Monday 6 February 2012

संवाद

दयानंद पांडेय 

पिता जी, अरसे बाद आप को लिख रहा हूं। ऐसा नहीं कि इस बीच आप को लिखने को मन न हुआ हो। लेकिन एक मनःस्थिति थी, जो बार-बार बांध लेती थी मन को। नहीं लिख पाया था।जाने ऐसा क्या है समझ नहीं पाता। अपनी ओर से जाने-अनजाने आप को तकलीफ ही दी है। कभी कोई कतरा सुख भी दे पाया होऊं, याद नहीं आता। हालां कि ऐसी मंशा कभी नहीं रही। फिर भी कुछ ऐसा जरूर है जो हम दोनों के बीच दीवार बन आता है हम जुड़ने के बजाय बिलगते दीखते हैं, निश्चय ही यह ठीक नहीं है। बीच की यह दीवार हटाई नहीं जा सकती क्या जहां तक मैं समझ पाया हूं, अकसर हम दोनों के बीच कुछ स्थितियों के अलावा आप का ‘सैद्धांतिक हठी आग्रह’ जो कहीं मुझे जड़ भी जान पड़ता है, और मेरा ‘व्यक्तिगत सच’ बार-बार टकराते रहे हैं। टकरा कर ओछे साबित होते रहे हैं, लोगों की भी नजर में, अपनी नजर में भी।वह चाहे आठ-दस बरस पहले घर छोड़ना रहा हो, बीच-बीच में पढ़ाई छोड़ी हो और कि कभी-कभी अपने आप को ही छोड़ बैठा होऊं, सब इस का ही नतीजा रहा है। आप दिखाने की इज्जत और नाक देखते रहे हैं और मैं व्यावहारिक तौर पर जुड़ने की कोशिश कर अपने-आप को निरंतर तोड़ता रहा हूं। इस बीच आप के साथ रहने के बावजूद आप से कुछ कहने के बजाय चिट्ठी ही लिखता रहा। कुछ कहने की स्थिति में आप ने आने ही नहीं दिया। किशोर वय में आप से डरा-डरा सहमा रहता। जवानी देखी नहीं। फिर भी उस वय में कुढ़ा-कुढ़ा रहता आप से। इस किशोर वय से जवानी के उतार के दिनों तक पुल बनाने की गरज से बहुतेरी चिट्ठियां आप को लिखीं, पर आप को दे एक भी न सका। कल बक्सा साफ कर रहा था आप को लिखी एक पुरानी चिट्ठी मिल गई। जानता हूं, आप इसे पसंद नहीं करेंगे। फिर भी चिट्ठी पुरानी जरूर है, अप्रासंगिक नहीं सो पढ़ाता हूं, आप को:

आदरणीय पिता जी,

बड़े दुखी मन से यह पत्र आप को लिख रहा हूं। इस में लिखी बातों पर आप प्रतिशत-भर भी ध्यान देंगे तो समझूंगा कि मेरी इच्छाओं, भावनाओं को आप समझते हैं, महसूसते हैं। यह मैं जानता हूं कि आप भी मजबूर हैं, कुछ करने की इच्छा रखते हुए भी आप हद तक असहाय हैं। फिर भी मैं ने कहा न कि मेरी इन कुछ बातों पर, जिन्हें नीचे लिख रहा हूं, आप प्रतिशत-भर भी ध्यान देंगे तो मुझे बड़ी खुशी होगी। समझूंगा कि आप कहीं से तो अपने हैं। लगभग बत्तीस कि पैंतीस बरस तो हो ही गए होंगे मुझे, पर आज तक कभी भी किसी बात पर मैं ने अपना मुंह नहीं खोला। मुंह खोल भी भला कैसे सकता हूं। आप ने इस परिवार के इर्द-गिर्द ऐसे कांटे रोप रखे हैं कि कोई बाहर का भला-चंगा आदमी भी आए तो इन कांटों के आतंक से गूंगा हो जाए। हम सब तो पहले ही से बीमार थे, तो तुरंत से गूंगा होना लाजिमी ही था....ख़ास कर मैं।

....बचपन की बात छोड़िए, तब तो आप के साथ रहना दूर आप का साया भी बमुश्किल पड़ पाया होगा, कभी हम पर। वो तो अम्मा थी जिस ने हमें अपने भरपूर प्यार-दुलार से संवारे-सजाए रखा। यह अम्मा का ही प्यार है, जिस की बदौलत इस कंटीली परिधि में भी जिंदा हूं।सोचता हूं, काश कि अम्मा कुछ दिन तक ही सही जो और जिंदा रही होती तो शायद आज यह जो आप हैं, आप यह न होते और यह जो मैं हूं, मैं यह न होता। और यह निक्की तो बिलकुल ही यह निक्की न होता।....न जाने क्या-क्या होता....और क्या-क्या न होता, कि शायद इस परिवार का नक्शा ही कुछ और होता। लेकिन ऐसा नहीं होना था, नहीं हुआ। अम्मा के मरने के बाद जब से होश संभाला है, बल्कि होश संभलते न संभलते आप ने मेरी शादी भी करवा दी। तब से ही हर बात को मैं चुपचाप सुनता, सहता और आपे से बाहर होने के बावजूद बराबर बर्दाश्त करता आया हूं। लेकिन पिता जी! अब यहां मेरा दम घुटने लगा है। अब ऐसे में यह घर, घर नहीं जेलखाना जान पड़ता है। जहां थोथे आदर्शों और दिखावटी शानो शौकत के नाम पर किसी को कुछ बोलने, करने या अपने ढंग से किसी मुद्दे पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं। हम अपने बीवी-बच्चों के भविष्य के बारे में भी कोई फैसला नहीं ले सकते। यहां तक कि आप को यह बताने में भी संकोच हो रहा है, फिर भी बताता हूं कि बीवी के पास कब जाना है, कैसी बात करनी है, कब साथ सोना है, जैसी बातें हम ख़ुद नहीं तय करते। मतलब कि हम अपने व्यक्तिगत संबंध भी ख़ुद नहीं तय कर सकते। यह भी ‘नई मां’ तय करती हैं।

ख़ैर, एक मर्यादा, भले ही तथाकथित सही के तहत यह भी हमें मंजूर है। लेकिन ‘उन्हें’ इस पर भी सब्र नहीं है। हर वक्त जबान की कमान पर कोई न कोई जुमला तना ही रहता है....। सच बताता हूं पिता जी, ये जुमले सुन-सुन कर ख़ून खौल उठता था कभी। लेकिन अब तो स्थिति यह है कि ये जुमले ख़ून खौलाते नहीं, ख़ून ठंडा करते हैं। यों आप से बहुत बचा कर भी उगले जाने वाले ये जुमले कभी-कभार तो आप के भी कानों से जरूर टकराते होंगे। कभी रत्ती-भर भी सोचा है आप ने....या कि कभी कुछ समझने की कोशिश की है कि यह क्या हो रहा है ? लेकिन कहां, बल्कि क्यों ? आप से तो यह सवाल भी पूछना एकदम बेमानी है। आप तो बहुत कुछ सुनते हैं। हां, कभी हमारी मूक वेदना भी सुनी है ? क्षमा कीजिएगा फिर गलती कर बैठा, यह सवाल पूछ कर, क्यों कि मैं यह ख़ूब जानता हूं। आप बातों को सुन कर भी नहीं सुन पाते। चीजों को कहीं बहुत  गहरे जानने के
बाद भी जान नहीं पाते। वैसे लोग तो आप के तेज दिमाग और पारखी नजर की बड़ी तारीफ करते हैं। मैं पूछता हूं, हमारे लिए आप का यह तेज दिमाग क्यों सड़ जाता है ? यह पारखी नजर कहां धंस जाती है ? क्यों....? ख़ैर, छोड़िए भी। अब तो पानी सिर से इतना गुजर चुका है कि....! ईमानदारी से कहता हूं कि मुझे तो इस बात में भी संदेह है कि, आप का ख़ून भी हूं। सिर्फ मैं ही क्यों ? दीदी और निक्की भी आप का ख़ून हैं, ऐसा भी बिलकुल नहीं लगता। और दिन-ब-दिन इस संदेह के किले को मजबूत किया है, आप की इस नाटकीय तटस्थता ने, अति उपेक्षित व्यवहार और अपमानजनक रवैए ने। चाहें तो आप इसे कमीनेपन के विशेषण से भी जोड़ कर देख सकते हैं। यह भी देखिए, बल्कि जरा गौर से देखिए कि यह विशेषण किस के साथ ठीक-ठीक जुड़ पाता है....।

मुआफ कीजिए यह चिट्ठी अधूरी है....कुछ पन्ने गुम हो गए हैं ख़ैर....

पिछले दिनों का घटनाक्रम हालां कि इस से कुछ इतर जरूर था, लेकिन मूल में कहीं यह ही था।

मैं ने सोचा था, बहुत होगा लोग मेरा बॉयकाट करेंगे। कुछ जली कटी सुनाएंगे। या कि कुछ और कर लेंगे। मैं यह भी जानता था कि हमारा दोमुंहा समाज, लूला-लंगड़ा और दोगला कानून भी बहुत कुछ नहीं कर सकता। यहां तक कि ओंकार की शादी में भी सचमुच शरीक होने की गरज से मैं नहीं गया था। शादी न होती तो भी उन दिनों उस अपने बेगाने शहर आना ही था। धंधे के बाबत। इत्तफाक ही था कि उन्हीं दिनों ओंकार की शादी की तारीख़ पक्की हुई थी। मुझे जब वकील (?) के तार के मार्फत 17 तारीख़ के बजाय 27 तारीख़ की सूचना दी गई, माजरा क्या है, तभी तेरी समझ में आ गया था। फिर भी पहुंचा था धंधे के चक्कर में, शादी में शरीक होने नहीं। हालां कि ओंकार मुझे कई बार आ कर शादी में शरीक होने को कह गए थे। बाबू जी ने भी व्यक्तिगत तौर पर कहा था। वहां पहुंच कर हैरान था कि ओंकार की शादी की रस्में थीं, और वह रस्में पूरी करने-करवाने की जगह स्टेशन से ले कर मेरे ठहरने की जगह तक दौड़ते रहे थे। रास्ते में इंजन बिगड़ जाने से गाड़ी 5-6 घंटे लेट हो गई थी। गाड़ी शाम के बजाय रात में पहुंची। अभी सूटकेस रख कर हाथ-मुंह भी नहीं धोया था, बदहवास ओंकार दरवाजे पर दस्तक दे गए। यह देख कर बड़ी हैरत में था कि गुनाह जैसा कुछ किया मैं ने था, और हिल ओंकार रहे थे। हालां कि कायदे से वह गुनाह ही न था। क्या हवा के खि़लाफ हो जाना ही गुनाह है ? फिर भी ओंकार की अतिरिक्त बेचैनी मुझे भी बेचैन कर गई। मैं ने उन्हें आंख मूंद कर आश्वस्त किया कि, ‘अगर विरोध करना जानता हूं तो विरोध बर्दाश्त करने का भी माद्दा रखता हूं।’ फिर भी वह अपनी कम आप सब की झंझटों से आक्रांत ही रहे। सुबह फिर हाजिर थे। तरह-तरह की सफाइयां देते, स्थितियों का ब्योरा देते, माफी मांगते। आप ने मेरे विरोध ख़ातिर जो शर्त रखी थी न रखी होती तो भी आने वाला नहीं था। इस लिए कि मुझे स्वाभिमान जितना प्यारा है उतना कुछ और नहीं, यह आप ख़ूब जानते हैं। अलबत्ता आप का वह विरोध मुझे कारगर नहीं लगा था। ईमानदारी से कहूं तो उस वक्त उसे ‘नपुंसक विरोध’ की संज्ञा दी थी। बावजूद इस के आप के इस विरोध में दम तलाश सकता था। पर जानता हूं, मैं उस शादी में न हो कर भी था। चाहे जैसे था, सब की जबान पर था। यह आप कैसे रोक सकते थे भला ? आप अभिशप्त थे सुनने के लिए। इस बहाने मेरी और आप की नाप-जोख ऐसे लोग करते रहे थे, जिन की ख़ुद कोई नाप-जोख नहीं है। नितांत बचकाना और छिछली मानसिकता से सराबोर ऐसे लोग जिन के पास अपनी कोई सोच नहीं, कोई दृष्टि नहीं। और यह सब नपुंसक विरोध के ही नतीजे में था।

जो भी हो, इन बातों का मेरी नजर में कोई अस्तित्व नहीं। इस बार मेरा कड़ियल-सा ‘व्यक्तिगत सच’ (आप के सैद्धांतिक हठी आग्रह के आगे नहीं), ‘परिवारगत सच’ के आगे बौना ही नहीं टुच्चा और ओछा भी साबित हुआ है। इसी बीच दो बार उस अपने बेगाने शहर जाना हुआ। पहली बार बाबा की बीमारी में जा कर स्थितियां बदली ही नहीं भयानक दिखीं तो मन हिल गया। लेकिन फिर सोचा कि यह बाबा से बिछोह की संभावना वाला परिवर्तित रूप है। पर दूसरी बार धंधे के फेर में गया तो, स्थितियां और भी विद्रूप हो चली थीं। आप को देखता तो बाहर से तो दृढ़ दीखने की कोशिश करता होता पर भीतर-भीतर छीजता-पसीजता कहीं गहरे हिल रहा होता था। आप के चेहरे पर उभरी टूटन और तकलीफ की रेखाएं मुझे बराबर छीलती रही थीं। नई मां की बेचैनी अम्मा की ही बेचैनी जान पड़ी, लगा कि उन्हें ‘नई मां’ कह कर अपने को ही अपमानित करता रहा हूं।

उन की आंखों में अम्मा की ही-सी आकुलता झलकती देख मन झनक-सा गया। भाइयों के चेहरे पर बिखरी इबारतें मुझे बराबर मथती रहीं। अपने आप से ही पूछने लग गया था कि, ‘यह क्या किया मैं ने?’ सच मानिए मैं ने और सब कुछ का होना सोचा था और कि उन स्थितियों से निपटने का माद्दा भी था, मुझ में, पर इन ‘बिखरी बेतरतीब इबारतों’, ‘टूटन और तकलीफ की रेखाओं’ के बारे में बिलकुल नहीं सोच पाया था। इन से मैं हार गया।....और भी बहुत सारे दृश्य हैं, स्थितियां और बातें हैं। इन सब के पीछे एक गहरी सोच है, जिन्हें कि यहां विस्तार दे पाना संभव नहीं है।

यों भी चिट्ठी काफी बड़ी हो गई है। लिखने को तो काफी लिख गया हूं, जाने आप इन बातों को किन अर्थों में लेंगे, नकारात्मक कि सकारात्मक, नहीं जानता। यह जानिए कि मैं ने जो भी किया था, सोच-समझ कर किया था। अलग बात है, परिणाम कुछ बहुत बेहतर नहीं मिला है। फिर भी उस ‘कर्म’ के लिए मेरे मन में न तो कोई पश्चात्ताप है, न ही किसी किस्म की शर्मिंदगी। इस बात का मलाल जरूर है कि अपने छोटे-से स्वार्थ की ख़ातिर, परिवार की अस्मिता आख़िर मैं क्यों भूल गया ? कैसे भूल गया, यह दूसरी बात है। महत्वपूर्ण यही है कि क्यों भूल गया? इस बात का मुझे गहरा पश्चात्ताप है। इतना कि आप से क्षमा मांग सकूं, नैतिक साहस भी नहीं रहा है। आप की चिट्ठी मिली। जरूर कहीं मेरे लिखने में ही कोई खोट रह गई कि मेरी पिछली चिट्ठी में लिखी बातें, आप के पल्ले नहीं पड़ पाईं। आप को यह ‘पल्ले न पड़ पाना’ भी पल्ले पड़ता है। मानता हूं कि इस पिछले कुछ समय में आप विडंबनाओं और चुनौतियों से दो-चार हो, चकित कर देने वाला दुख ढोते रहे हैं। और इन सब के मूल में मेरे कृत्य ही रहे हैं। लेकिन आप यह क्यों भूल जाते हैं कि विडंबनाओं और दुखों का जाल मुझ पर भी बिछा रहा है। और कि है। अलग बात है, यह जाल मैं ने खुद बुना है, स्थितियों को साक्षी मान कर। और इन स्थितियों के मूल में कमोबेश आप ही रहे हैं। लेकिन यह भी तय है कि अगर कोई जाल बुन सकता हूं, तो छिन्न-भिन्न भी कर सकता हूं। इस लिए भी कि चाहता हूं, आप का चरमराता व्यक्तित्व सहेजना। चाहता हूं, आप की विवेक शून्यता धो कर विवेक स्थापित करना। हौसलापस्ती तोड़ कर मस्ती में तब्दील करना। आप की वह पुरानी सूझ-बूझ और दम-ख़म वापस लाना। इन बातों को कोरा शब्दजाल न समझें, आप। बस इतना ध्यान रखें कि अगर चीजों के बिगड़ने में कहीं कोई कारण बन सकता हूं तो चीजों के बनने-बनाने में भी एक कारण बन सकता हूं। 

आप ने लिखा है, ‘तुम महान हो। बने रहो। ईश्वर से मेरी यही विनती है।’ इतना करारा तमाचा मत मारिए। आदमी बनना चाहता हूं। साधारण आदमी। ‘महान’ नहीं। विनती करनी ही है तो ईश्वर से यह कीजिए कि आदमी बनूं। मां और लता की चिट्ठियों से लगा था कि आप सहज हो गए हैं। और किसी कोने से खुश भी। लेकिन आप की चिट्ठी बताती है कि वह सहजता क्षणिक थी या कि ‘दिखावा’ या कि कहूं ‘बाहरी’ थी। भीतर से न तो आप सहज हो पाए हैं, न ही खुश। इस मर्म को भी खूब समझता हूं। आज तक आप ने मुझ से यह उम्मीद न की होगी, फिर भी सच मानिए, पहली बार आप के व्यक्तित्व के आगे मैं झुका, मैं बिछा। हर कोण से, पूरे मन से। इसे अचानक हृदय-परिवर्तन न मान कर सहज क्रिया मानें। ‘महान’ से आदमी में तब्दील होने की शुरुआत समझें। बस अपना मनोबल आप वापस लाइए। और कि बातों को नकारात्मक अर्थ में लेने के बजाय सकारात्मक अर्थ में समझने की कोशिश।

आप यह मान कर चलिए कि आप से कम दुखी और परेशान नहीं हूं। सुख की तलाश में भटकता दुख के बीज बोए बैठा हूं। फर्क इतना ही है कि आप के पास उन का अर्थ है, मेरे पास हो कर भी नहीं है। मूल विसंगति मेरे-आप के बीच यही है। इधर समझने लग गया था कि दुख छांट लिया है कि छंट गया है। लेकिन आप की चिट्ठी ने यह एहसास धुंधला दिया है। यह धुंधलका छंटने की उम्मीद कर सकता हूं क्या ?

आप की संतोष-भरी चिट्ठी से मन जरूरत से ज्यादा आश्वस्त हुआ। लगा कि बिखरी और सहज स्थितियां सहज संवर सकती हैं। मेरी कोशिश यही है। लिहाज-शर्म की दीवार मैं ने कभी नहीं लांघी। यह बुनियादी संस्कार है। हां, मन में आई बातों को ले कर कुंठित होने के बजाय एक मर्यादा के तहत साफ शफ्फाक तरह मैं कह जरूर लेता रहा हूं। और यह बात मुझे बेजा नहीं जान पड़ती। फिर भी आप को अगर कहीं ऐसा दिखा है तो ठीक ही दिखा होगा, शर्मिंदा हूं। समझता हूं कि आप पर तनाव और दबाव का असर उजड़ गया होगा और कि घर में स्थितियां बेहतर हुई होंगी।



संवाद
पृष्ठ-106
मूल्य-22 रुपए


प्रकाशक
हिंदी पुस्तक संस्थान
143, अलीगंज, कोटला मुबारकपुर, नई दिल्ली-11003
प्रकाशन वर्ष-1985


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