Sunday 5 April 2020

ये दीपक जला है , जला ही रहेगा


आज कोरोना की खुशी में खुश , मोदी विरोधियों की आज की नई पीढ़ी को शायद नहीं मालूम , पुराने भी शायद भूल गए होंगे तो उन्हें बता दूं कि दिया जलाने का आह्वान कर के नरेंद्र मोदी ने उन के खिलाफ एक और साज़िश की है। साज़िश यह कि भाजपा का नाम पहले भारतीय जनसंघ था। और जनसंघ का चुनाव चिन्ह जलता हुआ दिया था। यानी दीपक। बल्कि उन्हीं दिनों मनोज कुमार निर्देशित और अभिनीत एक फिल्म आई थी पूरब और पश्चिम। यह 1970 की बात है। हम भी तब बच्चे ही थे। पर इस सुपर डुपर फिल्म में इंदीवर का लिखा , कल्याण जी आनंद के संगीत में सजा , मुकेश का गाया एक गीत बहुत मशहूर हुआ था , आज भी खूब बजता है :

कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे
तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे
तब तुम मेरे पास आना प्रिये
मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा

इसी गीत का अंतिम बंद था :

कोई शर्त होती नहीं प्यार में
मगर प्यार शर्तों पे तुमने किया
नज़र में सितारे जो चमके ज़रा
बुझाने लगीं आरती का दिया
जब अपनी नज़र में ही गिरने लगो
अंधेरों में अपने ही घिरने लगो
तब तुम मेरे पास आना प्रिये
ये दीपक जला है जला ही रहेगा 

तब भी मनोज कुमार पर आरोप लगा था कि , ये दीपक जला है जला ही रहेगा , जनसंघ ने अपने लिए उन की फिल्म में लिखवाया था। मनोज कुमार को तब भगवाधारी भी घोषित किया गया था। लेकिन इस गीत का दीपक तो आज भी जल रहा है। और देखिए कि नरेंद्र मोदी ने फिर से अपनी पुरानी पार्टी जनसंघ के प्रचार के बहाने भाजपा का प्रचार पूरे देश पर थोप दिया है। 

1961 में आई फिल्म भाभी की चूड़ियां में भी पंडित नरेंद्र शर्मा का लिखा सुधीर फड़के के संगीत में लता मंगेशकर द्वारा गए गीत ज्योति कलश छलके भी खूब लोकप्रिय हुआ था। लालकृष्ण आडवाणी ने बहुत कोशिश की कि यह गीत भी उन से जुड़ जाए , पर कामयाब नहीं हुए। लेकिन ये दीपक जला है जला ही रहेगा को अटल जी ने कामयाब बनवा दिया। अटल जी और इस गीत को ले कर , मुझे याद है तब के अख़बारों में स्केच और कार्टून भी छपे थे। और आज देखिए कि नरेंद्र मोदी ने जलता हुआ दीपक का देशव्यापी प्रचार कर भाजपा का प्रचार कर दिया है , इस मुश्किल घड़ी में भी। अटल बिहारी वाजपेयी की कविता आओ फिर से दिया जलाएं को ट्वीट कर वायरल कर दिया है सो अलग। 

कामरेडों की राय में , जमातियों आदि-इत्यादि की राय में यही तो सांप्रदायिकता है। यही तो फासीवाद है। लोगों को हिंदू बनाने और हिंदुत्व को फैलाने की साज़िश है। उन का यह भी कहना है कि फासीवाद और सांप्रदायिकता की इस साज़िश को नाकाम कर के रहेंगे। कभी बात-बेबात मोमबत्ती जलाने और इस का जुलूस निकालने वाले लोग अगर देश को एकजुट नहीं देखना चाहते तो परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। इन सभी को अंधेरा मयस्सर करवाइए , आप दिया जलाइए। अपनी एकजुटता दिखाइए। हमारे यहां पहले ही से कहा गया है :

असतो मा सदगमय ॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥ मृत्योर्मामृतम् गमय ॥

 यानी (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो । अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।

बाक़ी जानते तो हम भी हैं कि ताली , थाली बजाने और दिया जलाने से नहीं , लॉक डाऊन से ही कोरोना भागेगा। एकांत से भागेगा। पर दिया जला कर एकरसता टूटेगी , एकजुटता दिखेगी। यह बात भी तो हम जानते ही हैं। दिया जलाना शुभ भी होता है। यह बात भी जानते हैं। मनुष्यता शेष रहे , इस के लिए भी यह ज़रूरी है। मोदी विरोध के लिए तमाम और भी बहाने हैं। दीप जलाना , दीप-दान पुण्य का काम है। कहा गया है कि अखंड दीप जलाने से यम देवता के कोप से मुक्ति मिलती है। अकाल मृत्यु से बचा जा सकता है। हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित फिल्म नमक हराम में आनंद बक्शी का लिखा राहुलदेव वर्मन के संगीत में यह गीत भी याद कर लीजिए। 

दिए जलते हैं, फूल खिलते हैं
दिए जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर
दुनिया में दोस्त मिलते हैं
दिए जलते हैं

तो बहुत से गीत हैं जलते दीयों के। कविताओं के। बहुत सी भाषाओँ में। बुझते दीप का कोई गीत कहीं , किसी भाषा में नहीं है। किसी संगीत में नहीं है। फिर भी मुट्ठी भर बीमार लोग अगर बुझते हुए दीयों का गीत गा कर बुझे रहना चाहते हैं तो यह उन का संवैधानिक अधिकार है। उन की इस भावना का भी सम्मान कीजिए। उन्हें संविधान बचाने दीजिए। आप तो इस दीप को जला कर फूल खिलाइए। 

वैसे भी बौद्ध दर्शन का एक सूत्र वाक्य भी है : अप्प दीपो भव। यानी अपना दिया खुद बनो। अपना प्रकाश स्वयं बनो। नीरज का लिखा यह गीत भी याद रखिए : 

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।


2 comments:

  1. तमसो मा ज्योतिर्गमय.. न भूतो न भविष्यति

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  2. सुंदर गीतों से सजा रोचक आलेख, दीप से दीप जलाते चलो...

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