Tuesday, 1 May 2012

धन की दुश्मनी की प्रेरणा प्रेमचंद से लिखवाती थी : जैनेंद्र कुमार

उन दिनों प्रेमचंद की जन्म-शताब्दी मनाने का बुखार चढ़ा हुआ था। सो जैनेंद्र कुमार से बात करनी थी। उन से प्रेमचंद के बाबत कुछ लिखवाने या बतिया कर कुछ सार्थक निकाल लेने का सवाल था। जैनेंद्र कुमार से बात करना बहुतों के लिए कठिन रहा है। जैनेंद्र कुमार तो छोड़िए उन के द्वारा किए गए नामकरण वाले अज्ञेय से भी बात करना खासा मुश्किल काम रहा है। लेकिन तब टीन-एज उत्साह था, अमृतलाल नागर की चिट्ठी थी और प्रेमचंद पर कुछ अच्छा काम करने का जुनून भी। २१ साल की उम्र थी। १९७९ की बरसात का उमस भरा महीना था। जैनेंद्र कुमार का त्याग-पत्र और सुनीता की खुमारी तारी थी मन पर और उन के भटकाव के भाव का सुरूर भी था। धर्मयुग में कन्हैयालाल नंदन द्वारा चलाई गई बहस में जैनेंद्र जी द्वारा दी गई स्थापना कि एक लेखक के लिए पत्नी के अलावा एक प्रेयसी भी ज़रूरी है की दाहक उपस्थिति भी तब मन पर कहीं दर्ज थी। पर दरियागंज के उन के मकान पर उन से मिलते ही सब काफूर हो गया। बहरहाल पेश है जैनेंद्र कुमार से दयानंद पांडेय की बातचीत :


बहैसियत पाठक प्रेमचंद आप की नज़र में?

-मैं बतौर पाठक ही उन के प्रति आकृष्ट हुआ था। मानना चाहिए कि उन के लेखन में आदर्शवाद की झलक मेरे आकर्षण का मुख्य कारण थी।

उन में आदर्शवाद कहां दिखाई देता है आप को? मेरी समझ में तो यथार्थवाद बल्कि वैज्ञानिक यथार्थवाद से उन का जुड़ाव था। गोदान को ही लें। होरी अंत में मारा जाता है। कफन या रंगभूमि में सूरदास को लें। कहीं भी किसी कहानी-उपन्यास को लें हर जगह यथार्थ से जुड़ी रचनाएं मिलेंगी आप को। और खुद निजी ज़िंदगी में भी वे पक्के यथार्थवादी थे।

-यह कथन आप का एक ढंग से सच है। फिर भी कहीं न कहीं तो उसे [आदर्शवादी] होना ही चाहिए। नहीं तो उस की झलक मुझे कैसे मिल पाती। यों मुझे यथार्थवाद का ठीक पता नहीं, वैज्ञानिक यथार्थवाद का तो और भी नहीं। विज्ञान कहीं ठहरता नहीं। अपनी शक्ति की शोध में बढ़ते जाने को विवश कल तक जो निरापदार्थ था, विज्ञान की मान्यता में, वो अब ऊर्जा का पुंज है। मानो वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हुआ जा रहा है। मानो विज्ञान की नज़र में भी अब चेतन हो चला इस लिए किसी निश्चित यथार्थवाद के साथ वैज्ञानिक लगना खतरे का काम है। जो दिखता है उसे यथार्थ कह लीजिए लेकिन उसी दृश्य का जो पीछे से अदृष्टि उपजा रहा है। और काम कर रहा है, उस को क्या कहिएगा? मैं उसे आदर्श मूल्य कह कर छुट्टी पा लेना चाहता हूं।

इस तरह से भाग क्यों रहे हैं?

-चाहे तो उस के [वैज्ञानिक यथार्थवाद] लिए कोई और शब्द गढ लीजिए। लेकिन हर हालत में वो कुछ न कुछ यथार्थ से आगे और किंचित यथार्थ प्रतीत होगा। मुझे निश्चय है कि प्रेमचंद यथार्थ से आबद्ध नहीं थे, न लुब्ध थे। ऐसा होता तो वे उसी यथार्थ के विशलेषण में न जाते। न उन की रचनाओं से स्थिति परिवर्तन की आवश्यकता और संशोधन की दिशा की झलक मिलती है। यथार्थ को यदि उन का साहित्य आप के सामने रखता है तो साथ ही आप में उस के प्रति समीक्षा और 'विरोध' का भाव जगाता है। ये भाव संभव ही नहीं है, यदि लेखक के पास यथार्थ से भिन्न आदर्श का कोई सहारा नहीं होता।

तत्कालीन समकालीन और आज के संदर्भ में प्रेमचंद को आप कैसे जोड़ना चाहेंगे?

-प्रेमचंद जब लिख रहे थे तो आप जानते हैं कि उन की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। यानी समय की दृष्टि में सामाजिक रुप से वह उतने अकलमंद और उपयोगी नहीं गिने गए होंगे। आज यदि उन के उत्तराधिकारी संपन्न स्थिति में हों तो मानना होगा - प्रेमचंद का साहित्य आज के लिए अधिक संगत और स्वीकार्य बन गया है। क्या ये कहना गलत होगा कि स्थूल दृष्टि से अपने समय में हो कर के मानसिक दृष्टि से उस समय से आगे सामयिक सुविधाओं और चतुराइयों को अपना कर यदि वह आर्थिक सामाजिक दृष्टि से सामान्य से ऊंचे स्तर पर नहीं पहुंच सके तो इस का आशय है कि कोई भी प्रयत्नशील लेखक समयनुगामी नहीं होता है। प्रत्युत किंचित उस का समीक्षक होने से अग्रगामी होता है। इसी कारण उस की स्थिति अस्थिर और असुरक्षित भी रहती है, वह बलशाली नहीं होता है। उस का वर्तमान जब कि शून्य हो सकता है तब भविष्य में उसी के साथ क्रमश: बलसंचित होता जाता है। कारण यही कि जिस ध्रुव मूल्य को ले कर लिखना होता है वह समय के साथ चूक नहीं जाता। आगे के लोगों के लिए भी शेष रहता ही चला जाता है। मैं मानता हूं कि प्रेमचंद में ये आस्था और ध्रुवता न होती तो उन का साहित्य कब का असंगत हो चुका होता। जैसा कि और अनेक का हो चुका और होता जा रहा है।

समकालीनों में अगर तुलना करें तो प्रेमचंद की किसी विशिष्टता को आप कैसे रेखांकित करेंगे?

-प्रेमचंद में औरों से मैं ने एक विशेषता पाई। उस समय साहित्य में जाने-माने और भी व्यक्तित्व थे। लेकिन सर्व-साधारण के रुप में रह कर प्रेमचंद जैसे तुष्ट सहज रह सकने वाला दूसरा कोई मुझे मालूम नहीं हुआ। सभी मानो समाज में उत्तरोत्तर सम्मान्य और संभ्रांत श्रेणी तक उठते जाना चाहते थे। लेकिन प्रेमचंद की निरीहता विलक्षण थी। उन्हों ने मुझे कहा कि उन के सच लिखने के पीछे प्रेरणा है धन की दुश्मनी की। यद्यपि इस प्रेरणा पर वह पूरी तरह से जी नहीं सके और इस अंतर्विरोध की वेदना अंत तक सहते गए। लेकिन शेष साहित्यकारों में धन की दुश्मनी तो क्या उस के प्रति उदासीनता भी नहीं देखी। उलटे उस की अभिलाषा और लालसा ही अधिकांश दिखाई दी। प्रेमचंद इस माने में सब से अलग मुझे मालूम होते हैं। और उन की वही मूर्ति मेरे निकट सर्वाधिक स्पृहणीय है।

आप प्रेमचंद के मित्र भी थे। उन से अंत तक जुडे रहे। कोई खास संस्मरण सुनना चाहूंगा।

-मै तब पहाड़ी धीरज [दिल्ली] पर रहता था। बाहर चबूतरे पर दातून करते बैठा था कि गली के मोड़ पर देखता क्या हूं कि प्रेमचंद कंबल कंधे पर डाले हुए और हाथ में झोला लटकाए चले आ रहे हैं। कार्ड लिखे यह चौथा ही रोज था। जवाब न तार और सीधे ये क्या? पास आने पर पूछा कि आप ने आने की खबर क्यों नहीं दी? बोले तुम्हारा पता तो था। बारह आने फिजूल क्यों खर्च करता और तुम नाहक स्टेशन पर पहुंचते। मेरे रहने की जगह बहुत छोटी थी। शाम को एक गोष्ठी थी जो लंबी चली। और हम लोग रात दस बजे पहुंचे कमरे में। राह में सोते पड़ों को लांघते हुए दबे पांव अंदर पहुंचे तो मां जग गईं। क्या मालूम था कि गोष्ठी के अनंतर खाने-पीने का कुछ इंतज़ाम न होगा। घर पर मने कर ही गए थे। मां से कहा कुछ खाने को है? बोली अभी बन जाता है। प्रेमचंद के साथ भीतर खाट पर बैठा बात कर ही रहा था कि मां पूरी और अचार के साथ थाली सामने रख गई। प्रेमचंद को मां की कुशलता और मेरी अकुशलता की याद अंत तक नहीं भूली। सवेरा होने पर उन्हें माने हुए लेखक काशिदुल खैरी से मिलने जाना था। उन्हें मैं ने कहा कि शेव कर लीजिए। शेव किया लेकिन बताने पर तीसरी बार भी ठोड़ी पर कुछ बाल रह गए। बोले हटाओ जी कौन ये देखने जाता है। गली से बाहर निकले तो प्रेमचंद पान लेने पनवाड़ी की तरफ बढ़ गए। उसी वक्त सामने आए अयोध्या प्रसाद गोयल जिन्हों ने उर्दू कविता के कई खंड हिंदी को दिए हैं। प्रेमचंद को देख कर बोले ये किस अफ़लातून को साथ ले रखा है? प्रेमचंद पान ले कर आए तो मैं ने परिचय कराया - ये हैं अयोध्या प्रसाद और आप प्रेमचंद। अयोध्या प्रसाद पर दस घडा पानी पड गया। और वो इस अचंभे से अंत तक नहीं छूट पाए कि आदमी ऐसा ऊंचा और ऐसा सादा भी हो सकता है ! ऐसी कितनी यादें हैं कि जो अपने संबंध में प्रेमचंद की निरीहता को ऐसा उजागर करती हैं कि आश्चर्य होता है !

(जैनेन्द्र कुमार के नाम अमृतलाल नागर की चिट्ठी)

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