Monday, 11 February 2013

टूट गए हैं, पर टूटे नहीं हैं नागर जी

दयानंद पांडेय 

लखनऊ में गोमती नदी के अलावा कभी एक ‘त्रिवेणी’ भी थी। यशपाल, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर वाली साहित्यिक त्रिवेणी की बची अंतिम कड़ी नागर जी इन दिनों बहुत उदास हैं।

उन की इस उदासी का सबब उन की ज़िंदगी से प्रतिभा नागर ऊर्फ ‘बा’ का न होना ही है। बा बीते 28 मई [1985] की सुबह मेडिकल कालेज में जो सोईं तो नहीं उठीं। लेकिन नागर जी बार-बार उठते हैं, बैठते हैं, हर किसी के आने के बहाने आंखें भिंगो लेते हैं, आवाज़ भींग-भींग जाती है लेकिन बा की याद उन के मन में कभी नहीं सोती। बा उन के मन में अपने यादों की मीठी टीस हमेशा-हमेशा के लिए बो गई हैं।

सत्तर साल का यह बूढ़ा लेखक ‘तुम मेरे पास होती हो जब कोई दूसरा नहीं होता’ जैसी लोकप्रिय फ़िल्मी लाइन बतियाते-बतियाते गुनगुना कर मुसकुरा पड़ता है। ज़रा रुक कर नागर जी आंसू पोछते रहते हैं, ‘लेकिन मेरे साथ यह भी उलट है। देखो तुम से बात कर रहा हूं, तुम्हारी बा की याद भी दिल के कोरों पर है। हां अकेले में होता हूं तो आंखों की कोरों में उस के और अपने 55 बरस के साथ की रीलें दौड़-दौड़ जाती हैं। सुख-दुख, आपसी समझ और विश्वास की रीलें। एक बहादुर औरत के कारनामों की रीलें।’

वह बताते हैं कि, ‘क्या पता था कि वह अभी हमें छोड़ जाएगी। ज़्यादा नहीं हमने चाहा था कि राम तुम ढ़ाई तीन साल का साथ हमारा और रहने दो। फिर ले जाओ तो हम खुशी से टाटा करेंगे। लेकिन राम को मंजूर नहीं हुआ। तो भी तुम्हारी बा के लिहाज से सोचता हूं तो कोई दुख नहीं है। 68 की हो चली थी। लेकिन अपने तई सोचता हूं तो दुख से भर जाता हूं’।

बात ही बात में वह बताते हैं कि ‘इतवार’ को बाथरूम से आते वक्त जब वह घिसटने लगी तो मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘बुढ़िया उठ कर चल नहीं अभी टांग तोड़ दूंगा’। पर वह कुछ नहीं बोली। बात आई-गई हुई। पर रात में तकलीफ इतनी बढ़ी कि अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। सोमवार को ड़ा. खन्ना से पूछा, ‘भइया मैं मरूंगी तो नहीं?’ खन्ना ने कहा, ‘अरे नहीं भाभी। अभी ठीक किए देता हूं।’

‘भइया मैं मरूंगी तो नहीं!’ ही बा का अंतिम बोल था। फिर वह नहीं बोलीं। मंगल की सुबह फिर उठी भी नहीं।

उन के अचानक चले जाने से नागर जी बेहद टूट गए हैं। आम तौर पर उमर के उतार पर पुरुष अपनी पत्नी के लिए, इतने विह्वल अपने यहां नहीं होते। जाने वह संकोच करते हैं या वह प्यार को शिद्दत से महसूस करने के बजाय खो गए होते हैं। लेकिन दर्जनों किताबों के प्रणेता अमृत लाल नागर सारे संकोच तोड़ बिना किसी कुंठा के फ़िल्मी गाना गुनगुना पड़ते हैं। कहते हैं, ‘एक लेखक की पत्नी को जैसा होना चाहिए वह थी। कमजोर से कमजोर आर्थिक क्षणों में किसी ने नहीं जाना कि हमारे बच्चों ने खीर खाई है कि चने चबाए। आस-पास के बूढ़ों से ले कर बच्चों तक को पढ़ाने में लगी रहती थी। असहाय औरतों की खातिर महिला उद्योग केंद्र खोला। क्या-क्या गिनाऊं कि उस ने क्या-क्या किया। साल में तीन चार लड़कियों के कन्यादान भी कर डालती थी।’

वह रुआंसे हो कर कहते हैं, ‘लेकिन अपना सब किया धरा छोड़ तो गई ही मुझे भी अनाथ छोड़ गई। मेरी नस-नस में अब एक खालीपन भर गया है। कहूं कि खोखला हो गया हूं।’ फिर वह बड़ी देर तक चुप रहते हैं।

‘अब क्या करने की सोचते हैं?’ पूछने से उन की तंद्रा टूटती है, कहते हैं, ‘ यह खोखलापन जो है भरना है। चुपचाप नहीं रहना है क्यों कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। सो बेटे इस खोखलेपन को काम से भरूंगा.....।’

वैसे नागर जी ने अपना एक उपन्यास अभी जल्दी ही पूरा किया है ‘करवट’। करवट अगस्त तक राजपाल एंड संस दिल्ली से छप कर आ जाएगा। दो साल लगे इस उपन्यास को लिखने में। यह उपन्यास हिंदुस्तानी इतिहास और परिवेश का अनूठा दस्तावेज साबित होगा। 18 वीं सदी में अंग्रेजों के आने से इस उपन्यास की शुरुआत होती है। फ़िलहाल करवट में सन् 1900 तक के राजनीतिक सामाजिक मोड़ों और जोड़-तोड़ का हिसाब-किताब है। मन और तबियत ठीक होने पर नागर जी इसी कथावस्तु को आगे बढ़ाना चाहते हैं। फ़िलहाल नागर जी की योजना यह है कि क्रिया-कर्म के बाद अपनी छोटी बेटी आरती के साथ महीने-पंद्रह दिन के लिए पठानकोट जाएंगे। दामाद वहां एयरफोर्स में स्क्वाड्रन लीडर हैं। वापस आ कर काम पर लग जाएंगे।

नागर जी का बड़ा सा हवेलीनुमा घर जो कुछ दिनों से खाली-खाली रहता था इन दिनों भरा-भरा है पर उदास है। नागर जी ने इन्हीं चार महीनों में अपने दो आत्मीयजनों को खोया है। पहले छोटे भाई को और अब जीवन-संगिनी को। लेकिन उन के भीतर का विश्वास बावजूद इस सब के उतना ही ठोस दिखता है जितना पहले था। वह इस तकलीफ में भी देश में घल्लूघारा से ले कर हिंदी की दुर्दशा, शहर और मुहल्ले तक की समस्याओं पर उसी निश्चिंतता और विश्वास के साथ बात करते हैं जिस तरह पहले भी करते थे। पर वह लय नहीं दिखी इस बार उन की बातचीत में। हां, लेकिन अपनी जीवन शैली से वह पहले की ही तरह जुड़े हुए हैं।

हुआ यह कि आए हुए लोगों की खातिर शरबत देते वक्त उन के हाथ में शरबत का गिलास दे दिया गया। गिलास वह बड़ी देर तक हाथ में लिए रहे। लेकिन शरबत नहीं पिया। जब लोग चले गए तो इशारे से बोले, ‘आरती बेटी यह रख दो, शाम हो गई है। अभी थोड़ी सी घोटूंगा और वही लूंगा।’ नागर जी का अभिप्राय भंग से था।

4 comments:

  1. नागर जी वह संस्मरण मैंने कुछ दिन पहले पढ़ा था जो उन्होंने बा के न रहने के बाद लिखा था।आपका यह लेख पढ़कर उस लेख की याद आ गयी। किसी अखबार में बा के न रहने पर उन्होंने इंटरव्यू देते हुये कहा था- तीन चौथाई अमृतलाल तो बा के साथ चला गया।

    ReplyDelete
  2. http://www.lavanyashah.com/2013/02/special-program-by-vividh-bharati-on.html

    ReplyDelete
  3. " ही इझ नो मोर "...

    ही इझ नो मोर ! ११ फरवरी पापा की पुण्य तिथि --
    स्व . पंडित नरेन्द्र शर्मा का यह शताब्दी वर्ष है - जन्म फरवरी 28 सन 1913 पुण्यतिथि : फरवरी 11 1989

    ReplyDelete
  4. पंडित नरेंद्र शर्मा और नागर जी चाचा जी अभिन्न मित्र थे। नागर जी के छोटे भाई का बनाया केदार मठ का नीला जल चित्र
    हमारे घर पर दीवार पे सदा लगा रहता था। एक और सुन्दर चित्र रत्न नागर जी का था ' अर्धनारीश्वर ' रेखा चित्र क्रीम सिल्क
    पे गहरी लाल रेखाओं से बना हुआ ...और स्व। प्रतिभा नागर जी ने ही आगे बढ़ कर मेरी अम्मा सुशीला को नरेंद्र शर्मा की नव विवाहिता पत्नी के भेस में फूलों से बने ओढ़नी, लहंगा पहनाकर सजाया था ...सच , पापा के जाने पे हमारे दुलारे नागर जी चाचा जी ने कहा था ' प्रतिभा को खोने के बाद आज बंधू को याद कर रहा हूँ और आज फिर मैं फूट फूट कर रोया हूँ ..'
    पापा जी के घर तक कई मीलों , बम्बई की धूलभरी गलियों में पैदल चल कर नागर जी बस का किराया बचा लेते और उन पैसों से अपने प्रिय बंधु के लिए ' मिठाई ' खरीद के
    मुस्कुराते , प्रसन्न नरेंद्र शर्मा से मिलने आ पहुँचते थे ..
    आज न ऐसे लोग ही रहे ना ऐसा
    निश्छल स्नेह ही दीखे ...हाँ बस , यादें रह गईं !
    - लावण्या

    ReplyDelete