Wednesday, 12 July 2023

प्रेम में विपश्यना

गौतम चटर्जी

गौतम चटर्जी 


पूर्वपीठिका

संस्कृत शब्द पश्य का अर्थ है देखना और विपश्य का अपने अंतस को देखना। बाहर की ओर न देख कर अपने मन यानी विचारों को देखना।  और इसे विचारशून्य करना बुद्ध की ध्यानविधि का प्रथम चरण है, प्रारंभिक भूमि जिसे विपश्यना कहा गया। पालि में संस्कृत का ही शब्द लिया गया था। बुद्ध ने मन को ही सब कुछ कहा है। जब यह विचार यानी संसार से रिक्त है तो सत्य का प्रकाश इसी अंतस में प्रकाशित है। यही फिर वैदिक मानस है, आत्म या आत्मा है, हृदय है, ईश्वर अनुभूति है। आधुनिक दौर में विपश्यना के ध्यानशिविर भारत में लगते रहे हैं, लगते रहते हैं। हालांकि इसके लिए किसी शिविर में जाने की ज़रुरत  नहीं। जहां हम हैं वही शिविर हो सकता है, वही बोधिवृक्ष हो सकता है ।

उपन्यास

वरिष्ठ कथाकार दयानंद पांडेय के इस नये उपन्यास विपश्यना में प्रेम में इसी संदर्भ को उपन्यास का परिवेश बनाया गया है। शिविर-संदर्भ को वास्तविक जीवन से लिया गया है फिर लेखक की कल्पनाशीलता ने इसे अपनी कथावस्तु का आकाश दिया है। कथासार भी वास्तविक जीवन के अपरिचय से नहीं है। ऐसा परिचित जीवन में घटता है इससे हम परिचित हैं। जीवन-घटना की कल्पना और जीवन-घटना दो अलग प्रसंग हैं। जीवन-घटना की कल्पना इस तरह की जाय कि वह अविकल जीवन-घटना लगे, यही साहित्यरचना का उत्कर्ष है। रामायण और महाभारत का उत्कृष्ट उदाहरण वर्षों से हमारे सामने है। आज कोई मानने को ही तैयार नहीं कि यह वाल्मीकि और वेदव्यास की साहित्य रचना है। महाकाव्य और गाथा का यही चरित्र भारतीय मानस के रचनाकारों ने हमें सौंपा है। जिसके वातायन में ही हम दयानंद की इस औपन्यासिक कृति को देखते हैं और प्रशंसा करते हैं।

सिर्फ देखना होता और पूरा पढ़ने के बाद आस्वाद का अनुभव वह नहीं होता जो हम भारतीय महाकाव्य के प्रस्थान बिंदु से आधुनिक हिंदी उपन्यासों की सरणि तक हम लेते आए हैं तो फिर प्रशंसा की बात नहीं बनती, न इस लघु आलेख को लिखने की उत्कंठा बन पाती। महाकाव्य का उदाहरण हमने रखा। दोनों महाकाव्य इसी अर्थ में इतिहास हैं और इसी लिए इनके रचनाकाल को इतिहासकाल भी कहा गया है। तो हम यहां से उपन्यासधर्मिता को देखते हैं। आधुनिक भारतीय उपन्यास के उदाहरण हमारे आगे हैं रबींद्रनाथ ठाकुर का उपन्यास शेष कविता, मानिक बंदोपाध्याय का पुतुलनाच की इतिकथा, शरतचंद्र  का श्रीकांत की वसीयत, प्रेमचंद का देवस्थान रहस्य, जयशंकर प्रसाद का इरावती और निर्मल वर्मा का वे दिन। 2023 में अब उपन्यास विपश्यना में प्रेम को हम इसी वातायन में इसी ऊंचाई से देखते हैं।

उपन्यास में कथावस्तु के साथ दो महत्वपूर्ण अवयवों की परख की जाती है वह है भाषा और शैली। किसी कहानी को उपन्यास का रूप देने में यदि विस्तार की भाषा है तो यह सरस नहीं बनी रहती। लेकिन यदि यह भाषा में विस्तृत होता हुआ है और दिलचस्पी सिर्फ कथा-मोड़ के कारण ही नहीं बल्कि शैली यानी शिल्पगत वैशिष्ट्य के कारण भी है तो दिलचस्पी पूरा पढ़ लेने के बाद भी बनी रहती है उत्सुकता का उत्साह भी भाषा के स्तर पर वाग्जाल नहीं है। कथा के विस्तार में अन्योक्ति नहीं है, और शैली के स्तर पर सामासिक अभिव्यक्ति है, आलंकारिक सौंदर्य की शाब्दिक उपमाएं हैं। देखिए :

साधना और साधन में इतना संघर्ष क्या हमारे सारे जीवन में ही उथल पुथल नहीं मचाए है ? इस शोर का कोई कुछ नहीं कर सकता था। वह भी नहीं।

यह कौन सा शोर है? शोर है कि विलाप ? कि शोर और विलाप के बीच का कुछ ? विपश्यना तो नहीं ही है तो फिर क्या है ?

विराट दुनिया है स्त्री की देह। स्त्री का मन उसकी देह से भी विराट ।

चंदन है तो वह महकेगा ही वह महक उठता है।

बाहर हल्की धूप है , मन में ढेर सारी ठंड। 

नींद में ध्यान। 

विपश्यना में वासना का कौन सा संगीत है यह ?

शब्द-शब्द हम कथा में आगे बढ़ते हैं। ऐसे वाक्य सिर्फ़ अभिव्यक्ति भर नहीं हैं बल्कि ये कथा के प्रवाह को आगे बढ़ाते हैं बिल्कुल अलग आस्वाद के प्रभाव के साथ कथाप्रवाह के आगे बढ़ने के लिए विभिन्न चरित्र भी हैं, लोकेशन भी और लेखक की दृष्टिआधारित टिप्पणियां भी स्त्रियों के पक्ष में सोचते हुए यशोधरा और सीता की ओर से भी सोचा गया है। और लेखक ने अपने कुछ प्रश्न उठाए हैं। यह समझने के लिए कि यदि कोई स्त्री अपने मौन विलाप में इस शिविर में आयी है तो उसका आत्यन्तिक कारण क्या हो सकता है। इसे ढूंढने लेखक सिद्धार्थ की मानसिकता में जाता है और मैथिलीशरण गुप्त की कविता के जरिये यशोधरा के विलाप तक भी द्रौपदी तक भी यह जाना फिर लोकेशन में भी बदल सकता है। दार्जिलिंग या फिर गोभी की खेत का चबूतरा या युवा दिन या नदी की तलहटी या बॉटनिकल गार्डेन, और फिर लौट के आना, रहना। चुप की राजधानी में लगभग हर तीसरे अनुच्छेद में स्त्री के विलाप पर ध्यान है। चरित्रों में मुस्लिम महिला मित्र भी है, अंग्रेज लड़का भी, आस्ट्रेलियाई भी, फ्रांसीसी भी और साधु-साधु बोलता साधु भी। रुसी चरित्र तो कथा की नायिका ही है।

कथा की भाषा का संगीत की भाषा में भी अनुवाद हुआ है। परस्पर संपर्क के विवरण विशेष कर देहसंसर्ग की सूक्ष्म सक्रियता को संगीत की भाषा में मर्यादा दी गयी है। कभी बांसुरी के स्वर से तो कभी मालकौंस के राग विस्तार से। 

भाषा और शैली ही कथा को क्रमशः विस्तार देते हैं और पूरा उपन्यास एक ही बार में पूरा पढ़ जाता है। लगता है, किसी लंबी यात्रा से लौटे हों, बिना थके। अंतिम बार 'नीला चांद' पढ़ कर भी थोड़ा थके थे। विनय और मल्लिका का प्रेम जुड़ाव विपश्यना शिविर के अनुशासित मौन में घटता और पल्लिवत होता है। यहां भी भाषा एक बड़ी भूमिका में है। भारतीय और रुसी भाषा, मौन की भाषा, देह की भाषा और विपश्यना की भाषा। इस भाषिक कथामयता पर फिल्म भी बहुत अच्छी बन सकती है। देह के स्तर पर अंततः आ जाने के परिणति निकष पर उपन्यास पाठक को सावधान भी करता है। विपश्यना में मन से संसार ही छूटता है लेकिन यहां कथा संसार को कस कर पकड़ना और पकड़े रखना चाहती है और अंततः परिणति पाठक को उसके ध्यानशिविर में पहुंचा देती है, संसार के प्रति सावधान कर प्रेम में विपश्यना की ओर ध्यान अब जाता है। प्रशंसा यहां इसी कारण उपन्यास की है।

साधु साधु !


संपर्क 

एन 11 / 38 बी , रानीपुर , महमूरगंज 

वाराणसी - 221010 

मोबाइल : 7052306296 


[ वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली से प्रकाशित उपन्यास विपश्यना में प्रेम की भूमिका ]


अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 








विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 


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1 comment:

  1. सुंदर समीक्षा, पुस्तक पढ़ने को प्रेरित करती है

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