Wednesday 9 May 2012

कभी न समाप्त होने वाले प्रश्नों की पीड़ा

वीरेंद्र सारंग
दयानंद पांडेय एक चुप लेखक हैं, जैसे साइलेंट राइटर। लेकिन उन के चुप रहने से क्या, उन के लेखन में एक शोर है, संवाद है। वे परवाह भी नहीं करते कि उन का रचनात्मक कार्य क्यों नहीं नोटिस में है। ‘अपने अपने युद्ध’ उपन्यास की चर्चा खूब हुई और दयानंद पांडेय को खरी-खोटी भी सुननी पड़ी। यह उपन्यास यथार्थ ही नहीं, नंगी सच्चाई का उपन्यास है। भाषा में अश्लीलता है। खटकती है तो यह बात कि अश्लील लग क्यों रहा है, जब कि आज का कहानीकार छिपाने के नाम पर कुछ शेष नहीं रखता। गंभीरता से देखें तो अश्लीलता शब्द से नहीं ध्वनि से है। होना यह चाहिए था कि अश्लील होते हुए भी सभ्य लगे। जब भी वैचारिक अभाव रहेगा या बहस-विमर्श के लिए स्थान नहीं रहेगा तो शील-अश्लील के भाव प्रकट ही होंगे। दयानंद पांडेय की खूबी है कि वे विमर्श संवादों में ही करते हैं, कोई अलग से भारी भरकम पैरा नहीं लिखते। ‘अपने अपने युद्ध’ चकाचौंध और भाग दौड़ भरी ज़िंदगी का भीतरी सच है, वह भी संवेदना के स्तर पर। समाज, राजनीति और संस्कृति-सिनेमा की अंदरूनी दुनिया है। पांडेय जी वहां पैठ बनाते हैं जहाँ शब्द नहीं होते लेकिन वे शब्दों के संसार से संप्रेषित करने का सफल प्रयास करते हैं, यह नंगी सच्चाई है। सत्य गहरा होगा तो नंगा होगा। तमाम चरित्रों को सहेज कर दयानंद अपने पात्रों से युद्ध करवाते हैं जहाँ प्रेम है, प्यार करती स्त्रियाँ हैं, दुख है, संत्रास है, तमाम जटिल बेचैनियां हैं जिन्हें शब्द देना कठिन है।

दयानंद पांडेय कथाकार हैं।......और मजे हुए कथाकार-कलाकार हैं। वैसे उन का पेशा पत्रकारिता का है। कुल मिला कर कलम का ही काम है। कर्म, धर्म स्वभाव जब एक हो तो किया गया कार्य परिपक्व होता ही है। भले ही चार उपन्यास [अब सात] और पांच [अब सात] कहानी संग्रह के बाद भी जिस प्रकार की सूचना लेनी चाहिए थी, नहीं ली गई। बावजूद इस के हिंदी संस्थान, उ.प्र. लखनऊ ने ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ को नामित पुरस्कार [अब एक जीनियस की विवादास्पद मौत पर यशपाल पुरस्कार] भी दे कर सब का ध्यान खींचा है। आखिर क्या है दयानंद पांडेय के लेखन में? यह प्रश्न स्वत: ही फूटता है।

भाषा और उपन्यास के संवादों पर पूरी पकड़ बनाने वाले अपने धुन के पक्के दयानंद पांडेय ‘अपने अपने युद्ध’ से हुए आक्रमण से घबराते नहीं हैं वरन् ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ उपन्यास धर देते हैं कि लो देखो। मैं यहाँ भी हूँ। कथ्य में माहिर दयानंद यहाँ भी विचारों का लबादा नहीं ओढ़ाते। सब कुछ कथा के रूप में यंत्रवत चलता रहता है। स्वयं दयानंद ने स्वीकार किया है कि ‘लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं एक प्रतिबद्धता है’। कैसी प्रतिबद्धता है - पीड़ा को स्वर देने की। ‘अपने अपने युद्ध’ की पीड़ा क्या है? शायद स्वयं से लड़ने की पीड़ा है। पात्रों का कभी न समाप्त होने वाले नंगे युद्ध की पीड़ा है और पीड़ा है कि हर स्थान पर मौजूद है सेक्स - नंगा सेक्स, यह दूसरे लिंग की ओर आकर्षण की पीड़ा है। कभी न समाप्त होने वाले प्रश्नों की पीड़ा है। यह उपन्यास तमाम सवाल खड़े करता है।

‘लोक कवि अब गाते नहीं’ की पीड़ा भोजपुरी समाज की पीड़ा है। हमारा लोक समाज कितना संत्रास भरा है, यह देखा जा सकता है। अजीब तरह का संघर्ष है। समाज, भाषा, संस्कृति को बचाने की ललक है तो वही ऊँचाईयाँ छू लेने की विकट इच्छा भी है। निश्चित ही लोक साहित्य हमें लय सिखाते हैं।.....और इसी लोक जीवन के सहारे दयानंद पड़ताल करते दिखते हैं। लोक चिंता का प्रारंभ दयानंद के उपन्यास ‘अपने अपने युद्ध’ में भी है लेकिन एक झलक भर है। लोक कवि उपन्यास में चुभन जैसा है। निश्चित ही उपन्यास में बाज़ार का दलदल है तो एक छटपटाहट, एक बेचैनी है जो अपनी बोली-वाणी में यात्रावत् है। दयानंद पांडेय का फलक बड़ा है। वे छोटी छोटी वस्तुओं में बड़ा संत्रास ढूंढ लेते हैं। ऐसा उन की कहानियों में देखा जा सकता है। दयानंद यथार्थ और खुलेपन के बीच एक स्थान बनाते हैं जहाँ बहस की पूरी गुंजाइश रहती है। कहानियों में वे भाषा और कथ्य को ले कर बेहतर दिखते हैं। अपनी यौन कुंठा के लेखकीय दायरे से बाहर आते हैं। आधुनिकीकरण के दबाव और बदलते समय के खुलेपन के बीच दयानंद पांडेय की छटपटाहट देखी जा सकती है। लेकिन सेक्स में वे खुलेपन या सत्य के चित्रण को वे रोक नहीं पाते। कहानियों का प्रारंभ साफ-सुथरी ज़मीन से होता है लेकिन लगता है कि आग्रह वही पुराना है और ऐसे पड़ाव तलाश लेती है कहानियाँ जहाँ नंगी सच्चाई देखी जा सकती है। ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ में नई ज़मीन तलाशी जा सकती थी और बेहतर होने की गुंजाइश रहती भी दिखती है। कहानी के लिए वही पुराने उपकरण सुखद नहीं हैं।

कुछ भी हो दयानंद विवादों से बचने का प्रयास नहीं करते, क्यों कि उन की अभिव्यक्ति का दायरा बड़ा है, संकुचित नहीं है कुछ भी। कहीं पशुप्रेम का संदेश है तो कहीं आदमी के स्वभाव से ऊबा हुआ पात्र। दयानंद की कहानियाँ व्यवहार के मनोविज्ञान और उसे व्यवहार में लाने का प्रयास करती हैं, लेकिन डर नहीं है। भय हो तो खतरनाक उपकरणों से बचा जा सकता है जो कहानी की राह में ढूह बने हैं। विस्तार पाती कई कहानियों में प्रश्न नहीं मिलते न बहस के लिए जगह बनती है। ऐसी कहानियों में ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’, ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ का ज़िक्र किया जा सकता है। दयानंद पांडेय मानसिक मुद्दा उठाते हैं और उस में संबंधों को जूझते हुए स्पष्ट देखते हैं। यह अद्भुत है। चरित्रों को आसानी से समझने के पारखी दयानंद एक ऐसी लकीर खीचते हैं जो सामान्य दृष्टि से दिखाई नहीं देती और यह भी लगता है कि दयानंद पांडेय घटना को कथा के रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता ही नहीं रखते वरन् साहस भी दिखाते हैं, लेकिन कथ्य के उबाऊपन से कहानी को बाहर निकालना होगा दयानंद को।

अपनी गतिशीलता और पूर्ण संवाद से लदी-फदी कहानियाँ ध्यान तो खींचती ही हैं, एक एक शब्द पढ़ाने पर पाठक को मजबूर भी करती हैं। इस मामले में दयानंद कंजूस नहीं हैं, शायद इस का कारण हो उन का बतियाना-बोलना और पात्र के साथ चलना। निश्चित ही दयानंद पांडेय भावुकता में जीते हुए समर्पण भाव से पात्र के साथ होते हैं। इसी कारण वे ‘सुमी का स्पेस’ और ‘मैत्रेयी की मुश्किलें’ में संघर्ष, कठिनाइयों और समस्याओं का जिक्र करते हैं। संवेदना का स्तर चाहे जैसे बनाना पड़े भले पौराणिक कथा से जोड़ना पड़े, दयानंद पीछे नहीं हटते। ‘मन्ना जल्दी आना’ और ‘संवाद’ अच्छी कहानी है। कहीं अपनी ज़मीन दिखाई देती है तो कहीं व्यवहार को समझने की ज़रूरत। संघर्ष चेतना और संवाद के स्तर पर दयानंद ने चरित्रों को खूब समझा-जीया है चाहे उपन्यास हो या कहानी। सारी वस्तुएँ वर्तमान से जूझती हैं। जो आज के साहित्यिक वातावरण के लिए सुखद है।

दयानंद पांडेय नए लेखक नहीं हैं। मँजे-मँजाए कथाकार हैं। कहीं चौंकना होता है तो कहीं एक शांत प्रवाह की गति तो कहीं रूढ़ियों, परंपराओं और त्रासदी होती हुई कथा मुश्किलों पर खत्म होती है। दयानंद पांडेय ने बच्चों के लिए भी ‘सूरज का शिकारी’ नामक पुस्तक प्रस्तुत की है। वे ‘प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचनादृष्टि’ का संपादन भी करते हैं तो अनुवाद भी। अपनी कथा-यात्रा में व्यस्त बेबाक, बेफिक्र दयानंद पांडेय को पढा जाना चाहिए और बहस होनी चाहिए। कथा साहित्य के पास ऐसा कथाकार भी है जो चिंता मुक्त हो कर पीड़ा के प्रति प्रतिबद्ध है।

[दस्तावेज़ से साभार]

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