Thursday, 30 August 2018

अथ पुस्तक विमोचन जाल-बट्टा कथा

यश:प्रार्थी एक युवा कवि आज घर पर मिलने आए । अभी-अभी लखनऊ में एक कविता पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम देख कर अभिभूत थे और अपनी कविता पुस्तक के लिए खर्चा भी जोड़ रहे थे । खुद ही बता रहे थे कि मान लीजिए पचास हज़ार रुपए पुस्तक प्रकाशित करवाने में लग जाएंगे । पचास हज़ार रुपए का बजट वह पुस्तक विमोचन के आयोजन पर भी बता रहे थे । कह रहे थे ख़ूब धूम-धाम से करेंगे । फिर कुछ बड़े कवियों , आलोचकों को बाहर से बुलाने और उन के रहने , खाने-पीने , शराब आदि के लिए भी वह पचास हज़ार रुपए का बजट बताने लगे । कहने लगे कुछ बढ़ा भी देंगे । पचास से पचहत्तर भी हो सकता है । स्थानीय पत्रकारों के शराब और डिनर की चर्चा भी की । मैं ने उन से पूछा कि आप यह सब मुझे क्यों बता रहे हैं ? वह कहने लगे कि बस आप की राय जानना चाहता हूं । मैं ने कहा कि मेरी राय तो यह है कि एक तो पैसा खर्च कर कविता-संग्रह छपवाने की कोई ज़रूरत नहीं है । दूसरे , अपना पैसा खर्च कर अपनी झूठी तारीफ करवाने के लिए पुस्तक विमोचन कार्यक्रम आयोजित कर इतना पैसा पानी में मत बहाइए । न ही झूठी तारीफ करने के लिए बाहर से कवियों , आलोचकों को भाड़े पर बुलाइए । न यह ड्रामा कीजिए । वह किंचित दुखी होते हुए बोले , आप तो सर , मेरे इरादे पर ही पानी डाल दे रहे हैं । मैं ने कहा कि आप ने राय मांगी तो सही राय दे दी । आप मत मानिए । किसी डाक्टर ने थोड़े कहा है कि आप मेरी राय मानिए ही मानिए । मैं ने उन्हें स्पष्ट बताया कि मैं ने पैसा दे कर कभी कोई किताब नहीं छपवाई । न ही किसी किताब का कभी कोई विमोचन आदि करवाया है । अब तो समीक्षा के लिए भी कहीं किताब नहीं भेजता । क्यों कि यह सारी चीज़ें , लेखक को अपमानित करने वाली हो चुकी हैं । सो हो सके तो आप भी इस सब से बचिए । क्यों कि दिल्ली , लखनऊ से लगायत पूरे देश में हिंदी जगत का यही वर्तमान परिदृश्य है । खास कर अगर वक्ता अध्यापक है तो वह पुस्तक पर न बोलते हुए भी , दाएं-बाएं बोलते हुए भी अपने अध्यापन के बूते लंबा बोलते हुए लेखक का इगो मसाज अच्छा कर लेता है । इस विमोचन में भी यही सब हुआ । अध्यापक वक्ताओं की बहार थी । बल्कि एक लेखक ने तो संचालिका से चुहुल करते हुए कहा भी कि आप ख़राब कविताएं भी बहुत अच्छा पढ़ती हैं । वह नाराज होने के बजाय हंस पड़ीं ।

लेकिन उन युवा कवि पर पुस्तक छपवाने और विमोचन का जैसे भूत सवार था । मैं ने आजिज आ कर उन से पूछा कि क्या कविताएं भी पैसा खर्च कर लिखवा रहे हैं ? वह भड़क गए । बोले , लिखना मुझे आता है । मैं ने उन से कहा कि चलिए आप के पास पैसा है , आप यह सब कर भी लेंगे । लेकिन कोई क़ायदे का कवि या आलोचक आप की कविता की तारीफ करने आएगा भी क्यों ? आप संपादक हैं क्या कि सब को बटोर लेंगे ? कि आप पुलिस अफ़सर हैं कि आई ए एस अफ़सर ? कि कोई सुंदर स्त्री ? कि किसी लेखक संघ के धंधेबाज पदाधिकारी हैं , सदस्य हैं , कि कोई गिरोहबाज लेखक हैं कि लोग अपना मान-सम्मान भूल कर भागे-भागे आ जाएंगे ? वह एक विद्रूप हंसी हंसे । कहने लगे एक एयर टिकट , या रेल का ए सी टिकट , होटल में रहने , शराब की बात पर हर कोई आ जाता है । बड़े से बड़ा भी । कविता कैसी भी हो तारीफ़ के पुल बांध कर जाता है । मैं ने कहा कि तारीफ़ के पुल बांधने वाले दिग्गजों ने बीते विमोचन कार्यक्रम में कितनी बात उस कवि की कविता पर की और कितनी बात कवि के बारे में की । और कितनी बात इधर-उधर की , की आप को याद है ? वह बरबस हंस पड़े । बोले यह तो ठीक है पर एक समां तो बंध ही गया न !

मैं ने उन से कहा कि कमज़ोर कविताओं पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले दिग्गजों से पूछिएगा कभी कि आप उन कविताओं पर क्या इतना हर-भरा लिख कर कहीं छपवा भी सकते हैं ? देखिएगा सभी के सभी तो नहीं पर ज्यादातर कतरा जाएंगे । नामवर जैसे लोग भी बोलते बहुत थे कभी विमोचन कार्यक्रमों में लेकिन उन किताबों पर लिखते नहीं थे कभी । और कई बार तो बहुत दबाव में आ कर वह कार्यक्रम में आ तो जाते थे पर अप्रिय भी बोल जाते थे । जैसे गोरखपुर में किसी कार्यक्रम में एक ग़ज़ल संग्रह का विमोचन करते हुए बोल गए कि फ़िराक के शहर में कुत्ते भी शेर में भौंकते हैं । दूरदर्शन के पुस्तक समीक्षा कार्यक्रम में लंदन के एक लेखक के कहानी संग्रह पर वह अपमानजनक ही बोल गए । अशोक वाजपेयी के भी पुस्तक विमोचन , पत्रिका विमोचन के ऐसे अनेक किस्से हैं । कहूं कि तमाम स्थापित लेखकों के अनगिन किस्से । लखनऊ में नरेश सक्सेना भी विमोचन कार्यक्रमों में अटपटा और अपमानजनक बोल कर फज़ीहत उठाने के आदी हो चले हैं । विमोचित किताब पर अमूमन वह नहीं ही बोलते । इधर-उधर की बोलते हैं । अध्यापक हैं नहीं , सो जलेबी भी नहीं छान पाते ।लेकिन नरेश सक्सेना को उस दिन सुन कर लगा कि वह मौक़ा और पात्र देख कर ही अटपटा और अपमानजनक बोलते हैं , हर जगह नहीं । वह जानते हैं कि कहां क्या बोलना है , और कहां क्या नहीं बोलना है । कम से कम उस दिन यही लगा । आदतन वह एक बार फिसले तो पर अचानक फिसलते-फिसलते भी बच लिए । फिसल कर हर-हर गंगे कहने से बच गए । बल्कि बचा ले गए अपने आप को । मेरा मानना है कि नरेश जी को पुस्तक विमोचन कार्यक्रमों में जाने से भरसक बचना चाहिए । इस लिए भी कि पुस्तक चाहे जितनी भी बकवास हो , उस का लेखक उस समय उस समारोह का दूल्हा या दुलहन होता है । और दुलहन या दूल्हा काना हो , अंधा हो , लंगड़ा हो , गंजा हो , बुड्ढा हो , जैसा भी हो उस की तारीफ ही की जाती है । अवगुण नहीं देखा जाता । नरेश जी अवगुण देखने लगते हैं । या फिर पुस्तक पर बात ही नहीं करते । चाय , समोसा की लोगों की तलब पर बात बताने लगते हैं । अपने बारे में बताने लगते हैं । दुनिया भर की कविताओं आदि की बात करते हैं पर विमोचित पुस्तक की बात नहीं करते । गरज यह कि दूल्हे की भरपूर उपेक्षा ही उन का मकसद दीखता है । यह उन की चिर-परिचित अदा है अब । नतीजतन पुस्तक का लेखक और उस के संगी-साथी कुढ़ते बहुत हैं । बाकी लोग मजा लेते हैं ।

यश:प्रार्थी युवा कवि अब सहज हो रहे थे । और किचकिचा कर कहने लगे कि इन को तो मैं बुलाऊंगा ही नहीं । फिर जब मैं ने उन्हें बताया कि पैसा खर्च कर समीक्षाएं आदि भी लिखवाई और छपवाई जाती हैं अब तो ।

क्या कह रहे हैं आप ? पूछते हुए युवा कवि उछल पड़े । मैं ने उन्हें कई सारे दृष्टांत दिए । वह बहुत चकित हुए तो मैं ने उन्हें बताया कि हंस में एक लेखिका की किताब पर एक नामी आलोचक की लिखी समीक्षा राजेंद्र यादव ने बतौर विज्ञापन छाप दी थी और पूरी प्रमुखता से । प्रकाशक ही पैसा ले कर किताब नहीं छापते , संपादक भी पैसा और देह भोग कर सब कुछ छापते हैं । पैसा और देह भोग कर लोग पुरस्कार भी दे रहे हैं । ऐसे पुरस्कृत और उपकृत कुछ नायक , नायिकाओं के नाम भी बताए । लेकिन वह यश:प्रार्थी युवा कवि भी घाघ निकले । बोले , इस दिशा में भी सोचता हूं सर ! मैं ने उन से कहा कि यह सब मैं ने आजमाने के लिए आप को नहीं बताया । इस लिए बताया कि इन सब चीज़ों से आप दूर रहिए । सिर्फ़ और सिर्फ़ रचनारत रहिए । अपनी रचना पर यकीन कीजिए । किसी नौटंकी आदि-इत्यादि में नहीं । क्यों कि रचा ही बचा रहता है । तिकड़मबाजी और शार्टकट आदि नहीं । सिर्फ़ बदनामी मिलती है इन सब चीज़ों से । वह मुझे शर्मिंदा करते हुए बोले , जब हमारे सीनियर लोग रास्ता बता और बना गए हैं तो इसे आजमाने में कोई हर्ज नहीं है । मेरे पांव छू कर आशीर्वाद लिए और ख़ुश हो कर वह बोले , बड़ी फलदायी रही आप से यह मुलाकात । और विजयी भाव लिए चले गए । वैसे भी आज की तारीख में यही और ऐसे ही लोग विजयी लोग हैं । इन मीडियाकर्स के घोड़े खुले हुए हैं , इन का अश्वमेघ यज्ञ जारी है । अनवरत ।

2 comments:

  1. बेहतरीन टिप्पणी, पुस्तकों के विमोचन समारोहों पर | बधाई आपको |

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  2. >>> आज की तारीख में यही और ऐसे ही लोग विजयी लोग हैं
    सही कहा है आपने. :)

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