Thursday 9 February 2012

लोक कवि अब गाते नहीं

'लोक कवि अब गाते नहीं' सिर्फ भोजपुरी भाषा, उसकी गायकी और भोजपुरी समाज के क्षरण की कथा भर नहीं है बल्कि लोक भावनाओं और भारतीय समाज के संत्रास का आइना भी है। गांव का निर्धन, अनपढ़ व पिछड़ी जाति का एक व्यक्ति एक जून भोजन, एक कुर्ता पायजामा पा जाने की ललक और अनथक संघर्ष के बावजूद अपनी लोक गायकी को कैसे बचा कर रखता है, न सिर्फ लोक गायकी को बचा कर रखता है बल्कि शीर्ष पर पहुंचता है, यह उपन्यास इस ब्यौरे को बड़ी बेकली से बांचता है। साथ ही शीर्ष पर पहुंचने के बावजूद लोक गायक की गायकी कैसे और निखरने के बजाय बिखरती जाती है, बाजार के दलदल में दबती जाती है, इस तथ्य को भी यह उपन्यास बड़ा बेलौस हो कर भाखता है, इसकी गहन पड़ताल करता है। लोक जीवन तो इस उपन्यास की रीढ़ ही है। और कि जैसे उपन्यास के अंत में नई दिल्ली स्टेशन पर लीडर-ठेकेदार बब्बन यादव द्वारा बार-बार किया जाने वाला उद्घोष ‘लोक कवि जिंदाबाद!’ और फिर छूटते ही पलट कर लोक कवि के कान में फुसफुसा-फुसफुसा कर बार-बार यह पूछना, ‘लेकिन पिंकी कहां है ?’ लोक कवि को किसी भाले की तरह चुभता है और उन्हें तोड़ कर रख देता है, फिर भी वह निरुत्तर हैं। वह व्यक्ति जो शीर्ष पर बैठ कर भी बिखरते जाने को विवश हो गया है, अभिशप्त हो गया है, अपने ही रचे, गढ़े बाजार के दलदल में दब गया है। छटपटा रहा है किसी मछली की मानिंद और पूछ रहा है, ‘लेकिन भोजपुरी कहां है?’ बतर्ज बब्बन यादव, ‘लेकिन पिंकी कहां है?’ लोक गायकी पर निरंतर चल रहा यह जूता ही तो ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ का शोक गीत है ! और संघर्ष गीत भी ।

लोक कवि अब गाते नहीं
पृष्ठ सं.184
मूल्य-200 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003 


स्वर्गीय जय प्रकाश शाही की याद में

‘तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ गाते-बजाते लोक कवि अपने गांव से एक कम्युनिस्ट नेता के साथ जब सीधे लखनऊ पहुंचे तो उन्हें यह बिलकुल आभास नहीं था कि सफलता और प्रसिद्धि की कई-कई सीढ़ियां उनकी प्रतीक्षा में खड़ी हैं।
वह तो बस किसी तरह दो जून की रोटी की लालसा में थे। संघर्ष करते-करते यह दो जून की लालसा कैसे और कब यश की लालसा में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला। हां, यश और प्रसिद्धि के बाद यह लालसा कब धन वृक्ष की लालसा में तब्दील हुई, इसकी तफसील जरूर उनके पास है। बल्कि इस तफसील ने ही इन दिनों उन्हें तंग क्या, हैरान कर रखा है। गांव में नौटंकी, बिदेसिया देख-देख नकल उतारने की लत उन्हें कब कलाकार बना गई, इसकी भी तफसील उनके पास है। इस कलाकार बनने के संघर्ष की तफसील भी उनके पास जरा ज्यादा शिद्दत से है। पहले तो वह सिर्फ नौटंकी देख-देख उसकी नकल पेश कर लोगों का मनोरंजन करते। फिर वह गाना भी गाने लगे। कंहरवा गाना सुनते। धोबिया नाच, चमरऊवा नाच भी वह देखते। इसका ज्यादा असर पड़ता उन पर। कंहरवा धुन का सबसे ज्यादा। वह इसकी भी नकल करते।
नकल उतारते-उतारते वह लगभग पैरोडी पर आ गए। जैसे नौटंकी में नाटक की किसी कथावस्तु को गायकी के मार्फत आगे बढ़ाया जाता ठीक उसी तर्ज पर लोक कवि गांव की कोई समस्या उठाते और उस गाने में उसे फिट कर गाते। अब उनके हाथ में बजाने के लिए एक खंजड़ी कहिए कि ढपली भी आ गई थी। जबकि पहले वह थाली या गगरा बजाते थे। पर अब खजड़ी। फिर तो धीरे-धीरे उनके गानों की हदें गांव की सरहद लांघ कर जवार और जिले की समस्याएं छूने लगीं। इस फेर में कई बार वह फजीहत के फेज से भी गुजरे।
कुछ सामंती जमीदार टाइप के लोग भी जब उनके गानों में आने लगे और जाहिर है इन गानों में लोक कवि इन सामंतों के अत्याचार की ही गाथा गूंथते थे जो उन्हें नागवार गुजरता। सो लोक कवि की पिटाई-कुटाई भी वह लोग किसी न किसी बहाने जब-तब करवा देते। लेकिन लोक कवि की हिम्मत इस सबसे नहीं टूटती। उलटे उनका हौंसला बढ़ता। नतीजतन जिला जवार में अब लोक कवि और उनकी कविताई चर्चा का विषय बनने लगी। इस चर्चा के साथ ही वह अब जवान भी होने लगे। शादी ब्याह भी उनका हो गया। बाकी रोजी रोजगार का कुछ जुगाड़ नहीं हुआ उनका। जाति से वह पिछड़ी जाति के भर थे। कोई ज्यादा जमीन जायदाद थी नहीं। पढ़ाई-लिखाई आठवीं तक भी ठीक से नहीं हो पाई थी। तो वह करते भी तो क्या करते? कविताई से चर्चा और वाहवाही तो मिलती थी, कभी कभार पिटाई, बेइज्जती भी हो जाती लेकिन रोजगार फिर भी नहीं मिलता था। कुर्ता पायजामा तक की मुश्किल हो जाती। कई बार फटहा पहन कर घूमना पड़ता। कि तभी लोक कवि के भाग से छींका टूटा।
विधान सभा चुनाव का ऐलान हो गया। एक स्थानीय कम्युनिस्ट नेता-विधायक फिर चुनाव में उतरे। इस चुनाव में उन्होंने लोक कवि की भी सेवाएं लीं। उनको कुर्ता पायजामा भी मिल गया। लोक कवि जवार की समस्याएं भी जानते थे, और वहां की धड़कन भी। उनके गाने वैसे भी पीड़ितों और सताए जा रहे लोगों के सत्य के ज्यादा करीब होते थे। सो कम्युनिस्ट पार्टी की जीप में उन के गाने ऐसे लहके कि बस मत पूछिए। यह वह जमाना था जब चुनाव प्रचार में जीप और लाउडस्पीकर ही सबसे बड़ा प्रचार माध्यम था। कैसेट वगैरह तो तब तक देश ने देखा ही नहीं था। सो लोक कवि जीप में बैठ कर गाते घूमते। मंच पर भी सभाओं में गाते।
कुछ उस कम्युनिस्ट नेता की अपनी जमीन तो कुछ लोक कवि के गानों का प्रभाव, नेता जी फिर चुनाव जीत गए। वह चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश की विधानसभा में चुन कर लखनऊ आ गए तो भी लोक कवि को भूले नहीं। साथ ही लोक कवि को भी लखनऊ खींच लाए। अब लखनऊ लोक कवि के लिए नई जमीन थी। अपरिचित और अनजानी। चौतरफा संघर्ष उनकी राह देख रहा था। जीवन का संघर्ष, रोटी दाल का संघर्ष, और इस खाने-पहनने, रहने के संघर्ष से भी ज्यादा बड़ा संघर्ष था उनके गाने का संघर्ष। अवध की सरजमीं लखनऊ जहां अवधी का बोलबाला था वहां लोक कवि की भोजपुरी भहरा जाती। तो भी उनका जुनून कायम रहता। वह लगे रहते और गली-गली, मुहल्ला-मुहल्ला छानते रहते। जहां चार लोग मिल जाते वहां ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ गुहार कर कोई कंहरवा सुनाने लगते। बावजूद इस सबके उनका संघर्ष गाढ़ा होता जाता।
उन्हीं गाढ़े संघर्ष के दिनों में लोक कवि एक दिन आकाशवाणी पहुंच गए। बड़ी मुश्किल से घंटों जद्दोजहद के बाद उन्हें परिसर में प्रवेश मिल पाया। जाते ही वहां पूछा गया, ‘क्या काम है?’ लोक कवि बेधड़क बोले, ‘हम भी रेडियो पर गाना गाऊंगा !’ उन्हें समझाया गया कि, ‘ऐसे ही हर किसी को आकाशवाणी से गाना गाने नहीं दिया जाता।’ तो लोक कवि तपाक से पूछ बैठे, ‘तो फिर कइसे गाया जाता है?’ बताया गया कि इसके लिए आवाज का टेस्ट होता है तो लोक कवि ने पूछा, ‘इ टेस्ट का चीज होता है?’ बताया गया कि एक तरह का इम्तहान होता है तो लोक कवि थोड़ा मद्धिम पड़े और भड़के, ‘इ गाना गाने का कइसन इम्तहान?’
‘लेकिन देना तो पड़ेगा ही।’ आकाशवाणी के एक कर्मचारी ने उन्हें समझाते हुए कहा।
‘तो हम परीक्षा दूंगा गाने का। बोलिए कब देना है?’ लोक कवि बोले, ‘हम परीक्षा पहिले भी मिडिल स्कूल में दे चुका हूं।’ वह बोलते रहे, ’दर्जा आठ तो नहीं पास कर पाए पर दर्जा सात तो पास हूं। बोलिए काम चलेगा?’ कर्मचारी ने बताया कि, ‘दर्जा सात, आठ का इम्तहान नहीं, गाने का ही इम्तहान होगा। जिसको ऑडिशन कहते हैं। इसके लिए फार्म भरना पड़ता है। फार्म भरिए। फिर कोई तारीख़ तय कर इत्तिला कर दी जाएगी।’ लोक कवि मान गए थे। फार्म भरा, इंतजार किया और परीक्षा दी। पर परीक्षा में फेल हो गए।
लोक कवि बार-बार परीक्षा देते और आकाशवाणी वाले उन्हें फेल कर देते। रेडियो पर गाना गाने का उनका सपना टूटने लगा था कि तभी एक मुहल्ला टाइप कार्यक्रम में लोक कवि का गाना एक छुटभैया एनाउंसर को भा गया। वह उन्हें अपने साथ लेकर छिटपुट कार्यक्रमों में एक आइटम लोक कवि का भी रखने लगा। लोक कवि पूरी तन्मयता से गाते। धीरे-धीरे लोक कवि का नाम लोगों की जबान पर चढ़ने लगा। लेकिन उनका सपना तो रेडियो पर ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ गाने का था। लेकिन जाने क्यों वह बार-बार फेल हो जाते। कि तभी एक शो मैन टाइप एनाउंसर से लोक कवि की भेंट हो गई। लोक कवि उसे क्लिक कर गए। फिर उस शो मैन एनाउंसर ने लोक कवि को गाने का सलीका सिखाया, लखनऊ की तहजीब और दंद-फंद समझाया। गरम रहने के बजाय व्यवहार में नरमी का गुन समझाया। न सिर्फ यह सब बल्कि कुछ सरकारी कार्यक्रमों में भी लोक कवि की हिस्सेदारी करवाई। अब जैसे सफलता लोक कवि की राह देख रही थी। और संयोग यह कि कम्युनिस्ट विधायक के जुगाड़ से लोक कवि को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गई। विधायक निवास में ही उनकी पोस्टिंग भी हुई, जिसे लोक कवि ‘ड्यूटी मिली है’ बताते। अब नौकरी भी थी और गाना बजाना भी। लखनऊ की तहजीब को वह और यह तहजीब उन्हें सोख रही थी।
जो भी हो भूजा, चना, सतुआ खाकर या भूखे पेट सोने और मटमैला कपड़ा धोने के दिन लोक कवि की जिंदगी से जा चुके थे। यहां वहां जिस-तिस के यहां दरी, बेंच पर ठिठुर कर या सिकुड़ कर सोने के दिन भी लोक कवि के बीत गए। इनकी - उनकी दया, अपमान और जब तब गाली सुनने के दिन भी हवा हुए। अब तो चहकती जवानी के बहकते दिन थे और लोक कवि थे।
इस बीच आकाशवाणी का ऑडिशन भी वह पास कर वहां भी अपनी डफली बजा कर ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ गुहार कर दो गाना वे रिकार्ड करवा आए। उनकी जिंदगी से बेशऊरी और बेतरतीबी अब धीरे-धीरे उतर रही थी। वह अब गा भी रहे थे, ‘फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे!’
अचानक लोक कवि के पास कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई। सरकारी कार्यक्रम, शादी ब्याह के कार्यक्रम, आकाशवाणी के कार्यक्रम। अब लोक कवि ने एक बिरहा पार्टी भी बना ली थी। लोक कवि ज्यादा पढ़े-लिखे थे नहीं। वह खुद ही कहते, ‘सातवां दर्जा पास हूं, आठवां दर्जा फेल।’ तो भी उनकी ख़ासियत यही थी कि अपने लिए गाने वाले गाने वह खुद ही जोड़ गांठ कर लिखते और ज्यादातर गानों को कंहरवा धुन में गूंथते और गाते तो यही उनका ग्रेस बन जाता। वह कई बार पारंपरिक धुनों वाले पारंपरिक गानों में भी जोड़ गांठ कर कुछ ऐसी नई चीज, कोई बिलकुल तात्कालिक मसला गूंथ देते तो लोग वाह कर बैठते। गारी, सोहर, कजरी, लचारी भी वह गाते पर अपने ही निराले ढ़ंग से। अब उनका नाम लखनऊ से फैल कर पूर्वी उत्तर प्रदेश की सरहदें लांघ बिहार को छूने लगा था। इसी बीच उनकी जोड़गांठ रंग लाई और उस शोमैन एनाउंसर की कृपा से उनका एक नहीं दो-दो एल.पी. रिकार्ड एच.एम.वी. जैसी कंपनी ने रिलीज कर दिया। साथ ही यह अनुबंध भी किया कि अगले दस सालों तक वह किसी और कंपनी के लिए नहीं गाएंगे। अब लोक कवि की धूम थी। अभी तक वह सिर्फ रेडियो पर जब-तब गाते थे। पर अब तो शादी ब्याह, मेला हाट हर कहीं उनका गाना जो चाहता था बजवा लेता था। उनके इन रिकार्डों की चर्चा कुछ छिटपुट अख़बारों में भी हुई। छुटभैया कलाकारों ने लोक कवि की नकल शुरू कर दी। लेकिन लोक कवि के नाम पर अब कहीं-कहीं टिकट शो और ‘नाइट’ भी होने लगे।
गरज यह कि अब लोक कवि कला से निकल कर बाजार का रुख़ कर रहे थे। बाजार को समझ तौल रहे थे। और बाजार भी लोक कवि को तौल रहा था। इसी नाप तौल में वह समझ गए कि अब सिर्फ पारंपरिक गाने और बिरहा के बूते ज्यादा से ज्यादा रेडियो और इक्का दुक्का प्रोग्राम ही हो सकते हैं, बाजार की बहार नहीं मिल सकती। सो लोक कवि ने पैंतरा बदला और डबल मीनिंग गानों का भी घाल-मेल शुरू कर दिया। ‘कटहर क कोवा तू खइबू त मोटका मुअड़वा के खाई!’ जैसे डबल मीनिंग गीतों ने लोक कवि को बाजार में ऐसा चढ़ाया कि बड़े-बड़े गायक उनसे पीछे होने लगे। लोक कवि को बाजार तो इन गानों ने दे दिया पर उनके ‘लोक कवि’ की छवि को थोड़ा झुलसा भी दिया। पर इस छवि के झुलसने की परवाह उन्हें जरा भी नहीं हुई। उन पर तो बाजार का नशा तारी था। ‘सफलता’ के घोड़े पर सवार लोक कवि अब पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहते थे।
विधायक निवास में भी उनके साथ आसानी हो गई थी। उनकी गायकी की छवि के चलते उन्हें अब टेलीफोन ड्यूटी दे दी गई थी। यह ‘ड्यूटी’ भी लोक कवि के बड़े काम आई। उनके संपर्क बनने लगे। ‘सर’ कहना भी लोक कवि ने यहीं सीखा। अधिकारियों के फोन विधायकों को आते, विधायकों के फोन अधिकारियों को जाते। दोनों ही सूरत में लोक कवि माध्यम बनते। पी.बी. एक्स. में टेलीफोन ड्यूटी पर टेलीफोन आपरेटरी करते-करते वह ‘संबंध’ बनाने में पारंगत हो ही गए थे, बल्कि किसकी गोट कहां है और किसका समीकरण कहां बन रहा है, यह भी वह जानने लगे थे। अब उनको एक दूसरे विधायक निवास में सरकारी आवास भी आवंटित हो गया था। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों वाला टाइप-वन का। लेकिन तब तक उनका मेलजोल अपने ही एक सहकर्मी मिसरा जी से ज्यादा हो गया था। मिसरा जी से भी ज्यादा मिसिराइन से। सो वह आवास उन्होंने उन्हीं को दे दिया। मिसरा मिसिराइन रहने लगे, साथ ही लोक कवि भी। कभी आते-जाते, कभी रह जाते। फिर रियाज वगैरह कलाकारों से भेंट घाट में उन्हें दिक्कत होने लगी तो उन्होंने वहीं विधायक निवास में एक अफसर की चिरौरी करके एक गैराज भी एलाट करवा लिया। अब रिहर्सल, रियाज, कलाकारों से भेंट घाट, शराब, कबाब गैराज में ही होने लगा।
एक तरह से उनका यह अस्थाई निवास बन गया। इस बीच वह अपना परिवार भी लखनऊ ले आए। इतना पैसा हो गया था कि जमीन ख़रीद कर एक छोटा सा घर बनवा लें। तो एक घर बनवा कर परिवार को वहां रख दिया। पर सरकारी क्वार्टर में मिसरा-मिसिराइन ही रहे। मिसिराइन के परिवार को भी वह अपना ही परिवार मानते थे। लेकिन लोक कवि का दायरा अब बढ़ रहा था। सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रमों में तो उनकी दुकान चल ही गई थी चुनावी बयार में भी उनका झोंका तेज बहता। एक से दो, दो से चार, चार से छः, नेताओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी। बात विधायकों से मंत्रियों तक जाने लगी। एक केंद्रीय मंत्री तो जो लोक कवि के जवार के थे बिना लोक कवि के चुनावी तो क्या कोई भी सभा नहीं करते थे। इसके बदले वह लोक कवि को पैसा, सम्मान, शाल वगैरह गाहे बेगाहे देते रहते।
लोक कवि अब चहंओर थे। अगर नहीं थे तो कैसेट कंपनियों के कैसेटों में। एच.एम.वी. लोक कवि के डबल मीनिंग गानों की छवि से उनका कोई नया रिकार्ड निकालने से पहले ही से कतरा रही थी, कैसेट के नए जमाने में भी वह गांठ बांधे रही। लोक कवि जब भी कभी संपर्क करते उन्हें आश्वासन देकर टरका दिया जाता। तब जब कि लोक कवि के पास गानों का अंबार लग गया था। उनके तमाम समकालीनों के क्या बाद के नौसिखिया लौंडों तक के कैसेट आने लगे थे पर लोक कवि ख़ारिज थे इस बाजार से। तब जब कि उनके गानों की किताबें बस स्टैंडों, रेलवे स्टेशनों पर बिकती थीं। उनके टिकट शो होते थे। लोक कवि परेशान थे। उन्हें लगता कि बाजार उनके हाथ से खिसक रही है। वह जैसे अफना गए। संघर्ष की एक नई शिफत उनके सामने थी जिसे वह हर किसी के साथ शेयर भी नहीं करना चाहते थे। खाना नहीं है, कपड़ा नहीं है, नौकरी नहीं है, के बारे में वह पहले किसी से भी मौका देख कर कह सुन लेते थे। पर सफलता के इस पायदान पर खड़े वह किससे कहें कि मेरे पास कैसेट नहीं है, मेरा कैसेट निकलवा दीजिए। कभी कभार यार लोग या समकालीन भी, ‘आपका कैसेट कब आ रहा है?’ बड़ी विनम्रता से ही सही पूछ कर लोक कवि पर तंज कस देते। लोक कवि इस तंज के मर्म को समझते हुए भी हंस कर टाल देते। कहते, ‘कैसेटवो आ जाएगा। कवन जल्दी है।’ वह जैसे मुंह छुपाते हुए जोड़ते, ‘अभी किताब बिकाने दीजिए।’
पर कैसेट न आने से उनके मनोबल पर तो जो असर पड़ रहा था, वह था ही, शादी ब्याह मेले ठेले में भी वह अब नहीं बजते थे। क्योंकि अब हर जगह कैसेट छा रहा था, एल.पी. रिकार्ड चलन से बाहर जा रहा था। और लोक कवि के पास हिट गाने थे, दो-दो एल.पी. रिकार्ड था, पर कैसेट नहीं था। एच.एम.वी. का अनुबंध उन्हें बांधे हुए था और उसका टरकाना उन्हें खाए जा रहा था। और अब तो उनके संगी साथी और शुभचिंतक भी उन्हें मद्धिम स्वर में सही टोकते, ‘गुरु जी कुछ करिए। नहीं अइसे तो मार्केट से आउट जो जाइएगा।’
‘कइसे हो जाएंगे आउट!’ वह डपटते, ‘हई कार्यक्रम सब जो कर रहा हूं तो इ का मार्केट नहीं है?’ डपट कर वह खुद भी गमगीन हो जाते। साथ ही इस उधेड़बुन में भी लग जाते कि सचमुच ही क्या वह मार्केट से आउट होने की राह चल पड़े हैं ? लोक कवि की समस्या ही दरअसल यही थी कि कैसेट मार्केट से निकल कर सबके घरों में बज रहे थे और वह नदारद थे। लोगों ने एल.पी. रिकार्ड बजाना लगभग बंद कर दिया था। वह यह भी महसूस करते थे कि उनके संगी साथी और शुभचिंतक जो उनके मार्केट से आउट होने का प्रश्न पूछते थे वह गलत नहीं थे। पर यह प्रश्न उनको पुलकाता नहीं सुलगाता था। दिन रात वह यही सब सोचते। सोचते-सोचते वह विषाद और अवसाद से भर जाते। लेकिन जवाब नहीं पाते। जवाब नहीं पाते और शराब पी कर मिसिराइन के साथ सो जाते। लेकिन सो कहां पाते थे? कैसेट मार्केट का दंश उन्हें सोने ही नहीं देता था। वह मिसिराइन को बाहों में दबोचे छटपटाते रहते। पानी से बाहर हो गई किसी मछली की मानिंद भाग कर वह अपनी पत्नी के पास जाते। चैन वहां भी नहीं पाते। वह भाग आते विधायक निवास के उस गैराज में जो उन्हें आवंटित था। गैराज में रह कर किसी नए गाने की तैयारी में लग जाते। और सोचते कि कभी तो कैसेट में यह गाने भी समाएंगे। फिर गाएंगे गली मोहल्ले, घर के आंगन-दालान में, मेले, हाट और बाजार में।
बरास्ता कैसेट।
फिलहाल इस कैसेट के गम को गलत करने के लिए लोक कवि ने एक म्यूजिकल पार्टी बनाई। अभी तक उनके पास बिरहा पार्टी थी। इस बिरहा पार्टी में साथ में तीन कोरस गाने वाले और संगत करने वालों में हारमोनियम, ढोलक, तबला और करताल बजाने वाले थे। लेकिन अब इस म्यूजिकल पार्टी में उन तीन कोरस गाने वालों के अलावा एक लड़की साथ में युगल गीत गाने के लिए दो लड़कियां मिल जुल कर या एकल गाने के लिए, तीन लड़कियां डांस करने के लिए हो गईं। इसी तरह इन्स्ट्रूमेंट भी बढ़ गए। बैंजो, गिटार, बांसुरी, ड्रम ताल, कांगो आदि भी ढोलक, हारमोनियम, तबले और करताल के साथ जुड़ गए। लोक कवि की यह म्यूजिकल पार्टी चल निकली। सो उन्होंने अच्छी हिंदी बोलने वाला एक उद्घोषक भी जिस को वह ‘अनाउंसर’ कहते, शामिल कर लिया। वह अनाउंसर 'हेलो', 'लेडीज एंड जेंटिलमैन' जैसे गिने चुने अंगरेजी शब्द तो बोलता ही जब तब संस्कृत के श्लोक भी उच्चारता, क्या ठोंकता रहता। लोक कवि के स्टेज कार्यक्रमों का ग्रेस बढ़ जाता। इस तरह धीरे-धीरे लोक कवि की म्यूजिकल पार्टी लगभग आर्केस्ट्रा पार्टी में तब्दील हो गई। तो लोक कवि को इसका लाभ भी भरपूर मिला। प्रसिद्धि और पैसा दोनों ही वह कमा रहे थे और भरपूर। अब बाजार उनके दोनों हाथों में थी। जो कोई टोकता भी कि, ‘इ का कर रहे हैं लोक कवि?’ तो लगभग उसे गुरेरते हुए वह कहते, ‘का चाहते हैं जिनगी भर कान में अंगुरी डार कर बिरहा ही गाते रहें!’ लोग चुप लगा जाते। लेकिन लोक कवि तो गवाते, ‘अपने त भइलऽ पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा!’ हां, सच यही था कि लोक कवि की लोकप्रियता का ग्राफ ऐसे गानों के चलते उफान मार रहा था जो कि उनकी टीम की लड़कियां नाचते हुए गातीं। वह गाने जो लोक कवि द्वारा लिखे और संगीतबद्ध होते। और कोई चाहे जो कहे इन गानों के बूते लोक कवि बाजार पर चढ़े रहते।
आखि़र वह दिन भी आ गया जब लोक कवि कैसेट के बाजार पर चढ़ गए। एक नई आई कैसेट कंपनी ने उनसे खुद संपर्क किया। लोक कवि ने पहले की रिकार्ड कंपनी से अनुबंध की लाचारी जताई। पर अंततः तय हुआ कि अनुबंध तोड़ने पर जो मुकदमा होगा उसका हर्जा खर्चा यह नई कैसेट कंपनी उठाएगी। और लोक कवि के धड़ाधड़ चार पांच कैसेट साल भर में ही न सिर्फ बाजार में आ गए बल्कि बाजार में छा गए। इधर उनके शिष्य भी गाते झूम रहे थे, ‘ससुरे से आइल बा सगुनवा हो, हे भौजी गुनवा बता द।’
अब हो यह गया था कि लोक कवि सरकारी कार्यक्रमों में तो देवी गीत, निर्गुन और पारंपरिक गीत गाते और एकाध गाना जिसे वह ‘श्रृंगार’ कहते वह भी लजाते सकुचाते गा गवा देते। पर कैसेटों में वह न सिर्फ श्रृंगार बल्कि भयंकर श्रृंगार ‘भरते’ जब कि अपनी म्यूजिकल टीम के मार्फत मंचों पर वह ‘सारा कुछ’ लड़कियों द्वारा प्रस्तुत नृत्यों में परोस देते जो कि जनता ‘चाहती’ थी। अब न सिर्फ धड़ाधड़ उनके कैसेट आने लगे थे बाजार में बल्कि लोक कवि अब बंबई, आसाम, कलकत्ता से आगे थाईलैंड, सूरीनाम, हालैंड, मारीशस जैसे देशों में भी साल दो साल में जाने लगे। इतना ही नहीं, अब उन्हें कुछ ठीक ठाक ‘सम्मान’ देकर कुछ संस्थाओं ने सम्मानित भी किया। यह सारे सम्मान, और कुछ लोक कवि की जोड़गांठ ने रंग दिखाया। वह राष्ट्रपति के साथ भारत महोत्सव के जलसों में अमरीका, इंगलैंड जैसे कई देशों में भी अपने कार्यक्रम पेश कर आए। यह सब न सिर्फ उनके लिए अकल्पनीय था बल्कि उनके प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी। प्रतिद्वंद्वियों को तो यकीन ही नहीं होता था कि लोक कवि यहां वहां हो आए, वह भी राष्ट्रपति के साथ। पर लोक कवि बड़ी शालीनता से कहते, ‘इ हमारा नहीं, भोजपुरी का सम्मान है!’ सुन कर उन के प्रतिद्वंद्वियों की छाती पर सांप लोट जाता। लेकिन लोक कवि पी-पा कर सुंदरियों के बीच सो जाते। बल्कि अब हो यह गया था कि बिना सुंदरियों के बीच पी-पा कर लेटे लोक कवि को नींद ही नहीं आती थी। कम से कम दो सुंदरी तो हों ही। एक आजू, एक बाजू। वह भी नई नवेली टाइप। लोक कवि सुंदरियों की नदी में नहा रहे हैं. यह बात इतनी फैली कि लोग कहने भी लगे कि लोक कवि तो ऐय्याश हो गए हैं। पर लोक कवि इन ‘आलतू फालतू’ टाइप बातों पर ध्यान ही नहीं देते। वह तो नया गाना बनाने और पुराना गाना ‘सुपर हिट’ बनाने की धुन में छटकते रहते। इस उस अफसर को, जिस तिस नेता को साधते रहते। कभी दावत दे कर, कभी उसके घर जा कर तो कभी कार्यक्रम वगैरह ‘पेश’ कर के। यहां उनका विधायक निवास में टेलीफोन ड्यूटी वाला संपर्क साधने का तजुर्बा बड़े काम आता। सो लोग सधते रहते और लोक कवि छटकते-बहकते रहते।
यह वो दिन थे जब लोक कवि बहुत आगे थे और उनके पीछे दूर-दूर तक कोई नहीं था।
ऐसा भी नहीं था कि लोक कवि के आगे उनसे अच्छा भोजपुरी गाना गाने वाला कोई नहीं था। बल्कि लोक कवि से भी अच्छा भोजपुरी गाना गाने वाले बहुत नहीं तो शीर्ष पर ही चार-छः लोग थे। लेकिन यह सभी संपर्क साधने और जुगाड़ बांधने में पारंगत नहीं थे। उलटे लोक कवि न सिर्फ पारंगत थे बल्कि इसके आगे की भी कई कलाओं में उन्होंने प्रवीणता हासिल कर ली थी। वह गाते भी थे, ‘जोगाड़ होना चाहिए’ या ‘बेचे वाला चाही, इहां सब कुछ बिकाला।’ लोक कवि की आवाज का खुलापन और इसमें भी मिसरी जैसी मिठास में जब कोई नया-पुराना मुहावरा मुंह पाता तो लोक कवि का लोहा मान लिया जाता। और जब वह ‘समधिनियां क पेट जैसे इंडिया क गेट’ धीरे से उठा कर पूरे सुर में छोड़ते तो महफिल लूट ले जाते।
उन्हीं दिनों लोक कवि ने अपने कैसेटों में भी थोड़ी राजनीतिक आहट वाले गीत ‘भरने’ शुरू किए। वह गाते, ‘ए सखी! मोर पिया एम.पी., एम.एल.ए. से बड़का, दिल्ली लखनऊवा में वो ही क डंका’, और जब वह जोड़ते, ‘वोट में बदल देला वोटर क बकसा, मोर पिया एम.पी., एम.एल.ए. से बड़का।’ तो लोग झूम जाते।
अब तक लोक कवि के ढेर सारे समकालीन गायक बाजार से जाने कबके विदा हो चुके थे। तो कुछ दुनिया से विदा हो गए थे लेकिन लोक कवि पूरी मजबूती से बाजार में बने हुए थे बल्कि इधर उनके राजनीतिक संपर्क जरा ज्यादा ‘प्रगाढ़’ हुए थे। अब वह एक दो नहीं कई-कई पार्टियों के नेताओं के लिए गाने लगे थे। चुनाव में भी और बगैर चुनाव के भी। वह एक ही सुर में लगभग सभी का यशोगान गा देते। कई बार तो बस नाम भर बदलना होता। जैसे एक गाने में वह गाते, ‘उस चांद में दागी है दागी, पर मिसरा जी में दागी नहीं है।’ भले मिसरा जी दाग के भंडार हों। इसी तरह वर्मा, यादव, तिवारी आदि कोई भी नाम अपनी सुविधा से लोक कवि फिलर की तरह भर लेते और गा देते। बिन यह जाने कि यह सब कर के वह खुद भी फिलर बनने की राह लग रहे हैं। लेकिन यह तो अभी दूर की राह थी। अभी तो उनके दिन सोने के थे और रात चांदी की।
बाजार में उनके कैसेटों की बहार थी और उनकी म्यूजिकल पार्टी छाई हुई थी। उनका नाम बिकता था। गरज यह कि वह ‘मार्केट’ में थे। लेकिन मार्केट को साधते-साधते लोक कवि में ढेर सारे अंतर्विरोध भी उपजने लगे। इस अंतर्विरोध ने उनकी गायकी को भी नहीं छोड़ा। लेकिन लोक कवि हाल फिलहाल हिट और फिट चल रहे थे सो कोई सवाल उठने उठाने वाला नहीं था। हां, कभी कभार उनका उद्घोषक उन्हें जरूर टोक देता। लेकिन जैसे धरती पानी अनायास सोख लेती है वैसे ही लोक कवि उद्घोषक की जब तब टोका टाकी पी जाते। जब कभी ज्यादा हो जाती टोका टाकी तो लोक कवि, ‘पंडित हैं न आप!’ जैसा जुमला उछालते और जब उद्घोषक कहता, ‘हूं तो!’ तब लोक कवि कहते, ‘तभी एतना असंतुष्ट रहते हैं आप।’ और यह कह कर लोक कवि उस उद्घोषक को लोक लेते। बाकी लोग ‘ही-ही-ही’ हंसने लगते। उद्घोषक जिसे लोग दुबे जी कहते खुद तो कोई नौकरी करते नहीं थे लेकिन पत्नी उनकी डी.एस.पी. थीं। और कभी कभार मुख्यमंत्री की सुरक्षा में भी तैनात हो जातीं। ख़ास कर एक महिला मुख्यमंत्री की सुरक्षा में। लोक कवि जब तब मंचों पर उद्घोषक दुबे जी की तारीफ में इस बात की घोषणा करते तो दुबे जी नाराज हो जाते। बिदक कर दुबे जी कहते, ‘क्या मेरी अपनी कोई पहचान नहीं है?’ वह बिफरते, ‘मेरी पत्नी डी.एस.पी. है, क्या मेरी यही पहचान है?’ वह पूछते, ‘क्या मैं अच्छा उद्घोषक नहीं हूं?’ लोक कवि, ‘हैं भाई हैं!’ कह कर बला टालते। दुबे जी उद्घोषक सचमुच बहुत अच्छे थे। पर वह इससे भी ज्यादा भाग्यशाली थे।
बाद में उनका इकलौता बेटा आई.ए.एस. हो गया तो लोक कवि उद्घोषक दुबे जी की तारीफ में पत्नी डी.एस.पी. के साथ ही आई.ए.एस. बेटे का भी पुल बांध देते तो शुरू-शुरू में बेटे की उपलब्धि को माइक लिए एक ख़ास ढंग से सिर झुका कर वह स्वीकार लेते। पर बाद के दिनों में दुबे जी को इस बात पर भी ऐतराज होने लगा। इस तरह धीरे-धीरे दुबे जी के ऐतराजों का ग्राफ बढ़ता ही गया। लोक कवि की टीम में कुछ ‘संदिग्ध’ लड़कियों की उपस्थिति पर उन का ऐतराज ज्यादा गहराया।
और इससे भी ज्यादा गहरा ऐतराज लोक कवि की गायकी पर उनका था। ऐतराज था कि लोक कवि भोजपुरी-अवधी को मिलाने के नाम पर दोनों ही को नष्ट कर रहे हैं। बाद में तो लोक कवि से वह कहने लगे, ‘अब आप अपने को भोजपुरी का गायक मत कहा कीजिए।’ वह जोड़ते, ‘कम से कम हमसे यह ऐलान मत करवाया करिए।’
‘क्यों भई क्यों?’ लोक कवि आधे सुर में ही रहते और पूछते, ‘हम भोजपुरी गायक नहीं हूं तो का हूं?’
‘थे कभी आप!’ दुबे जी किचकिचाते, ‘कभी भोजपुरी गायक! अब तो आप खड़ी बोली लिखते गाते हैं।’ वह पूछते, ‘कहीं-कहीं भोजपुरी शब्द ठूंस देने भर से, भोजपुरी मुहावरे ठोंक देने से और संवरको, गोरको गूंथ देने भर से गाना भोजपुरी हो जाता है?’
‘भोजपुरी जानते भी हैं भला आप!’ लोक कवि आधे सुर में ही भुनभुनाते। सच यह था कि दुबे जी का भोजपुरी से उतना ही वास्ता था, जितना मंच पर या रिहर्सल में वह सुनते। मातृभाषा उनकी भोजपुरी नहीं थी। लेकिन लोक कवि को वह फिर भी नहीं छोड़ते। कहते, ‘मातृभाषा मेरी भोजपुरी नहीं है!’ इस बातको वह पहले अंगरेजी में कहते फिर संस्कृत में और फिर जोड़ते, ‘पर बात तो मैं इस अनपढ़ से कर रहा हूं।’ फिर वह हिंदी में आ जाते, ‘लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अगर कोई एक औरत जो मेरी मां नहीं है और उसके साथ बलात्कार हो रहा हो उसे देखते हुए भी चुप रहूं कि यह तो मेरी मां नहीं है!’ वह जोड़ते, ‘देखिए लोक कवि जी अपने तईं तो मैं यह नहीं होने दूंगा। मैं तो इस बात का पुरजोर विरोध करूंगा!’
‘ठीक है ब्राह्मण देवता!’ कह कर लोक कवि उनके पैर छू लेते। कहते, ‘आज ही बनाता हूं भोजपुरी में दो गाना। फेर आपको सुनाता हूं।’ लोक कवि जोड़ते, ‘लेकिन त बाजार में भी तो रहना है! ख़ाली भोजपुरी गाऊंगा, कान में अंगुरी डार के बिरहा गाऊंगा तो पब्लिक भाग खड़ी होगी।’ वह पूछते, ‘कौन सुनेगा ख़ालिस भोजपुरी? अब घर में बेटा तो महतारी से भोजपुरी में बतियाता नहीं है, अंगरेजी बूकता है तो हमारा शुद्ध भोजपुरी गाना कौन सुनेगा भाई!’ वह कहते, ‘दुबे जी, हम भी जानता हूं कि हम का कर रहा हूं। बाकी ख़ालिस भोजपुरी गाऊंगा तो कोई नहीं सुनेगा। आऊट हो जाऊंगा मार्केट से। तब आप की अनाउंसरी भी बह, गल जाएगी और हई बीस पचीस लोग जो हमारे बहाने रोज रोजगार पाए हैं, सब का रोजगार बंद हो जाएगा।’ वह पूछते, ‘तब का खाएंगे ई लोग, इनका परिवार कहां जाएगा?’
‘जो भी हो अपने तईं यह पाप मैं नहीं करूंगा।’ कह कर दुबे जी उठ कर खड़े हो जाते। बाहर निकल कर वह अपने स्कूटर को अइसे किक मारते गोया लोक कवि को ‘किक’ मार रहे हों। इस तरह दुबे जी का असंतोष बढ़ता रहा। लोक कवि और उनका वाद-विवाद-संवाद बढ़ता रहा। किसी फोड़े की तरह पकता रहा। इतना कि कभी-कभी लोक कवि बोलते, ‘ई दुबवा तो जीउ माठा कर दिया है।’ और अंततः एक समय ऐसा आया कि लोक कवि ने दुबे जी को ‘किक’ कर दिया। पर अचानक नहीं।
धीरे-धीरे।
होता यह कि लोक कवि कहीं से प्रोग्राम कर के आते तो दुबे जी प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कहते, ‘आपने हमें तो बताया नहीं?’
‘फोन तो किया था। पर आपका फोनवा इंगेज चल रहा था।’ लोक कवि कहते, ‘और पोरोगराम अचानक लग गया था। जल्दी था तो हम लोग निकल गए। बीकी अगले हफ्ते बनारस चलना है आप तैयार रहिएगा!’ कह कर लोक कवि उन्हें एक दो प्रोग्राम में ले जाते और फिर आठ-दस प्रोग्रामों में काट देते। बाद में तो कई बार लोक कवि दुबे जी को लोकल प्रोग्रामों से भी ‘कट’ कर देते। कई बार ‘अचानक’ बता कर तो एकाध बार ‘बजट कम था’ कह कर। साथियों से लोक कवि कहते, ‘लोग नाच गाना देखने सुनने आते हैं। अनाउंसिंग नहीं!’ फिर तो धीरे-धीरे दुबे जी ने लोक कवि से प्रोग्रामों के बाबत पूछताछ भी बंद कर दी। लेकिन लोक कवि का पोस्टमार्टम नहीं बंद किया। हां, लेकिन एक सच यह भी था कि दुबे जी ‘मार्केट’ में अब लगभग नहीं रह गए थे। छिटपुट स्थानीय कार्यक्रमों में, कभी-कभार सरकारी कार्यक्रमों में दिख जाते। लोक कवि तो दिल खोल कर कहते, ‘दुबे जी को मार्केट ने आउट कर दिया।’ वह जोड़ते, ‘असल में दुबे जी पिंगिल बहुत झाड़ते थे।’
लेकिन जो भी हो कुछ अच्छे कार्यक्रमों में दुबे जी की कमी लोक कवि को भी अखरती। कार्यक्रम के बाद वह कहते भी कि, ‘दुबवा रहता तो इस को ऐसे पेश करता!’ पर दुबे जी आखि़र लोक कवि की ही बदौलत ‘मार्केट’ से आउट थे। और लोक कवि को जब तब खुद एनाउंसिंग संभालनी पड़ती थी। वह एक बढ़िया अनाउंसर तलाश कर रहे थे। बीच-बीच में कई अनाउंसरों को उन्होंने आजमाया। पर दुबे जी जैसा संस्कृत, हिंदी, अंगरेजी, उर्दू ठोंकने वाला कोई नहीं मिल रहा था। लोक कवि बोलते, ‘कवनों में सलीका सहूर नहीं है।’ आखि़र एक बांसुरी बजाने वाले को उन्होंने यह काम सिखवाया। पर वह भी नहीं चला। वह बांसुरी से भी गया और एनाउंसिंग से भी।
लोक कवि को एक एनाउंसर ऐसा भी मिला जिसकी आवाज भी अच्छी थी, हिंदी, अंगरेजी भी जानता था। पर दिक्कत यह थी कि वह कार्यक्रम से ज्यादा एनाउंसिंग करता। दस मिनट के कार्यक्रम के लिए वह पंद्रह मिनट एनाउंसिंग कर डालता। ‘मैं-मैं कहते-कहते वह पांच छः शेर ठोंकता और मैंने तब यह किया, तब वह किया कह-कह कर अपने ही को वह प्रोजेक्ट करता रहता। अंततः लोक कवि ने उसे भी हटा दिया। कहा कि, ‘यह तो कार्यक्रम का लीद गोबर निकाल देता है।’ कि तभी लोक कवि को एक टी.वी. सीरियल बनाने वाला मिल गया। लोक कवि के गाने चूंकि कुछ फिल्मों में भी पहले आ चुके थे, कुछ चोरी-चकारी के मार्फत तो कुछ सीधे सो वह उस टी.वी. सीरियल बनाने वाले के ग्लैमर में तो नहीं अझुराए लेकिन उसकी राय में आ गए। उसने एक लड़की को प्रोजेक्ट किया जो हिंदी, भोजपुरी दोनों जानती थी। ‘लेडीज एंड जेन्टिलमेन’ वाली अंगरेजी भी ‘हेलो सिस्टर्स एंड ब्रदर्स’ कह कर बोलती थी। और ज्यादातर एनाउंसिंग अंगरेजी में ही ठोंकती थी।
अंततः लोक कवि के मंचों की वह एनाउंसर बन गई। धीरे-धीरे वह ‘कुल्हा उछालू’ डांस भी जान गई। सो एक पंथ दो काज। एनाउंसर कम डांसर उस लड़की से लोक कवि की म्यूजिकल पार्टी का भाव बढ़ गया।
एक बार किसी ने लोक कवि से कहा भी कि, ‘भोजपुरी के मंच पर अंगरेजी एनाउंसिंग! यह ठीक नहीं है।’
‘काहें नाहीं ठीक है?’ लोक कवि बिदक कर गरजे।
‘अच्छा चलिए शहर में तो यह अंगरेजी एनाउंसिंग चल भी जाती है पर गांवों में भोजपुरी गाना सुनने वाले का समझें ई अंगरेजी एनाउंसिंग?’
‘ख़ूब समझते हैं!’ लोक कवि फैल गए, ‘और समझें न समझें मुंह आंख दोनों बा कर देखने लगते हैं।’
‘का देखने लगते हैं?’
‘लड़की! और का?’ लोक कवि बोले, ‘अंगरेजी बोलती लड़की। सब कहते हैं कि अब लोक कवि हाई लेबिल हो गए हैं। लड़की अंगरेजी बोलती है।’
‘अच्छा जो वह लड़की बोलती है अंगरेजी में आप समझते हैं?’
‘हां समझता हूं।’ लोक कवि बड़ी सर्द आवाज में बोले।
‘का? आप अब अंगरेजी भी समझने लगे?’ पूछने वाला भौंचकिया गया। बोला, ‘कब अंगरेजी भी पढ़ लिया लोक कवि जी आपने?’
‘कब्बो नहीं पढ़ा अंगरेजी!’ लोक कवि बोले, ‘हिंदी तो हम पढ़ नहीं पाए अंगरेजी का पढ़ेंगे?’
‘पर अभी तो आप बोल रहे थे कि अंगरेजी समझता हूं।’
‘पइसा समझता हूं।’ लोक कवि बोले, ‘और ई अंगरेजी अनाउंसर ने हमारा रेट हाई कर दिया है तो ई अंगरेजी हम नहीं समझूंगा तो कवन समझेगा!’ वह बोले, ‘का चाहते हैं जिनगी भर बुरबक बना रहूं। पिछड़ा ही बना रहूं। अइसे ही भोजपुरी भी हरदम भदेस बनी रहे।’ लोक कवि चालू थे, ‘संस्कृत के नाटक में अंगरेजी लोग सुन सकते हैं। कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी में लोग अंगरेजी सुन सकते हैं। गजल, तबला, सितार, संतूर, शहनाई पर अंगरेजी सुन सकते हैं तो भोजपुरी के मंच पर लोग अगर अंगरेजी सुन रहे हैं तो का ख़राबी है भाई? तनि हमहूं के बताइए!’ लोक कवि का एकालाप चालू रहा, ‘जानते हैं भोजपुरी का है?’ वह थोड़ा और कर्कश हुए, ‘मरती हुई भाषा है। हम उसको लखनऊ जैसी जगह में गा बजा के जिंदा रखे हूं और आप सवाल घोंप रहे हैं। ऊ भोजपुरी जवन अब घर में से भी बाहर हो रही है।’
लोक कवि गुस्साए भी थे और दुखी भी। कहने लगे, ‘अभी तो जब तक हम जिंदा हूं अपनी मातृभाषा का सेवा करूंगा, मरने नहीं दूंगा। कुछ चेला, चापट भी तैयार कर दिया हूं वह भी भोजपुरी गा बजा कर खा कमा रहे हैं। पर अगली पीढ़ी भोजपुरी का, का गत बनाएगी यही सोच कर हम परेशान रहता हूं।’ वह बोले, ‘अभी तो मंच पर पॉप गाना बजवा कर डांस करवाता हूं। यह भी लोगों को चुभता है, भोजपुरी में खड़ी बोली मिलाता हूं तो लोग गरियाते हैं और अब अंगरेजी अनाउंसिंग का सवाल घोंपा जा रहा है।’ वह बोले, ‘बताइए हम का करूं? बाजारू टोटका न अपनाऊं तो बाजार से गायब हो जाऊं? अरे, नोंच डालेंगे लोग। हड्डियां नहीं मिलेंगी हमारी।’ कह कर वह छटकते हुए खड़े हो गए। शराब की बोतल खोलते हुए कहने लगे, ‘छोड़िए ई सब। शराब पीजिए, मस्त हो जाइए। ई सबमें कुछ नहीं धरा है।
वह बोले, ‘बाजार में रहूंगा तो चार लोग चीन्हेंगे, नमस्कार करेंगे। जिस दिन बाजार से बहिरा जाऊंगा कोई बात नहीं पूछेगा। ई बात हम अच्छी तरह जानता हूं। आप लोग भी जान लीजिए।’ लोक कवि अब तक पीते-पीते टुन्न हो गए थे तो लोग जाने लगे। लोग जान गए अब रुकने का मतलब है लोक कवि की गालियों का गायन सुनना। दरअसल दिक्कत ही यही थी कि लोक कवि ‘खटाखट’ लेते और बड़ी जल्दी टुन्न भी हो जाते। फिर तो वह या तो ‘प्रणाम’ उच्चारते या गायन भरी गालियों का वाचन या फिर सुंदरियों के व्यसन ख़ातिर बउरा जाते।
दरअसल सारी ‘क्रियाओं’ का मकसद ही होता कि ‘तखलिया!’ यानी एकांत! ‘प्रणाम’ उन आदरणीय लोगों के लिए होता जो उनकी संगीत मंडली से अलग के मेहमान (नेता, अफसर, पत्रकार) हों या जजमान हों। अभ्यस्त लोग लोक कवि के ‘प्रणाम’ का संकेतार्थ समझते थे और उठ पड़ते थे। जो लोग नए होते थे वह नहीं समझते थे और बैठे रहते। लोक कवि उन्हें रह-रह हाथ जोड़-जोड़ दो चार बार और प्रणाम करते। बात फिर भी नहीं बनती तो वह अदब से ही सही कह देते, ‘त अब चलिए न!’ बावजूद लोक कवि के तमाम अदब के इससे कुछ नादान टाइप लोग आहत और नाराज हो जाते। पर लोक कवि को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
कहा जाता है कि अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में इसलिए जीता था कि उन्होंने सिर्फ मछली की आंख देखी थी। जब कि बाकी योद्धा पूरी मछली देख रहे थे इसलिए मछली की आंख को भेद नहीं पाए। सो द्रौपदी को जीत नहीं सके। पर किसी को जीतने की अपने लोक कवि की स्टाइल ही और थी। वह अर्जुन नहीं थे और न ही अर्जुन की भूमिका में वह अपने को पाते पर जीतते वह जरूर थे। इस मामले में वह अर्जुन से भी कुछ कदम आगे थे। क्योंकि लोक कवि मछली और मछली की आंख से भी पहले द्रौपदी देखते। बल्कि कई बार तो वह सिर्फ द्रौपदी ही देखते। क्योंकि उनका लक्ष्य मछली की आंख नहीं द्रौपदी होती। मछली और मछली की आंख तो साधन भर थी द्रौपदी को पाने की। साध्य तो द्रौपदी ही थी। सो वह द्रौपदी को ही साधते, मछली और उसकी आंख न भी सधे तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था।
वह गाते भी थे, ‘बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाही।’ इसीलिए कोई हत होता है कि आहत, इससे उनको कोई सरोकार नहीं रहता था। उनको बस अपनी द्रौपदी से सरोकार रहता। वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी। लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी। सम्मान, यश, कार्यक्रम या जो भी कुछ हो। उनके संगी साथी उनके लिए कहते भी थे, ‘आपन भला, भला जगमाहीं!’ पर लोक कवि को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। हां, कभी कभार फर्क पड़ता था। तब जब उनकी कोई द्रौपदी उनको नहीं मिल पाती थी। पर इस बात को भी वह गांठ बांधे नहीं घूमते थे कि, ‘हऊ वाली द्रौपदी नहीं मिली!’ बल्कि वह तो ऐसे एहसास कराते कि जैसे कुछ हुआ ही न हो! दरअसल दंद-फंद और अनुभव ने उन्हें काफी पक्का बना दिया था।
एक बार की बात है लोक कवि का एक विदेश दौरा तय हो गया था। एडवांस मिल गया था, तारीख़ पक्की नहीं हुई थी। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे पर तारीख़ तय नहीं हो पा रही थी। लोक कवि के एक शुभचिंतक काफी उतावले थे। एक दिन वह लोक कवि से बोले, ‘चिट्ठी लिखिए!’
‘हम का चिट्ठी लिखें, जाने दीजिए।’ लोक कवि बोले, ‘जे एतनै चिट्ठी लिखना जानते तो गवैया बनते? अरे, सट्टा पर अपना नाम और तारीख़ लिख देता हूं, बहुत है।’ वह कहने लगे, ‘कहीं कुछ गलत-सलत हो गया तो ठीक नहीं है। जाने दीजिए गड़बड़ा जाएगा।’
‘त फोन कीजिए।’ शुभचिंतक की उतावली गई नहीं।
‘फोन किया था पिछले हफ्ता। बड़ा पइसा लगता है।’ लोक कवि बोले, ‘उन्होंने कहा है कि चार-पांच रोज में बताएंगे।’
‘तो आज फेर करिए!’ शुभचिंतक बोले, ‘आज का पैसा मैं देता हूं।’
‘नाहीं, फोन रहने दीजिए।’
‘क्यों?’
‘का है कि जादा कसने से पेंच टूट जाता है।’ लोक कवि शुभचिंतक को समझाते हुए बोले।
शुभचिंतक इस लगभग अपढ़ गायक का यह संवाद सुन कर हकबका गए।
लेकिन लोक कवि तो ऐसे ही थे।
सारी चतुराई, सारी होशियारी, ढेर सारे गणित और जुगाड़ के बावजूद वह बोलते बेधड़क थे। यह शायद उनकी भोजपुरी की माटी की रवायत थी की अदा कि आदत, जानना कठिन था। और यह वह अनजाने ही सही एकाध बार नुकसान की कीमत पर भी कर जाते, क्या बोल जाते। और जो कहते हैं कि ‘जो कह दिया सो कह दिया’ पर वह अडिग भी रहते।
ऐसे ही एक दफा एक कार्यक्रम के बाबत लोक कवि के गैराज वाले आवास पर चिकचिक चल रही थी। लोक कवि लगातार पैसा बढ़ाने और कुछ एडवांस की जिद पर अड़े पड़े थे। और ‘क्लाइंट’ पैसा न बढ़ाने और एडवांस के बजाय सिर्फ बयाना देकर सट्टा लिखवाने पर आमादा थे। ‘क्लाइंट’ की सिफारिश में किसी कारपोरेशन के एक चेयरमैन साहब भी लगे थे। क्योंकि एक केंद्रीय मंत्री के चचेरे भाई के नाते चेयरमैन साहब चलते पुर्जे वाले थे। और लोक कवि के जनपद के मूल निवासी भी।
वह लोक कवि से बात लगभग अफसरी-सामंती अंदाज में हमेशा करते थे। उस दिन भी, ‘मान जो, मान जो!’ वह कहते रहे। फिर लोक कवि को थोड़ा सम्मान देने की गरज से वह हिंदी पर आ गए, ‘मान जाओ, मैं कह रहा हूं।’
‘कइसे मान जाऊं चेयरमैन साहब!’ लोक कवि बोले, ‘आप तो सब जानते हैं। ख़ाली हम ही होते तो बात चल जाती। हमारे साथ और भी कलाकार हैं। और ई पूरी पार्टी भी चाहते हैं।’’
‘सब हो जाएगा। तुम घबराते क्यों हो।’ कह कर चेयरमैन साहब ने लोक कवि को धीरे से आंख मारी और फिर बोले, ‘मान जो, मान जो!’ फिर अपनी जेब से एक रुपए का सिक्का निकालते हुए चेयरमैन साहब उठ खड़े हुए। लोक कवि को एक रुपए का सिक्का देते हुए वह बोले, ‘हई ले और मिसिराइन के ‘यहां’ हमारी ओर से साट देना।’
‘का चेयरमैन साहब आप भी!’ कह कर लोक कवि थोड़ा खिसियाए। लेकिन चेयरमैन साहब की इस अश्लील टिप्पणी का जवाब वह चाह कर भी नहीं दे पाए। और बात टाल गए।
चेयरमैन साहब भी क्लाइंट के साथ चले गए।
चेयरमैन साहब के जाते ही लोक कवि के गैराज में बैठे उन के एक अफसर मित्र ने लोक कवि को टोका, ‘आपको जब यह कार्यक्रम नहीं करना है तो साफ मना क्यों नहीं कर देते?’
‘आपको कैसे पता कि मैं यह कार्यक्रम नहीं करूंगा?’ लोक कवि ने थोड़ा आक्रामक हो कर पूछा।
‘आपकी बातचीत से।’ वह अफसर बोला।
‘अइसे अफसरी करते हैं आप?’ लोक कवि बिदके, ’अइसेहीं बात चीत का गलत सलत नतीजा निकालेंगे?’
‘तो?’
‘तो क्या। कार्यक्रम तो करना ही है चाहे इ लोग एक्को पइसा न दें तब भी।’ लोक कवि भावुक हो गए। बोले, ‘अरे भाई, ई चेयरमैन साहब कह रहे हैं तो कार्यक्रम तो करना ही है!’
‘काहें ऐसा का है इस दो कौड़ी के चेयरमैन में।’ अफसर बोला, ‘मंत्री इसका चचेरा भाई है न! का बिगाड़ लेगा। तिस पर आपसे अश्लील और अपमानित करने वाली टिप्पणी करता है! कौन है ई मिसिराइन?’
‘जाने दीजिए ई सब। का करेंगे आप जान कर।’ लोक कवि बोले, ‘ई जो चेयरमैन साहब हैं न हमको बड़ा कुर्ता पायजामा पहिनाए हैं एह लखनऊ में। भूखे सोते थे तो खाना खिलाए हैं। जब हम शुरू-शुरू में लखनऊ में आए थे तो बड़ा सहारा दिए।
तो कार्यक्रम तो करना ही है।’ कह कर लोक कवि और भावुक हो गए। कहने लगे, ‘आज तो हम इनको शराब पियाता हूं तो पी लेते हैं। हम उनके बराबर बैठ जाता हूं तो बुरा नहीं मानते हैं हमारा गाना भी खूब सुनते हैं। और यहां वहां से पोरोगराम दिलवा कर पइसा भी खूब कमवाते हैं। तो एकाध फ्री पोरोगराम भी कर लूंगा तो का बिगड़ जाएगा।’
‘तो इतना नाटक काहें कर रहे थे?’
‘एह नाते कि जो ऊ ‘क्लाइंट’ आया था ऊ पुलिस में डी.एस.पी. है। दूसरे इसकी लड़की की शादी। शादी के बाद विदाई में रोआ रोहट मची रहेगी। कवन मांगेगा पइसा अइसे में। दूसरे, पुलिस वाला है। तीसरे ठाकुर है। जो कहीं गरमा गया और गोली बंदूक चल गई तो?’ लोक कवि बोले, ‘एही नाते सोच रहे थे कि जवन मिलता है यहीं मिल जाए। कलाकारों भर का नहीं तो आने जाने भर का सही।’
‘ओह तो यह बात है!’ कर कह वह अफसर महोदय भौंचकिया गए।
चेयरमैन प्रसंग पर अफसर के सवाल ने लोक कवि को भावुक बना दिया था। अफसर तो चला गया पर लोक कवि की भावुकता उन पर तारी थी।
चेयरमैन साहब !
चेयरमैन साहब को हालांकि लोक कवि बड़ा मान देते थे पर मिसिराइन पर अभी-अभी उनकी टिप्पणी ने उन्हें आहत कर दिया था। इस आहत भाव को धोने ही के लिए उन्होंने भरी दुपहरिया में शराब पीना शुरू कर दिया। दो कलाकार लड़कियां भी उनका साथ देने के लिए इत्तफाक से तब तक आ गईं थीं।
लोक कवि ने लड़कियों को देखते ही सोचा कि अच्छा ही हुआ कि चेयरमैन साहब चले गए। नहीं तो इन लड़कियों को देखते ही वह खुल्लमखुल्ला अश्लील टिप्पणियां शुरू कर देते और जल्दी जाते ही नहीं। लड़कियों को अपनी जांघ पर बिठाने, उनके गाल ऐंठने, छातियां या हिप दबा देने जैसे ओछी हरकतें चेयरमैन साहब के लिए रुटीन हरकतें थी। वह कभी भी कुछ भी कर सकते थे। ऐसा कभी कभार क्या अकसर लोक कवि भी करते थे। पर उनके इस करने में लड़कियों की भी विवश सहमति ही सही, सहमति रहती थी। लोक कवि दबाते-चिकोटते रहते और वह सब ‘गुरु जी, गुरु जी’ कह कर कभी उकतातीं तो कभी उत्साहित भी करती रहतीं। लेकिन चेयरमैन साहब की इन ओछी हरकतों पर लड़कियों की न सिर्फ असहमति होती थी, वह सब बिलबिला भी जाती थीं।
लेकिन चेयरमैन साहब बाज नहीं आते। अंततः लोक कवि को ही पहल करनी पड़ती, ‘त अब चलीं चेयरमैन साहब!’ चेयरमैन साहब लोक कवि की बात को फिर भी अनुसना करते तो लोक कवि हिंदी पर आ जाते, ‘बड़ी देर हो गई, जाएंगे नहीं चेयरमैन साहब।’ लोक कवि के हिंदी में बोलने का अर्थ समझते थे चेयरमैन साहब सो उठ खडे़ होते कहते, ‘चलत हईं रे। तें मौज कर।’
‘नाईं चेयरमैन साहब बुरा जिन मानिएगा।’ लोक कवि कहते, ‘असल में कैसेट पर डांस का रिहर्सल करवाना था।’
‘ठीक है रे, ठीक है।’ कहते हुए चेयरमैन साहब चल देते। चल देते किसी और ‘अड्डे’ पर।
चेयरमैन साहब कोई साठ बरस की उम्र छू रहे थे लेकिन उनकी कद काठी अभी भी उन्हें पचास के आस-पास का आभास दिलाती। वह थे भी उच्श्रृंखल किसिम के रसिक। सबसे कहते भी रहते थे कि, ‘शराब और लौंडिया खींचते रहो, मेरी तरह जवान बने रहोगे।’
चेयरमैन साहब की अदाएं और आदतें भी कई ऐसी थीं जो उन्हें सरेआम जूते खिलवा देतीं लेकिन वह अपनी बुजुर्गियत का भी न सिर्फ भरपूर फायदा उठाते बल्कि कई बार तो सहानुभूति भी बटोर ले जाते। जैसे वह किसी भी बाजार में खड़े-खड़े अचानक बेवजह जोर से इस तरह चिल्ला पड़ते कि यकायक सबकी नजरें उनकी ओर उठ जातीं। सभी उन्हें देखने लगते। जाहिर है इनमें बहुतायत में महिलाएं भी होतीं। अब जब महिलाएं उन्हें देखने लगतीं तो वह अश्लीलता पर उतर आते। चिल्ला कर ही अस्फुट शब्दों में कहते,....‘दे !’ महिलाएं सकुचा कर किनारे हो दूसरी तरफ चल देतीं। कई बार वह कोई सुंदर औरत या लड़की देखते तो उसके इर्द गिर्द चक्कर काटते-काटते अचानक उस पर भहरा कर गिर पड़ते। इस गिरने के बहाने वह उस औरत को पूरा का पूरा बांहों में भर लेते। इस क्रम में वह औरत की हिप, कमर, छातियां और गाल तक छू लेते। पूरी अशिष्टता एवं अभद्रता से। औरतें अमूमन संकोचवश या लोक लाज के फेर में चेयरमैन साहब से तुरंत छुटकारा पा कर वहां से खिसक जातीं। एकाध औरतें अगर उनके इस गिरने पर ऐतराज जतातीं तो चेयरमैन साहब फट पैंतरा बदल लेते। कहते, ‘अरे बच्चा नाराज मत होओ! बूढ़ा हूं न, जरा चक्कर आ गया था सो गिर गया।’ वह ‘सॉरी!’ भी कहते और फिर भी उस औरत के कंधे पर झुके-झुके उसकी छातियों का उठना बैठना देखते रहते। तो भी औरतें उन पर तरस खाती हुई उन्हें संभालने लगतीं तो वह बड़ी लापरवाही से उसके हिप पर भी हाथ फिरा देते। और जो कहीं दो तीन औरतें मिल कर संभालने लग जातीं उन्हें तो उनके पौ बारह हो जाते। वह अकसर ऐसा करते। लेकिन हर जगह नहीं। जगह और मौका देख कर! तिस पर कलफ लगे चमकते खद्दर का कुरता पायजामा, उनकी उम्र से उनके इन ऐबों पर अनायास ही पानी पड़ जाता। तिस पर वह हांफने, चक्कर आने का दो चार आना अभिनय भी फेंक देते। बावजूद इस सबके वह कभी-कभार फजीहत में भी घिर ही जाते। तो भी इससे उबरने के पैंतरे भी वह बखूबी जानते थे।
एक दिन वह लोक कवि के पास आए बोले, ‘25 दिसंबर को तुम कहां थे भाई?’
‘यहीं था रिहर्सल कर रहा था।’ लोक कवि ने जवाब दिया।
‘तो हजरतगंज नहीं गए 25 को?’
‘क्यों क्या हुआ?’
‘तो मतलब नहीं गया?’
‘नाहीं!’
‘तो अभागा है।’
‘अरे हुआ क्या?’
चेयरमैन साहब स्त्री के एक विशिष्ट अंग को उच्चारते हुए बोले, ‘एतना बड़ा औरतों की....का मेला हमने नहीं देखा!’ वह बोलते जा रहे थे, ‘हम तो भई पागल हो गए। कोई कहे इधर दबाओ, कोई कहे इधर सहलाओ।’ वह बोले, ‘मैं तो भई दबाते-सहलाते थक गया।’
‘चक्कर-वक्कर भी आया कि नाहीं?’ लोक कवि ने पूछा।
‘आया न!’
‘कितनी बार?’
‘यही कोई 15-20 राउंड तो आया ही।’ कह कर चेयरमैन साहब खुद हंसने लगे।
लेकिन चेयरमैन साहब के साथ ऐसा ही था।
वह खुद एंबेसडर में होते और जो अचानक किसी सुंदर औरत को सड़क पर देख लेते, या दो-चार कायदे की औरतों को देख लेते तो ड्राइवर को तुरंत डांटते हुए काशन देते, ‘ऐ देख क्या कर रहा है, गाड़ी उधर मोड़!’ ड्राइवर भी इतना पारंगत था कि काशन पाते ही वह फौरन कार मोड़ देता बिना इस की परवाह किए कि एक्सीडेंट भी हो सकता है। चेयरमैन साहब जब कभी दिल्ली जाते तो दो तीन दिन डी.टी.सी. की बसों के लिए भी जरूर निकालते। किसी बस स्टैंड पर खड़े होकर बस में चढ़ने के लिए वहां खड़ी औरतों का मुआयना करते और फिर जिस बस में ज्यादा औरतें चढ़तीं, जिस बस में ज्यादा भीड़ होती उसी बस में चढ़ जाते। ड्राइवर से कहते, ‘तुम कार लेकर इस बस को फालो करो।’ और ड्राइवर को यह आदेश कई बार बिन कहे ही मालूम होता। तो चेयरमैन साहब डी.टी.सी. की बस में जिस-तिस महिला के स्पर्श का सुख लेते। उनकी एंबेसडर कार बस के पीछे-पीछे उनको फालो करती हुई। और चेयरमैन साहब औरतों को फालो करते हुए। ऊंघते, गिरते, चक्कर खाते। ‘फालो आन’ की हदें छूते हुए।
चेयरमैन साहब के ऐसे तमाम किस्से लोक कवि क्या कई लोग जानते थे। लेकिन चेयरमैन साहब को लोक कवि न सिर्फ झेलते थे बल्कि उन्हें पूरी तरह जीते थे। जीते इस लिए थे कि ‘द्रौपदी’ को जीतने के लिए चेयरमैन साहब लोक कवि के लिए एक महत्वपूर्ण पायदान थे। एक जरूरी औजार थे। और एहसान तो उनके लोक कवि पर थे ही थे। हालांकि एहसान जैसे शब्द को तो चेयरमैन साहब के तईं एक नहीं कई-कई बार वह उतार क्या चढ़ा भी चुके थे तो भी उनके मूल एहसान को लोक कवि भूलते नहीं थे और इससे भी ज्यादा वह जानते थे कि चेयरमैन साहब द्रौपदी जीतने के महत्वपूर्ण पायदान और औजार भी हैं। सो कभी कभार उनकी ऐब वाली अदाएं-आदतें वह आंख मूंद कर टाल जाते। मिसिराइन पर यदा कदा टिप्पणी को वह आहत हो कर भी कड़वे घूंट की तरह पी जाते और खिसियाई हंसी हंस कर मन हलका कर लेते। कोई कुछ टोकता, कहता भी तो लोक कवि कहते, ‘अरे मीर मालिक हैं, जमींदार हैं, बड़का आदमी हैं। हम लोग छोटका हैं जाने दीजिए!’
‘काहें के जमींदार? अब तो जमींदारी ख़त्म हो चुकी है। काहें का छोटका बड़का। प्रजातंत्रा है!’ टोकने वाला कहता।
‘प्रजातंत्रा है न।’ लोक कवि बोलते, ‘त उनका बड़का भाई केंद्र में मंत्री हैं और मंत्री लोग जमींदार से जादा होता है। ई जानते हैं कि नाई?’ वह कहते, ‘अइसे भी और वइसे भी दूनों तरह से ऊ हमारे लिए जमींदार हैं। तब उनका जुलुम भी सहना है, उनका प्यार दुलार भी सहना है और उनका ऐब आदत भी!’
अर्जुन को तो सिर्फ एक द्रौपदी जीतनी थी पर लोक कवि को हरदम कोई न कोई द्रौपदी जीतनी होती। यश की द्रौपदी, धन की द्रौपदी और सम्मान की द्रौपदी तो उन्हें चाहिए ही चाहिए थी। इन दिनों वह राजनीति की द्रौपदी के बीज भी मन में बो बैठे थे। लेकिन यह बीज अभी उनके मन की धरती में ही दफन था। ठीक वैसे ही जैसे उनकी कला की द्रौपदी उनके बाजारी दबाव में दफन थी। इतनी कि कई बार उनके प्रशंसक और शुभचिंतक भी दबी जबान सही, कहते जरूर थे कि लोक कवि अगर बाजार के रंग में इतने न रंगे होते, बाजार के दबाव में इतना न दबे होते और आर्केस्ट्रा कंपनी वाले शार्ट कट की जगह अपनी बिरहा पार्टी को ही तरजीह दिए होते तो तय तौर पर राष्ट्रीय स्तर के कलाकार होते। नहीं तो कम से कम तीजन बाई, बिस्मिल्ला खां, गिरिजा देवी के स्तर के कलाकार तो वह होते ही होते। इससे कम पर तो कोई उन्हें रोक नहीं सकता था। सच यही था कि बिरहा में लोक कवि का आज भी कोई जवाब नहीं था। उनकी मिसरी जैसी मीठी आवाज का जादू आज भी ढेर सारी असंगतियों और विसंगतियों के बावजूद सिर चढ़ कर बोलता था। और इससे भी बड़ी बात यह थी कि कोई और लोक गायक बाजार में उनके मुकाबले में दूर-दूर तक नहीं था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि लोक कवि से अच्छा बिरहा या लोक गीत वाले और नहीं थे। और लोक कवि से बहुत अच्छा गाने वाले लोग भी दो-चार ही सही थे। पर वह लोग बाजार तो दूर बाजार की बिसात भी नहीं जानते थे। लोक कवि भी इस बात को स्वीकार करते थे। वह कहते भी थे कि ‘पर ऊ लोग मार्केट से आउट हैं।’ लोक कवि इसी का फायदा क्या उठाते थे बल्कि भरपूर दुरुपयोग करते थे। दूरदर्शन, आकाशवाणी, कैसेट, कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा हर कहीं उनकी बहार थी। पैसा जैसे उनको बुलाता रहता था। जाने यह पैसे का ही प्रताप था कि क्या था पर अब गाना उनसे बिसर रहा था। कार्यक्रमों में उनके साथी कलाकार हालांकि उन्हीं के लिखे गाए गाने गाते थे पर लोक कवि जाने क्यों बीच-बीच में दो-चार गाने गा देते। ऐसे जैसे रस्म अदायगी कर रहे हों। धीरे-धीरे लोक कवि की भूमिका बदलती जा रही थी। वह गायकी की राह छोड़ कर आर्केस्ट्रा पार्टी के कैप्टन कम मैनेजर की भूमिका ओढ़ रहे थे। बहुत पहले लोक कवि के कार्यक्रमों के पुराने उदघोषक दुबे जी ने उन्हें आगाह भी किया था कि, ‘ऐसे तो आप एक दिन आर्केस्ट्रा पार्टी के मैनेजर बन कर रह जाएंगे।’ पर लोक कवि तब दुबे जी की यह बात माने नहीं थे। दुबे जी ने जो ख़तरा बरसों पहले भांप लिया था उसी ख़तरे का भंवर लोक कवि को अब लील रहा था। लेकिन बीच-बीच के विदेशी दौरे, कार्यक्रमों की अफरा तफरी लोक कवि की नजरों को इस कदर ढके हुए थी कि वह इस ख़तरनाक भंवर से उबरना तो दूर इस भंवर को वह देख भी नहीं पा रहे थे। पहचान भी नहीं पा रहे थे। लेकिन यह भंवर लोक कवि को लील रहा है, यह उनके पुराने संगी साथी देख रहे थे। लेकिन टीम से ‘बाहर’ हो जाने के डर से वह सब लोक कवि से कुछ कहते नहीं थे। पीठ पीछे बुदबुदा कर रहे जाते।
और लोक कवि?
लोक कवि इन दिनों किसिम-किसिम की लड़कियों की छांट बीन में रहते। पहले सिर्फ उनके गाने डबल मीनिंग की डगर थामे थे, अब उनके कार्यक्रमों में भी डबल मीनिंग डायलाग, कव्वाली मार्का शेरो शायरी और कामुक नृत्यों की बहार थी। कैसेटों में वह गाने पर कम लड़कियों की सेक्सी आवाज भरने के लिए ज्यादा मेहनत करते थे। कोई टोकता तो वह कहते, ‘इससे सेल बढ़ जाती है।’ लोक कवि कोरियोग्राफर नहीं थे, शायद इस शब्द को भी नहीं जानते थे। लेकिन किस बोल की किस लाइन पर कितना कूल्हा मटकाना है, कितना ब्रेस्ट और कितनी आंखें, अब वह यह ‘गुन’ भी लड़कियों को रिहर्सल करवा-करवा कर सिखाते क्या घुट्टा पिलाते थे। और बाकायदा कूल्हा, कमर पकड़-पकड़ कर। गानों में भी वह लड़कियों से गायकी के आरोह-अवरोह से ज्यादा आवाज को कितना सेक्सी बना सकती थीं, कितना शोख़ी में इतरा सकती थीं, इस पर जोर मारते थे। ताकि लोग मर मिटें। उनके गानों के बोल भी अब ज्यादा ‘खुल’ गए थे। ‘अंखिया बता रही हैं, लूटी कहीं गई है’ तक तो गनीमत थी लेकिन वह तो और आगे बढ़ जाते, ‘लाली बता रही है, चूसी कहीं गई है’ से लेकर ‘साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है’ तक पहुंच जाते थे। इस डबल मीनिंग बोल की इंतिहा यहीं नहीं थी। एक बार होली पहली तारीख़ को पड़ी तो लोक कवि इसका भी ब्यौरा एक युगल गीत में परोस बैठे, ‘पहली को ‘पे’ लूंगा फिर दूसरी को होली खेलूंगा।’ फिर सिसकारी भर-भर गाए इस गाने का कैसेट भी उनका खूब बिका।
अच्छा गाना गाने वाली एकाध लड़कियां ऐसा गाना गाने से बचने के फेर में पड़तीं तो लोक कवि उसे अपनी टीम से ‘आउट’ कर देते। कोई लड़की ज्यादा कामुक नृत्य करने में इफ बट करती तो वह भी ‘आउट’ हो जाती। यह सब जो लड़की कर ले और लोक कवि के साथ शराब पी कर बिस्तर में भी हो ले तो वह लड़की उनके टीम की कलाकार नहीं तो बेकार और आउट! एक बार एक लड़की जो कामुक डांस बहुत ढंग से करती थी, पी कर बहक गई। लोक कवि के साथ बेडरूम में गई और साथ में लोक कवि के बगल में जब एक और लड़की कपड़े उतार कर लेट गई तो वह उचक कर खड़ी हो गई। निर्वस्त्रा ही। चिल्लाने लगी, ‘गुरु जी यहां या तो यह रहेगी या मैं।’
‘तुम दोनों रहोगी!’ लोक कवि भी टुन्न थे पर पुचकार कर बोले।
‘नहीं गुरु जी!’ वह अपने खुले बाल और निर्वस्त्रा देह पर कपड़े बांधती हुई बोली।
‘तुम तो जानती हो एक लड़की से मेरा काम नहीं चलता!’
‘नहीं गुरु जी, मैं इस के साथ यहां नहीं सोऊंगी। आप तय कर लीजिए कि यहां यह रहेगी कि मैं।’
‘इसके पहले तो तुम्हें ऐतराज नहीं था।’ लोक कवि ने उसका मनुहार करते हुए कहा।
‘पर आज ऐतराज है।’ वह चीख़ी।
‘लगता है तुमने जादा पी ली है।’ लोक कवि थोड़ा कर्कश हुए।
‘पिलाई तो आप ही ने गुरु जी!’ वह इतराई।
‘बहको नहीं आ जाओ!’ गुस्सा पीते हुए लोक कवि ने उसे फिर पुचकारा। और लेटे-लेटे उठ कर बैठ गए।
‘कह दिया कि नहीं!’ वह कपड़े पनहते हुए चीख़ी।
‘तो भाग जाओ यहां से।’ लोक कवि धीरे से बुदबुदाए।
‘पहले इसको भगाइए!’ वह चहकी, ‘आज मैं अकेली रहूंगी।’
‘नहीं यहां से अब तुम जाओ।’
‘नीचे बड़ी भीड़ है गुरु जी।’ वह बोली, ‘फिर सब समझेंगे कि गुरु जी ने भगा दिया।’
‘भगा नहीं रहा हूं।’ लोक कवि अपने को कंट्रोल करते हुए बोले, ‘नीचे जाओ और रुखसाना को भेज दो!’
‘मैं नहीं जाऊंगी।’ वह फिर इठलाई। लेकिन लोक कवि उसके इस इठलाने पर पिघले नहीं। उलटे उबल पड़े, ‘भाग यहां से ! तभी से किच्च-पिच्च, भिन्न-भिन्न किए जा रही है। सारी दारू उतार दी।’ वह अब पूरे सुर में थे, ‘भागती है कि भगाऊं!’
‘जाने दीजिए गुरु जी !’ लोक कवि के बगश्ल में लेटी दूसरी लड़की जो निर्वस्त्रा तो थी पर चादर ओढ़े हुए बोली, ‘इतनी रात में कहां जाएगी, और फिर मैं ही जाती हूं रुखसाना को बुला लाती हूं।’
‘बड़ी हमदर्द हो इसकी?’ लोक कवि ने उसको तरेरते हुए कहा, ‘जाओ दोनों जाओ यहां से, और तुरंत जाओ।’ लोक कवि भन्नाते हुए बोले। तब तक पहले वाली लड़की समझ गई कि गड़बड़ ज्यादा हो गई है। सो गुरु जी के पैरों पर गिर पड़ी। बोली, ‘माफ कर दीजिए गुरु जी।’ उसने थोड़ा रुआंसी होने का अभिनय किया और बोली, ‘सचमुच चढ़ गई थी गुरु जी! माफ कर दीजिए!’
‘तो अब उतर गई?’ लोक कवि सारा मलाल धो पोंछ कर बोले।
‘हां गुरु जी!’ लड़की बोली।
‘लेकिन मेरी भी दारू तो उतर गई!’ लोक कवि सहज होते हुए दूसरी लड़की से बोले, ‘चल उठ!’ तो वह लड़की जरा सकपकाई कि कहीं बाहर भागने का उसका नंबर तो नहीं आ गया। लेकिन तभी लोक कवि ने उसकी शंका धो दी। बोले, ‘अरे हऊ शराब का बोतल उठा।’ फिर दूसरी लड़की की तरफ देखा और बोले, ‘गिलास पानी लाओ।’ वह जरा मुसकुराए, ‘एक-एक, दो-दो पेग तुम लोग भी ले लो। नहीं काम कैसे चलेगा?’
‘हम तो नहीं लेंगे गुरु जी।’ वह लड़की पानी और गिलास बेड के पास रखी मेज पर रख कर सरकाती हुई बोली।
‘चलो आधा पेग ही ले लो।’ लोक कवि आंख मारते हुए बोले तो लड़की मान गई।
लोक कवि ने खटाखट दो पेग लिए और टुन्न होते कि उसके पहले ही आधा पेग पीने वाली लड़की को अपनी ओर खींच लिया। चूमा चाटा, और उसके सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और बोले, ‘एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी।’ कह कर उसे अपनी बांहों में भर लिया।
लोक कवि के साथ यह और ऐसी घटनाएं आए दिन की बात थी। बदलती थीं तो सिर्फ लड़कियां और जगह। कार्यक्रम चाहे जिस भी शहर में हो लोक कवि के साथ अकसर यह सब बिलकुल ऐसे-ऐसे ही न सही इस या उस तरह से ही सही पर ऐसा कुछ घट जरूर जाता था। अकसर तो कोई न कोई डांसर उनके साथ बतौर ‘पटरानी’ होती ही थी और यह पटरानी हफ्ते भर की भी हो सकती थी, एक दिन या एक घंटे की भी। महीना, छः महीना या साल दो साल की भी अवधि वाली एकाध डांसर या गायिका बतौर ‘पटरानी’ का दर्जा पाए उन की टीम में रहीं। और उनके लिए लोक कवि भी सर्वस्व तो नहीं लेकिन बहुत कुछ लुटा देते थे।
बात बेबात !
बीच कार्यक्रम में ही वह ग्रीन रूम में लड़कियों को शराब पिलाना शुरू कर देते थे। कोई नई लड़की आनाकानी करती तो उसे डपटते, ‘शराब नहीं पियोगी तो कलाकार कैसे बनोगी?’ वह उकसाते हुए पुचकारते, ‘चलो थोड़ी सी चख लो!’ फिर वह स्टेज पर से कार्यक्रम पेश कर लौटती लड़कियों को लिपटा चिपटा कर आशीर्वाद देते। किसी लड़की से बहुत खुश होने पर उसकी हिप या ब्रेस्ट दबा, खोदिया देते। वह कई बार स्टेज पर भी यह आशीर्वाद कार्यक्रम चला देते। और फिर कई बार बीच कार्यक्रम में ही वह किसी ‘चेला’ टाइप व्यक्ति को बुला कर बता देते थे कि कौन-कौन लड़की ऊपर सोएगी। कई-कई बार वह दो के बजाय तीन-तीन लड़कियों को ऊपर सोने का शेड्यूल बता देते। महीना पंद्रह दिन में वह खुद भी आदिम रूप में आ जाते और संभोग सुख लूटते। लेकिन अकसर उनसे यह संभव नहीं बन पाता था।
कभी कभार तो अजब हो जाता। क्या था कि लोक कवि की टीम में कभी कदा डांसर लड़कियों की संख्या टीम में ज्यादा हो जाती और उनके मुकाबले युवा कलाकारों या संगतकर्ताओं की संख्या कम हो जाती। बाकी पुरुष संगतकर्ता या गायक अधेड़ या वृद्ध होते जिनकी दिलचस्पी गाने बजाने और हद से हद शराब तक होती।
बाकी सेक्स गेम्स में न तो वह अपने को लायक पाते न ही लोक कवि की तरह उनकी दिलचस्पी रहती। और एक-दो युवा कलाकार आखि़र कितनों की आग शांत करते भला? एक-दो में ही वह त्रस्त हो जाते। लेकिन लोक कवि के आर्केस्ट्रा टीम की लड़कियां इतनी बिगड़ चुकी थीं कि गाने बजाने और मयकशी के बाद देह की भूख उन्हें पागल बना देती। वह आधी रात झूमती-बहकती बेधड़क टीम के किसी भी पुरुष से ‘याचना’ कर बैठतीं। और बात जो नहीं बनती तो होटल के कमरे में मचलती वह बेकल हो जातीं और जैसे फरियाद कर बैठतीं, ‘तो कहीं से कोई मर्द बुला दो!’ इस कहने में कुछ शराब, कुछ माहौल, कुछ बिगड़ी आदतें तो कुछ देह की भूख सभी की खुमारी मिली जुली होती। और ऐसी बातें, सूचनाएं लोक कवि तक लगभग नहीं पहुंचतीं। ज्यादातर टीम के लोग ही खुसुर-फुसुर करते रहते। छन-छन कर बिखरी-बिखरी बातें कभी कभार लोक कवि तक पहुंचतीं तो वह उबल पड़ते। और ‘संबंधित’ लड़की को फौरन टीम से ‘आउट’ कर देते। बड़ी निर्ममता से।
बावजूद इस सबके लोक कवि की टीम में एंट्री पाने के लिए लड़कियों की लाइन लगी रहती। कई बार ठीक-ठाक पढ़ी लिखी लड़कियां भी इस लाइन में होतीं। गाने की शौकीन कुछ अफसरों की बीवियां भी लोक गायक के साथ गाने को न सिर्फ उत्सुक दीखतीं, बल्कि लोक कवि के गैराज में मय सिफारिश के पहुंच जातीं। लेकिन लोक कवि बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ लेते। कहते, ‘मैं हूं अनपढ़ गंवार गवैया। गांव-गांव, शहर-शहर घूमता रहता हूं, नाचता गाता हूं। होटल मिल जाए, धर्मशाला मिल जाए, स्कूल, स्टेशन कहीं भी जगह मिल जाए सो लेता हूं। कहीं न जगह मिले तो मोटर या जीप में भी सो लेता हूं।’ वह फिर हाथ जोड़ते कहते, ‘आप लोग हाई-फाई हैं, आपकी व्यवस्था हम नहीं कर पाऊंगा। माफ कीजिए।’
तो लोक कवि अपनी आर्केस्ट्र टीम में अमूमन हाई-फाई किस्म की लड़कियों, औरतों को एंट्री नहीं देते थे। आम तौर पर निम्न मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग की ही लड़कियों को वह अपनी टीम में एंट्री देते और बाद में उन्हें ‘हाई-फाई’ बता बनवा देते। पहले वह जैसे अपने पुराने उदघोषक दुबे जी के परिचय में उन की डी.एसपी. पत्नी और आई.ए.एस. बेटे का बख़ान जरूर करते थे, ठीक वैसे ही वह अब स्टेज पर पढ़ी लिखी लड़कियों का परिचय फला यूनिवर्सिटी से एम.ए. कर रही हैं या बी.ए. पास हैं, या फिर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी.एस.सी. वगैरह जुमले लगा कर करने लगे। लेकिन इस फेर में कुछ कम पढ़ी लिखी लड़कियों का ‘मनोबल’ गिरने लगता। तो जल्दी ही इसकी दवा भी लोक कवि ने खोज ली।
लड़की चाहे कम पढ़ी लिखी हो चाहे ज्यादा, किसी भी लड़की को वह ग्रेजुएट से कम स्टेज पर नहीं बताते और यह सब वह सायास लेकिन अनायास अर्थ में पेश करते। बाद में वह ज्यादातर लड़कियों को किसी न किसी जगह पढ़ता बता देते। बताते कि ‘एम.ए. में पढ़ रही हैं पर भोजपुरी में गाने का शौक है तो हमारे साथ आ कर गाने का शौक पूरा कर रही हैं।’ वह जोड़ते, ‘आप लोग इन्हें आशीर्वाद दीजिए।’ यहां तक कि वह अपनी उदघोषिका लड़की को भी खुद पेश करते, ‘लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी.एस.सी. कर रही हैं....’, तो उदघोषिका तो सचमुच बी.एस.सी. कर रही थी लेकिन कुछ शौक, कुछ घर की आर्थिक दिक्कतों ने उसे लोक कवि की टीम में हिंदी, अंगरेजी और भोजपुरी में एनाउनसिंग करने और जब तब कूल्हा मटकाऊ नृत्य करने के लिए विवश कर रखा था। बाद में उसकी अंगरेजी एनाउंसिंग के चलते जब लोक कवि की ‘मार्केट’ बढ़ी तो लोक कवि ने उसे एक हजार तो कभी डेढ़ हजार रुपए नाइट का भुगतान करना शुरू कर दिया। जब कि बाकी लड़कियां पांच सात सौ, ज्यादा से ज्यादा हजार रुपए नाइट तक ही पाती थीं। और वह भी नाच गाने की मेहनत मशक्श्कत के बाद की ‘सेवा सुश्रुषा’ भी जब-तब जिस तिस को करनी पड़ जाती थी सो अलग।
खै़र, एनाउंसर लड़की तो सचमुच पढ़ रही थी पर कुछ लड़कियां आठवीं, दसवीं या बारहवीं तक ही पढ़ी होतीं, न पढ़ी होतीं तो भी उन्हें स्टेज पर लोक कवि यूनिवर्सिटी में पढ़ता हुआ बता देते। एक लड़की तो दसवीं फेल थी और उसकी मां सब्जी बेचती थी पर कभी किसी समय वह जबलपुर यूनिवर्सिटी में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी रह चुकी थी, पति से झगड़े के बाद जबलपुर शहर और नौकरी छोड़ लखनऊ आई थी। पर लोक कवि उसकी लड़की को यूनिवर्सिटी में पढ़ता हुआ तो बताते ही उसकी मां को भी जबलपुर यूनिवर्सिटी की रिटायर प्रोफेसर बता देते तो संगी साथी कलाकार भी सुन कर फिस्स से हंस देते। डा. हरिवंश राय बच्चन अपनी मधुशाला में जैसे कहते थे कि, ‘मंदिर मस्जिद बैर बढ़ाते, मेल कराती मधुशाला’ कुछ-कुछ उसी तर्ज पर लोक कवि के यहां भी कलाकारों में हिंदू-मुस्लिम का भेद ख़त्म हो जाता। कई मुस्लिम लड़कियों के उन्होंने हिंदू नाम रख दिए थे तो कई हिंदू लड़कियों के नाम मुस्लिम। और लड़कियां बाखुशी इसे स्वीकार कर लेतीं। लेकिन तमाम इस सबके लोक कवि के मन में जाने क्यों अपने पिछड़ी जाति के होने की ग्रंथि फिर भी बनी रहती। इस ग्रंथि को ‘कवर’ करने के लिए वह पिछड़ी जाति की लड़कियों के नाम के आगे भी शुक्ला, द्विवेदी, तिवारी, सिंह, चौहान आदि जातीय संबोधन इस गरज से जोड़ देते ताकि लगे कि उनके साथ बड़े घरों की, ऊंची जातियों की लड़कियां भी नाचती गाती हैं।
लोक कवि में इधर और भी बहुतेरे बदलाव आ गए थे। कभी एक ठो कुर्ता पायजामा के लिए तरसने वाले, एक टाइम खाने के जुगाड़ में भटकने वाले लोक कवि अब मिनरल वाटर ही पीते थे। पानी की बोतल हमेशा उनके साथ रहती। वह लोगों से बताते भी कि, ‘खर्चा बढ़ गया है। दो-तीन सौ रुपए का तो मैं पानी ही रोज पी जाता हूं।’ वह जोड़ते, ‘दारू-शारू, खाने-पीने का खर्चा अलग है।’ अलग बात है अब वह भोजन के नाम पर सूप पर ज्यादा ध्यान देते थे। ‘चिकन सूप, फ्रूट सूप, वेजीटेबिल सूप’ वह बोलते। कई बार तो शराब को भी वह सूप ही बता कर पीते पिलाते। कहते, ‘सूप पीने से ताकत जादा आती है।’ इसी बीच लोक कवि ने एक एयरकंडीशन कार ख़रीद ली। वह अब इसी कार से चलते। बाकायदा ड्राइवर रख कर। लेकिन बाद में वह अपने ड्राइवर की मनमानी से जब तब परेशान हो जाते। पर उसको नौकरी से हटाते भी नहीं थे। अपने संगी साथियों से कहते भी थे, ‘जरा आप लोग इसको समझा दीजिए।’
‘आप खुद क्यों नहीं टाइट कर देते हैं गुरु जी!’ लोग कहते।
‘अरे, इ माली हम राजभर! का टाइट करूंगा इसको।’ कहते हुए लोक कवि बेचारगी में जैसे धंस से जाते थे।
इसी बीच चेयरमैन साहब के सौजन्य से लोक कवि का परिचय एक पत्रकार से हो गया। पत्रकार जाति का ठाकुर था और लोक कवि के पड़ोसी जनपद का वासी था। लोक कवि के गानों का रसिया भी। राजनीतिक हलकों व ब्यूरोक्रेसी में उसकी काफी अच्छी पैठ थी। पहले तो लोक कवि उस पत्रकार से बतियाने में हिचकिचाते थे। संकोचवश नहीं, भयवश। कि जाने क्या अंटशंट उनके बारे में भी वह लिख दे तो! उस पत्रकार ने लिखा भी एक लेख लोक कवि के बारे में। वह भी दिल्ली के एक दैनिक में जिसका कि वह संवाददाता था। पर जैसा कि लोक कवि डरते थे कि उनके बारे में वह कहीं अंट शंट न लिख दे, वैसा नहीं। फिर उस लेख के बाद लोक कवि का यह भय भी धीरे-धीरे छंटने लगा। फिर तो लोक कवि और उस पत्रकार की अकसर छनने लगी। जाम टकराने लगे। इतना कि दोनों ‘हमप्याला, हमनिवाला’ बन गए। जल्दी ही दोनों एक दूसरे को साधने भी लगे। पत्रकार को ‘मनोरंजन’ और शराब का एक ठिकाना मिल गया था और लोक कवि को सम्मान और पब्लिसिटी की द्रौपदी को जीतने का एक कुशल औजार। दोनों एक दूसरे के पूरक बन बाकायदा ‘गिव एंड टेक’ को फलितार्थ कर रहे थे।
लोक कवि पत्रकार को रोज भरपेट शराब मुहैया कराते। और कई बार तो यह दोनों सुबह से ही शुरू हो जाते। ऐसे जैसे बेड टी ले रहे हों। तो पत्रकार लोक कवि के लिए अकसर छोटे मोटे सरकारी कार्यक्रमों से लेकर प्राइवेट कार्यक्रमों तक का पुल बनता। पत्रकार ने उनके सरकारी कार्यक्रमों की फीस भी काफी बढ़वा दी। ब्यूरोक्रेसी पर जोर डाल कर। इतना ही नहीं बाद के दिनों में पिछड़ी जाति के एक नेता जब मुख्यमंत्री बने तो पत्रकार ने अपने संपर्कों और परिचय के बल पर लोक कवि की वहां भी एंट्री करवा दी। लोक कवि खुद भी पिछड़ी जाति के थे और मुख्य मंत्री भी पिछड़ी जाति के। सो दोनों की ट्यूनिंग इतनी ज्यादा जुड़ गई कि लोक कवि की पहचान मुख्यमंत्री की उपजाति के तौर पर फैलने लगी। तब जब कि लोक कवि उस उपजाति के नहीं थे। लेकिन चूंकि पहले ही से वह अपने नाम के आगे सरनेम लिखते ही नहीं थे, सो मुख्यमंत्री का सरनेम जब उनके नाम के आगे लगने लगा तो किसी को आपत्ति नहीं हुई। आपत्ति जिसको होनी चाहिए थी, वह लोक कवि ही थे पर उन्हें कोई आपत्ति थी नहीं। गाहे-बेगाहे जब उनका सरनेम जानने वाला कोई उन्हें टोकता कि, ‘का भई, यादव कब से हो गए?’ तो लोक कवि हंस कर बात को टाल जाते। टाल इसलिए जाते कि वह यादव न होते हुए भी ‘यादव’ को कैश कर रहे थे। यादव मुख्यमंत्री के करीब होने का सुख लूट रहे थे। इतना ही नहीं यादव समाज में भी अब लोक कवि ही ज्यादातर कार्यक्रमों के लिए बुलाए जाते। और बैनरों, पोस्टरों पर लोक कवि के नाम के साथ यादव भी उसी प्रमुखता से लिखा होता। यादव समाज में लोक कवि के लिए एक भावुक भारी स्वीकृति उमड़ने लगी। यादव समाज के कर्मचारी, पुलिस वाले तो आकर बड़ी श्रद्धा से लोक कवि के पांव छू कर छाती फुला लेते और कहते, ‘आपने हमारी बिरादरी का नाम रोशन कर दिया।’ प्रत्युत्तर में लोक कवि विनम्र भाव से बस मुसकुरा देते।
यादव समाज के कई अफसर भी लोक कवि को उन्हीं भावुक आंखों से देखते और हर संभव उनकी मदद करते, उनके काम करते।
कुछ ही समय में लोक कवि का रुतबा इतना बढ़ गया कि तमाम किस्म के लोगों को मुख्यमंत्री से मिलवाने के लिए वह पुल बन गए। छुटभैया नेता, अफसर, ठेकेदार और यहां तक कि यादव समाज के लोग भी मुख्यमंत्री से मिलने के लिए, मुख्यमंत्री से काम करवाने के लिए लोक कवि को संपर्क साधन बना बैठे। अफसरों को पोस्टिंग, ठेकेदारों को ठेका तो वह दिलवा ही देते, कुछ नेताओं को चुनाव में पार्टी का टिकट दिलवाने का आश्वासन भी वह देने लगे। और जाहिर है कि यह सब कुछ लोक कवि की बुद्धि और सामर्थ्य से परे था। परदे के बाहर यह सब करते लोक कवि जरूर थे पर परदे के पीछे तो लोक कवि के पड़ोसी जनपद का वह पत्रकार ही था जिसे चेयरमैन साहब ने लोक कवि से मिलवाया था। और यह सब करके लोक कवि मुख्यमंत्री के करीब सचमुच उतने नहीं हो पाए थे जितना कि उनके बारे में प्रचारित हो गया था। सचमुच में यह सब कर के मुख्यमंत्री के ज्यादा करीब वह पत्रकार ही हुआ था।
लोक कवि तो बस मुखौटा भर बन कर रह गए थे।
इस मुख्यमंत्री ने विभिन्न विधाओं के कलाकारों में पैठ बनाने के मकसद से उन्हें उपकृत करने के लिए एक नए लखटकिया सम्मान की घोषणा की। जिस में दो, पांच और पचास लाख तक की नकद सम्मान राशि समाहित थी। साथ ही संबंधित कलाकार के गृह जनपद या जहां भी उसे सम्मानित किया जाता उसके नाम पर किसी सड़क का भी नाम रखने का प्राविधान रखा। इस सम्मान से कई नामी गिरामी फिल्मी कलाकार, निर्देशक अभिनेता, गायक तो सम्मानित किए ही गए एक सुपरस्टार को मुख्यमंत्री ने अपने गृह जनपद ले जा कर पचास लाख रुपए के पुरस्कार से सम्मानित किया। इस सम्मान समारोह में लोक कवि ने भी कार्यक्रम पेश किया। उनका एक गाना, ‘हीरो बंबे वाला लमका झूठ बोलेला।’ सिर चढ़ कर बोला। और उनकी खूब वाह-वाह हुई।
लेकिन लोक कवि खुश नहीं थे।
लोक कवि का गम यह था कि वह मुख्यमंत्री के करीबी माने जाते थे, उनकी बिरादरी के न हो कर भी उनकी बिरादरी के माने जाते थे। और इससे भी बड़ी बात यह थी कि वह कलाकार भी ख़राब नहीं थे। मुख्यमंत्री की बहुत सारी सभाएं बिना लोक कवि के गायन के शुरू नहीं होती थीं तो भी वह इस लखटकिया सम्मान से वंचित थे। तब जब कि एक माने हुए फिल्म निर्देशक ने तो मुख्यमंत्री को बाकायदा चिट्ठी लिख कर कहा था कि, ‘फलां तारीख़ को मेरा जन्म दिन है चाहूंगा कि आप इस मौके पर मुझे भी सम्मान से नवाज दें।’ और मुख्यमंत्री ने उस फिल्म निर्देशक का अनुरोध मान लिया था। उसे सम्मानित किया था। कहा गया कि यह मुस्लिम तुष्टिकरण है। वह फिल्म निर्देशक मुस्लिम था। पर यह सब कहने सुनने की बातें थीं। सच यह था कि उस फिल्म निर्देशक में सचमुच काबिलियत थी और उसने कम से कम दो लैंड मार्क फिल्में तो बनाई ही थीं। हां, लेकिन मुख्यमंत्री को फिल्म निर्देशक द्वारा चिट्ठी लिख कर अपने को सम्मानित करने का अनुरोध करना जरूर निंदा का विषय था। एक सांध्य दैनिक में फिल्म निर्देशक की इस चिट्ठी की फोटो कापी छप जाने से यह निंदा हुई भी। पर गनीमत यह थी कि यह चिट्ठी एक सांध्य दैनिक में छपी थी सो बात ज्यादा नहीं फैली। लेकिन इस सबसे न सिर्फ इस फिल्म निर्देशक की थू-थू हुई बल्कि इस लखटकिया पुरस्कार की भी ख़ूब छिछालेदर हुई।
लेकिन लोक कवि का इस सब से कुछ लेना देना नहीं था। उन की चिंता यह थी कि इस सम्मान से वह क्यों वंचित हैं।
बाद में तो कई लोग टोकते तो कुछ लोग तंज करने के अंदाज में लोक कवि से पूछने भी लगे, ‘आप कब सम्मानित हो रहे हैं?’ तो लोक कवि खिसियानी हंसी हंस कर टाल जाते। कहते, ‘अरे, मैं तो बहुत छोटा कलाकार हूं!’ पर मन ही मन सुलग जाते।
आखि़र इस सुलगन को विस्तार एक रोज शराब पीते हुए उन्होंने पत्रकार को दिया। पत्रकार टुन्नावस्था को प्राप्त हो रहा था। सब कुछ सुन कर वह उछलते हुए बोला, ‘तो आपने पहले ही क्यों नहीं यह इच्छा बताई?’
‘तो इ सब अब हमको ही बताना पड़ेगा?’ लोक कवि शिकायत करते हुए बोले, ‘आपकी कुछ जिम्मेदारी नहीं है?’ वह तुनके, ‘आपको खुदै यह करा देना था!’
‘हां। भाई करा दूंगा। दुखी मत होइए।’ कह कर पत्रकार ने लोक कवि को सांत्वना दी। फिर कहा कि, ‘बकिर एक काम हमारा भी करवा दीजिएगा।’
‘कोई काम आपका रुका भी है ?’ लोक कवि तरेर कर बोले। वह तनाव में थे भी।
‘लेकिन यह काम थोड़ा दूसरे किसिम का है !’
‘का है ?’ लोक कवि का तनाव थोड़ा-थोड़ा छंटने लगा था।
‘आपके यहां एक डांसर है।’ पत्रकार ने आह भरी और जोड़ा, ‘बड़ी कटीली है। उसके कट्स भी गजब के हैं। बिलकुल नसें तड़का देती है।’
‘अलीशा न !’ लोक कवि ने पत्रकार की नस पकड़ी।
‘नहीं, नहीं !’
‘तो और कवन है हमारे यहां ऐसी कंटीली डांसर जो आप की नसें तड़का दे रही है ?’
‘ऊ जो निशा तिवारी है न !’ पत्रकार सिसकारी भरी आह भरते हुए बोला।
‘त उसको तो भूल जाइए आप।’
‘क्या ?’
‘हां।’
‘तो आप भी लोक कवि ई सम्मान को भूल जाइए।’
‘नाराज काहें हो रहे हैं आप!’ लोक कवि पुचकारते हुए बोले, ‘और भी कई हसीन-हसीन लड़कियां हैं।’
‘नहीं लोक कवि अभी वही चाहिए!’ पत्रकार पूरे रूआब और शराब में बोला।
‘उसमें है का ?’ लोक कवि मनुहार करते हुए बोले, ‘उससे अच्छी तो अलीशा है !’
‘अलीशा नहीं लोक कवि निशा ! निशा कहिए। निशा तिवारी !’
‘चलिए हम मान गए। लेकिन ऊ मानेगी नहीं।’ लोक कवि मन मसोस कर बोले। आखि़र लखटकिया सम्मान की द्रौपदी जीतने का प्रश्न था।
‘क्यों नहीं मानेगी ?’ पत्रकार भड़का, ‘आप तो अभी से काटने में लग गए हैं।’
‘काट नहीं रहा हूं। हकीकत बता रहा हूं।’
‘चलिए आप की ओर से ओ.के. है ?’
‘हां, भाई ओ.के. है।’
‘तो फिर इधर भी डन है।’
‘का डन है ?’ लोक कवि पत्रकार की अंगरेजी समझे नहीं थे।
‘अरे, मतलब आपका सम्मान हो गया।’
‘कहां हुआ, कब हुआ मेरा सम्मान?’ लोक कवि घबराए हुए बोले, ‘सब जबानी-जबानी हो गया!’ वह बुदबुदाए भी कि ‘जब आप को चढ़ जाती है तो अइसेही इकट्ठे दस ठो ताजमहल खड़ा कर देते हैं।’ पर सच यह था कि लोक कवि को भी चढ़ गई थी।
‘काहें घबराते हैं लोक कवि!’ पत्रकार बोला, ‘डन कह दिया तो हो गया।’ वह अटका, ‘मतलब आपका काम हो गया। हो गया समझिए। अब यह मेरी प्रतिष्ठा की बात है कि आपको यह सम्मान दिलवाएं। मुख्यमंत्री साले से कल ही बात करता हूं।’
‘गाली जिन दीजिए!’
‘काहें नहीं दूंगा। बंबई से साले आ-आ कर सम्मान पैसा ढो ले जा रहे हैं और एहीं बैठे हमारे लोक कवि को पूछा ही नहीं।’ वह बहकता हुआ बोला, ‘आज तो गाली दूंगा कल भले ही नहीं दूं।’
‘देखिएगा कहीं गाली गलौज में काम न बिगड़ जाए।’ लोक कवि ने आगाह किया।
‘कहीं काम नहीं बिगड़ेगा। अब आप सम्मानित होने की तैयारी करिए और किसी दिन निशा के इंतजाम की भी तैयारी नहीं भूलिएगा। !’ कह कर पत्रकार ने गिलास में बची शराब खटाक से देह में ढकेली और उठ खड़ा हुआ।
‘अच्छा त प्रणाम !’ लोक कवि सम्मान मिलने की खुशी में भावुक होते हुए बोले।
‘मैं तो जा ही रहा हूं। तो ‘प्रणाम’ काहे कह रहे हैं ?’ पत्रकार बिदकता हुआ बोला। पत्रकार दरअसल लोक कवि द्वारा कहे गए ‘प्रणाम’ के निहितार्थ को अब तक जान चुका था कि लोक कवि अमूमन किसी उपस्थित को टरकाने भगाने की गरज से ‘प्रणाम’ कहते थे।
‘गलती हो गई।’ कह कर लोक कवि ने पत्रकार के पांव छू लिए और बोले, ‘पालागी।’
‘तो ठीक है कल परसों में मुख्यमंत्री से संपर्क साधता हूं। और बात करता हूं।’ पत्रकार चलते हुए बोला, ‘लेकिन आप इसे डन समझिए।’
‘डन ? मतलब का बताए थे आप ?’
‘मतलब काम हो गया समझिए।’
‘आप की किरपा है।’ लोक कवि ने फिर उसके पांव छू लिए।
कल परसों में तो जैसा कि पत्रकार ने लोक कवि को आश्वासन दिया था बात नहीं बनी लेकिन बरसों भी नहीं लगे। कुछ महीने लगे। लोक कवि को इसके लिए बाकायदा आवेदन देना पड़ा। फाइलबाजी और कई गैर जरूरी औपचारिकताओं की सुरंगों, खोहों और नदियों से लोक कवि को गुजरना पड़ा।
बाकी चीजों की तो लोक कवि को जैसे आदत सी हो चली थी लेकिन जब पहले आवेदन देने की बात आई तो लोक कवि बुदबुदाए भी कि, ‘इ सम्मान तो जइसे नौकरी हो गया है।’ फिर उन्हें अपने आकाशवाणी वाले ऑडिशन टेस्ट के दिनों की याद आ गई। जिस में वह कई बार फेल हो चुके थे। उन दिनों की याद कर के वह कई बार घबराए भी कि कहीं इस सम्मान से भी ‘आउट’ हो गए तो ? फिर फेल हो गए तो ? तब तो समाज में बड़ी फजीहत हो जाएगी। और मार्केट पर भी असर पड़ेगा। लेकिन उन्हें अपनी किस्मत पर गुमान था और पत्रकार पर भरोसा। पत्रकार पूरे मनोयोग से लगा भी रहा। बाद में तो उसने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया।
और अंततः लोक कवि के सम्मान की घोषणा हो गई। बाकी तिथि, दिन, समय और स्थान की घोषणा शेष रह गई थी। इसमें भी बड़ी दिक्कतें पेश आईं। लोक कवि एक रात शराब पी कर होश और पेशेंस दोनों खो बैठे। कहने लगे, ‘जहां कलाकार हूं वहां हूं। मुख्यमंत्री के यहां तो भडुवे से भी गई गुजरी स्थिति हो गई है हमारी।’ वह भड़के, ‘बताइए सम्मान के लिए अप्लीकेशन देना पड़ा जैसे सम्मान नहीं नौकरी मांग रहे हों। चलिए अप्लीकेशन दे दिया। और भी जो करम करवाया कर दिया। सम्मान ‘एलाउंस’ हो गया। अब डेट एलाउंस करवाने में पापड़ बेल रहा हूं। हम भी और पत्रकार भी। वह और जोर से भड़के, ‘बताइए इ हमारा सम्मान है कि अपमान! बताइए आप ही लोग बताइए!’ वह दारू महफिल में बैठे लोगों से प्रश्न पूछ रहे थे। पर इस के भी उत्तर में सभी लोग ख़ामोश थे। लोक कवि की पीर को पर्वत में तब्दील होते देख सभी लोग दुखी थे। चुप थे। पर लोक कवि चुप नहीं थे। वह तो चालू थे, ‘बताइए लोग समझते हैं कि मैं मुख्यमंत्री का करीबी हूं, मेरे गाए बिना उनका भाषण नहीं होता और न जाने क्या-क्या!’ वह रुके और गिलास की शराब देह में ढकेलते हुए बोले, ‘लेकिन लोग का जानें कि जो सम्मान बंबई के भडुवे बेभाव यहां से बटोर कर ले जा रहे हैं वही सम्मान यहां के लोग पाने के लिए अप्लीकेशन दे रहे हैं। नाक रगड़ रहे हैं।’ इस दारू महफिल में संयोग से लोक कवि का एकालाप सुनते हुए चेयरमैन साहब भी उपस्थित थे लेकिन वह भी सिरे से ख़ामोश थे। दुखी थे लोक कवि के दुख से। लोक कवि अचानक भावुक हो गए और चेयरमैन साहब की ओर मुख़ातिब हुए, ‘जानते हैं, चेयरमैन साहब, ई अपमान सिर्फ मेरा अपमान नहीं है सगरो भोजपुरिहा का अपमान है।’ बोलते-बोलते अचानक लोक कवि बिलख कर रो पड़े। रोते-रोते ही उन्होंने जोड़ा, ‘एह नाते जे ई मुख्यमंत्री भोजपुरिहा नहीं है।’
‘ऐसा नहीं है।’ कहते-कहते चेयरमैन साहब जो बड़ी देर से ख़ामोशी ओढ़े हुए लोक कवि के दुख में दुखी बैठे थे, उठ खड़े हुए। वह लोक कवि के पास आए खड़े-खड़े ही लोक कवि के सिर के बालों को सहलाया, उनकी गरदन को हौले से अपनी कांख में भरा लोक कवि के गालों पर उतर आए आंसुओं को बड़े प्यार से हाथ से ही पोंछा और पुचकारा। फिर आह भर कर बोले, ‘का बताएं अब हमारी पार्टी की सरकार नहीं रही, न यहां, न दिल्ली में।’ वह बोले, ‘लेकिन घबराने और रोने की बात नहीं। कल ही मैं पत्रकार को हड़काता हूं। दो-एक अफसरों से बतियाता हूं। कि डेट डिक्लेयर करो!’ वह थोड़ा अकड़े और बोले, ‘ख़ाली सम्मान डिक्लेयर करने से का होता है?’ फिर वह लोक कवि के पास ही अपनी कुर्सी खींच कर बैठ गए। और लोक कवि से बोले, ‘लेकिन तुम धीरज काहे को खोते हो। सम्मान डिक्लेयर हुआ है तो डेट भी डिक्लेयर होगा ही। सम्मान भी मिलेगा ही।’
‘लेकिन कब ?’ लोक कवि अकुलाए, ‘दुई महीना त हो गया।’
‘देखो ज्यादा उतावलापन ठीक नहीं।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम्हीं कहा करते हो कि ज्यादा कसने से पेंच टूट जाता है तो का होगा ? जइसे दो महीना बीता चार छः महीना और सही।’
‘चार छः महीना !’ लोक कवि भड़के।
‘हां भई, ज्यादा से ज्यादा।’ चेयरमैन साहब लोक कवि को दिलासा देते हुए बोले, ‘एसे ज्यादा का सताएंगे साले।’
‘यही तो दिक्कत है चेयरमैन साहब।’
‘का दिक्कत है ? बताओ भला ?’
‘आप कह रहे हैं न कि ज्यादा से ज्यादा चार छः महीना !’
‘हां, कह रहा हूं।’ चेयरमैन साहब सिगरेट जलाते हुए बोले।
‘तो यही तो डर है कि का पता छः महीना इ सरकार रहेगी भी कि नहीं। कहीं गिर गिरा गई तो ?’
‘बड़ा दूर का सोचता है तुम भई।’ चेयरमैन साहब दूसरी सिगरेट सुलगाते हुए बोले, ‘कह तुम ठीक रहे हो। इ साले रोज तो अखाड़ा खोल रहे हैं। कब गिर जाए सरकार कुछ ठीक नहीं। तुम्हारी चिंता जायज है कि यह सरकार गिर जाए और अगली सरकार जिस भी किसी की आए, क्या गारंटी है कि इस सरकार के फैसलों को वह सरकार भी माने ही!’
‘तो ?’
‘तो का। कल ही कुछ करता हूं।’ कह कर घड़ी देखते हुए चेयरमैन साहब उठ गए। बाहर आए। लोक कवि के साथ और लोग भी आ गए।
चेयरमैन साहब की एंबेसडर स्टार्ट हो गई और इधर दारू महफिल बर्खास्त।
दूसरी सुबह चेयरमैन साहब ने पत्रकार से इस विषय पर फोन पर चर्चा की, रणनीति के दो तीन गणित बताए और कहा कि, ‘क्षत्रिय हो कर भी तुम इस अहिर मुख्यमंत्री के मुंहलगे हो, अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग करवा सकते हो, लोक कवि के लिए सम्मान डिक्लेयर करवा सकते हो, पचासियों और काम करवा सकते हो लेकिन लोक कवि के सम्मान की डेट नहीं डिक्लेयर करवा सकते?’
‘का बात करते हैं चेयरमैन साहब। बात चलाई तो है डेट के लिए भी। डेट भी जल्दी एनाउंस हो जाएगी।’ पत्रकार निश्चिंत भाव से बोला।
‘कब एनाउंस होगी डेट जब सरकार गिर जाएगी तब ? उधर लोक कविया अफनाया हुआ है।’ चेयरमैन साहब भी अफनाए हुए बोले।
‘सरकार तो अभी नहीं गिरेगी।’ पत्रकार ने, गहरी सांस ली और बोला, ‘अभी तो चेयरमैन साहब, चलेगी यह सरकार। बाकी लोक कवि के सम्मान की डेट एनाउंसमेंट ख़ातिर कुछ करता हूं।’
‘जो भी करना हो भाई जल्दी करो।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘यह भोजपुरिहों के आन की बात है। और फिर कल यही बात कर के लोक कवि रो पड़ा।’ वह बोले, ‘और सही भी यही है कि इस अहिर मुख्यमंत्री ने किसी और भोजपुरिहा को तो अभी तक इ सम्मान दिया नहीं है। तुम्हारे कहने सुनने से लोक कवि को अहिर मान कर जो कि वह है नहीं किसी तरह सम्मान डिक्लेयर कर दिया लेकिन डेट डिक्लेयर करने में उसकी क्यों फाट रही है?’
‘ऐसा नहीं है चेयरमैन साहब।’ वह बोला, ‘जल्दी ही मैं कुछ करता हूं।’
‘हां भाई, जल्दी कुछ करो कराओ। आखि़र भोजपुरी के आन-मान की बात है!’
‘बिलकुल चेयरमैन साहब !’
अब चेयरमैन साहब को कौन बताता कि इन पत्रकार बाऊ साहब के लिए भी लोक कवि के सम्मान की बात उन की जरूरत और उनके आन की भी बात थी। यह बात चेयरमैन साहब को भी नहीं, सिर्फ लोक कवि को ही मालूम थी और पत्रकार बाऊ साहब को। पत्रकार ने कहीं इसकी फिर चर्चा नहीं की। और लोक कवि ने इस बात को किसी को बताया नहीं। बताते भी कैसे भला? लोक कवि खुद ही इस बात को भूल चुके थे।
डांसर निशा तिवारी की बात !
लेकिन पत्रकार को यह बात याद थी। चेयरमैन साहब से फोन पर बात के बाद पत्रकार की नसें निशा तिवारी के लिए फिर तड़क गई। नस-नस में निशा का नशा दौड़ गया। और दिमाग को भोजपुरी के आन के सवाल ने डंस लिया।
पत्रकार चाहता तो जैसे मुख्यमंत्री से कह कर लोक कवि का सम्मान घोषित करवाया था, वैसे ही उन से कह कर तारीख़ भी घोषित करवा सकता था। पर जाने क्यों ऐसा करने में उसे हेठी महसूस हुई। सो चेयरमैन साहब की बताई रणनीति को तो पत्रकार ने ध्यान में रखा ही खुद भी एक रणनीति बनाई। इस रणनीति के तहत उसने कुछ नेताओं से फोन पर ही बात की। और बात ही बात में लोक कवि के सम्मान का जिक्र चलाया और कहा कि आप अपने क्षेत्र में ही क्यों नहीं इस का आयोजन करवा लेते? कमोवेश हर नेता से उसके क्षेत्र के मुताबिक गणित बांध कर लगभग अपनी ही बात नेता के मुंह में डाल कर उस से पत्रकार ने प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी ले ली। एक मंत्री से कहा कि बताइए उसका गृह जनपद और आपका क्षेत्र सटे-सटे हैं तो क्यों नहीं सम्मान समारोह आप अपने क्षेत्र में करवाते हैं, आपकी धाक बढ़ेगी। किसानों के एक नेता से कहा कि बताइए लोक कवि तो अपने गानों में किसानों और उनकी माटी की ही बात गाते हैं और सही मायने में लोक कवि का श्रोता वर्ग भी किसान वर्ग है। किसानों, मेड़, खेत खलिहानों में गानों के मार्फत जितनी पैठ लोक कवि की है, उतनी पैठ है और किसी की? नहीं न, तो आप इसमें पीछे क्यों हैं? और सच यह है कि इस सम्मान समारोह के आयोजन का संचालन सूत्र सही मायने में आपके ही हाथों होना चाहिए। जब कि मजदूरों की एक बड़ी महिला नेता और सांसद से कहा कि शाम को थक हार कर मजदूर लोक कवि के गानों से ही थकावट दूर करता है तो मजदूरों की भावनाओं को समझने वाले गायक का सम्मान मजदूरों के ही शहर में होना चाहिए। और जाहिर है सभी नेताओं ने लोक कवि के सम्मान की क्रेडिट लेने, वोट बैंक पक्का करने के फेर में लोक कवि का सम्मान अपने-अपने क्षेत्रों में कराने की गणित पर अपनी-अपनी टिप्पणियों में जोर मारा। बस पत्रकार का काम हो गया था। उसने दो एक दिन और इस चर्चा को हवा दी और हवा ने चिंगारी को जब शोला बनाना शुरू कर दिया तभी पत्रकार ने अपने अख़बार में एक स्टोरी फाइल कर दी कि लोक कवि के सम्मान की तारीख़ इस लिए फाइनल नहीं हो पा रही है कि क्यों कि कई नेताओं में होड़ लग गई है। अपने-अपने क्षेत्र में लोक कवि का सम्मान हर नेता करवाना चाहता है। तब जब कि पत्रकार भी जानता था कि योजना के मुताबिक लोक कवि का सम्मान उनके गृह जनपद में ही संभव है फिर भी लगभग सभी नेताओं की टिप्पणियों को वर्बेटम कोड करके लिखी इस ‘स्टोरी’ से न सिर्फ लोक कवि के सम्मान की तारीख़ जल्दी ही घोषित हो गई बल्कि उन के गृह जनपद की जगह भी घोषित हो गई। साथ ही लोक कवि की ‘लोकप्रियता’ की पब्लिसिटी भी हो गई।
लोक कवि की लय इन दिनों कार्यक्रमों में देखते ही बनती थी। ऐसे ही एक कार्यक्रम में पत्रकार भी पहुंच गया। ग्रीन रूम में बैठ कर शराब पीते हुए बार-बार कपड़े बदलती हुई लड़कियों की देह भी वह कभी कनखियों से तो कभी सीधे देखता रहा। पत्रकार की मयकशी में मंच से आते-जाते लोक कवि भी शरीक होते रहे। दो तीन लड़कियों को भी चोरी छुपे पत्राकर ने दो एक पेग पिला दी। एक लड़की पर दो चार बार हाथ भी फेरा। इस फेर में डांसर निशा तिवारी को भी उसने पास बुलाया। लेकिन वह पत्रकार के पास नहीं फटकी। उलटे तरेरने लगी। पत्रकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और शराब पीता रहा। जाने उसकी ठकुराई उफना गई कि शराब का सुरूर था कि निशा की देह की ललक, चद्दर ओढ़ कर कपड़े बदलती निशा को पत्रकार ने अचानक लपक कर पीछे से दबोच लिया। वह उसे वहीं लिटाने के उपक्रम में था कि निशा तब तक संभल चुकी थी और उसने पलट कर ठाकुर साहब को दो तीन थप्पड़ धड़ाधड़ रसीद किए और दोनों हाथों से पूरी ताकत भर ढकेलते हुए बोली, ‘कुत्ते, तेरी यह हिम्मत!’ ठाकुर साहब पिए हुए तो थे ही निशा के ढकेलते ही वह भड़भड़ा कर गिर पड़े। निशा ने सैंडिल पैर से निकाले और ले कर बाबू साहब की ओर लपकी ही थी कि मंच पर इस बारे में ख़बर सुन कर ग्रीन रूम में भागे आए लोक कवि ने निशा के सैंडिल वाले हाथों को पीछे से थाम लिया। बोले, ‘ये क्या कर रही है ?’ वह उस पर बिगड़े भी, ‘चल पैर छू कर माफी मांग।’
‘माफी मैं नहीं ये मुझसे मांगें गुरु जी!’ निशा बिफरी, ‘बदतमीजी इन्होंने मेरे साथ की है।’
‘धीरे बोलो ! धीरे।’ लोक कवि खुद आधे सुर में बोले, ‘मैं कह रहा हूं माफी मांगो।’
‘नहीं, गुरु जी।’
‘मांग लो मैं कह रहा हूं।’ कह कर लोक कवि बोले, ‘यह भी तुम्हारे लिए गुरु हैं।’
‘नहीं गुरु जी !’
‘जैसा कह रहा हूं फौरन करो!’ वह बुदबुदाए, ‘तमाशा मत बनाओ। और जैसा यह करें करने दो।’ लोक कवि और धीरे से बोले, ‘जैसा कहें, वैसा करो।’
‘नहीं !’ निशा बोली तो धीरे से लेकिन पूरी सख़्ती से। लोक कवि ने यह भी गौर किया कि इस बार उसने ‘नहीं’ के साथ ‘गुरु जी’ का संबोधन भी नहीं लगाया। इस बीच पत्रकार बाबू साहब तो लुढ़के ही पड़े रहे पर आंखों में उनकी आग खौल रही थी। ग्रीन रूम में मौजूद बाकी लड़कियां, कलाकार भी सकते में थे पर ख़ामोशी भरा गुस्सा सबकी आंखों में सुलगता देख लोक कवि असमंजस में पड़ गए। उन्होंने अपनी एक ‘लेफ्टीनेंट’ लड़की को आंखों ही आंखों में निशा को संभालने के लिए कहा और खुद पत्रकार की ओर बढ़ गए। एक कलाकार की मदद से उन्होंने पत्रकार को उठाया। बोले, ‘आप भी ई सब का कर देते हैं बाबू साहब?’
‘देखिए लोक कवि मैं और बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ बाबू साहब दहाड़े, ‘जरा सा पकड़ लिया इस छिनार को तो इसकी ये हिम्मत।’
‘धीरे बोलिए बाबू साहब।’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘बाहर हजारों पब्लिक बैठी है। का कहेंगे लोग !’
‘चाहे जो कहें। मैं आज मानने वाला नहीं।’ बाबू साहब बोले, ‘आज यह मेरे नीचे सोएगी। बस! मैं इतना ही जानता हूं।’ नशे में वह बोले, ‘मेरे नीचे सोएगी और मुझे डिस्चार्ज करेगी। इससे कम पर कुछ नहीं!’
‘अइसेहीं बात करेंगे?’ लोक कवि बाबू साहब के पैर छूते हुए बोले, ‘आप बुद्धिजीवी हैं। ई सब शोभा नहीं देता आप को।’
‘आप को शोभा देता है ?’ बाबू साहब बहकते हुए बोले, ‘आपका मेरा सौदा पहले ही हो चुका है। आपका काम तो डन हो गया और मेरा काम ?’
बाबू साहब की बात सुन कर लोक कवि को पसीना आ गया। फिर भी वह बुदबुदाए, ‘अब इहां यही सब चिल्लाएंगे ?’ वह भुनभुनाए, ‘ई सब घर चल कर बतियाइएगा।’
‘घर क्यों ? यहीं क्यों नहीं !’ बाबू साहब लोक कवि पर बिगड़ पड़े, ‘बोलिए आज यह मुझे डिस्चार्ज करेगी कि नहीं ? मेरे नीचे लेटेगी कि नहीं ?’
‘इ का-का बोल रहे हैं ?’ लोक कवि हाथ जोड़ते हुए खुसफुसाए।
‘कोई खुसफुस नहीं।’ बाबू साहब बोले, ‘क्लियर-क्लियर बता दीजिए हां कि ना!’
‘चुप भी रहेंगे कि अइसेही बेइज्जती कराएंगे?’
‘मैं समझ गया आप अपने वायदे से मुकर रहे हैं।’
लोक कवि चुप हो गए।
‘ख़ामोशी बता रही है कि वादा टूट गया है।’ बाबू साहब ने लोक कवि को फिर कुरेदा।
लेकिन लोक कवि फिर भी चुप रहे।
‘तो सम्मान कैंसिल !’ बाबू साहब ने बात जरा और जोर से दोहराई, ‘लोक कवि आपका सम्मान कैंसिल ! मुख्यमंत्री का बाप भी अब आप को सम्मान नहीं दे पाएगा।’
‘चुप रहीं बाबू साहब !’ लोक कवि के एक साथी कलाकार ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘बाहर बड़ी पब्लिक है।’
‘कुछ नहीं सुनना मुझे !’ बाबू साहब बोले, ‘लोक कवि ने निशा कैंसिल की और मैंने सम्मान कैंसिल किया। बात ख़त्म।’ कह कर बाबू साहब शराब की बोतल और गिलास एक-एक हाथ में लिए उठ खड़े हुए। बोले, ‘मैं चलता हूं।’ और वह सचमुच ग्रीन रूम से बाहर निकल गए। माथे पर हाथ रखे बैठे लोक कवि ने चैन की सांस ली। कलाकारों को हाथ के इशारे से आश्वस्त किया। निशा के सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया, ‘जीती रहो।’ फिर बुदबुदाए, ‘माफ करना !’
‘कोई बात नहीं गुरु जी।’ कह कर निशा ने भी अपनी ओर से बात ख़त्म की। लेकिन लोक कवि रो पड़े। भरभर-भरभर। लेकिन जल्दी ही उन्होंने कंधे पर रखे अंगोछे से आंख पोंछी, धोती की निचली कोर उठाए, हाथ में तुलसी की माला लिए मंच के पीछे पहुंच गए। उन्हीं का लिखा युगल गीत उन के साथी कलाकार गा रहे थे, ‘अंखिया बता रही है लूटी कहीं गई है।’ लोक कवि ने पैरों को गति दे कर थोड़ा थिरकने की कोशिश की और एनाउंसर को इशारा किया कि मुझे मंच पर बुलाओ।
एनाउंसर ने ऐसा ही किया। लोक कवि मंच पर पहुंचे और इशारा कर कंहरवा धुन पकड़ी। फिर भरे गले से गाने लगे, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ गाते-गाते पैरों को गति दी पर पैर तो क्या मन ने भी साथ नहीं दिया। अभी वह पहले अंतरे पर ही थे कि उनकी आंख से आंसू फिर ढलके। लेकिन वह गाते ही रहे, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ इस समय उनकी इस गायकी की लय में ही नहीं, उन के पैरों की थिरकन में भी अजीब सी करुणा, लाचारी और बेचारगी समा गई थी। वहां उपस्थित श्रोताओं दर्शकों ने ‘इस सब’ को लोक कवि की गायकी का एक अविरल अंदाज माना लेकिन लोक कवि के संगी साथी भौचक्के भी थे और सन्न भी। लेकिन लोक कवि असहज होते हुए भी गायकी को साधे हुए थे। हालांकि सारा रियाज रिहर्सल धरा का धरा रहा गया था संगतकार साजिंदों का। लेकिन जैसे लोक कवि की गायकी ने बेचारगी की लय थाम ली थी संगतकार भी ‘फास्ट’ की जगह ‘स्लो’ हो गए थे बिन संकेत, बिन कहे।
और यह गाना ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला’ सचमुच विरल ही नहीं, अविस्मरणीय भी बन रहा था। ख़ास कर तब और जब वह ठेका दे कर गाते, ‘हमरी न मानो....’ बिलकुल दादरा का रंग टच दे कर तकलीफ का जो दंश वह बो दे रहे थे अपनी गायकी के मार्फत वह बिसारने वाला था भी नहीं। वह जैसे बेख़बर गा रहे थे, और रो रहे थे। लेकिन लोग उन का रोना नहीं देख पा रहे थे। कुछ आंसू माइक छुपा रहा था तो काफी कुछ आंसू उनकी मिसरी सी मीठी आवाज में बहे जा रहे थे। कुछ सुधी श्रोता उछल कर बोले भी कि, ‘आज तो लोक कवि ने कलेजा निकाल कर रख दिया।’ उनकी गायकी सचमुच बड़ी मार्मिक हो गई थी।
यह गाना अभी ख़त्म हुआ भी नहीं था कि लोक कवि एक दूसरे गाने पर आ गए, ‘माला ये माला बीस, आने का माला!’ फिर कई भगवान, देवी देवताओं से होते हुए वह कुछ महापुरुषों तक माला महिमा का बखान करते इस गाने में तंज, करुणा और सम्मान का कोलाज रचने लग गए। कोलाज रचते-रचते अचानक वह फिर से पहले वाले गाने, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ पर आ गए। सुधी लोगों ने समझा कि लोक कवि एक गाने से दूसरे गाने में फ्यूजन जैसा कुछ कर रहे हैं। या कुछ नया प्रयोग, नई स्टाइल गढ़ रहे हैं। पर सच यह था कि लोक कवि माला को सम्मान का प्रतीक बता उसे पैसे से जोड़ कर अपने अपमान का रूपक रच रहे थे। अनजाने ही। अपने मन के मलाल को धो रहे थे।
कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब ने बाबू साहब और लोक कवि के बीच बातचीत करवानी चाही पर दोनों ही एक दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच तनाव बना रहा। फिर भी घोषित तारीख़ पर जब लोक कवि सम्मान प्राप्त करने अपने गृह नगर जा रहे थे तो एक दिन पहले लोक कवि ने बाबू साहब को भी फोन कर विनयपूर्वक चलने के लिए कहा।
लेकिन बाबू साहब बावजूद सारी फजीहत के निशा को भूले नहीं थे। छूटते ही लोक कवि से उन्होंने कहा, ‘निशा मिलेगी वहां। साथ चलेगी?’
‘नहीं।’
तो बाबू साहब ने भी, ‘तो फिर सवाल ही नहीं उठता।’ कह कर फैसला सुना दिया, ‘निशा नहीं तो मैं भी नहीं, आप भी नहीं।’ वह और तल्ख़ हो कर बोले, ‘भाड़ में जाएं आप और आपका सम्मान!’ कह कर फोन रख दिया।
लोक कवि मायूस हो गए।
निशा भी कलाकारों की टीम के साथ लोक कवि के गृह जनपद जा रही थी। लेकिन बहुत सोचने समझने के बाद उन्होंने निशा को चलने से बिलकुल अंतिम क्षणों में मना कर दिया। निशा ने पूछा भी कि, ‘क्यों क्या बात है गुरु जी ?’
‘समझा करो।’ कह कर लोक कवि ने उसे टालने की कोशिश की। पर वह मानी नहीं अड़ी रही। बार-बार उसके पूछने पर लोक कवि उस पर बिगड़ गए, ‘अभी तो नहीं कह दिया है लेकिन कहीं सचमुच वहां वह भी आ गए तो ?’
‘कौन गुरु जी ?’
‘बाबू साहब और कौन ?’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘का चाहती हो वहां भी वितंडा खड़ा हो। रंग में भंग हो जाए, सम्मान समारोह में।’ कह कर उन्होंने निशा को उसका पारिश्रमिक देते हुए कहा, ‘यह लो और घर चली जाओ।’
‘घर में लोग पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगी कि कार्यक्रम में क्यों नहीं गई?’ वह मायूस होती हुई बोली।
‘कह देना तबियत ख़राब हो गई।’ लोक कवि बोले, ‘दुई चार ठो दर्द, बुखार की गोली ख़रीद कर बैग में रख लेना।’ वह रुके और बोले, ‘अब तुरंत यहां से निकल जाओ।’
फिर लोक कवि मय दल बल के गृह जनपद को कूच कर गए।
मुख्यमंत्री ने लोक कवि को समारोहपूर्वक पांच लाख रुपए का चेक, स्मृति चिन्ह, शाल और स्मृति पत्र दे कर सम्मानित किया। महामहिम राज्यपाल की अध्यक्षता में। कोई तीन कैबिनेट मंत्री और पांच राज्यमंत्री भी समारोह में बड़ी मुश्तैदी से उपस्थित थे। कई बड़े अधिकारी भी। सम्मान पाते ही लोक कवि ने इधर उधर देखा और रो पड़े बरबस। फफक कर। हां, इस सम्मान के सूत्रधार बाबू साहब उपस्थित नहीं थे। लोगों ने समझा खुशी के आंसू हैं लेकिन लोक कवि की आंखें मंच पर, मंच के आसपास और भीड़ में बाबू साहब को बार-बार ढूंढ़ती रहीं। बाबू साहब हालांकि ‘नहीं’ कह चुके थे तो भी लोक कवि को बड़ी उम्मीद थी कि बाबू साहब उस समारोह में उनका हौसला बढ़ाने, बधाई देने आएंगे जरूर। और लोक कवि ऐसा कुछ बाजार के वशीभूत या दबाव में नहीं, दिल की गइराइयों से श्रद्धा में भर कर, भावुक हो कर सोच रहे थे। और उनकी हिरनी सी आकुल आंखें बेर-बेर बाबू साहब को हेर रहीं थीं। भीड़ में, भीड़ से बाहर। आगे-पीछे, दाएं-बाएं दसों दिशाओं में वह देखते और बाबू साहब को न पा कर बेकल हो जाते। बिलकुल असहाय हो जाते। बिलकुल वइसे ही जैसे भोलानाथ गहमरी के एक गीत के नायक का विरह लोक कवि के एक समकालीन गायक मुहम्मद ख़लील गाते थे, ‘मन में ढूंढलीं, जन में ढूंढलीं / ढूंढलीं बीच बजारे / हिया-हिया में पइठ के ढूंढलीं / ढूंढलीं बिरह के मारे / कवने सुगना पर मोहइलू आहि हो बालम चिरई।’ लोक कवि खुद भी इस गाने की आकुलता को सोख रहे थे, ‘छंद-छंद लय ताल से पूछलीं / पूछलीं स्वर के मन से / किरन-किरन से जाके पूछलीं / पूछलीं नील गगन से / धरती और पाताल से पूछलीं / पूछलीं मस्त पवन से / कवने अतरे में समइलू आहि हो बालम चिरई।’ वह कुछ बुदबुदा भी रहे थे मन ही मन अस्फुट सा। बहुत से लोगों ने समझा कि लोक कवि यह सम्मान पा कर विह्वल हो गए हैं। पर उनके संगी साथी उनके मर्म को कुछ-कुछ समझ रहे थे। समझ रहे थे सम्मान समारोह में उपस्थित चेयरमैन साहब भी लोक कवि की आंखों में समाई खोज, खीझ और सुलगन को। लोक कवि की आंखें बाबू साहब को खोज रही हैं, इस आकुलता को चेयरमैन साहब ठीक-ठीक बांच रहे थे। बांच रहे थे और आंखों ही आंखों में सांत्वना भी दे रहे थे कि, ‘घबराओ नहीं, मैं हूं न!’ चेयरमैन साहब जो मंच के नीचे आगे की कुर्सियों पर बैठे हुए थे और बगल की दूसरी कुर्सी को ख़ाली रखे हुए थे यह सोच कर कि का पता बाबू सहबवा साला पहुंच ही आए लोक कवि के इस सम्मान समारोह में।
लेकिन बाबू साहब नहीं आए।
कि तभी संचालक ने लोक कवि को गाने के लिए आमंत्रित कर दिया। लोक कवि कुछ-कुछ बुझे, कुछ-कुछ खुशी मन से उठे और माइक पर पहुंचे। ढपली ली एक देवी गीत गाया और गाने लगे, ‘मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी।’ इस गाने की नायिका के विषाद में ही वह अपना अवसाद धोने लगे।
कार्यक्रम के अंत में मुख्यमंत्री ने लोक कवि के जनपद की एक सड़क का नाम उनके नाम करने की घोषणा भी की तो लोगों ने तालियां बजा कर खुशी जताई। कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो लोक कवि मंच से नीचे उतरे और वहां चेयरमैन साहब के पैर छुए। बोले, ‘आशीर्वाद दीजिए!’ चेयरमैन साहब ने लोक कवि को उठा कर बाहों में भर लिया। भावुक हो कर बोले, ‘घबराओ नहीं मैं हूं।’ उन्होंने जैसे दिलासा दिया, ‘सब ठीक हो जाएगा।’
कार्यक्रम से निकल कर उन्होंने कलाकारों को विदा किया और खुद तीन चार कारों का काफिला बना कर अपने पैतृक गांव पहुंचे। आज सरकार द्वारा प्रदत्त सरकारी लाल बत्ती वाली गाड़ी में वह गांव गए थे। साथ में चेयरमैन साहब भी अपनी एंबेसडर सहित थे। पर एंबेसडर छोड़ वह लोक कवि के साथ लोक कवि की लाल बत्ती वाली कार में बैठे। कार्यक्रम में वैसे भी उनके गांव के कई लोग, कई रिश्तेदार आदि हालांकि आए हुए थे तो भी वह गांव गए। गांव के डीह बाबा की पूजा अर्चना की। गांव के शिव मंदिर में भी वह गए। शिव जी को अक्षत, जल चढ़ाया। पूजा पाठ के बाद बड़े बुजुर्गों के पांव छुए और अपने घर बिरहा भवन जो उन्होंने काफी पैसा खर्च कर के बनवाया था, जा कर तख्त बिछा कर बैठ गए। चेयरमैन साहब के लिए अलग से कुर्सी लगवाई। संगी साथियों के लिए दूसरा तख्त लगवाया। वह लोग अभी जर-जलपान कर ही रहे थे कि धीरे-धीरे लोक कवि के घर पूरा गांव उमड़ पड़ा। बड़े-बूढ़े, बच्चे-जवान, औरतें सभी। लोक कवि के दोनों छोटे भाइयों की छाती फूल कर कुप्पा हो गई। तभी चेयरमैन साहब ने लोक कवि के एक भाई को बुलाया और दस हजार रुपए की एक गड्डी जेब से निकाल कर दी। कहा कि, ‘पूरे गांव में लड्डू बंटवा दो !’
‘एतना पइसा का ?’ लोक कवि के छोटे भाई मुंह बा कर बोले।
‘हां सब पइसे का।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मेरी एंबेसडर वहां खड़ी है। ड्राइवर को बोलो मैंने कहा है। उसी से शहर चले जाओ और लड्डू ले कर फौरन आओ।’ फिर चेयरमैन साहब बुदबुदाए, ‘लगता है ई साला एतना पैसा एक बार में देखा नहीं है।’ फिर वह घबराए और अपने गनर से बोले, ‘जा तुम भी साथ चले जा, नहीं इससे कोई छीन झपट सकता है !’
गांव के लोगों का आना-जाना बढ़ता ही जा रहा था। इस भीड़ में कुछ ऊंची जातियों के लोग भी थे। गांव के प्राइमरी स्कूल में स्पेशल छुट्टी हो गई तो स्कूल के बच्चे भी चिल्ल-पों हल्ला करते आ धमके। साथ में मास्टर साहब लोग भी। एक मास्टर साहब लोक कवि से बोले, ‘गांव का नाम तो आप के नाम के नाते पहले ही बड़ा था इस जवार में लेकिन आज आप ने गांव के नाम का मान भी बढ़ा दिया।’ कह कर मास्टर साहब गदगद हो गए। तभी कुछ नौजवान लड़कों ने काका-काका कह कर लोक कवि से गाना गाने की फरमाइश कर दी। लोक कवि लाचार हो गए। बोले, ‘जरूर गाता। इहां अपनी मातृभूमि पर नहीं गाऊंगा तो कहां गाऊंगा?’ उन्हों ने जोड़ा, ‘बकिर बिना बाजा गाजा के हम गा नहीं पाऊंगा। आप लोगों को भी मजा नहीं आएगा?’ वह हाथ जोड़ कर बोले, ‘फेर कब्बो गा दूंगा। आज के लिए माफी करिए।’
लोक कवि का यह जवाब सुन कर कुछ शोहदे बिदके। एक शोहदा भुनभुनाया, ‘नेताओं ख़ातिर गाते-गाते नेता बन गया है। नेतागिरी झार रहा है साला।’
अभी भीड़ में यह और ऐसी कई खुसुर-फुसुर चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी लेकिन काफी स्वस्थ महिला एक हाथ में लोटा और एक हाथ में थाली लिए कुछ औरतों के साथ लोक कवि के पास पहुंचीं और जरा चुहुल करके गुहारा, ‘का ए बाबू!’
लोक कवि औरत को देखते ही ठठा कर हंस पड़े और उन्हीं के सुर में सुर मिला कर बिलकुल उसी लय में बोले, ‘हां, हो भौजी !’ कह कर लोक कवि लपक कर झुके और उन के पांव छू लिए।
‘जीयऽ! भगवान बनवले रहैं।’ कह कर भौजी ने थाली में रखी दही-अक्षत, हल्दी, दूब और रोली मिला कर लोक कवि का टीका किया। दही थोड़ा इस गाल, थोड़ा उस गाल लोक कवि के लगा के चुहुल की। लोक कवि के गाल में इस बहाने भौजी ने चुटकी भी काटी। और फिस्स से ऐसे हंसीं कि भौजी के गाल में भी गड्ढे पड़ गए। साथ की बाकी औरतें भी यह सब देख कर खिलखिला कर हंस पड़ीं। पल्लू मुंह में दबाए हुए। जवाब में लोक कवि कुछ चुहुल करते, ठिठोली फोड़ते कि इसके पहले ही भौजी ने परीछने का गाना, ‘मोहन बाबू के परीछबों....’ गाना शुरू कर दिया और लोढ़ा ले कर लोक कवि को परीछने लगीं। साथ आई बाकी औरतें भी गाती हुई बारी-बारी लोक कवि को बढ़-चढ़ कर परीछती रहीं बारी-बारी।
लोक कवि पहले भी दो बार परीछे गए थे। इसी गांव में। एक बार अपनी शादी में, दूसरी बार गौने में। तब वह ठीक से जवान भी नहीं हुए थे। बच्चे थे तब। आज जमाने बाद वह फिर परीछे जा रहे थे। अपनी मनपसंद भौजी के हाथों। अब जब वह बुढ़ापे के गांव में कदम रख चुके थे। तब बचपन के परीछने में उन के मन में एक उत्तेजना थी, एक कसक थी। पर आज के परीछने में एक स्वर्ग की सी अनुभूति थी, सम्मान और आन की अनुभूति थी। इतना गौरव, इतना सुख तो मुख्यमंत्री द्वारा दिए पांच लाख रुपए के सम्मान में भी उन्हें आज नहीं मिला था। जितना भौजी के इस परीछने में उन्हें मिल रहा था। लोक कवि सिर झुका कर मुसकुराते हुए बड़े विनीत भाव से परीछवा रहे थे। ऐसे गोया उनका राजतिलक हो रहा हो। वह लोक गायक नहीं लोक राजा हों। परीछने वाली औरतें जरा-जरा देर पर बदलती जा रही थीं और उन की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। अभी परीछन गीत के साथ परीछन चल ही रहा था कि नगाड़ा भी बजना शुरू हो गया। गांव की ही कुछ उत्साही औरतों ने गांव की चमरौटी में कुछ लड़कों को भेज कर यह नगाड़ा मंगवाया था। साथ ही लोक कवि को ‘देखने’ गांव की चमरौटी के लोग भी उमड़ आए।
लोक कवि गदगद थे। गदगद थे अपनी माटी में यह मान पा कर।
नगाड़ा बज रहा था और परीछन भी हो रहा था कि तभी एक बूढ़ी सी महिला खांसती भागती आ गईं। लोक कवि से थोड़ा दूर खड़ी हो उन्हें अपलक निहारने लगीं। लोक कवि ने भी जरा देर से सही उन्हें देखा और विभोर हो गए। बुदबुदाए, ‘का सखी !’
सखी लोक लाज के नाते मुंह से तो कुछ नहीं बोलीं, पर आंखों-आंखों में बहुत कुछ बोल गईं। कुछ क्षण दोनों एक दूसरे को अपलक निहारते रहे। कोई और बेला होती तो लोक कवि लपक कर सखी को बांहों में भर लेते। कस-कस के चूम लेते। लोक कवि ऐसा ही सोच रहे थे और सखी उन के मनोभावों को शायद समझ गईं। वह ठिठकीं और आंचल जो सिर पर था उसे और ठीक किया गौर से देख लिया कि कहीं फिसल तो नहीं रहा। सखी अभी इस उधेड़बुन में ही थीं कि क्या करें जरा देर और यहां रुकें कि चल दें यहां से। तभी कुछ होशियार औरतों ने सखी को देख लिया। देख लिया भौजी ने भी सखी को। सखी को देख कर थोड़ी नाक-भौं सभी ने सिकोड़ी लेकिन मौका दूसरा था सो बात आगे नहीं बढ़ाई। इसलिए भी कि ये काकी भौजी टाइप औरतें यह जानती थीं कि कुछ ऐसा वैसा करने कहने पर लोक कवि को दुख पहुंचेगा। और यह मौका लोक कवि को दुख पहुंचाने का नहीं था। एक औरत ने लपक कर सखी का हाथ थामा और उन्हें लोक कवि तक खींच कर लाई, बड़े मनुहार से। सखी के हाथ में लोढ़ा दिया बड़े प्यार से। और सखी ने भी लोक कवि को परीछा उसी उछाह से। सखी जब लोक कवि को परीछ रही थीं तो लोक कवि का एक बार तो मन हुआ कि छटक कर वह वहीं ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ कर गाने लगें। लेकिन सामने सखी के साथ-साथ लोक भी था और उनकी आंखों में लाज भी। सो वह ऐसा सिर्फ सोच कर रह गए। सोख गए अपनी लोच मारती भावनाओं को।
सखी की ख़ातिर !
सखी असल में लोक कवि की बाल सखी थीं। आम के बाग में ढेला मारकर टिकोरा, फिर कोइलासी खाते और खेलते हुए सखी के साथ लोक कवि का बचपन गुजरा था। फिर सखी के साथ गलियों में, पुआल में, अरहर के खेत और आम, महुआ के बाग में लुका छिपी खेलते हुए वह जवान हुए थे। गांव में तब लोक कवि और सखी को लोग गुपचुप-गुपचुप चर्चा का विषय बनाए हुए थे। तब सखी को लोग तंज में राधा और लोक कवि को मोहन कहते थे। लोक कवि का नाम तो मोहन ही था पर सखी का नाम राधा नहीं धाना था। लोक कवि भी धाना ही कहते थे पहले। पर बाद में जब बात ज्यादा बढ़ गई तो वह धाना को सखी कहने लगे। और लोग इन दोनों को राधा-मोहन कहने लगे। कई-कई बार दोनों ‘रंगे’ हाथ पकड़े गए, फजीहत हुए पर इनकी जवानी का करार नहीं टूटा। कि तभी मोहना पर नौटंकी, बिदेसिया की ‘नकल’ उतारने का भूत सवार हो गया। मोहना की राह बदलने लगी पर सखी को फिर भी वह साधे रहा। सखी भी थीं तो मोहना की तरह पिछड़ी जाति की लेकिन मोहना से उनकी जाति थोड़ी ऊंची थी। मोहना जाति का भर था तो सखी यादव। गांव में तब यह फर्क बहुत बड़ा फर्क था। लेकिन राधा मोहन की जोड़ी के आगे यह फर्क मिट सा जाता था। बावजूद इसके कि तब के दिनों राधा का घर काफी समृद्ध था और मोहन का घर समृद्धि से कोसों दूर। मोहना के अभी मूछ की रेख भी ठीक तरह नहीं फूटी थी कि तभी जो कहते हैं न कि हाय गजब कहीं तारा टूटा! वही हुआ। धाना का बियाह तय हो गया। बियाह तय होते ही ‘लगन’ लग गई धाना की। घर से बाहर-भीतर होना बंद हो गया। मोहना बहुत अकुलाया पर भेंट तो दूर, भर आंख देखना तो दूर, झलक भी पा पाना उसके लिए दूभर हो गया। उस बरस आम के बाग में सखी के साथ ढेला मार कर कोइलासी खाना मोहना को नसीब नहीं हुआ। तभी मोहना ने पहला ‘ओरिजनल’ गाना गया। गुपचुप। जो किसी बिदेसिया या नौटंकी की पैरोडी नहीं थी। हां, धुन कंहरवा जरूर थी। गली-गली में गाते गुनगुनाते फिरता यह गाना मोहनवा सुबह शाम भूल गया था। पर किसी से कुछ कह नहीं पाता था। मोहनवा गाता, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना्!’ वह यह एक ही लाइन गाता, गुनगुनाता और टूट जाता। किसी पेड़ के पीछे बैठ कर जी भर के रोता। पर राधा की बारात आ कर चली गई मोहनवा की भेंट राधा से नहीं हुई। राधा दिखी भी तो लगन उतरने के बाद। पर बोली नहीं अपने मोहनवा से। मुंह फेर कर चली गई। पायल छमकाती छम-छम। मांग में ढेर सारा गम-गम, लाल-लाल सेनुर दिखाती। मोहन का जी धक् से रह गया। फिर भी वह, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ गाता, गुनगुनाता अकेले ही पहुंच गया बलिया में ददरी के मेला। घूमा-घामा, खाया-पिया और रात को तबके बहुत बड़े मशहूर भोजपुरी गायक जयश्री यादव का ‘पोरोगराम’ सुना। उनकी गायकी मोहन को बड़ी मीठी लगी। ख़ास कर, ‘तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा !’ गाने ने तो जैसे जान निकाल ली। ठीक ‘पोरोगराम’ के बाद मोहन जयश्री यादव से मिला। उनसे गाना सीखने, उनको गुरु बनाने की अपनी कामना रखी और उनके पैर छू कर आशीर्वाद मांगा। जयश्री यादव ने आशीर्वाद तो दिया पर गाना सिखाने और शिष्य बनाने से मोहन को साफ इंकार कर दिया। कहा भी कि, ‘अभी बहुत टूटे हुए हो तो बात गाना गाने की कह रहे हो, लेकिन यह सब तुम्हारे वश का नहीं है। अभी जवानी का जोश है जवानी उतरते ही हमको गरियाओगे। जाओ, हल जोतो, मजूरी धतूरी करो, भैंस चराओ।’ वह बोले, ‘काहें गाने में जिनगी ख़राब करना चाहते हो ?’
मोहन मायूस हो कर घर लौट आया। बहुत कोशिश की कि गाने बजाने से छुट्टी मिल जाए। पर भुला नहीं पाया। वह फिर गया जयश्री यादव के पास। फिर-फिर जाता रहा। बार-बार जाता रहा। पर जयश्री यादव ने हर बार उसका दिल तोड़ा।
फिर वह भूल गया जयश्री यादव को। लेकिन धाना ?
महीनों बीत गए मोहन ने फिर धाना का भी रुख़ नहीं किया। ध्यान भी नहीं आया धाना का मोहन को। उसके ध्यान में अब सिर्फ गाना और बजाना था। वह अकसर नए-नए गाने बनाता, गाता और लोगों को सुनाता। मोहन गाने के लिए अपने गांव में तो मशहूर हो ही गया था, गांव के आस-पास से होते हवाते पूरे जवार में जाना जाने लगा। मोहन की आवाज थी भी मिसरी सी मीठी और पगे गुड़ सी सोंधी खुशबू लिए। अब तक मोहन के हाथ में बजाने के लिए थाली या गगरे के बजाय एक चंग भी आ गई थी।
वह चंग बजाते-बजाते गाता और गाते-गाते गांव की कुप्रथाओं को ललकारता। ललकारता जमींदारों के अत्याचारों को उनके सामंती व्यवहार और गरीबों को बंधुवा बनाने की साजिश को। गा कर ललकारता, ‘अंगरेज भाग गए, तुम भी भाग जाओ। या फिर गरीबों को सताना बंद कर दो !’
इस फेर में मोहन की कई बार पिटाई हुई और बेइज्जती भी। सीधे गाने को ले कर नहीं किसी न किसी बहाने। मोहना यह जानता था फिर भी वह गाना नहीं छोड़ता। उलटे फिर एक नया गाना ले कर खड़ा हो जाता, किसी बाजार किसी कस्बे, किसी पेड़ के नीचे चंग बजाता, गाता हुआ।
इस बीच मोहना का भी बियाह तय हो गया। लगन लग गई। पर गवना तीसरे में तय हुआ। शादी के बहाने मोहना को औरतों के बीच धाना भी दिखी। धाना की शादी तो हो गई थी, पर गवना पांचवें में तय हुआ था। यानी शादी के पांच साल बाद। शादी के दो बरस तो बीत चुके थे। तीन बरस बाकी थे। इधर मोहना का भी गवना तीसरे में तय हुआ था। यानी तीन बरस बाद।
धाना गोरी चिट्टी तो पहले ही से थी, अब घर से कम निकलने के कारण और गोरी हो गई थी। रंग के साथ ही साथ रूप भी उसका निखर आया था। धानी चूनर पहने धाना की गठीली देह अब कंटीली भी हो चली थी। जब मोहना ने लंबे समय बाद उसे भर आंख देखा तो वह पहले तो सकुचाई फिर शरमाई और बरबस मुसकुरा पड़ी। मुसकुराने से उसके गालों में पड़े गड्ढों ने मोहना को जैसे आकंठ डुबो लिया। अवश मोहना उसे अपलक निहारता रहा।
बारात जब विवाह के लिए गांव से विदा हुई तो मोहना को लोढ़ा ले कर परीछने वाली तमाम औरतों में धाना भी एक थी। परीछन के समय मोहन ने किसी बहाने धाना का हाथ छू लिया। छू लिया तो जैसे करंट लग गया दोनों को। और दोनों चिहुंक पड़े। एक बार इस वाकये का जिक्र लोक कवि ने चेयरमैन साहब से बड़ी संजीदगी से किया था तो चेयरमैन साहब चुहुल करते हुए बोले, ‘440 वोल्ट का करंट लगा था का?’ लेकिन लोक कवि इस 440 वोल्ट की तफसील तब समझ नहीं पाए थे और बाद में जब समझाने पर समझे भी तो चहक कर बोले, ‘एहू ले जादा!’
ख़ैर, मोहन बियाह करने तब ससुराल पहुंचा डोली में बैठ कर। नगाड़ा, तुरही बजवाते हुए। सिंदूर दान का समय जब आया तो पंडित जी के मंत्रोचार के साथ ही मोहना को सखी की साध लग गई। मांग वह पत्नी की भर रहा था पर याद वह सखी को कर रहा था। ध्यान में उसके धाना थी। उसे लगा जैसे वह धाना की ही मांग भर रहा था। परीछन के समय धाना के हाथ की छुअन, छुअन से लगा करंट मोहना के मन में तारी था।
मोहना के बियाह में धोबिया नाच का सट्टा हुआ था। जब नाच चल रहा था तभी मोहना का मन हुआ कि उठ कर वह भी खड़ा हो कर दू-तीन ठो बिरहा, कंहरवा गा दे। और कुछ न सही तो ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ ही गा दे। पर यह मुमकिन नहीं हुआ। क्योंकि वह दुलहा था।
ख़ैर बियाह कर मोहना अपने गांव वापस आया। रस्में हुईं और कुछ दिनों बाद जब लगन उतर गई तो वह फिर गांव के ताल और बाग में गाता घूमा, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ पर धाना कहीं दिखी नहीं, सखी कहीं मिली नहीं। जिसको मोहना संगी बनाने को आतुर था। हालांकि उधर सखी भी अब बेकरार थीं। पर मोहना से मिलने की राह नहीं दिखती थी। फिर भी वह मोहना का ध्यान लगातीं और हमजोली सखियों, सहेलियों के बीच छमकती हुई झूम कर गातीं, ‘अब ना बचिहैं मोरा इमनवा हम गवनवा जइबों ना!’ वह जोड़तीं, ‘साया सरकै, चोली मसकै हिल्ले दूनो जोबनवा हम गवनवा जइबों ना।’ सखियां सहेलियां भी तब धाना से ठिठोली फोड़तीं, ‘काहें मकलात बाटू, बऊरा जिन, दिन धरा ल। आ नहीं त अलबेला मोहनवा से जीव लगा ल वोहू क गवना अबहिन नाईं भइल बा। त कई देई तोहार गवनवा, बकिर ‘इमनवा’ ले के!’ तो कोई सहेली ताना मारती पूछती, ‘कइसे जइबू गवनवा हे धाना!’ और तबका एक मशहूर गाना ठेका ले कर गाती, ‘ससुरे में पियवा बा नादान रे माई नइहर में सुनलीं !’
‘धत्!’ कह कर सकुचाती धाना बातचीत से भाग खड़ी होती। लेकिन सखी सोचती थीं सचमुच मोहनवा के ही बारे में। सपने में भी वह मोहनवा के साथ ही होतीं। कभी चकइ क चकवा खेलती हुई तो कभी बाग में ढेला मार कर कोइलासी खाती हुई। सपने में ही वह अपना गवना भी देखतीं पर डोली में अपने मरद के साथ नहीं मोहनवा के साथ बैठी होतीं। पर सब कुछ सपने में ही। अपने मरद की तो शकल भी धाना को मालूम नहीं थी। बियाह में नाउन हाथ भर का घूंघट भर, चद्दर ओढ़ा कर एतना कस कर पकड़े बइठी थी कि आंख उठा कर कनखियों से देखना तो दूर धाना आंख उठा भी नहीं पाई थी। सारा बियाह आंख बंद किए-किए ही संपन्न हो गया। सेनुर के समय तो देह थरथर कांप रही थी धाना की और आंखें बंद। बस सहेलियों के मार्फत ही जाना कि छाती चौड़ी है, सांवला है और कि पहलवानी देह है बस!
तो सपने वाले गवने में डोली में अपने मरद की छवि धाना देखती भी तो कैसे भला?
हालांकि, वह अपने मरद से बिना देखे ही सही प्यार भी बहुत करती थी। उसके नाम का सेनुर मांग में भरती थी। तीज का व्रत करती थी। अपने मरद से प्यार करने की उसकी कोई थाह नहीं थी। एक बार तो गांव में ही पट्टीदारी के एक घर से एकदम नया स्वेटर चुरा कर उसने कई दिन छुपाए रखा और फिर गांव के ही एक नादान किसिम के लड़के के हाथ अपने उस बिन देखे मरद के पास पठाने की कोशिश की। चुपके-चुपके। कि किसी को पता न चले। लेकिन वह स्वेटर ले जाने वाला लड़का इतना नादान निकला कि बात गांव से उसके निकलने से पहले ही खुल गई कि धाना अपने मरद को कुछ पठा रही है।
क्या पठा रही है ?
यह चर्चा गांव में चिंगारी तरह फैली और शोला बन गई। अंततः हाथ से सिल कर सीलबंद की हुई झोली खोली गई तो उल्टी सीधी इबारत वाली एक चिट्ठी निकली जिसमें सिर्फ ‘परान नाथ परनाम धाना’ लिखा था और वह स्वेटर निकला। लोगों की आंखें फैल गईं। और फिर यह बात फैलते भी देर नहीं लगी कि धाना तो चोट्टिन निकली। धाना पढ़ी लिखी तो थी नहीं। तो यह चिट्ठी किस ने लिखी एक सवाल यह भी निकला। और पता चला कि दर्जा चार में पढ़ने वाले एक लड़के से धाना ने लिखवाया था।
बड़े बुजुर्गों ने ‘बच्ची है!’ कह कर बात को टाला भी फिर भी बेइज्जती बहुत हुई धाना की।
बेइज्जती धाना की हुई और आहत मोहन हुआ। दो बातों से। एक तो यह कि धाना के कोमल मन को किसी ने नहीं समझा, उसके मर्म और प्रीति की पुकार को नहीं समझा। उलटे उसको चोट्टिन घोषित कर दिया। दूसरे, यह कि अगर धाना को अपने मरद ख़ातिर यह स्वेटर भेजवाना ही था तो उस बकलोल लवंडे से भिजवाने की का जरूरत थी। कोई ‘हुसियार’ आदमी को भेजती। हमको कहती। हम जा के दे आते उसके मरद को स्वेटर। किसी को पता भी नहीं चलता और ‘परेम सनेस’ पहुंच भी जाता।
लेकिन अब तो सारा कुछ बिगड़ चुका था। उधर धाना बेइज्जत थी, इधर मोहन आहत। गांव में, जवार में घटी हर बात पर गाना बना देने वाले मोहना से कुछ उजड्ढ टाइप के लोगों ने इस धाना के स्वेटर चोरी वाली घटना पर भी गाना बनाने का बार-बार आग्रह कर तंज कसा। इस बात का भी मोहना को बहुत बुरा लगा और बार-बार। हर बार वह अपने मन को चुप लगा जाता। अपने आक्रोश को लगाम लगा लेता धाना के आन ख़ातिर। नहीं बेबात बात का बतंगड़ बन जाता और धाना का नाम उछलता कि मोहनवा धनवा के लिए लड़ गया। बेइज्जती बहुत होती। सो मोहनवा ख़ामोश ही रहता ऐसे तंजबाजों की बातों पर।
वो कहते हैं न कि रात गई, बात गई। तो धीरे-धीरे यह बात भी बिसर गई। एक मौसम बीत कर दूसरा, दूसरा बीत कर तीसरा मौसम आ गया।
हां, वह सावन का ही महीना था !
धाना सखी सहेलियों के साथ आम के बगीचे में झूले पर थी और गा रही थी, ‘कइसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरवा घेरि आइल ननदी !’ जिस पेड़ पर धाना का झूला पड़ा था उस पेड़ से तीन चार पेड़ छोड़ कर एक पेड़ की डाल पर पत्तों की आड़ में बइठा मोहनवा धाना को टुकुर-टुकुर देख रहा था। न सिर्फ देख रहा था धाना को रह-रह कर इशारे भी करता जा रहा था। पर धाना बेख़बर ‘ननदी’ के गाने में मस्त थी। होंठ और पैर दोनों गुलाबी रंग से रंगे हुई थी। आंचल छाती से हटा हुआ था तो मोहनवा की आंख वहीं अटकी क्या टिकी पड़ी थी। बड़ी देर तक इशारेबाजी के बाद भी धाना की नजर जब मोहनवा पर नहीं पड़ी तो मोहनवा ने अंततः एक छोटा सा ढेला धाना के टिकोरा से आम हो चले स्तनों पर साध के ऐसे मारा कि झूला जब ऊपर से नीचे की ओर चले तब उसे लगे। लेकिन ढेला मारा ठीक वइसे ही जइसे वह कभी आम के पेड़ पर ढेला मार कर धाना को कोइलासी खिलाता था। फर्क सिर्फ इतना था कि तब वह ढेला नीचे से ऊपर मारता था आज ऊपर से नीचे मारा। निशाना अचूक था। मिट्टी का छोटा से ढेला धाना के कठोर और बड़े हो चले स्तनों के बीच जा कर ही तब फंसा जब वह पेंग मारती हुई झूले के साथ ऊपर से नीचे आ रही थी। निशाना की स्टाइल जानी पहचानी थी सो चिहुंक कर उसने ऊपर देखा और आंखें मूंद ली। ऐसे गोया कि कोई और न जाने कि मोहनवा दूसरे पेड़ की डाली पर बैठा है। फिर जब झूला नीचे से ऊपर जाने लगा तब उसने न सिर्फ मोहनवा को भर आंख देखा बल्कि कसके आंख भी मारी। थोड़ी देर तक इसी तरह दोनों के बीच झूला चलता रहा और आंखें झूला झूलती रहीं।
कि तभी बादर घेरे हुए तो थे ही, झम-झम बरसने भी लगे।
सावन के बादर !
झूला छोड़ कर सभी औरतें भागीं। पर धाना नहीं भागी। पैर में जल्दबाजी में चोट लगने के बहाने वहीं पास के पेड़ के नीचे भींगती भागती पैर दबाती मोहन को देखती रही। पेड़ गीला हो गया था। भीगे पेड़ से उतरने में ख़तरा था। पर यह ख़तरा उठाया मोहन ने धाना की ख़ातिर। उसे पाने की ख़ातिर। सभी औरतें भाग कर आधा फर्लांग दूर एक झोपड़ी में शरण ले कर बैठ गईं। लेकिन धाना मोहन की शरण ले कर एक पेड़ के नीचे भींगती रही। भींगती रही भीतर बाहर। एक बारिश बाहर हो रही थी एक बारिश धाना के भीतर। बरस रहा था मोहन धाना के भीतर। मोहन धाना के गालों को चूम रहा था। और उसके होठों पर लगा गुलाबी रंग अपनी जीभ से चख रहा था। धाना के कठोर हो चले वक्षों को जब मोहन ने छुआ तो जैसे उसकी देह में फिर भारी करंट दौड़ पड़ा और निर्वस्त्र धाना बेसुध हो निःशब्द हो गई। आंखें बंद कर वह एक जीवित सपने में कैद हो परम सुख के क्षणों में बहने लगी। और जब मोहन उसे लगभग निर्वस्त्र कर उसके ऊपर झुक आया तो उसने ख़ूब कस कर अपने से चिपका लिया। झूले का पीढ़ा जैसे उनका बिछौना बना था। और कवच भी कीचड़ से बचने का। बाग की हरी घास भी दोनों के साथ थी। फिर भी जो थोड़ा बहुत कीचड़ छू भी रहा था दोनों की देह को, वह बरखा की बौछारें धोए दे रही थीं। संजोए दे रही थी, धाना और मोहन के प्यार के पसीने को अपना पानी दे कर। क्षण भर भी नहीं लगा मोहन को धाना की देह बंध लांघने में और वह देह के प्राकृतिक खेल को भरी बरखा में खेलने लगा। मोहन के पुरुष ने ज्यों ही धाना की स्त्री का दरवाजा खटखटा कर प्रवेश किया धाना सिहर गई। चिहुंक कर चीखी, और मोहन निढाल हो गया। सावन का एक और बादर बरस गया था धाना में। बरसा गया था मोहन।
क्षण भर में ही।
दोनों मदमस्त पड़े रहे। एक दूसरे को भींचते हुए। भींगते रहे सावन की तेज बौछारों में। बौछारें जब फुहारों में बदलने लगीं तो मोहन का पुरुष फिर जागा। धाना की स्त्री भी सोई हुई नहीं थी। एक देह की बारिश दूसरी देह में और घनी हो गईं। और जब मोहन धाना के भीतर फिर बरसा तो धाना उसे दुलारने सी लगी। तभी सावन की फुहारें और धीमी हो गईं साथ ही पास की मड़ई से हंसती खिलखिलाती आती औरतों की आवाज भी हलकी-हलकी आने लगी। अचानक धाना छिटक कर मोहन से दूर हुई। पेड़ की आड़ में खिसक कर जल्दी से पेटीकोट पहना, ब्लाउज पहनते हुए बोली, ‘अब तू भाग मोहन जल्दी से !’
‘काहें ?’ मोहन मदहोशी में बोला।
‘सब आवति हईं।’ वह बोली, ‘जल्दी से भाग।’ कह कर वह जल्दी-जल्दी साड़ी बांध कर पैर पकड़ पेड़ से सट कर बैठ गई। ऐसे जैसे पांव का चोट अभी ठीक नहीं हुआ हो !’ तभी उसे मोहन फिर से चूमने लगा। तो वह थोड़ा गुस्साई, ‘मरवा के मनबऽ का मोहन।’
मोहन धीरे से वहां से भागा। बाग के दूसरी ओर। छप-छप, छप-छप।
औरतें आईं और तर-बतर धाना को संभालने में लग गईं। ज्यादातर नादान टाइप सखियां तो ओफ्फ उफ्फ कर धाना के साथ, ‘जादा घाव लाग गइल का !’ की सहानुभूति में पड़ गईं पर अनुभवी आंखों वाली सखियां तड़ गईं कि आज इस बाग में सावन के बादरों के अलावा भी कोई बादर बरसा है। यों ही नहीं रुक गई थीं धाना सखी।
‘का हो धाना सखी, आज त तू नीक से भीजि गइलू हो।’ कहती हुई एक औरत जिसका कि गौना हो चुका था, बोली, ‘इमनवा बचल कि ना !’ वह बोली, ‘तोहार अंखिया त कहति बा कि ना बचल।’
‘का जहर भाखत बाटू !’ धाना ने प्रतिवाद किया।
‘माना चाहे नइखै गवनवा त हो गइल एह बरखा में।’ वह औरत प्यार भरा तंज कसती हुई बोली, ‘जाने इमनवा बचल कि ना !’
‘अरे, सीधे पूछ कि जोरनवा पड़ल कि ना ?’ एक तीसरी सखी पड़ताल करती हुई बोली, ‘हई घसिया बतावति बा !’ वह आंखें घुमाती हुई होंठ गोल करती हुई बोली, ‘हई होठवा का उड़ल लाली बतावति बा, हई साड़ी क किनारी बतावति बा।’
‘का बतावति बा ?’ धाना बिफरती हुई बोली।
‘कि घाव बड़ा गहिरा लागल बा हो धाना बहिनी !’ एक और हुसियार सखी बोली।
बारिश ख़त्म हो गई थी पर धाना की सहेलियों की बात ख़त्म नहीं हो रही थी। आजिज आ कर धाना एक सहेली का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई। उसका कंधा पकड़ा और घर चलने के लिए आंखों ही आंखों में इशारा किया। वह चलने लगी तभी झूले का पीढ़ा उठाती एक सखी बोली, ‘ई पीढ़ा तो झलुवा से उतरल बा हो।’
‘के उतारल ?’ एक दूसरी सखी ने रस ले कर पूछा।
‘हई पायल जो उतरले होई।’ वह पीढ़े के पास गिरे धाना के पायल को दिखाते हुए बोली।
‘लावा पायल !’ सकुचाती, गुस्साती धाना बोली, ‘इहां जान जात बा और तूहन के मजाक सूझत बा।’
‘राम-राम !’ वह सखी बोली, ‘इ तोहरै पायल है का ?’ उसने फिर चुहुल की, ‘केहु से कहब ना, के उतारल बता द !’
‘हई दई उतरलैं !’ धाना ने बादरों की ओर इशारा करते हुए जान छुड़ाने की कोशिश की।
‘का हो दई, इहै कुल करबऽ !’ ऊपर बादर की ओर देखती और ठुमकती हुई वह सहेली जैसे बादल से बोली, ‘लाज नइखै आवत, धाना क पायल उतारत !’
फिर तो घर के रास्ते भर किसिम-किसिम की चुहुल होती रही। घर के पास पहुंचते ही एक सहेली बोली, ‘हई ल धाना क पायल का दई निकरलैं, इनकर चाल भी बदलि गईल !’
‘काहे न बदलै भला। ‘घाव’ जवन लागल बा।’ वह सहेली बोली, ‘जान करेज्जा में लागल बा जे गोड़े में। बकिर लागल त बा !’
धाना को उसके घर छोड़ती हुई धाना की मां से भी सहेलियों ने कहा कि, ‘घाव बड़ा गहिर लागल बा, जे हरदी दूध ढेर पियइह ए काकी !’
जो भी हो इस पूरी स्थिति, ताने उलाहने और दिक्कतों का ब्यौरा धाना ने मोहन को अगली मुलाकात में खुसुर-फुसुर कर के ही सही पूरा-पूरा दिया। जिसका बाद में लोक कवि ने अपने एक डबल मीनिंग गाने में बड़ी बेकली से इस्तेमाल भी किया कि, ‘अंखिया बता रही है लूटी कहीं गई है।’ फिर आगे दूसरे अंतरे में वह आते, ‘लाली बता रही है चूसी कहीं गई है’ और फिर गाते, ‘साड़ी बता रही है खींची कहीं गई है।’
बहरहाल बिना घाव के ही सही हल्दी दूध पीते समय धाना ने अपने पैरों की अंगुली यूं ही देखी तो धक् रह गई। उसने देखा कि पैरों की अंगुली से बिछिया भी गायब थी! उसने दबी जबान माई को यह बात बताई भी। तो माई ने कोई ऐतराज नहीं जताया। माई बोलीं, ‘कवनो बात नाई बछिया, तोहार जान परान और गोड़ बचि गइल का कम बा ? बिछिया फेर आ जाई !’
पैर में चोट का बहाना फिर भी भारी पड़ा। इस बहाने कुछ दिन धाना घर से बाहर नहीं निकल पाई। तब जब कि उसका अंग-अंग महुआ सा महक रहा था। उसका मन होता कि वह चोटी खोल बालों को छोड़ कर नंगे पाव कोसों दूर दौड़ जाए। दौड़ जाए मोहना के साथ। भाग जाए मोहना के साथ। फिर लौट के घर न आए। बस वह दौड़ती रहे। वह और मोहना दौड़ते रहें एक दूसरे को थामे, एक दूसरे से चिपटे हुए। कोई देखे नहीं, कोई जाने नहीं।
पर यह सब तो सिर्फ सोचने और सपने की बात थी।
सच में तो वह मोहना से मिलने के लिए अकुलाती रही। अफनाती रही। गुनगुनाती और गाती रही, ‘हे गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इबों, मोहना से कइ द मिलनवा हो राम !’ सखियां सहेलियां समझतीं कि ‘सैंया से कइ द मिलनवा हो राम’ गा रही है धाना। स्वेटर वाले सइयां के लिए। पर धाना तो गाती थी ‘मोहना से कइ द मिलनवा हो राम।’ लेकिन ‘मोहना’ इतनी होशियारी से वह फिट करती थी कि कोई बूझ नहीं पाता। सिर्फ वही बूझती। और वह देखती कि मौका बे मौका मोहना भी कोई गाना टेरता उसके घर के आस पास से जल्दी-जल्दी गुजर जाता। कनखियों से इधर-उधर झांकता, देखता। पर वह करती भी तो क्या ? उसके पैर में ‘घाव’ न था !
‘जल्दी’ ही ठीक हो गया उसका ‘घाव’ और वह कुलांचे मारती हुई घर से निकलने लगी। ऐसे जैसे किसी गाय का बछड़ा हो। पर मोहना को देख कर भी नहीं देखती। अनजान बन जाती। मोहना परेशान हो जाता। धाना भी। और फिर रात में वह मिलती मोहना से चुपके-चुपके। लेकिन सपने में। सचमुच में नहीं। बाग-बारिश, झूला-मोहना और वह। पांचों एक साथ होते। सपने में बरसते हुए! भींजते, चिपटते और सिहर-सिहर कर एक दूसरे को हेरते हुए। एक दूसरे को जीते हुए। पर सब कुछ होता सपने में ही।
सच में नहीं।
सपना मोहना भी देखता था। धाना का सपना। बाग-बारिश और झूले का नहीं। सिर्फ धाना का। और बह जाता सपने के किसी छोर पर जांघिया ख़राब करता हुआ।
जल्दी ही ख़त्म हुआ दोनों के सपने का सफ़र !
सच में मिले।
भरी दुपहरिया में धाना की भैंसों की घारी में। भैंसें बाहर चरने गईं थीं। और धाना मोहन घारी में। मक्खी, मच्छर और गोबर के बीच एक दूसरे को चरते हुए। जल्दी ही दोनों छूट गए। कैद से। तय हुआ कि अब आगे से दिन में नहीं रात में ही कभी घारी, कभी खलिहान, कभी बाग, कभी खेत या जहां भी कहीं मौका हाथ लगेगा मिलते रहेंगे। यहां-वहां। पर चुपके-चुपके। धाना जल्दी में थी। घारी से सबसे पहले भागी फिर मौका देख कर मोहना भी इधर-उधर ताकता हुआ धीरे से निकला।
फिर मौके बेमौके कभी अरहर के खेत में, कभी गन्ना के खेत में, कभी बाग तो कभी घारी, बारी-बारी जगह बदलते मिलते रहे धाना मोहन। बहुत बचा कर भी होने वाली यह मुलाकात पीपल के पत्तों की तरह सरसराने लगी। लोगों की जबान पर आने लगी। मोहन-धाना या धाना-मोहन के तौर पर नहीं राधा मोहना के तौर पर। धाना जैसे मोहन के लिए सखी थी वैसे ही चर्चाकारों, टीकाकारों के लिए राधा बन चुकी थी। कृष्ण वाली राधा ! तो नाम चला क्या दौड़ पड़ा। राधा-मोहना।
पर राधा मोहना तो बेख़बर थे। बेख़बर थे अपने आप से, अपने ख़बर बन जाने की ख़बर से।
एक रात बड़ी देर तक दोनों एक दूसरे से चिपटे रहे। उस रात मोहना कम धाना ज्यादा ‘आक्रामक’ थी। मोहना जब-जब चलने की बात कहता तब-तब धाना कहती, ‘नाहीं, अबै नाहीं।’ वह जोड़ती, ‘तनिक अवर रूकि के।’ मोहन करता भी क्या धाना उसके ऊपर ही लेटी पड़ी थी। अपने कठोर-कठोर बड़े होते जा रहे स्तनों से उसे कुचलती हुई। और मोहन नीचे से उसके नितंबों को रह-रह कर हाथों से थपकियाता कहता, ‘अब चलीं न!’ और वह कहती, ‘नाहीं, अबै नाहीं।’ उस रात धीरे-धीरे ही सही राधा ने मोहन से कहा कि, ‘बड़ा गवैया बनल घूमै ल, आजु हम गाइब!’ और गाया भी धाना ने खूब गमक के, ‘ना चली तोर न मोर / पिया होखे द भोर / मारल जइहैं चकोर / आज पिया होखे द भोर।’ और सचमुच उस रात भोर होने पर ही छोड़ा धाना ने मोहन को। तब तक मोहन धाना के साथ गुत्थमगुत्था हो कर तीन चार फेरा निढाल हो चुका था। चलते-चलते वह सिसकारी भरते हुए मचल कर बोला भी, ‘लागता जे हमें मार डरबू ए धाना!’
‘हां, तूहें मारि डारब !’ धाना भी शोख़ी बोती हुई बोली थी तब।
राधा मोहन का यह सिलसिला चलता रहा और चर्चा भी !
बात मोहना के घर तक पहुंच चुकी थी पर राधा रूपी धाना के घर नहीं। किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती। राधा के दो भाई पहलवान थे और लठैत भी। जो भी ख़बर पहुंचाता उसकी ख़ैर नहीं थी। इसी नाते गांव में चर्चा भी चलती राधा-मोहना की तो खुसुर-फुसुर में। वह भी गुपचुप।
पर कब तक छुपती भला यह ख़बर !
आखि़र ख़बर पहुंची धाना के घर। जो धाना ने ही पहुंचाई। धाना ने क्या, धाना की उल्टियों ने पहुंचाई। पर धाना के घर ख़बर पहुंची यह बात धाना के घर वालों ने कानों कान किसी को ख़बर नहीं होने दी। धाना को बड़ी यातना दी गई। पर यह बात भी बाहर नहीं आई। पचवें में गवना जाने वाली धाना का डेढ़ बरस पहले ही गवना हो गया। यह ख़बर जरूर पहुंची सब तक लेकिन चर्चा इसकी भी नहीं हुई।
धाना ने यातना जरूर सही और बेहिसाब सही पर मोहन का नाम जबान पर नहीं लाई।
लेकिन मोहन डर गया था। डर गया पहलवानों की लाठी से। वह समझ गया कि ऊंच नीच हो गया है। घबरा कर शहर की राह पकड़ ली। वहीं चंग ले कर गाने बजाने लगा।
धाना के फेर में इधर वह गाना भी भूल गया था।
एक दिन वह जिला कचहरी के एक मजमे में गा रहा था। कलक्टर के जुर्म पर बनाया गाना। बिना कलक्टर का नाम लिए। तो भी पुलिस ने पकड़ कर पीट दिया मोहन को। गनीमत की जेल वेल नहीं भेजा। लेकिन वह यह कलक्टर के जुर्म का गाना गाता रहा। एक कम्युनिस्ट नेता ने भी राह चलते एक दिन यह गाना सुन लिया मोहन से। यह कम्युनिस्ट नेता यहां का स्थानीय विधायक भी था। उसने मोहना को बुलाया। बात की, चाय पिलाई और उसके बारे में जाना। उसकी पीठ थपथपाई और पूछा कि, ‘हमारी पार्टी के लिए गाओगे ?’
‘जो कहेगा उसके लिए गाऊंगा। बस गरीबों के खिलाफ नहीं गाऊंगा।’ मोहन बेखौफ हो कर बोला।
‘हम गरीबों मजदूरों और मजलूमों के हक की लड़ाई लड़ते हैं।’ कम्युनिस्ट नेता ने मोहन को यह बात बता कर उसका मन साफ किया और अपने साथ अपनी टीम का मेंबर बना लिया। फिर वह पार्टी का मेंबर भी बना और पार्टी के लिए गाने लगा।
पर वह अपनी सखी धाना को नहीं भूला। धाना की खोज ख़बर लेता रहा। बाद में पता चला कि धाना के बेटा हुआ है। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि यह बेटा उसका ही बेटा है। मोहन और धाना का बेटा। उसने रोब से मूंछें ऐंठीं। हालांकि उसकी मूंछ का ठीक-ठीक अभी पता नहीं था। पर नाक के नीचे पतली मूंछ की इबारत सी निकलती जरूर दिखती थी।
बाद में उसे धाना के कटों, ‘जल्दी’ बच्चा पैदा हो जाने से मिलने वाले तानों और तकलीफों का भी ब्यौरा मिलता रहा। पर वह बेबस था। करता भी तो क्या? कोई पहल या दिलचस्पी दिखाने का मतलब था धाना को और कट, और बेइज्जती, और मुश्किल में डालना। सो वह धाना की तकलीफों को ध्यान कर अकेले ही रो गा कर शांत हो जाता।
इसी बीच मोहन का भी गवना हो गया। वह शहर से गांव, गांव से शहर गाता बजाता भटकता रहा। पर कोई स्थाई राह नहीं मिली। दो बच्चे भी तब तक उसे हो गए। पर रोजी रोटी का ठिकाना दूर-दूर तक नहीं दीखता था।
इसी बीच उसे फिर धाना दिखी। शहर के एक अस्पताल जाती हुई रिक्शे से। उसका मरद भी उसके साथ था। और उसका बेटा भी। रोक नहीं पाया मोहन अपने आप को। सारे ख़तरे उठा कर वह लपका। और बोला, ‘हे सखी!’ सखी मोहन की आवाज सुनते ही सकुचाईं पर घबराई नहीं। अपने मरद को खुदियाया, मोहन को दिखाया और बोलीं, ‘का हो मोहन!’ मोहन के मन का सारा पाप मिट गया। सखी का मरद था तो पहलवान पर गुस्सैल नहीं था। सखी को मानता जानता बहुत था। एक तरह से सखी का गुलाम था। ठीक वइसे ही जइसे जोरू का गुलाम !
सखी ने मरद से कह कर मिठाई मंगाई और खुसफुसा कर बताया कि, ‘तोहरे बेटा क तबियत ख़राब है। सरकारी डक्टरी में देखावे बदे आइल हईं।’
मोहन ने झट कम्युनिस्ट नेता से संपर्क साधा जो पार्टी कार्यालय में मिल गए। उनकी डाक्टर से बात कराई। डाक्टर ने लड़के को ठीक से देखा भाला। निमोनिया बता कर इलाज शुरू किया। लड़का ठीक हो गया। साथ ही मोहन भी। धाना का मरद मोहन का मुरीद हो गया। मोहन और उसकी सखी धाना का रास्ता भी साफ हो गया। दोनों फिर मिलने जुलने लगे। कभी धाना के मरद के सामने तो कभी गुपचुप-गुपचुप। धाना के अभी तक एक ही बेटा था, मोहन की कृपा से। मोहन का धाना से मिलना जुलना क्या शुरू हुआ धाना के पांव फिर भारी हो गए। कोई आठ बरिस बाद।
कि तभी विधानसभा चुनावों का ऐलान हो गया। मोहन के उस कम्युनिस्ट नेता ने भी फिर चुनाव लड़ा। मोहना ने इस चुनाव में जान लगा दी। स्थानीय समस्याओं को ले कर एक से एक गाने बनाए और गाए कि अन्य नेताओं के छक्के छूट गए। नेताओं के भाषण से ज्यादा मोहन के गानों की धूम थी। नेता जी के हर जलसे में तो मोहन गाता ही, जलसे के बाद जीप में भी बैठ कर माइक ले कर गाता, गांव-गांव घूमता। इस फेर में वह गाता हुआ अपने गांव भी गया और सखी के गांव भी।
नेता जी चुनाव जीत गए तो मोहन को भी इसकी ना सिर्फ क्रेडिट दी उन्होंने बल्कि मोहन को अपने साथ वह लखनऊ भी ले आए। और मोहन को एक नया नाम दिया: लोक कवि!
लोक कवि ने लखनऊ आ कर लंबा संघर्ष किया। फिर नाम और पैसा भी खूब कमाया। लेकिन अपनी सखी को वह नहीं भूले। सखी से इस बीच भी वह मौका बेमौका मिलते रहे। नतीजतन सखी उनके तीन बच्चों की मां हो चली थीं। एक बार इस बात की चर्चा लोक कवि ने चेयरमैन साहब से चलाई तो चेयरमैन साहब ने लोक कवि से पूछा, ‘तो ऊ पहलवान साला क्या करता था ?’
‘पहलवानी !’
लोक कवि ने भी ऐसी स्टाइल से कहा कि चेयरमैन साहब हंसते-हंसते लोटपोट क्या हुए बिलकुल बेसुध हो गए थे।
बाद में सखी के पति पहलवान की आर्थिक स्थिति भी गड़बड़ा गई तो लोक कवि ने न सिर्फ तब संभाला बल्कि बराबर कुछ न कुछ आर्थिक मदद भी करते रहे। और साथ ही सखी की भी ‘मदद’ में रहे। बहुत बाद में सखी की ‘मदद’ तो वह बिसार बैठे पर उनकी, उनके परिवार की आर्थिक मदद वजज बेवजह वह करते ही रहे। यह काम लोक कवि कभी नहीं भूले। पहले पैसा कौड़ी ले कर खुद पहुंचते थे फिर किसी न किसी से भिजवाने लगे। कहते कि ‘अरे, वह भी अपना ही परिवार है।’ यहां तक कि सखी के बेटों की शादी बियाह में भी वह गए और धूमधाम से गए। खर्च बर्च किया। अब जैसे लोक कवि नाती पोते वाले हो चले थे वइसे ही सखी भी नाती पोतों वाली हो चली थीं। बल्कि लोक कवि वाले परिवार से पहले ही सखी वाला परिवार इस सुख से परिचित हो गया था।
अब वही सखी, मोहन की सखी , राधा मोहना की मीठी याद बोती हुई सी लोक कवि को परीछ रही थीं। पूरे मन, जतन और जान से। लोक कवि बुदबुदा रहे थे, ‘सखी !’ और सखी कह रही थीं, ‘बड़ा उजियार कइले बाड़ऽ आपन और अपने गांव क नाम ए मोहन बाबू !’ लेकिन लोक कवि अभिभूत थे। सखी के परीछन से। ढेरों औरतों के संसर्ग से गुजर चुके लोक कवि को तमाम औरतों को भूल भुला जाने की आदत है पर कुछ औरतें हैं ऐसी लोक कवि की जिंदगी में जिन्हें वह नहीं भूलते। भुलाना भी नहीं चाहते। सखी, पत्नी और मिसिराइन ऐसी ही औरतों में तीन औरतें हैं। जिनमें से पहले नंबर पर हैं यह सखी। धाना सखी। राधा मोहना के नाम से कभी क्या अब भी जानी जाने वाली सखी। लोक कवि को कभी क्या अब भी जिंदगी देने वाली सखी। वह सखी जिनके बिरह में लोक कवि का पहला ओरिजनल गाना फूटा, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना !’
वह सखी जिसने लोक कवि की जवानी की पहली भूख-प्यास मिटाई। जो लोक लाज की परवाह छोड़ उनकी जिंदगी की न सिर्फ पहली औरत बनी, उनके पहले बेटे की मां बनी, भले ही वह उस बेटे को अपना नाम सामाजिक मर्यादा के नाते नहीं दे पाए, पर समाज तो जानता है। गुप-चुप ही सही। वह सखी जिसने कभी उनसे कोई मांग नहीं की, कभी डिमांड नहीं की, किसी तकलीफ की कोई गिरह, कोई परत खोल कर नहीं बताई, खुद पीती गई सारी तकलीफ, मुश्किल और अपमान। उसने ऊंची जाति का होते हुए भी, उसकी अपेक्षा समृद्ध होती हुई भी इस गरीब से आंख लड़ाई, वह सखी, उस प्यार में नहाई सखी को, जो इस उमर में भी अफनाई चली आई है, बिना यह सोचे कि बेटा, बहू, नाती, पोता या यह गांव, यह समाज कोई पुरानी गांठ खोल कर उस पर तोहमत भी लगा सकते हैं! लोक कवि ने अभी-अभी खुद देखा है कि उन क प्रिय भौजाई जो सबसे पहिले उन्हें परीछने आईं, सखी को देखते ही कैसा तो मुंह बनाया और आंखें टेढ़ी कीं। बाकी औरतों ने भी सखी को उसी रहस्य से देखा तो सखी सकुचाईं और लोक कवि सुलग गए। गनीमत की किसी ने साफ तौर पर कुछ नहीं कहा और बात आई गई हो गई। फिर भी सखी परीछ रही हैं लोक कवि को, पूरे लाज से और लोक की मर्यादा को निभाते हुए। और लोक कवि भी आंखों में उसी मर्यादा का भाव लिए देख रहे हैं सखी को अपलक। सखी ने एक बार और परीछा था मोहना रूपी इसी लोक कवि को तब जब मोहना बियाह करने जा रहा था, तब जब सखी का बियाह हो चुका था। लोक कवि अपलक देख रहे हैं सखी को निःशब्द ! और लोक कवि द्वारा सखी को इस देखने को देख रहे हैं चेयरमैन साहब, स्तब्ध !
‘परीछत रहबू कि केहू औरो के परीछे देबू ?’ कह रही हैं भौजी मारे तंज में सखी से। और सखी हैं कि गाती-गाती लोढ़ा एक राउंड और घुमा देती हैं लोक कवि के चेहरे पर ‘मोहन बाबू के परीछबों !’ और चलते-चलते उन के गाल पर दही रोली मल देती हैं।
‘ई गांव क बेटी हईं कि दुलहिन हो ?’ लोक कवि की एक भौजाई टाइप बूढ़ी औरत यह सब देख कर खुसफुसाती हैं।
‘न दुलहिन, न बेटी। इन हईं राधा।’ एक दूसरी भौजाई जोड़ती हैं, ‘मोहना क राधा।’
‘चुप्पो रहबू !’ एक दूसरी भौजाई कहीं रंग में भंग न पड़ जाए इस गरज से सबको डपटती हैं। लेकिन खुसफुसा कर।
यह सारी बातें और परीछन का दृश्य देख चेयरमैन साहब थोड़ा भावुक होते हैं। फिर भी लोक कवि से ठिठोली फोड़ना नहीं भूलते। पूछते हैं, ‘का रे ई 440 वोल्ट वाली रहलि का ?’ पर जरा धीरे से।
‘हां, हां !’ मुसकुराते हुए धीरे से कहते हुए लोक कवि हाथ जोड़ते हैं चेयरमैन साहब से और आंखों-आंखों में इशारा भी करते हैं कि ‘बस चुप भी रहिए!’
‘ठीक है, ठीक है ! तें मजा ले !’ कह कर चेयरमैन साहब भी लोक कवि से हाथ जोड़ लेते हैं।
थोड़ी देर में औरतों का कार्यक्रम ख़त्म हो गया। सचमुच में ख़त्म तो तभी हो गया था जब सखी ने परीछना बंद कर दिया था तभी। पर अब बाकायदा ख़त्म हो गया था। औरतों के बाद अब मर्दों का लोक कवि से मिलना जुलना शुरू हो गया था। लोक कवि की खुशी का ठिकाना तब और नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि सखी के पति पहलवान भी आए हैं।
‘आइए पहलवान जी !’ कह कर लोक कवि ने उन्हें गले लगा लिया।
‘असल में औरतों का कार्यक्रम चल रहा था तो हम लोग थोड़ा दूर ही खड़े रहे।’ पहलवान जी ने सफाई दी।
‘यह पहलवान जी हैं, चेयरमैन साहब !’ कह कर लोक कवि ने उनका परिचय कराया और आंख मारी कि मजा लीजिए लेकिन साथ ही इशारा भी किया कि, ‘कोई अप्रिय टिप्पणी कर गुड़ गोबर भी न करिए।’
मिलना-जुलना जब ख़त्म हुआ और धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी तो लोक कवि ने अपने दोनों भाइयों को बुलवाया। लेकिन एक को तो चेयरमैन साहब दस हजार दे कर लड्डू लाने के लिए भेज चुके थे। तो सिर्फ एक ही आया, ‘हां भइया !’ कहते हुए।
वह उसे एक किनारे ले जाते हुए बोले, ‘देखो हमको पांच लाख रुपया आज मिला है !’
‘इनाम में ?’ लोक कवि की बात काटता हुआ छोटा भाई बोल पड़ा।
‘नहीं सम्मान में।’ लोक कवि ने बात शुरू की तो वह फिर बोला पड़ा, ‘अच्छा-अच्छा !’ तो लोक कवि उसको डपटते हुए बोले, ‘पिकिर-पिकिर जिन करो पहले पूरी बात सुनो।’
‘भइया !’ कह कर वह फिर बोल पड़ा।
‘कहीं खेत तजबीज करो। ख़रीदने के लिए।’ लोक कवि बोले, ‘‘झगड़ा झंझट वाला नहीं हो। एक साथ पूरा चक हो।’
‘ठीक भइया !’
‘रजिस्ट्री कराऊंगा तीनों भाइयों के नाम से !’ लोक कवि गदगद हो कर बोले।
‘ठीक भइया !’ भाई भी उसी गदगद भाव से छलका।
सांझ होने वाली थी लेकिन लड्डू आ गया था और गांव में बंटने लगा था।  चेयरमैन साहब दहाड़ रहे थे, ‘कोई भी बचने न पाए। छोटा-बड़ा सब को बांटो। बच जाए तो बगल के गांव में भी बांट दो।’
पूरा गांव लड्डू खा रहा था। लोक कवि की चर्चा में डूबा हुआ। हां, कुछेक लोग या घर ऐसे भी थे जिन्होंने यह लड्डू नहीं लिया। वह लोग लोक कवि पर भुनभुनाते रहे, ‘भर साला लड्डू बंटवा रहा है।’ एक पंडित जी तो खुले आम बड़बड़ा रहे थे, ‘बताइए एह गांव में दू ठो क्रांतिकारी भी हुए हैं। कोई उनका नाम लेने वाला नहीं है ! बकिर हई नचनिया पदनिया की आरती उतारी जा रही है। पांच लाख रुपया मुख्यमंत्री दे रहा है। सम्मान कर के।’ वह बोल रहे थे, ‘उहो साला अहिर और इहो साला भर! जनता की गाढ़ी कमाई साले भाड़ में डाल रहे हैं और कोई पूछने वाला नहीं है।’ किसी ने टोका भी कि ‘चुप भी रहिए!’ तो वह और भड़के, ‘काहें चुप रहें? एह नचनिया पदनिया के डर से!’
‘त तनी धीरे बोलिए!’
‘काहें धीरे बोलें जी। एह नचनिया पदनिया का हम लड्डू खाए हैं का ? कि सारे का कर्जा खाए हैं।’ कह कर वह और जोर से बोलने लगे। बात पंडित जी की लोक कवि तक खुसुर-फुसुर में पहुंचाई गई। तो लोक कवि ने चेयरमैन साहब को यह बताया। चेयरमैन साहब चिंतित हुए बोले, ‘वो पंडित भी ठीक बोल रहा है। लेकिन गलत समय पर बोल रहा है।’ फिर चेयरमैन साहब ने लोक कवि को तुरंत आगाह भी किया कि ‘कह दो कोई रिएक्शन नहीं। पंडित के जवाब में कोई नहीं बोलेगा!’
‘काहें साहब ! हम लोग केहू से कम हैं का!’ लोक कवि का भाई बिदकता हुआ बोला।
‘कम नहीं ज्यादा हो इसीलिए चुप रहो, सबको चुप रखो !’ चेयरमैन साहब लोक कवि से मुखातिब हो कर बोले, ‘तुम तो जानते हो देश में मंडल-कमंडल चल रहा है। अगड़ा-पिछड़ा चल रहा है तो कहीं बात बढ़ कर बिगड़ गई तो तुम्हारा सारा सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा! तो संघर्ष को रोको।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘पंडित गरियाता भी है तो चुपचाप पी जाओ!’
बात लोक कवि की समझ में पूरी तरह आ गई। और उन्होंने सबको सख़्त हिदायत दी कि, ‘कोई जवाब न दे।’ बल्कि बात आगे न बढ़े इस गरज से खुद पंडित जी के घर जा कर ‘पालागी’ कह कर उन का पांव छुआ। पंडित जी पिघल गए। लोक कवि को लगे आशीषने, ‘और नाम कमाओ, खूब यश कमाओ, गांव जवार का नाम बढ़ाओ!’ पर उन्होंने लगे हाथ अपनी बात भी कह दी, ‘सुना है मुख्यमंत्री के तुम बहुत मुहलगे हो?’
‘आशीर्वाद है आपका पंडित जी।’ कहते हुए लोक कवि विनम्र हुए और फिर उनका पांव छुआ।
‘तो उससे कह कर गांव का भी कुछ भला कराओ।’ पंडित जी बोले, ‘दू ठो क्रांतिकारी यहां हुए हैं। धुरंधर क्रांतिकारी। उनका स्मारक, मूर्ति बनवाओ।’ वह बोले, ‘कि नचनिए पदनिए ही उसकी सरकार में सम्मान पाएंगे?’
पंडित जी की यह बात सुन कर लोक कवि जरा विचलित हुए। कुछ बोलते-बोलते कि चेयरमैन साहब ने लोक कवि का कंधा दबा कर कुछ न कहने का संकेत दिया। लोक कवि चुप ही रहे। बोले नहीं। लेकिन पंडित जी बोल रहे थे, ‘गांव में प्राइमरी स्कूल है। पेड़ के नीचे मड़ई में चलता है। उसका भवन बनवा दो। प्राइमरी स्कूल को मिडिल बनवा दो।’ वह बोले, ‘सड़क ठीक करा दो। सरकारी मोटर चलवा दो। और भी जो कर सकते हो करवा दो। गांव में लड़के बेकार घूम रहे हैं उनको नौकरी, रोजगार दिलवा दो!’
‘ठीक बा पंडित जी आशीर्वाद दीजिए।’ लोक कवि ने पंडित जी के फिर पैर छुए। कहा कि, ‘कोशिश करूंगा कि आप का आदेश का पालन हो जाए!’
‘तुम नचनिया पदनिया का बात मानेगा मुख्यमंत्री?’ पंडित जी फिर नहीं माने और घुमा फिरा कर अपनी पुरानी बात पर आ गए। लेकिन लोक कवि भीतर से सुलगते हुए बाहर से मुसकुराते हुए चुप खड़े थे। फिर पंडित जी जैसे अपनी शंका का खुद ही समाधान करते हुए बोले, ‘का पता मुख्यमंत्री साला भी अहिर है नचनिया पदनिया के सलाह से ही सरकार चलाता हो। पढ़े लिखे लोग, पंडित लोग उसे कहां मिलेंगे?’ बोलते-बोलते पंडित जी फिर पूछने लगे लोक कवि से कि, ‘सुना है तुम्हारा मुख्यमंत्री पंडितों से बड़ा चिढ़ता है, बड़ा बेइज्जत करता है?’ वह जरा रुके और पूछने लगे, ‘सही है ?’ कोई कुछ नहीं बोला तो वह बोले, ‘तुम भी तो वोही जमात के हो। तुम भी वही करते होगे?’ फिर वह हंसने लगे, ‘हमारी बात का बुरा न मानना। बकिर समाजै अइसेही हो गया है, राजनीतियै अइसी हो गई है। कोई करेगा भी तो का करेगा!’ वह बोले, ‘हमारी बात पर रिसियाना नहीं, पीठ पीछे गरियाना नहीं। पर गांव के लिए कुछ करवा पाओ तो करवाना जरूर।’ वह फिर बोले, ‘का पता नचनिया पदनिया से ही एह गांव का उद्धार लिखा हो।’ कह कर उन्होंने फिर से लोक कवि पर ढेर सारा आशीष, आशीर्वाद, कामना आदि की बौछार कर दी। बिलकुल खुले मन से। लेकिन बीच-बीच में ‘नचनिया पदनियां’ का संपुट दे-दे कर !
‘ब्राह्मण देवता की जय!’ कह कर लोक कवि ने फिर पंडित जी के पैर छू लिए।
पंडित जी के यहां से निकल कर लोक कवि चेयरमैन साहब के साथ गांव में दो चार और बड़े लोगों के घर गए। कुछ और पंडित जी लोगों के यहां। फिर बाबू साहब लोगों के यहां। बाकी पंडित जी लोगों में कुछ ने खुले मन से, कुछ ने आधे मन से और कुछ ने बुझे मन से सही लोक कवि का स्वागत किया, आशीर्वाद दिया। लेकिन ज्यादातर बाबू साहब लोगों के यहां लोक कवि की नोटिस नहीं ली गई। उनके घरों में नौकरों या बच्चों से ही मिल कर लोक कवि ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। हां, एक बाबू साहब ने आधे मन से ही सही लोक कवि को सम्मानित होने पर बधाई दी। और कहा कि, ‘अब तो तुम्हारा बड़ा नाम हो गया है।’ वह बोले, ‘सुना है लखनऊ में बड़ा पइसा पीट रहे हो!’
‘सब आप का आशीर्वाद है।’ कह कर लोक कवि बबुआना टोला से भी निकल आए। कुछ पहलवानों-अहीरों के घर भी गए जहां उनका मिला जुला और भाव-विभोर स्वागत हुआ। कुछ अपने बचपन के पुराने संगी साथियों को भी लोक कवि ने खोज हेर कर भेंट की। उन के एक हमउमर ने फिर चिकोटी ली, ‘सुना है गुरु कि रधवा फेर गांव आई है आज?’
‘कवन रधवा ?’ लोक कवि ने टाला तो वह लोक कवि का हाथ दबाते हुए बोला, ‘भुला गइलऽ राजा धाना के।’
लोक कवि कुछ बोले नहीं मुसकुरा कर टाल गए।
लोक कवि वापस फिर अपने टोला में आ गए। अपने समाज में जहां उनका स्वागत लोग हृदय खोल कर पहले भी कर चुके थे। फिर कर रहे थे।
‘पालागी-पालागी।’ करते हुए हाथ जोड़े लोक कवि सब के दरवाजे गए। ताकि कोई यह कहने वाला न रह जाए, ‘हमरे घरे नाईं अइलऽ !’
सांझ उतर कर जा रही थी और रात अपने आने की राह बना रही थी। चेयरमैन साहब ने लोक कवि से साफ-साफ पूछा कि, ‘रुकोगे यहां कि चलोगे लखनऊ?’
‘लखनऊ  चलूंगा, का करुंगा यहां रुक कर?’ लोक कवि बोले, ‘जो कहीं मेरे रहने से यहां मंडल-कमंडल खड़खड़ा गए तो बड़ी बेइज्जती हो जाएगी।’
भाइयों ने और बाकी परिजनों ने भी लोक कवि को रात गांव में रुकने को कहा। अहिर टोला से ख़ास संदेश आया कि सभी लठैत और बंदूकधारी पहरा देंगे। कोई डकैत या चोर लोक कवि का पांच लाख रुपया नहीं छू पाएगा। वह बेधड़क आज रात गांव में रहें।
‘सवाल पइसा चोरी या डकैती हो जाने का नहीं है।’ लोक कवि ने भाइयों, परिजनों को बताया कि, ‘ऊ तो चोर डकैत वैसे भी नहीं छू पाएगा क्योंकि वह चेक में है, नगद नहीं है। बकिर जाना जरूरी है। काहें से कि लखनऊ में जरूरी काम है।’ वह बताए, ‘वहां भी लोग अगोर रहे होंगे।’
कुछ लोगों ने गांव में जानना चाहा कि ‘चेक में’ का क्या मतलब है ? क्या कोई नई तिजोरी चली है ? लोगों को लोक कवि ने हंसते हुए बताया कि, ‘नाहीं कागज है।’ और उसे दिखाया भी।
तो गांव में एक चर्चा यह चली कि मुख्यमंत्री ने सरकार की ओर से लोक कवि को पुरनोट लिख कर दिया है। एक बुजुर्ग ने सुना तो वह बोले, ‘त अइसै! अरे, बड़ा रसूख वाला हो गइल बा मोहना!’
चलते समय लोक कवि एक बार धाना के घर फिर गए। धाना और धाना के पति से मिलने। फिर निकल पड़े वह गांव से डीह बाबा को हाथ जोड़ते, गांव के लोगों और सीवान को प्रणाम करते।
शहर पहुंच कर चेयरमैन साहब ने शराब ख़रीदी, कुछ साथ खाने के लिए लिया और पानी की बोतलें भी ख़रीद कर लोक कवि को ले कर वह खाते पीते लखनऊ  की ओर चल दिए। लाल बत्ती वाली कार में। लोक कवि की कार, चेयरमैन साहब की एंबेसडर, और बाकी दोनों कारें संगी साथियों को बिठाए पीछे-पीछे थीं।
रास्ते में जब दो पेग लोक कवि पी चुके तो बोले, ‘चेयरमैन साहब ई बताइए कि हम कलाकार हूं कि नहीं?’
‘त का भिखारी हो !’ चेयरमैन साहब लोक कवि के सवाल का मर्म जाने बिना बिदक कर बोले।
‘त कलाकार हूं न !’ लोक कवि फिर बेचारगी में बोले।
‘बिलकुल हो।’ चेयरमैन साहब ठसके के साथ बोले, ‘एहू में कवनो शक है का ?’
‘तब्बै न पूछ रहा हूं।’ लोक कवि असहाय हो कर बोले।
‘तुमको चढ़ गई है सो जाओ।’ चेयरमैन साहब लोक कवि के सिर पर थपकी देते हुए बोले।
‘चढ़ी नहीं है चेयरमैन साहब !’ लोक कवि थोड़ा ऊंचे स्वर में बोले, ‘त इ बताइए कि हम कलाकार हैं कि नचनिया पदनिया !’
‘धीरे बोल साले। हम कोई बहरा हूं का जो चिल्ला रहा है।’ वह बोले, ‘पंडितवा का डंक तुमको अब लग रहा है ?’ वह लोक कवि की ओर मुंह करके बोले, ‘किसी अंडित पंडित के कहने से तुम नचनिचा पदनिया तो नहीं हो जाओगे। कलाकार हो, कलाकार रहोगे। ऊ पंडितवा साला का जाने कला और कलाकार!’ वह तुनके, ‘हम जानता हूं कला और कलाकार। मैं कहता हूं तुम कलाकार हो। और मैं क्या कला के सभी जानकार तुम्हें कलाकार मानते हैं। भगवान ने, प्रकृति ने तुम्हें कला दी है।’
‘वो तो ठीक है।’ लोक कवि बोले, ‘पर मेरे गांव ने आज मुझे मेरी औकात बता दी है। बता दिया है कि नचनिया पदनिया हूं।’
‘राष्ट्रपति के साथ अमरीका, सूरीनाम, फिजी, थाइलैंड जाने कहां-कहां गए हो। गए हो कि नहीं ?’ चेयरमैन साहब ने तल्ख़ हो कर पूछा।
‘गया हूं।’ लोक कवि संक्षिप्त सा बोले।
‘त का गांड़ मराने गए थे कि गाना गाने गए थे ?’
‘गाना गाने।’
‘ठीक।’ वह बोले, ‘कैसेट तुम्हारे बाजार में हैं कि नहीं ?’
‘हैं।’
‘तुम्हारे सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रम होते हैं कि नहीं ?’
‘होते हैं।’
‘मुख्यमंत्री ने आज तुमको सम्मानित किया कि नहीं ?’
‘किया चेयरमैन साहब !’ लोक कवि आजिज हो कर बोले।
‘तो फिर काहें मेरी तभी से मार रहे हो ? सारा नशा, सारा मजा ख़राब कर रहे हो तभी से।’ चेयरमैन साहब थोड़ा प्यार से लोक कवि को डपटते हुए बोले।
‘एह नाते कि हम नचनिया पदनिया हूं।’
‘देखो लोक कवि मारनी है तो उस पंडित की जा कर मारो जिसने तुम्हें यह नचनिया पदनिया का डंक मारा है। मुझे बख्शो !’ चेयरमैन साहब ने बात जारी रखी, ‘अच्छा चलो उस पंडित ने तुम को नचनिया पदनिया जो कह ही दिया तो उसकी माला लिए क्यों फेर रहे हो?’ वह कार की खिड़की से सिगरेट झाड़ते हुए बोले, ‘फिर नचनिया पदनिया कोई गाली तो है नहीं। और फिर तुम्हीं बताओ क्या नचनिया पदनिया आदमी नहीं होता का? और यह भी बताओ कि नचनिया भी कलाकार के खाते में आता है कि नहीं ?’ चेयरमैन साहब बिना रुके बोले जा रहे थे, ‘फिर जो तुम आर्केस्ट्रा चलाते-चलवाते हो वह क्या है ? तो तुम भी नचनिया पदनिया हुए कि नहीं?’
‘ऊंची जाति के लोग ऐसा क्यों सोचते हैं ?’ लोक कवि हताश हो कर बोले।
‘हे साला तुम कहना का चाहता है ?’ वह बोले, ‘क्या मैं ऊंची जाति का नहीं हूं। राय हूं और फिर भी तुम्हारी गांड़ के पीछे-पीछे घूम रहा हूं तो मुझे भी कोई नचनिया पदनिया कह सकता है। और जो कह भी देगा तो हम क्यों बुरा मानूंगा?’ वह बोले, ‘हम तो हंस के मान लूंगा कि चलो हम भी नचनिया पदनिया हैं।’ वह बोले, ‘इसको गांठ में बांधो तो बांधो दिल में मत बांधो।’
‘चलिए आप कहते हैं तो ऐसा ही करता हूं।’
‘फिर देखो, लखनऊ में या और भी बाहर कहीं तो तुम को जाति से तौल कर नहीं देखा जाता ?’ वह बोले, ‘नहीं देखा जाता न ? तो वहां तो बाभन, ठाकुर, लाला, बनिया, नेता, अफसर, हिंदू, मुसलमान सभी तुम को एक कलाकार के तौर पर ही तो देखते हैं। तुम्हारी जाति से तो नहीं आंकते तुम्हें। बहुतेरे तो तुम्हारी जाति जानते भी नहीं।’
‘एही से, एही से।’ लोक कवि फिर उदास होते हुए बोले।
‘एकदमै पलिहर हो का !’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मैं छेद बंद करने में लगा हूं और तुम रह-रह बढ़ाते जा रहे हो।’ वह बोले, ‘कुछ और हमसे भी कहलाना चाहते हो का !’
‘कहि देईं चेयरमैन साहब। आप भी कहि देईं!’
‘तो सुन ! हई मुख्यमंत्री और उसका समाज जो तुम को यादव-यादव लिखता है पोस्टर, बैनर पर और एनाउंस करता है यादव-यादव तो हई का है ?’ वह बोले, ‘इस पर तुम्हारी गांड़ नहीं पसीजती ? काहें भाई ? तुम सचहूं यादव हो का !’
‘ई बात का चर्चा मत कीजिए चेयरमैन साहब।’ हाथ जोड़ते हुए लोक कवि बोले।
‘तो तुम इस का प्रतिवाद काहें नहीं करते हो एको बार ?’ वह बोले, ‘इस बात का बुरा नहीं लगता तुमको और नचनिया पदनिया सुन लेने पर बुरा लग जाता है। डंक मार जाता है। इतना कि पूरा रास्ता ख़राब कर दिया, सारा दारू उतार दिया और अपने इतने बड़े सम्मान की खुशी को खुश्क कर दिया ! और तो और 440 वोल्ट वाली सखी से बरसों बाद मिलने की खुशी भी राख कर ली!’ सखी की बात सुन कर लोक कवि थोड़ा मुसकुराए और उनका अवसाद थोड़ा फीका पड़ा। चेयरमैन साहब बोले, ‘भूल जाओ इ सब और लखनऊ पहुंच कर खुशी दिखाओ, खुश दिखो और कल इस को जम कर सेलीब्रेट करो और करवाओ। कवनो छम्मक छल्लो बुला के भोगो!’ कहते हुए चेयरमैन साहब आंख मारते हुए मुसकुराए और दूसरी सिगरेट जलाने लगे।
लखनऊ पहुंच कर लोक कवि ने सांस ली। चेयरमैन साहब के घर उतरे। जा कर उन की पत्नी को प्रणाम किया। चेयरमैन साहब से कल मिलने की बात की और उनके भी पैर छू लिए। तो चेयरमैन साहब गदगद हो कर लोक कवि को गले लगा लिए। बोले, ‘जीते रहो और इसी तरह ‘यश’ कमाते रहो।’ उन्होंने जोड़ा, ‘लगे रहो इसी तरह तो एक दिन तुम को पद्मश्री, पद्मभूषण में से भी कुछ न कुछ मिल जाएगा।’ यह सुन कर लोक कवि के चेहरे पर जैसे चमक आ गई। लपक कर चेयरमैन साहब के फिर पैर छुए। घर से बाहर निकल कर अपनी कार में बैठ गए। चल दिए अपने संगी साथियों के साथ अपने घर की ओर।
रात के ग्यारह बज गए थे।
उधर लोक कवि घर चले। इधर चेयरमैन साहब ने लोक कवि के घर फोन किया, तो लोक कवि के बड़े लड़के ने फोन उठाया। चेयरमैन साहब ने उसे बताया कि, ‘लोक कवि घर पहुंच रहा है, हमारे यहां से चल चुका है।’
‘एतना देरी कैसे हो गया ?’ बेटे ने चिता जताते हुए पूछा, ‘हम लोग शाम से ही इंतजार कर रहे हैं।’
‘चिंता की कोई बात नहीं है। सम्मान समारोह के बाद हम लोग तुम्हारे गांव चले गए थे। वहां लोक कवि का बड़ा स्वागत हुआ है। औरतें लोढ़ा ले-ले कर परीछ रही थीं। बिना किसी तैयारी के बड़ा स्वागत हो गया। पूरे गांव ने किया।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘फोन इसलिए किया हूं कि यहां तुम लोग भी थोड़ा उसका टीका मटीका करवा देना। आरती वारती उतरवा देना।’
‘जी, चेयरमैन साहब।’ लोक कवि का बेटा बोला, ‘हम लोग पूरी तैयारी से पहले से हैं। बैंड बाजा तक मंगाए बैठे हैं। ऊ आएं तो पहिले !’
‘बक अप्!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘त रुको मैं भी आता हू।’ उन्होंने पूछा, ‘कोई और तो नहीं आया था?’
‘कुछ अधिकारी लोग आए थे। कुछ प्रेस वाले भी आ कर चले गए।’ उसने बताया पर मुहल्ले के लोग हैं। कई कलाकार लोग हैं। बैंड बाजा वाले हैं। घर वाले हैं।’
‘ठीक है तुम बाजा बजवाना शुरू कर दो। मैं भी पहुंच रहा हूं।’ वह बोले, ‘स्वागत में कसर नहीं रहनी चाहिए!’
‘ठीक चेयरमैन साहब।’ कह कर बेटे ने फोन रखा। बाहर आया। बैंड वालों से कहा , ‘बजाना शुरू कर दो, बाबू जी आ रहे हैं।’
बैंड बाजा बजने लगा।
फिर दौड़ कर घर में मां को चेयरमैन साहब का निर्देश बताया। और यह भी कि गांव में भी बड़ा धूम-धड़ाका हुआ है सो कोई कसर नहीं रहे। लोक कवि जब अपने घर के पास पहुंचे तो थोड़ा चौंके कि बिना बारात के ई बाजा गाजा! पर बैंड वाले, ‘बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है,’ की धुन बजा रहे थे और मुहल्ले के चार, छ लाखैरा लौंडे नाच रहे थे।
ठीक अपने घर के सामने वह उतरे तो समझ गए कि माजरा क्या है !
उनकी धर्मपत्नी अपनी दोनों बहुओं और मुहल्ले की कुछ औरतों के साथ सजी-धजी आरती लिए खड़ी थीं लोक कवि के स्वागत के लिए। लोक कवि के पहुंचते ही उन्होंने चौखट पर नारियल फोड़ा, ‘बड़ी आत्मीयता से लोक कवि के पैर छुए और उन की आरती उतारने लगीं। मुहल्ले के लोग भी छिटपुट बटुर आए।
गांव जैसा भावुक और ‘भव्य’ स्वागत तो नहीं हुआ यहां, पर आत्मीयता जरूर झलकी।
लोक कवि के संगी साथी कलाकार नाचने गाने लगे। घर में पहले ही से रखी मिठाई बांटी जाने लगी। तब तक चेयरमैन साहब भी आ गए। लोक कवि के एक पड़ोसी भागते हुए आए। हांफते हुए बधाई दी और बोले, ‘बहुत अच्छा रहा आप का सम्मान समारोह।’ उन्होंने जोड़ा ‘हमारे पूरे घर ने देखा। मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ आप को।’
‘का आप लोग भी आए थे वहां ?’ लोक कवि चकित होते हुए बोले, ‘लेकिन कैसे ?’
‘हम लोग ने टी.वी. पर देखा न्यूज में।’ पड़ोसी दांत निकाल कर बोले, ‘वहां नहीं आए थे।’
‘रेडियो न्यूज में भी था।’ एक दूसरे पड़ोसी ने बड़े सर्द ढंग से बताया, ‘आप का समाचार।’
रात ज्यादा हो गई थी सो लोग जल्दी ही अपने-अपने घरों को जाने लगे।
बैंड बाजा भी बंद हो गया।
खा-पी कर नाती नातिनों को दुलराते हुए लोक कवि भी सोने चले गए। धीरे से उनकी पत्नी भी उनके बिस्तर पर आ कर बगल में लेट गईं। लोक कवि ने अंधेरे में पूछा भी कि, ‘के है ?’ तो वह धीरे से खुसफुसाईं ‘केहू नाईं, हम हईं।’ सुन कर लोक कवि ख़ामोश हो गए।
बरसों बाद वह लोक कवि के बगल में आज इस तरह लेट रही थीं। लोक कवि ने गांव की बातें शुरू कर दीं तो पत्नी उठ कर ‘हां-हूं करती हुई उनके पैर दबाने लगीं। पैर दबवाते-दबवाते जाने क्या लोक कवि को सूझा कि पत्नी को पकड़ कर अपने पास खींच कर लिटा बैठे। बहुत बरस बाद आज वह पत्नी के साथ संभोगरत थे। चुपके-चुपके। ऐसे जैसे सुहागरात वाली रात हो। गुरुआइन को उन्होंने संभोग सुख दे कर न सिर्फ संतुष्ट किया बल्कि परम संतुष्ट किया। सारा सुख, सारा तनाव, सारा सम्मान उन्होंने गुरुआइन पर उतार दिया था। और गुरुआइन ने अपना सारा दुलार, मान-प्यार, भूख और प्यास आत्मीयता में सान कर उड़ेल दिया था। संभोग के बाद थोड़ी देर लोक कवि की बाहों में पड़ी कसमसाती हुई वह संकोच घोलती हुई बोलीं, ‘टी.वी. पर आज हमहूं आप के देखलीं।’ उन्होंने जैसे जोड़ा, ‘बड़का बेटऊआ देखवलस !’
सुबह गुरुआइन उठीं तो उनकी चाल में गमक आ गई थी। उनकी दोनों बहुओं ने जब उन्हें देखा, उनकी बदली हुई चाल को देखा तो दोनों ने आपस में आंख मार कर ही एक दूसरे को संदेश ‘दे’ और ‘ले’ लिया। एक बहू मजा लेती हुई बुदबुदाई भी, ‘लागता जे पांच लाख रुपयवा इन्हीं पवलीं हईं।’
‘मनो और का!’ दूसरी बहू ने खुसफुसा कर हामी भरी। बोली, ‘कानि केतना बरिस बाद जोरन पड़ल है!’
सुबह और भी कई लोग लोक कवि के घर बधाई देने आए।
हिंदी अख़बारों में भी पहले पेज पर लोक कवि की मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ सम्मान लेते हुए फोटो छपी थी। दो अख़बारों में तो रंगीन फोटो। साथ ही रिपोर्ट भी हां, अंगरेजी अख़बारों में जरूर फोटो अंदर के पेजों पर थी और बिना रिपोर्ट के।
लोक कवि का फोन भी दन-दन बज रहा था।
लोक कवि नहा धो कर निकले। मिठाई ख़रीदी और पत्रकार बाबू साहब के घर पहुंचे। उनको मिठाई दी, पैर छुए और बोले, ‘सब आप ही के आशीर्वाद से हुआ है।’ बाबू साहब भी घर पर थे, पत्नी सामने थीं सो कुछ अप्रिय नहीं बोले। बस मुसकुराते रहे।
लेकिन रास्ते पर नहीं आए, जैसा कि लोक कवि चाहते थे।
लोक कवि तो चाहते थे कि इस सम्मान के बहाने एक प्रेस कांफ्रेंस कर पब्लिसिटी बटोरना। चाहते थे स्पेशल इंटरव्यू छपवाना। सब पर पानी पड़ गया था। चलते-चलते वह बोले भी बाबू साहब से, ‘त शाम को आइए न !’
‘समय कहां है ?’ कह कर बाबू साहब टाल गए लोक कवि को। क्योंकि निशा तिवारी को वह अपने मन से अभी टाल नहीं पाए थे।
लोक कवि चुपचाप चले आए।
बाद में आखि़रकार चेयरमैन साहब ने ही दोनों के बीच पैच अप कराया। बाबू साहब ने प्रेस कांफ्रेंस के सवाल को रद्द कर दिया। कहा कि, ‘बासी पड़ गया है इवेंट।’ लेकिन लोक कवि का एक ठीक ठाक इंटरव्यू जरूर किया।
रियलिस्टिक इंटरव्यू।
ढेरों प्रिय और अप्रिय सवाल पूछे। और विस्तार से पूछे। कुछ सवाल इसमें सचमुच बड़े मौलिक थे और जवाब उन के सवाल से भी ज्यादा मौलिक।
लोक कवि जानते थे कि बाबू साहब उनका नुकसान कुछ करेंगे नहीं सो बेधड़क हो कर जवाब दे देते। फिर पैर छू कर कह भी देते कि, ‘लेकिन इस को छापिएगा नहीं।’
जैसे बाबू साहब ने लोक कवि से पूछा, ‘कि जब इतना बढ़िया आप लिखते हैं और मौलिक ढंग से लिखते हैं तो कवि सम्मेलनों में भी क्यों नहीं जाते हैं? तब जब कि आप लोक कवि कहलाते हैं।’
‘ई का होता है ?’ लोक कवि ने खुल कर पूछा, ‘ई कवि सम्मेलन का होता है ?’
‘जहां कवि लोग जनता के बीच अपनी कविता सुनाते, गाते हैं।’ बाबू साहब ने बताया।
‘अच्छा-अच्छा समझ गया।’ लोक कवि बोले, ‘समझ गया ऊ टी.वी., रेडियो पर भी आता है।’
‘तो फिर क्यों नहीं जाते आप वहां ?’ बाबू साहब का सवाल जारी था, ‘वहां, ज्यादा सम्मान, ज्यादा स्वीकृति मिलती। ख़ास कर आपकी राजनीतिक कविताओं को।’
‘एक तो एह नाते कि हम कविता नहीं, गाना लिखता हूं। एह मारे नहीं जाता हूं।’ लोक कवि बोले, ‘दूसरे हमको कभी वहां बुलाया नहीं गया।’ उन्होंने जोड़ा, ‘वहां विद्वान लोग जाते हैं, पढ़े लिखे लोग जाते हैं। हम विद्वान नहीं हूं, पढ़ा लिखा नहीं हूं। एह नाते भी जाने की नहीं सोचता हूं !’
‘लेकिन आपके लिखे में ताकत है। बात बोलती है आपके लिखे में।’
‘हमारे लिखने में नहीं, हमारे गाने में ताकत है।’ लोक कवि बड़ी स्पष्टता से बोले, ‘हम कविता नहीं लिखता हूं, गाना बनाता हूं।’
‘तो भी अगर कवि सम्मेलनों में आप को बुलाया जाए तो आप जाएंगे ?’
‘नहीं, कब्बो नहीं जाऊंगा।’ लोक कवि हाथ हिला कर मना करते हुए बोले।
‘क्यों ?’ पत्रकार ने पूछा, ‘आखि़र क्यों नहीं जाएंगे ?’
‘वहां पैसा बहुत थोड़ा मिलता है।’ कह कर लोक कवि ने सवाल टालने की कोशिश की।
‘मान लीजिए आपके कार्यक्रमों से ज्यादा पैसा मिले तो ?’
‘तो भी नहीं जाऊंगा।’
‘क्यों ?’
‘एक तो कार्यक्रम से बेसी पइसा नहीं मिलेगा। दूसरे, हम गाना वाला हूं, कविता वाला विद्वान नाहीं।’
‘चलिए आप को विद्वान भी मान लिया जाए, ज्यादा पैसा भी दे दिया जाए तो ?’
‘तब भी नहीं।’
‘इतना भाग क्यों रहे हैं लोक कवि, कवि सम्मेलनों से आप ?’
‘इसलिए कि हमने देखा है कि वहां अकेले गाना पड़ता है। तो हमको भी अकेले गाना पड़ेगा। संगी साथी होंगे नहीं, बाजा गाजा होगा नहीं। बिना संगी साथी, बाजे गाजे के गा नहीं पाऊंगा। और जो गा दूंगा अकेले बिना बाजा-गाजा, संगी साथी के तो फ्लाप हो जाऊंगा। मार्केट डाऊन हो जाएगा।’ लोक कवि ने बात और साफ की कि, ‘हम कविता नहीं, गाना गाता हूं, धुन में सान कर जैसे आटा साना जाता है, पानी डाल कर। वइसे ही धुन मैं सानता हूं गाना डाल कर।’ वह बोले, ‘बिना इसके हम फ्लाप हो जाऊंगा !’
‘गजब! क्या जवाब दिया है लोक कवि आप ने।’ पत्रकार लोक कवि से हाथ मिलाते हुए बोला।
‘लेकिन इसको छापिएगा नहीं।’ लोक कवि बाबू साहब के पांव छूते हुए बोले।
‘क्यों इसमें क्या बुराई है ? इसमें तो कोई विवाद भी नहीं है ?’
‘ठीक है। बकिर विद्वान लोग नाहक नाराज हो जाएंगे।’
‘क्योंकि यही काम वह लोग भी कर रहे हैं जो कि आप कर रहे हैं इसलिए? इसलिए कि वह लोग यही काम कर विद्वानों की पांत में बैठ जा रहे हैं, और वही काम करके आप गायकों की पांत में बैठ जा रहे हैं इसलिए?’ बाबू साहब बोले, ‘लोक कवि आपकी यह टिप्पणी इन कवियों को एक करारा तमाचा है। तमाचा भी नहीं बल्कि जूता है!’
‘अरे नहीं। ई सब नाहीं।’ लोक कवि हाथ जोड़ कर बोले, ‘ई सब छापिएगा नहीं।’
‘अच्छा जो ये ढपोरशंखी विद्वान आपकी इस टिप्पणी से नाराज हो जाएंगे तो क्या बिगाड़ लेंगे ?’
‘ई हमको नहीं मालूम। पर विद्वान हैं, बुद्धिजीवी हैं, समाज के इज्जतदार हैं, उनकी बेइज्जती नहीं होना चाहिए उन का इज्जत करना हमारा धर्म है।’
‘चलिए छोड़िए।’ कह कर पत्रकार ने बात आगे बढ़ा दी। लेकिन बात चलते-चलते फिर कहीं न कहीं फंस जाती और लोक कवि हाथ जोड़ते हुए कहते, ‘बकिर ई मत छापिएगा।’
इस तरह चलते-फंसते बात एक जगह फिर दिलचस्प हो गई।
सवाल था कि, ‘जब इतने स्थापित और मशहूर गायक हैं आप तो अपने साथ डुवेट गाने के लिए इतनी लचर गायिका क्यों रखते हैं? कोई सधी हुई गायकी में निपुण गायिका के साथ जोड़ी क्यों नहीं बनाते हैं अपनी आप?’
‘अच्छा !’ लोक कवि तरेरते हुए बोले, ‘अपने से अच्छी गायिका के साथ डुएट गाऊंगा तो हमको कौन सुनेगा भला? फिर तो उस गायिका की मार्केट बन जाएगी, हम तो फ्लाप हो जाऊंगा। हमको फिर कौन पूछेगा?’
‘चलिए अच्छी गाने वाली गायिका न सही पर थोड़ा बहुत ठीक ठाक गाने वाली सही पर खूब सुंदर कोई लड़की तो अपने साथ डुवेट गाने के लिए आप रख ही सकते हैं?’
‘फेर वही बात !’ लोक कवि मुसकुराते हुए तिड़के, ‘देख रहे हैं जमाना एतना ख़राब हो गया है। टीम में लड़कियां न रखूं तो कोई हमारा पोरोगराम न देखे, न सुने और फिर सोने पर सुहागा ई करूं कि अपने साथ डुएट गाने वाली ख़ूब सुंदर लड़की रखूं!’ वह बोले, ‘हम तो फिर फ्लाप हो जाऊंगा। हम बुढ़वा को सुनेगा कौन, सब लोग तो उस सुंदरी को ही देखने में लग जाएंगे। ज्यादा हुआ तो गोली बंदूक चलाने लग जाएंगे !’ वह बोले, ‘तो चाहे देखने में बहुत सुंदर, चाहे गाने में बहुत जोग्य हमारे साथ चल नहीं पाएगी, हमको तो दोनों ही मामलों में अपने से उन्नीस ही रखना है।’
कहने को तो साफ साफ कह गए लोक कवि लेकिन फिर पत्रकार के पैर पड़ गए। कहने लगे, ‘इसे भी मत छापिएगा।’
‘अब इसमें क्या हो जाएगा ?’
‘क्या हो जाएगा ?’ लोक कवि बोले, ‘अरे, बड़ा बवाल हो जाएगा। लड़कियां सब नाराज हो जाएंगी।’ वह बोले, ‘अभी तो सभी को हूर की परी बताता हूं। बताता हूं कि हमसे भी सुंदर गाती हो। पर सब जब असलियत जान जाएंगी तो सिर फोड़ देंगी हमारा। टूट जाएगी हमारी टीम। कौन लड़की आएगी हमारी टीम में भला?’ लोक कवि पत्रकार से बोले, ‘समझा कीजिए। बिजनेस है ई हमारा ! टूट गया तो?’
तो इस तरह कुछ क्या तमाम अप्रिय लेकिन दिलचस्प सवालों के जवाबों को काट पीट कर लोक कवि का इंटरव्यू छपा मय फोटो के।
इससे लोक कवि का ग्रेस बढ़ गया और मार्केट भी।
अब लोक कवि के कार पर उनके सम्मान के नाम की प्लेट जो उन्होंने पीतल की बनवाई थी, लग गई थी। बिलकुल मंत्री, विधायक, सांसद, कमिश्नर, डी.एम. या एस.पी. की प्लेट की तरह!
लोक कवि के कार्यक्रम भी इधर बढ़ गए थे। इतने कि वह संभाल नहीं पा रहे थे। कलाकारों में से एक हुसियार लवंडे को उन्होंने लगभग मैनेजर सा बना दिया। सब इंतजाम, सट्टा-पट्टा, आना जाना, रहना-खाना, कलाकारों की बुकिंग, उनको पेमेंट आदि लगभग सभी काम उन्होंने उस मैनेजर कम कलाकार को सौंप दिए।
किस्मत संवर गई थी लोक कवि की। इसी बीच उनको बिहार सरकार ने भी दो लाख रुपए के सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा कर दी। बिहार में भी एक यादव मुख्यमंत्री का राज था। यादव फैक्टर वहां भी लोक कवि के काम आया। साथ ही बिहार में भी उनके कार्यक्रमों की मांग बढ़ गई।
चेयरमैन साहब अब लोक कवि को चिढ़ाते भी कि, ‘साले अब तुम अपना नाम एक बार फिर बदल लो। मोहन से लोक कवि हुए थे और अब लोक कवि से ‘यादव कवि’ बन जाओ!’
जवाब में लोक कवि कुछ कहते नहीं बस भेद भरी मुसकान फेंक कर रह जाते। एक दिन पत्रकार से चेयरमैन साहब कहने लगे कि, ‘मान लो लोक कविया की किस्मत जो अइसेही चटकती रही तो एक न एक दिन हो सकता है इसको ले कर रिसर्च भी होने लगे। यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. होने लगे इसके बारे में।’
‘हो सकता है चेयरमैन साहब बिलकुल हो सकता है।’ चेयरमैन साहब के मजाक के वजन को और बढ़ाते हुए बाबू साहब बोले।
‘तो एक विषय तो इस लोक कवि की पी.एच.डी. पर सबसे ज्यादा पापुलर रहेगा।’
‘कौन सा विषय?’
‘यही कि लोक कवि के जीवन में यादवों का योगदान!’ चेयरमैन साहब थोड़ी तफसील में आते हुए बोले, ‘इसकी सबसे पहली 440 वोल्ट वाली प्रेमिका यादव, इसने सबसे पहला गाना बनाया यादव प्रेमिका पर, इसने सब से पहले संभोग किया यादव लड़की से, इसका जो पहला लड़का पैदा हुआ यादव औरत से।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘पुरस्कार तो इसने बहुत पाए लेकिन सबसे बड़ा और राजकीय पुरस्कार पाया तो यादव मुख्यमंत्री के हाथों, फिर दूसरा पुरस्कार भी यादव मुख्य मंत्री के हाथों।’ वह बोले, ‘एतना ही नहीं आजकल कार्यक्रम भी जो खूब काट रहा है वह भी यादव समाज में ही।’ चेयरमैन साहब सिगरेट की लंबी कश लेते हुए बोले, ‘निष्कर्ष यह कि यादवों की मारते हुए भी यादवों का राजा बेटा बना हुआ है!’
‘यह तो है चेयरमैन साहब।’ बाबू साहब मजा लेते हुए बोले।
पर लोक कवि हाथ जोड़े आंख मूंदे यों बैठे हुए थे गोया प्राणायाम कर रहे हों!
जो भी हो इन दिनों लोक कवि की चांदी थी। बल्कि यों कहें कि दिन उनके सोने के थे और रातें चांदी की। जैसे-जैसे उम्र उनकी बढ़ती जा रही थी लड़कियों का व्यसन भी उनका बढ़ता जा रहा था। पहले कोई लड़की उनकी पटरानी की स्थिति में महीनों क्या साल दो साल रहती थी पर अब दो महीना, चार महीना, ज्यादा से ज्यादा छ महीना में बदल जाती। कोई टोकता भी तो वह कहते, ‘मैं तो कसाई हूं कसाई।’ वह जोड़ते, ‘व्यवसाय करता हूं, व्यवसायी हूं। जो जितना बिकती है, उसे बेचता हूं। कसाई मांस नहीं काटेगा, बेचेगा तो खाएगा क्या?’
जाने क्यों दिन-ब-दिन वह कलाकारों के प्रति निर्दयी भी होते जा रहे थे। पहले उनके छांटे, निकाले हुए कलाकारों में से लोग मिल जुल कर साल दो साल में एक दो टीम अलग-अलग बना कर गुजारा करते। लोक कवि भी उन्हें अपनी टीम से भले अलग करते लेकिन अपने गानों को गाने से मना नहीं करते। तो यह नई टीम अलग भले ही रहती, लेकिन रहती लोक कवि की बी टीम बन कर ही। लोक कवि के ही गानों को गाती बजाती। लोक कवि का मान सम्मान करती हुई।
पर अब ?
और आखि़र तब तक लोक कवि परेशान रहे, बेहद परेशान ! जब तक कि कमलेश मर नहीं गया। कमलेश बंबई में मरा तो विद्युत शवदाह गृह में फूंका गया। इसी तरह  बैंकाक में गोपाल तिवारी भी फूंका गया। लेकिन गांव में तो विद्युत शवदाह गृह नहीं था। तो जब कोइरी, बरई के परिवार वाले मरे तो लकड़ी से उन्हें फूंका जाना था।
घर परिवार में जल्दी कोई तैयार नहीं था उन्हें अग्नि देने को। भय था कि जो फूंकेगा, उसे भी एड्स हो जाएगा। फूंकना तो दूर की बात थी, कोई लाश उठाने या छूने को तैयार नहीं था। बात अंततः प्रशासन तक पहुंची तो जिश्ला प्रशासन ने इन सब को बारी-बारी फूंकने का इंतजाम करवाया। अभी यह सब निपटा ही था कि बैंकाक से लोक कवि के गांव के दो और नौजवान एड्स ले कर लौटे।
यह सब सुन कर लोक कवि से रहा नहीं गया। उन्होंने माथा पीट लिया। चेयरमैन साहब से बोले, ‘ई सब रोका नहीं जा सकता ?’
‘का ?’ चेयरमैन साहब सिगरेट पीते हुए अचकचा गए।
‘कि बैंकाक से आना जाना ही बंद हो जाए हमारे गांव के लोगों का !’
‘तुम अपने गांव के राजदूत हो का ?’ चेयरमैन साहब बोले, ‘कि तुम्हारा गांव कौनो देश है ? भारत से अलग !’
‘त का करें भला ?’
‘चुप मार के बैठ जाओ !’ वह बोले, ‘अइसे जइसे कहीं कुछ हुआ ही न हो!’
‘आप समझते नहीं हैं चेयरमैन साहब !’
‘का नहीं समझते हैं रे ?’ सिगरेट की राख झाड़ते हुए लोक कवि को डपट कर बोले चेयरमैन साहब।
‘बात तनिको जो इधर से उधर हुई तो समझिए कि मार्केट तो गई हमारी !’
‘का तुम हर बात में मार्केट पेले रहते हो !’चेयरमैन साहब बिदकते हुए बोले, ‘ई सबसे मार्केट नहीं जाती। क्योंकि पूरे गांव का ठेका तो तुम लिए नहीं हो। और फिर पंडितों को भी एड्स हो गया। ई बीमारी है, इसमें कोई का कर सकता है ? केहू को दोष देने से तो कुछ होता नहीं !’
‘आप नहीं समझेंगे!’ लोक कवि बोले, ‘आप का समझेंगे? आप तो राजनीति भी कब्बो मेन धारा वाला नहीं किए। तो राजनीतियै का दर्द आप नहीं जानते तो मार्केट का दर्द का जानेंगे आप?’
‘सब जानता हूं!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘अब तुम हम को राजनीति सिखाएगा?’ वह किंचित मुसकुरा कर बोले, ‘अरे चनरमा के बारे में जानने के लिए चनरमा  पर जा कर रहना जरूरी है का। या फेर तुम्हारा गाना जानने के लिए, गाना सुनने के लिए गाना गाने भी आए जरूरी है का?’
‘ई हम कब बोले !’
‘त ई का बोले तुम कि राजनीति का मेन धारा !’ वह बोले, ‘अब हमारी पार्टी का सरकार नहीं है तब भी हम चेयरमैन हूं कि नाहीं ?’ उन्होंने खुद ही जवाब भी दिया, ‘हूं न? तो ई राजनीति नहीं तो का है बे?’
‘ई तो है!’ कह कर लोक कवि ने हाथ जोड़ लिया।
‘अब सुनो !’ चेयरमैन साहब बोले, ‘जब-तब मार्केट-मार्केट पेले रहते हो तो जानो कि तुम्हारा मार्केट कैसे ख़राब हो रहा है ?’
‘कैसे ?’ लोक कवि हकबकाए।
‘ई जो यादव राज में यादव मुख्यमंत्री के साथ तुम नत्थी हो गए!’ वह बोले, ‘ठीक है तुमको बड़का सरकारी इनाम मिल गया, पांच लाख रुपया मिल गया,  तुम्हारे नाम पर सड़क हो गया! यहां तक तो ठीक है। पर तुम एक जाति, एक पार्टी विशेष के गायक बन कर रह गए हो।’ वह उदास होते हुए बोले, ‘अरे, तुम्हारे  लोक गायक को मारने के लिए ई आर्केस्ट्रा कम पड़ रहा था कि तुम वहां भी नत्थी हो कर मरने के लिए चले गए पतंगा के मानिंद!’
‘हां, ई नोकसान तो हो गया।’ लोक कवि बोले, ‘मुख्यमंत्री जी की सरकार जाने का बाद तो हमारा पोरोगराम कम हो गया है। सरकारी पोरोगरामों में भी अब हम को उनका आदमी बता कर हमारा नाम उड़ा देते हैं !’
‘तब ?’
‘त अब का करें ?’
‘कुछ मत करो ! सब समय और भगवान के हवाले छोड़ दो !’
‘अब यही करना ही पड़ेगा !’ लोक कवि उन के पांव छूते हुए बोले।
‘अच्छा ये बताओ कि तुम्हारे भाई के जिस बेटे को एड्स हुआ था उस के बाल बच्चे हैं ?’
‘अरे नाहीं, उस का तो अभी बियाह नहीं हुआ था।’ वह हाथ जोड़ते हुए बोले, ‘अब की साल तय हुआ था। पर ससुरा बिना बियाह के मर गया ! भगवान ने ई बड़ा भारी उपकार किया।’
‘और ऊ बरई के बच्चे हैं ?’
‘हां, एक ठो बेटा है। घर वाले देख रहे हैं।’ लोक कवि बोले, ‘और ऊ  कोइरी के भी दो बच्चे हैं घर वाले देख रहे हैं।’
‘इन बच्चों को तो एड्स नहीं न है ?’
‘नहीं।’ लोक कवि बोले, ‘इन सबों के मर मरा जाने के बाद शहर के डाक्टर आए थे। इन बच्चों का ख़ून ले जा कर जांचे थे। सब सही निकले। किसी को एड्स नहीं है।’
‘और ऊ पंडितवा के बच्चों को ?’
‘उन को भी नहीं।’
‘पंडितवा के कितने बच्चे हैं ?’
‘एक ठो बेटी, एक ठो बेटा।’
‘पंडितवा का बाप तो जेल में है और पंडितवा अपनी बीवी समेत मर गया तो उस के बच्चों की देखभाल कौन कर रहा है ?’
‘बूढ़ा !’
‘कौन बूढ़ा ?’
‘पंडित जी तो बेचारे बुढ़ौती में निरपराध जेल काट रहे हैं, उन की बूढ़ा पंडिताइन बेचारी बच्चों को जिया रही हैं।’
‘ऊ  न्यौता खा कर पेट जियाने वाले पंडित के घर का खर्चा-बर्चा कैसे चल रहा है ?’
‘राम जाने !’ लोक कवि सांस लेते हुए बोले, ‘कुछ समय तो बैंकाक की कमाई चली ! अब सुनता हूं गांव में कब्बो काल चंदा लग जाता है। कोई अनाज, कोई  कपड़ा, कोई कुछ पैसा दे देता है !’ वह बोले, ‘भीख समझिए! कोई दान तो देता नहीं है। दूसरे, लड़की भी अब बियाहने लायक हो रही है ! राम जाने कइसे शादी होगी उस की।’ लोक कवि बोले, ‘जाने उस का बियाह हो पाएगा कि बाप की राह चल कर रंडी हो जाएगी !’ लोक कवि रुके और बोले, ‘बताइए बेचारे पंडित जी एतना धरम करम वाले थे, एक न्यौता खाना छोड़ के कोई ऐब नहीं था। बकिर जाने कौन जनम का पाप काट रहे हैं। एह जनम में तो कौनो पाप ऊ किए नाहीं। लेकिन लड़का एह गति मरा कलंक लगा कर और अपने बेकसूर हो कर भी बेचारे जेल काट रहे हैं !’
‘तुम पाप-पुण्य में विश्वास करते हो ?’
‘बिलकुल करता हूं !’
‘तो एक पुण्य कर डालो !’
‘का ?’
‘उस ब्राह्मण की बेटी के बियाह का खर्चा उठा लो !’
‘का ?’
‘हां, तुम्हारे कोई बेटी है भी नहीं।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘बेसी पैसा मत खर्च करो। पचीस-पचास हजार जो तुम्हारी श्रद्धा में रुचे जा के बुढ़िया पंडिताइन को दे दो यह कह कर कि बिटिया का बियाह कर दीजिए!’ वह बोले, ‘मैं भी कुछ दस-पांच हजार कर दूंगा। हालांकि पचास साठ हजार में लड़की की शादी तो नहीं होती आज कल लेकिन उत्तम मद्धिम कुछ तो हो ही जाएगी।’ वह बोले, ‘नहीं, अभी तुम्हीं कह रहे थे कि बियाह नहीं हुआ तो बाप की राह चल कर रंडी हो जाएगी !’
चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम यह सोच लो कि उसे रंडी की राह नहीं जाने देना है। तुम कुछ करो, कुछ मैं भी करता हूं, दो चार और लोगों से भी कहता हूं बाकी उसका नसीब!’
‘बाकी गांव में एह तर समाज सेवा करुंगा तो बिला जाऊंगा।’ लोक कवि संकोच घोलते हुए बोले, ‘हर घर में कोई न कोई समस्या है। तो हम किसका-किसका मदद करुंगा ? जिसका करुंगा, ऊ खुस हो जाएगा, जिसको मना करूंगा ऊ दुसमन हो जाएगा !’ वह बोले, एह तर तो सगरो गांव हमारा दुसमन हो जाएगा !’
‘इस पुण्य काम के लिए तुम पूरी दुनिया को दुश्मन बना लो।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘और फिर कोई जरूरी है कि तुम यह मदद डंका बजा कर करो। चुपचाप कर दो। गुप-चुप ! कोई जाने ही ना !’ वह बोले, ‘दुनिया भर की रंडियों पर पैसा उड़ाते हो तो एक लड़की को रंडी बनने से बचाने के लिए कुछ पैसा खर्च कर के देखो।’
चेयरमैन साहब लोक कवि की नस पकड़ते हुए बोले, ‘क्या पता इस लड़की के आशीर्वाद से, इस के पुण्य से ही, तुम्हारी लड़खड़ाती मार्केट संभल जाए!’ वह बोले, ‘कर के देखो ! इस में सुख भी मिलेगा और मजा भी आएगा।’ फिर वह तंज करते हुए भी बोले, ‘न हो तो ‘मिसिराइन’ से भी मशविरा ले लो। देखना वह भी इसके लिए मना नहीं करेंगी।’
लोक कवि ने मिसिराइन से मशविरा तो नहीं किया पर लगातार इस बारे में सोचते रहे और एक दिन अचानक चेयरमैन साहब को फोन मिला कर बोले, ‘चेयरमैन साहब हम पचास हजार रुपया खर्चा काट-काट के जोड़ लिया हूं !’
‘किस लिए बे ?’
‘अरे, उस ब्राह्मण की बेटी को रंडी बनने से बचाने के लिए!’ लोक कवि बोले, ‘भूल गए का आप ? अरे, उस की शादी के लिए! आप ही तो बोले थे!’
‘अरे, हां भाई मैं तो भूल ही गया था !’ वह बोले, ‘चलो तुम पचास दे रहे तो पंद्रह हजार मैं भी दे दूंगा। दो एक और लोगों से भी दस बीस हजार दिलवा दूंगा!’ वह बोले, ‘कुछ और मैं करता लेकिन हाथ इधर जरा तंग है, पत्नी की बीमारी में खर्चा ज्यादा हो गया है। फिर भी तुम जिस दिन कहोगे, पैसा दे दूंगा। इतना पैसा तो अभी हमारे पास है। किसी लौंडे का भेज कर मंगवा लो !’
‘ठीक बा चेयरमैन साहब !’ कह कर लोक कवि ने पंद्रह हजार रुपए उन के यहां से मंगवा लिए। दो जगह से पांच-पांच हजार और एक जगह से दस हजार रुपए चेयरमैन साहब ने दिलवा दिए। इस तरह पैंतीस हजार रुपए यह और पचास हजार रुपए अपने मिला कर यानी कुल पचासी हजार रुपए ले जा कर लोक कवि ने पंडिताइन को दिए। यह कर कर कि, ‘पंडित जी के बड़े उपकार हैं हम पर। नतिनी के बियाह ख़ातिर ले लीजिए! ख़ूब धूमधाम से शादी कीजिए!’
पर पंडिताइन अड़ गईं। पैसा लेने से इंकार कर दिया। बताया कि पंडित जी ने तुम पर का उपकार किया हम नहीं जानते। पर ई तुम्हारा एहसान भी हम नहीं लेंगे। वह सिर पर पल्लू खींचती हुई बोलीं, ‘गांव का कही भला ? केकर-केकर ताना सुनब !’ वह बोलीं, ‘बेटवा के कलंक क ताना अबहिन ले नइखै ख़त्म भइल। त अब नतिनी ख़ातिर ताना हम नाई सुनब।’ वह बोलीं, ‘ताना सुनले के पहिलवैं कुआं में कूद के मरि जाब !’ कह कर वह रोने लगीं। बोली, ‘पंडित जी बेचारे जेल भले भुगत रहल बाटैं बकिर उन के केहु कतली नइखै कहत। सब कहला जे उन्हें गलत फंसावल गइल बा ! त उन का इज्जत से हमरो इज्जत रहे ले। बकिर बेटा बट्टा लगा गइल त करम फूट गईल !’ कह कर पंडिताइन फिर रोने लगीं।....बोलीं, ‘एतना रुपया हम राखब कहां ? हम नाई लेब !’
‘आखि़र समस्या का है ?’
‘समस्या ई है कि सुनेलीं तू लड़किन क कारोबार करेला और हमार नतिनी ई कारोबार नाहीं करी। ऊ नाईं नाची कूदी तोहरे कारोबार में !’
सुन कर लोक कवि तो एक बार सकते में आ गए। पर बोले, ‘आप के नतिनी के हम कहीं ले नहीं जाऊंगा।’ लोक कवि पंडिताइन की मुश्किल समझते हुए बोले, ‘शादी भी आप अपनी मर्जी से जहां चाहिएगा, जइसे चाहिएगा तय कर के कर लीजिएगा। पर ई पैसा रख लेईं आप। कामे आई !’ कह कर लोक कवि ने पंडिताइन के पैरों पर अपना सिर रख दिया, ‘बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाहीं !ऽ
पर पंडिताइन अड़ी रहीं तो अड़ी रहीं। पैसा लेना तो दूर, छुआ भी नहीं।
लोक कवि दुखी मन से वापस आ गए।
चेयरमैन साहब के घर जा कर उन को उनका पैसा वापस करने लगे। तो चेयरमैन साहब भड़के, ‘ई का हो गया है रे तुम को !’
‘कुछ नाहीं।’ लोक कवि उदास हो कर बोले, ‘दरअसल हमारा गांव हम को समझ नहीं पाया !’
‘हुआ का ?’
‘तब की सम्मान के बाद गया था तो लोग नचनिया पदनिया कहने लगे थे!’
‘अब की का हुआ ?’ चेयरमैन साहब लोक कवि की बात बीच में ही काटते हुए बोले।
‘अब की लड़कियों का दलाल बन गया !’ कह कर लोक कवि रोए तो नहीं पर क्षुब्ध हो गए।
‘कौन बोला तुम्हें लड़कियों का दलाल ? उस का ख़ून पी जाऊंगा !’ चेयरमैन साहब उत्तेजित होते हुए बोले।
‘नहीं कोई एकदमै से दलाल शब्द नहीं बोला !’
‘तो ?’
‘पर ई कहा कि मैं लड़कियों का कारोबार करता हूं।’ लोक कवि निढाल होते हुए बोले, ‘सीधे-सीधे इस का मतलब दलाल ही तो हुआ ?’
‘कौन बोला कि तुम लड़कियों का कारोबार करते हो ?’ चेयरमैन साहब की उत्तेजना जारी थी।
‘और कौन !’ लोक कवि बोले, ‘वही पंडिताइन बोलीं। और ई पैसा लेने से इंकार कर दिया।’’
‘क्यों ?’
‘पंडिताइन बोलीं कि सुना है तुम लड़कियों का कारोबार करते हो और हमारी नतिनी ई कारोबार नहीं करेगी !’ लोक कवि खीझते हुए बोले, ‘बताइए हम लोग सोचे थे कि उस को गरीबी के फेर में रंडी बनने से बचाया जाए और पंडिताइन ने उलटे हम पर ही आरोप लगा दिया कि हम उन की नतिनी को रंडी बना देंगे !’ वह बोले, ‘तो भी हम बुरा नहीं माने। ई सोच के कि पुण्य के काम में बाधा आती है। तो इस को बाधा मान कर टाल गए। फिर हम यह भी बताए कि उन की नतिनी को हम कहीं ले नहीं जाएंगे और कि बियाह भी ऊ अपनी मर्जी से जहां चाहें करें। हम से कोई मतलब नहीं। उन के पैरों पर सिर रख कर कहा भी कि बस ब्राह्मण देवता क आशीर्वाद चाही !’
‘निरे बऊड़म हो तुम !’ चेयरमैन साहब बोले, ‘देवी को देवता कहोगे और आशीर्वाद मांगोगे तो कौन देगा?’
‘एहमें का गलत हो गया ?’ लोक कवि दरअसल चेयरमैन साहब की देवी देवता वाली बात समझे नहीं।
‘चलो कुछ भी गलत नहीं किया तुम ने !’ वह बोले, ‘गलती हम से हो गई जो एह काम ख़ातिर तुम को अकेले भेज दिया।’
‘तो का अब आप चलेंगे ?’
‘हां हम भी चलेंगे और तुम भी चलोगे।’ वह बोले, ‘लेकिन दस बीस दिन रुक कर।’
‘हम तो नहीं जाएंगे चेयरमैन साहब !’ लोक कवि बोले, ‘जब गांव जाता हूं बेइज्जत हो जाता हूं।’
‘देखो, नेक काम के लिए बेइज्जत होने में कोई बुराई नहीं है। एक नेक काम को हाथ में लिया है तो उसे पूरा कर के छोड़ो।’ वह बोले, ‘फिर तुम हर बात में इज्जत बेइज्जत मत ढूंढ़ा करो ! उस बार नचनिया पदनिया पर दुखी हो गए तुम। सम्मान का सारा मजा ख़राब कर दिया।’ वह जरा रुके और बोले, ‘ई बताओ कि तुम अमिताभ बच्चन को कलाकार मानते हो!’
‘हां, बहुत बड़े कलाकार हैं वह !’
‘तुम से भी बड़े हैं ?’ चेयरमैन साहब मजा लेते हुए बोले।
‘अरे हम कहां चेयरमैन साहब, और कहां ऊ ! काहें मजाक उड़ाते हैं।’
‘चलो किसी को तो तुमने अपने से बड़ा कलाकार माना !’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तो यही अमिताभ बच्चन जब 1984 में इलाहाबाद से चुनाव लड़ा बहुगुणा के खि़लाफ तो क्या अख़बार, क्या नेता सभी यही कहते रहे कि नचनिया पदनिया है चुनाव का जीतेगा। हां, थोड़ा नाच कूद लेगा। लेकिन उस ने बहुगुणा जैसे दिग्गज को जब धूल चटा दिया, चुनाव हरा दिया तो लोगों के मुंह बंद हो गए।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तो जब इतने बड़े कलाकार को यह जमाना नचनिया पदनिया कह सकता है तो तुम्हें क्यों नहीं कह सकता ?’ वह बोले, ‘फिर वह इलाहाबाद जहां अमिताभ बच्चन का घर है वह अपने को इलाहाबादी मानता है और इलाहाबाद वाले उसे नचनिया पदनिया। तो भी वह बुरा नहीं माना। क्योंकि वह बड़ा कलाकार है। सचमुच में बड़ा कलाकार। उसमें बड़प्पन है।’ वह बोले, ‘तुम भी अपने में बड़प्पन लाओ और तनिक और विनम्रता सीखो !’
‘बाकि पंडिताइन....!’
‘कुछ नहीं पंडिताइन ने तुम को कुछ नहीं कहा। वह तो अपनी नतिनी की हिफाजत भर कर रही हैं। उस में कुछ भी बुरा मानने की बात नहीं है।’ वह बोले, ‘दस बारह रोज बाद मैं चलूंगा तुम्हारे साथ तब बात करना। अभी घर जाओ आराम करो, रिहर्सल करो और ई सब भूल जाओ !’
और सचमुच लोक कवि चेयरमैन साहब के साथ कुछ दिन बाद इस नेक अभियान पर एक बार फिर निकले। चेयरमैन साहब ने जरा युक्ति से काम लिया। पहले वह लोक कवि को साथ ले कर जेल गए। वहां पंडित भुल्लन तिवारी से मिले। पंडित जेल में थे जरूर पर माथे पर उन के तेज था। विपन्नता की चुगली उनका रोआं-रोआं कर रहा था पर वह कातिल नहीं हैं, यह भी उनका चेहरा बता रहा था। वह कहने लगे, ‘दो जून भोजन के लिए जरूर मैं इधर-उधर जाता था पर किसी अन्यायी के सामने, किसी स्वार्थ, किसी छल के लिए शीश झुका दूं यह मेरे खून में नहीं है, न ही मेरे संस्कार में।’ वह बोले, ‘रही अन्याय-न्याय की बात तो यह तो ऊपर वाले के हाथ है। मैं खूनी हूं कि नहीं इस का इंसाफ तो अब ऊपर की ही अदालत में होगा। बाकी रही इस जेल के अपमान की बात तो जरूर कहीं मेरे किसी पाप का ही यह फल है।’ साथ ही उन्होंने जोड़ा, ‘और यह भी जरूर मेरे किसी पाप का ही कुफल था कि गोपाल जैसा कुलंकी वंश मेरी कोख से जनमा !’ यह कहते हुए उन की आंखें डबडबा आईं। गला रुंध गया। फिर वह फफक कर रो पड़े।
‘मत रोइए!’ कह कर लोक कवि ने उन्हें सांत्वना दी और हाथ जोड़ कर कहा कि, ‘पंडित जी एक ठो विनती है, मेरी विनती मान लीजिए!’
‘मैं अभागा पंडित क्या तुम्हारी मदद कर सकता हूं ?’
आशीर्वाद दे सकते हैं।’
‘वह तो सदैव सब के साथ है।’ वह रुके और बोले, ‘पर इस अभागे के आशीर्वाद से क्या तुम्हारा बन सकता है ?’
‘बन सकता है पंडित जी !’ लोक कवि बोले, ‘पहले बस अब आप हां कह दीजिए।’
‘हां है, बोलो !’
‘पंडित जी एक ब्राह्मण कन्या का विवाह करवाने का पुण्य पाना चाहता हूं।’ वह बोले, ‘बियाह आप लोग अपने समाज में अपनी मर्जी से तय कीजिए। बाकी खर्चा बर्चा हमारे ऊपर छोड़ दीजिए।’
‘ओह समझा !’ भुल्लन पंडित बोले, ‘तुम मुझ पर उपकार करना चाहते हो!’ यह कहते हुए भुल्लन पंडित तल्ख़ हो गए। बोले, ‘पर किस खुशी में भाई ?’
‘कुछ नहीं पंडित जी यह मूर्ख है !’ चेयरमैन साहब बोले, ‘यह नाच गा कर तो बड़ा नाम गांव कमा चुका है और अब कुछ समाज सेवा करना चाहता है। एक पंथ दो काज। ब्राह्मण का आशीर्वाद और पुण्य दोनों चाहता है।’ वह बोले, ‘मना मत कीजिएगा !’
‘पर यह तो पंडिताइन ही बताएंगी।’ तौल-तौल कर बोलते हुए भुल्लन पंडित बोले, ‘घर गृहस्थी तो अब वही देख रही हैं। मैं तो कैदी हो गया हूं।’
‘लेकिन मीर मालिक तो आप ही हैं पंडित जी !’
‘था।’ वह बोले, ‘अब नहीं। अब कैदी हूं।’
मुलाकात का समय भी ख़त्म हो चुका था। भुल्लन पंडित के पांव छू कर दोनों जेल से बाहर आ गए।
‘घर में भूजी भांग नाईं, दुआरे हरि कीर्तन !’
‘का हुआ रे लोक कवि ?’
‘कुछ नाई। ई पंडितवे एतना अड़ियाते काहें हैं ? मैं आज तक नहीं समझ पाया।’ लोक कवि बोले, ‘रस्सी जल गई, ऐंठन नहीं गई। जेल में नरक भुगत रहे हैं, पंडिताइन भूखों मर रही हैं। खाने के लिए गांव में चंदा लग रहा है पर हमारा पैसा नहीं लेंगे।’ लोक कवि खीझते हुए बोले, ‘‘घीव दै बाभन नरियाय! कहां फंसा दिए चेयरमैन साहब। अब जाने भी दीजिए। ई पैसा कहीं और दान दे देंगे। बहुत गरीबी है। पैसा लेने ख़ातिर लोग मार कर देंगे।’’
‘घबराते काहें हो!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘धीरज रखो जरा!’
फिर चेयरमैन साहब लोक कवि के घर पहुंचे। लोक कवि का घर क्या था पूरी सराय थी। वह भी लबे सड़क। दरअसल लोक कवि से गांव के लोगों के जलने का एक सबब उन का यह पक्का मकान भी था। छोटी जाति के व्यक्ति का ऐसा बड़ा पक्का मकान बड़ी जाति के लोगों को तो खटकता ही था छोटी जाति के लोगों को भी हजम नहीं होता था। चेयरमैन साहब ने भी इस बात पर अबकी दफा गशैर किया। बहरहाल, थोड़ी देर बाद वह लोक कवि को उन के घर पर ही छोड़ कर अकेले उन के गांव में निकले। कुछ जिम्मेदार लोगों से जिन को वह जानते भी नहीं थे, उन से मिले। उन का मन टटोला। फिर अपना मकसद बताया। बताया कि इस के पीछे कुछ और नहीं बस मन में आई मदद की मंशा है। फिर इन लोगों को ले कर लोक कवि के साथ वह भुल्लन तिवारी के घर गए। पंडिताइन से मिले। उन की खुद्दारी को मान दिया। बताया कि जेल में पंडित जी से भी वह लोग मिले थे। अपनी मंशा बताई थी तो पंडित जी ने सब कुछ आप के ऊपर छोड़ दिया है। फिर उन से चिरौरी करते हुए कहा कि, ‘रउरा मान जाईं त समझीं कि हमन के गंगा नहा लेहलीं।’ पंडिताइन कुछ बोलीं नहीं। थोड़ी देर तक सोचती रहीं फिर बिन बोले आंखों ही आंखों में बात गांव के लोगों पर छोड़ दिया। गांव के एक बुजुर्ग बोले, ‘पंडिताइन भौजी एहमें कौनो हरजा नइखै!’
‘जइसन भगवान क मर्जी!’ हाथ ऊपर उठाती हुई पंडिताइन बोलीं, ‘अब ई गांव भर क बेटी है!’
लेकिन पैसा पंडिताइन ने नहीं लिया। बताया कि जब शादी तय हो जाएगी तभी पैसे के बारे में देखा जाएगा। फिर गांव के ही दो लोगों की सुपुर्दगी में वह पचासी हजार रुपए रखवा दिए गए। दो तीन और लोगों ने शादी खोजने का जिम्मा लिया। सब कुछ ठीक-ठाक कर लोक कवि और चेयरमैन साहब वहां से उठे। चलते-चलते लोक कवि ने पंडिताइन के पैर छुए। कहा कि, ‘शादी में हमहूं के बोलावल जाई!’
‘अ काहें नाहीं!’ पंडिताइन पल्लू ठीक करती हुई बोलीं।
‘एतने ले नाहीं। कुछ औरो उत्तम मद्धिम, घटल बढ़ल होई, ऊहो बतावल जाई!’
‘अच्छा, मोहन बाबू!’ पंडिताइन की आंखों में कृतज्ञता थी।
लोक कवि अपने गांव से जब लखनऊ के लिए चले तो उन्हें लग रहा था कि सचमुच बड़े पुण्य का काम हो गया। वह ऐसा कुछ चेयरमैन साहब से बुदबुदा कर बोले भी,
‘सचमुच आज बड़ा खुशी का दिन है!’
‘चलो भगवान की दया से सब कुछ ठीक-ठाक हो गया!’ चेयरमैन साहब बोले। और ड्राइवर से कहा कि, ‘लखनऊ चलो भाई!’
लेकिन इस पूरे प्रसंग पर अगर कोई एक सब से ज्यादा उद्वेलित था, सब से ज्यादा दुखी था तो वह था लोक कवि का छोटा भाई जो कमलेश का पिता था। कमलेश के पिता को लगता था कि कमलेश की मौत का अगर कोई जिम्मेदार था तो वह गोपाल था। और उसी गोपाल की बेटी को ब्याहने को बेमतलब का खर्चा उस का बड़ा भाई मोहन कर रहा था जो अब लोक कवि बन कर इतरा रहा था। कमलेश के पिता को यह सब फूटी आंख नहीं सुहा रहा था। पर वह विवश था और चुप था। और उस का ही बड़ा भाई उस की छाती पर मूंग दल रहा था। नाम गांव कमाने के लिए। पर इधर लोक कवि मगन थे। मगन थे अपनी सफलता पर। कार में चलते हुए ठेका ले-ले कर वह कोई अपना ही गाना भी गुनगुना रहे थे। सांझ घिर आई थी। डूबते हुए सूरज का लाल गोला दूर आसमान में तिर रहा था।
लेकिन वो कहते हैं न कि ‘बड़-बड़ मार कोहबरे बाकी!’
वही हुआ।
सिर्फ पैसे भर से किसी का शादी ब्याह तय हो जाता तो फिर क्या बात होती? लोक कवि और चेयरमैन साहब पैसा दे कर निश्चिंत हो गए। पर बात सचमुच में निश्चिंत होने की थी नहीं। भुल्लन पंडित की नतिनी की शादी इतनी आसानी से होने वाली थी नहीं। बाप गोपाल का कलंक अब बेटी के सिर डोल रहा था। शादी के लिए वर पक्ष से सवाल शुरू होने के पहले ही एड्स का सवाल दौड़ कर खड़ा हो जाता। कहीं भी लोग जाते चाहे गांव के लोग होते या रिश्तेदार उन से पूछा जाता कि, ‘आप बेटी के पिता हैं, भाई हैं, क्या हैं ?’ लोग बताते कि, ‘नहीं गांव के हैं, पट्टीदार हैं, रिश्तेदार हैं।’ तो सवाल उठता कि, ‘भाई, पिता कहां हैं?’ बताया जाता कि पिता का निधन हो गया है और कि....! अभी बात पूरी भी नहीं होती कि वर पक्ष के लोग खुद ही बोल पड़ते, ‘अच्छा-अच्छा ऊ एड्स वाले दोखी कलंकी गोपला की बेटी है!’ वर पक्ष के लोग जोड़ते, ‘ऊ गोपाल जिस का बाप भी कतल के जुर्म में जेल काट रहा है ?’
रिश्तेदार, पट्टीदार जो भी होता निरुत्तर हो जाता। एकाध लोग तर्क भी देते कि इसमें लड़की का क्या दोष ? लेकिन एड्स जैसे भारी शब्द के आगे सारे तर्क पानी हो जाते। और वर पक्ष के लोग कसाई।
फिर गांव में एक विलेज बैरिस्टर थे। नाम था गणेश तिवारी। ऐसी बात जहां न भी पहुंची हो गणेश तिवारी पूरा चोखा चटनी लगा कर पहुंचाने में पूरी प्रवीणता हासिल रखते थे। न सिर्फ बात पहुंचाने की प्रवीणता हासिल रखते थे बल्कि बिना सुई, बिना तलवार, बिना छुरी, बिना धार वह किसी भी का सर कलम कर सकते थे, उस को समूल नष्ट कर सकते थे। और ऐसे कि कटने वाला तड़प भी न सके, मिटने वाला उफ्फ भी न कर सके। वह कहते, ‘वकील लोग वैसे ही थोड़े किसी को फांसी लगवा देते हैं।’ वह वकीलों के गले में बंधे फीते को इंगित करते हुए कहते, ‘अरे, पहले गटई में खुद फंसरी बांधते हैं फिर फांसी लगवाते हैं!’ फिर गणेश तिवारी बियाह काटने में तो इतना पारंगत थे जितना किसी के प्राण लेने में यमराज। वह किसी भी ‘वर’ को मिर्गी, दमा, टी.वी., जुआरी, शराबी वगैरह वगैरह गुणों से विभूषित कर सकते थे। ऐसे ही वह किसी भी कन्या का भले ही उसे मासिक धर्म भी न शुरू हुआ हो तो क्या दो, चार गर्भपात करवा सकते थे। इस निरापद भाव, इस तटस्थता, इस कुशलता और इस निपुणता के साथ कि वह भले ही आप की बेटी या बेटा क्यों न हो, एक बार तो आप भी मान ही लें। इस मामले में उनके दो चार नहीं ढेरों, सैकड़ों किस्से गांव जवार में किंवदंती बन चले थे। इतना कि जैसे कोई शुभ काम शुरू करने के पहले लोग ‘ऊं गणेशाय नमः’ कर के श्री गणेश करते थे ताकि कोई विघ्न बाधा नहीं पड़े ठीक वैसे ही यहां लोग शादी ब्याह का लगन निकालने ख़ातिर पंडित और उनके पंचांग को बाद में देखते, पहले यह देखते कि गणेश तिवारी किस तिथि को गांव में नहीं होंगे !
फिर भी जाने लोगों का दुर्भाग्य होता कि गणेश तिवारी के गांव में आने का दुर्निवार संयोग वह अचानक ऐन मौके पर प्रकट हो जाते। ऐसे कि लोगों के दिल धकधका जाते।
तो गणेश तिवारी का दुर्निवार संयोग भुल्लन तिवारी के बेटे गोपला की बेटी की शादी काटने में भी खादी का जाकेट पहन कर, टोपी लगा कर कूद पड़ा। ख़ास कर तब और उनके नथुने फड़फड़ा उठे जब उन्हें पता चला कि लोक कविया इसमें पैसा कौड़ी खर्च कर रहा है। लोक कविया को वह अपना शिष्य मानते थे। इस लिहाज से कि गणेश तिवारी खुद भी गवैया थे। एक कुशल गवैया। और चूंकि गांव में वह सवर्ण थे सो श्रेष्ठ भी थे और उम्र में भी लोक कवि से वरिष्ठ थे लेकिन चूंकि जाति से ब्राह्मण थे सो शुरू में वह गांव-गांव, गली-गली घूम-घूम कर नहीं गा पाए। चुनावी सभाओं में नहीं जा पाए गाना गाने। जब कि लोक कवि के लिए ऐसी कोई पाबंदी न पहले थे, न अब थी। और अब तो ऐसी पाबंदी गणेश तिवारी ने भी तोड़ दी थी। रामलीलाओं और कीर्तनों में गाते-बजाते अब वह ठाकुरों, ब्राह्मणों की शादियों में महफिल सजाने लगे थे। बाकायदा सट्टा लिखवा कर। पर बहुत बाद में। इतना कि जिले जवार से ज्यादा कोई उन्हें जानता भी नहीं था। तब जब कि इस उमर में भी भगवान ने उन के गले में सुर की मिठास, कशिश और गुण बख़्श रखा था। लोक कवि की तरह गणेश तिवारी के पास कोई आर्केस्ट्रा पार्टी नहीं थी, न ही साजिंदों का भारी भरकम बेड़ा। वह तो बस खुद हारमोनियम बजाते और ठेका लगाने के लिए एक ढोलक बजाने वाला साथ रखते। जो ब्राह्मण ही था। वह ढोलक बजाता और बीच-बीच में गणेश तिवारी को ‘रेस्ट’ देने की गरज से लतीफागोई भी करता। जिनमें ज्यादातर नानवेज लतीफे होते धुर गंवई स्टाइल के। लेकिन ये लतीफे सीधे-सीधे अश्लीलता छूने के बजाय सिर्फ संकेत भर देते सो ‘ब्राह्मण समाज’ में ‘खप-पच’ जाते। जैसे कि एक लतीफा वह अकसर ही सुनाते कि, ‘बलभद्दर तिवारी बड़े ही मजाकिया थे। पर वह अपने छोटे साले से कभी मजाक नहीं करते थे। छोटे साले को यह शिकायत हरदम बनी रहती कि, ‘जीजा हमसे मजाक क्यों नहीं करते?’
लेकिन जीजा अकसर टाल जाते। पर यह उलाहना जब ज्यादा चढ़ गया तो एक बार रात के खाने के समय बलभद्दर तिवारी ने यह उलाहना उतारने की ठानी। उन का दुआर बहुत बड़ा था। और सामने कुआं भी। कुएं के पास ही उन्होंने मिर्च के कुछ पौधे लगा रखे थे। सो खाने के पहले ही उन्होंने साले को बताया कि, ‘एक बड़ी समस्या है इस मिर्च की रखवाली।’
‘क्यों ?’ साले ने जिज्ञासा जताई।
‘क्योंकि एक औरत परकी हुई है। ज्यों मैं रात खाना खाने जाता हूं वह मिर्चा तोड़ने आ जाती है।’
‘यह तो बड़ा गड़बड़ है।’ साला बोला।
‘पर आज मिर्चा बच सकता है और जो तुम साथ दो तो उस औरत को पकड़ा जा सकता है।’
‘कैसे भला?’
‘वो ऐसे कि हम लोग आज बारी-बारी खाएं।’ बलभद्दर तिवारी बोले, ‘पहले तुम खा लेना, फिर मैं खाने जाऊंगा।’
‘ठीक बा जीजा !’
‘पर वह औरत बड़ी सुंदर है। उसके झांसे में मत आ जाना।’
‘अरे, नहीं जीजा !’
फिर तय बात के मुताबिक साले ने पहले खाना खा लिया। फिर बलभद्दर तिवारी खाने खाना गए। खाते-खाते वह पत्नी से बोले कि, ‘जरा टटका हरा मिर्च कुएं पर से तोड़ लाओ।’
पत्नी ने भाई की उपस्थिति के बहाने टाल मटोल की तो बलभद्दर तिवारी बोले, ‘पिछवाड़े के दरवाजे से चली जाओ।’
पत्नी मान गई। चली गई पिछवाड़े के दरवाजे से मिर्चा तोड़ने। इधर उन के भाई भी ‘सुंदर’ औरत को पकड़ने की फिराक में उतावले बैठे थे। मिर्चा तोड़ती औरत को देखते ही वह कूद पड़े और उसे कस कर पकड़ लिया। न सिर्फ पकड़ लिया उसके स्त्री अंगों को जहां तहां दबाने सहलाने भी लगे। दबाते-सहलाते चिल्लाने भी लगे, ‘जीजा-जीजा! पकड़ लिया। पकड़ लिया चोट्टिन को।’
जीजा भी आराम से लालटेन लिए पहुंचे। तब तक साले साहब औरत को भरपूर दबा-वबा चुके थे। पर लालटेन के उजाले में अपनी बहन को पहचान कर उन पर घड़ों पानी पड़ चुका था। बहन जी बड़ी लज्जित हुईं पर यह जरूर समझ गईं कि यह सारी कारस्तानी उन के मजाकिया पतिदेव की ही है। वे तंज करती हुई बोलीं, ‘आप को भी यह सब क्या सूझता है?’ वह बोलीं, ‘भाई-बहन को भी नहीं छोड़ते आप?’
‘कइसे छोड़ते?’ बलभद्दर तिवारी बोले, ‘तुम्हारे इस भाई को बड़ी शिकायत थी कि आप हमसे कोई मजाक क्यों नहीं करते सो सोचा कि सूखा-सूखा क्या करूं, प्रैक्टिकल मजाक कर दूं। सो आज इनकी शिकायत भी दूर कर दी।’ कहते हुए वह साले की तरफ मुसकुराते हुए मुखातिब हुए, ‘दूर हो गया न हो। कि कवनो कसर बाकी रह गया है ? रह गया हो तो उहो पूरा करवा दें।’
‘का जीजा!’ कह कर साला बाबू वहां से खिसक लिए।
यह लतीफा ढोलक मास्टर ठेंठ भोजपुरी में पूरे ड्रामाई अंदाज में ठोंकते और पूरा रस भर-भर के। सो लोग अघा जाते। और इस अघाए में ही सुर्ती ठोंक कर गणेश तिवारी की हारमोनियम बज जाती और वह गाने लगते, ‘रात अंधियारी मैं कैसे आऊं बालम!’ वह सुर में और मिठास घोलते, ‘सास ननद मोरी जनम की दुश्मन कैसे आऊं बालम!’ फिर वह गाते, ‘चदरिया में दगिया कइसे लागल / ना घरे रहलें बारे बलमुआ, ना देवरा रहै जागल / फिर कइसे दगिया लागल चदरिया में दगिया  कइसे लागल!’ यह और ऐसे गाने गा कर वह लोगों को जैसे दीवाना बना देते। क्या पढ़े-लिखे, क्या अनपढ़। वह फिल्मी गानों को दुत्कारते फिर भी बहुत फरमाइश पर कभी कभार फिल्मी भी गा देते पूरा भाष्य दे-दे कर। जैसे कि वह जब पाकीजा फिल्म का गाना ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मोरा’ गाते तो इस गाने में छुपी तकलीफ और उसका तंज भी अपने वाचन में बांचते और कहते कि, ‘पर लोग इस गाने में उस औरत की तकलीफ नहीं देखते, मजा लेते हैं। तब जब कि वह बजजवा, रंगरेजवा और सिपहिया सब को घेरे में लेती है। उसका दुपट्टा, दुपट्टा नहीं उसकी इज्जत है।’ उन के इस वाचन में डूब कर इस गाने को सुनने का रंग ही कुछ और हो जाता। ऐसे ही तमाम निर्गुण भी वह इसी ‘ठाठ’ में सुनाते और रह-रह जुमलेबाजी भी कसते रहते। और अंततः तमाम क्षेपक कथाओं को अपनी गायकी में गूंथते हुए गाते, ‘अंत में निकला ये परिणाम राम से बड़ा राम का नाम।’ कुछ पौराणिक कथाओं को भी वह अपनी गायकी में लाते। जैसे पांडवों के अज्ञातवास का एक प्रसंग उठाते जिसमें अर्जुन और उर्वशी प्रकरण आता। और अंततः उर्वशी जब अर्जुन से एक वर मांगती हुई अर्जुन से एक बेटा मांग बैठी तो अर्जुन मान जाते हैं। और जो युक्ति निकालते हैं उसे गणेश तिवारी ऐसे लयकारी में गाते, ‘तू जो मेरी मां बन जा, मैं ही तेरा लाल बनूं।’ इस गायकी में वह जैसे इस प्रसंग का दृश्य-दर-दृश्य उपस्थित कर देते तो लोग लाजवाब हो जाते। वह अपने ‘प्रोग्राम’ में तमाम भोजपुरी के पांरपरिक लोकगीतों को भी थाती की तरह इस्तेमाल करते।  सोहर, लचारी, सावन, गारी कुछ भी नहीं छोड़ते। और पूरे ‘पन’ से गाते।
बात ही बात में कोई लोक कवि की चर्चा छेड़ देता है तो वह कहते, ‘अरे ऊ तो हमारा चेला है ! बहुत सिखाया पढ़ाया।’ वह जैसे जोड़ते, ‘पहले बहुत बढ़िया गाता था। इतना कि कभी कभार हमको लगता कि हमसे भी बढ़िया न निकल जाए। आगे न निकल जाए, मैं यह सोच कर जलता था उस से। पर ससुरा बिखर गया।’ वह कहते, ‘अब तो लखनऊ में आर्केस्ट्रा खोल कर लौंड़ियों को नचा कर कमा खा रहा है। इन लौड़ियों को नचा कर दो चार गाने खुद भी गा लेता है।’ कहते हुए वह आह भरने लगते, ‘पर ससुरे ने भोजपुरी को बेंच दिया है। नेताओं की चाकरी कर नाम और इनाम कमा रहा है तो लौड़ियों को नचा कर रुपया कमा रहा है। मोटर गाड़ी से चलता है। हवाई जहाज में चढ़ता है। विदेश जाता है। मनो कुल ई कि बड़ा आदमी बन गया है। नसीब वाला है। पर कलाकार अब नहीं रहा, व्यापारी बन गया है। तकलीफ एही बात का है।’ वह कहते, ‘हमारा चेला है सो हमारी भी नाक कटती है।’
लेकिन लोक कवि?
लोक कवि यह तो मानते कि गणेश तिवारी जी उन से बहुत अच्छा गाते हैं और कि बहुत मीठा गला है उन का। पर ‘चेला’ की बात आते ही लोक कवि लगभग बिदक जाते। कहते, ‘ब्राह्मण हैं। पूजनीय हैं पर हम उन का शिष्य नहीं हूं। उन्होंने हमको कुछ सिखाया नहीं है। उलटे गांव में था तो नान जात कहके ‘काटते’ थे। हां, ई जरूर था कि हमको दुई चार गाना जरूर ऊ बताए जवन हम नहीं जानते थे और पीपर के पेड़ के नीचे गाना बजाना में भी हमको गाने का मौका देते थे।’ वह जोड़ते, ‘अब एह तरह ऊ अपने को हमारा गुरु मानते हैं तो हमको भी ऐतराज नाहीं है। बाकी  गांव के बुजुरुग हैं, ब्राह्मण हैं, हम आगे का कहीं।’
पर लोक कवि यह सब कुछ गणेश तिवारी के पीठ पीछे कहते। सामने तो चुप रहते। बल्कि जब गणेश तिवारी लोक कवि को देखते तो देखते ही गुहारते, ‘का रे चेला!’ और लोक कवि उन के पैर छूते हुए कहते, ‘पालागी पंडित जी!’ और वह ‘जियो चेला! जीते रहो ख़ूब नाम और यश कमाओ!’ कह कर आशीर्वाद देते। लोक कवि अपनी जेब के मुताबिक सौ-दो सौ, चार सौ पांच सौ रुपए धीरे से उन के पैरों पर रख देते जिसे गणेश तिवारी उसी ख़ामोशी से रख लेते। बात आई गई हो जाती।
एहसान फरामोशी की यह भी एक पराकाष्ठा थी।
पर गणेश तिवारी तो ऐसे ही थे, ऐसे ही रहने वाले थे। गांव में उन की पट्टीदारी का एक व्यक्ति फौज में था। रिटायर होने के कुछ समय पहले वह जवानों की भर्ती का काम पा गया। ख़ूब पैसा पीटा। गांव में आ कर ख़ूब भारी दो मंजिला घर बनवाया। पैसे की गरमी साफ दिखाई देती थी। जीप वगैरह भी ख़रीदी। फौजी की पत्नी ने खेत ख़रीदने की बात चलाई तो फौजी ने इन्हीं विलेज बैरिस्टर गणेश तिवारी से खेत ख़रीदने की चर्चा की। क्यों कि गणेश तिवारी को गांव भर का क्या पूरे जवार के लोगों की खसरा खतियौनी, रकबा, मालियत पुश्त-दर-पुश्त जबानी याद था। इसी बिना पर वह कब किस को भिंड़ा दें, किसको किसमें फंसा दें, कुछ ठिकाना नहीं होता। तो फौजी ने यही सुरक्षित समझा कि गणेश तिवारी की उंगली पकड़ कर खेत ख़रीदा जाए। गणेश तिवारी ने आनन फानन उन्हें पांच लाख में पांच बिगहा खेत ख़रीदवा भी दिया। रजिस्ट्री वगैरह हो गई तो भी फौजी ने गणेश तिवारी के मद में गांठ नहीं खोली। तो फिर एक दिन गणेश तिवारी ने खुद ही मुंह खोल दिया, ‘बेटा पचीस हजार रुपया हमको भी दे दो।’
‘वो तो ठीक है।’ फौजी बोला, ‘पर किस बात का ?’
‘किस बात का ?’ गणेश तिवारी बिदके, ‘अरे कवनो भीख या उधार थोड़े ही मांग रहे हैं। मेहनत किए हैं। अपना सब काम बिलवा कर, दुनिया भर का अकाज कर दौड़ भाग किए हैं तो मेहनत का मांग रहे हैं ?’
‘तो अब हमहीं रह गए हैं दलाली वसूलने ख़ातिर ? फौजी भड़क कर बोला, ‘शर्म भी नहीं आती पट्टीदारी में दलाली मांगते?’
‘शर्म करो तुम जो मेहनताना को दलाली बता रहे हो।’
‘काहे को शर्म करें ?’
‘तो चलो दलाली समझ कर ही सही पैसे दे दो!’ गणेश तिवारी बोले, ‘हमहीं बेशर्म हुए जा रहे हैं।’
‘बेशर्म होइए चाहे बेरहम। हम दलाली के मद में एक पइसा नहीं देंगे।’
‘नहीं दोगे तो बाद में झंखोगे।’ गणेश तिवारी ने जोड़ा, ‘रोओगे और रोए रुलाई नहीं आएगी!’
‘धमकी मत दीजिए। फौजी आदमी हूं कोई ऐरा गैरा नहीं।’
‘फौजी नहीं, कलंक हो!’ वह बोले, ‘जवानों की भरती में रिश्वत कमा कर आए हो। गवर्मेंट को बता दूंगा तो जेल में चक्की पीसोगे।’ उन्होंने एक बार फिर चेताया कि, ‘पैसे दे दो नहीं बहुत पछताओगे। बहुत रोओगे।’
‘नहीं दूंगा। फौजी झिड़कते हुए बोला, ‘एक बार नहीं, सौ बार कह रहा हूं कि नहीं दूंगा। रही बात गवर्मेंट की तो मैं अब रिटायर हो चुका हूं। फंड-वंड सब ले चुका हूं। गवर्मेंट नहीं, गवर्मेंट के बाप से कह दीजिए मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला।’
‘गवर्मेंट की छोड़ो, खेतवै में रो जाओगे।’
‘जाइए जो उखाड़ना हो उखाड़ लीजिए। पर मैं एक पैसा नहीं देने वाला।’
‘पैसा कइसे दोगे?’ वह हार कर बोले, ‘तुम्हारे नसीब में रोना जो लिखा है।’ कह कर गणेश तिवारी चुपचाप चले आए अपने घर। ख़ामोश रहे कुछ दिन। पर सचमुच वह ख़ामोश नहीं रहे। इधर फौजी ने अपने पुश्तैनी खेतों के साथ ही साथ ख़रीदे खेत की बड़ी जोरदार तैयारी कर बुवाई करवाई। खेत जब जोत बो गया तो गणेश तिवारी एक दिन ख़ामोश नजरों से खेत को देख भी आए। पर जाहिरा तौर पर कुछ फिर भी नहीं बोले।
एक रात अचानक उन्होंने अपने हरवाहे को बुलवाया। वह आया तो उसे भेज कर उस आदमी को बुलवाया जिससे फौजी ने खेत ख़रीदा था। वह आया भी। आते ही गणेश तिवारी के पांव छुए और किनारे जमीन पर ही उकडूं बैठ गया।
‘का रे पोलदना का हाल है तोर?’ किंचित प्यार की चाश्नी घोल कर आधे सुर में ही पूछा गणेश तिवारी ने।
‘बस बाबा, राउर आशीर्वाद बा।’
‘और का हो रहा है?’
‘कुछ नाहीं बाबा! अब तो खेतियो बारी नाहीं रहा। का करेंगे भला? बैठे-बैठे दिन काट रहे हैं।’
‘काहें तुम्हारा लड़का बंबई से वापस आ गया का ?’
‘नाहीं बाबा ऊ तो वोहीं है।’
‘तो तुम भी काहें नाहीं बंबई चले जाते ?’
‘का करेंगे उहां जा के बाबा ! उहां बड़ी सांसत है।’
‘कवने बात का सांसत है?’
‘रहने खाने का। हगने, मूतने का। पानी पीढ़ा का। कुल का सांसत है।’
‘त का इहां सांसत नाहीं है का?’
‘एह कुल का सांसत तो नहियै है।’ वह रुका और बोला, ‘बस खेतवा बेंच देने से काम काज कम हो गया है। निठल्ला हो गया हूं।’
‘अच्छा पोलादन ई बता कि जो तुम्हारा खेत तुमको फिर से वापिस मिल जाए तो ?’
‘अरे का कहत हईं बाबा!’ वह आंखें सिकोड़ता हुआ बोला, ‘अब तो ढेर पइसो चट कर गया हूं।’
‘का कर डाला रे?’
‘घर बनवा दिया है।’ वह मुसकुराता हुआ बोला, ‘पक्का घर बनवाया हूं।’
‘त कुल रुपया घर ही में फूंक दिया?’
‘नाहीं बाबा! दू ठो भईंस भी ख़रीदले बाड़ीं।
‘त कुच्छू पइसा नाहीं बचाया है?’ जैसे आह भर कर गणेश तिवारी ने पूछा, ‘कुच्छू नाहीं !’
‘नहीं बाबा तीस-चालीस हजार त अबहिन हौ। बकिर ऊ नतिनी के बियाह ख़ातिर बचाए हूं।’
‘बचाए हो न?’ जैसे गणेश तिवारी को सांस मिल गई। वह बोले, ‘तब तो काम हो जाएगा।’’
‘कवन काम हो जाएगा।’ अचकचा कर पोलादन ने पूछा।
‘तुम बुरबक है। तुम नहीं समझेगा। ले सुरती बना पहले।’ कह कर जोर की हवा ख़ारिज की गणेश तिवारी ने। पोलादन नीचे बैठा चूना लगा कर सुरती मलने लगा। और गणेश तिवारी ने चारपाई पर बैठे-बैठे बैठने की दिशा बदली और एक बार फिर हवा ख़ारिज की पर अबकी जरा धीरे से। फिर पोलादन से एक बीड़ा सुरती ले कर मुंह में जीभ तले दबाया और बोले, ‘अच्छा पोलदना ई बताओ कि अगर तुम्हारा खेत भी तुमको वापिस मिल जाए और तुमको पइसा भी वापिस न देना पड़े तो?’
‘ई कइसे हो जाई बाबा?’ पूछते हुए पोलादन हांफने लगा और दौड़ कर गणेश तिवारी के पांव पकड़ बैठा।
‘ठीक से बइठ, ठीक से।’ वह बोले, ‘घबराओ जिन।’
‘लेकिन बाबा सहियै अइसन हो जाई।’
‘हो जाई बकिर....!’
‘बकिर का?’ वह विह्वल हो गया।
‘कुछ खर्चा-बर्चा लगेगा।’
‘केतना?’ कहते हुए वह थोड़ा ढीला पड़ गया।
‘घबराओ नहीं।’ उसे आश्वस्त करते हुए वह अंगुलियों पर गिनती गिनते हुए धीरे से बोले, ‘यही कोई तीस चालीस हजार रुपया!’
‘एतना रुपया?’ कहते हुए पोलादन निढाल हो कर मुह बा गया। पोलादन की यह आकृति देख गणेश तिवारी उसका मनोविज्ञान समझ गए। आवाज जरा और धीमी की। बोले, ‘सारा पैसा एक साथ नहीं खर्च होगा।’ वह रुके और बोले, अभी तुम पचीस हजार रुपए दे दो। हाकिम हुक्काम को सुंघाता हूं। फिर बाकी तुम काम होने के बाद देना।’
‘बकिर काम हो जाई?’ उसकी सांस में जैसे सांस आ गई। बोला, ‘खेतवा मिलि जाई?’
‘बिलकुल मिलि जाई।’ वह बोले, ‘बेफिकिर हो जाओ।’
‘नाई मनो हम एह नाते कह रहे थे जे कि ऊ फौजी बाबा खेतवा जोत बो लिए हैं।’
‘खेतवा बो लिए हैं न?’
‘हां, बाबा!’
‘काटे तो नाहीं न हैं?’
‘अबिहन काटने लायक हुई नहीं है।’
‘त जाओ खेत बोया जरूर है उस पागल फौजी ने, बकिर काटोगे तुम।’ वह रुके और बोले, ‘बाकी पइसा तुम जल्दी से जल्दी ला कर गिन जाओ!’
‘ठीक बा बाबा!’ वह जरा मद्धिम आवाज में बोला।
‘इ बताओ कि हमरे पर तुमको विश्वास तो है न?’
‘पूरा-पूरा बाबा।’ वह बोला, ‘अपनहू से जियादा।’
‘तब इहां से जो! और हमरे साथे-साथे अपनहू पर विश्वास रख। तोर किस्मत बहुतै बुलंद बा।’ वह बोले, ‘रात भी जादा हो गई है।’
रात सचमुच ज्यादा हो गई थी। वह उन के पैर छू कर जाने लगा।
‘अरे पोलदना हे सुन!’ जाते-जाते अचानक गणेश तिवारी उसे गुहरा पड़े।
‘हां, बाबा!’ वह पलट कर भागता हुआ आया।
‘अब एह बात पर कहीं गांजा पी कर पंचाइत मत करने लगना!’
‘नाहीं बाबा!’
‘न ही अपने मेहरारू, पतोह, नात-रिश्तेदार से राय बटोरने लगना।’
‘काहें बाबा!’
‘अब जेतना कह रहा हूं वोतना कर।’ वह बोले, ‘ई बात हमारे तुम्हारे बीच ही रहनी चाहिए। कोई तीसरा भनक भी न पाने पाए।’
‘ठीक बा बाबा!’
‘हां, नाहीं त बना बनाया काम बिगड़ जाई।’
‘नाहीं हम केहू से कुछ नाहीं कहब।’
‘त अब इहां से जो और जेतना जल्दी हो सकै पइसा दे जो!’ वह रुके और बोले, ‘केहू से कवनो चर्चा नाहीं।’
‘जइसन हुकुम बाबा!’ कह कर उस ने फिर से गणेश तिवारी के दोनों पैर छुए और दबे पांव चला गया।
पोलादन चला तो आया गणेश तिवारी के घर से। पर रास्ते भर उनकी नीयत थाहता रहा। सोचता रहा कि कहीं ऐसा न हो कि पइसा भी चला जाए और खेत भी न मिले। ‘माया मिली न राम’ वाला मामला न हो जाए। वह इस बात पर भी बारहा सोचता रहा कि आखि़र गणेश बाबा फौजी का जोता बोया खेत जो उसने खुद बैनामा किया है, पांच लाख रुपया नकद ले कर, कैसे उसे वापिस मिल जाएगा भला?
वह इस बिंदु पर बार-बार सोचता रहा। सोचता रहा पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। अंततः हार मान कर उसने सीधे-सीधे यही मान लिया कि गणेश बाबा की तिकड़मी बुद्धि ही कुछ कर सकती हो तो खेत मिलेगा बिना पइसा वापिस दिए। बाकी तो कवनो रास्ता नइखै दिखाई देता। इसी उधेड़बुन में वह घर पहुंचा।
तीन चार दिन इसी उधेड़बुन में रहा। रातों में भी उसकी आंखों में नींद नहीं उतरती। यही सब वह सोचता रहता। उसे लगा वह पागल हो जाएगा। वह बार-बार सोचता कि गणेश तिवारी कहीं उसको ठग तो नहीं रहे हैं? कि पइसा भी ले लें और कि खेतवो न मिलै? काहे से कि उनकी ठगी विद्या का कोई पार नहीं था। इस विद्या की आड़ में कब वह किसको डंस लें इसका थाह नहीं मिलता था। फिर वह यह भी सोचता और बार-बार सोचता कि आखि़र कौन कानून से गणेश बाबा पइसा बिना वापिस दिए फौजी बाबा द्वारा जोता बोया खेत काटने के लिए वापिस दिया देंगे? तब जब कि वह बाकायदा रंगीन फोटो लगा कर रजिस्ट्री करवा चुका है। फिर उसने सोचा कि का पता गणेश बाबा उसकी आड़ में फौजी बाबा को ठगी विद्या से डंस रहे हों? पट्टीदारी का कवनो हिसाब किताब बराबर कर रहे हों? हो न हो यही बात हो! यह ध्यान आते ही वह उठ खड़ा हुआ। आधी रात हो चुकी थी फिर भी उसने आधी रात का ख़याल नहीं किया। सोई बीवी को जगाया। बक्से का ताला खुलवाया बीस हजार रुपया निकलवाया और लेकर पहुंच गया गणेश तिवारी के घर।
पहुंच कर कुंडा खटखटाया। धीरे-धीरे।
‘कौन है रे?’ आधी जागी, आधी निंदियायी तिवराइन ने जम्हाई लेते हुए पूछा।
‘पालागी पंडिताइन! पोलादन हईं।’
‘का रहे पोलदना! ई आधी रात क का बात परि गईल?’
‘बाबा से कुछ जरूरी बाति बा!’ उसने जोड़ा, ‘बहुत जरूरी। जगा देईं।’
‘अइसन कवन जरूरी बाति बा जे भिनहीं नाहीं हो सकत। आधिए रात कै होई?’ पल्लू और आंचल ठीक करती हुई वह बोलीं।
‘काम अइसनै बा पंडिताइन!’
‘त रुक जगावत हईं।’
कह कर पंडिताइन अपने पति को जगाने चली गईं। नींद टूटते ही गणेश तिवारी बउराए, ‘कवन अभागा आधी रात को आया है?’
‘पोलदना है।’ सकुचाते हुए पंडिताइन बोलीं, ‘चिल्लात काहें हईं ?’
‘अच्छा-अच्छा बैठाव सारे के बइठका में और बत्ती जरा द।’ कह कर वह धोती ठीक करने लगे। फिर मारकीन की बनियाइन पहनी, कुर्ता कंधे पर रखा और खांसते खंखारते बाहर आए। बोली में किंचित मिठास घोली। बोले, ‘का रे पोलदना सारे, तोंके नींद नाहीं आवेले का?’ तखत पर बैठते हुए खंखारते हुए धीरे से बोले, ‘हां, बोल कवन पहाड़ टूट गइल जवन तें आधी रात आ के जगा देहले?’
‘कुछऊ  नाहीं बाबा!’ गणेश तिवारी के दोनों पांव छू कर ऊंकड़ई बैठते हुए वह बोला, ‘वोही कमवा बदे आइल हईं बाबा।’
‘अइसै फोकट में?’ गणेश तिवारी की बोली थोड़ी तल्ख़ हुई।
‘नाई बाबा हई पइसा ले आइल हईं।’ धोती के फेंट से रुपयों की गड्डी निकालता हुआ वह बोला।
‘है केतना?’ कुछ-कुछ टटोलते, कुछ-कुछ गुरेरते हुए वह बोले।
‘बीस हजार रुपया!’ वह खुसफुसाया।
‘बस!’
‘बस धीरे-धीरे औरो देब।’ वह आंखें मिचमिचाता हुआ बोला, ‘जइसे-जइसे कमवा बढ़ी, तइसे-तइसे।’
‘बनिया का दुकान बूझा है का?’
‘नाहीं बाबा! राम-राम!’
‘त कवनो कर्जा खोज के देना है का?’
‘नाहीं बाबा।’
‘त हमारे पर विश्वास नइखै का?’
‘राम-राम! अपनहू से जियादा!’
‘तब्बो नौटंकी फइला रहा है!’ वह आंखें तरेर कर बोले, ‘फौजी पंडित का पांच लाख घोंटेगा और तीसो चालीस हजार खर्चने में फाट रहा है!’
‘बाबा जइसन हुकुम देईं।’
‘सबेरे दस हजार और दे जो!’ वह बोले, ‘फेर हम बताएंगे। बकिर बाकी पइसा भी तैयार रखना!’
‘ठीक बा बाबा!’ वह मन मार कर बोला।
‘और बात इधर-उधर मत करना।’
‘नाहीं-नाहीं। बिलकुल नाहीं।’
‘ठीक है त जो!’
‘बकिर बाबा काम हो जाई भला?’
‘काहें ना होई?’
‘मनो होई कइसे?’ वह थोड़ी थाह लेने की गरज से बोला।
‘इहै जान जाते घोड़न त पोलादन पासी काहें होते?’ वह थोड़ा मुसकुरा कर, थोड़ा इतरा कर बोले, ‘गणेश तिवारी हो जाते!’
‘राम-राम आप के हम कहां पाइब भला।’ वह उनके पांव पकड़ता हुआ बोला।
‘जो अब घरे!’ वह हंसते हुए बोले, ‘बुद्धि जेतना है, वोतने में ही रहो। जादा बुद्धि का घोड़ा मत दौड़ाओ!’ वह बोले, ‘आखि़र हम काहें ख़ातिर हैं?’
‘पालागी बाबा!’ कह कर वह गणेश तिवारी के पांव छूता हुआ चला गया।
दूसरे दिन सुबह फिर दस हजार रुपए ले कर वह आया तो गणेश तिवारी ने तीन चार सादे कागज पर उसके अंगूठे का निशान लगवा लिया।
वह फिर घर चला गया। धकधकाता दिल लिए। कि जाने का होगा। पैसा डूबेगा कि बचेगा।
हफ्ता, दो हफ्ता बीता। कुछ हुआ ही नहीं। वह गणेश तिवारी के पास जाता और आंखों-आंखों में प्रश्न फेंकता। तो उधर से गणेश तिवारी भी उसे आंखों-आंखों में ही जैसे तसल्ली देते। बोलते दोनों ही नहीं थे। गणेश तिवारी का तो नहीं पता पोलादन को, पर वह ख़ुद सुलगता रहता। मसोसता रहता कि काहें एतना पइसा दे दिया? काहें गणेश तिवारी जैसे ठग आदमी के फेर में पड़ गया? वह इसी उधेड़बुन में था कि एक रात गणेश तिवारी उसके घर आए। खुसुर-फुसुर किए और गांव छोड़ कर कहीं चले गए। एही रात फौजी तिवारी के घर पुलिस ने छापा डाला और उनके दोनों बेटों सहित उन्हें थाने उठा ले गई दूसरे दिन ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने वह और उनके दोनों बेटे पेश किए गए। बड़ी दौड़ धूप की उनके नाते रिश्तेदारों, पट्टीदारों और शुभचिंतकों ने पर जमानत नहीं मिली। क्योंकि उन पर हरिजन ऐक्ट लग गया था। बड़े से बड़ा वकील कुछ नहीं कर पाया! कहा गया कि अब तो हाइकोर्ट से ही जमानत मिलेगी। और जाने जमानत मिलेगी कि सजा?
जेल जाते-जाते फौजी तिवारी रो पड़े। रोते-रोते बोले, ‘ई गणेश तिवारी गोहुवन सांप है। डंसा इसी ने है। पोलदना तो इस्तेमाल हुआ है औजार की तरह।’ फिर उन्होंने एक भद्दी सी गाली दी गणेश तिवारी को! बोले, ‘भोसड़ी वाले को पचीस हजार की दलाली नहीं दी तो इस कमीनगी पर उतर आया!’
‘त दे दिए होते दलाली!’ फौजी तिवारी का साला बोला, ‘हई दिन तो नहीं देखना पड़ता!’
‘अब का बताएं?’ कह कर फौजी तिवारी पहले मूछों में फिर फफक कर रो पड़े।
शाम हो गई थी सो उन्हें और उनके बेटों को पुलिस वाले पुलिस ट्रक में बिठा कर जेल की ओर चल दिए। इस पूरे प्रसंग में फौजी तिवारी टूटे हुए, रुआंसे और असहाय कुछ न कुछ बुदबुदाते रहे थे और उनके बेटे निःशब्द थे। लेकिन उनके चेहरों पर आग खौल रही थी और आंखों में शोला समाया हुआ था।
जो भी हो गांव भर क्या पूरे जवार को जानते देर नहीं लगी कि यह सब गणेश तिवारी का किया धरा है। और इस बहाने गांव जवार में एक बार फिर गणेश तिवारी का आतंक बरपा हो गया। किसी गुंडे या किसी आतंकवादी का आतंक क्या होता होगा जो गणेश तिवारी का आतंक होता था। जो आतंक वह खादी पहन कर, बिना अहिंसा के और ख़ूब मीठा बोल कर बरपाते थे।
इस या उस तरह लोग आतंक में जीते और गणेश तिवारी की विलेज बैरिस्टरी चलती रहती।
कई-कई बार वह इस सबके बावजूद निठल्ले हो जाते। लगन नहीं होती तो गाने का सट्टा भी नहीं होता। मुकदमे नहीं होते तो कचहरी भी क्या करते जा कर? या मुकदमे कभी-कभार कम भी पड़ जाते। तो वह एक ख़ास तकनीक अपनाते। पहले वह तड़ते कि किस-किस के बीच तनातनी चल रही है या तनातनी के आसार हैं या आसार हो सकते हैं। इसमें से किसी एक पक्ष से कई-कई बैठकी में मीठा-मीठा बोल कर, उसकी एक-एक नस तोल कर वह उसके मन की पूरी थाह लेते। कुछ ‘उत्प्रेरक’ शब्द उसके कान में अनायास भेजते। प्रतिक्रिया में वह दूसरे पक्ष के लिए अप्रिय शब्दों का जखीरा खोल बैठता, कुछ राज अपने विरोधी पक्ष का बता जाता और अंततः उसकी ऐसी तैसी करने लगता। फिर गणेश तिवारी जब देखते कि चिंगारी शोला बन गई है तब उसे बड़े ‘शांत’ ढंग से चुप कराते और उसे बड़े धीरज और ढाढ़स के साथ समझाते, ‘ऊ साला कुकुर है तो उससे कुकुर बन कर लड़ोगे का?’ वह उसे बिना मौका दिए कहते, ‘आदमी हो आदमी की तरह रहो। कुत्ते के साथ कुत्ता बनना ठीक है का?’
‘तो करें का?’ अगला खीझ कर कहता।
‘कुछ नहीं आदमी बने रहो। और आदमी के पास बुद्धि होती है, सो बुद्धि से काम लो!’
‘का करेंगे बुद्धि ले कर ?’ अगला और बउराता।
‘बुद्धि का इस्तेमाल करो!’ वह उसे बड़े शांत ढंग से समझाते, ‘खुद लड़ने की क्या जरूरत है? तुम खुद क्यों लड़ते हो?’
‘तो का चूड़ी पहन कर बैठ जाएं?’
‘नाहीं भाई, चूड़ी पहनने को कौन कह रहा है?’
‘तो?’
‘तो क्या!’ वह धीरे से बोलते, ‘ख़ुद लड़ने से अच्छा है कि उसी को लड़ा देते हैं।’
‘कैसे?’
‘कैसे का?’ वह पूछते, ‘एकदम बुरबक हो क्या?’ वह जोड़ते, ‘अरे कचहरी काहें बनी है ! कर देते हैं एक ठो नालिश, दू ठो इस्तगासा!’
‘हो जाएगा!’ अगला खुशी से उछलता हुआ पूछता।
‘बिलकुल हो जाएगा।’ कह कर गणेश तिवारी दूसरे पक्ष को टोहते और उसके ख़िलाफ पहले पक्ष द्वारा की गई अप्रिय टिप्पणियों, खोले गए राज को बताते और जब दूसरा पक्ष भी आग बबूला होता तो उसे भी धीरज बंधाते। धीरज बंधाते-बंधाते उसे भी बताते कि, ‘खुद लड़ने की क्या जरूरत है?’ वह कहते, ‘ऐसा करते हैं कि उसी को लड़ा देते हैं।’
अंततः दोनों पक्ष  कचहरी जा कर भिड़ जाते बरास्ता गणेश तिवारी। कचहरी में उनका ‘ताव’ देखने लायक होता। सूट फाइल होने, काउंटर, रिज्वाइंडर में ही छ-आठ महीने गुजर जाते। साथ ही साथ दोनों पक्षों का जोश खरोश और ‘ताव’ भी उतर जाता। नौबत तारीख़ की आ जाती। और जैसा कि हमेशा कचहरियों में होता है न्याय कहिए, फैसला कहिए मिलता नहीं, तारीख़ ही मिलती है। और यह तारीख़ भी पाने के लिए पैसा खर्चना पड़ता। इस पर पक्ष या प्रतिपक्ष प्रतिवाद करता तो गणेश तिवारी बड़ी सफाई से उसे ‘राज’ की बात बताते कि, ‘अबकी की तारीख़ तुम्हारी तारीख़ है। तुम्हें मिली है। और तुम्हारी ही तारीख़ पर उसको भी आना पड़ेगा!’
‘और जो ऊ नहीं आया तो?’ अगला असमंजस में पड़ा पूछता।
‘आएगा न!’ वह बताते, ‘आख़िर गवर्मेंट की कचहरी की तारीख़  है। कैसे नहीं आएगा। और जो ऊ नहीं आएगा तो गवर्मेंट बंधवा कर बुलवाएगी। और नहीं कुछ तो उसका वकिलवा तो आएगा ही।’
‘आएगा न!’
‘बिलकुल आएगा!’ कह कर गणेश तिवारी उसे निश्चिंत करते। और भले ही जनरल डेट लगी हो तो भी गणेश तिवारी उसे उसकी तारीख़ बताते और उससे अपनी फीस वसूल लेते। यही काम और संवाद वह दूसरे पक्ष पर भी गांठते और उससे भी फीस वसूलते। दोनों पक्षों के वकीलों से कमीशन अलग वसूलते। कई बार मुवक्किल उनकी मौजूदगी में ही वकील को पैसा देता तो वह हालांकि अंगरेजी नहीं जानते थे तो भी मुवक्किल के सामने ट्वेंटी फाइव फिफ्टी, हंडरेड, टू हंडरेड, फाइव हंडरेड, थाउजेंड वगैरह जैसे उनकी जरूरत या रेशियो जो भी बनता बोल कर अपना कमीशन सुनिश्चित कर लेते। बाद में अगला पूछता कि, ‘वकील साहब से अऊर का बात हुई?’ तो वह बताते, ‘अरे कचहरी का ख़ास भाषा है, तू नहीं समझेगा।’ और हालत यह हो जाती कि जैसे-जैसे मुका्दमा पुराना पड़ता जाता दोनों पक्षों का ‘ताव’ टूटता जाता और वह ढीले पड़ते जाते। फिर एक दिन ऐसा आता कि कचहरी जाने के बजाय कचहरी का खर्चा लोग गणेश तिवारी के घर दे जाते। मुकदमा और पुराना होता तो दोनों पक्ष खुल्लमखुल्ला गणेश तिवारी को ‘खर्चा-बर्चा’ देने लगते और अंततः कचहरी में सिवाय तारीख़ों के कुछ मिलता नहीं सो दोनों पक्ष सुलह सफाई पर आ जाते और आखि़रकार एक सुलहनामा पर दोनों पक्ष दस्तखत करके मुकदमा उठा लेते। बहुत कम मुकदमे होते जो एक कोर्ट से दूसरी कोर्ट,  दूसरी कोर्ट से तीसरी कोर्ट तक पहुंच पाते। अमूमन तो तहसील में ही मामला ‘निपट’ जाता।
सौ दो सौ मुकदमों में से दस पांच ही जिला जज तक पहुंचते बरास्ता अपील वगैरह। और यहां से भी दो चार सौ मुकदमों में से दस पांच ही हाइकोर्ट का रुख़ कर पाते। अमूमन तो यहीं दफन हो जाते। फिर गणेश तिवारी जैसे लोग नए क्लाइंट की तलाश में निकल पड़ते। यह कहते हुए कि, ‘खुद लड़ने की क्या जरूरत है, उसी को लड़ा देते हैं।’ और ‘उसी को’ लड़ाने के फेर में आदमी खुद लड़ने लगता।
लेकिन गणेश तिवारी का यह नया शिकार पोलादन इस का अपवाद था। फौजी तिवारी को उसने सचमुच लड़ा दिया था क्योंकि गणेश तिवारी ने उसे हरिजन ऐक्ट का हथियार थमा दिया था। हरिजन ऐक्ट अब उनका नया अस्त्र था। और सचमुच वही हुआ जैसा कि गणेश तिवारी ने पोलादन से कहा था, ‘खेत बोए जरूर फौजी पंडित ने हैं पर काटोगे तुम।’ तो पोलादन ने वह खेत काटा, बाकायदा पुलिस की मौजूदगी में। खेत कटने तक फौजी तिवारी और उनके दोनों बेटे जमानत पर छूट कर आ गए थे पर मारे दहशत के वह खेत की ओर झांकने भी नहीं गए। खेत कटता रहा। काटता रहा पोलादन खुद। दो चार लोगों ने फौजी तिवारी से आ कर खुसफुसा कर बताया भी कि, ‘खेतवा काटता बा!’ पर फौजी तिवारी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, न ही उन के बेटों ने।
इस पूरे प्रसंग पर लोक कवि ने एक गाना भी लिखा। गाना तो नहीं चला पर लोक कवि की पिटाई जरूर हो गई इस बुढ़ौती में। फौजी तिवारी के छोटे बेटे ने की पिटाई। वह भी फौज में था और गणेश तिवारी, पोलादन के हथियार हरिजन एक्ट ने उसकी फौजी नौकरी दांव पर लगा दी थी।
बहरहाल, जब खेत वगैरह कट कटा गया, पोलादन पासी का बाकायदा कब्जा हो हवा गया खेतों पर तो एक रात गणेश तिवारी खांसते-खंखारते पोलादन पासी के घर खुद पहुंचे। क्यों कि वह तो बुलाने पर भी उनके घर नहीं आता था। ख़ैर, वह पहुंचे और बात ही बात में दबी जबान से फौजी तिवारी मद में बाकी पैसों का जिक्र कर बैठे। तिस पर पोलादन ने दबी जबान नहीं, खुली जबान गणेश तिवारी से प्रतिवाद किया। बोला, ‘कइसन पइसा ?’ उसने आंख तरेरी और जोड़ा, ‘बाबा चुपचाप बइठीं। नाई अब कानून हमहूं जानि गइल हईं।  कहीं आप के खि़लाफ भी कलक्टर साहब के अंगूठा लगा के दरखास दे देब त मारल फिरल जाई।’
सुन कर गणेश तिवारी का दिल धक् हो गया। आवाज मद्धिम हो गई। बोले, ‘राम-राम! ते त हमार चेला हऊवे! का बात करते हो। भुला जाओ पैसा वैसा!’ कह कर वह सिर पर पांव रख कर वहां से सरक लिए।
रास्ते भर वह सिर धुनते रहे। कि वह क्या करें ? पर कुछ समझ नहीं आ रहा था उन्हें। घर आए। ठीक से खाए भी नहीं। सोने गए तो पंडिताइन पैर दबाने लगीं। वह धीरे से बोले, ‘पैर नहीं, सिर में दर्द है।’ पंडिताइन सिर दबाने लगीं। सिर दबाते-दबाते दबी जबान पूछ बैठीं, ‘आखि़र का बात हो गइल?’
‘बात नाई बड़ा बात हो गइल!’ गणेश तिवारी बोले, ‘एक ठो भस्मासुर पैदा हो गइल हमसे!’
‘का कहत हईं ?’
‘कुछ नाहीं। तू ना समझबू। दिक् मत करो। चुपचाप सुति जा!’
पंडिताइन मन मार कर सो गईं। लेकिन गणेश तिवारी की आंखों में नींद नहीं थी। वह लगातार सोचते रहे कि भस्मासुर बने पोलादन से कैसे निपटा जाए! भगवान शंकर जैसी मति या क्षमता तो नहीं थी उनमें पर विलेज बैरिस्टर तो वह थे ही। लेकिन अभी तो यही विलेज बैरिस्टरी उनकी दांव पर थी। उधर फौजी तिवारी के छोटे बेटे की फौज की नौकरी दांव पर थी। पोलादन पासी के हरिजन ऐक्ट के हथियार से। सो उन्होंने उसी को साधने की ठानी। गए उसके पास मौका देख कर। पर उसने गणेश तिवारी के मुंह पर थूक दिया और भद्दी-भद्दी गालियां दी। कहा कि नरक में भी ठिकाना नहीं मिलेगा। पर गणेश तिवारी ने उसकी किसी भी बात का बुरा नहीं माना। उसका थूका थूक पोंछ लिया। बोले, ‘अब गलती हुई है तो प्रायश्चित भी करुंगा। और गलती करने पर छोटा भी बड़े को दंड दे सकता है। मैं दंड का भागी हूं।’ वह बोली में और मिठास घोलते हुए बोले, ‘मैं अधम नीच हूं ही इसी लायक ! फिर भी तुम लोगों के साथ भारी अन्याय हुआ है। इंसाफ भी कराऊंगा मैं ही। आखि़र हमारा ख़ून हो तुम लोग। हम लोगों की नसों में आखि़र एक ही ख़ून दौड़ रहा है। अब यह थोड़ा मतिभ्रम होने से बदल तो जाएगा नहीं। और न ई चमारों-सियारों और पासियों-घासियों की कुटिलता से बदल जाएगा। रहेंगे तो हम एक ही ख़ून। वह बोले, ‘तो ख़ून तो बोलेगा न नाती!’ इस तरह अंततः फौजी तिवारी का छोटा बेटा भी गणेश तिवारी के इस ‘एक ही ख़ून’ के पैंतरे में फंस गया। भावुक हो गया। फिर गणेश तिवारी और उसकी छनने लगी। उम्र की दीवार तोड़ कर साथ-साथ घूमने लगे दोनों। गलबहियां डाले। पूरा गांव अवाक था कि यह क्या हो रहा है ? विचलित पोलादन पासी भी हुआ यह सब देख सुन कर। वह थोड़ा सतर्क भी हुआ यह सोच कर कि गणेश तिवारी कहीं पलट कर उसे डंस न लें। पर उसे फिर से हरिजन ऐक्ट, कलक्टर और पुलिस की याद आई। तो इस तरह हरिजन ऐक्ट के हथियार के गुमान में वह बेख़बर हो गया कि, ‘हमार का बिगाड़ लिहैं गणेश तिवारी !’
दिन कटते रहे। एक मौसम बदल कर दूसरा आ गया पर पोलादन पासी का गुमान नहीं गया। उन दिनों उसका बेटा बंबई से कमा कर लौटा था। बिटिया की शादी बदे। शादी की तैयारी चल रही थी। पोलादन की नतिनी अपनी सखियों के साथ फौजी तिवारी वाले उसी खेत की मेड़ पर गन्ना चूस रही थी कि फौजी तिवारी का छोटा बेटा उधर से गुजरा। उसे देख कर पोलादन की नतिनी ने ताना कसा, ‘रस्सी जरि गइल, अईंठ ना गइल!’
‘का बोलली?’ फौजी का बेटा कमर में बंधी लाइसेंसी रिवाल्वर निकाल कर हाथ में लेता हुआ भड़क कर बोला।
‘जवन तू सुनलऽ ए बाबा!’ पोलादन की नातिन ने उसी तंज में कहा और खिलखिला कर हंस पड़ी। साथ की उसकी सखियां भी हंसने लगीं।
‘तनी एक बार फिर से त कहु!’ फौजी तिवारी का बेटा फिर भड़कता हुआ उसी ऐंठ से बोला।
‘ई बंदूकिया में गोलियो बा कि बस खालिए भांजत हऊव ए बाबा!’
इतना सुनना था कि फौजी ने दौड़ कर पोलादन की नातिन को कस कर पकड़ लिया, ‘भागती काहें है? आव बताईं कि बंदूक में केतना गोली है!’ कह कर उसने वहीं खेत में लड़की को लिटा कर निर्वस्त्र कर दिया। बाकी लड़कियां भाग चलीं। पोलादन की नातिन बड़ा चीख़ी चिल्लाई, हाथ पैर फेंक कर बहुत बचाव किया पर बच नहीं पाई बेचारी। अंततः उसकी लाज लुट गई। फौजी तिवारी का बेटा उस की देह पर झुका अभी निढाल ही हुआ था कि पोलादन पासी, उसका बेटा और नाती लाठी, भाला ले कर चिल्लाते आते दिखे। उसने आव देखा न ताव बगल में पड़ी रिवाल्वर उठाई। रिवाल्वर उठाते ही लड़की सन्न हो गई। बुदबदाई ‘नाई बाबा, नाई, गोली नाहीं।’
‘चुप भोंसड़ी!’ कह कर फौजी के बेटे ने रिवाल्वर उसके सिर पर दे मारी, साथ ही निशाना साधा और नजदीक आते पोलादन, उसके बेटे, उसकी नाती पर बारी-बारी गोलियां दाग दीं। फौजी तिवारी का बेटा भी फौजी था सो निशाना अचूक था। तीनों वहीं ढेर हो गए।
अब तीनों की लहुलुहान लाश और निर्वस्त्र लड़की खेत में पड़ी थी। इन्हें कोई ढंक रहा था तो सिर्फ सूरज की रोशनी!
पूरे गांव में सन्नाटा पसर गया। गाय, बैल, भैंस, बकरी सब के सब ख़ामोश थे। पेड़ों के पत्तों ने भी खड़खड़ाना बंद कर दिया था। हवा जैसे ठहर गई थी।
ख़ामोशी टूटी फौजी तिवारी की जीप की गड़गड़ाहट से। फौजी तिवारी उनके दोनों बेटे तथा परिवार की औरतों, बच्चों को ले कर घर में ताला लगा कर जीप में बैठ कर गांव से बाहर निकल गए। साथ में पैसा, रुपया, जेवर-कपड़ा-लत्ता भी ले लिया। फौजी तिवारी के बेटे ने जैसे सब कुछ सोच लिया था। शहर पहुंच कर उसने अपने वकील से संपर्क किया। पूरा वाकया सही-सही बताया और वकील की राय पर दूसरे दिन कोर्ट में सरेंडर कर दिया।
उधर गांव में पसरा सन्नाटा फिर पुलिस ने तोड़ा। फौजी तिवारी का घर तो भाग चुका था। पुलिस ने फिर भी ‘सुरागरशी’ की और गणेश तिवारी को धर लिया। लेकिन ‘हजूर-हजूर, माई-बाप’ बोल-बोल कर वह पुलिसिया मार पीट से अपने को बचाए रहे। और कुछ बोले नहीं। जानते थे कि थाने की पुलिस कुछ सुनने वाली नहीं है। हां, जब एस.एस.पी. आए तब वह उसके पैरों पर लोट गए। बोले, ‘हजूर आप तो जानते ही हैं कि हम गरीब गुरबा के साथी हैं।’ वह बोले, ‘ई पोलादन जी के साथ जब फौजी ने अन्याय किया था तब हम ही तो दरखास ले-ले आप हाकिमों के पास दौड़ रहे थे। और देखिए कि आज बेचारा ख़ानदान सहित मार दिया गया!’ कह कर वह रोने लगे। वह बोले, ‘हम तो उसके मददगार थे हजूर और दारोगा साहब हमहीं के बांध लिए हैं।’ कह कर वह फिर एस.एस.पी. के पैरों पर टोपी रख कर लेट गए।
‘क्या बात है यादव?’ एस.एस.पी. ने दारोगा से पूछा।
‘कुछ नहीं सर ड्रामेबाज है।’ दारोगा बोला, ‘सारी आग इसी की लगाई हुई है।’
‘कोई गवाह, कोई बयान वगैरह है इसके खि़लाफ?’
‘नो सर!’ दारोगा बोला, ‘गांव में इसकी बड़ी दहशत है। बताते भी हैं इसके खि़लाफ तो चुपके-चुपके, खुसुर-फुसुर। सामने आने को कोई तैयार नहीं है।’ वह बोला, ‘पर मेरी पक्की इंफार्मेशन है कि सारी आग, सारा जहर इस बुढ्ढे का ही फैलाया हुआ है।’
‘हजूर आप हाकिम हैं जो चाहें करें पर कलंक नहीं लगाएं।’ गणेश तिवारी फफक कर रोते हुए बोले, ‘गांव का एक बच्चा भी हमारे खि़लाफ कुछ नहीं कह सकता। राम कसम हजूर हमने आज तक एक चींटी भी नहीं मारी। हम तो अहिंसा के पुजारी हैं सर, गांधी जी के अनुयायी हैं सर!’
‘यादव तुम्हारे पास सिर्फ इंफार्मेशन ही है कि कोई फैक्ट भी है।’
‘अभी तो इंफार्मेशन ही है सर। पर फैक्ट भी मिल ही जाएगा।’ दारोगा बोला, ‘थाने पहुंच कर सब कुछ खुद ही बक देगा सर!’
‘शट अप, क्या बकते हो!’ एस.एस.पी. बोला, ‘इसे फौरन छोड़ दो।’
‘किरिपा हजूर, बड़ी किरिपा!’ कह कर गणेश तिवारी एस.एस.पी. के पैरों से फिर लिपट गए।
‘चलो छोड़ो, हटो यहां से !’ एस.एस.पी. गणेश तिवारी से पैर छुड़ाता बोला, ‘पर जब तक यह केस निपट नहीं जाता, गांव छोड़ कर कहीं जाना नहीं।’
‘जैसा हुकुम हजूर!’ कह कर गणेश तिवारी वहां से फौरन दफा हो गए।
पर गांव में सन्नाटा और तनाव जारी था। गणेश तिवारी समझ गए कि केस लंबा खिंच गया और देर सबेर वह भी फंस सकते हैं। सो उन्होंने बड़ी चतुराई से पोलादन पासी, उसके बेटे और नाती की लाशों के पास से लाठी, भाला की बरामदगी दर्ज करवा दी। और फौजी तिवारी के वकील से मिल कर पेशबंदी कर ली। और वही हुआ जो वह चाहते थे। कोर्ट में उन्होंने साबित करवा लिया कि हरिजन ऐक्ट के नाम पर पोलादन पासी वगैरह फौजी तिवारी और उसके परिवार का उत्पीड़न कर रहे थे। यह पूरा मामला सवर्ण उत्पीड़न का है। पर सवर्ण उत्पीड़न पर कोई कानून नहीं है। सो वह इसका ठीक से प्रतिरोध नहीं कर पाए और हरिजन ऐक्ट के तहत पूर्व में जेल गए। तब जब कि बाकायदा नकद पांच लाख रुपए दे कर होशोहवास में खेत की रजिस्ट्री करवाई थी। पोलादन को यह पांच लाख रुपया देने का प्रमाण भी गणेश तिवारी ने पेश करवा दिया और खुद गवाह बन गए। बात हत्या की आई तो फौजी तिवारी के वकील ने इसे हत्या नहीं, आत्मरक्षार्थ कार्रवाई स्टैब्लिश किया। बताया कि तीन-तीन लोग लाठी भालों से लैस उसे मारने आ रहे थे तो उसके मुवक्किल को अपनी रक्षा ख़ातिर गोली चलानी पड़ी। कई पेशियों, तारीख़ों के बाद जिला जज भी वकील की इस बात से ‘कनविंस’ हो गया। रही बात पोलादन की नातिन के साथ बलात्कार की तो जांच और परीक्षण में वह भी ‘हैबीचुअल’ पाई गई। और यह मामला भी ले दे कर रफा दफा हो गया। पोलादन की नातिन भी चुपचाप ‘मुआवजा’ पा कर ‘ख़ामोश’ हो गई थी।’
बेचारी करती भी तो क्या?
सब कुछ निपट जाने पर एक दिन फौजी तिवारी के घर गणेश तिवारी पहुंचे। खांसते-खखारते। बात ही बात में गांधी टोपी ठीक कर के जाकेट में हाथ डालते हुए वह बोले, ‘आखि़र अपना ख़ून अपना, ख़ून है।’
‘चुप्प माधरचोद!’ फौजी तिवारी का छोटा बेटा बोला, ‘जिंदगी जहन्नुम बना दी पचीस हजार रूपए की दलाली ख़ातिर और अपना ख़ून, अपना ख़ून की रट लगाए बैठा है।’ वह खौलते हुए बोला, ‘भाग जा बुढ्ढे माधरचोद नहीं तुमको भी गोली मार दूंगा। तुम्हें मारने पर हरिजन ऐक्ट भी नहीं लगेगा।’
‘राम-राम! बच्चा बऊरा गया है। नादान है।’ कह कर गणेश तिवारी ने मनुहार भरी आंखों से फौजी तिवारी की ओर देखा। तो फौजी तिवारी की आंखें भी गणेश तिवारी को तरेर रही थीं। सो ‘नारायन-नारायन!’ करते हुए गणेश तिवारी ने बेआबरू हो कर ही सही वहां से खिसक लेने में ही भलाई सोची।
तो यह और ऐसी तमाम कथाओं और किंवदंतियों के केंद्र में रहने वाले यही गणेश तिवारी भुल्लन तिवारी की नतिनी की शादी में रोड़ा बनने की भूमिका बांध रहे थे। कारण दो थे। एक तो यह कि भुल्लन तिवारी की नतिनी की शादी ख़ातिर पट्टीदारी के लोगों में नामित ‘संभ्रांत’ में लोक कवि ने उनका नाम क्यों नहीं रखा। नाम रखना तो दूर मिलना भी जरूरी नहीं समझा। तब जब कि वह उन का ‘शिष्य’ है। दूसरा कारण यह था कि उन की जेब इस शादी में कैसे किनारे रह गई? तो इस तरह अहं और पैसा दोनों की भूख उनकी तुष्ट नहीं हो रही थी। सो ऐसे में वह चैन से कैसे बैठे रहते भला? ख़ास कर तब और जब लड़की का ख़ानदान ऐबी हो। बाप एड्स से मरा था और आजा जेल में था! फिर भी उन्हें नहीं पूछा गया। तो क्या उनकी ‘प्रासंगिकता’ गांव जवार में ख़तरे में पड़ गई थी? क्या होगा उनकी विलेज बैरिस्टरी का ? क्या होगा उनकी बियहकटवा वाली कलाकारी का?
वैसे तो हर गांव, हर जवार की हवा में शादी काटने वाले बियहकटवा बिचरते ही हैं। कोई नए रूप में, कोई पुराने रूप में तो कोई बहुरुपिया रूप में। लेकिन इस सब कुछ के बावजूद गणेश तिवारी का कोई सानी नहीं था। जिस सफाई, जिस सलीके, जिस सादगी से वह बियाह काटते थे उस पर अच्छे-अच्छे न्यौछावर हो जाएं। लड़की हो या लड़का सबके ऐब वह इस चतुराई से उघाड़ते और लगभग तारीफ के पुल बांधते हुए कि लोग लाजवाब हो जाते। और उनका ‘काम’ अनायास ही हो जाता। अब कि जैसे किसी लड़की का मसला हो तो वह बताते, ‘बड़ी सुंदर, बड़ी सुशील। पढ़ने लिखने में अव्वल। हर काम में ‘निपुण’। ऐसी सुशील लड़की आप को हजार वाट का बल्ब बार कर खोजिए तो नहीं मिलेगी। और सुंदर इतनी कि बाप रे बाप पांच छ लौंडे तक पगला चुके हैं।’
‘का मतलब?’
‘अरे, दू ठो तो अभिए मेंटल अस्पताल से वापिस आए हैं।’
‘इ काहें?’
‘अरे उन बेचारों का का दोष। ऊ लड़की हई है एतनी सुंदर।’ वह बताते, ‘बड़े-बड़े विश्वामित्र पगला जाएं।’
‘उसकी सुंदरता से इनके पागलपन का क्या मतलब ?
‘ए भाई, चार दिन आप से बतियाए और पांचवें दिन दूसरे से बोलने-बतियाने लगे, फिर तीसरे, चौथे से। तो बकिया तो पगला ही जाएंगे न!’
‘ई का कह रहे हैं आप?’ पूछने वाले का इशारा होता कि, ‘आवारा है क्या?’
‘बाकी लड़की गुणों की खान है।’ गणेश तिवारी अगले का सवाल और संकेत जानबूझ कर पी जाते और तारीफ के पुल बांधते जाते। उनका काम हो जाता।
कहीं-कहीं वह लड़की की ‘हाई हील’ की तारीफ कर बैठते पर संकेत साफ होता कि नाटी है। तो कहीं वह लड़की के मेकअप कला की तारीफ करते हुए संकेत देते कि लड़की सांवली है। बात और बढ़ानी होती तो वह डाक्टर, चमाइन, दाई, नर्स वगैरह शब्द भी हवा में बेवजह उछाल देते किसी न किसी हवाले से और संकेत एबार्सन का होता। भैंगी आंख, टेढ़ी चाल, मगरूर, घुंईस, गोहुवन जैसे पुराने टोटके भी वह सुरती ठोंकते खाते आजमा जाते। उनकी युक्तियों और उक्तियों की कोई एक चौहद्दी, कोई एक फ्रेम, कोई एक स्टाइल नहीं होती। वह तो नित नई होती रहती। मां का झगड़ालू होना, मामा का गुंडा होना, बाप का शराबी होना, भाई का लुक्कड़ या लखैरा होना वगैरह भी वह ‘अनजाने’ ही सुरती थूकते-खांसते परोस देते। लेकिन साथ-साथ यह संपुट भी जोड़ते जाते कि, ‘लेकिन लड़की है गुणों की खान।’ फिर अति सुशील, अति सुंदर सहित हर कार्य में निपुण, पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, गृह कार्य में दक्ष वगैरह।’
यही-यही और ऐसी-ऐसी तरकीबें वह लड़कों के साथ भी आजमाते। ‘बड़ा होनहार, बड़ा वीर’ कहते हुए उसकी ‘संगत’ का भी बखान बघार जाते और काम हो जाता।
एक बार तो गजब हो गया। एक लड़के के पिता ने बड़े जतन से उस रोज बेटे की तिलक का मुहुर्त निकलवाया जिस दिन क्या उस दिन के आगे-पीछे भी गांव में गणेश तिवारी की उपस्थिति संभव नहीं थी। पर जाने कहां से ऐन तिलक चढ़ने के कुछ समय पहले वह न सिर्फ गांव में प्रगट हो गए बल्कि उसके घर उपस्थित हो गए। न सिर्फ उपस्थित हुए जाकेट से हाथ निकाल कर गांधी टोपी ठीक करते-करते तिलक चढ़ाने आए तिलकहरुवों के बीच जा कर बैठ गए। उन के वहां बैठते ही घर भर के लोगों के हाथ पांव फूल गए। दिल धकधकाने लगे। लोगों ने तिलकहरुवों की आवभगत छोड़ कर गणेश तिवारी की आवभगत शुरू कर दी। लड़के के पिता और बड़े भाई ने गणेश तिवारी के आजू-बाजू अपनी ड्यूटी लगा ली। ताकि उनके सम्मान में कोई कमी न आए दूसरे, उनके मुंह से कहीं लड़के की तारीफ न शुरू हो जाए। गणेश तिवारी का नाश्ता अभी चल रहा था और वह पूरी तरह ठीक वैसे ही काबू में थे जैसे अख़बारों में दंगों आदि के बाद ख़बरों का शीर्षक छपता है ‘स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्राण में।’ तो ‘तनावपूर्ण लेकिन नियंत्राण में’ वाली स्थिति में ही लड़के के पिता को एक उपाय यह सूझा कि क्यों न बेटे को बुला कर गणेश तिवारी के पांव छुलवा कर इनका आशीर्वाद दिला दिया जाए। ताकि गणेश तिवारी का अहं तुष्ट हो जाए और तिलक तथा विवाह बिना विघ्न-बाधा के संपन्न हो जाएं। और उन्होंने ऐसा ही किया। तेजी से घर में गए और उसी फुर्ती से बेटे को लिए चेहरे पर अतिरिक्त उत्साह और मुसकान टांके गणेश तिवारी के पास ले गए जो बीच तिलकहरुओं के स्पेशल नाश्ता पर जुटे हुए थे। लड़के को देखते ही गणेश तिवारी ने धोती की एक कोर उठाई और मुंह पोंछते हुए लड़के के पिता से भी ज्यादा मुसकान और उत्साह अपने चेहरे पर टांक लिया और आंखों का कैमरा ‘क्लोज शाट’ में लड़के पर ही टिका दिया। पिता के इशारे पर लड़का झुक कर दोनों हाथों से गणेश तिवारी के दोनों पांव दो-दो बार एक ही क्रम में कुछ छू कर चरण-स्पर्श कर ही रहा था कि गणेश तिवारी ने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी। सारे विशेषण, सारे आशीर्वाद दे कर उन्होंने आखि़र अपना ब्रह्ममास्त्र फेंक दिया, ‘जियो बेटा! पढ़ाई लिखाई में तुम अव्वल थे ही, नौकरी भी तुम्हें अव्वल मिली है। वह बोले, ‘अब भगवान के आशीर्वाद से तुम्हारा विवाह भी हो ही रहा है। बस भगवान की कृपा से तुम्हारी मिर्गी भी ठीक हो जाए तो क्या कहना!’ वह बोले, ‘चलो हमारा पूरा-पूरा आशीर्वाद है!’ कह कर उन्होंने लड़के की पीठ थपथपाई। तिलकहरुओं की ओर मुसकुराते हुए मुखातिब हुए और लगभग वीर रस में बोले, ‘हमारे गांव, हमारे कुल की शान हैं ये।’ उन्होंने जोड़ा, ‘रतन है रतन। आप लोग बड़े खुशनसीब हैं जो ऐसे योग्य और होनहार युवक को अपना दामाद चुना है।’ कह कर वह उठ खड़े हुए बोले, ‘लंबी यात्रा से लौटा हूं। थका हुआ हूं। विश्राम जरूरी है। क्षमा करें चल रहा हूं। आज्ञा दें।’ कह कर दोनों हाथ उन्होंने जोड़े और वहां से चल दिए।
गणेश तिवारी तो वहां से चल दिए पर तिलकहरुओं की आंखों और मन में सवालों का सागर छोड़ गए। पहले तो आंखों-आंखों में यह सवाल सुलगा। फिर जल्दी ही जबान पर बदकने लगा यह सवाल कि, ‘लड़के को मिर्गी आती है?’ कि, ‘लड़का तो मिर्गी का रोगी है?’ कि, ‘मिर्गी के रोगी लड़के से शादी कैसे हो सकती है?’ कि, ‘लड़की की जिंदगी नष्ट करनी है क्या?’ और अंततः इन सवालों की आग शोलों में तब्दील हो गई। लड़के के पिता, भाई, नाते-रिश्तेदार और गांव के लोग भी सफाई देते रहे, कसमें खाते रहे कि, ‘लड़के को मिर्गी नहीं आती, ‘कि ‘लड़के को मिर्गी आती तो नौकरी कैसे मिलती ?’ कि ‘अगर शक हो ही गया है तो डाक्टर से जांच करवा लें!’ आदि-आदि। पर इन सफाइयों और कसमों का असर तिलकहरुओं पर जरा भी नहीं पड़ा। और वह लोग जो कहते हैं थारा-परात, फल-मिठाई, कपड़ा-लत्ता, पैसा वगैरह ले कर वहां से उठ खड़े हुए। फिर बिना तिलक चढ़ाए ही चले गए। यह कहते हुए, कि ‘लड़की की जिंदगी नष्ट होने से बच गई।’ साथ ही गणेश तिवारी की ओर भी इंगित करते हुए कि, ‘भला हो उस शरीफ आदमी का जिसने समय रहते आंखें खोल दीं। नहीं हम लोग तो फंस ही गए थे। लड़की की जिंदगी नष्ट हो जाती!’
अनायास ही जैसे आशीर्वाद दे कर गणेश तिवारी ने इस लड़के को निपटाया था वैसे ही भुल्लन तिवारी की नतिनी की शादी में भी वह अनायास ही के भाव में सायास निपटाने ख़ातिर जुट गए थे। भुल्लन तिवारी की नातिन को कम लोक कवि की जेब के बहाने अपनी गांठ की चिंता उन्हें कहीं ज्यादा सक्रिय किए थी। बात वैसे ही बिगड़ी हुई थी, गणेश तिवारी की सक्रियता ने आग में घी का काम किया। अंततः बात लोक कवि तक पहुंची। पहुंचाई भुल्लन तिवारी के बेटे के साले ने लखनऊ में और कहा कि, ‘बहिन के भाग में अभाग लिखा ही था लगता है भांजी के भाग में एहसे बड़ा अभाग लिखा है।’’
‘घबराइए मत।’ लोक कवि ने उन्हें सांत्वना दी। कहा कि, ‘सब ठीक हो जाएगा।’
‘कइसे ठीक हो जाएगा?’ साला बोला, ‘जब गणेश तिवारी का जिन्न उसके बियाह के पीछे लग गया है। जहां जाइए आप के पहले गणेश तिवारी चोखा चटनी लगा के सब मामिला पहिले ही बिगाड़ चुके होते हैं!’
‘देखिए अब का कहूं मैं, आप भी ब्राह्मण हैं। हमारे देवता तुल्य हैं बकिर बुरा मत मानिएगा।’ लोक कवि बोले, ‘गणेश तिवारी भी ब्राह्मण हैं। हमारे आदरणीय हैं। बकिर हैं कुत्ता। कुत्ते से भी बदतर!’ लोक कवि ने जोड़ा, ‘कुत्ते का इलाज हम जानता हूं। दू चार हजार मुंह पर मार दूंगा तो ई गुर्राने, भूंकने वाला कुत्ता दुम हिलाने लगेगा।’
‘लेकिन कब? जब सबहर जवार जान जाएगा तब? जब सब लोग थू-थू करने लगेंगे तब?’
‘नाहीं जल्दिए।’ लोक कवि बोले, ‘अब इहै गणेश तिवारिए आप के भांजी का तारीफ करेगा।’
‘तारीफ त करी रहा है।’ साला बोला, ‘तारीफ कर के ही तो ऊ काम बिगाड़ रहा है। कि लड़की सुंदर है, सुशील है। बकिर बाप अघोड़ी था। एड्स से मर गया और आजा खूनी है। जेल में बंद है।’
‘त ई बतिया कहां से छुपा लेंगे आप और हम?’
‘नाहीं बाति एहीं तक थोड़े ही है।’ वह बोला, ‘गणेश तिवारी प्रचारित कर रहे हैं कि भुल्लन तिवारी के पूरे परिवार को एड्स हो गया है। साथ ही भांजी का भी नाम वह नत्थी कर रहे हैं।’
‘भांजी को कैसे नत्थी कर लेंगे?’ लोक कवि भड़के।
‘ऊ  अइसे कि....। साला बोला, ‘जाने दीजिए ऊ बहुत गिरी हुई बात कहते हैं।’
‘का कहते हैं?’ धीरे से बुदबुदाए लोक कवि, ‘अब हमसे छुपाने से का फायदा? आखि़र ऊ तो कहि रहे हैं न?’
‘ऊ  कह रहे हैं जीजा जी के लिए कि अघोड़ी था बेटी तक को नहीं छोड़ा। सो बेटी को भी एड्स हो गया है।’
‘बड़ा कमीना है!’ कह कर लोक कवि ने पुच्च से मुंह में दबी सुरती थूकी। बोले, ‘आप चलिए। हम जल्दिए गणेश तिवारी को लाइन पर लाता हूं।’ वह बोले, ‘ई बात था तो पहिलवैं बताए होते एह कमीना कुत्ता का इलाज हम कर दिए होते।’
‘ठीक है तो जइसे एतना देखें हैं आप तनी एतना और देख लीजिए।’ कह कर साला उठ खड़ा हुआ।
‘ठीक है, त फिर प्रणाम!’ कह कर लोक कवि ने दोनों हाथ जोड़ लिए।
भुल्लन तिवारी के बेटे के साले के जाते ही लोक कवि ने चेयरमैन साहब को फोन मिलाया और पूरी रामकहानी बताई। चेयरमैन साहब छूटते ही बोले, ‘जो पइसा तुम उसको देने को सोच रहे हो वही पइसा किसी लठैत या गुंडा को दे कर उसकी कुट्टम्मस करवा दो। भर हीक कुटवा दो, हाथ पैर तोड़वा दो सारा नारदपना भूल जाएगा।’
‘ई ठीक पड़ेगा भला?’ लोक कवि ने पूछा।
‘काहें बुरा का होगा? चेयरमैन साहब ने भी पूछा। वह बोले, ‘ऐसे कमीनों के साथ यही करना चाहिए।’
‘आप नहीं जानते ऊ दलाल है। हाथ पैर टूट जाने के बाद भी ऊ कवनो अइसन डरामा रच लेगा कि लेना का देना पड़ जाएगा।’ लोक कवि बोले, ‘जो अइसे मारपीट से ऊ सुधरने वाला होता तो अबले कई राउंड वह पिट-पिटा चुका होता। बड़ा तिकड़मी है सो आज तक कब्बो नाहीं पिटा।’ वह बोले, ‘खादी वादी पहन कर अहिंसा-पहिंसा वइसै बोलता रहता है। कहीं पुलिस-फुलिस का फेर पड़ गया तो बदनामी हो जाएगी।’
‘त का किया जाए? तुम्हीं बोलो !’
‘बोलना का है चल के कुछ पैसा उसके मुंह पर मारि आना है!’
‘त इसमें हम का करें?’
‘तनी सथवां चलि चलिए। और का!’
‘तुम्हारा शैडो तो हूं नहीं कि हरदम चला चलूं तुम्हारे साथ!’
‘का कहि रहे हैं चेयरमैन साहब!’ लोक कवि बोले, ‘आप तो हमारे गार्जियन हैं।’
‘ई बात है?’ फोन पर ही ठहाका मारते हुए चेयरमैन साहब बोले, ‘तो चलो कब चलना है ?’
‘नहीं, दू चार ठो पोरोगराम इधर लगे हैं, निपटा दूं तो बताता हूं।’ लोक कवि बोले, ‘असल में का है कि एह तर के बातचीत में आप के साथ होने से मामला बैलेंस रहता है और बिगड़ा काम बन जाता है।’
‘ठीक है, ठीक है ज्यादा चंपी मत करो। जब चलना तो बताना।’ वह रुके और बोले, ‘अरे हां, दुपहरिया में आज का कर रहे हो?’
‘कुछ नाईं, तनी रिहर्सल करेंगे कलाकारों के साथ।’
‘तो ठीक है जरा बीयर-सीयर ठंडी-ठंडी मंगवा लेना मैं आऊंगा।’ वह बोले, ‘तुमको और तुम्हारे रिहर्सल को डिस्टर्ब नहीं करुंगा। मैं चुपचाप पीता रहूंगा और तुम्हारा रिहर्सल देखता रहूंगा।’
‘हां, बकिर लड़कियों के साथ नोचा-नोची मत करिएगा।’
‘का बेवकूफी का बात करते हो।’ वह बोले, ‘तुम बस बीयर मंगाए रखना।’
‘ठीक है आइए!’ लोक कवि बेमन से बोले।
चेयरमैन साहब बीच दोपहर लोक कवि के पास पहुंच गए। रिहर्सल अभी शुरू भी नहीं हुआ था लेकिन चेयरमैन साहब की बीयर शुरू हो गई। बीयर के साथ के लिए लइया चना, मूंगफली और पनीर के कुछ टुकड़े कटवा कर मंगवा लिए थे। एक बोतल बीयर जब वह पी चुके और दूसरी बोतल खोलने लगे तो बोतल खोलते-खोलते वह लोक कवि से बेलाग हो कर बोले, ‘कुछ मटन-चिकन मंगवाओ और ह्विस्की भी!’ उन्हों ने जोड़ा, ‘अब ख़ाली बीयर-शीयर से दुपहरिया नहीं गुजरने वाली।’
‘अरे, लेकिन रिहर्सल होना है अभी।’ लोक कवि हिचकते हुए संकोच घोलते हुए बोले।
‘रिहर्सल को कौन रोक रहा है?’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम रिहर्सल करते-करवाते रहो। मैं खलल नहीं डालूंगा। किचबिच-किचबिच मत करो, चुपचाप मंगवा लो।’ कह कर उन्हों ने जेब से कुछ रुपए निकाल कर लोक कवि की ओर फेंक दिए।
मन मार कर लोक कवि ने रुपए उठाए, एक चेले को बुलाया और सब चीजें लाने के लिए बाजार भेज दिया। इसी बीच रिहर्सल भी शुरू हो गया। तीन लड़कियों ने मिल कर नाचना और गाना शुरू कर दिया। हारमोनियम, ढोलक, बैंजो, गिटार, झाल, ड्रम बजने लगे। लड़कियां नाचती हुई गा रही थीं, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला / आलू, केला खइलीं त एतना मोटइलीं / दिनवा में खा लेहलीं, दू-दू रसगुल्ला!’ और बाकायदा झुल्ला दिखा-दिखा कर, आंखों को मटका-मटका कर, कुल्हों और छातियों के स्पेशल मूवमेंट्स के साथ वह गा रही थीं। और इधर ह्विस्की की चुस्की ले-ले कर चेयरमैन साहब भर-भर आंख ‘यह सब’ देख रहे थे। देख क्या रहे थे पूरा-पूरा मजा ले रहे थे। गाने की रिहर्सल ख़त्म हुई तो चेयरमैन साहब ने दो लड़कियों को अपनी तरफ बुलाया। दोनों सकुचाती हुई पहुंचीं तो उन्हें आजू-बाजू कुर्सियों पर बिठाया। उन दोनों की गायकी की तारीफ की। फिर इधर उधर की बातें करते हुए वह एक लड़की का गाल सहलाने लगे। गाल सहलाते-सहलाते बोले, ‘इसको थोड़ा चिकना और सुंदर बनाओ!’ लड़की लजाई। सकुचाती हुई बोली, ‘प्रोग्राम में मेकअप कर लेती हूं। सब ठीक हो जाता है।’
‘कुछ नहीं!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मेकअप से कब तक काम चलेगा? जवानी में ही मेकअप कर रही हो तो बुढ़ापे में का करोगी?’ वह बोले, ‘कुछ जूस वगैरह पियो, फल फ्रूट खाओ!’ कहते हुए वह अचानक उसकी ब्रेस्ट दबाने लगे, ‘यह भी बहुत ढीला है। इसको भी टाइट करो!’ लड़की अफना कर उठ खड़ी हुई तो वह उसकी हिप को लगभग दबाते और थपथपाते हुए बोले, ‘यह भी ढीला है, इसे भी टाइट करो। कुछ एक्सरसाइज वगैरह किया करो। अभी जवान हो, अभी से यह सब ढीला हो जाएगा तो कैसे काम चलेगा।’ वह सिगरेट का एक लंबा कश भरते हुए बोले, ‘सब टाइट रखो। जमाना टाइट का है। और अफना के भाग कहां रही हो? बैठो यहां अभी तुम्हें कुछ और भी बताना है।’ लेकिन वह लड़की ‘अभी आई!’ कह कर बाहर निकल गई। तो चेयरमैन साहब दूसरी लड़की की ओर मुखातिब हो गए जो बैठी-बैठी अर्थपूर्ण ढंग से मुसकुरा रही थी। तो उसे मुसकुराते देख चेयरमैन साहब भी मुसकुराते हुए बोले, ‘का रे तुम काहें बड़ा मुसकुरा रही है?’
‘ऊ लड़की अभी नई है चेयरमैन साहब!’ इठलाती हुई वह बोली, ‘अभी रंग नहीं चढ़ा है उस पर!’
‘बकिर तुम तो रंगा गई है!’ उसके दोनों गाल मीजते हुए चेयरमैन साहब बहकते हुए बोले।
‘ई सब हमरहू साथे मत करिए चेयरमैन साहब।’ वह किंचित सकुचाती, लजाती और लगभग प्रतिरोध दर्ज कराती हुई बोली, ‘हमारा भाई अभी आने वाला है। कहीं देख लेगा तो मुश्किल हो जाएगी।’
‘का मुश्किल हो जाएगी?’ वह उसके स्तनों की ओर एक हाथ बढ़ाते हुए बोले, ‘का गोली मार देगा?’
‘हां, मार देगा गोली!’ वह चेयरमैन साहब का हाथ बीच में ही दोनों हाथ रोकती हुई बोली, ‘झाड़ई, जूता, गोली जो भी पाएगा मार देगा?’
यह सुनते ही चेयरमैन साहब ठिठक गए। बोले, ‘का गुंडा, मवाली है का?’
‘है तो नहीं गुंडा मवाली पर जो आप लोग अइसेही करिएगा तो बन जाएगा!’ वह बोली, ‘वह तो हमारे गाने-नाचने पर भी बड़ा ऐतराज मचाता है। ऊ नहीं चाहता है कि हम प्रोग्राम करें।’
‘क्यों?’ चेयरमैन साहब की सनक अब तक सुन्न हो चुकी थी। सो वह दुबारा बड़े सर्द ढंग से बोले, ‘क्यों?’
‘ऊ  कहता है रेडियो, टी.वी. तक तो ठीक है। ज्यादा से ज्यादा सरकारी कार्यक्रम कर लो बस। बाकी प्राइवेट कार्यक्रम से ऊ भड़कता है।’
‘काहें?’
‘ऊ कहता है भजन, गीत, गजल तक तो ठीक है पर ई फिल्मी उल्मी गाना, छपरा हिले बलिया हिले टाइप गाना मत गाया करो।’ यह रुकी और बोली, ‘ऊ तो हमीं को कहता है कि नहीं मानोगी तो एक दिन ऐन कार्यक्रम में गोली मार दूंगा और जेल चला जाऊंगा!’
‘बड़ा डैंजर है साला!’ सिगरेट झाड़ते हुए चेयरमैन साहब उठ खड़े हुए। खंखारते हुए उन्होंने लोक कवि को आवाज दी और बोले, ‘तुम्हारा ई अड्डा बड़ा ख़तरनाक हो रहा है। मैं तो जा रहा हूं।’ कह कर वह सचमुच वहां से चल दिए। लोक कवि उनके पीछे-पीछे लगे भी कि, ‘खाना मंगवा रहा हूं खा-पी कर जाइए।’ फिर भी वह नहीं माने तो लोक कवि बोले, ‘एक आध पेग दारू और हो जाए!’ पर चेयरमैन साहब बिन बोले हाथ हिला कर मना करते हुए बाहर आ कर अपनी एंबेसडर में बैठ गए और ड्राइवर को इशारा किया कि बिना कोई देरी किए अब यहां से निकल चलो।
उनकी एंबेसडर स्टार्ट हो गई। चेयरमैन साहब चले गए।
भीतर वापस आ कर लोक कवि उस लड़की से हंसते हुए बोले, ‘मीनू तुमने तो आज चेयरमैन साहब की हवा टाइट कर दी!’
‘का करते गुरु जी आखि़र!’ वह किंचित संकोच में खुशी घोलती हुई बोली, ‘ऊ तो जब आप ने आंख मारी तभी हम समझ गई कि अब चेयरमैन साहब को फुटाना है।’
‘वो तो ठीक है पर वह तुम्हारा कौन भाई है जो इतना बवाली है?’ लोक कवि बोले, ‘उसको यहां मत लाया करो। डेंजर लोगों की यहां कलाकारों में जरूरत नहीं है।’
‘का गुरु जी आप भी चेयरमैन साहब की तरह फोकट में घबरा गए।’ मीनू बोली, ‘कहीं कवनो ऐसा भाई हमारा है? अरे, हमारा भाई तो एक ठो है जो भारी पियक्कड़ है। पी के हरदम मरा रहता है। उसको अपने बीवी बच्चों की ही फिकर नहीं रहती है तो हमारी फिकर कहां से करेगा?’ वह बोली, ‘और जो अइसे ही फिकर करता तो म्यूजिक पार्टियों में घूम-घूम कर प्रोग्राम ही क्यों करती?’
‘तुम तो बड़ी भारी कलाकार हो।’ मीनू की हिप पर हलकी सी चिकोटी काटते, सहलाते लोक कवि बोले, ‘बिलकुल डरामा वाली।’
‘अब कहां गुरु जी हम कलाकार रह गए। हां, पहले थे। दो तीन नाटक रेडियो पर भी हमारे आए थे।’
‘तो अब काहें नहीं जाती हो रेडियो पर?’ लोक कवि तारीफ के स्वर में बोले, ‘रेडियो पर ही क्यों टी.वी. सीरियलों पर भी जाओ!’
‘कहां गुरु जी?’ वह बोली, ‘अब कौन वहां पूछेगा।’
‘क्यों?’
‘फिल्मी गाने गा-गा कर फिल्मी कैसेटों पर नाच-नाच कर ऐक्टिंग वैक्टिंग भूल-भुला गई हूं।’ वह बोली, ‘और फिर यहां तुरंत-तुरंत पैसा भी मिल जाता है और रेगुलर मिलता है। लेकिन वहां पैसा कब मिलेगा, काम कब मिलेगा, काम देने वालों को भी नहीं पता होता है। और पैसे का तो और भी पता नहीं होता।’ वह रुकी और बोली, ‘हां, लेकिन लड़कियों को साथ सुलाने, लिपटाने-चिपटाने की बात सब को पता होती है।’
‘का बेवकूफी का बात करती हो।’ लोक कवि बोले, ‘कुछ और बात करो।’
‘काहें बुरा लग गया का गुरु जी!’ मीनू ठिठोली फोड़ती हुई बोली।
‘काहें नहीं बुरा लगेगा?’ लोक कवि बोले, ‘इसका मतलब है जो बाहर कहीं और जाती होगी तो अइसेही हमारी बुराई बतियाती होगी।’
‘अरे नहीं गुरु जी! राम-राम!’ कह कर वह अपने दोनों कान पकड़ती हुई बोली ‘आपके बारे में एह तरह का बात हम कहीं नहीं करती हूं।’ हम काहें ऐसा बात करूंगी गुरु जी!’ वह विनम्र होती हुई बोली, ‘आप हमें आसरा दिए गुरु जी। और हम एहसान फरामोश नहीं हूं।’ कह कर वह हाथ जोड़ कर लोक कवि के पांव छूने लगी।
‘ठीक है, ठीक है!’ लोक कवि आश्वस्त होते हुए बोले, ‘चलो रिहर्सल शुरू करो!’
‘जी गुरु जी!’ कह कर उसने हारमोनियम अपनी ओर खींचा और उस दूसरी लड़की जो थोड़ी दूर बैठी थी, उस को गुहराया और बोली ‘तुम भी आ जाओ भाई!’
वह लड़की भी आ गई तो हारमोनियम पर वह दोनों गाने लगीं, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला।’ इस को दुहराने के बाद दूसरी ने टेर ली और मीनू ने कोरस, ‘आलू केला खइली त एतना मोटइलीं, दिनवा में ख लेहलीं दू-दू रसगुल्ला, लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला।’ फिर दुबारा भी जब दोनों ने शुरू किया यह गाना कि, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला / आलू केला खइलीं....।’ तभी लोक कवि ने दोनों को डपट लिया, ‘यह क्या गा रही हो जी तुम लोग।’ वह बोले, ‘भजन गा रही हो कि देवी गीत कि गाना।’
‘गाना गुरु जी।’ दोनों एक साथ बोल पड़ीं।
‘तो इतना स्लो क्यों गा रही हो?’
‘स्लो नहीं गुरु जी, टेक ले कर न फास्ट होंगे!’
‘चोप्प साली।’ वह बोले, ‘टेक ले कर क्यों फास्ट होगी ? जानती नहीं हो डबल मीनिंग गाना है शुरू से ही इसे फास्ट में डाल दो।’
‘ठीक है गुरु जी!’ मीनू बोली, ‘बस ऊ ढोलक, बैंजो वाले भी आ जाते तो शुरू से फास्ट हो लेते। ख़ाली हरमुनिया पर तुरंतै कइसे फास्ट हो जाएं?’ उसने दिक्कत बताई।
‘ठीक है, ठीक है। रिहर्सल चालू रखो!’ कह कर लोक कवि चेयरमैन साहब द्वारा छोड़ दी गई बोतल से पेग बनाने लगे। शराब की चुस्की के साथ ही गानों के रिहर्सल पर भी नजर रखे रहे। तीन चार गानों के रिहर्सल के बीच ही ढोलक, गिटार, बैंजो, तबला, ड्रम, झाल वाले भी आ गए। सो सारे गाने लोक कवि के मन मुताबिक ‘फास्ट’ में फेंट कर गाए गए। इस बीच तीन लड़कियां और आ गईं। सजी-धजी, लिपी-पुती। देखते ही लोक कवि चहक पड़े। और अचानक गाना-बजाना रोकते हुए उन्होंने लगभग फरमान जारी कर दिया, ‘गाना-बजाना बंद करो, और कैसेट लगाओ। अब डांस का रिहर्सल होगा।’
कैसेट बजने लगा और लड़कियां नाचने लगीं। साथ-साथ लोक कवि भी इस डांस में छटकने-फुदकने लगे। वैसे तो लोक कवि मंचों पर भी छटकते, फुदकते, थिरकते थे, नाचते थे। यहां फर्क सिर्फ इतना भर था कि मंच पर वह खुद के गाए गाने में ही छटकते फुदकते नाचते थे। पर यहां वह दिदलेर मेंहदी के गाए ‘बोल तररर’ गाने वाले बज रहे कैसेट पर छटकते फुदकते थिरक रहे थे।
न सिर्फ थिरक रहे थे, लड़कियों को कूल्हे, हिप, चेहरे और छातियों के मूवमेंट भी ‘पकड़-पकड़’ कर बताते जा रहे थे। हां, एक फर्क यह भी था कि मंच पर थिरकने में माइक के अलावा उन के एक हाथ में तुलसी की माला भी होती थी। पर यहां उन के हाथ में न माइक था, न माला। यहां उन के हाथ में शराब की गिलास थी जिसको कभी-कभी वह आस पास की किसी कुर्सी या किसी जगह पर रख देते थे, लड़कियों को कूल्हे, छातियों और हिप्स की मूवमेंट बताने ख़ातिर। आंखों, चेहरे और बालों की शिफत बताने ख़ातिर। लड़कियां तो कई थीं इस डांस रिहर्सल में और लोक कवि लगभग सभी पर ‘मेहरबान’ थे। पर मीनू नाम की लड़की पर वह ख़ास मेहरबान थे। जब तब वह मूवमेंट्स सिखाते-सिखाते उसे चिपटा लेते, चूम लेते, उसके बालों, गालों सहित उसकी ‘36’ वाली हिप ख़ास तौर पर सहला देते। तो वह मादक सी मुसकान भी रह-रह फेंक देती। बिलकुल कृतज्ञता के भाव में। गोया लोक कवि उसके बाल, गाल या हिप सहला कर उस पर ख़ास एहसान कर रहे हों। और जब वह मादक सी, मीठी सी मुसकान फेंकती तो उसमें सिर्फ लोक कवि ही नहीं, वहां उपस्थित सभी नहा जाते। मीनू दरअसल थी ही इस कदर मादक कि वह मुसकुराए तो भी, न मुसकुराए तो भी लोग उसकी मादकता में उभ-चूभ डूब ही जाते। मंचों पर तो कई बार उसकी इस मादकता से मार खाए बाऊ साहब टाइप लोगों या बाकों और शोहदों में गोली चलने की नौबत आ जाती और जब वह कुछ मादक फिल्मी गानों पर नाचती तो सिर फुटव्वल मच जाती। ‘झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा केे पिएंगे....’ अर्शी हैदराबादी की गाई गजल पर जब वह पानी से भरी बोतल को ‘डबल मीनिंग’ में हाथों में ले कर मंच से नीचे बैठे लोगों पर पानी उछालती तो ज्यादातर लोग उस पानी में भींगने के लिए पगला जाते। भले ही सर्दी उन्हें सनकाए हो तो भी वह पगलाए आगे कूद कर भागते आते। कभी-कभार कुछ लोग इस तरह की हरकत का बुरा भी मानते पर जवानी के जोश में आए लोग तो ‘बल खा के पिएंगे’ में बह जाते। बह जाते मीनू की बल खाती, धकियाती ‘हिप मूवमेंट्स’ के हिलकोरों मे। बढ़ियाई नदी की तरह उफनाई छातियों के हिमालय में खो जाते। खो जाते उस के अलस अलकों के जाल में। और जो इस पर कोई टू-टपर करे तो बाहों की आस्तीनें मुड़ जातीं। छूरे, कट्टे निकल आते। पिस्तौलें, राइफलें तन जातीं। फिर दौड़ कर आते पुलिस वाले, दौड़ कर आते कुछ ‘सभ्य, शरीफ और जिम्मेदार लोग’ तब जा के यह जवानी का ज्वार बमुश्किल थमता। पर ‘झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे....।’ का बुखार नहीं उतरता।
एक बार तो अजब ही हो गया। कुछ बांके इतने बऊरा गए कि मीनू के मादक डांस पर ऐसे हवाई फायरिंग करने लगे गोया फायरिंग नहीं संगत कर रहे हों। फायरिंग करते-करते वह बांके मंच पर चढ़ने लगे तो पुलिस ने ‘हस्तक्षेप’ किया। पुलिस भी मंच पर चढ़ गई। सबके हथियार कब्जे में कर लिए और बांकों को मंच से नीचे उतार दिया। तो भी अफरा तफरी मची रही। डांसर मीनू को मंच पर एक दारोगा ने भीड़ से बचाया। बचाते-बचाते वह अंततः मीनू पर खुद ही स्टार्ट हो गया। हिप, ब्रेस्ट, गाल, बाल सब पर रियाज मारने लगा। और जब एक बार मीनू को लगा कि भीड़ कुछ करे न करे, यह दारोगा इसी मंच पर जहां वह अभी-अभी नाची थी उसे जरूर नंगा कर देगा। तो वह अफनाई उकताई अचानक जोर से चिल्लाई, ‘भाइयों इस दारोगा से मुझे बचाओ!’ फिर तो बौखलाई भीड़ उस दारोगा पर पिल पड़ी। मीनू तो बच गई उस सार्वजनिक अपमान से पर दारोगा की बड़ी दुर्गति हो गई। पहले राउंड में उसके बिल्ले, बैज, टोपी गई। फिर रिवाल्वर गया और अंततः उसकी देह से वर्दी से लगायत बनियान तक नुच-चुथ कर गशयब हो गई। अब वह था और उसका कच्छा था जो उसकी देह को ढंके हुए था। फिर भी वह मुसकुरा रहा था। ऐसे गोया सिकंदर हो। इस लिए कि वह खूब पिए हुए भी था। उसको वर्दी, रिवाल्वर, बैज, बिल्ला, टोपी आदि की याद नहीं थी। क्यों कि वह तो मीनू के मादक देह स्पर्श में जहां तहां नहाया हुआ मुसकुराता ऐसे खड़ा था, गोया वह जीता जागता आदमी नहीं, स्टैच्यू हो।
यहां रिहर्सल में मीनू के साथ लोक कवि भी लगभग वही कर रहे थे जो मंच पर तब दारोगा ने किया था। पर मीनू न तो यहां अफनाई दिख रही थी, न उकताई। खीझ और खुशी की मिली जुली रेखाएं उसके चेहरे पर तारी थीं। इसमें भी खीझ कम थी और खुशी ज्यादा।
खुशी ग्लैमर और पैसे की। जो लोक कवि की कृपा से ही उसे मयस्सर हुई थी। हालां कि यह खुशी, पैसा और ग्लैमर उसे उसकी कला की बदौलत नहीं, कला के दुरुपयोग के बल पर मिली थी। लोक कवि की टीम की यह ‘स्टार’ अश्लील और कामुक डांस के नित नए कीर्तिमान रचती जा रही थी। इतना कि वह अब औरत से डांसर, डांसर से सेक्स बम में तब्दील हो चली थी। इस स्थिति में वह खुद को घुटन में घसीटती हुई बाहर-बाहर चहचहाती रहती। चहचहाती और जब तब चिहुंक पड़ती। चिहुंकती तब जब उसे अपने बेटे की याद आ जाती। बेटे की याद में कभी-कभी तो वह बिलबिला कर रोने लगती। लोग बहुत समझाते, चुप कराते पर वह तो किसी बढ़ियाई नदी की तरह बहती जाती। वह पति, परिवार सब कुछ भूल भुला जाती लेकिन बेटे को ले कर बेबस थी। भूल नहीं पाती।
यह खुशी, पैसा और ग्लैमर मीनू ने बेटे से बिछड़ने की कीमत पर बटोरा था।
बिछड़ी तो वह पति से भी थी। लेकिन पति की कमी ख़ास कर देह के स्तर पर पूरी करने वाले मीनू के पास ढेरों पुरुष थे। हालां कि पति वाली भावनात्मक सुरक्षा की कमी भी उसे अखरती थी, इतना कि कभी-कभी तो वह विक्षिप्त सी हो जाती। तो भी देह में शराब भर कर वह उस गैप को पूरा करने की कोशिश करती। किसी-किसी कार्यक्रम के दौरान कभी-कभार यह तनाव ज्यादा हो जाता, शराब ज्यादा हो जाती, ज्यादा चढ़ जाती तो वह होटल के अपने कमरे से छटपटाती बाहर आ जाती और डारमेट्री में जा कर खुले आम किसी ‘भुखाए’ साथी कलाकार को पकड़ बैठती। कहती, ‘मुझे कस के रगड़ दो, जो चाहे कर लो, जैसे चाहो कर लो लेकिन मेरे कमरे में चलो!’
तो भी उसकी देह संतुष्ट नहीं होती। वह दूसरा, तीसरा साथी ढूंढ़ती। भावनात्मक सुरक्षा का सुख फिर भी नहीं मिलता। वह तलाशती रहती निरंतर। पर न तो देह का नेह पाती, न मन का मेह। एक डिप्रेशन का दंश उसे डाहता रहता।
मीनू मध्य प्रदेश से चल कर लखनऊ आई थी। पिता उसके बरसों से लापता थे। बड़ा भाई पहले लुक्कड़ हुआ, फिर पियक्कड़ हो गया। हार कर मां ने सब्जी बेचनी शुरू की पर मीनू की कलाकार बनने की धुन नहीं गई। वह रेडियो, टी.वी. में कार्यक्रमों ख़ातिर चक्कर काटते-काटते एक ‘कल्चरल ग्रुप’ के हत्थे चढ़ गई। यह कल्चरल ग्रुप भी अजब था। सरकारी आयोजनों में एक साथ डांडिया, कुमायूंनी, गढ़वाली, मणिपुरी, संथाली नृत्य के साथ-साथ भजन, गजल कौव्वाली जैसे किसी कार्यक्रम की डिमांड तुरंत परोस देता था।
तो उस संस्था ने मीनू को भी अपने ‘मीनू’ में शुमार कर लिया। वह जब-तब इस संस्था के कार्यक्रमों में बुक होने लगी। बुक होते-होते वह उमेश के फेरे में आते-आते उसकी बांहों में दुबकने लगी। बाहों में दुबकते-दुबकते उसके साथ कब सोने भी लगी यह वह खुद भी नहीं नोट कर पाई। पर यह जरूर था कि उमेश जो उस संस्था में गिटार बजाता था, वह अब गिटार के साथ-साथ मीनू को भी साधने लगा। मीनू की यह फिसलन कोई पहली फिसलन नहीं थी। उमेश उसकी जिश्ंदगी में तीसरा या चौथा था। तीसरा कि चौथा वह इस नाते तय नहीं कर पाती थी कि पहली बार जिसके मोहपाश में वह बंधी वह सचमुच उसका प्यार था। पहले आंखें मिलीं फिर वह दोनों भी मिलने लगे पर कभी संभोग के स्तर पर नहीं मिले। चूमा चाटी तक ही रह गए दोनों। ऐसा नहीं कि संभोग मीनू के लिए कोई टैबू था या वह चाहती नहीं थी। बल्कि वह तो आतुर थी। पर स्त्राी सुलभ संकोच में कुछ कह नहीं पाई और वह भी संकोची था। फिर कोई जगह भी उपलब्ध नहीं हुई तब दोनों को इस लिए वह देह के स्तर पर नहीं मिल पाए। मन के स्तर पर ही मिलते रहे फिर वह ‘नौकरी’ करने मुंबई चला गया और मीनू बिछुड़ कर लखनऊ रह गई। सो उसे भी वह अपनी जिंदगी में आया पुरुष मानती थी और नहीं भी। दूसरा पुरुष उसकी जिंदगी में आकाशवाणी का एक पैक्स था जिसने उसे वहां ऑडीशन में पास कर गाने को मौकष दिया था। बाद में वह उसकी आर्थिक मदद पर भी उतर आया और बदले में उसका शारीरिक दोहन करता। नियमित। इसी बीच वह दो बार गर्भवती भी हुई। दोनों बार उसे एबॉर्शन करवाना पड़ा और तकलीफ, ताने भी भुगतने पड़े सो अलग। बाद में उस पैक्स ने ही उसे कापर टी लगवा लेने की तजवीज दी। शुरू में तो वह ना नुकुर करती रही पर बाद में वह मान गई।
कापर टी लगवा लिया।
शुरू में कुछ दिक्कत हुई। पर बाद में उसे इस सुविधा की निश्चितता ने उन्मुक्त बना दिया। और दूरदर्शन में भी उसने इसी ‘दरवाजे’ से बतौर गायिका एंट्री ले ली। यहां एक असिस्टेंट डायरेक्टर उसका शोषक-पोषक बना। लेकिन दूरदर्शन पर दो कार्यक्रमों के बाद उसका मार्केट रेट ठीक हो गया कार्यक्रमों में। और वह टीवी. अर्टिस्ट कहलाने लगी सो अलग। बाद में इस असिस्टेंट डायरेक्टर का तबादला हो गया तो वह दूरदर्शन में अनाथ हो गई। आकाशवाणी का क्रेज पहले ही ख़त्म हो चुका था सो वह इस कल्चरल ग्रुप के हत्थे चढ़ गई। और इस कल्चरल ग्रुप में भी अब उमेश से दिल और देह दोनों निभा रही थी। कापर टी का संयोग कभी दिक्कत नहीं होने देता था। तो भी वह सपने नहीं जोड़ती थी। देह सुख से तीव्रतर सुख के आगे सपने जोड़ना उसे सूझा भी नहीं। उमेश हमउम्र था सुख भी भरपूर देता था। देह सुख में वह गोते पहले भी लगा चुकी थी पर आकाशवाणी का वह पैक्स और दूरदर्शन का वह असिस्टेंट डायरेक्टर उसकी देह में नेह नहीं भर पाते थे, दूसरे उसे हरदम यही लगता कि यह दोनों उसका शोषण कर रहे हैं। तीसरे, वह दोनों उसकी उम्र से ड्योढ़े दुगुने बड़े थे, अघाए हुए थे, सो उनमें खुद भी देह की वह ललक या भूख नहीं थी, तो वह मीनू की भूख कहां से मिटाते? वह तो उन के लिए खाने में सलाद, अचार का कोई एक टुकड़ा सरीखी थी। बस! फिर वह दोनों उसे भोगने में समय भी बहुत जाया करते थे। मूड बनाने और स्तंभन में ही वह ज्यादा समय खर्च डालते जब कि मीनू को जल्दी होती। पर प्रोग्राम और पैसे की ललक में वह उन्हें बर्दाश्त करती। लेकिन उमेश के साथ ऐसा नहीं था। उसके साथ वह कोई स्वार्थ या विवशता नहीं जी रही थी। हमउम्र तो वह था ही सो उसे न मूड बनना पड़ता था, न स्तंभन की फजीहत थी। चांदी ही चांदी थी मीनू की। लेकिन हो यह गया था कि मीनू का उमेश के साथ रपटना देख कई और भी उसके फेरे मारने लगे थे। उमेश को यह नागवार गुजरता। लेकिन उमेश को सिर्फ नागवार गुजरने भर से तो कोई मानने वाला था नहीं। दो चार लोगों से इस फेर में उसकी कहा सुनी भी हो गई। तो भी बात थमी नहीं। वह हार गया और मीनू को कोई और भी चाहे यह उसे मंजूर नहीं था। तब वह गाना भी गाता था, ‘तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी।’ लेकिन मीनू तो थी ही खिलंदड़ और दिलफेंक। तिस पर उसका हुस्न, उसकी नजाकत, उसकी उम्र किसी को भी उसके पास खींच लाती। उसकी कटोरे जैसी कजरारी मादक आंखें किसी भी को दीवाना बना देतीं। और वह भी हर किसी दीवाने को लिफ्श्ट दे देती। साथ बैठ जाती, हंसने-बतियाने लगती। ‘गैर के दिल को सराहोगी तो मुश्किल होगी।’ उमेश का गाया उसके कानों में नहीं समाता।
तो उमेश पगला जाता।
अंततः एक दिन उसने मीनू से शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। प्रस्ताव सुनते ही मीनू हकबका गई। बात मम्मी पर डाल कर टालना चाहा। पर उमेश मीनू को ले कर उसकी मां से भी मिला। और मिलते-मिलते बात आखि़र बन गई। मीनू भी उमेश को चाहती थी पर शादी तुरंत इस लिए नहीं चाहती थी कि वह अभी बंधन में बंधना नहीं चाहती थी। थोड़ी आजादी के दिन वह और जीना चाहती थी। वह जानती थी कि आज चाहे जितना दीवाना हो उमेश उसका शादी के बाद तो यह खुमारी टूटेगी। और जरूर टूटेगी। अभी यह प्रेमी है तो आसमान के तारे तोड़ता है कल पति होते ही वह ढेरों बंधनों में बांध यह आसमान भी छीन लेगा। तारे कहीं तड़प-तड़प कर दम तोड़ देंगे।
लेकिन यह सोचना उसका सिर्फ वेग में था।
जमीनी सचाई यह थी कि उसे शादी करनी थी। उसकी मां राजी थी। और जल्दी भी दो वजहों से थी। कि एक तो यह शादी बिना लेन देन की थी दूसरे, मीनू से तीन साल छोटी उसकी एक बहन और थी बीनू, उसकी भी शादी की चिंता उसकी मां को करनी थी। मीनू तो कलाकार हो गई थी, चार पैसे जैसे भी सही कमा रही थी, पर बीनू न तो कमा रही थी, न कलाकार थी सो मीनू से ज्यादा चिंता उसकी मां को बीनू की थी।
सो आनन फानन मीनू और उमेश की शादी हो गई। उमेश का छोटा भाई दिनेश भी शादी में आया और बीनू पर लट्टू हो गया। जल्दी ही बीनू और दिनेश की भी शादी हो गई।
शादी के बाद दिनेश भी उमेश और मीनू के साथ प्रोग्राम में जाने लगा। उमेश गिटार बजाता था, दिनेश भी धीरे-धीरे बैंजो बजाने लगा। माइक, साउंड बाक्स की साज संभाल, साउंड कंट्रोल वगैरह भी समय बेसमय वह कर लेता था। कुछ समय बाद उसने बीनू को भी प्रोग्राम में ले जाना शुरू किया। बीनू भी कोरस में गाने लगी, समूह में नाचने लगी। लेकिन मीनू वाली लय, ललक, लोच और लौ बीनू में नदारद थी। सुर भी वह ठीक से नहीं लगा पाती थी। तो भी कुछ पैसे मिल जाते थे सो वह प्रोग्रामों में जा कर कुल्हा मटका कर ठुमके लगा आती थी। यह भी अजब इत्तफाक था कि मीनू और बीनू की शक्लें न सिर्फ जरूरत से ज्यादा मिलती थीं, बल्कि उमेश और दिनेश की शक्लें भी आपस में बुरी तरह मिलती थीं। इतनी कि जरा दूर से यह दोनों भाई भी इन दोनों बहनों को देख तय करना कठिन पाते थे कि कौन वाली उन की है। यही हाल मीनू और बीनू उमेश, दिनेश को जरा दूर से देखतीं तो हो जाता। इस सब से सब से ज्यादा नुकसान मीनू का होता। क्यों कि कई बार बीनू द्वारा पेश लचर डांस मीनू के खाते में दर्ज हो जाता। मीनू को इससे अपनी इमेज की चिंता तो होती पर वह कुढ़ती जरा भी नहीं थी।
अभी यह सब चल ही रहा था कि मीनू के दिन चढ़ गए।
ऐसे समय पर अमूमन औरतें खुश होती हैं। पर मीनू उदास हो गई। उसे अपना ग्लैमर समेत कैरियर डूबता नजर आया। उसने उमेश को ताने भी दिए कि क्यों उसने कापर टी निकलवा दिया? फिर सीधे एबॉर्शन करवाने के लिए साथ चलने के लिए कहने लगी। लेकिन उमेश ने एबॉर्शन करवाने पर सख़्त ऐतराज किया। लगभग फरमान जारी करते हुए कहा कि, ‘बहुत हो चुका नाचना गाना। अब घर गृहस्थी संभालो!’ तो भी मीनू ने बड़ा बबाल किया। पर मुद्दा ऐसा था कि उसकी मां से ले कर सास तक ने इस पर उसकी खि़लाफत की। बेबस 
मीनू को चुप लगाना पड़ा। फिर भी उसने प्रोग्रामों में जाना नहीं छोड़ा। उलटियां वगैरह बंद होते ही वह जाने लगी। अब झूम कर नाचना उसने छोड़ दिया था। एहतियातन। वह हलके से दो चार ठुमके लगाती और बाकी काम ब्रेस्ट की अदाओं और आंखों के इसरार से चलाती और ‘मोरा बलमा आइल नैनीताल से’ जैसे गाने झूम कर गाती।
वह मां बनने वाली है यह बात वह जानती थी, उसका परिवार जानता था। बाकी बाहर कोई नहीं।
लेकिन जब पेट थोड़ा बाहर दिखने लगा तो वह चोली घाघरा पहनने लगी और पेट पर ओढ़नी डाल लेती। पर यह तरकीब भी ज्यादा दिनों तक नहीं चली। फिर वह बैठ कर गाने लगी। और अंततः घर बैठ गई।
उसके बेटा पैदा हुआ।
अब वह खुश नहीं, बेहद खुश थी। बेटा जनमना उसे गुरूर दे गया। अब वह उमेश को भी डांटने-डपटने लगी। जब-तब। बेटे के साथ वह अपना ग्लैमर, प्रोग्राम सब कुछ भूल भाल गई। बेसुध उसी में खोई रहती। उसका टट्टी-पेशाब, दूध पिलाना, मालिश, उसको खिलाना, उस से बतियाना, दुलराना ही उसकी दुनिया थी। गाना उसका अब भी नहीं छूटा था। अब वह बेटे के लिए लोरी गाती।
अब वह संपूर्ण मां थी। दिलफेंक और ग्लैमरस औरत नहीं।
कोई देख कर यकीन ही नहीं करता था कि यह वही मीनू है। पर यह भ्रम भी जल्दी ही टूटा। बेटा ज्यों साल भर का हुआ उसने प्रोग्रामों में पेंग मारना शुरू कर दिया। अब ऐतराज सास की ओर से शुरू हुआ। पर उमेश ने इस पर गशैर नहीं किया। इस बीच मीनू की देह पर जरा चर्बी आ गई थी पर चेहरे पर लावण्य और लाली निखार पर थी। नाचते गाते देह की चर्बी भी छंटने लगी थी। पर बेटे को दूध पिलाने से स्तन ढीले पड़ गए थे। इस का इलाज उसने ब्यूटी क्लीनिक जा कर इक्सरसाइज करने और रबर पैड वाले ब्रा से कर लिया था। गरज यह थी कि धीरे-धीरे वह फार्म पर आ रही थी। इसी बीच उसकी ‘कल्चरल ग्रुप’ चलाने वाले कर्ता धर्ता से ठन गई।
वह पहली बार सड़क पर थी। बिना प्रोग्राम के।
वह फिर से दूरदर्शन और आकाशवाणी के फेरे मारने लगी। एक दिन दूरदर्शन गई तो लोक कवि अपना प्रोग्राम रिकार्ड करवा कर स्टूडियो से निकल रहे थे। मीनू ने जब जाना कि यही लोक कवि हैं तो वह लपक कर उन से मिली और अपना परिचय दे कर उन से उन का ग्रुप ज्वाइन करने का इरादा जताया। लोक कवि ने उसे टालते हुए कहा, ‘बाहर ई सब बात नहीं करता हूं। हमारे अड्डे पर आओ। फुर्सत से बात करूंगा। अभी जल्दी में हूं।’
लोक कवि के अड्डे पर वह उसी शाम पहुंच गई। लोक कवि ने पहले बातचीत में ‘आजमाया’ फिर उसका नाचना गाना भी देखा। महीना भर फिर भी दौड़ाया। और अंततः एक दिन लोक कवि उस पर न सिर्फ पसीज गए बल्कि उस पर न्यौछावर हो गए। उसे लिटाया, चूमा-चाटा और संभोग सुख लूटने के बाद उस से कहा, ‘आती रहो, मिलती रहो!’ फिर उसे बांहों में भरते हुए चूमा और उसके कानों में फुसफुसाए, ‘तुमको स्टार बना दूंगा।’ फिर जोड़ा, ‘बहुत सुख देती हो। ऐसे ही देती रहो।’ फिर तो लोक कवि के यहां आते-जाते मीनू उन की म्यूजिकल पार्टी में भी आ गई। और धीरे-धीरे सचमुच वह उन की टीम की स्टार कलाकार बन गई। टीम की बाकी औरतें, लड़कियां उस से जलने लगीं। लेकिन लोक कवि का चूंकि उसे ‘आशीर्वाद’ प्राप्त था सो सबकी जलन भीतर ही भीतर रहती, मुखरित नहीं होती। सिलसिला चलता रहा। इस बीच लोक कवि ने उसे शराबी भी बना दिया। शुरू-शुरू में जब लोक कवि ने एक रात सुरूर में उसे शराब पिलाई तो पहले तो वह नहीं, नहीं करती रही। कहती रही, ‘मैं औरत हूं। मेरा शराब पीना शोभा नहीं देगा।’
‘क्या बेवकूफी की बात करती हो?’ लोक कवि मनुहार करते हुए बोले, ‘अब तुम औरत नहीं आर्टिस्ट हो। स्टार आर्टिस्ट।’ उन्हों ने उसे चूमते हुए जोड़ा, ‘और फिर शराब नहीं पियोगी तो आर्टिस्ट कैसे बनोगी?’ कह कर उस रात उसे जबरदस्ती दो पेग पिला दिया। जिसे बाद में मीनू ने उलटियां करके बाहर निकाल दिया। उस रात वह घर नहीं गई। लोक कवि की बांहों में बेसुध पड़ी रही। उस रात लोक कवि ने उसकी योनि को जब अपनी जीभों से नवाजा तो वह एक नए सुखलोक में पहुंच गई।
दूसरी सुबह जब वह घर पहुंची तो उमेश ने रात लोक कवि के अड्डे पर रुकने पर बड़ा ऐतराज जताया। पर मीनू ने उस ऐतराज की कुछ बहुत नोटिस नहीं ली। बोली, ‘तबीयत ख़राब हो गई तो क्या करती?’
फिर रात भर की जगी वह सो गई।
अब तक मीनू न सिर्फ लोक कवि की म्यूजिक पार्टी की स्टार थी बल्कि लोक कवि के आडियो कैसेटों के जाकेटों पर भी उसकी फाेटो प्रमुखता से छपने लगी थी। अब वह स्टेज और कैसेट दोनों बाजार में थी और जाहिर है कि बाजार में थी तो पैसे की भी कमी नहीं रह गई थी उसके पास। रात-बिरात कभी भी लोक कवि उसे रोक लेते और वह बिना ना नुकुर किए मुसकुरा कर रुक जाती। कई बार लोक कवि मीनू के साथ-साथ किसी और लड़की को भी साथ सुलाते तो भी वह बुरा नहीं मानती। उलटे ‘कोआपेरट’ करती। उसके इस ‘कोआपरेट’ का जिक्र लोक कवि खुद भी कभी कभार मूड में कर जाते। इस तरह किसी न किसी बहाने मीनू पर लोक कवि के ‘उपकार’ बढ़ते जाते। लोक कवि के इन उपकारों से मीनू के घर में समृद्धि आ गई थी पर साथ ही उसके दांपत्य में न सिर्फ खटास आ गई थी, बल्कि उसकी चूलें भी हिल गई थीं। हार कर उमेश ने सोचा कि एक और बच्चा पैदा करके ही मीनू के पांव बांधे जा सकते हैं। सो एक और बच्चे की इच्छा जताते हुए मीनू से कापर टी निकलवाने की बात किसी भावुक क्षण में उमेश ने कह दी तो मीनू भड़क गई। बोली, ‘एक बेटा तो है।’
‘पर अब वह पांच छः साल का हो गया है।’
‘तो?’
‘अम्मा भी चाहती हैं कि एक और बच्चा हो जाए जैसे दिनेश के दो बच्चे हैं, वैसे ही।’
‘तो अपनी अम्मा से कहो कि अपने साथ तुमको सुला लें फिर एक बच्चा और पैदा कर लें?’
‘क्या बकती हो?’ कहते हुए उमेश ने उसे एक जोर का थप्पड़ मारा। बोला, ‘इतनी बत्तमीज हो गई हो!’
‘इसमें बत्तमीजी की क्या बात है?’ पासा पलटती हुई मीनू नरम और भावुक हो कर बोली, ‘तुम अपनी अम्मा के बच्चे नहीं हो ? और उन के साथ सो जाओगे तो बच्चे नहीं रहोगे?’
‘तुम तब यही कह रही थी?’ उमेश बौखलाहट पर काबू करते हुए बोला।
‘और नहीं तो क्या?’ वह बोली, ‘बात समझे नहीं और झापड़ मार दिया। आइंदा कभी हम पर हाथ मत उठाना। बताए देती हूं।’ आंखें तरेर कर वह बोली। और बैग उठा कर चलते-चलते बोली, ‘रिहर्सल में जा रही हूं।’
लेकिन उमेश ने उस दिन किसी घायल शेर की तरह गांठ बांध ली कि मीनू को एक न एक दिन लोक कवि की टीम से निकाल कर ही वह दम लेगा। चाहे जैसे। कई तरकीबें, शिकायतें उसने भिड़ाई पर वह कामयाब नहीं हुआ। कामयाब होता भी भला कैसे ? लोक कवि के यहां मीनू की गोट इतनी पक्की थी कि कोई शिकायत, कोई राजनीति, उसका कोई खोट भी लोक कवि को नहीं दीखता। दीखता भी भला कैसे ?
वह तो इन दिनों लोक कवि की पटरानी बनी इतराती फिरती रहती।
वह तो घर भी नहीं जाती। पर हार कर जाती तो सिर्फ बेटे के मोह में। बेटे की ख़ातिर। और इसी लिए वह दूसरा बच्चा नहीं चाहती थी कि फिर फंसना पड़ेगा, फिर बंधना पड़ेगा। यह ग्लैमर, यह पैसा फिर लौट कर मिले न मिले क्या पता ? वह सोचती और दूसरे बच्चे के ख़याल को टाल जाती। पर उमेश ने यह ख़याल नहीं टाला था। एक रात चरम सुख लूटने के बाद उसने आखि़र फिर यह बात धीरे-धीरे ही सही फिर चला दी। पहले तो मीनू ने इस बात को बिन बोले अनसुना कर दिया। पर उमेश फिर भी लगातार, ‘सुनती हो, सुन रही हो’ के संपुट के साथ बच्चे का पहाड़ा रटने लगा तो वह आजिश्ज आ गई। फिर भी बात को टालती हुई धीरे से बुदबुदाई, ‘सो जाओ, नींद आ रही है।’
‘जब कोई जरूरी बात करता हूं तो तुम्हें नींद आने लगती है।’
‘चलो सुबह बात करेंगे।’ वह अलसाती हुई बुदबुदाई।
‘सुबह नहीं, अभी बात करनी है।’ वह लगभग फैष्सला देते हुए बोला, ‘सुबह तो डाक्टर के यहां चलना है।’
‘सुबह हमें हावड़ा पकड़नी है प्रोग्राम में जाना है।’ वह फिर बुदबुदाई।
‘हावड़ा नहीं पकड़नी है, कोई प्रोग्राम में नहीं जाना है।’
‘क्यों?’
‘डाक्टर के यहां चलना है।’
‘डाक्टर के यहां तुम अकेले हो आना।’
‘अकेले क्यों? काम तो तुम्हारा है।’
‘हमें कोई बीमारी नहीं है। हम का करेंगे डाक्टर के यहां जा कर।’ अब की वह जरा जोर से बोली।
‘बीमारी है तुम्हें।’ उमेश पूरी कड़ाई से बोला।
‘कौन सी बीमारी?’ अब तक मीनू की आवाज भी कड़ी हो गई थी।
‘कापर टी की बीमारी।’
‘क्या?’
‘हां!’ उमेश बोला, ‘यही कल सुबह डाक्टर के यहां निकलवाना है।’
‘क्यों?’ वह तड़कती हुई बोली, ‘क्या फिर दूसरे बच्चे का सपना दीख गया?’
‘हां, और हमें यह सपना पूरा करना है।’
‘क्यों?’ वह बोली, ‘किस दम पर?’
‘तुम्हारा पति होने के दम पर!’
‘किस बात के पति?’ वह गरजी, ‘कमा के न लाऊं तो तुम्हारे घर में दोनों टाइम चूल्हा न जले, और यह कूलर, फ्रिज, कालीन, सोफा, डबल बेड यहां तक की तुम्हारी मोटर साइकिल भी नहीं दिखे!’
‘क्यों मैं भी कमाता हूं।’
‘जितना कमाते हो उतना तुम भी जानते हो।’
‘इधर-उधर जाने से तुम्हारी बोली और आदतें ज्यादा ही बिगड़ गई हैं।’
‘क्यों न जाऊं?’ वह चमक कर बोली, ‘तुम्हारे वश की तो अब मैं भी नहीं रही। महीने में दो चार बार आ जाते हो कांखते-पादते तो समझते हो बड़े भारी मर्द हो। और बोलते हो कि पति हो।’ वह रुकी नहीं बोलती रही, ‘सुख हमको दे नहीं सकते, चूल्हा चौका चला नहीं सकते और कहते हो कि पति हो! किस बात के पति हो जी तुम?’ वह बोली, ‘शराब भी तुम्हारी मेरी कमाई से चलती है। और क्या-क्या कहूं? क्या-क्या उलटू-उघाड़ू?
‘लोक कवि ने तुमको छिनार बना दिया है। कल से तुम्हारा उसके यहां जाना बंद!’
‘क्यों बंद? किस बात के लिए बंद? फिर तुम होते कौन हो मेरा कहीं जाना बंद करने वाले?’
‘तुम्हारा पति!’
‘तुम मेरे कितने पति हो, जरा  अपने दिल पर हाथ रख कर पूछो।’
‘क्या कहना चाहती हो आखि़र तुम?’ उमेश बिगड़ता हुआ बोला।
‘यही कि अपना गिटार बजाओ। कहो तो गुरु जी से कह कर उन की टीम में फिर रखवा दूं। चार पैसा मिलेगा ही। और जरा अपनी शराब पर काबू कर लो!’
‘मुझे नहीं जाना तुम्हारे उस भड़वे गुरु जी के यहां जो अफसरों, नेताओं को लौड़िया सप्लाई करता है। जिस साले ने हमारी जिंदगी नरक कर दी। तुम्हें हमसे छीन लिया है।’
‘हमारी जिंदगी नरक नहीं की है गुरु जी ने। हमारी जिंदगी बनाई है। ये कहो।’
‘यह तुम्हीं कहो!’
‘क्यों नहीं कहूंगी।’ वह भावुक होती हुई बोली, ‘हमको तो ये शोहरत, ये पैसा उन्हीं की बदौलत मिली है। गुरु जी ने हमको कलाकार से स्टार कलाकार बनाया है।’
‘स्टार कलाकार नहीं, स्टार रंडी बनाया है।’ उमेश गरजा, ‘ये कहो ना! कहो ना कि स्टार रखैल बनाया है तुमको!’
‘अपनी जबान पर कंट्रोल करो!’ मीनू भी गरजी, ‘क्या-क्या अनाप शनाप बके जा रहे हो?’
‘बक नहीं रहा हूं, ठीक कह रहा हूं।’
‘तो तुम हमको रंडी, रखैल कहोगे?’
‘हां, रंडी, रखैल हो तो कहूंगा।’
‘मैं तुम्हारी बीवी हूं।’ वह आहत भाव से बोली, ‘तुम्हें ऐसा कहते हुए शर्म नहीं आती?’
‘आती है। तभी कह रहा हूं।’ वह बोला, ‘और फिर किस-किस को शर्म दिलाओगी? किस-किस के मुंह बंद कराओगी?’
‘तुम बहुत गिरे हुए आदमी हो।’
‘हां, हूं।’ वह बोला, ‘गिर तो उसी दिन गया था जिस दिन तुमसे शादी की।’
‘तो तुम्हें मुझसे शादी करने का पछतावा है?’
‘बिलकुल है।’
‘तो छोड़ क्यों नहीं देते?’
‘बेटा रोक लेता है, नहीं छोड़ देता।’
‘फिर कोई पूछेगी भी?’
‘हजारों है पूछने वालियां?’
‘अच्छा?’
‘तो?’
‘तो भी हमें रंडी कहते हो।’
‘कहता हूं।’
‘कुत्ते हो।’
‘तू कुतिया है।’ वह बोला, ‘बेटे की चिंता न होती तो इसी दम छोड़ देता तुझे।’
‘बेटे की बड़ी चिंता है?’
‘आखि़र मेरा बेटा है?’
‘यह किस कुत्ते ने कह दिया कि ये तेरा बेटा है?’
‘दुनिया जानती है कि मेरा बेटा है।’
‘बेटा तूने जना है कि मैंने?’ वह बोली, ‘तो मैं जानती हूं कि इस का बाप कौन है, कि तू?’
‘क्या बक रही है?’
‘ठीक बक रही हूं।’
‘क्या?’
‘हां, ये तेरा बेटा नहीं है।’ वह बोली, ‘तू इस का बाप नहीं है।’
‘हे माधरचोद, तो यह किसका पाप है, जो मेरे मत्थे मढ़ दिया?’ कह कर उमेश उस पर किसी गिद्ध की तरह टूट पड़ा। उसके बाल पकड़ कर खींचते हुए उसे लातों, जूतों मारने लगा। जवाब में मीनू ने भी हाथ पांव चलाए लेकिन उमेश के आगे वह पासंग भी नहीं ठहरी और बुरी तरह पिट गई। पति से तू-तू, मैं-मैं करना मीनू को बड़ा भारी पड़ गया। मार पीट से उसका मुंह सूज गया, होठों से खून बहने लगा। हाथ पैर भी छिल गए। और तो और उसी रात उसे घर भी छोड़ना पड़ा। अपने थोड़े बहुत कपड़े लत्ते बटोरे, ब्रीफकेस में भरा रिक्शा लिया। मेन रोड पर आ कर रिक्शा छोड़ टेंपो लिया और पहुंच गई लोक कवि के कैंप रेजीडेंस पर। कई बार काल बेल बजाने पर लोक कवि के नौकर बहादुर ने दरवाजा खोला। मीनू को देखते ही वह चौंक पड़ा। बोला, ‘अरे आप भी आ गईं?’
‘क्यों?’ पति का सारा गुस्सा बहादुर पर उतारती हुई मीनू गरजी।
‘अरे नहीं, हम तो इश लिए बोला कि दो मेमशाब लोग पहले ही से भीतर हैं।’ मीनू की गरज से सहमते हुए बहादुर बोला।
‘तो क्या हुआ?’ थोड़ी ढीली पड़ती हुई मीनू ने बहादुर से धीरे से पूछा, ‘कौन-कौन हैं?’
‘शबनम मेमशाब और कपूर मेमशाब।’ बहादुर खुसफुसा कर बोला।
‘कोई बात नहीं।’ ब्रीफकेस बरामदे में पटकती हुई मीनू बोली।
‘कौन है रे बहादुर!’ अपने कमरे से लोक कवि ने चिल्ला कर पूछा, ‘बड़ा खड़बड़ मचाए हो?’
‘हम हैं गुरु जी!’ मीनू कमरे के दरवाजेश् के पास जा कर धीरे से बोली।
‘कौन?’ महिला स्वर सुन कर लोक कवि अचकचाए। यह सोच कर कि कहीं उन की धर्मपत्नी तो नहीं आ गईं? फिर सोचा कि उसकी आवाज तो बड़ी कर्कश है। और यह आवाज तो कर्कश नहीं है। वह अभी असमंजस में पड़े यही सब सोच रहे थे कि तभी वह फिर धीरे से बोली, ‘मैं हूं मीनू गुरु जी!’
‘मीनू?’ लोक कवि फिर अचकचाए और बोले, ‘तुम और इतनी रात को?’
‘हां, गुरु जी।’ वह अपराधी भाव से बोली, ‘माफ कीजिए गुरु जी।’
‘अकेली हो कि कोई और भी है ?’
‘अकेली हूं गुरु जी।’
‘अच्छा रुको अभी आता हूं।’ कह कर लोक कवि ने जांघिया ढूंढ़ना शुरू किया। अंधेरे में। नहीं मिला तो वह बड़बड़ाए, ‘हे शबनम! लाइट जला!’
पर शबनम मुख मैथुन के बाद उन के पैरों के पास लेटी पड़ी थी। लेटे-लेटे ही सिर हिलाया। पर उठी नहीं। लोक कवि फिर भुनभुनाए, ‘सुन नहीं रही हो का? अरे, उठो शबनम! देखो मीनू आई है। बाहर खड़ी है। लगता है उस पर कोई आफत आई है!’ शबनम लेकिन ज्यादा नशे में भी थी सो वह उठी नहीं। कुनमुना कर रह गई। अंततः लोक कवि उसे एक तरफ हटाते हुए उठे कि उन का एक पैर नीता कपूर पर पड़ गया। वह चीख़ी, ‘हाय राम !’ लेकिन धीरे से। लोक कवि फिर बड़बड़ाए, ‘तुम भी अभी यहीं हो ? तुम तो कह रही थी चली जाऊंगी।’
‘नहीं गुरु जी का करें आलस लग गया। नहीं गई। अब सुबह जाऊंगी। वह अलसाई हुई बोली।
‘अच्छा चलो उठो!’ लोक कवि बोले, ‘लाइट जलाओ!’
‘क्यों?’
‘मीनू आई है। बाहर खड़ी है!’
‘मीनू को भी बुलाया था?’ नीता बोली, ‘अब आप कुछ कर भी पाएंगे?’
‘क्या जद-बद बकती रहती हो।’ वह बोले, ‘बुलाया नहीं था, अपने आप आई है। लगता है कुछ समस्या में है!’
‘तो इसी बिस्तर पर वह भी सोएंगी?’ नीता कपूर भुनभुनाई, ‘जगह कहां है?’
‘लाइट नहीं जला रही है रंडी तभी से बकबक-बकबक बहस कर रही है!’ कहते हुए लोक कवि भड़भड़ा कर उठे और लाइट जला दिया। लाइट जलाते ही दोनों लड़कियां कुनमुनाईं पर नंग धडंग पड़ी रहीं।
लोक कवि ने दोनों की देह पर चादर डाला, जांघिया नहीं मिला तो अंगोछा लपेटा, कुरता पहना और कमरे का दरवाजा खोला। मीनू को देखते ही वह सन्न हो गए। बोले, ‘ई चेहरा कइसे सूज गया? कहीं चोट लगा है कि कहीं गिर गई?’
‘नहीं गुरु जी!’ कहते हुए मीनू रुआंसी हो गई।
‘तो कोई मारा है का?’
लोक कवि ने पूछा तो मीनू बोली नहीं पर सिर हिला कर स्वीकृति दी। तो लोक कवि बोले, ‘किसने? का तेरे मरद ने?’ मीनू अबकी फिर नहीं बोली, सिर भी नहीं हिलाया और फफक कर रोने लगी। रोते-रोते लोक कवि से लिपट गई। रोते-रोते बताया, ‘बहुत मारा।’
‘कौने बात पर?’
‘मुझे रंडी कहता है।’ वह बोली, ‘कहता है आप की रखैल हूं।’ बोलते-बोलते उसका गला रूंध गया और वह फिर फफक कर रोने लगी।
‘बड़ा लंठ है।’ लोक कवि बिदकते हुए बोले। फिर उसके घावों को देखा, उसके बाल सहलाए, सांत्वना दी और कहा कि, ‘अब कोई दवा तो यहां है नहीं। घाव को शराब से धो देता हंू और तुम दू तीन पेग पी लो, दर्द कुछ कम हो जाएगा, नींद आ जाएगी। कल दिन में डाक्टर को दिखा देना। बहादुर को साथ ले लेना।’ वह बोले, ‘हम लोग तो सुबह गाड़ी पकड़ कर पोरोगराम में चले जाएंगे।’
‘मैं भी आप के साथ चलूंगी।’
‘अब ई सूजा हुआ यह फुटहा मुंह ले कर कहां चलोगी?’ लोक कवि बोले, ‘भद्द पिटेगी। यहीं आराम करो। पोरोगराम से वापिस आऊंगा तब बात करेंगे।’ कह कर वह शराब की बोतल उठा लाए और मीनू के घाव शराब से धोने लगे।
‘गुरु जी, अब मैं कुछ दिन यहीं रहूंगी, जब तक कोई और इंतजाम नहीं हो जाता।’ वह जरा दबी जबान बोली।
लोक कवि कुछ नहीं बोले। उसकी बात लगभग पी गए।
‘आप को कोई ऐतराज तो नहीं है गुरु जी।’
‘हम को काहें ऐतराज होगा?’ लोक कवि बोले, ‘ऐतराज तुम्हारे मर्द को होगा।’
‘ऊ  तो हम को आप की रखैल कह ही रहा है।’
‘क्या बेवकूफी की बात कर रही हो?’
‘मैं कहती हूं कि आप मुझ को अपनी रखैल बना लीजिए।’
‘दिमाग तुम्हारा ख़राब हो गया है।’
‘क्यों?’
‘क्यों क्या ऐसे हम किस-किस को रखैल बनाता फिरूंगा।’ वह बोले, ‘लखनऊ में रहता हूं तो इस का का मतलब हम वाजिद अली शाह हूं?’ वह बोले, ‘हरम थोड़े बनाना है। ऐसे आती-जाती रहो यही ठीक है। आज तुम को रख लूं कल को यह दोनों जो लेटी हैं इन को रख लूं परसों और रख लूं फिर तो मैं बरबाद हो जाऊंगा। हम नवाब नहीं हूं। मजूर हूं। गा बजा के मजूरी करता हूं। अपना पेट चलाता हूं और तुम लोगों का भी। हां, थोड़ा मौज मजा भी कर लेता हूं तो इस का मतलब ई थोड़े है कि....?’ सवाल अधूरा सुना कर लोक कवि चुप हो गए।
‘तो यहां नहीं रहने देंगे हम को?’ मीनू लगभग गिड़गिड़ाई।
‘रहने को कौन मना किया?’ वह बोले, ‘तुम तो रखैल बनने को कह रही थी।’
‘मैं नहीं गुरु जी मेरा मरद कहता है तो मैंने कहा कि रखैल बन ही जाऊं।’
‘फालतू बात छोड़ो।’ लोक कवि बोले, ‘कुछ रोज यहां रह लो। फिर हो सके तो अपने मरद से पटरी बैठा लो नहीं कहीं और किराए पर कोठरी दिला दूंगा। सामान, बिस्तर करा दूंगा। पर यहां परमामिंट नहीं रहना है।’
‘ठीक है गुरु जी! जैसा आप कहें।’ मीनू बोली, ‘पर अब उस हरामी के पास मैं नहीं जाऊंगी।’
‘चलो सो जाओ! सुबह टेªन पकड़नी है।’ कह कर लोक कवि खुद बिस्तर पर लेट गए। बोले, ‘तुम भी यहीं कहीं लेट जाओ और बिजली बंद कर दो।’
लाइट बुझ गई लोक कवि के इस कैंप रेजीडेंस की।
यह कैंप रेजीडेंस लोक कवि ने अभी नया-नया बनाया था। क्यों कि वह गैराज अब उन के रहने और रिहर्सल दोनों काम के लायक नहीं रह गया था और घर पर जिस ‘स्टाइल’ और ‘शौक’ से वह रहते थे, रह नहीं सकते थे। और रिहर्सल तो बिलकुल ही संभव नहीं था सो उन्हों ने यह तिमंजिश्ला कैंप रेजीडेंस बनाया। नीचे का एक हिस्सा लोगों के आने-जाने, मिलने जुलने के लिए रखा। पहली मंजिश्ल रिहर्सल वगैरह के लिए और दूसरी मंजिश्ल पर अपने रहने का इंतजाम किया। जब यह कैंप रेजीडेंस उन्हों ने बनवाया तब मुस्तकिल देख रेख नहीं कर पाए। उन के लड़कों और चेलों ने इंतजाम देखा। कोई आर्किटेक्ट, इंजीनियर वगैरह भी नहीं रखा। बस जैसे-जैसे राज मिस्त्राी बताता-बनाता गया वैसे-वैसे ही बना यह कैंप रेजीडेंस। सौंदर्यबोध तो छोड़िए, कमरों और बाथरूम के साइज भी बिगड़ गए। ज्यादा से ज्यादा कमरा बनाने-निकालने के फेर में। सो सारा कुछ पहला तल्ला, दूसरा तल्ला में बिखर-बटुर कर रह गया। नक्शा बिगड़ गया मकान का। लोक कवि कहते भी कि, ‘इन बेवकूफाें के चलते पैसा माटी में मिल गया।’ पर अब जो था, सो था और इसी में काम चलाना था। लोक कवि बाहर आते जाते बहुत कुछ देख चुके थे। उसमें से बहुत कुछ वह अपने इस नए रेजीडेंस में देखना चाहते थे। जैसे कई होटलों में वह बाथटब का आनंद ले चुके थे, लेते ही रहते थे। चाहते थे कि यह बाथटब का आनंद वह अपने इस नए घर में भी लें। पर यह सपना उन का खंडित इस लिए हुआ कि बाथरूम इतने छोटे बने कि उसमें बाथटब की फिटिंग ही नहीं हो सकती थी। तो भी यह सपना उन का खंडित भले हुआ हो पर टूटा नहीं। अंततः वह बाथटब लाए और बाथरूम के बजाय उसे छत पर ही खुले में रखवा दिया। वह उसमें पहले पानी भरवाते पाइप से, फिर लेट जाते। लड़कियां या चेले या बहादुर या जो भी सुविधा से मिल जाए वह उसी में लेटे-लेटे उस से अपनी देह मलवाते। लड़कियां होतीं तो कई बार वह लड़कियों को भी उसमें खींच लेते और जल क्रीड़ा का आनंद लेते। कई बार रात में भी। इस ख़ातिर परदेदारी की गरज से उन्हों ने छत पर रंग बिरंगे परदे टंगवा दिए। लाल, हरे, नीले, पीले। ठीक वैसे ही जैसे कुछ होटलों के सामने विभिन्न रंग के झंडे टंगे होते हैं। पर यह सुरूर ज्यादा दिनों तक नहीं चला। वह जल्दी ही अपने देसीपन पर आ गए। और भरे बाथटब में भी बैठ कर लोटा-लोटा ऐसे नहाते गोया पानी बाथटब से नहीं बाल्टी से निकाल-निकाल नहा रहे हों। लेकिन यह सुरूर उतरते-उतरते उन्हें एक नया शौक चर्राया, धूप में छतरी के नीचे बैठने का। साल दो साल वह सिर्फ इस की चर्चा करते रहे और अंततः छतरी मय प्लास्टिक की मेज सहित ले आए। यह शौक भी अभी उतरा नहीं था कि पेजर का दौर आ गया। तो वह पेजर उन के कुछ बहुत काम का नहीं निकला। पर वह सबको बताते कि, ‘मेरे पास पेजर है। मेरा पेजर नंबर नोट कीजिए।’ पर अभी पेजर की खुमारी ठीक से चढ़ी भी नहीं थी कि मोबाइल फोन आ धमके। जहां-तहां वह इस की चर्चा सुनते। कहीं-कहीं देखते भी। अंततः एक रोज अपनी महफिल में इस का जिक्र वह छेड़ बैठे। बोले, ‘इ मोबाइल-फोबाइल का क्या चक्कर है?’ महफिल में दो तीन कलाकार भी बैठे थे। बोले, ‘गुरु जी ले लीजिए। बड़ा मजा रहेगा। जहां से चाहिए वहां से बात करिए। टेªन में, कार में। और जेश्ब में धरे रहिए। जब चाहिए बतियाइए, जब चाहिए काट दीजिए।’ इस महफिल में चेयरमैन साहब और वह ठाकुर पत्रकार भी जमे हुए थे। पर जितनी मुह उतनी बातें थीं। चेयरमैन साहब ‘मोबाइल-मोबाइल’ सुनते-सुनते उकता गए। लोक कवि से वह मुख़ातिब हुए। घूरते हुए बोले, ‘अब तुम मोबाइल लोगे? का यूज है तुम्हारे पास?’ वह बोले, ‘पइसा बहुत काटने लगा है का?’ पर लोक कवि चेयरमैन साहब की बात को सुन कर भी अनसुना कर गए। कुछ बोले नहीं। तो चेयरमैन साहब भी चुप लगा गए। ह्विस्की की चुस्की और सिगरेट के कश में गुम हो गए। लेकिन तरह-तरह के बखान, टिप्पणियां और मोबाइल के खर्चे की चर्चा चलती रही। पत्रकार ने एक सूचना दी कि, ‘बाकी खर्चे तो अपनी जगह। इसमें सबसे बड़ी आफत है कि जो फोन काल आते हैं उसका भी प्रति काल, प्रति मिनट के हिसाब से पैसा लगता है।’ सभी ने हां में हां मिलाई और इस इनकमिंग काल के खर्चे को सबने ऐसे व्याख्यायित किया गोया हिमालय सा बोझ हो। लोक कवि सबकी बात बड़े गशैर से सुन रहे थे। सुनते-सुनते अचानक वह उछल कर खड़े हो गए। हाथ कान पर ऐसे लगाया गोया हाथ में फोन हो और बच्चों का सा सुरूर और ललक भर कर बोले, ‘तो मैं न कुछ कहूंगा, न कुछ सुनूंगा। बस मोबाइल फोन पास धरे रहूंगा। फिर तो खर्चा नहीं बढ़ेगा न?’
‘मतलब न काल करोगे न काल सुनोगे?’ चेयरमैन साहब भड़क कर बोले, ‘तब का करने के लिए मोबाइल फोन रखोगे जी?’
‘सिर्फ एह मारे कि लोग जानें कि हमारे पास भी मोबाइल है। हमारा भी स्टेटस बना रहेगा। बस !’
‘धत चूतिए कहीं के।’ चेयरमैन साहब के इस संबोधन के साथ ही यह महफिल उखड़ गई थी। क्यों कि चेयरमैन साहब सिगरेट झाड़ते हुए उठ खड़े हुए थे और पत्रकार भी।
तो भी लोक कवि माने नहीं। मोबाइल फोन की उधेड़बुन में लगे रहे।
एक वकील का बिगड़ैल लड़का था अनूप। लड़कियों के फेर में वह लोक कवि के फेरे मारता रहता। बाहर की लड़कियों को वह लालच देता कि लोक कवि के यहां आर्टिस्ट बनवा देंगे और लोक कवि के यहां की लड़कियों को लालच देता कि टी.वी.आर्टिस्ट बनवा देंगे। इस ख़ातिर वह कुछ टेली फिल्म, टेली सीरियल बनाने का भी ढोंग फैलाए रहता। किराए पर कैमरा ले कर वह शूटिंग वगैरह का भी ताम-झाम जब तब फैलाए रहता। लोक कवि भी उसके इस ताम-झाम में फंसे हुए थे। दरअसल अनूप ने लोक कवि की एक नस पकड़ ली थी। लोक कवि जैसे शुरुआती दिनों में कैसेट मार्केट में आने के लिए परेशान, बेकरार, और तबाह थे ठीक वैसे ही अब के दिनों में उन की परेशानी सी.डी. और वीडियो एलबम की थी। इस बहाने वह विभिन्न टी.वी. चैनलों पर छा जाना चाहते थे। जैसे कि मान और दलेर मेंहदी सरीखे पंजाबी गायक उन दिनों विभिन्न एलबमों के मार्फत विभिन्न चैनलों पर छाए हुए थे। पर भोजपुरी की सीमा, उन का जुगाड़ और किस्मत तीनों ही उन का साथ नहीं दे रहे थे और वह मन ही मन छटपटाते और शांत नहीं हो पाते। क्यों कि सी.डी. और एलबम की द्रौपदी को वह हासिल नहीं कर पा रहे थे। खुल कर सार्वजनिक रूप से अपनी छटपटाहट भी दर्ज नहीं कर पा रहे थे। लोक कवि की इसी छटपटाहट को छांह दी थी अनूप ने।
अनूप जिसका बाप एडवोकेट पी.सी. वर्मा अपने जिले का मशहूर वकील था। और उसकी वकालत के एक नहीं कइयों किस्से थे। लेकिन एक ठकुराइन पर दफा 604 वाला किस्सा सभी किस्सों पर भारी था।
मुख़्तसर में यह कि एक गांव की एक ठकुराइन भरी जवानी में विधवा हो गईं। बाल बच्चे भी नहीं थे। लेकिन जायदाद ज्यादा थी और सुंदरता भी भरपूर। उनकी पढ़ाई लिखाई हालांकि हाई स्कूल तक ही थी तो भी ससुराल और मायके में उनके बराबर पढ़ी कोई औरत उनके घर में नहीं थी। औरत तो औरत कोई पुरुष भी हाई स्कूल पास नहीं था।
सो ठकुराइन में अपने ज्यादा पढ़े लिखे होने का गुमान भी सिर चढ़ कर बोलता था। इस तरह सुंदर तो वह थीं ही तिस पर ‘पढ़ी लिखी’ भी। सो नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देतीं। लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि पति की दुर्घटना में मृत्यु हो जाने से वह जल्दी ही विधवा हो गईं। मातृत्व सुख भी उन्हें नहीं मिल पाया। शुरू में तो वह सुन्न पड़ी गुमसुम बनी रहीं। पर धीरे-धीरे उन का सुन्न टूटा तो उन्हें लगा कि उनके जेठ और देवर दोनों की नजर उनकी देह पर है। देवर तो मजाक ही मजाक में उन्हें कई बार धर दबोचता। उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगता। वह अपनी मर्यादा में ही सही इसका विरोध करतीं। लेकिन मुखर नहीं होतीं। फिर एक दुपहरिया जब अचानक उनके कमरे में जेठ भी आ धमके तो वह खौल पड़ीं। हार कर वह चिल्ला पड़ीं और जेठानी को आवाज दी। जेठ पर घड़ों पानी पड़ गया था और वह ‘दुलहिन-दुलहिन’ बुदबुदाते हुए सरक लिए। जेठ तो मारे शर्म के सुधर गए पर देवर नहीं सुधरा। हार कर उन्होंने सास और जेठानी को यह समस्या बताई। जेठानी तो समझ गईं और अपने पति पर लगाम लगाई लेकिन सास ने घुड़प दिया और उल्टे उन्हीं पर चरित्रहीनता का लांछन लगा दिया। सास बोली, ‘एक बेटे को डायन बनके खा गई और बाकी दोनों को परी बन के मोह रही है। कुलटा, कुलच्छनी!’
ठकुराइन सकते में आ गईं। बात लेकिन थमी नहीं। बढ़ती गई। बाद के दिनों में खाने, पहनने, बोलने बतियाने में भी बेशऊरी और चरित्रहीनता छलकने के आरोप गाढ़े होने लगे। हार मान कर ठकुराइन ने अपने पिता और भाई को बुलवाया। बीच-बचाव रिश्तेदारों, पट्टीदारों ने भी किया-कराया। लेकिन वह जो कहते हैं कि, ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की।’ और आखि़रकार ठकुराइन ने एक बार फिर अपने पिता और भाई को बुलवाया। फिर जमीन जायदाद और मकान पर अपना कानूनी दावा ठोंक दिया।
अंततः पूरी जायदाद में तीसरा हिस्सा अपने नाम करवा कर वह अलग रहने लगीं। अब जेठ और देवर उनके खि़लाफ खुल करके सामने आ गए। उनको तरह-तरह से परेशान करते, अपमानित करते। लेकिन वह ख़ामोश रह कर सब कुछ पी जातीं। लेकिन एक दिन उन्हों ने ख़ामोशी तोड़ी और ऐसे तोड़ी की पूरा गांव हैरान रह गया।
उन्होंने सारा शील-संकोच, परदा-लिहाज तोड़ा और अपने पति का कुर्ता पायजामा पहन लिया। अपने पति की लाइसेंसी दोनाली बंदूक जो अब उनके नाम स्थानांतरित हो चुकी थी, उठाई और घर से बाहर आ कर अपने जेठ और देवर को ललकार दिया। लेकिन जेठ, देवर घर से बाहर नहीं निकले घर में ही दुबके रहे। ठकुराइन का चीख़ना चिल्लाना सुन कर एक बार देवर तमतमा कर उठा भी पर मां ने उसे हाथ जोड़ कर रोक लिया। बोलीं, ‘ऊ तो हाथी नीयर पगला गई है, कहीं गोली, वोली दाग देगी तो का होगा?’ देवर अफना कर रह गया। रह गया घर में ही।
ठकुराइन थोड़ी देर तक चीख़ती चिल्लाती रहीं, हाथ में दोनाली बंदूक लिए लहराती रहीं। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। अवाक देखता रहा। पर जेठ-देवर, सास-जेठानी घर से बाहर नहीं निकले। घूंघट काढ़े कुछ बूढ़ी अधेड़ औरतों ने ठकुराइन को किसी तरह समझा बुझा कर घर के भीतर किया। कुर्ता पायजामा उतरवा कर फिर से साड़ी ब्लाउज पहनाया। शील-संकोच, मान-मर्यादा जैसी कुछ हिदायतें दीं। और यह हिदायतें जब ज्यादा हो गईं तो ठकुराइन बोलीं, ‘ई सब कुछ हमारे लिए ही है, उन लोगों के लिए कुछ नहीं?’ यह कह कर एक औरत के कंधे पर सिर रख कर वह फफक कर रो पड़ीं।
बाहर भीड़ छटने लगी। अंदर भले ठकुराइन रो पड़ी थीं पर बाहर एक बूढ़ा व्यक्ति लोगों से कह रहा था, ‘दुलहिन पर दुर्गा सवार हो गई हैं।’ जो भी हो अब ठकुराइन गांव में ही नहीं जवार में भी ख़बर थीं। उनके कुर्ते पायजामे और बंदूक लहराने की चर्चा चहुंओर थी। मिर्च-मसाले के साथ।
दिन फिर धीरे-धीरे गुजरने लगे। अब ठकुराइन के जेठ देवर भी उनसे घबराते। और कहीं कोई मोर्चा नहीं बांधते। तो भी उनके दिल का दर्द अभी बाकी था। सास तो खुले आम कहती, ‘हमारे कलेजे पर लिट्टी ठोंक रही है।’ जेठ, देवर भी इस मर्म को समझते। फिर धीरे-धीरे ठकुराइन के खि़लाफ व्यूह रचने में वह लग गए। इस बार सीधे कुछ करने-करवाने के बजाय वाया-वाया खुराफात शुरू हुई। किसी छोटी जाति के व्यक्ति को ठकुराइन के खि़लाफ लगा देना, किसी पट्टीदार को भड़का देना आदि। ठकुराइन सब समझतीं पर पहले ही की तरह फिर बड़ी ख़ामोशी से सब कुछ टाल जातीं। लेकिन जब उनके हलवाहे को जेठ, देवर ने भड़काया तो वह एक बार फिर खौल गईं। लेकिन अब की पति का कुरता पायजामा नहीं पहना उन्होंने। न ही दोनाली बंदूक उठाई। अबकी वह कुछ ठोस कार्यवाई करना चाहती थीं।
लेकिन तभी उनके दुर्भाग्य ने उन्हें एक बार फिर घेर लिया।
घरके आंगन में धोया हुआ गेहूं सुखवाने के लिए उन्होंने पसार रखा था। बाहर का दरवाजा किसी काम से खुला पड़ा रह गया था। कि तभी दो तीन बकरियां दौड़ती-उछलती घर में आ गईं। आंगन में पड़ा गेहूं चबाने लगीं। ठकुराइन वैसे ही खौली हुई थीं, बकरियों को गेहूं में मुंह डाले देखा तो भड़क गईं। घर में रखा एक डंडा उठाया बकरियों को मारने के लिए। बाकी बकरियां तो डंडा उठाते ही फुदक कर भाग गईं। लेकिन एक बकरी फंस गई। ठकुराइन ने सारा गुस्सा, सारा उबाल उसी बकरी पर उतार दिया। डंडे का प्रहार इतना जबरदस्त था कि वह बकरी बेचारी वहीं छटपटा कर छितरा गई। कुछ ही क्षणों में उसने सांस से भी छुट्टी ली और वहीं आंगन में दम तोड़ बैठी।
ठकुराइन डर गईं। माथा पकड़ कर बैठ गईं। पहली चिंता जीव हत्या की थी, इस अपराध बोध में इस पाप बोध में तो वह थीं ही दूसरी और कहीं बड़ी चिंता यह थी कि जाने किस की बकरी थी यह। और जिस भी किसी की बकरी होगी उसे जेठ, देवर चढ़ा भड़का कर जाने क्या-क्या करवाएंगे ?
और उन का यह डर सचमुच सच साबित हुआ। यह बकरी एक खटिक की थी। उसने आसमान सिर पर उठा लिया। ठकुराइन समझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें वह। क्योंकि वह खटिक अब छिटपुट गालियों पर भी उतर आया था। वह अपने जेठ और देवर से न तो हार मानना चाहती थीं न ही उन के सामने झुकने को तैयार थीं। मायके में भी बार-बार वह आंसू बहाते, शिकायत करते तंग हो गई थीं। सो हार मान कर उन्होंने घर में ताला लगाया और चुपचाप शहर का रास्ता पकड़ा। शहर पहुंच कर पता किया कि सबसे बड़ा वकील कौन है? फिर उस वकील के घर का पता लगा कर उसके घर पहुंची। सुंदर थीं ही सो घर में एंट्री पाने में मुश्किल नहीं हुई, न ही वकील से मिलने में। वकील के चैंबर में गईं तो कुछ लोग वहां और भी बैठे थे। सो वह थोड़ा संकोच घोलती हुई बोलीं, ‘माफ कीजिए मैं जरा प्राइवेट में बात करना चाहती हूं।’ सुंदर और जवान स्त्री खुद ही प्राइवेट बात करना चाहते तो भला कौन पुरुष इंकार कर पाएगा ? वकील साहब भी इंकार नहीं कर पाए। वहां बैठे बाकी लोगों को यथासंभव जल्दी-जल्दी निपटाया और जब सब लोग चैंबर से बाहर निकल गए तो उन्होंने मुंशी को बुला कर बता दिया कि, ‘थोड़ी देर तक किसी को भी अंदर नहीं आने देना।’ फिर ठकुराइन से वह बोले, ‘हां, बताइए मैडम!’ फिर मैडम ने बकरी वाली मुश्किल मय पट्टीदारी के लोगों द्वारा खटिक को चढ़ाने भड़काने के विस्तार से बताई और बोलीं, ‘जो भी पैसा खर्च होगा, मैं करूंगी।’ फिर वह हाथ जोड़ कर विनती करती हुई बोलीं, ‘लेकिन मुझे बचा लीजिए वकील साहब!’ फिर अपनी जगह से उठ कर वह उनके पास तक गईं और उनके पैर छूती हुई बोलीं, ‘मुझे बचा लीजिए।’ फिर जोड़ा, ‘किसी भी कीमत पर।’ वकील साहब ने मौका देख कर उनकी पीठ पर हाथ फेरा, सांत्वना दी और कहा, ‘घबराइए नहीं बैठिए, कुछ सोचता हूं।’
फिर थोड़ी देर तक वह चिंतित मुद्रा में मौन रहे। माथे पर दो-चार बार हाथ फेरा। कानून की दो चार किताबें अलटीं-पलटीं और लगभग परेशान हो गए।
उन की परेशानी देख कर ठकुराइन बेकल हो गईं। बोलीं, ‘का नहीं बच पाऊंगी?’
‘आप जरा शांत बैठिए।’ कह कर वकील साहब ने अपनी पेशानी पर परेशानी की कुछ और रेखाएं गढ़ीं। फिर कुछ और कानूनी किताबें अलटीं-पलटीं। और जब उन्हें सामने बैठी मैडम की मूर्खता भरी गंभीरता पर पूरी तरह यकीन हो गया और यह भी कि अब चूकना नहीं चाहिए। माथे पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘दरअसल आपने किसी आदमी की हत्या की होती तो आसान था, बचा लेता। क्यों कि तब सिर्फ धारा 302 ही लगती। लेकिन आपने तो जीव हत्या कर दी है। सो मामला डबल हो गया है और 302 की बजाय मामला दफा 604 का हो गया है।’ वकील साहब थोड़ा और गंभीर हुए, ‘दिक्कत यही हो रही है तिस पर यह बकरी खटिक की है। और आप शायद नहीं जानतीं खटिक अनुसूचित जाति में आता है। सो एक पेंच यह भी पड़ेगा।’
ठकुराइन थोड़ा और घबराईं। बोलीं, ‘लेकिन हम तो आपका बड़ा नाम सुनी हूं। तभी आप के पास आई हूं।’ वह थोड़ा और खुलीं, ‘जो भी कीमत देनी होगी मैं दूंगी। खर्चा-बर्चा का आप फिकिर मत करिए, मैं सब करूंगी। चाहिए तो आप जज-वज सब सहेज लीजिए।’ वह लगभग घिघियाईं, ‘बस आप कइसो हमको बचा लीजिए। गांव में हमारी बेइज्जती न हो, पट्टीदारों के आगे सिर न झुके।’
‘घबराइए नहीं।’ वकील साहब ने भरपूर सांत्वना देते हुए कहा, ‘अब आप हमारे पास इतने विश्वास से आई हैं तो कुछ तो करना ही पड़ेगा।’ वह निशाना और दुरुस्त करते हुए बोले, ‘अब समझिए कि अगर आप को नहीं बचा पाया तो हमारी वकालत तो बेकार हो गई। मेरी थू-थू होगी और मैं वकालत छोड़ दूंगा।’ वह बोले, ‘तो आप निश्चिंत रहिए मैं जी जान लगा दूंगा। आप को कुछ नहीं होगा। उलटे उस खटिक को ही फंसवा दूंगा। कि आखि़र उसकी बकरी आप के घर में घुसी कैसे? उसकी हिम्मत कैसे हुई एक शरीफ और इज्जतदार अकेली औरत के घर में बकरी घुसाने की।’
ठकुराइन वकील साहब के इस कहे पर बड़ी आश्वस्त हुईं। उनके चेहरे पर खुशी की कुछ रेखाएं खिलीं। वह बुदबुदाईं ‘आपकी बड़ी कृपा।’ फिर वकील साहब ने कुछ वाटर मार्क और वकालतनामा पर उनसे दस्तख़त करवाए। खटिक का और उनका पूरा पता लिखा। एक हजार रुपए फीस के वसूले। और बोले, ‘मैडम आप निश्चिंत हो जाइए। आप की इज्जत को संभालना अब हमारा काम है।’ उन्होंने एहतियात के तौर पर उनसे यह भी कह दिया, ‘आप इज्जतदार और प्रतिष्ठित औरत हैं सो आप को कचहरी, इजलास दौड़ने धूपने से भी छुट्टी दिलवा दूंगा जज साहब को दरख्वास्त दे कर। नाहक वहां आने से बेइज्जती होगी। आप बस यहां आ कर सीधे हमसे ही मिलती रहिएगा।’ फिर वकील साहब ने आगाह किया कि, ‘हमारे मुंशी या किसी जूनियर वकील से भी इस केस की चर्चा मत करिएगा। भूल कर भी नहीं। नहीं एक मुंह से दो मुंह, दो से चार, चार से चालीस मुंह बात फैलेगी। ख़ामख़ा जगहंसाई होगी और केस में भी नुकसान हो सकता है, हो जाए। सो ध्यान रखिएगा यह बात हमारे आप के बीच प्राइवेट ही रहे।’
ठकुराइन बिलकुल किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह वकील साहब की सारी बातें मान गईं। और निश्चिंत भाव से खुशी-खुशी गांव लौट गईं। गांव पहुंचने पर खटिक ने फिर हल्ला दंगा किया। पर दूसरे दिन पुलिस आई और उस खटिक को पकड़ ले गई। हुआ यह था कि वकील साहब ने ठकुराइन की ओर से पुलिस में खटिक के खि़लाफ एक अप्लीकेशन दे कर जान माल का ख़तरा बता दिया। और पुलिस वालों को पटा कर धारा 107 और 151 में खटिक को बंद करवा दिया। अपना ही एक जूनियर लगा कर उसे दूसरे दिन जमानत पर छुड़वा भी दिया। उसे कचहरी में अपने तख्ते पर बुलवाया। दो सौ रुपए दिए और अपनी बात समझाई।
खटिक गांव में वापस गया और ठकुराइन से माफी मांगने की बात कही। ठकुराइन ने उलटे उसे झाड़ दिया। बोली, ‘जाओ कचहरी में नाक रगड़ो। माफी वहीं मांगो।’ ठकुराइन बिलकुल वीर रस में थीं। खटिक चला गया। लेकिन कुछ दिन बाद ही खटिक फिर भाव खाने लगा। ठकुराइन भाग कर शहर गईं। वकील से मिलीं उन्होंने फिर सांत्वना दी, फीस ली। बाद के दिनों में तो जैसे यह क्रम ही बन गया। खटिक ठकुराइन से कभी गिड़गिड़ाता, कभी भाव खा जाता। ठकुराइन फिर शहर जातीं और बात ख़त्म हो जाती। लेकिन कुछ दिनों में फिर उभर जाती। क्योंकि होता यह था कि ठकुराइन के खि़लाफ कोई मुकदमा तो वास्तव में था नहीं लेकिन खटिक के खि़लाफ 107 व 151 का मुकदमा तो था ही। सो वह पेशी पर शहर जाता, वकील से मिलता, सौ पचास रुपए लेता और वकील के कहे मुताबिक गांव में ‘ऐक्ट’ करता। कभी कहता कि, ‘अब कि तो मैं फंस गया। लगता है मुकदमा हमारे उलटा जाएगा।’ तो कभी कहता, ‘अब तो ठकुराइन बच नहीं पाएंगी। सजा इन्हीं को होगी।’ क्योंकि वकील साहब के यहां से ऐसा ही कुछ कहने का निर्देश होता। जब जैसा निर्देश होता खटिक वैसा ही गांव में आ कर ऐक्ट करता। ठकुराइन के जेठ, देवर, सास भी मामले की तह में गए बिना ठकुराइन की दुर्दशा का आनंद लेते।
ठकुराइन का अब शहर जाना भी बढ़ने लगा था। वकील साहब उनसे फीस तो ले ही रहे थे। डोरे भी डाल रहे थे। ठकुराइन को यह सब ठीक नहीं लगता। लेकिन गांव में उनकी इज्जत वकील साहब बचाए हुए थे सो वह इसे अनचाहे ही सही शुरू-शुरू में बर्दाश्त करती रहीं। लेकिन बाद में उन्हें भी यह सब ठीक लगने लगा। वकील साहब की पुरुष गंध में भी वह बहकने लगीं। शुरू-शुरू में तो वकील साहब के चैम्बर में ही प्राइवेट बातचीत के दौरान नैन मटक्का करतीं, उनके घर में ही ठहरतीं। लेकिन बाद में वकील साहब के ही घर में महाभारत मचने लगी। वो कहते हैं न कि लहसुन का खाना और पर नारी की सोहबत छुपाए नहीं छुपती सो बात धीरे-धीरे खुलने लगी  थी। क्योंकि ठकुराइन पहले तो सिर्फ मुवक्किल थीं, बाद में ख़ास मुवक्किल बनीं और फिर अचानक एकदम ख़ास बन गईं वकील साहब की। हालांकि देह की सांकल ठकुराइन ने वकील साहब के लिए नहीं खोली थी पर आंखों से होते हुए मन की सांकल तक तो वकील साहब आ ही गए थे, यह बात ठकुराइन भी जान गई थीं। वकील साहब के साथ सिनेमा-विनेमा, चाट, पकौड़ी भी वह करने लगी थीं। लेकिन बाद में वकील साहब के घर में झंझट जब ज्यादा शुरू हो गई तो वकील साहब उन्हें एक होटल में ठहराने लगे। कभी-कभार होटल पहुंच कर हाल चाल भी वह ले लेते। लेकिन जल्दी ही मुख्य हाल चाल पर आ गए और ठकुराइन की मीठी-मीठी ना नुकुर के बावजूद उन्होंने उनकी देहबंध को आखि़र लांघ लिया। अब कई बार वकील साहब होटल में ही ठकुराइन के साथ दिन रंगीन कर लेते। लेकिन होटल में कई बार असुविधा होती सो उन्होंने ठकुराइन को शहर में ही घर ख़रीदने की राय दी। ठकुराइन ने घर ख़रीदा तो नहीं पर एक इंडिपेंडेंट घर किराए पर ले लिया। यह कह कर कि बाद में ख़रीद भी लूंगी। बाद में उन्होंने आवास विकास परिषद का एक एम.आई.जी. मकान ख़रीदा भी। इस बीच दो तीन बार एबॉर्शन की भी दिक्कत उठानी पड़ी ठकुराइन को। अंततः वकील साहब ने एक प्राइवेट डाक्टर से उन्हें कापर टी लगवा दिया। अब कोई दिक्कत नहीं थी। वकील साहब गांव में ठकुराइन की इज्जत बचाने की फीस धन और देह दोनों में वसूल रहे थे। सिलसिला चलता रहा। खटिक का 107 और 151 का मुकदमा कब का ख़त्म हो गया था लेकिन ठकुराइन के खि़लाफ दफा 604 का मुकदमा ख़त्म नहीं हो रहा था।
लेकिन ठकुराइन को इसकी फिकर नहीं थी।
वह तो आकंठ वकील साहब को जी रही थीं। हां, वकील साहब उन्हें जरूर नहीं जी रहे थे, वह तो भोग रहे थे। कभी-कभी किसी बात पर दोनों के बीच खटपट भी होती। लेकिन कुछ ही दिनों की तनातनी के बाद वकील साहब उन्हें ‘मना’ लेते। हालांकि तनातनी के दिनों ठकुराइन गांव चली जातीं। खेती बारी बटाई पर दे रखी थी। हिस्से में जो अनाज मिलता उसको बेच बाच कर खर्च चलातीं। कुछ भविष्य के लिए बैंक में भी जमा करती रहतीं। धीरे-धीरे समय बीतता गया। ठकुराइन भले देह सुख में डूब कुछ देखती सुनती नहीं थीं। पर लोग सब कुछ देख सुन रहे थे। गांव में जिस इज्जत बचाने के फेर में वह इस फांस में फंसी थीं वहां भी लोग दबी जबान और छुपे कान से ही सही जान चले थे कि जेठ, देवर को धूल चटाने वाली ठकुराइन शहर में एक वकील की रखैल बन गई हैं। बात ठकुराइन के मायके तक भी पहुंची। उनके भाई ने एकाध बार ऐतराज भी जताया पर बाद के दिनों में वह सिंगापुर चला गया कमाने। पिता का निधन हो गया। देवर, जेठ को वह मक्खी-मच्छर बराबर भी नहीं समझती थीं। गांव में ज्यादातर रहती नहीं थीं कि ताना सुनें। दूसरे, घर में कामधाम करने वाले, देखभाल करने वालों को पैसा, अनाज की मदद दे कर इतना उपकृत किए रहतीं कि वह होठ खोलना तो दूर डट कर आंख मूंद जाते। और जो कोई ठकुराइन की अनुपस्थिति में कभी कभार इन आदमियों से चर्चा चलाता भी तो ये सब तरेर देते। कहते, ‘ठकुराइन मलकिन पर अइसन लांछन की बात हमारे सामने करना भर मत। नहीं, जीभ खींच लूंगा।’
लोग प्रतिवाद करते, ‘तो शहर में रहती काहें हैं?’
‘इहां के नरक से ऊब कर।’ आदमी जोड़ते, ‘फिर यहां मलकिन को सुविधा भी कहां है ? शहर में बड़ी सुविधा है। सड़क है, बिजली है, दुकान हैं, सनीमा है। और एहले बड़ी बात वहां फटीचर नहीं हैं। इहां की तरह छोटी-टुच्ची बात करने के लिए।’
‘हां भई, जिसका खाओ, उसका बजाना भी पड़ता है।’ कह कर लोग बात ख़त्म कर देते।
लेकिन बात ख़त्म कहां होती थी भला?
दिन गुजरते गए। अब ठकुराइन के चेहरे से लावण्य छुट्टी लेने लगा था। विधवा जीवन का फ्रस्ट्रेशन और अनैतिक जीवन जीने का तनाव उनके चेहरे पर साफ दीखने लगा था। हालांकि शहर में वह पड़ोसियों से कोई ख़ास संपर्क नहीं रखती थीं और पूरी शिष्टता, भद्रता के साथ सिर पर सलीके से पल्लू रख कर ही घर से बाहर निकलती थीं तो भी तड़ने वाली आंखें तड़ लेती थीं। हालांकि घर में काम करने के लिए एक बूढ़ी औरत और एक छोटा लड़का भी वह अपने मायके से लाई थीं। तो भी अकेली औरत के पास जब तब एक पुरुष आता जाता रहे तो कोई सवाल न भी उठाए फिर भी सुलग जाता है। फिर उनकी अकेली औरत का ठप्पा! लोग कहते बिना पतवार की नाव है जो चाहे, जिधर चाहे बहा ले जाए। पर अब दिक्कत  यह थी कि बढ़ती उम्र के साथ-साथ उनका अकेलापन अब उन्हें सालने लगा था। इस अकेलेपन से ऊब कर दो एक बार वकील साहब से दबी जबान शादी कर लेने को भी उन्होंने कहा। पर वकील साहब टाल गए। उनकी दलील थी कि, वह बाल बच्चेदार हैं, शहर में उनकी हैसियत और रुतबा है सो लोग क्या कहेंगे? दूसरी दलील उम्र के गैप की थी, तीसरी दलील उनकी यह थी कि आप क्षत्रिय जाति की हैं और मैं कुर्मी। इस पर भी समाज में विवाद खड़ा हो सकता है। इसलिए यह संबंध जैसे चल रहा है वैसे ही चलने दें। इसी में हम दोनों की भलाई है और समाज की भी। ठकुराइन जबान पर तो लगाम लगा गईं पर मन ही मन कसमसाने भी लगीं। उन्होंने सोचा कि अब वकील साहब से पूरी तरह किनारा कर लें। पर वह यह सब अभी सोच ही रही थीं कि उन्होंने पाया कि अब वकील साहब खुद ही उनसे किनारा करने लगे हैं। अब उनका उन के घर में आना जाना भी कम से कम हो गया था। वह सब कुछ छोड़ कर अब गांव वापस जा कर रहने की सोचने लगी थीं। लेकिन उन का दफा 604 वाला बकरी की हत्या वाला केस भी फंसा पड़ा था। लेकिन उन्होंने गौर किया कि अब वकील साहब उनके केस पर भी बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे थे। न उन पर, न उन के केस पर।
ठकुराइन की चिंताओं का अब कोई पार नहीं था।
बाद में उन्होंने जब इसकी तह में जा कर पता लगाया तो एक बात तो साफ हो गई कि एक लड़की वकील साहब की जूनियर बन कर आ गई थी, वकील साहब की दिलचस्पी अब उस जूनियर वकील में बढ़ गई थी। यह तो वह समझीं। पर उनके केस में वह क्यों दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं यह वह समझ नहीं पा रही थीं। उन्होंने सोचा कि किसी दूसरे वकील से इस बारे में दरियाफ्त करें लेकिन उन्हें याद आई वकील साहब की हिदायत कि, ‘किसी भी से जिक्र नहीं करिएगा वरना केस बिगड़ जाएगा।’
सो वह चुप लगा गईं।
लेकिन कब तक चुप लगातीं भला? वकील साहब के चैंबर में उनका आना जाना बढ़ गया। वकिलाइन भी अब उनको देख कर नाराज नहीं होती थीं न ही कुढ़ती थीं। अब तो उनको कुढ़ने के लिए वह जूनियर वकील मिल गई थी। अब वकील साहब चैम्बर में प्राइवेट में उस जूनियर वकील से मिलते। इस फेर में कई बार ठकुराइन को भी बाहर बैठना पड़ जाता। उनको यह सब बहुत बुरा लगता लेकिन मन मसोस कर रह जातीं।
अब जब वह चैम्बर के बाहर बैठतीं तो चाहे अनचाहे किसी न किसी से बातचीत भी शुरू हो जाती। इस तरह आते जाते लोगों से परिचय भी बढ़ने लगा। हालांकि विधवा होने के नाते वह सादी साड़ी पहनतीं। मेकअप भी नहीं करतीं। वह सिर पर पल्लू रख कर बड़े अदब से, सलीके और शऊर से बतियातीं, गंभीर भी रहतीं, आंखों में शील संकोच सहेजे ज्यादा किसी से हंसती मुसकुराती नहीं थीं तो भी अब पहले की तरह सबको वह अनदेखा भी नहीं करतीं। पहले अपनी सुंदरता और जवानी का गुरूर भी था। सो सबको अनदेखा करते चलतीं। पर अब सुंदरता का वह गुरूर भी उतार पर था। वह चालीस की उम्र छू रहीं थीं तो भी जब वह रिक्शे से या पैदल जैसे भी चलतीं लोग मुड़-मुड़ कर उन्हें देखते जरूर। तो उन्हें लगता कि अभी जवानी बाकी है। अभी भी उन की देहयष्टि में दम है। उन्हें अपने पर गुरूर आ जाता।
इसी गुरूर में वह एक रोज एक सड़क पर खड़ी रिक्शा ढूंढ़ रही थीं। कि तभी वकील साहब का एक पुराना जूनियर वकील मोटर साइकिल से उधर से ही गुजरा। ठकुराइन को देख कर ठिठका, नमस्कार किया। रुका और हाल चाल पूछा। कहा कि, ‘जहां जाना हो चलिए मैं पहुंचा देता हूं।’ पर ठकुराइन ने बड़ी शालीनता से पल्लू ठीक करती हुई इंकार कर दिया। बोलीं, ‘जी बहुत मेहरबानी पर मैं रिक्शे से चली जाऊंगी। आप काहें तकलीफ करेंगे?’ कह कर वह वकील को टाल गईं। पर वकील गया नहीं रुका रहा। बोला, ‘अच्छा रिक्शा मिलने तक तो आप का साथ दे सकता हूं।’
‘हां, हां क्यों नहीं?’ हलका सा मुसकुरा कर ठकुराइन बोलीं। वकील इधर-उधर की बात करते हुए अनायास ही उनके केस के बारे में बात करने लगा। पूछते-पूछते जिरह करने लगा। हालांकि ठकुराइन उसकी हर जिरह टालती रहीं। पर जूनियर वकील जैसे ढिठाई पर उतर आया, ‘आखि़र कैसा केस है आपका जो इतने बरसों से ख़त्म नहीं हो रहा है। एक्कै कोर्ट में अटका पड़ा है।’
ठकुराइन फिर भी चुप रहीं।
‘अब तक तो केस हाई कोर्ट में पहुंच जाता है अपील में इतने सालों में और आपका केस अभी डिस्ट्रिक्ट जज के पास भी नहीं पहुंचा ? आखि़र है क्या?’
‘आप नहीं जानेंगे वकील साहब! बहुत बड़ा मामला है। वह तो वर्मा जी वकील साहब हैं कि बचाए हुए हैं नहीं तो हम तो फंस ही गई थीं।’
‘लेकिन केस है क्या?’ वह जूनियर वकील बोला, ‘आपकी कोई फाइल भी नहीं है चैम्बर में कि हम लोग देखते।’
‘केस बड़ा है इस लिए वकील साहब खुद देखते हैं।’
‘अरे तब भी फाइल कभी तो कोर्ट जाएगी-आएगी। तारीख़ लगेगी।’ वह माथे का पसीना पोंछते हुए बोला, ‘आखि़र केस है क्या ?’
‘दफा 604 का।’ ठकुराइन आहिस्ता से बोल पड़ीं।
‘दफा 604 ?’ वकील भड़का, ‘यही बताया न आपने कि दफा 604!’
‘जी।’ ठकुराइन ऐसे बोलीं जैसे यह बता कर कोई पाप कर बैठी हों। बोलीं, ‘जाने दीजिए। आप जाइए।’
‘हम तो चले जाते हैं मैडम पर दस बारह साल से हम भी इस कचहरी में प्रैक्टिस कर रहे हैं। थाना, एस.पी. भी देख रहे हैं। और आई.पी.सी. भी। तो भारतीय कानून में ऐसी कोई दफा तो है नहीं अभी तक। वह जूनियर वकील बोला, ‘बल्कि आई.पी.सी. में जो अंतिम दफा है वह है दफा 511 बस ! तो 604 कहां से आ जाएगी?’
‘लेकिन वर्मा जी तो हम को यही बताए थे कि दफा 604 हो गया।’’ ठकुराइन हकबकाती हुई बोलीं।
‘हो सकता है आप के सुनने में गलती हो गई हो।’ जूनियर वकील बोला, ‘ख़ैर, छोड़िए मामला क्या था ? हुआ क्या था आप से?’
‘मतलब?’ असमंजस में पड़ती हुई ठकुराइन बोलीं।
‘मतलब यह कि आप से अपराध क्या हुआ था?’
‘बकरी मर गई थी हमारे मारने से। एक खटिक की थी।’
‘ओ हो!’ ताली बजाते हुए जूनियर वकील बोला, ‘मुलेसर खटिक की तो नहीं?’
‘हां, लेकिन आप कैसे जानते हैं?’ ठकुराइन फिर अफनाईं।
‘जानता हूं? अरे पूरी कुंडली जानता हूं।’
‘कैसे?’
‘कचहरी में तख्ते पर बराबर आता है।’ वह बोला, ‘‘मैडम माफ कीजिए वर्मा साहब ने आप को डंस लिया।’
‘का कह रहे हैं आप?’
‘बताइए चैंबर में आपसे फीस लेते हैं तख्ते पर उस मुलेसर खटिक को फीस देते हैं तो का मुफ्त में? वह बोला, ‘फिर आप भी मैडम इतनी भोली हैं? घर में आगा पीछा कोई नहीं है का?’
‘काहें नाहीं सब कोई है।’
‘तो फिर कोई ये नहीं बताया कि बकरी मारना कोई अपराध नहीं।’
‘पर खटिक की थी।’ वह बोलीं, ‘ऐसा ही वकील साहब बोले थे।’
‘अरे लाखों बकरियां देश में हर घंटे कटती हैं। खटिक की हो या जुलाहा की। कोई दफा किसी पर लगती है क्या ?’ वह बोला, ‘चलिए गलती से किसी का नुकसान हो गया तो उसको उसका खर्चा-मुआवजा और अधिक से अधिक बकरी का दाम दे दीजिए। ई का कि फर्जी दफा 604 जो कहीं हइयै नहीं है, उसको सालों साल वकील के चैंबर में लड़िए।’ वह बोला, ‘आप तो मैडम फंस गईं?’
‘का बोल रहे हैं आप। सही-सही बोलिए।’ ठकुराइन जैसे अधमरी हो गईं। बोलीं, ‘‘वकील साहब तो बोले थे कि आदमी मारते हैं तो दफा 302 लगता है, आदमी की बकरी मार दिए तो डबल दफा लगती है दफा 604 और हमको अब तक बचाए भी हैं वो।’
‘आप बड़ी भोली हैं मैडम। आप को बचाए नहीं बेचे हैं। आप को बरगलाए हैं ऊ कानून के बाजार में। जो दफा कहीं भारतीय कानून में है ही नहीं।’ वह बोला, ‘हम पर विश्वास न हो तो आइए कचहरी किसी वकील, किसी जज से दरियाफ्त कर लीजिए!’
‘अब हम का बताएं, कहां आएं ?’ बोल कर ठकुराइन फफक कर रो पड़ीं। रोते-रोते वहीं सड़क पर सिर पकड़ कर बैठ गईं।
‘आप को हम पर यकीन न हो तो चैंबर में आ कर वर्मा साहब से ही पूछ लीजिए कि यह दफा 604 आई.पी.सी. में कहां है? और कि आपका केस किस कोर्ट में चल रहा है? सब कुछ दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।’ जूनियर वकील बोला, ‘बस भगवान के लिए हमारा नाम मत बोलिएगा। मत बताइएगा कि हमने ई सब बताया है।’ वह बोला, ‘हां, जो हम झूठ साबित हो जाएं तो वहीं हमको अपने इस सैंडिल से मारिएगा, हम कुछ नहीं बोलूंगा।’ कह कर वह चलने लगा। बोला, ‘मैडम माफ कीजिए आप के साथ बड़ा भारी अन्याय कर दिया वर्मा साहब ने।’ पर ठकुराइन कुछ नहीं बोलीं। उनके मुंह में शब्द ही नहीं रह गया था। लोग आसमान से जमीन पर ऐसे में आ जाते हैं पर उनको लगता था कि वह आसमान से सीधे पाताल में जा कर डूब गई हैं। उनको गुमसुम देख कर वह वकील बोला, ‘हमारे साथ तो आप मोटर साइकिल पर बैठेंगी नहीं। रुकिए मैं आप के लिए रिक्शा बुलाता हूं।’ कह कर वह एक रिक्शा बुला कर लाया। ठकुराइन सड़क पर से उठीं, धूल झाड़ती हुई रिक्शे पर बैठीं। उन्होंने गौर किया कि कलफ लगी उनकी क्रीम कलर की साड़ी जगह-जगह काली पड़ गई थी, सड़क पर बैठ जाने से। उस वकील ने जाते-जाते उन्हें फिर नमस्कार किया। बोल कर, ‘मैडम नमस्कार!’ पर मैडम के मुंह से शब्द गायब थे। वह भौंचक थीं। उन्होंने धीरे से दोनों हाथ जोड़ दिए।
‘वर्मा जी ने इतना बड़ा धोखा दिया।’ रिक्शा जब चलने लगा तो वह अपने आप से ही बुदबुदाईं। वह निकली थीं बाजार जाने को पर वापस घर आ गईं। बुढ़िया महर