Friday, 24 November 2023

गहरे संवेदनशील उच्छ्वास से चंदन का लेप और मालकौंस राग में सनी तीर्थ सी समुज्जवल विपश्यना

 डा० रंजना गुप्ता 

‘विपश्यना’ का चरम यथार्थ’

देह, प्रेम में एक आवश्यक वस्तु है अनिवार्य नहीं, ये मेरा मानना है,पर देह के बिना तो कुछ भी संभव नहीं ! ‘शरीरमाद्यम खलु धर्म साधनम् '

देह हमारी वायवीय चुनौतियों के मध्य भी सदा से आ ही जाता है। संपूर्ण समर्पण प्रेम की एक थाती है। पर सृष्टि के संचालन के लिए संपूर्ण समर्पण बिलकुल आवश्यक नहीं है। स्त्री पुरुष की दैहिक संरचना इतनी गहन और परिपूर्ण है, इतनी दाहक और चुंबकीय है, इतनी मारक और विस्फोटक है, कि स्त्री पुरुष जहाँ भी एकांत में होते हैं, उन का प्राकृतिक आकर्षण अपना कार्य करने लगता है। इसी लिए स्त्री देह को अग्नि के समक्ष कहा गया है। प्रख्यात लेखक दयानंद पांडेय जी का वाणी प्रकाशन से अभी शीघ्र ही प्रकाशित हुआ उपन्यास ‘विपश्यना में प्रेम ’ अपनी ख्याति की ऊंचाइयों को आजकल छू रहा है। इस का तात्पर्य है, कि उन की यह कृति अपनी संपूर्णता में, कथात्मकता के अनिवार्य तत्वों के कारण, प्रस्तुतीकरण के लालित्य और शैली की विरलता आदि सभी समवेत औपन्यासिक गुणों से संपन्न होने से स्वयं में अद्भुत अवश्य है।

विनय और दारिया मुख्य दो पात्रों के मध्य घटित होने वाले इस कथा प्रसंग में बाक़ी पात्र लगभग गौण हैं। दैहिक आकर्षण को और दैहिक संबंधों को वर्णनात्मक शैली में रचते हुए प्रथम दृष्टि में यह उपन्यास कहीं कहीं वल्गर लगा मुझे, पर शीघ्र ही इसके साध्य या मंतव्य का बोध होते ही मन की भावना और धारणा दोनों पूर्णतः बदल गई।

संतानोत्पत्ति, ईश्वरीय विधान में स्त्री पुरुष संबंधों का लक्ष्य भी है और कारण भी ! प्राचीन काल में विवाह व्यवस्था ही इस हेतु निर्मित की गई, ताकि संयमित समाज, दैहिक आवश्यकताओं की नैतिक परिधि में रह कर पूर्ति भी कर सके और संतानोत्पत्ति द्वारा सृष्टि को आगे भी बढ़ा सके। प्रकृति का कार्य मनुष्य और सभी प्राणियों को संपादित करना ही है, ऐसी बाध्यता भी देह के कारण ही है। कोई विरला ही होगा, जो इस घाट न आया हो, या संन्यासी या फिर कोई महा मनस्वी ब्रह्मचारी !

प्राचीन काल में नि:स्संतान दंपति या राजाओं के लिए संतानोत्पत्ति के लिए एक प्रथा प्रचलित थी, जिसे नियोग कहते थे, महाभारत काल में इस विधि द्वारा ही पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर जी का जन्म भी हुआ था। नियोग का सुंदर वृतांत इस विपश्यना उपन्यास में मिलता है। दयानंद जी ने इस विधि को आश्चर्य जनक रूप से विपश्यना के शिविर में क्रियान्वित किया। वास्तव में नियोग की व्यवस्था उन दंपत्तियों के लिए थी, जो किन्हीं कारणवश संतानोत्पत्ति में असमर्थ हैं, और कुल वंश चलाने के लिए संतान प्राप्ति के इच्छुक भी हैं। नियोग का नियम यह भी था, कि इसे आनंद हेतु न किया जाए , बल्कि संतानोत्पत्ति ही प्रथम और अंतिम लक्ष्य हो। पर यहां तो दारिया ने कुछ स्पष्ट ही नहीं किया। और नायक को अपने रूप यौवन के जाल में फंसा कर,अपनी देह के अनंतिम आनंद में ऊभ चूभ करने दिया। लेकिन उस का स्त्री मन अवश्य संयमित और पवित्र रहा, जो कार्य-कारण संबंध की पूर्ति के बाद दैहिक स्तर पर निष्प्रयोज्य हो गया। संयमित और निस्पृह भी ! 

विपश्यना शिविर जहां लोग मन को साधने का, सांसों को बांचने का लक्ष्य ले कर आते हैं, वहां पर यह साधना शिविर किसी की मौन कामना किंबहुना किसी की याचना शिविर में परिवर्तित सा हो जाता है। ये सब कुछ मात्र आनंद हेतु न हो कर किसी निर्भ्रांत प्रयोज्य हेतु जब होता है, तो विपश्यना की निर्विकार निष्काम साधना भी अकस्मात् पुष्पित और पल्लवित हो जाती है। धन्य होती है, दारिया भी ! जो गर्भ धारण की कामना से आ कर विपश्यना शिविर को कोई उज्ज्वल सा अर्थ दे जाती है। उपन्यास का अंत इतना मर्मभेदी, रोमांचक और पवित्र है, कि मन आनंद से विभोर हो उठता है। उपन्यास पढ़ते समय जो दैहिक मांसलता मन पर आरोपित हो कर सात्विक भावों पर थोड़ी प्रत्यंचा खींचती सी दिखी थी ,वह फिर अपने हव्य अर्थात् उपन्यास के परिपुष्ट ध्येय को पा कर परितृप्त हो जाती है। अंत में गंगा की धार सा पावन, उपन्यासकार का मंतव्य थोड़ा सा हिचकते नाक भौं सिकोड़ते मन के अनमनेपन पर भी, एक गहरे संवेदनशील उच्छ्वास से चंदन का लेप सा लगा जाता है !

विपश्यना शिविर के अविरल मौन की राजधानी में रची गई यह रचना मन को अंत में अभिभूत कर ही जाती है। घंटियां , चेतनाएं , सावधानियां  ,वर्जनाएं , निषेधाज्ञाओं के सारे पुल उस देह गंध की मदिर बाढ़ में बह जाते हैं। वास्तव में उस सागर मंथन से जो नवनीत निकला, वह तो शुद्ध बुद्ध प्रज्ञा ही था न ! सृजन साधना के कारण ही यह वासना भी मालकौंस राग बन जाती है, और तीर्थ सी समुज्जवल बन जाती है सारी कामुकता !

विनय एक माध्यम है इस उपन्यास में, उपन्यास की नायिका की लक्ष्य पूर्ति का ! संतान कामना का !

यही सहज भाव बोध का सत्य ही वास्तव में उपन्यास की सार्थकता है,और उपन्यास की आत्मा भी वही है, जिस बिंदु को दयानंद पांडेय जी ने उभारा है दैहिक संवादों में। मौन की मुखरता में। वासना के चरम आनंद में। यदि उस की परिणति और लक्ष्य दोनों इतने सत्य और शिव न होते, तो ये उपन्यास सुंदरम् भी कदाचित् नहीं होता !

दयानंद पांडेय अपने औत्सुक्य पूर्ण औपन्यासिक कथानक रचने के लिए और अपनी बेबाक़ पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं। उनकी कृतियां , ब्लॉग और फ़ेसबुक वाल उन का व्यक्तिगत चरित्र सब कुछ एक अनोखे तालमेल के साथ हमारे समक्ष उपस्थित होता है। वे दोहरी ज़िंदगी नहीं जी पाते। उन का जीवन दर्शन अपनी संपूर्ण मौलिकता के साथ समाज और परिवार में एक विराट सोच के साथ उपस्थित भी है।

मुझे उन के इस कृतित्व में कहीं प्रेम दृष्टिगत नहीं होता ! वास्तव में है भी नहीं। क्यों कि दारिया बहुत योजनाब्द्ध तरीक़े से अपनी मंशा को अपने ध्येय को पूर्ण करती है। उसे विनय से संतान के सिवा कुछ नहीं चाहिए। वह संतान के लिए ही विनय से रमण करती है ! संपूर्ण समर्पण और दैहिक प्रेम का लक्ष्य यहां महज़ दैहिक संतृप्ति नहीं, संतानोत्पत्ति है। इसी कारण उस का कार्य या मंतव्य सफल होते ही, वह अपने देश रुस अपने पति के साथ वापस चली जाती है। और हक़बकाये से विनय को सूचित करती है, पुत्र होने के बाद ! यदि प्रेम होता, तो वह अपने पति को छोड़ कर यहीं कहीं भारत में विनय के आसपास रहना चाहती। सो प्रेम तो नहीं है। हां , उस के प्रचंड पौरुष की लालसा में दारिया अवश्य उस के पास आई थी। और जहां तक विनय का प्रश्न है, वह अवश्य भटकता हुआ लगता है। गफ़लत उसे ही हुई। देहाकर्षण उसे ही था। धोखे में भी वही था। इसी लिए कहते हैं, न स्त्री को समझना बहुत कठिन है ! विनय पूर्ण रूप से सांसारिक व्यक्ति भी है। थोड़ा झटका लगता है उसे, जब दारिया जाने लगती है, पर शीघ्र ही वह संभल जाता है। अपने दैनिक जीवन में व्यस्त भी हो जाता है। यहां पर विपश्यना के मूल लक्ष्य से भी लोगों की भटकन रेखांकित हुई है। साधु-साधु कहना अलग बात है, साधु बनना बिलकुल अलग ! लोग शिविर में मन की शांति हेतु आते अवश्य हैं, पर विपश्यना के वास्तविक लक्ष्य को कितने ही लोग प्राप्त कर पाते हैं, या आज तक कर पाए हैं  ?

जीवन बहुत अद्वितीय है,अद्भुत है ! इस की नाना संभावनाओं, क्रियाकलापों, घटनाओं, दुर्घटनाओं, संयोगों, वियोगों को समझना समझाना असंभव है,और गुत्थियों को सुलझाना विकट असंभव ! 

वास्तव में चंचल मन सहज ही विकृतियों के दबाव में आ जाता है। स्थान, समय, नीति और अनीति देखने का उस के पास ह्रदय नहीं होता है। न समय होता है। उतावला सा मन अपनी बुनावट में वह सृष्टि के आदि से ही बैचेन सा है। मन ऐसा ही है। इसे साधने की अनेकों विधियां खोजी गईं। अनेक वर्जनाएं लादी गईं। और अनेक प्रतिबंध थोपे गए। पर मन तो मन है। टस से मस न हुआ, आज तक ! इसी मन की दुर्निवार शक्ति के कारण ही अनेक राजा भोगी बन गए , अनेक भोगी योगी ! 

ये मन का ही हठयोग है,कि तनिक सी देर में कभी धूप, कभी छाया बन कर हमें रिझाता है, तो कभी खिजाता भी है !

इसी मन की करतूत से विवश हुआ था विनय भी। वरना अपने परिवार में लगभग सुखी और समर्थ ही तो था वह। थोड़ी विसंगतियां , थोड़ी असहजता, और थोड़ी अन्मस्यकता से ऊबा हुआ विनय, इस मौन की राजधानी में आया तो। पर जब तक ध्यान की अवधारणा, सांसों का व्यतिक्रम समझता, तब तक देह धर्म ने मन के अनुशासन को मानने से इंकार कर दिया। और वह रूसी बाला के देह में विपश्यना की खोज में रम गया। तल्लीन हो गया। उसे अंदाज़ा भी नहीं था, कि उस का उपयोग किया जा रहा है। सदा पुरुष ने स्त्री का उपभोग किया, पर यहां स्थिति दूसरी है। एक स्त्री भरसक उस को , उस के ईमान और चरित्र से अपदस्थ कर रही थी। और उसे अपना उपभोग्य बना रही थी। पर विनय मात्र देहगंध में डूबा हुआ सत्यता की थाह नहीं पा सका। हालां कि उस ने किंचित् सफलतापूर्वक विपश्यना की साधना भी की थी !

अंत में उपन्यास कथ्य के विस्तार के साथ ही अत्यंत रोचक होता हुआ अपने चरम को प्राप्त होता है। कथावस्तु की बुनावट और शैली की मोहकता, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के मनोहारी संदर्भ के साथ प्रस्तुत होती है। लेखक अपनी लोकप्रिय लेखन शैली से चमत्कृत करता हुआ अपने दायित्व के निर्वहन के साथ ही उपन्यास को उस की संपूर्णता में जीते हुए जय का शंखनाद करते हुए आगे बढ़ता ही है, पर  तभी दारिया के एक फ़ोन से उस के एक वाक्यांश से, कथा की सारी परतें अचानक ही तात्कालिक विस्फोट के साथ ही उधड़ जाती हैं,और उपन्यास अपने औचक लेकिन स्तब्धकारी चरम को छू लेता है।

कहना नहीं होगा,कि दयानंद पांडेय जी का यह उपन्यास एक लघु उपन्यास होते हुए भी, इन की तमाम विराट रचनाधर्मिता पर भारी पड़ा है। सृजन का सुख भी लेखक के लिए यही है। बहुत कम ही कृतियां अमरत्व को प्राप्त होती हैं, और दयानंद पांडेय जी की ‘विपश्यना में प्रेम ’ इस अमरत्व की पूर्ण अधिकारी है।


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


     

     

               





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