Friday 22 July 2022

कहां प्रेमचंद , कहां संजीव !

दयानंद पांडेय 


प्रेमचंद तो बेहद पठनीय लेखक हैं। बेहद लोकप्रिय भी। आप प्रेमचंद से बहुत जगह सहमत या असहमत हो सकते हैं पर उन की पठनीयता पर प्रश्न नहीं उठा सकते। वहीं संजीव बेहद अपठनीय लेखक हैं। घनघोर जातिवादी। लेकिन राजेंद्र यादव ने उन का प्रभा मंडल बना दिया। उस प्रभा मंडल का शव कुछ लोग लादे हुए अभी तक घूम रहे हैं। हां , संजीव की इच्छा ज़रुर प्रेमचंद को छूने की रही है। लेकिन प्रेमचंद का नाख़ून भी नहीं छू सके हैं। क्यों कि जातिवादी हो कर एक तो आप बड़े लेखक नहीं हो सकते। दूसरे लेखक का प्रभामंडल पाठक बनाते हैं। संपादक या आलोचक नहीं। संपादक या आलोचक किसी लेखक की शान में पटाखे तो फोड़ सकते हैं , लेखक की शान में बैंड तो बजा सकते हैं , लेखक को पठनीय नहीं बना सकते। लोकप्रिय नहीं बना सकते। जैसा कि प्रेमचंद को उन के पाठकों ने लोकप्रिय बनाया। अभी तक बनाए हुए हैं। इस लिए भी कि प्रेमचंद बेहद पठनीय लेखक हैं।  प्रेमचंद के तमाम खल-पात्र ब्राह्मण हैं। प्रेमचंद ब्रिटिश राज के लेखक हैं। ब्रिटिश राज में ब्राह्मण भी सामान्य प्रजा ही था। बल्कि भिखमंगा था। जब कि प्रेमचंद के समय में गांव में सब से बड़े खल-पात्र कायस्थ हुआ करते थे। कायस्थ मतलब पटवारी। लेखपाल। गांव की जर-ज़मीन के तमाम विवाद पटवारी की ही देन थे। आज भी हैं।  पर प्रेमचंद की कथा में कहीं भी किसी भी रचना में कोई पटवारी खल-पात्र उपस्थित नहीं है। लेकिन इस एक कारण से प्रेमचंद का लेखक छोटा नहीं पड़ता। कहीं भी। कभी भी। फिर यह लेखक का विवेक है कि किसे नायक बनाए , किसे खलनायक। लेकिन देखिए कि प्रेमचंद को स्थापित किस ने किया ? गढ़ा किस ने ?  महावीर प्रसाद द्विवेदी ने। रामचंद्र शुक्ल ने। इन लोगों ने कभी यह नहीं कहा या कहीं यह लिखा कि प्रेमचंद तो ब्राह्मण के ख़िलाफ़ लिखते हैं। रामचंद्र शुक्ल तुलसी के बाद अगर किसी की घनघोर प्रशंसा करते हैं तो प्रेमचंद की। स्थापित करते हैं प्रेमचंद को। स्थाई तौर पर। परमानंद श्रीवास्तव की तरह तुरंता तौर पर नहीं। अवध उपाध्याय जैसे निंदक आलोचक भी थे प्रेमचंद के। अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद पर चोरी का आरोप भी लगाया। ख़ास कर रंगभूमि पर। पर आज अवध उपाध्याय को कितने लोग जानते हैं ? प्रेमचंद को लेकिन दुनिया जानती है। 

प्रेमचंद की शुरुआती कहानी है पंच परमेश्वर। प्रेमचंद ने जब सरस्वती में इसे छपने भेजा तो महावीर प्रसाद द्विवेदी संपादक थे सरस्वती के। प्रेमचंद ने कहानी का शीर्षक दिया था पंचों के भगवान। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस कहानी में न सिर्फ़ कई संशोधन किया , पुनर्लेखन किया बल्कि शीर्षक भी बदल कर पंचों के भगवान की जगह पंच परमेश्वर कर दिया। पंचों के भगवान और पंच परमेश्वर में कितनी दूरी है , कहने की ज़रुरत नहीं है। प्रेमचंद में जातीय अहंकार नहीं था। संजीव में बहुत है। जातीय जहर में डूब कर कोई बड़ा लेखक नहीं बन सकता। पठनीय भी कैसे बन सकता है भला। एक पत्रकार हैं दिलीप मंडल। बेहद प्रतिभावान। पर जातीय जहर में आकंठ डूब कर अपनी प्रतिभा को ख़ुद ही कुचल बैठे हैं। पर यह जातीय जहर उन की दुकानदारी है। ख़ूब पैसा पीट रहे हैं। लेकिन संजीव तो अपनी रचनाओं और टिप्पणियों में जहर बो कर भी पैसा नहीं पीट रहे। जैसे पठनीयता में विपन्नता ही उन की पूंजी है वैसे ही आर्थिक मामले में भी वह विपन्न ही हैं। दिलीप मंडल की तरह पैसे नहीं पीट रहे , जातीय जहर से। राजेंद्र यादव ने हंस में संजीव को कार्यकारी संपादक ज़रुर बनाया था पर ऐसे जैसे उन पर बड़ी कृपा कर रहे हों। सिर्फ़ दस हज़ार रुपए ही वेतन भी देते थे। इतने कम वेतन में दिल्ली में गुज़ारा मुश्किल ही नहीं , बहुत मुश्किल होता है। 

ख़ैर , वाल्मीकि , वेदव्यास , कालिदास , भवभूति , कबीर , तुलसी , मीरा , सूर , जायसी , रसखान , रहीम , मीर , ग़ालिब , से लगायत टैगोर , बंकिम , टालस्टाय , ब्रेख्त , नेरुदा , शेक्सपीयर , शरतचंद्र , प्रेमचंद , महाश्वेता देवी , आशापूर्णा देवी आदि किसी के यहां भी जातिवाद का जहर मिलता हो तो कृपया बताएं। जातीय जहर आदमी को आदमी नहीं रहने देता। तो रचना कैसे बड़ी होगी भला जातीय जहर का खाद पानी ले कर। लेखक तो अंतत: टुच्चा ही साबित होगा। जाति या धर्म का जहर रचना और लेखक दोनों को छोटा बना देती है। यह बात बारंबार सिद्ध हुई है। होती रहेगी। वामपंथी लेखन अचानक शोषक और शोषित के द्वंद्व से निकल कर कब जातीय जहर की खोह में समा गया , इस पर शोध होना चाहिए। 

ख़ैर , रही बात आलोचकों के नाम पर कुछ कुकुरमुत्तों की तो इन की इन दिनों पौ बारह है। आज के यह कुकुरमुत्ते आलोचक तारीफ़ करते समय दरबारी बन जाते हैं और आलोचना करते समय असभ्य। संजीव को ले कर नरेश सक्सेना की बात भी बहुत हो रही है। नरेश सक्सेना ने कुछ कविताएं बहुत अच्छी लिखी हैं पर मंच पर आते ही वह बिखर जाते हैं। बहक जाते हैं। फिसल-फिसल जाते हैं। कुछ का कुछ बोल जाते हैं। अपने कहे पर अटल भी नहीं रहते। तुरंत ही बदल जाते हैं। छीछालेदर की हद तक। फिर कहानी उन का विषय नहीं है। लेकिन अखिलेश की कहानी वह ट्रेन के ट्वायलेट के पास भी जा कर पढ़ने का अतिरेक बता जाते हैं। जब कि अखिलेश भी अपठनीय लेखकों में शुमार हैं। बेहद अपठनीय लेखक हैं अखिलेश। हां , तद्भव के संपादक वह भले हैं। तमाम विवाद के बावजूद तद्भव में पठनीयता है। रवि भूषण तो एक लीगल नोटिस से डर जाने वालों में से हैं। आलोचना क्या खा कर करेंगे भला। वीरेंद्र यादव प्रेमचंद तक ही अपने को सीमित रखें तो बेहतर। अखिलेश , महुआ माजी आदि की बात करते समय वह दरबारी बन जाते हैं। उन का अध्ययन , उन की विद्वता का विरवा इस फेर में झुलस जाता है। तब जब कि महुआ माजी पर रचना चोरी का आरोप सिद्ध हो चुका है। कम से कम दो उपन्यास उन के चोरी के हैं। अब वह झारखंड का मंत्री स्तर का सरकारी पद भोग रही हैं। नरेश जी की तरह वीरेंद्र यादव भी अकसर बिखर और बहक जाते हैं। संतुलित नहीं रह पाते वह। वैचारिकी के विचलन का बोझ भी बहुत है उन के ऊपर। नतीज़तन वीरेंद्र यादव आलोचक नहीं , एक्टिविस्ट आलोचक बन कर उपस्थित हैं। चुनी हुई चुप्पियां , चुने हुए विरोध का जाल बहुत बड़ा है उन का। वह भूल गए हैं कि पूर्वाग्रह आप को बड़ा नहीं , छोटा बना देता है। जीवन हो या रचना या आलोचना। हर कहीं। बाक़ी हमारे यहां शव पर भी फूल चढ़ा कर सम्मान देने की परंपरा है। आप चढ़ाते रहिए फूल। रोक भी कौन रहा है। एक पूर्व सांसद की अंगरेजी में जो कहूं , हाऊ कैन यू रोक !

अच्छा यह बताइए कि चतुरसेन शास्त्री , अज्ञेय , मोहन राकेश , धर्मवीर भारती , कमलेश्वर , शिवानी , मन्नू भंडारी , मनोहर श्याम जोशी , ममता कालिया आदि तमाम महत्वपूर्ण लेखकों की चर्चा नामवर सिंह या अन्य आलोचकों ने भी नहीं की तो क्या यह लेखक ख़त्म हो गए ? ख़त्म हो जाएंगे भला ? इन के पाठक इन्हें मर जाने देंगे ? ऐसे तमाम लेखक और कवि हैं जिन के पाठक उन्हें जीवित बनाए रखते हैं। बनाए रखेंगे। आलोचक या संपादक नहीं। 

सौ बात की एक बात जब रचना बड़ी होती है तो आलोचक भी बड़ा होता है। रचना ही आलोचक को बड़ा बनाती है। मतलब यह कि रचना बड़ी तो आलोचक बड़ा। उदाहरण दे कर कहूं तो रामचंद्र शुक्ल आलोचक बड़े बने तो तुलसीदास और प्रेमचंद की रचना के कारण बने। रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी और प्रेमचंद को ऐसा स्थापित किया कि आज तक तमाम ज़ोर के बावजूद कोई हिला न पाया। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसी तरह कबीर को स्थापित किया। रामविलास शर्मा बड़े आलोचक बने तो इस लिए कि निराला की रचना बड़ी थी। रामचंद्र शुक्ल , हजारी प्रसाद द्विवेदी , राम विलास शर्मा कभी किसी का दरबारी बन कर या असभ्य बन कर कुछ नहीं लिखते दिखते। स्पष्ट है कि आलोचक न रचना को बड़ा बना सकता है , न लेखक को। छोटी रचना को बड़ा बताने के चक्कर में आलोचक ख़ुद भी बौना बन जाता है। संजीव प्रसंग में दुर्भाग्य से यही हो गया है। आलोचक तो साधू होता है। अध्ययन का साधू। किसी खूंटे से बंध कर नहीं रहता। रमता जोगी , बहता पानी की तरह नहीं है आलोचक तो फिर काहे का आलोचक। कबीर कहते ही हैं :

जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।

मोल करो तलवार को पड़ा रहन दो म्यान ॥

तो लेखक और आलोचक को भी कबीर की राह चलना चाहिए। जातीय जहर से भरसक बचना चाहिए। रचना में भी , जीवन में भी। गोरख के शबद में जो कहूं :

मरो वै जोगी मरौ, मरण है मीठा। 

मरणी मरौ जिस मरणी, गोरख मरि दीठा॥ 

गोरख यहां अहंकार को मारने की बात करते हैं। गोरख वैसे भी कवियों के कवि हैं। कबीर , मीरा , नानक , जायसी आदि गोरख की शाखाएं हैं। गोरख की एक लंबी परंपरा है। पर हमारे आज के कवि , लेखक , आलोचक जाने किस अहंकार में चूर हैं। यह सारे विवाद अहंकार से ही उपजे हुए हैं। रही सही कसर वैचारिकी का कब्ज़ या वैचारिकी की पेचिश निकाल देती है। कहते ही हैं कि अज्ञान आदमी को अहंकारी बना देता हैं। 

प्रेमचंद तो गांधीवादी हैं। बतौर व्यक्ति भी और लेखक भी। लेकिन लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की अध्यक्षता की बिना पर प्रेमचंद को वामपंथी बना दिया जाता है। यह बहुत ही हास्यास्पद है। लगे हाथ एक बात और। वामपंथ की खाल ओढ़े लेखकों और आलोचकों ने एक ग्रंथि और बना दी है कि अगर आप वामपंथी नहीं हैं तो लेखक नहीं हैं। कवि नहीं हैं। आलोचक नहीं हैं। आदमी ही नहीं हैं। ग़ज़ब है यह नैरेटिव भी। एक कथा याद आती है। आप भी सुनिए। 

एक पुराना क़िस्सा है। एक बार एक आदमी किसी महत्वपूर्ण आदमी के पास गया। और कहा कि आप के लिए एक दैवीय वस्त्र ले आया हूं। वह व्यक्ति बहुत ख़ुश हुआ। कि वह दैवीय वस्त्र धारण करेगा। पर तभी उसे याद आया कि राज्य के एक मंत्री से उसे काम था। फिर उस ने सोचा कि क्यों न वह यह दैवीय वस्त्र उस मंत्री को भेंट कर दे। मंत्री ख़ुश हो जाएगा और उस का काम बन जाएगा। सो उस ने उस व्यक्ति से अपनी मंशा बता दी कि वह यह दैवीय वस्त्र उसे दे दे ताकि वह मंत्री को दे सके। उस व्यक्ति ने बताया कि यह दैवीय वस्त्र वह ख़ुद ही पहना सकता है। कोई और नहीं पहना या पहन सकता है। सो वह व्यक्ति मंत्री के पास उस आदमी को ले कर गया। मंत्री भी बहुत ख़ुश हुआ कि उसे दैवीय वस्त्र पहनने को मिलेगा। फिर वह बोला कि राजा के सामने मैं दैवीय वस्त्र पहनूंगा तो यह अच्छा नहीं लगेगा। ऐसा करते हैं कि यह दैवीय वस्त्र राजा को भेंट कर देते हैं। 

अब मंत्री उस दैवीय वस्त्र वाले आदमी को ले कर राजा के पास पहुंचा। राजा को दैवीय वस्त्र के बारे में बताया। और कहा कि यह आप को भेंट देने के लिए आया। राजा बहुत ख़ुश हुआ। मंत्री से कहा कि आप लोग मेरा इतना ख़याल रखते हैं , ऐसा जान कर बहुत अच्छा लगा। राजा दैवीय वस्त्र पहनने के लिए राजी हो गया। उस आदमी ने कहा कि दैवीय वस्त्र पहनने के लिए स्नानादि कर लें। फिर मैं पहनाऊं, इसे। राजा नहा-धो कर आए तो उस आदमी ने सब से कहा कि राजा को छोड़ कर सभी लोग बाहर चले जाएं। लोग कक्ष से बाहर निकल गए। अब राजा से उस आदमी ने कहा कि जो भी वस्त्र देह पर हैं , सब उतार दें। राजा ने उतार दिया। आदमी ने कहा कच्छा भी उतारिए। राजा ने आपत्ति की कि यह कैसे हो सकता है। आदमी ने कहा , दैवीय वस्त्र पहनने के लिए निकालना तो पड़ेगा। राजा ने बड़ी हिचक के साथ कच्छा भी उतार दिया। अब उस आदमी ने अपने थैले से कुछ निकाला जिसे राजा देख नहीं सका। फिर उस आदमी ने कुछ मंत्र पढ़ते हुए प्रतीकात्मक ढंग से राजा को दैवीय वस्त्र पहना दिया। और राजा से कहा कि अब कक्ष से बाहर चलें महाराज ! 

राजा ने पूछा , इस तरह निर्वस्त्र ? वह आदमी बोला , क्या कह रहे हैं , राजन ? क्या आप को दैवीय वस्त्र नहीं दिख रहा ? राजा ने कहा , बिलकुल नहीं। आदमी ने कहा , राम-राम ! ऐसा फिर किसी से मत कहिएगा। राजा ने पूछा , क्यों ? आदमी ने बताया कि असल में जो अपने पिता का नहीं होता , उसे यह दैवीय वस्त्र कभी नहीं दिखता। राजा बोला , ऐसा ! आदमी ने कहा , जी ऐसा ! अब राजा ने फ़ौरन पैतरा बदल दिया। दैवीय वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा शुरु करने लगा। राजा निर्वस्त्र ही बाहर आया तो लोग चौंके। कि राजा इस तरह नंगा ! पर लोग कुछ बोलते , उस के पहले ही उस आदमी ने लोगों को बताया कि जो आदमी अपने बाप का नहीं होगा , उस को यह दैवीय वस्त्र नहीं दिखेगा। राजा ने फिर से वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा शुरु की। राजा की देखा-देखी मंत्री समेत सभी दरबारी लोग भी राजा के दैवीय वस्त्र की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। कि क्या तो वस्त्र है ! कैसी तो चमक है ! ऐसा बढ़िया वस्त्र कभी देखा नहीं आदि-इत्यादि। अब चूंकि राजा ने दैवीय वस्त्र पहना था तो तय हुआ कि इस ख़ुशी में नगर में राजा की एक शोभा यात्रा निकाली जाए। 

राजा की शोभा यात्रा निकली नगर में। पूरे नगर की जनता देख रही थी कि राजा नंगा है। पर शोभा यात्रा के आगे-आगे प्रहरी नगाड़ा बजाते हुए उद्घोष करते हुए चल रहे थे कि आज राजा ने दैवीय वस्त्र पहन रखा है। लेकिन जो अपने बाप का नहीं होगा , उसे वह यह वस्त्र नहीं दिखेगा। जो अपने बाप का होगा , उसे ही यह दैवीय वस्त्र दिखेगा। अब नगर की सारी जनता राजा के दैवीय वस्त्र का गुणगान कर रही थी। भूरि-भूरि प्रशंसा कर रही थी। राजा के दैवीय वस्त्र के बखान में पूरा नगर मगन था। राज्य के किसी गांव से एक व्यक्ति भी अपने छोटे बच्चे को कंधे पर बिठा कर नगर आया था। बच्चे ने अपने पिता से पूछा , बापू राजा नंगा क्यों है ? उस व्यक्ति ने अपने बच्चे को दो थप्पड़ लगाया और बोला , राजा इतना बढ़िया कपड़ा पहने हुए है और तुझे नंगा दिख रहा है ? बच्चा फिर बोला , लेकिन बापू , राजा नंगा ही है ! अब गांव घर पहुंच कर उस आदमी ने अपनी पत्नी की अनायास पिटाई कर दी। पत्नी ने पूछा , बात क्या हुई ? वह व्यक्ति बोला , बोल यह बच्चा किस का है ? पत्नी बोली , तुम्हारा ही है। इस में पूछने की क्या बात है भला ? उस आदमी ने कहा , फिर इसे राजा का दैवीय वस्त्र क्यों नहीं दिखा ? बच्चा बोला , पर बापू राजा नंगा ही था ! उस आदमी ने फिर से बच्चे और पत्नी की पिटाई कर दी !

वामपंथी बिरादरी ने लेखकों में यही भ्रम फैला रखा है कि अगर आप वामपंथी नहीं हैं तो अपने बाप के नहीं हैं। सो सब के सब घर में घंटी बजा कर आरती गाते हुए बाहर वामपंथी बने हुए हैं। रचना और आलोचना कौड़ी भर की नहीं है पर वामपंथी होने की खाल ओढ़ कर , भ्रम भूज कर आप बहुत बड़े लेखक और आलोचक बनने की सुविधा और प्राथमिकता पा लेते हैं। नंगा राजा बने घूम रहे हैं। गुड है , यह भी ! 


1 comment:

  1. ज्ञान वर्धक आलेख,साथ ही साथ कहानी का
    तड़का इस प्रस्तुति को और सारगर्भित बना देता है, साहित्य कार जो देखता है वहीं लिखता है साहित्य समाज का दर्पण है। और दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता। रचना कार बधाई अभिनंदन के पात्र हैं। प्रतिक्रिया सूबेदार पाण्डेय कवि आत्मानंद जमसार सिंधोरा बाजार वाराणसी पिन कोड २२१२०८
    मोबाइल ६३८७४०२६६
    हिंदी दिवस की बधाई।

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