Tuesday 14 February 2012

अपराजित परमानंद श्रीवास्तव

दयानंद पांडेय 

परमानंद श्रीवास्तव

परमानंद जी की विद्वता, सहजता उन का उत्साह और उन की वक्तृता मुझे बहुत मोहित करती है। कोई तीन दशक से भी अधिक समय से परमानंद जी को मैं ऐसे ही देखता आ रहा हूं। देखता यह भी आ रहा हूं कि उनकी इस विद्वता, सहजता, उत्साह और उन की वक्तृता की डोर थामे या थोड़ा और स्पष्ट कहूं कि उनकी इस सदाशयता की उंगली थामे चलने वाले लोग ही जब-तब उनके साथ कृतघ्नता पर भी उतर आते हैं। जाने उन्हें कैसा लगता है। पर यह सब देख-सुन कर मुझे पीड़ा होती है। तो क्या यह उन के गृह नगर में ही रह जाने का दंश है? या कुछ और भी?

अपनी आत्मकथा में हरिवंश राय बच्चन बार-बार इलाहाबाद को कोसते मिलते हैं। इलाहाबाद जैसे उन्हें क्षण-क्षण डंसता रहता है। परमानंद जी की भी कुछ टिप्पणियों में मैंने पाया कि गोरखपुर उन्हें क्षण-क्षण भले न डंसे पर उस का दंश उन्हें सालता ज़रूर है। बच्चन जी तो इलाहाबाद छोड़ गए पर परमानंद जी ने गोरखपुर नहीं छोड़ा। बिलकुल उस गीत की तरह कि, ‘सावन में पड़े झूले/तुम हमको भूल गए/ हम तुमको नहीं भूले।’ हां, गोरखपुर के लोग परमानंद जी को चाहे जैसे बरतें, वह गोरखपुर को नहीं भूलते। नहीं छोड़ते गोरखपुर। एक बार वर्धमान जाते ज़रूर हैं। पर जल्दी ही लौट आते हैं। गोरखपुर उन्हें भले उन का प्राप्य नहीं देता, उलटे लांछन और अपमान के दंश भी जब तब परोसता ही रहता है। और परमानंद जी बार-बार की यात्राएं भले करते रहते हैं। पर लौट-लौट -फिर-फिर गोरखपुर। हालां कि गोरखपुर से कई लोग चले गए।  और अब तो आते भी नहीं। मजनूं गोरखपुरी पाकिस्तान चले गए, फ़िराक़ गोरखपुरी इलाहाबादी हो गए। मरे भले दिल्ली में पर अंत्येष्टि गोरखपुर में नहीं इलाहाबाद में ही हुई। विद्या निवास मिश्र गए। और दुर्निवार संयोग देखिए कि गोरखपुर से बनारस जाते रास्ते में हम से बिछड़ गए। और काशी में ही अग्नि पाए। रामदरश मिश्र गए। हालां कि वह फिर-फिर लौटते रहते हैं। पर रिटायर होने के बाद वह गोरखपुर में नहीं बसे। दिल्ली में बस गए। भगवान सिंह, राम सेवक श्रीवास्तव, आनंद स्वरूप वर्मा और तड़ित कुमार जैसे लोग तो अब शायद लौटते भी नहीं। दिल्ली के ही हो गए। लाल बहादुर वर्मा वाया हरियाणा इलाहाबाद गए और अब वहीं बस गए हैं। जब भी पांव जले धूप में घर ही याद आए गाने वाले माहेश्वर तिवारी भी मुरादाबाद में बस गए। हां, उदयभान मिश्र ज़रूर सारा देश घूम कर भी गोरखपुर में बसे। रामचंद्र तिवारी ने गोरखपुर में ही अंतिम सांस ली। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रामदेव शुक्ल भी गोरखपुर में ही हैं। पर परमानंद जी जितने अकेले नहीं हैं। गोरखपुर में अपमान, लांछन और उपेक्षा के दंश इन लोगों के हिस्से वैसे नहीं आए जैसे परमानंद जी के लिए जब-तब आए हैं। तो यह परमानंद जी का नहीं  गोरखपुर का दुर्भाग्य है।

यह गोरखपुर का दुर्भाग्य ही है कि राम अधार त्रिपाठी जीवन अचानक लापता हो जाते हैं और उनकी तलाश उन के परिजन ही कर करवा कर थक जाते हैं। उनका कोई सहयात्री उनकी सुधि नहीं लेता। ‘धरती पर आग लगे पंछी मजबूर है/क्यों कि आसमान बड़ी दूर है’ गुनगुनाने वाले विद्याधर द्विवेदी विज्ञ को यही गोरखपुर विक्षिप्त बना देता है। केदार नाथ सिंह जब तक पड़रौना में रहे, गोरखपुर से उपेक्षित ही रहे। हां, जब वह जे एन यू गए तो गोरखपुर के सिर माथे के हो गए। पर देवेंद्र कुमार? इतने समर्थ कवि  और सहज सरल व्यक्ति को गोरखपुर ने जो यातना और उपेक्षा दी वह अकथनीय है। बहस ज़रूरी है जैसी उन की कविता आज भी मन दहका देती है। उन का गीत ‘एक पेड़ चांदनी लगाई है आंगने/ फूल जाए तुम भी आ जाना मांगने।’ आज भी लोग याद करते हैं। पर हुआ यह कि लोग उनकी चांदनी के फूल तो उन से ले जाते रहे पर यह भूल गए कि उस चांदनी के पेड़ को पानी भी देना चाहिए। नहीं दिया किसी ने पानी। वह गुनगुनाते रहे ‘आते-जाते राह बनाते/तुम से पेड़ भले।’ और अंगूर खट्टे हैं जैसे मुहावरे तोड़ते रहे, ‘तावे से जल-भुन कर कहती है रोटी/अंगूर नहीं खट्टे छलांग लगी छोटी।’‘मरें तो गै़र की गलियों में भी गुलमोहर के लिए’ को सार्थक करते हृदय विकास पांडेय जैसे शतदल के लिए ही जीते-मरते थे। उन के हृदय में हर कोई समा जाता था। पर उन्हें भी गोरखपुर ने गुमनाम ही मर जाने के लिए अभिशप्त कर दिया। महेश अश्क जैसे उम्दा शायर को भी यह शहर संताप के सिवाय कुछ नहीं देता।

और तो और ‘रेतवा बतावे नाईं दूर बाड़ै धारा/तनी अउरो दउरऽ हिरना पा जइबऽ किनारा।’ जैसा गीत लिख कर मृगतृष्णा को तोड़ने वाले मोती बी. ए. जैसे सहृदय व्यक्ति और समर्थ रचनाकार को बरसों तक बीमार रहने के बावजूद कोई पूछने नहीं जाता। उनके निधन पर स्वयंभू लोग बिना उनकी कविता से परिचित शब्दों का हवा महल खड़ा कर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। और गोरखपुर के अख़बारों में उन्हें भोजपुरी का शेक्सपीयर लिख दिया जाता है। भोजपुरी फ़िल्मों का गीतकार बता दिया जाता है। तब जब कि मोती बी. ए. ने अपने जीवन में कोई नाटक लिखा ही नहीं। और जब तक वह फ़िल्मों में रहे तब तक कोई भोजपुरी फ़िल्म बनी ही नहीं थी। तो ऐसे साक्षरों का यह शहर परमानंद जी को भी जब तब दंश देता है और परमानंद जी फिर भी गोरखपुर को नहीं छोड़ते, गोरखपुर को ही जीते हैं तो उनकी इस अदम्य जिजीविषा को हम सलाम करते हैं।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बांसगांव पर एक अच्छी और लंबी कविता लिखी है। उनकी मां वहां पढ़ाती थीं।  सर्वेश्वर का बचपन भी वहां बीता है। परमानंद जी के पिता वहां मुख्तार थे सो परमानंद जी का भी बचपन वहीं बीता है। परमानंद जी के एक संस्मरण में बांसगांव वैसे ही झांकता है जैसे मां की गोदी  से कोई बच्चा। जब मैं गोरखपुर में पढ़ता था और थोड़ी बहुत कविता-कहानी करने लगा था तो यह सोच कर खुशी होती थी, छाती फूल जाती थी कि परमानंद जी हमारी ही तहसील बांसगांव के रहने वाले हैं। बाद में उन्होंने बताया कि उन्हों ने कौड़ीराम के इंटर कॉलेज में कुछ समय पढ़ाया भी है। तो और अच्छा लगा। मैं तो नहीं पर मेरे गांव के अधिसंख्य लड़के कौड़ीराम के इसी कॉलेज में पढ़े और आज भी पढ़ रहे हैं। उन्हीं दिनों रागदरबारी पढ़ रहा था तो परमानंद जी ने ही बताया कि श्रीलाल शुक्ल बांसगांव में एस. डी. एम. रहे हैं। और रागदरबारी के कुछ ब्यौरे संभवतः यहां के भी हैं।

परमानंद श्रीवास्तव
मैं बी.ए. में पढ़ता था और एक साप्ताहिक अख़बार में काम भी करता था। परमानंद जी से जब भी कभी उस अख़बार के लिए लिखने को कहा उन्होंने कभी मना नहीं किया। जब कि वह अख़बार उन के क़द के लायक़ बिलकुल नहीं था। आज जब पीछे मुड़ कर सोचता हूं तो थोड़ी हैरत होती है कि परमानंद जी कैसे तो भला उस अख़बार के लिए भी बिना ना नुकर किए लिख देते थे। एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि उन को शाम को फ़ोन किया और वह कहते ठीक है सुबह आ कर ले लेना! यह उनकी सहजता ही थी। और यह कोई मेरे साथ अकेले की नहीं थी। सबके साथ थी। सरकारी महकमे में काम करने वाले फ़ोटोग्राफ़र सुरेंद्र चौधरी ने उन्हीं दिनों एक डाक्यूमेंट्री बनाने की ठानी बड़ी ललक और उत्साह के साथ। उसकी कमेंट्री परमानंद जी ने ही  लिखी थी। ऐसे जाने कितने सुरेंद्र चौधरी या मेरे जैसे लोगों की मदद के लिए परमानंद जी कूद कर आगे आ जाते थे। कहीं-कहीं चुपचाप भी। जहां बाक़ी लोग अपनी गुरूता के भार से दबे स्थानीय कह कर कतराते, परमानंद जी सहज बयार बन कर सबको संवारते। तब जब कि वह राष्ट्रीय फ़लक पर भी थे। तो भी स्थानीयता उन्हें कचोटती नहीं थी। उन्हीं दिनों प्रेमचंद शताब्दी थी। प्रेमचंद विशेषांक निकालने की मैंने ठानी। परमानंद जी से चर्चा की। वह सहयोग के लिए न सिर्फ़ तैयार हो गए, सक्रिय भी हो गए। एक संपादक मंडल बनवाया जिसमें जैनेंद्र जी से ले कर अमृत लाल नागर तक को न सिर्फ़ जोड़ा, बहुत सारे लोगों से लेख भी मंगवाए। दुर्भाग्य से वह विशेषांक नहीं छप पाया। पर बाद में यह सामग्री पुस्तक के रूप में छपी। उन्हीं दिनों विश्वविद्यालयों में हिंदी के स्वरूप को ले कर वह चिंतित रहते थे। मैं उन दिनों नया-नया पत्रकार बना था और परिचर्चाएं बहुत लिखता था। साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रेमचंद पर एक लंबी परिचर्चा छपी थी तब। परमानंद जी ने तभी विश्वविद्यालयों में हिंदी की चिंताजनक स्थिति पर एक प्रश्नावली बनवाई। ढेर सारे प्राध्यापकों के पते दिए और कहा कि तुम्हें इस पर भी काम करना चाहिए। मैंने किया भी। यह परिचर्चा काफी बड़ी हो जाने के कारण धारावाहिक रूप से तब दिनमान में छपी। इस की खूब नोटिस भी ली गई। अभी भी कोई टिप्स लेनी हो, कोई जानकारी लेनी हो परमानंद जी को मैं लखनऊ से भी फ़ोन कर ले सकता हूं। लेता ही हूं। और उन्होंने कभी मना भी नहीं किया। न ही कतराए। मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध का फ़लैप उन्होंने ही लिखा था।

परमानंद जी के साथ बहुत सारी घटनाएं, बहुत सारी यादें हैं। उन की सदाशयता, सहायता और सहयोग की। मैंने कभी जेनरेशन गैप की भी कमी नहीं महसूस की उनके साथ। बात 1981-82 की है। उन दिनों मैं दिल्ली में रहता था। बैचलर था। अकेले रहता था। मेरे एक अध्यापक थे हरिश्चंद्र श्रीवास्तव। अपनी पी. एच. डी. के सिलसिले में दिल्ली आए थे। मेरे घर ही ठहरे। परमानंद जी उन के गाइड थे। परमानंद जी भी थे। उन्हीं दिनों उन का एक कविता संग्रह भी छपने वाला था। वह कविता संग्रह का प्रूफ भी फ़ाइनल कर रहे थे और हरीश जी के नोट्स भी तैयार करवा रहे थे। एक शाम हरीश जी ने रंगीन करने की सोची। हम से इशारों में पूछा। मैंने कहा कि मुझे क्या ऐतराज हो सकता है, पर परमानंद जी से पूछ लीजिए। परमानंद जी से उन्होंने अनुमति मांगी और अनुरोध भी किया। परमानंद जी सकुचाते हुए मान गए। पर बोले मेरे लिए सिर्फ़ जिन! अब सोचिए कि हरीश जी मेरे अध्यापक और परमानंद जी हरीश जी के गाइड। तीनों ने एक साथ शाम को खुशगवार बनाया। तब के दिनों में आसान नहीं था यह। यह उन की सहजता भी थी और बड़प्पन भी। परमानंद जी आज भी अपनी इस सहजता में सराबोर हैं। उन के साथ आज भी किसी को जेनरेशन गैप नहीं महसूस हो सकता। पर दुर्भाग्य से अब उन की इसी सहजता, इसी सहयोग को लोगों ने उन की कमज़ोरी बताना शुरू कर दिया है। उन्हीं के कुछ पूर्व विद्यार्थी उन पर बिलो द बेल्ट आरोप लगा कर उन्हें बदनामी की हद तक ले गए हैं।

परमानंद जी सख़्त भी हैं कुछ मायने में। मेरे दांपत्य की शुरुआत में ही कुछ टूट-फूट हुई। टूट-फूट के दौर में मैं दिल्ली में था। गोरखपुर जाने पर हर बार की तरह परमानंद जी से मिलने उन के घर गया। उन्होंने दरवाज़ा खोला। और पूरी सख़्ती से चुप लगा कर बैठ गए। मैंने पूछा कि बात क्या है? वह बोले, ‘तुम जो कर रहे हो, वह ठीक नहीं है। और ऐसे में जब तक तुम अपनी ग़लती ठीक नहीं कर लेते मेरे लिए तुम से बात करना हरगिज़ संभव नहीं है।’ कह कर वह फिर चुप हो गए। उन्हों ने जैसे जोड़ा, ‘तुम भूल रहे हो कि तुम्हारी शादी में मैं भी शरीक़ था।’ फिर चुप। मैं भीतर तक हिल गया था। दुबारा की गोरखपुर यात्रा में जब मैं सपत्नीक उनके घर पहुंचा तो जैसे उन की सारी खुशियां छलछला गईं। अपनी पसंदीदा पोई की पकौड़ियां बनवाईं। और घर से बाहर तक छोड़ने भी आए। और आज जब पीछे मुड़ कर सोचता हूं तो पाता हूं कि मेरे दांपत्य को सहेजने में परमानंद जी की उस सख़्ती का कितना योगदान है।

कुछ बरस पहले वर्तमान साहित्य के आलोचना विशेषांक में छोटे सुकुल के नाम से छपे एक लेख में तमाम लेखकों पर बिना किसी का नाम लिए अप्रिय और अशोभनीय टिप्पणियां संकेतों में चस्पा थीं। परमानंद जी पर भी थीं। गोरखपुर में भी उसका विमोचन कार्यक्रम था। नामवर जी को आना था। परमानंद जी ने उन को अपना गुस्सा बता दिया था। कार्यक्रम रद्द हो गया था। उन्हीं दिनों गोरखपुर में उन से मिलने गया तो गुस्सा उन का पूरे रौ में था। वह बता रहे थे कि, ‘अरविंद का फ़ोन आया था। मैं ने उस से बात करने से इंकार कर दिया और कह दिया कि अभी नहीं, और कभी नहीं!’

हर व्यक्ति में कुछ न कुछ अंतर्विरोध होते ही हैं। परमानंद जी में भी कुछ अंतर्विरोध हैं। और अगर उनके अंतर्विरोधों को खंगालना ही है तो खंगालिए। पर बिलो द बेल्ट तो मत जाइए। इतना कि आप को अपने नाम से भी लिखने की हिम्मत नहीं पड़ती। ऐसा तो मत कीजिए। परमानंद जी से अगर आप  असहमत हैं तो उन का विरोध कीजिए। डट कर कीजिए। उन के लिखे पर बात कीजिए। उन को काट डालिए। पर नहीं आप ने तो उन को पढ़ा ही नहीं तो रचना के स्तर पर आने के बजाय थोथा प्रलाप व्यक्ति के स्तर पर शुरू कर दिया। यह नपुंसकता है, कुछ और नहीं।

और जो सचमुच ही परमानंद जी के अंतर्विरोध किसी को जानना हो तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का उन पर लिखा संस्मरण एक नाव के यात्री पढ़े। इतनी शालीनता, विनम्रता और पूरे सम्मान से विश्वनाथ जी ने बातें रखी हैं कि पूछिए मत। यह संस्मरण हालां कि थोड़ा पुराना है पर मैंने पढ़ा इधर है। पढ़ कर मैंने विश्वनाथ जी से पूछा भी कि, ‘आप ज्योतिषी भी हैं क्या?’ क्यों कि परमानंद जी आजकल वही-वही कर रहे हैं जो-जो आप ने लिखा है!’ विश्वनाथ जी हंस कर टाल गए। और विश्वनाथ जी की ख़ासियत है कि वह परमानंद जी के विद्यार्थी भी रहे हैं और सहकर्मी भी। बल्कि गोरखपुर विश्वविद्यालय में वह पहले पढ़ाने गए, परमानंद जी बाद में आए। यह बात भी विश्वनाथ जी ने उस संस्मरण में बहुत ही शालीनता से दर्ज की है। यह भी लिखा है कि एक समय वह परमानंद जी जैसा ही बनना चाहते थे और कि एक समय दोनों लोग इतने एकमेव हो गए थे कि लोग इन दोनों को परमानंद तिवारी और विश्वनाथ प्रसाद श्रीवास्तव कहने लग गए। ‘पल-छिन चले गए/जाने कितनी इच्छाओं के दिन चले गए।’ परमानंद जी के गीत का भी ज़िक्र उन्होंने बहुत मुग्ध भाव से किया है और उन के अंतर्विरोधों को भी बिलकुल प्याज के छिलकों की तरह उतारा है। यह संस्मरण परमानंद जी के व्यक्तित्व की आंच, अंतर्विरोध और भाषा का सुख तीनों का संगम है। फिर कहां छोटे सुकुल लोगों की अभद्रता, लांछन, अपमान और बजबजाती भाषा!

दुख और क्षोभ तो किसी भी को होगा। परमानंद जी भी आदमी हैं, उन को भी हुआ होगा। उन के विश्वविद्यालय, उन के कुछ सहकर्मियों और पूर्व विद्यार्थियों ने जो संताप और दंश उन्हें परोसे हैं वह किसी को भी पराजित कर सकते हैं। लेकिन अपराजिता के पिता परमानंद श्रीवास्तव कभी इस सब के आगे पराजित नहीं हुए। पराजित नहीं हुए परमानंद जी मंदिर या हाता के आगे भी। मंदिर मतलब गोरखनाथ मंदिर के महंत योगी आदित्यनाथ और हाता मतलब हरिशंकर तिवारी का घर। गोरखपुर के तमाम बाहुबलियों, नेताओं, अफ़सरों के साथ ही बहुतेरे लेखक, पत्रकार, प्राध्यापक और वाइस चांसलर्स तक इन दोनों बाहुबलियों के यहां मत्था टेकने और हाजिरी बजाने में छाती चौड़ी करते हैं। और नियमित। पर परमानंद जी उन थोड़े से विरलों में हैं जो कभी न मंदिर गए, न हाता। घुटने नहीं टेके इन के आगे। क़द में भले परमानंद जी छोटे दिखते हों पर इन बाहुबलियों को उन्हों ने अपने आगे बौना ही रखा। कभी कुछ समझा ही नहीं इन्हें। इस बात की मुझे बेहद खुशी है। बेहद दुख भी है इस बात का कि जब उन पर बिलो द बेल्ट वार हो रहे थे तब जिस भद्रलोक को उन के साथ खड़ा होना चाहिए था, नहीं खड़ा हुआ। सो परमानंद जी थोड़े बिखर गए। बिखरते गए। और यह देखिए उन के अग्रज आलोचक भी उम्र के इस मोड़ पर उन्हें घाव देने से नहीं चूके। किसी ने उन के मंुशी होने का राज खोला तो किसी ने उन्हें तुरंता आलोचक बताया। व्यथित हो कर परमानंद जी ने आलोचकों की एक पीढ़ी को तानाशाह घोषित कर दिया। अब अलग बात है कि यह कहते हुए परमानंद जी  संभवतः यह भूल गए कि अब तो लगभग हर आलोचक तानाशाह हो चला है। और कि परमानंद जी की तमाम सहजता के बावजूद उनके आलोचक की तानाशाही भी हमने देखी-भोगी है। बहुत से रचनाकारों को उन्होंने भी उतना ही उपेक्षित किया है, जितना कि औरों ने। अपने ही कुछ चहेतों को उन्हों ने भी बहुत चढ़ाया है। जातिवादी, महिलावादी होनेे का आरोप भी उन पर है। ख़ैर, परमानंद जी का यह बिखरना अब अब विस्फोट बन ही रहा था कि उन्हें बारी-बारी व्यास सम्मान और भारत भारती सम्मान भी मिल गया। अपराजित परमानंद श्रीवास्तव अब विजयी भाव में भी आ गए। मेरे जैसे उन के प्रशंसकों के लिए यह बहुत सुखद था। ठीक उतना ही सुखद जितना कि उन के जन्म दिन की यह हीरक जयंती है। वह शतायु हों, और अपने को बिखरने से बचाएं, ईश्वर से यही प्रार्थना है। इस लिए भी कि परमानंद जी 75 की वय के इस मोड़ पर अकेले नहीं हैं। वह अब हमारी विरासत हैं।





4 comments:

  1. चलिए आपने परमानंद सर को याद तो किया .अब उनकी कोई चर्चा नहीं करता .जब तक वे जीवित थे .भीड़ लगी रहती थी .न जाने कितने लोगो का उन्होंने उद्धार किया .वह गोरखपुर के पर्याय बन गए थे .अब उसी गोरखपुर में चाहे उनका जन्म दिन हो या पुन्य तिथि .उन्हें याद करने का कोई उपक्रम नहीं होता ..शहर ने उन्हें भुला दिया है .इस बेवफाई को आप क्या कहेगे ..

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  2. Nice post but my Grandfather Dr Gopi Nath Tiwari is not mentioned under whom DrParmanand Srivastava has done his PhD

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  3. उनकी चुम्बकीय वाणी सहज की आकर्षित कर लेती थी

    आपका संस्मरण बहुत स्मरणीय है

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