Thursday 24 January 2019

तब वीरबहादुर के खिलाफ चुनाव लड़ रहे दयाशंकर दुबे चुनाव के पहले ही पोस्टर कबाड़ी को बेच रहे थे



दयानंद पांडेय 



1985 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हो रहे थे। तब मैं जनसत्ता, दिल्ली छोड़ कर नया-नया स्वतंत्र भारत, लखनऊ आया था। तत्कालीन सिंचाई मंत्री वीरबहादुर सिंह तब गोरखपुर में पनियरा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। स्वतंत्र भारत के सर्वेसर्वा और मालिकान में से एक जयपुरिया ने मुझे बुलाया और बड़ी शालीनता से कहा कि , ' आप जनसता, दिल्ली से आए हैं, उस तरह की रिपोर्टिंग में वीरबहादुर के खिलाफ़ कुछ मत लिख दीजिएगा। वीरबहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री हैं। तो ज़रा ध्यान रखिएगा। हमारे पचास काम पड़ते हैं मुख्यमंत्री से।' खैर मैं गया पनियरा। फरवरी का महीना था । गुलाबी जाड़ा लिए हुए ।

पनियरा में वीरबहादुर ने विकास के इतने सारे काम कर दिए थे कि पूछिए मत। जहां पुलिया बननी चाहिए थी, वहां भी पुल बना दिया था। दिल्ली, लखनऊ के लिए सीधी बसें थीं। गांव-गांव बिजली के खभे। नहरें, ट्यूबवेल। उस धुर तराई और पिछड़े इलाके में विकास की रोशनी दूर से ही दिख जाती थी। और चुनाव में भी उन के अलावा किसी और का प्रचार कहीं नहीं दिखा। जब कि उम्मीदवार कई थे वहां से। वीरबहादुर सिंह के मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल से दयाशंकर दुबे। दुबे जी से मेरी व्यक्तिगत मित्रता भी थी। उन को प्रचार में भी शून्य देख कर मुझे तकलीफ़ हुई। गोरखपुर शहर में उन के घर गया। लगातार दो दिन। वह नहीं मिले। जब कि वीरबहादुर सिंह रोज मिल जाते थे। खैर एक दिन एकदम सुबह पहुंचा दयाशंकर दुबे के घर। बताया गया कि हैं। उन के बैठके में मैं बठ गया। थोड़ी देर में वह आए। उन के चेहरे का भाव देख कर मैं समझ गया कि मेरा आना उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगा है। तो भी मेरे पुराने मित्र थे। सो अपनी अकुलाहट नहीं छुपा पाया। और पूछ ही बैठा कि , ' अगर इसी तरह चुनाव लड़ना था तो क्या ज़रुरत थी यह चुनाव लड़ने की भी ? '

बताता चलूं कि गोरखपुर विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में दयाशंकर दुबे वीरबहादुर सिंह से बहुत सीनियर थे। और कल्पनाथ राय से भी पहले वह छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके थे। तब छात्र राजनीति का बहुत महत्व था और कि प्रतिष्ठा भी। लेकिन कुछ अहंकार और कुछ गलत फ़ैसलों के चलते दयाशंकर दुबे की यह गति बन गई थी। खैर , जब मैं एकाधिक बार उन के इस तरह चुनाव लड़ने की बात पर अपना अफ़सोस ज़ाहिर कर चुका तो वह थोड़ा असहज होते हुए भी कुछ सहज बनने की कोशिश करते हुए बोले कि , ' हुआ क्या कुछ बताओगे भी ! कि बस ऐसे ही डांटते रहोगे ? ' मैं ने उन्हें बताया कि , ' दो दिन से पनियरा घूम रहा हूं और आप का कहीं नामोनिशान नहीं है। न प्रचार गाडियां हैं, न पोस्टर, न बैनर। एकदम शून्य की स्थिति है।' तो वह धीरे से हंसे और बोले कि , ' देखो मैं पनियरा में वीरबहदुरा से क्या चुनाव लड़ूंगा ? पनियरा चुनाव में वीरबहदुरा से मेरा बाजना वैसे ही बाजना है जैसे बाघ से कोई बिलार बाज जाए ! तो क्या लड़ना ? '

' फिर चुनाव लड़ने की ज़रुरत क्या थी? ' सुन कर दयाशंकर दुबे बोले, ' मैं तो दिल्ली गया था गोरखपुर शहर से कांग्रेस का टिकट मांगने। बड़ा उछल कूद के बाद भी जब गोरखपुर शहर से कांग्रेस का टिकट नहीं मिला तो घूमते-घामते चौधरी चरण सिंह से जा कर मिला और गोरखपुर शहर से उन की पार्टी का टिकट मांगा तो वह बोले कि गोरखपुर शहर से तो नहीं लेकिन जो पनियरा से लड़ो तो मैं तुम्हें अपना टिकट दे सकता हूं। तुम्हें चुनाव लड़ने का खर्चा, झंडा, पोस्टर, गाड़ी भी दूंगा और खुद आ कर एक बढ़िया लेक्चर भी दूंगा। तो मैं मान गया। और लड़ गया। यह सोच कर कि चलो इस में से कुछ आगे का खर्चा भी बचा लूंगा। ' मैं ने कहा कि , ' आप की एक भी गाड़ी दिखी नहीं क्षेत्र में।' तो वह बोले कि , ' कैसे दिखेगी? दो गाड़ी मिली है। एक पर खुद चढ़ रहा हूं दूसरी को टैक्सी में चलवा दिया है।' कह कर वह फ़िक्क से हंसे। मैं ने पूछा, ' और पोस्टर, बैनर? ' वह थोड़ा गंभीर हुए पर मुस्कुराए और उठ कर खड़े हो गए। धीरे से बोले, ' मेरे साथ आओ ! '

फिर वह भीतर के एक कमरे में ले गए। अजब नज़ारा था। एक कबाड़ी उन के पोस्टर तौल रहा था। उन्हों ने हाथ के इशारे से दिखाया और फिर मुझ से धीरे से बोले, ' यह रहा पोस्टर ! ' मैं अवाक रह गया। फिर वह मुझे ले कर बाहर के कमरे में आ गए। मै ने पूछा कि , ' यह क्या है? चुनाव के पहले ही पोस्टर तौलवा दे रहे हैं? ' वह बोले , '  अभी अच्छा भाव मिल जा रहा है। चुनाव बाद तो सभी बेचेंगे और भाव गिर जाएगा। ' मैं ने कहा , ' चिपकवाया क्यों नहीं? ' वह बोले , '  व्यर्थ में पोस्टर भी जाता, चिपकाने के लिए मज़दूरी देनी पड़ती, लेई बनवानी पड़ती। बड़ा झमेला है। और फिर वीरबहदुरा भी अपना मित्र है, वह भी अपने ढंग से मदद कर रहा है। ' कह कर वह मुसकुराए। मैं समझ गया। और उन से विदा ले कर चला आया। बाद के दिनों में जैसा कि जयपुरिया ने कहा था वीरबहादुर सिंह मुख्यमंत्री भी बने। और यही दयाशंकर दुबे उन के साथ-साथ घूमते देखे जाते थे। अब सोचिए कि जैसे वीरबहादुर सिंह के साथ दयाशंकर दुबे लड़े थे , इस बार के चुनाव में भी तमाम उम्मीदवार बिलार की तरह बाघ से लड़ने के लिए के लिए मुंह बाए बैठे हैं । चुनाव का फ़ैसला चाहे जो हो , अगले पांच साल का खर्च तो निकल ही आएगा । हां , लेकिन जैसे दयाशंकर दुबे जो एक सच देख रहे थे और कह भी रहे थे बेलाग हो कर कि वीरबहदुरा से बाजना वैसे ही है जैसे किसी बाघ से बिलार बाज जाए ! जाने यह कांग्रेसी भी देख रहे हैं कि नहीं , यह जानना भी दिलचस्प है ।

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