Saturday 19 December 2015

मस्त काशी के मरते जाने का शोक गीत मोहल्ला अस्सी

दयानंद पांडेय 


काशी का अस्सी , काशीनामा और अब मोहल्ला अस्सी । एक ही रचना के तीन पाठ । लेकिन सब से सजीला और गर्वीला पाठ है मोहल्ला अस्सी । मूल रचना कोसों पीछे रह गई है । यह तीसरा पाठ बहुत आगे निकल गया है । सेल्यूलाइड के परदे पर किसी कथा को कैसे कविता में रूपांतरित किया जा सकता है यह चंद्रप्रकाश द्विवेदी से सीखा और जाना सकता है । उन्हों ने कभी धारावाहिक चाणक्य में यह किया था , कभी अमृता प्रीतम के पिंजर में और अब मोहल्ला अस्सी में किया है । काशीनाथ सिंह की कथा चंद्रप्रकाश द्विवेदी की इस कविता के मार्फ़त  बाज़ार  , ज़रूरत और आस्था का ऐसा कोलाज रचती है , बाज़ार पर ऐसा कहर बन कर टूटती है कि सब कुछ चकनाचूर हो जाता है । पर बहुत धीरे से । ऐसे जैसे मन टूटता है । ऐसे जैसे कोई दर्पण टूटता है । ऐसे जैसे किसी टूटे हुए शीशे की किरिच मांस में धंस कर टीस रही हो , रिस रही हो किसी फोड़े की तरह और फोड़ा बह कर फूट जाना चाहता हो । पर फूट नहीं पा रहा । मोहल्ला अस्सी की आंच , ताप और तड़प यही है । कशिश और कहन यही है ।

पूरी फ़िल्म जैसे एक नाव है , नदी में चलती हुई नाव । तरह-तरह के घाटों और पड़ाव से गुज़रती हुई । सनी देओल की फ़िल्मोग्राफ़ी में मोहल्ला अस्सी बेमिसाल फ़िल्म है । सनी देओल का अभिनय जैसे एक अनकहे दुःख का दर्पण है । काशी का अस्सी में पांडेय कौन कुमति तोहिं लागी ! वाली कथा ही महत्वपूर्ण है । यही उस की आत्मा है । इसी लिए काशीनामा के मंचन में उषा गांगुली ने इसी कथा पर ख़ास फ़ोकस किया । पांडेय परिवार की विपन्नता , दैनंदिन ज़रुरतों को पूरा न कर पाने की विवशता , संस्कृत जैसी भाषा का तिल-तिल कर मरना , पंडा जैसे पुश्तैनी पेशे का दिन-ब-दिन अनुपयोगी होते जाना और इस से उपजी हताशा और बेरोजगारी का जो महाकाव्य उषा गांगुली ने रंगमंच पर उपस्थित किया है  , रंगमंचीय सीमाओं के बावजूद आंखें बार-बार नम हो जाती हैं । गुस्सा , खीझ और तनाव का जो रूपक उपस्थित होता है , उषा गांगुली के रंगमंच पर वह दुर्लभ है । चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने मोहल्ला अस्सी में इस गुस्सा, खीझ , तनाव और और इस की यातना का फलक और बड़ा कर दिया है ।  पंडागीरी के व्यवसाय पर आए संकट के बादल के बावजूद सिद्धांत , नैतिकता और पांडित्य पर अडिग धर्मनाथ पांडेय के निरंतर टूटते जाने का महाकाव्य इस सरलता से रचते और बांचते हैं चंद्रप्रकाश द्विवेदी कि फ़िल्म मील का पत्थर बन जाती है । और फिर छोटी-छोटी दैनंदिन ज़रूरतों के आगे कैसे सारा सिद्धांत , पांडित्य और हठ क्रमशः धराशायी  होता जाता है , आदमी टूट कर चूर-चूर हो जाता है , ज़रुरत और बाज़ार  ही भगवान बन जाता है । शिव की नगरी काशी के पंडितों के घर से ही कैसे भगवान शिव बाहर हो जाते हैं । धर्म संसद की ऐसी-तैसी करते हुए समारोह पूर्वक बाहर होते जाते हैं शंकर जी , मोहल्ला अस्सी में यह देखना त्रासद हो जाता है । दिल बैठ जाता है । रोज-रोज की भूख , बच्चों के स्कूल की मामूली फीस भी कैसे एक ईमानदार आदमी को तोड़ कर समझौता परस्त बना देती है । धर्म , मूल्य और सिद्धांत सब तार-तार हो जाते हैं । मोहल्ला अस्सी इस यातना के तार को , इस तार में बहते करंट को बहुत आहिस्ता-आहिस्ता छूती है । इतनी आहिस्ता से कि काशी के अस्तित्व और उस की गंगा में आग लग जाती है । जो बुझाए नहीं बुझती । धर्म की नगरी काशी कैसे तो ड्रग और ऐयाशी की नगरी में तब्दील होती जाती है । धर्म नगरी की प्राण वायु पंडा लोगों के घर इस की धुरी बन रहे हैं । यह बाज़ार की यातना है । ज़रुरतों की लाश पर खड़ी इस यातना के घाट कई-कई हैं ।

संस्कृत पढ़ाने वाले आचार्य कैसे तो संस्कृत पढ़ाने की आड़ में अपने घर किराये पर उठा कर पेट की आग शांत करने को अभिशप्त हो गए हैं । विदेशी किरायेदार औरत की सुविधा के मद्दे नज़र घर में स्थित शिव मंदिर को कैसे तो अटैच्ड बाथरुम के रुप में तब्दील करने में टूट-टूट जाते हैं धर्मनाथ पांडेय। कि उन के इस टूटने की पराकाष्ठा शिव लिंग के टूटने में उपस्थित होती है । अद्भुत रूपक है यह । ऐसा मेटाफर हिंदी कथा , हिंदी रंगमंच और हिंदी फ़िल्मों में दुर्लभ है । मेरी जानकारी में तो यह पहली बार है । यह शिवलिंग का टूटना , व्यक्ति का टूटना , काशी नगरी का भी टूटना है । काशी नगरी के अस्तित्व का टूटना है । इस टूटने को ही चंद्रप्रकाश द्विवेदी मोहल्ला अस्सी में कविता की तरह बांचते हैं । कालिदास की कविता की तरह । उपमा , रूपक और लक्षणा , व्यंजना के सभी रंग ले कर । शिव लिंग टूट चुका है । धर्मनाथ पांडेय बहुत क्षोभ और दुःख में डूब कर पत्नी के साथ जा कर गंगा की बीच धारा में यह शिवलिंग प्रवाहित कर चुके हैं । अन्य पंडित, पंडे भी अपने-अपने घरों से शिव जी को निर्वासित कर चुके हैं । पर धर्मनाथ के भीतर लगातार कुछ दरकता रहता है , टूटता और बिखरता रहता है । एक दिन वह अचानक हंसते हुए , दौड़ते हुए बच्चों की तरह ललकते हुए घर में दाखिल होते हैं , अंगोछे में कुछ छुपाये हुए । पत्नी को देखते ही उत्साह से भर जाते हैं । आंगन में खड़े हो कर बाल सुलभ मुस्कान के  साथ वह अंगोछे में छुपी चीज़ पत्नी को ऐसे दिखाते हैं , जैसे जग जीत कर लौटे हों । अंगोछे में छुपे हुए नए शिवलिंग को  पत्नी को दिखाते हुए उन की आंख भर आती है । पत्नी की भी । यह हर्ष के आंसू हैं । जीवन में शिव की वापसी के हर्ष में डूबे इन आंसुओं में आस्था और उम्मीद के  कई-कई सूरज  हैं । धर्मनाथ बेटी से कहते हैं , अब तुम कंप्यूटर पढ़ोगी । पत्नी कहती है , कंप्यूटर भी पढ़ेगी और संस्कृत भी पढ़ेगी । सनी  देओल का संवेदना में डूबा यह अभिनय उन की फ़िल्मोग्राफ़ी का सब से चटक और अविरल रंग उपस्थित करता है । उन का यह अभिनय किसी कविता की तरह कहीं बहुत गहरे मथ देता है । अपने अभिनय में मन रंग देता है । समूची फिल्म को कविता बना देता  है । वेद की ऋचाएं गूंजने लगती हैं । यह रस और यह रंग काशी का अस्सी में अनुपस्थित है पर मोहल्ला अस्सी में पूरी तरह व्यवस्थित है । कह सकता हूं कि कथा इस पार है,  तो पटकथा उस पार है । यह बहुत बार फिल्मों में होता है । मोहल्ला अस्सी में भी हुआ है । बारंबार हुआ है ।

अमूमन साहित्यिक रचनाओं पर बनी फ़िल्मों की ऐसी-तैसी ही होती है । मेरी जानकारी में बहुत कम हिंदी फ़िल्में हैं जो किसी प्रसिद्ध साहित्यिक कथा पर बनी हैं और कथा से बहुत सुंदर , बहुत प्रभावशाली , बहुत बेहतर बनी हैं । जैसे शरत की देवदास पर बनी विमल राय की फ़िल्म , फ़णीश्ववरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफ़ाम पर तीसरी कसम , भगवती चरण वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर बनी फ़िल्म , आर के नरायन की कथा पर विजय आनंद निर्देशित गाईड ,  प्रेमचंद की शतरंज के खिलाड़ी पर सत्यजित राय की फ़िल्म , अमृता प्रीतम की कथा पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी की पिंजर और अब काशी का अस्सी पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी की ही मोहल्ला अस्सी ।  

बनारस की पृष्ठभूमि पर बहुतेरी फ़िल्में बनी हैं । पर बनारस का ज़िक्र , दो चार दृश्य , गंगा का किनारा और फूहड़ भोजपुरी के अलावा कुछ नहीं होता । पर मेरी जानकारी में मोहल्ला अस्सी पहली फ़िल्म है जो पूरी तरह बनारस में शूट है । इंडोर का बहुत कम इस्तेमाल है । बनारस के घाटों को , बनारस के जन-जीवन को , गलियों और गालियों को  जिस तरह चंद्रप्रकाश द्विवेदी के कैमरे ने कैद किया है वह अनूठी और इकलौती फ़िल्म है । हाल ही आई रांझड़ा फ़िल्म में भी बनारस के लोकेशन दीखते हैं । पर लोकेशन ही । वैसे ही जैसे दिलीप कुमार वाली संघर्ष में भी काशी की ही कथा है , पर फ़िल्मी है पूरी कथा । तमाम भोजपुरी फ़िल्में भी बनारस के बयान में लथपथ हैं पर बनारस को अगर किसी ने पहली बार ठीक से जिया है तो वह मोहल्ला अस्सी ने ही । बनारस का दुःख-सुख , बनारस का ठाट , बनारस की वह चुहुल , बनारसी हेकड़ी बनारसी मस्ती , लापरवाही , और बनारसी बंजारापन को जिस तरह , जिस अंदाज़ और जिस सलीके से चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने परोसा है , वह कलेजा काढ़ लेता है । बना रस की तरह ।

बिस्मिल्ला ही बनारस के घाट की सुबह,  छन्नूलाल मिश्र के गायन में गूंज कर होता है । बिलकुल सुबहे-बनारस के अंदाज़ में घुल-मिल कर । और फ़िल्में बनारस कैंट स्टेशन दिखाती हैं , पर यहां काशी स्टेशन है और रवि किशन जैसे अभिनेता का लंपट और शातिर अंदाज़ में डूबा लाजवाब अभिनय है । फ़िल्म के हीरो भले सनी देओल हों , पर अभिनय , अंदाज़ और कथा का सारा मज़ा और मौज लूटते तो रवि किशन ही हैं। आंख मटकाते और मिचकाते उन के अभिनय का बनारसी ठाट देखते ही बनता है । सही मायने में फ़िल्म की सारी स्पीड रवि किशन के ही हाथ और साथ है । लुच्चा , लंपट , कपटी , लोभी और चालू गाईड का बेपरवाह अंदाज़ उन का नदी की तेज़ धार की तरह बहता मिलता है । हिंदी से एम ए तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण हो कर भी बेरोजगारी में डूबने का दंश कैसे किसी युवा को चालबाज़ गाईड बना कर तोड़ता रहता है , यह आह भी उन के अभिनय में अपनी पूरी दाहकता के साथ उपस्थित है । सौरभ शुक्ला भी बने पंडा ही हैं पर उन के अभिनय का ताप बनारस को बना रस के भाव में उपस्थित रखती है । पंडा के काम की मंदी और घर को किराये पर चढ़ाने की बेचैनी , शिव जी के मंदिर को घर से बाहर करने की यातना उन के अभिनय की आंच में पूरे बनारसी ठाट के साथ बांचने को मिलती है । धर्मनाथ पांडेय की पत्नी की भूमिका में साक्षी तंवर खांटी बनारसी पंडिताइन के रुप में उपस्थित हैं । कम में भी , तंगी में भी , विपन्नता के सारे पाठ के बावजूद घर को सम्मान से चलाने की जद्दोजहद का जो चटक रंग और ठाट अपने अभिनय में साक्षी तंवर उपस्थित करती हैं , वह फ़िल्म की ताक़त बन जाती है । 

सब्जी की दुकान पर हैं पंडिताइन। साथ में एक मल्लाह की पत्नी भी है । दोनों पड़ोसिन हैं , सहेली भी । दोनों ही सब्जी ख़रीद रही हैं । मल्लाह की पत्नी भिंडी  को भी लेडी फिंगर बोल कर ख़रीद रही है । मंहगे टमाटर समेत सारी अच्छी सब्जियां वह ख़रीदती है । पर पंडिताइन सिर्फ़ लौकी ख़रीद कर ही अपने को चुप कर लेती हैं । फ़र्क यह है कि मल्लाह की पत्नी के घर विदेशी किरायेदार है । इन के घर नहीं । एक दिन मल्लाह की पत्नी आती है चहकती हुई पंडिताइन के घर । बड़ा सा हार पहने । पंडिताइन देख कर भी नोटिस नहीं लेतीं । पर वह बड़े नखरे और नाज़ के साथ कह कर दिखाती है । तो भी पंडिताइन के भाव में लोभ या चिढ़ नहीं होती । पर उसी शाम टीन एज बेटी जब कंप्यूटर  फीस जमा करने का ज़िक्र करती है तो पंडिताइन टूट जाती हैं । पंडित धर्मनाथ पांडेय भी लाचार हो जाते हैं । इसी लाचारी और यातना में डूब कर उस से कहते हैं , तुम संस्कृत पढ़ो , कंप्यूटर नहीं । इसी बीच छोटा बेटा आता है यह पूछते हुए कि पड़ोस के घर जा कर टी वी देख आएं ?


दूसरी सुबह , धर्मनाथ संस्कृत पढ़ाने की नौकरी खोजने निकल पड़ते हैं । कई जगह जाते हैं । कहीं काम नहीं मिलता । क्या तो अब संस्कृत पढ़ने वाले लोग ही नहीं हैं , वेद पढ़ने वाले लोग ही नहीं हैं , पढ़ाएंगे किसे ? कोई सत्यनारायण की कथा बांचने की सलाह देता है , कोई कुछ तो कोई कुछ । एक धर्मशाला में नौकरी की बात होती है । घर आ कर पंडिताइन से विवश हो कर कहते हैं बताओ , संस्कृत पढ़ाने की जगह , वेद पढ़ाने की जगह अब दरी और कुर्सी गिनवाऊं , रखवाऊं ? कैसे करुंगा यह काम ? चीखने-चिल्लाने और ढाई किलो के हाथ जैसे संवाद अदायगी की पहचान वाले सनी देओल को इस भावनात्मक और संवेदनात्मक अभिनय में टूट-टूट कर जीते और झुकते देखना , तिल-तिल कर मरते देखना , उन के अभिनय के इस नए शेड से , इस नए और औचक अभिनय में देखना दंग कर देता है । तब तो और जब वह एक दृश्य में रात के अंधेरे में रवि किशन को बुला कर उस से मिलते हैं । वह पालागी करते हुए मिलता भी है । वह मिलते हैं और कुछ बोल नहीं पाते , मारे संकोच और लाज के । आंख झुका कर कर खड़े हो जाते हैं । वह टूट गए हैं , घर खर्च ठीक से न चला पाने के कारण , बेटी के कंप्यूटर फीस के न भर पाने के कारण , गुज़ारे के लिए कोई क़ायदे का काम न मिल पाने के कारण । चुप-चुप धरती देखते और पैर से धरती खोदते खड़े हैं । रवि किशन समझ जाता है उन की पीड़ा और उन की ज़रूरत । पूछता है धीरे से ही , किरायेदार चाहिए ? जैसे हज़ार जूते पड़ गए हों धर्मनाथ पांडेय पर । लेकिन वह फीकी मुस्कान फेंकते हुए , सिर और आंख झुकाए हामी में सिर हिला देते हैं । वह कहता है , हो जाएगा ! अपराधबोध में गड़े वह घर लौट आते हैं । बेटी को पास बुलाते हैं । बड़े दुलार और प्यार से कहते हैं , तुम कंप्यूटर पढ़ो ।

अब संस्कृत पढ़ाने की आड़ में किसी विदेशी औरत को एक कोठरी किराये पर देने की यातना कथा शुरू होती है । कैसे एक धर्मनिष्ठ परिवार जो लहसुन-प्याज भी नहीं खाता , थोड़े से पैसों की ज़रूरत खातिर एक विदेशी औरत का दास बन जाता है । चाकर बन जाता है । संस्कृत का एक आचार्य , प्रकांड पंडित एक किरायेदार औरत की सुख-सुविधा , उस की चाय , उस के नहाने , उस के भोजन आदि की व्यवस्था करने की चाकरी बजाने में प्राण-प्रण से न्यौछावर हो जाता है । संस्कृत जैसी विराट भाषा कैसे बाज़ार के आगे टूट कर बिखर-बिखर जाती है । ध्वस्त हो जाती है । अपनी विरासत , अपना मूल्य सब कुछ खोते एक धार्मिक शहर , एक भाषा , एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की दारुण गाथा बन जाती है यह फिल्म । साक्षी तंवर और सनी देओल के अभिनय की आंच में पगी यह फ़िल्म मस्त काशी  के मरते जाने का शोक गीत बन जाती है । चंद्रप्रकाश द्विवेदी के कैमरे से रची इस कविता में एक शहर , एक परिवार का संताप और संत्रास ही नहीं है , बाजार की खामोश मार का दुर्निवार समय भी दर्ज करती जाती है ।


विनय तिवारी की बनाई और विजय अरोड़ा की शानदार फ़ोटोग्राफ़ी वाली मोहल्ला अस्सी में राम जन्म भूमि आंदोलन का ताप भी है , मंडल आयोग के विरोध की तिलमिलाहट भी । गवाह बनती है पप्पू के चाय की दुकान । पप्पू के चाय की दुकान ही काशी का अस्सी का केंद्रीय प्रस्थान बिंदु है । यही प्राण वायु है । मोहल्ला अस्सी में भी चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसे केंद्र में रखा है । दुनिया भर की सारी हलचल पप्पू की चाय की दुकान में गूंजती है । इस चाय की दुकान के लंबे-लंबे विमर्श को फ़िल्म में सहेजना मुश्किल काम था । वैचारिक द्वंद्व को , चाय की दुकान के विमर्श को किसी फ़िल्म में , फ़िल्म की ताक़त बनाना आसान नहीं था । पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसे संभव बनाया है । काशी का अस्सी का चूंकि केंद्रीय प्रस्थान बिंदु यही है और काशीनाथ सिंह ने इसे लिखा भी है पूरे प्राण-प्रण से तो बात बन गई है । वामपंथी वकील की भूमिका में राजेंद्र गुप्त , विहिप कार्यकर्ता के रूप में मुकेश तिवारी और गया सिंह की भूमिका में मिथिलेश चतुर्वेदी के अभिनय ने इन दृश्यों को प्राणवान बना दिया है । यहां वामपंथी और विश्व हिंदू परिषद के लोग , न्यूट्रल लोग सब एक साथ बैठते हैं । सांप्रदायिकता और सेक्यूलरिज़्म की अंतहीन बहस करते , लड़ते-झगड़ते , भांग खाते , चाय पीते , दुनिया भर की चिंता करते , एक दूसरे की ऐसी-तैसी करने में मगन रहते हैं । एक दूसरे का सुख-दुःख साझा करते हुए । विदेशी औरतों के सेक्स प्रसंग भी दिलचस्प हैं । सेक्स के लिए भी वह किस तरह नाई , मल्लाह आदि जातियों के लोगों को ही चुन कर अपना दास बनाती हैं , एक पत्नी के होते हुए भी वीजा के लिए उन से दूसरा विवाह रचाती हैं यह विवरण भी बिन कहे उपस्थित होता रहता है । उन की बेरोजगारी , बेरोजगारी भत्ता के बहाने बनारस में सस्ते में गुज़र करने की यातना भी एक तथ्य बन कर फ़िल्म में पैबंद की तरह हाजिर है । अधकचरा आध्यात्म भी किस तरह बिकाऊ होता है , कैसे एक नगर की संस्कृति , उस की पहचान को नष्ट करता है , इस की चुगली भी खाती रहती है , मोहल्ला अस्सी । काशी का अस्सी में तो किसिम-किसिम की गालियों की बरसात है पर उषा गांगुली के नाटक काशीनामा में गालियां नहीं हैं । लेकिन वहीं मोहल्ला अस्सी में भोसड़ी वाले की बहार है । पप्पू की दुकान में तो है ही भोसड़ी वाले , पंडों और औरतों की जुबान पर भी बात-बेबात है । इस एक कमजोरी से बच सकते थे , चंद्रप्रकाश द्विवेदी । आख़िर प्रदर्शनकारी कलाओं की एक सीमा होती है । लेखन में तो सब चल जाता है , फ़िल्म में नहीं । बस यहीं मार खा गया है मोहल्ला अस्सी । विरोध और रिलीज पर रोक की यातना में एक क्लासिक और खूबसूरत फ़िल्म डूब गई है ।

6 comments:

  1. आपके इस आलेख को पढ़ने के बाद तो ये फ़िल्म देखनी आवश्यक हो जाती है ।

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  2. आपके इस आलेख को पढ़ने के बाद तो ये फ़िल्म देखनी आवश्यक हो जाती है ।

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  3. भैया अद्भुत समीक्षा !!! अब तो यह फिल्म देखना अनिवार्य है !!!

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-12-2015) को "जीवन घट रीत चला" (चर्चा अंक-2196) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. मैंने फिल्म देखी है। सही है, एक शब्द ने डूबा दी है पूरी नैया। ठीक है कि बनारसी इसे तकिया कलाम की तरह बोलते हैं मगर कई बार यह बेजा प्रदर्शन और सस्ती लोकप्रियता के लिए किया गया प्रयास लगा।

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  6. बहुत ही बढ़िया और अनोखा रिव्यू है - फ़िल्म किताब की तरह है समझ में आता है और ये भी कि चुपके से वो कविता भी बन जाती है अपनी प्रहाव से.
    परन्तु हम गाली से इतना नाक-भौंह क्यों सिकुड़ते हैं - गाली भी तो हमारे ग़ुस्से और संप्रेषण का एक अंग है और ये हमारे समाज का एक हिस्सा है - क्यों फिर उसके साथ एक अछूत सा व्यवहार करें- ऐसी hypocrisy क्यों करें ? सुना है दुनियाँ कर सबसे क्रीएटिव देश फ़्रान्स में तो गाली की dictionary भी उपलब्ध है

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