Thursday 19 December 2019

हिंसक भीड़ की भाड़ में जल जाने से बचा

 
आज मैं भी बाल-बाल बचा। हिंसक भीड़ की भाड़ में जल जाने से बचा। मैं भी बचा , मेरी कार भी बची। दोपहर में कचहरी गया। हज़रतगंज होते हुए। प्रेस क्लब के रास्ते गुज़रते हुए पहली पुलिस बैरिकेटिंग मिली। पुलिस ही पुलिस थी। लोग नहीं। बेगम हजरतमहल पार्क के पास फिर पुलिस बैरिकेटिंग मिली। पुलिस भी खासी संख्या में। दफा 144 लागू होने के बावजूद सड़क पर भीड़ भी खूब थी। एक अख़बार के फोटोग्राफर को देखा तो उसे बुलाया और पूछा , ' अपना लखनऊ ठीक-ठाक तो है न ! ' वह हंसते हुए बोला , ' अभी तक तो सब ठीक-ठाक ही है भाई साहब ! ' 

मैं निश्चिंत हो कर आगे बढ़ गया। भीड़ लेकिन लगातार मिलती रही। दस-दस , बीस-बीस के जत्थे में। कुछ कर गुजरने के उन्माद में सुलगती हुई भीड़। लेकिन सड़क के किनारे-किनारे। झुंड के झुंड में। गुफ़्तगू करती हुई। भीड़ मुसलसल थी और राह भी रुकी हुई नहीं थी। कैसरबाग़ टेलीफोन एक्सचेंज के पास कार पार्क कर कचहरी की तरफ बढ़ा। भीड़ को चीरता हुआ। कचहरी में दाखिल हुआ। बरास्ता कचहरी सुरक्षा का कमरा और कैमरा पार करता हुआ। आम दिनों की तरह लेकिन कचहरी आज नहीं थी। हवा में गलन थी तो लोगों में तनाव। एक अजीब हलचल। सुलगन। एक अजीब कानफूसी। हर मुंह कचहरी की बात की जगह दिल्ली हिंसा और लखनऊ की संभावित हिंसा की घबराहट में बेचैन। एक वकील साहब ने कल रात की मेरी पोस्ट की चर्चा करते हुए पूछा , ' स्थिति इतनी विस्फोटक है ? ' मैं ने उन्हें बताया , ' है तो ! ' वह उदास हो गए। मुझे एक एफीडेविट बनवानी थी। और एक फैसले की नक़ल लेने के लिए सवाल लगाना था। एफिडेविट का प्रिंट निकलवाने के लिए बाहर की सड़क पर स्थित एक दुकान पर खड़ा था। कि अचानक तीन-चार नौजवानों को कुछ वकील दौड़ाते हुए , पीटते हुए दिखे। ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते हुए। और वह लडके बेतहाशा भागते हुए। कुछ और वकीलों ने उन्हें घेर लिया। और पटक कर पीटने लगे। पता चला कि यह लडके वहां भीड़ की तरह बेतरतीब खड़ी गाड़ियों में आग लगा रहे थे कि किसी वकील ने समय रहते देख लिया। और इन हिंसक और अराजक लोगों को देख लिया। और चिल्लाते हुए इन पर टूट पड़ा। एक वकील , दो वकील , दस वकील , फिर वकीलों का हुजूम और इन हिंसक और अराजक लोगों की शामत। लखनऊ क्या समूचे देश की पुलिस भी वकीलों की हिंसा से डरती है तो कुछ अराजक लोगों की क्या बिसात। बस जान बची किसी तरह इन अराजक लोगों की। पर जल्दी ही अराजक और हिंसक लोगों का एक दल जो इस बार बड़ा था , अचानक फिर लौटा। इस उन्माद में कि जैसे वकीलों को निपटा देगा। लेकिन वकील उत्तर प्रदेश पुलिस की तरह सोए हुए नहीं थे। न ही बेखबर। वह फिर चीखते हुए टूट पड़े इन हिंसक और अराजक लोगों पर और पूरी ताक़त , और ज़्यादा संख्या बल के साथ। वह अराजक लोग उलटे पांव क्या , सिर पर पांव रख कर भागे। पर इस पूरे वाकये में पुलिस कहीं नहीं दिखी। कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि इन हिंसक और अराजक तत्वों से अगर लखनऊ को बचाना है तो फौरन अर्ध सैनिक बलों या सेना को बुला लेना ही बेहतर है। उत्तर प्रदेश पुलिस के वश के नहीं हैं यह अराजक और हिंसक लोग। उत्तर प्रदेश पुलिस की सामर्थ्य से बाहर हैं यह लोग। सोचिए कि अगर कचहरी और वकीलों की गाड़ियों में आग लग गई होती तो लखनऊ में हिंसा और क़ानून व्यवस्था का क्या आलम होता ? सवाल तो यह भी है कि दफा 144 लागू होने के बावजूद पुलिस ने इतनी भीड़ इकट्ठी होने क्यों दी ? ऐसी भीड़ तो हम ने इस जगह तब भी नहीं कभी देखी थी जब बेगम हज़रतमहल पार्क में राजनीतिक रैलियां होती थीं। फिर यह तो उन्मादी भीड़ थी। हिंसा के लिए प्रतिबद्ध भीड़ थी। भीड़ थी कि गिद्ध थी। कहना कठिन है। 

ख़ैर , कचहरी के भीतर गया और एक वकील साहब से पूरा विवरण बताया तो वह डर से गए। कहने लगे घर कैसे जाया जाएगा। उन का डर देख कर उन से कहा कि चलिए हम आप को घर छोड़ देंगे। वह पलट कर बोले , आप के साथ जाने से बेहतर होगा कि हम अपने कुछ वकील साथियों के साथ ही लौटें। खैर कचहरी का काम निपटा कर बाहर निकला तो मंज़र बदल चुका था। कचहरी की सड़क पर भी अब हिंसक लोगों की भीड़ खड़ी थी। दस-दस , बीस-बीस के जत्थों में। टेलीफोन एक्सचेंज के चौराहे पर जहां पुलिस खड़ी होती है या फिर सांड़ , वहां कुछ ख़ास किसिम के वकील खड़े थे। ऐसे गोया अराजक और हिंसक भीड़ की सुरक्षा के लिए मेड़बंदी में खड़े हों। पुलिस सिरे से गायब थी। भीड़ ही भीड़। जाने कहां-कहां से आ कर नागफनी की तरह खड़ी हो गई थी। मैं अपनी कार की तरफ बढ़ा। कार के चारो तरफ भीड़। कार की डिग्गी पर भी चार-पांच लोग बैठे हुए थे। इन में से कुछ हथियारबंद लोग भी थे। अजीब कश्मकश थी। रिमोट से कार का दरवाज़ा खोला। सो आवाज़ भी हुई। लेकिन भीड़ का एक भी व्यक्ति टस से मस नहीं हुआ। फाटक खोल कर भीतर बैठते ही अंदर से गाड़ी लॉक कर ली। इस डर से कि कोई फाटक खोल कर भीतर न बैठ जाए। फिर एक क्षण को डर लगा कि नाराज हो कर कहीं यह लोग मुझे कार के भीतर ही जला न दें। एक अजीब सी घबराहट मन में तारी थी। लग रहा था कि अपनी कार में नहीं , किसी गैस चैंबर में बैठा हूं। किसी यातना गृह में बैठा हूं। कि अचानक एक मित्र का फोन आ गया। मन बाहर था और जुबान फोन पर बतिया रही थी। अजीब मंज़र था। बड़ी देर तक इधर-उधर की बतियाता रहा। कोई पंद्रह मिनट तो हो ही गया था बतियाते हुए। अच्छा यह हुआ था इस बीच कि भीड़ ने मेरी तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं दिया था। मन से घबराहट उतर ही रही थी कि अचानक कुछ हलचल हुई। परिवर्तन चौक की तरफ से भागती हुई भीड़ का एक रेला आया।  शायद उधर से पुलिस ने दौड़ाया था। मेरी कार के आस-पास खड़ी भीड़ भी उन के साथ दौड़ गई। कार की डिग्गी पर बैठे लोग भी भागे। मैं ने बैक मिरर में पीछे की सड़क देखी। पल भर में पूरी सड़क वीरान हो गई थी। मैं ने मित्र का फोन अचानक काटा और कहा कि बाद में बात करता हूं। मित्र ने पूछा भी कि बात क्या हुई ? मैं ने मित्र को अनसुना किया और कार बैक कर टेलीफोन एक्सचेंज चौराहे की तरफ मोड़ दिया। क्यों कि परिवर्तन चौक की तरफ तो खतरे का आभास हो ही गया था। पर यह क्या मैं तो फिर भारी भीड़ में फंस गया। भीड़ दोनों तरफ से दौड़ती हुई पल भर में लौट आई थी। मैं और मेरी कार लग रहा था कि जैसे उछलते समुद्र की उछलती लहरों के बीच कोई डोंगी नाव हो। नाव अब डूबी कि तब डूबी। जाने कौन सी लहर ले डूबे। पाकिस्तानी शायर आली का दोहा याद आ गया :  तह के नीचे हाल वही जो तह के ऊपर हाल / मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल। भीड़ के इस जाल में फंसा मेरी हालत मछली से भी बुरी हो गई थी। अकल गुम हो गई थी। तो भी इस कठिन घड़ी में याद आ रहा था देवेंद्र कुमार का एक गीत : झील , नदी , सागर से रिश्ते मत जोड़ना / लहरों को आता है यहां वहां छोड़ना। तो भीड़ की कौन सी लहर मुझे कहां और कैसे पटक दे पता नहीं था। अराजक और हिंसक भीड़ में अनगिन बार फंसा हूं बतौर रिपोर्टर। जान हथेली पर ले कर रिपोर्टिंग की है। जाने कितने दंगों को रिपोर्ट किया है। इसी लखनऊ में शिया , सुन्नी दंगा। हिंदू , मुस्लिम दंगा। दिल्ली में सिखों का नरसंहार रिपोर्ट किया है। दो-चार बार जान जाते-जाते बची है। पर आज तो विशुद्ध नागरिक फंसा था और जान पर बन आई थी। बेतरह और निहत्था। गिद्धों की चंगुल में एक अकेला असहाय आदमी। 

खैर चींटी की तरह समुद्र सी इस भीड़ में रेंगता रहा। सोचता रहा कि आज कचरी आया ही क्यों। आया भी तो लौट कर हिंसक भीड़ को देखते हुए भी कार में आ कर बैठा भी क्यों। कार को बचाना ज़रूरी था कि खुद को। बहरहाल किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखते हुए चींटी गति से रेंगता रहा। लगातार यह खयाल रखते हुए कि कार किसी को ग़लती से भी टच नहीं करे। ज़रा भी किसी को टच करने का नतीजा मैं जानता था कि भीड़ मुझ पर कैसे टूट पड़ती और मेरा और कार का क्या हश्र करती। ग़नीमत यह भी थी कि भीड़ अपने काम में थी , नारा लगाती हुई। उत्तेजित और हिंसक यह भीड़ मुझ से शायद पूरी तरह बेखबर थी। मैं ने भी सभी शीशे बंद कर रखे थे और कार अंदर से लॉक कर ही रखी थी। तो यह लॉक करना सुरक्षा भी थी और खतरा भी। दोनों ही स्थितियों का जायजा लेता हुआ मैं चींटी स्पीड से बढ़ता रहा। चौराहे पर आते-आते भीड़ के एक व्यक्ति ने मेरी और कार की नोटिस ली। और कस कर ली। कार के बोनट पर बाकायदा पैर रख कर। मैं ने कार बंद कर दी। हैंड ब्रेक लगा दिया। कार के आगे के शीशे पर बीचोबीच गणेश जी का चित्र चिपका हुआ है पर बाएं किनारे पर प्रेस भी लिखा हुआ है । वह व्यक्ति कुछ असमंजस में पड़ गया। कि तभी चौराहे पर खड़े एक वकील ने उसे मुझे जाने देने का इशारा किया। और वह एक झटके से हट गया। चौराहे से मैं बाएं मुड़ गया। मुड़ते ही कुछ सांस मिली और राह भी। हिंसक भीड़ का घनत्व इस सड़क पर कुछ कम था। कम क्या उधर से उन्नीस था। स्पीड अभी भी चींटी वाली ही थी। दो दिन पहले ही बलिया से लौटा हूं। जिस ट्रेन से लौट रहा था अचानक एक जगह दो घंटे खड़ी हो गई थी। पता चला कि किसी ने पत्थर मार दिया था इंजन पर और शीशा टूट गया था। यह खबर लगते ही लोग ट्रेन छोड़ कर भागने को हुए। लोगों ने समझा कि अराजक तत्वों का हमला है। तभी कुछ पुलिसकर्मी आ गए। पुलिस वालों ने बताया कि अराजक तत्व नहीं किसी मनचले लड़के का काम है। बनारस से दूसरा इंजन आया तो ट्रेन चली। दिल्ली में जामिया मिलिया की हिंसक ख़बरें , खबरों में तब तारी थी। बहरहाल यहां तो कोई मनचला नहीं , पूरी की पूरी हिंसक भीड़ के जबड़े में मैं फंसा था। किसी भी सूरत मेरी खैर नहीं थी। कार में बैठा रहूं तो शामत। उतर जाऊं तो भी शामत। बहरहाल खुद से लड़ता हुआ , चींटी की तरह रेंगता हुआ मैं था और आगे-पीछे , दाएं-बाएं हिंसक और अराजक भीड़ थी। होटल क्लार्क की तरफ किसी तरह  ज्यों मुड़ा , अचानक पुलिस दिखी तो जैसे जान में जान आई। होटल क्लार्क मोड़ पर भी पुलिस बैरिकेटिंग थी। मुझे देखते ही एक दारोगा दौड़ा हुआ मेरी तरफ आया। खिड़की का शीशा नॉक किया। शीशा खोलते ही वह बोला , इस पागल भीड़ में आप  क्या कर रहे हैं ? मैं ने बताया कि , ' क्या बताऊं , गलती से फंस गया हूं ! ' उस ने रास्ता देते हुए कहा , ' इधर से जाइए , इधर से नहीं। सीधे घर जाइए। कहीं और नहीं।' होटल क्लार्क के पीछे की तरफ मैं ने कार कर ली। कोई पांच सौ मीटर का यह रास्ता मैं ने करीब एक घंटे से अधिक समय में पार किया। क्लच प्लेट की हालत क्या हुई होगी , यह कार ही जाने या आने वाला समय। बहरहाल इस राह पर हिंसक और अराजक भीड़ अनुपस्थित थी। शनि मंदिर पार करते हुए , मोती महल लॉन के पास से गुज़ारा तो पाया कि लोग पौधे खरीद रहे हैं। फूल खरीद रहे हैं। यह देख कर जैसे जाने कितनी आक्सीजन मिल गई। थोड़ी देर बाद अचानक पत्नी का फोन आया। पूछा कि आप ठीक तो हैं ? मैं ने बताया कि मैं ठीक हूं लेकिन क्या हुआ ? पत्नी ने पूछा कि कचहरी में ही हैं कि वहां से निकल आए। बताया कि निकल आया हूं पर बात क्या है ? पत्नी ने बताया कि कुछ नहीं , आप निकल आए हैं तब ठीक है। क्यों कि परिवर्तन चौक पर बहुत आगजनी और उपद्रव हुआ है , न्यूज़ में आ रहा है। मीडिया की भी गाड़ियां जलाई गई हैं तो मैं डर गई कि कहीं आप भी तो नहीं फंस गए इस में। 

नहीं , नहीं। मैं बिलकुल ठीक हूं। और वहां से बहुत दूर निकल आया हूं। कह कर फोन रख दिया। लेकिन तभी से निरंतर सोच रहा हूं कि इस पागल भीड़ , गिद्धों की भीड़ से सुरक्षित बच कर निकल कैसे आया। जैसे किसी भयानक सपने से निकल आया। निकल आया हूं , ऐसा विश्वास ही नहीं हो रहा। पर निकल तो आया हूं। समय और ईश्वर को कोटिशः धन्यवाद। जैसे वह कोई सपना ही था। डरावना सपना। जब कि उसी भीड़ में अनगिन लोग और पुलिसजन बुरी तरह घायल हुए हैं। मारे गए हैं। तमाम वाहन स्वाहा हो गए हैं। 

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