ज्योत्स्ना कपिल
निर्भीक पत्रकार एवं प्रखर रचनाकार, दयानंद पांडेय जी से शायद ही कोई गंभीर रचनाकार अपरिचित होगा। ढेरों कहानियां, एक दर्जन से अधिक उपन्यासों, लेखों, संस्मरण के सर्जक दयानंद जी का लेखन न सिर्फ़ मन को मोहता है, बल्कि निर्बाध गति से पाठक को अपने प्रवाह में बहा ले जाने में सक्षम है। पांडेय जी के सृजन से ,मेरा प्रथम परिचय एक कहानी के द्वारा हुआ। किसी व्हाट्स ऐप समूह में आप की लिखी कहानी ' शिकस्त ' जब मैंने पहली बार पढ़ी तो चमत्कृत रह गई। कहानी की महीन बुनावट, घटनाक्रम की उठापटक और कथानक की रोचकता ने मुझे अत्यंत प्रभावित किया। यह एक ऐसी कहानी थी, जिस ने मेरे ज़हन में ऐसा असर छोड़ा, जिसे भुला पाना लगभग असंभव था।
इस के पश्चात उन का बहुचर्चित उपन्यास- ' विपश्यना में प्रेम ' पढ़ा। जिस की चर्चा, मैं काफ़ी समय से सोशल मीडिया में पढ़ रही थी। उसे पढ़ने के लिए मैं भी उत्सुक हो उठी थी। फिर मालूम हुआ कि उन की सभी रचनाएं उनके ब्लॉग - सरोकारनामा, पर उपलब्ध है
इस उपन्यास को पढ़ना मेरे लिए एक अलग अनुभव रहा। उपन्यास का प्रमुख पात्र विनय, सांसारिक उपक्रमों से ऊबा हुआ आदमी है। जो पंद्रह दिन की मौन साधना के लिए, विपश्यना शिविर में आता है। इस शिविर में आते ही सब के मोबाइल, लैपटॉप इत्यादि शिविर संचालकों द्वारा जमा करवा लिए जाते हैं। अर्थात अब वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति का संपर्क, बाहरी दुनिया से पूरी तरह कट चुका है। अब सुबह चार बजे से, रात नौ बजे तक की साधना प्रारंभ हो जाती है। प्रत्येक साधक को घंटी के स्वर पर , प्रातः चार बजे शैय्या त्याग कर, साधना के लिए तैयार होना है। कई - कई घंटों की साधना चलती है। पंद्रह दिन तक मौन रहना है। इशारे में भी, किसी से कोई बात नहीं करनी है। बैठते समय दीवार का सहारा भी नहीं लेना है। ऐसे में शिविर के कठोर नियमों से, विनय ऊबने लगता है और वहां से भाग जाने को व्याकुल होने लगता है। जब उस के चारों ओर मौन था, तो अंतर्मन का शोर बढ़ता चला जाता है। वह बहुत प्रयास के बावजूद भी, उस से छुटकारा नहीं पाता। साधना करते हुए वह अकसर निद्रा की शरण में चला जाता है, उस की नाक बजने लगती है। जब चैतन्य होता है, तो कक्ष में उपस्थित लोगों पर उस का ध्यान भटकता रहता है। वहां कुछ दक्षिण भारतीय हैं तो कुछ महाराष्ट्रियन। बड़ी संख्या में विदेशी भी, साधना के लिए आए हैं। एक अंग्रेज लड़का है जो उसे हाथ जोड़ कर नमस्कार करता है। फ्रांसीसी है, सिंगापुरी है, राशियन है। विनय की दृष्टि अकसर नारी देह के अवयवों का भी निरीक्षण करती रहती है। बहुधा वह स्वयं को डपटता भी है, कि वह साधना के लिए आया है, लंपटई के लिए नहीं। अच्छी खासी ठंड होने के कारण जहां लोग गर्म कपड़ों से ढके रहते हैं, वहां एक रशियन युवती स्लीवलेस टॉप और स्कर्ट में रहती है। फिर एक रात जब विनय साधना समाप्त होने के पश्चात, नींद न आने के कारण टहलने निकला है, तभी उस रशियन युवती के साथ उस की अंतरंगता हो जाती है। ऐसा कई बार होता है और विनय का मन, अब साधना में लगने लगता है।
अंत में वह यह जान कर सन्न रह जाता है कि वहां आए लोगों के आने का उद्देश्य मात्र साधना नहीं था, बल्कि वे अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु भी आए थे। कुछ लोग वहां अपने टूरिज्म के व्यवसाय हेतु आए थे, तो कुछ घूमने के उद्देश्य से और सबसे सस्ते, उपलब्ध स्थान होने के कारण वहां आए थे। उपन्यास का अंत, विनय के साथ पाठक को भी एक तेज झटका देता है और मन के भीतर उल्लास भर देता है। पूरे उपन्यास का मूल स्वर यह है कि अधूरी लालसाओं के साथ व्यक्ति साधना नहीं कर सकता। जब उस का मन हर तरह से तृप्त होगा, तभी वह पूरे मन से किसी साधना को साध पाएगा। यह उपन्यास ओशो की पुस्तक - संभोग से समाधि, की सटीक और रोचक व्याख्या प्रस्तुत करती है।
पूरे उपन्यास का कलेवर इतना रोचक है, कि पाठक इसे एक ही सिटिंग में पढ़ने को बाध्य हो जाता है। पूरा उपन्यास, पाठक के मन में उत्सुकता, हर्ष, विषाद जैसे भाव जगाने में सक्षम है। भाषाई कौशल तो इस कदर अद्भुत है कि सभी दृश्य दर्शनीय हो उठते हैं। इतना वास्तविक कि जैसा लेखक दिखाना चाहता है पाठक भी वैसा ही अनुभव करता है। इस की कुछ बानगी मैं अवश्य दिखाना चाहूंगी -
यह कौन सा शोर है? शोर है कि विलाप ? कि शोर और विलाप के बीच का कुछ ? विपश्यना तो नहीं ही है तो फिर क्या है ?
विराट दुनिया है स्त्री की देह। स्त्री का मन उस की देह से भी विराट ।
बाहर हल्की धूप है , मन में ढेर सारी ठंड।
विपश्यना में वासना का कौन सा संगीत है यह ?
कौन सी कंचनजंघा है जिस की गोद में बैठ कर सूर्य शिशु बन कर झांक रहा है। मां की गोद में बैठा , आहिस्ता से झांकता शिशु। टुकुर-टुकुर। सूर्य की लाली लावण्य बन कर उपस्थित है।
चांद भी इस सर्दी में जैसे स्लीवलेस हो गया है। जैसे अपनी मां की गोद में बैठ कर , मां के आंचल में छुपा हुआ आहिस्ता से झांक रहा है। टुकुर-टुकुर। तो क्या चांद को भी मल्लिका की प्रतीक्षा है। प्रतीक्षा तो इन ठंडी हवाओं को भी है। लिली के फूल की झाड़ियों को भी है। आम के वृक्ष को भी। आचमन करते पल्लव को भी। इस नीरव सन्नाटे को भी…
नए-नए प्रयोग मुझे मोहित करते रहे और मैं इस उपन्यास की अबाध गति के साथ बहती चली गई। इसे पढ़ने का अनुभव अद्भुत रहा। एक ऐसी रचना, जिसमें सर्वत्र मौन ही है, संवाद न के बराबर, वह पाठक के मन की लगाम कस कर थामे रखता है और आप को कहीं भी ऊबने नहीं देता।
मैं दयानंद जी को बहुत बधाई देती हूं इस लाजवाब उपन्यास के लिए और अपेक्षा करती हूं कि पुस्तक की गूंज , लंबे समय तक, चहुंओर व्याप्त रहेगी।
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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