाएं। कई कठोर प्रश्न तो दयानंद पांडेय ने उठाए हैं, पर उनके और भी कठोर उत्तरों से वह कतराते हैं। वही नहीं, हिंदी की इन आंचलिक संस्कृतियों के अधिकांश चाहने वाले भी।

सब से पहले मैं बाज़ारीकरण की बात करना चाहूंगा - जो इस रोचक और मार्मिक उपन्यास का मुख्य पक्ष है। इसके लिए हमें इसके कथा पक्ष में जाना होगा। कहानी का मुख्य पात्र लोक कवि यानी मोहना एक सीधा सादा भावुक विरहा का मारा और मधुर आवाज़ में बिरहा गाने वाला सहज प्रतिभा वाला गायक है। वह मुख्य पात्र तो है लेकिन नायकों वाले ढांचे में नहीं ढला है। उसके पास कोई उच्च आदर्श नहीं है, विद्रोह के नारे नहीं हैं... वह अपने परिप्रेक्ष्य की एक ऐसी उपज है जो उसे आम आदमी जैसा ही बनाए रखती है। उसका यही गुण इस उपन्यास को एक अनोखी पैनी धार देता है।

आरंभ में उसमें महत्वाकांक्षा नाम की भी कोई चीज़ नहीं है। बस एक चाहत है, जो गांव की गोरी धाना के लिए है। धाना के न मिलने से यह चाह कसक बन जाती है। धीरे-धीरे उसकी निजी कसक आसपास के समाज की कुरीतियों विसंगतियों के विरोध में प्रभावशाली गीत बन कर गूंजने लगती है। पिटता पिटाता लाचार मोहना यहां वहां गाता घूमता है कि एक कम्युनिस्ट नेता की नज़र उस पर पड़ती है। इसके बाद मोहना परिस्थितियों के हाथों की कठपुतली बन जाता है। पार्टी की जन सभाओं से उसके गाने और उसका नाम आसपास के क्षेत्रों तक पहुंच जाता है। वह कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बन चुका है और विधान सभा की चुनावी सभाओं में उसके गानों की लोकप्रियता नेता की जीत का एक कारक बनती है। नेता जी उसे लोक कवि नाम देते हैं। उनके साथ साथ मोहना गांव से उठ कर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में नेता की गराज में रहने पहुंच जाता है। यहां उसमें आकांक्षाएं जागती हैं। एक-एक पायदान चढ़ता वह बाज़ार तक पहुंचना चाहता है। अपनी कला पहले रेडियो पर, बाद में कैसेटों पर दिखाना चाहता है। कब बाज़ार उसे अपनी कठपुतली बना लेता है उसे पता नहीं चलता। वह पूरी तरह बाजारू कलाकार बन गया है। चारों तरफ उस का नाम है... अब वह बाज़ार को अपनी उंगलियों पर कठपुतली की तरह नचाना चाहता है। उसकी गान मंडली में लड़कियों का प्रवेश होता है, इस आधार पर कि इससे उस के मंच कार्यक्रम और अधिक लोकप्रिय हों। पहले परिस्थितियों ने उससे लाभ उठाया था, अब वह परिस्थितियों से लाभ उठाना चाहता है। लेखक के शब्दों में कहें तो-‘वह अर्जुन से कई कदम आगे थे। लोक कवि मछली और मछली की आंख से भी पहले द्रौपदी को देखते। बल्कि कई बार तो सिर्फ़ द्रौपदी को देखते... वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी। लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी।’ उनका कहना था कि हर बिगड़ा काम बन सकता है, ‘जोगाड़ चाही’। वह यह नहीं जान पाता कि वास्तव में यह प्रक्रिया उसे बाज़ार के दलदल में और भी नीचे घसीट रही है।

उसकी आरंभिक कसक धीरे-धीरे कचोट में बदल जाती है, जिसे भारी भरकम भाषा में कुंठा कहते हैं। अब उसका जीवन चार-पांच शब्दों में समेटा जा सकता है-सुरा, सुंदरी, समाचार और सत्ता की संगति... एक ओर वह समाचार पत्रों के द्वारा प्रचार की जुगत में लग जाता है "लोक कवि पत्रकार को रोज भरपेट शराब मुहैया कराते", सत्ता के गलियारों में अपने बाज़ार को और भी बढ़ाने के लिए सम्मान और पुरस्कार समेटना चाहता है, तो दूसरी ओर भीतर की कचोट उसे सुरा और सुंदरी में डुबो देती है... जो अपने जोगाड़ से बाज़ार बढ़ा रहा था, अब वह बाज़ार की कठपुतली बन गया है। इस लाचार गुलामी के अनेक उदाहरण उपन्यास में हैं। एक ही उदाहरण देना काफी होगा। उसके भतीजे को एड्स लग जाता है तो लोक कवि की सबसे बड़ी चिंता इस खबर को हर कीमत पर छिपाए रखने की है - क्योंकि लोगों को पता चल गया तो बाज़ार पर क्या असर पड़ेगा।

सधी किस्सागोई का सबूत दयानंद पांडेय ‘अपने अपने युद्ध’ में ही दे चुके थे। यहां वह उस कला को और पैनी तरह से सामने लाने में सफल हुए हैं। बड़ी कुशलता से उपन्यास के चतुर्थांश तक पहुंच कर जब मोहना का नाम अपने चरम पर है दयानंद पांडेय बड़े सहज ढंग से कथा का रूख गांव की ओर मोड़ देते हैं। बड़े जोड़-तोड़ के बाद मोहना को पांच लाख का पुरस्कार-सम्मान मिला है। यह सम्मान दिया जाएगा उसके अपने जनपद में। सम्मान पा कर वह अपने पैतृक गांव जाता है। यहां से उसके व्यक्तित्व के कई मार्मिक प्रसंगों की पुराकथा शुरू होती है। गांव की भाभियां महिलाएं उसका परीछन कर रहीं हैं। लोक संस्कृति के सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं। दूर खड़ी सकुचाई सी एक बुढ़िया सी स्त्री को भी एक चतुर महिला परीछन में भाग लेने के लिए पुकारती है। यह बुढ़िया सी है मोहना की सखी धाना। फिर धाना के साथ मोहना के यौवन के रूमानी क्षण। कुछ दृश्य तो संस्कृत की रूमानी काव्य परंपरा के निकट पहुंच जाते हैं।

मोहना की सबसे बड़ी खूबी है अपने निजी संबंधों में पूरी निष्ठा और निभाव। इसके चलते अनेक पात्र आते हैं। वे सब अपनी शक्तियों कमज़ोरियों और रोचक कथाओं और पुराकथाओं के साथ आते हैं और मुख्य कथा को बल देते हैं। चेयरमैन साहब। ठाकुर पत्रकार। गायिका मीनू, उसका पति उमेश। स्वतंत्रता सेनानी त्रिपाठी जो कभी निष्ठावान थे, जिन्होंने देश की आज़ादी में अपने योगदान को भुनाना नहीं चाहा और अब सत्ता के गलियारों में लाइसैंसों के दलाल बन गए। गांव के विलेज बैरिस्टर गायक गणेश तिवारी जो हर किसी के काम में रोड़ा अटका सकते हैं और ज़मीन जायदाद खरीदवा भी सकते हैं और फिर बिना कीमत बेचने वाले को वापस दिलवा भी सकते हैं। हर होने वाले रिश्ते को तुड़वा सकते हैं। शहर के वकील वर्मा जो पैसा कमाने के लिए विधवा ठकुराइन को डरा बहका कर उस का धन-तन लूटते खसोटते रहते हैं... गांव के भुल्लन पंडित... उन का बेटा गोपाल जो बैंकाक से एड्स की सौगात ला कर गांव को सौंप जाता है। भुल्लन पंडित को छोड़ कर ये सब किसी न किसी तरह बाज़ार के शिकार हैं। पांडेय में कहीं कुछ ऐसा छिपा है जो कभी भविष्य में उनसे आधुनिक समाज का वृहत् कथा सरित्सागर लिखवा सकता है...।

पर अब मैं उन कठोर सवालों की ओर आता हूं जो दयानंद ने उठाए हैं, पर जिनका साफ जवाब देने से वह कतरा गए हैं। इन जवाबों के लिए एक बार पूरे समाज को आज़ादी की और हिंदी की लड़ाई के इतिहास में जाना पड़ेगा। या शायद संस्कृत भाषा और प्राकृतों के परस्पर संबंधों में भी।

अंत तक आते-आते लोक कवि निराश हो चुके हैं। अब वे तब गाते हैं जब महफिल उखाड़नी होती है। अंतिम दृश्य में वह खुद से सवाल करते हैं-
‘भोजपुरी बिरहा में यह लड़कियों की फसल मैंने ही बोई है तो काटेगा कौन?’

लेकिन इस से भी पहले...

ठाकुर पत्रकार और लोक कवि अपने को भोजपुरी का प्रेमी मानते हैं। एक दिन वे भोजपुरी की दुर्दशा पर बात कर रहे थे। तब लोक कवि कहते हैं- ‘क्या कीजिएगा भोजपुरी गरीब गंवार की भाषा है... जइसे गरीब की लुगाई है, भोजपुरी सबकी भौजाई है... लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री हुए। पाकिस्तान को हरा दिए, देश को जिता दिए, लेकिन भोजपुरी को जिताने की फिकिर नहीं की। चंद्रशेखर जी अपने बलिया वाले... कुछ हज़ार लोगों की बोली डोगरी को, नेपाली को संविधान में बुला लिए। लेकिन भोजपुरी को भुला गए।’

इस चर्चा में बाबू राजेंदर प्रसाद भी नवाजे जाते हैं। और ज़िक्र वीएस नायपाल का भी होता है जो भोजपुरी मूल के होते हुए भी और आधुनिक हिंदी या खड़ी बोली से अपरिचित होते हुए भी, अपने पुरखों की भाषा के लिए कुछ नहीं करते। जब पत्रकार उन्हें बताता है कि नायपाल अंगरेज़ी के दिग्गज हैं, तो लोक कवि फ़रमाते हैं, ‘ऐसे ही लोग, हाई फाई लोग भोजपुरी का विनाश कर रहे हैं... भोजपुरी के लिए कुछ करेंगे नहीं। खाली मूड़ी गिना देंगे कि हमहूं भोजपुरिहा हूं। हुंह, सजनी हमहूं राजकुमार ! जाने दीजिए अइसे लोगों की बात मत करिए!’

सबसे पहले तो एक सस्ता सवाल ‘लोक कवि’ के लेखक से भी किया जा सकता है- वह खड़ी बोली में क्यों लिख रहे हैं, भोजपुरी में क्यों नहीं? पर यह सवाल अर्थहीन है। असली सवाल है- हिंदी है क्या? आज जिसे हम हिंदी कहते हैं आज़ादी की लड़ाई में वह एक नारा थी, बाद में अनेक हिंदीवादी समर्थकों के लिए भी। यह नारा यह बताने का भी साधन था कि भारत की सब भाषाओं में उसके बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन क्या यह कभी सच था या आज है?
तथाकथित हिंदी क्षेत्र के कितने लोग वह हिंदी बोलते हैं जो हिंदी की एक बोली मात्र है-खड़ी बोली। राजनीतिक लाभ के लिए हिंदी कही जाने वाली सभी लोक भाषाओं ने कुरबानी दी। मारवाड़ी, पहाड़ी, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली... गिनती बहुत लंबी है... लगभग कुछ ऐसा ही वेदों के काल के बाद साहित्यिक संस्कृत के विकास के और प्राकृतों और अपभ्रंशों के पिछड़ने के काल में हुआ था। शायद यह सहज स्वाभाविक प्रक्रिया थी सामाजिक संप्रेषण की। भौगोलिक मांगों के विकास की। सच तो यह है कि जिस प्रदेश की भाषा हिंदी मानी जाती है, वहां के लोग भी यह हिंदी नहीं बोलते, जो आज हिंदी कही जाती है। इसलिए उनकी कुरबानी भी कम नहीं है। अगर भोजपुरी लोक संस्कृति नहीं पनप रही है तो खड़ी बोली क्षेत्र की अपनी संस्कृति भी कहीं खो रही है।

दूसरी देखने की बात यह है कि क्या चाहने वालों ने अपनी भाषाओं को आधुनिक युग के अनुरूप बनाना चाहा। ब्रजभाषा के प्रेमियों ने अपने आप को राधा और कृष्ण से बाहर निकालने की कोशिश की? भोजपुरी वाले बिरहा आदि को ही अपनी संस्कृति का चरम विकास क्यों माने बैठे हैं? गुजरातियों ने डिस्को डांडिया स्वीकार कर लिया, तो क्या बिरहा की पुरानी प्रस्तुतिकरण की शैलियां पथरा गई हैं कि उनमें विकास नहीं हो सकता- ठीक वैसे ही जैसे शास्त्रीय संगीत के कठमुल्ले यह माने बैठे हैं कि अब उससे आगे नहीं जाया जा सकता?

(इंडिया टुडे से साभार)

समीक्ष्य पुस्तक - लोक कवि अब गाते नहीं,

उपन्यास - दयानंद पांडेय

प्रकाशक - जनवाणी प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, 30/35-36,

गली नबंर - 9 विश्वास नगर, दिल्ली-110032

पृष्ठ संख्या - 184, मूल्य 200 रूपए

Tuesday, 20 March 2012

का हो अखिलेश, कुछ बदली उत्तर प्रदेश !



प्रिय अखिलेश जी,

आप जानते ही हैं कि हमारे देश के लोग और खास कर उत्तर प्रदेश के लोग साक्षरता से ले कर रोजगार तक में फिसड्डी हैं। विकास की बात करना तो खैर जले पर नमक छिड़कना ही हो जाता है। यह विकास की ही मार है कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के लोगों को भिखारी शब्द से सुशोभित कर जाते हैं और फ़र्जी कागज़ फाडते-फाड्ते आप की ताजपोशी के लिए लाल कालीन बिछा जाते हैं। आप ने हालां कि तभी कह भी दिया था कि चुनाव परिणाम के बाद वह और भी बहुत कुछ फाडेंगे। और देखिए न कि हार स्वीकार करने के बाद वह देश की लोकसभा में भी दिखे नहीं हैं अभी तक। सुना है कि अपनी महिला मित्र के साथ एक परदेसी धरती पर वह दिखे। जहां उन की महिला मित्र के साथ फ़ोटो खींचने के चक्कर में कुछ फोटोग्राफर पिट गए। खैर, वह तो चुनावी मंज़र था आप भी बहुत कुछ दाएं-बाएं बोल गए हैं। कर करा गए हैं। चलिए उन सब को भूल जाते हैं। पर आप से कभी राहुल गांधी की भेंट हो तो उन्हें बताइएगा ज़रुर कि उत्तर प्रदेश के लोग अब देश ही नहीं दुनिया में भी कई शीर्ष पदों पर या अगली कतार में दिखते हैं। और यह कोई आज से नहीं बरसों-बरस से है।

हां, यह सही है कि उद्योग आदि न होने से बहुत सारे बेरोजगार नौजवान मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, आसाम आदि या दुबई, बैंकाक, अफ़्रीका, आस्ट्रेलिया, लंदन, वाशिगटन आदि जगहों पर जाते रहते हैं। कभी आस्ट्रेलिया, कभी आसाम तो कभी मुंबई आदि में पिटते भी रहते हैं। तो इस में उन बिचारों का क्या दोष? यह तो आप राजनीतिज्ञों आदि की ही कृपा है। उन के यहां से जाने में भी और पिटने में भी। नहीं देखिए न जौनपुर से मुंबई गए कांग्रेस के कृपाशंकर सिंह या आज़मगढ से मुंबई गए आप की पार्टी के अबू आज़मी जो कभी मज़दूर थे वहां, अब अरबपति हैं। भले भ्रष्टाचार आदि की तोहमत लग गई तो क्या ! राजनेता होने का कवच तो है ना। और बहुत सारे लोग ऐसे भी है जो दिल्ली मुंबई नहीं गए लखनऊ या अपने गृह जनपद में ही कृपाशंकर सिंह या अबू आज़मी के कान काटे बैठे हैं। किस-किस का नाम लू और किस-किस का न लूं? और कि किस पार्टी में यह भैया लोग नहीं हैं। भ्रष्टाचार, दबंगई, गुंडई आदि में सभी एक दूसरे से अव्वल हैं। बसपा और सपा तो मुफ़्त में बदनाम हैं। क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या पीस, क्या ये, क्या वे सभी पार्टी में एक से एक टापर बैठे हुए हैं। आप इन सब पर कुछ अंकुश आदि का नाटक भी करेंगे या नहीं? या फिर जैसे जे पी ग्रुप या पोंटी चड्ढा आदि पर भी कागजी तलवारें ही भांजेंगे? आखिर इस के पहले भी तो यह लोग आप के ही खेमे में थे।

बताऊं आप को कि मैं ने भी कभी जहाज चलाए हैं। पानी वाले जहाज भी और आसमान वाले भी। तलवार और बंदूक भी। पर बचपन में। खिलौने वाले। कागज की नाव भी। जब कभी बरसात होती थी नाव कहिए जहाज कहिए तुरंत बनाते थे और चला लेते थे। वैसे ही जैसे आप लोग चुनाव का ऐलान होते ही घोषणा पत्र बना लेते हैं, वादे-इरादे गढ लेते हैं। और चुनाव बाद ही भूल जाते हैं। वैसे ही जैसे आप ने चुनाव में डी पी यादव को तो पार्टी में लेने से इंकार कर दिया और साथ ही आज़म खां को तभी नाप में ला कर मोहन सिंह जैसे को शहीद कर दिया। लोगों को बहुत अच्छा लगा। पर यह क्या आप ने निर्दलीय राजा भैया जो पोटा, गैंगेस्टर आदि से सुशोभित हैं, जेल यात्रा आदि में भी निपुण हैं को भी आप ने जेल मंत्री से ही नवाज दिया? निर्दलीय होने के बावजूद। कुछ पत्रकारों ने जाने कैसे सवाल उठा दिया आप के सामने तो आप ने बता दिया कि राजनीतिक दुशमनी के तहत उन पर मुकदमे लिखे गए। संकेतों मे बिना नाम लिए कह दिया कि मायावती ने उन को रंजिश में फंसाया। और कहा कि तारीख देख लो। क्या बात कर रहे हैं अखिलेश जी? तारीख तो यह बताती है कि राजा भैया पर सब से पहले मुकदमा लिखा गया १९८९ में। धारा १४७, १४८, १४९ और ३०७ में। तब आप के पिताश्री मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे । कोई मायावती आदि नहीं। तो क्या आप की भी कभी कोई राजनीतिक रंजिश रही है राजा भैया से? फिर भी मंत्री बना दिया? इतना ही नहीं जब ६ जुलाई, १९९५ को कुंडा के दलेरगंज में राजा भैया ने ३५ मुसलमानों के घर जला दिए गए। इन मुसलमानों के घर ३ दिन तक धू-धू कर जलते रहे थे। आगजनी के बाद मुस्लिम लडकियों के साथ बलात्कार करवा कर उन्हें गायब करवा दिया गया। दलेरगंज में तब सिर्फ़ वृद्ध और अपंग ही बचे रह गए थे। बाकी लोग घर छोड कर भाग गए थे। तब आप के पिताश्री मुलायम सिंह यादव ने हफ़्ते भर तक विधान सभा नहीं चलने दी थी। इन मुसलमानों का कुसूर सिर्फ़ इतना भर था कि उन्हों ने राजा भैया को वोट नहीं दिया था। इन का वोट नियाज़ हसन को चला गया था जो विधान सभा अध्यक्ष रहे थे।

कल्याण सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब उन के साथ प्रतापगढ मैं गया था। चुनाव कवरेज के लिए। उन्हों ने तब राजा भैया को कुंडा का गुंडा कह कर ललकारा था। आज भी अगर गूगल पर कुंडा टाइप कीजिए तो पहले कुंडा का गुंडा ही खुलता है। फिर कुछ और। कल्याण सिंह ने ही राजा भैया पर पहली बार पोटा आदि भी लगाया था। लेकिन पतित राजनीति का खेल देखिए कि कल्याण सिंह ने ही राजा भैया को सब से पहले कैबिनेट मंत्री बनाया। राजा भैया जब राजभवन में शपथ के लिए बैठे थे तब के दिन भी राजा भैया पर वारंट था सो मैं ने तत्कालीन प्रमुख सचिव गृह हरीशचंद्र जी से बताया कि देखिए यहां आप का एक वांटेड अपराधी बैठा हुआ है। वह फ़ौरन चौकन्ने हुए और पूछा कि कहां? मैं ने शपथ लेने वाले मंत्रियों के साथ बैठे राजा भैया को दिखाया तो वह शिथिल पड गए। फीकी मुस्कान फेकते हुए बोले आप भी क्या मजाक करते हैं? यही बात थोडी देर बाद मैं ने तत्का्लीन पुलिस महानिदेशक श्रीराम अरुण से भी कही कि आप का एक वांटेड क्रिमिनल यहां मौजूद है। वह हडबडा गए और फ़ौरन उन का हाथ अपनी रिवाल्वर पर चला गया। पर जब मैं ने उन्हें राजा भैया को दिखाया तो वह भी शांत हो गए। यह तब था कि जब यह दोनों ही अधिकारी ईमानदार और सख्त छवि के माने जाते रहे हैं। बल्कि मैं ने तो श्रीराम अरुण से यह भी कहा कि बताइए अगर आप की जगह हिंदी फ़िल्म का कोई नाना पाटेकर टाइप का पुलिस अफ़सर होता तो क्या करता? यहीं पटक कर पहले राजा भैया को निपटा देता। शपथ-वपथ बाद में होती रहती। पर श्रीराम अरुण बिचारी हंसी, फीकी हंसी हंस कर रह गए।

अखिलेश जी, आप को मालूम ही होगा कि राजा भैया पर अभी भी ३५ से अधिक मामले दर्ज हैं। आप को शायद यह भी मालूम ही होगा कि इलाहाबाद के चौधरी महादेव प्रसाद कालेज से थोडी सी पढाई किए राजा भैया को उन के पिता उदय प्रताप सिंह ने ज़्यादा इस लिए नहीं पढाया क्यों कि उन का मानना था कि ज़्यादा पढाई लिखाई से आदमी कायर बन जाता है। सो देखिए न राजा भैया कायर नहीं हुए और कि उन्हों ने बहादुरी के क्या तो कीर्तिमान स्थापित किए हैं। पोटा, गैंगेस्टर सब से सुशोभित हैं। और आप हैं कि बता रहे हैं कि उन्हें राजनीतिक रंजिश में फंसाया गया है। अरे मायावती और अमर सिंह को एक साथ चिढाना ही था तो कोई और तरकीब आज़माए होते ! यह तरकीब कभी हो सकता है भारी पड जाए।

प्रिय अखिलेश जी, इतनी नादानी किसी सरकार के मुखिया को शोभा नहीं देती। आप के पिताश्री ने इस के पहले अमरमणि त्रिपाठी मामले में भी यही किया था। जब वह मायावती मंत्रिमंडल सुशोभित कर रहे थे तभी मधुमिता को भी उन पर मरवा देने का आरोप लगा। आप के पिताश्री ने ही उन की नाक में दम कर दिया। उन्हें मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पडा। पर यह क्या आप के पिताश्री की जब सरकार बनी तो वही अमरमणि उन के तारनहार बन गए! अब तो खैर वह सपत्नीक जेल की शोभा बढा ही रहे हैं। पर उन के बेटे को आप ने तार दिया है। विधायक बन गया है। आश्चर्य है कि उसे मंत्री नहीं बनाया। आज़म खां से लगायत शिवपाल, बलराम यादव, राजाराम पांडेय आदि सभी तो आप के चाचा ही हैं।संबंध ही में नहीं राजनीति में भी। ज़रा सावधान रहिएगा। आप के पिता्श्री ने आप को मुख्यमंत्री बनाया पुत्र मोह में ही सही यहां तक तो ठीक था। पर यह जो अपनी शिव जी की बारात भी आप के मत्थे डाल दी है इस की आप को क्या-क्या कीमत आने वाले दिनों में चुकानी पडेगी, आने वाले दिन ही बताएंगे। तिस पर आप को अपने कार्यालय में भी अनिता सिंह जैसी चाचियों से भी निभानी पडेगी। सच आप के पिताश्री ने यह सब कर के कतई ठीक नहीं किया है। आशीर्वाद दे कर कह तो दिया है मुलायम ने कि आप अपने कुर्ते पर दाग न आने दें। पर जो तमाम दागी मंत्रियों और अफ़सरों की फौज से आप को रुंध दिया है, उस का क्या करेंगे आप? इन बंधनों और बाधाओं से कैसे छुटकारा पाएंगे? आप के साथ जाने-अनजाने हो यही गया है कि कोई आप के पंख काट कर आप के हाथ में थमा दे और पूछे कि भाई आप उड क्यों नहीं रहे? मुझे तो डर लग रहा है कि बहुमत की सरकार के बावजूद आप की गति कहीं मनमोहन सिंह से भी बुरी न हो जाए। भगवान बचाए आप को इस बला से ! खुदा महफ़ूज़ रखे हर बला से !

आप के पिताश्री मुलायम सिंह की राजनीति और कार्यशैली से मैं ही क्या बहुतेरे वाकिफ़ हैं। मैं ने तो बार-बार आप के पिताश्री को कवर भी किया है, साथ में यात्राएं की हैं, बहुत सारे इंटरव्यू किए हैं। बल्कि एक बार तो जान जाते-जाते बची है। तब १९९८ में मुलायम सिंह यादव संभल से चुनाव लड रहे थे। हम कुछ पत्रकार कवरेज के लिए संभल जा रहे थे। कि एक ज़बर्दस्त एक्सीडेंट हो गया। सीतापुर के पहले खैराबाद में। हमारी अंबेसडर और ट्रक आमने-सामने लड गए। हमारे साथी जयप्रकाश शाही और ड्राइवर का तो मौके पर ही निधन हो गया। मैं और गोपेश पांडेय किसी तरह बच गए। आप के पिता ने तब हमारे इलाज और देख रेख में कोई कसर नहीं छोडी थी। सब से पहले देखने आने वालों में भी वही थे। मैं जानता हूं कि ऐसे और भी तमाम लोगों की मदद वह निरंतर करते रहे हैं। चाहे सत्ता में रहे हों चाहे सत्ता से बाहर।

अभी ताज़ा कडी बने हैं अदम गोंडवी। उन के इलाज में भी, देख-रेख में भी आप के पिता ने कोई कमी न होने दी। अब वह नहीं बच सके, यह अलग बात है। सो कहने का कुल मतलब यह कि मुलायम सिंह यादव की नियति और नीति से बार-बार वाबस्ता रहे हैं। हम या हमारे जैसे लोग। सो समझ में आ जाता है कि वह अब क्या कहेंगे और क्या फ़ैसला करेंगे? अभी आप का देखना बाकी है। तुरंत-तुरंत कुछ भी कहना जल्दबाज़ी ही है। लेकिन अभी जो पूत के पालने वाले पांव दिख रहे हैं, वह बहुत आश्वस्त नहीं करते, यह कहने में तनिक भी संकोच मुझे नहीं है। अभी जो मायावती राज में उत्तर प्रदेश दलित उपनिवेश में तब्दील हो गया था, लग रहा है अब यादव उपनिवेश की आहट है। मायावती राज में जैसे ब्राह्मणवाद की भी छौंक दीखती थी,लोग खांस रहे थे, अब मुस्लिमवाद की छौंक में लोग खांस रहे हैं। उत्तर प्रदेश की सेहत के लिए न वह ठीक था, न यह ठीक है। संतुलन बना कर चलने में हर्ज़ क्या है? फिर आप और आप के पिताश्री तो लोहिया की माला जपने वाले हैं। लोहिया तो इन सब चीज़ों को रत्ती भर पसंद नहीं करते थे। तो आप के गले से यह सब कैसे उतर रहा है? आप के पिताश्री तो खैर लोहिया लोहिया जपते रहते थे और यह सब भी करते रहते थे, अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में। लोहिया के लगभग सभी सिद्धांतों को वह तिलांजलि दे कर राजनीति करने के आदी हैं।

संचय के खिलाफ़ थे लोहिया। पर मुलायम पर आय से अधिक संपत्ति का मामला आज भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। वंशवाद या परिवारवाद के खिलाफ़ थे लोहिया। पर देखिए न आप का पूरा परिवार सत्ता में लोट-पोट है। आप खुद अपने पिता की विरासत संभाल ही बैठे हैं। जिस कांग्रेस के खिलाफ़ लोहिया आजीवन लडते रहे, आप लोग उस कांग्रेस से पहले खुद दूध पीते रहे, अब उसे ही दूध पिला रहे हैं। तो यह सब क्या है? यह और ऐसी तमाम बातें हैं जो लोहिया के खिलाफ़ आप लोग करते ही रहते हैं। यह ठीक नहीं है। न आप के हित में, न आप की पार्टी और सरकार के हित में, न ही उत्तर प्रदेश या देश के हित में। ठीक वैसे ही जैसे आप ने ऐलान किया है कि मायावती द्वारा बनवाए गए स्मारकों से आप मूर्तियां तो नहीं हटवाएंगे पर स्कूल या पार्क बनवाएंगे। यह भी ठीक नहीं है। आप बार-बार कह रहे हैं कि बदले की कार्रवाई नहीं करेंगे। पर है यह बदले ही की कार्रवाई। आप माने या न माने। नाक आगे से पकडिए चाहे पीछे से। बात एक ही है। अंबेडकर हों या कांशीराम, एक बार आप उन से असहमत हो सकते हैं, कोई बात नहीं दस बार नहीं हज़ार बार होइए। पर वह हमारे समाज की साझी धरोहर हैं, यह भी मान लेने में कोई नुकसान नहीं है। उन स्मारकों या पार्कों में हुई धांधली पर तो आप पूरी कार्रवाई करिए। पर वहां स्कूल या अस्पताल बनाना तर्क सम्मत नहीं है। बहुत ज़मीन पडी है उत्तर प्रदेश में। जितने चाहिए उतने स्कूल या अस्पताल बनाइए। पर बदले की यह कार्रवाई ठीक नहीं है। कम से कम आप की सरकार के हित में तो कतई नहीं। न हो तो एक बार पीछे मुड कर इतिहास पर नज़र डाल लीजिए। आप के पिताश्री के एक गुरु हैं चौधरी चरण सिंह। जनता पार्टी की सरकार में जब केंद्रीय गृहमंत्री बने तो इंदिरा गांधी के खिलाफ़ इतने आयोग पर आयोग बिठा दिए कि जिस इंदिरा गांधी को जनता ने एकदम साफ कर दिया था, उसी इंदिरा गांधी को वापस आने में पांच साल भी नहीं लगे। ढाई साल में ही जनता ने फिर जनता पार्टी को धूल चटा कर इंदिरा गांधी को वापस दिल्ली में सत्ता दे दी। तो यह और ऐसी गलतियों से बचें तो ही आप का और उत्तर प्रदेश का भला होगा। टकराव से तो सब का नुकसान ही होगा। यह सही है कि जनता ने मायावती की मूर्तियों और पत्थरों को बिलकुल पसंद नहीं किया । पर जो आप भी करने के लिए कह रहे हैं, जनता यह भी पसंद नहीं करेगी।

अच्छा होगा अखिलेश जी कि मतभेद और रगडा-झगडा छोड कर उत्तर प्रदेश को विकास की राह पर ले जाएं। जनता ने आप के रुप में विकास का सपना देखा है, विनाश का नहीं। नहीं कल को वापस आ कर मायावती या कोई और लोहिया पार्क में भी स्कूल य अस्पताल खोलने की बात करने लगेगा। तो ऐसी बातों का कभी अंत होता नहीं। किस-किस स्मारक या पार्क को स्कूल या अस्पताल में बदलेंगे हम लोग भला? अभी तो पहले तो अपनी पार्टी के लोगों को अनुशासन में बांधिए और कहिए कि दबंगई छोड कर शांति कायम करें। नहीं अभी पांच साल पहले ही एक नारा लगा था कि चढ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगा हाथी पर ! तो तब हाथी का राज आ गया था। पर जो अभी-अभी आप हाथी को साइकिल से रौंद कर राज करने आए हैं, तो ऐसा कुछ मत करिए कि जल्दी ही हाथी फिर लौट आए। या फिर क्षेत्रीय पार्टियों से लोग ऊब कर पंजा या कुछ और देखने लग जाएं। अभी तो देखिए न हमारे गांव से एक बुजुर्गवार आए हैं। चुनाव के समय आप का भाषण सुन कर बहुत मोहित थे आप पर। माफ़ कीजिए आप का भाषण सुन कर नहीं बल्कि आप के भाषण में बेरोजगारी भत्ता की बात सुन कर मोहित थे। वह मेरे पीछे पडे हैं कि आप से उन को मिलवा दूं। मैं ने उन्हें बता दिया है कि आप व्यस्त बहुत हैं, मिल नहीं पाएंगे। पर वह चाहते हैं कि किसी तरह उन की बात आप तक पहुंच जाए। तो अखिलेश जी, यह चिट्ठी दरअसल उन्हीं की बात कहने के लिए लिखनी शुरु की थी। माफ़ कीजिए और भी बहुत कुछ दाएं-बाएं की बातें लिख गया। तो उन बुजुर्गवार का कहना है कि उन को तो आप ने ठग लिया। और उन को ही क्यों उन का तो कहना है कि सगरो जवार को ठग लिया। सब ने आप को इसी एक आसरे पर वोट दिया था। अब सब का आसरा टूट गया है। वह कह रहे हैं कि जब आप ने बेरोजगारी भत्ता का भाषण दिया था तब कोई उम्र की सीमा नहीं बताई थी। कि पैतीस के बाद ही बेरोजगारी भत्ता मिलेगा। उन के तीन बेटे और एक बेटी है। सब पढे-लिखे बेरोजगार हैं। अभी पैतीस वर्ष का होने में दस साल से भी ज़्यादा का टाइम है। मैं ने उन्हें बताया है कि घोषणा-पत्र में साफ लिखा है पैतीस साल के बाद। तो उन्हों ने मुझे साफ डपट दिया कि भाषण के समय कोई घोषणा पत्र नहीं बंटा था।

अब उन्हें हम कैसे समझाएं और कि क्या समझाएं अखिलेश जी? आप ही बताएं। बेरोजगारी भत्ता के साथ-साथ रोजगार की भी तमाम योजनाएं क्या नहीं चला सकते आप? आखिर बहुमत की सरकार है आप की। कुछ भी कर सकते हैं आप। आप युवा हैं। एक युवा की तडप और वह भी रोजगार की तडप क्या आप नहीं जानते होंगे? मेरा मानना है कि ज़रुर जानते होंगे। बंगाली में एक कहावत कही जाती है कि किसी को खाने के लिए मछली देने से अच्छा है कि उसे मछली मारना सिखा दीजिए। आप भी आखिर यही क्यों नहीं कर देते? आखिर कब तक बेरोजगारी भत्ता दे कर प्रदेश के युवाओं को भिखारी बनाए रखेंगे? अब देखिए यह चिट्ठी आप को भेजने जा ही रहा था कि तीन चार दिन पुराना अखबार दिख गया। जिस में हमारे एक बुजुर्ग लेखक अमरकांत जी को ज्ञानपीठ सम्मान देने की खबर छपी है। उन्हों ने सम्मान लेने के साथ ही एक बयान भी जारी किया है। दरअसल उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लेखकों को जो हर साल सम्मान या पुरस्कार देता था उसे मायावती ने अपनी तानाशाही के चलते रद्द कर दिया था। तो अमरकांत जी चाहते हैं कि उसे मुलायम सिंह बहाल करें। अखिलेश जी, अगर आप इस पर भी विचार कर सकेंगे तो खुशी होगी|

हां, यह चिट्ठी थोडी सी नहीं बहुत बडी हो गई है। क्या करें बातें ही बहुत हैं। अभी भी बहुत सारी बातें रह गई हैं। जो कभी फिर सही। एक बात और बताऊं कि मन करेगा तो ऐसे ही आप को और भी चिट्ठियां मैं लिखता रहूंगा। लोगों की बातों को बताने के लिए। इस लिए भी कि मैं जानता हूं कि आप की अफ़सरशाही, कार्यकर्ता और अखबार, चैनल सब के सब अब चाटुकार हो गए हैं। बिकाऊ और पालतू हो गए हैं। जो बात आप को पसंद होगी वही बात आप से कहेंगे। बाकी पी जाएंगे। अब देखिए न कि मायावती ने अफ़सरों को इतना टाइट कर दिया कि बेचारे अपनी ही बात कहना भूल गए। क्या आइ ए एस क्या आइ पी एस क्या पी सी एस, पी पी एस सबने अपनी सालाना वीक तक मनाने की वर्षों की परंपरा तक तोड दी इन पांच सालों मे। तो जो लोग अपनी बात कहने में भी कायर या नपुंसक होने की हद तक चले जाएं उन अफ़सरों से आप उम्मीद करें कि वे जनता का दुख दर्द बता कर या आप की गलतियों को बता कर आ बैल मुझे मार कहेंगे? क्या वैसे ही एक नान आइ ए एस कैबिनेट सेक्रेट्री बन कर इन पर सालों रुल कर गया? और ये अपने को रुलर के खांचे से बाहर भी नहीं निकाल पाए। अब तो यह अफ़सर पिंजडे में इतने दिन बंद रह चुके हैं कि आप बाहर भी जो गलती से निकाल देंगे तो ये उड नहीं पाएंगे। कोई कुत्ता बिल्ली भले इन्हें मार कर खा जाए। रही बात अखबारों और चैनलों की तो उन की हालत तो इन अफ़सरों से भी गई बीती है। यह अब दुकानें हैं। जब जिस की सत्ता है, तब तिस के अखबार हैं, तब तिस के चैनल हैं। अभी तक मायावती के थे, अब आप के हैं। अब बचे आप के कार्यकर्ता। तो सत्ता पाने के बाद वह होश में भी हैं भला? वैसे भी नीचे की नेतागिरी अब और गिर गई है जैसे ऊपर की। सो चिट्ठी मैं लिखता रहूंगा। आप और आप की मशीनरी बुरा माने चाहे भला। हम तो चिट्ठी लिख-लिख कर पूछ्ते ही रहेंगे कि का हो अखिलेश, कुछ बदली उत्तर प्रदेश!

आप का,
दयानंद पांडेय