आज अल्लसुबह पांच बजे हैदराबाद एयरपोर्ट पर अचानक एम जे अकबर से भेंट हो गई। वह दिल्ली आ रहे थे और मैं लखनऊ। एक ही फ्लाइट से। हम जब पढ़ते थे तब अकबर को यंगेस्ट एडिटर के तौर पर जानते हुए उन से बहुत रश्क करते थे । पैतीस साल की उम्र में कोलकाता के आनंद बाज़ार पत्रिका के प्रकाशन में वह संडे और टेलीग्राफ दोनों के संपादक थे । उन्हीं दिनों मुंबई की एक बहुमंजिली बिल्डिंग में आग लगी थी । टेलीग्राफ की अगले दिन लांचिंग थी । मतलब अखबार का पहला अंक छपना था । अकबर ने इस आगजनी की फोटोग्राफी हेलीकाप्टर से करवाई थी और कोलकाता से छपने वाले टेलीग्राफ में छापी थी। मुंबई के अखबार इस कवरेज में कोलकाता के टेलीग्राफ से पिट गए थे । टेलीग्राफ़ का पहला ही अंक छा गया था। चहुं और टेलीग्राफ की चर्चा थी। जाहिर है टेलीग्राफ तो बहाना था , चर्चा तो टेलीग्राफ के संपादक एम जे अकबर की थी। लोगों ने छींटाकशी भी की और कहा कि जिस हेलीकाप्टर से फोटो खींचे गए उस हेलीकाप्टर का इस्तेमाल फ़ोटो खींचने के बजाय उस आग लगी बिल्डिंग से लोगों को बचाने के लिए भी किया जा सकता था। और बात जब ज़्यादा बढ़ने लगी तो अकबर ने एक मुख़्तर सी बात कह कर बात खत्म कर दी थी । अकबर ने कहा था कि लोगों को बचाने के लिए सरकारी अमला समेत और लोग भी लगे थे । लोग अपना काम कर रहे थे और मैं अपना काम । मेरा काम उस हादसे को रिपोर्ट करना था , जो मैं ने बखूबी किया । बात ही बात में मैं ने उन्हें जब बताया कि अंगरेजी पत्रकारिता में आप ने जो काम किया है सो किया ही है , हिंदी पत्रकारिता पर भी आप के बहुत एहसान हैं तो वह मुस्कुराते हुए चौंके। और धीरे से बोले , ' आप रविवार की बात कर रहे हैं । '
' बिलकुल !' मैं ने कहा कि रविवार के मार्फ़त आप ने हिंदी पत्रकारिता को जो तेवर और नया आकाश दिया , एक खिड़की खोली , एक ठस ज़मीन तोड़ी उस दौर में वह आसान नहीं था । बाद के दिनों में जनसत्ता ने रविवार के इस तेवर को उड़ान दी , परवान चढ़ाया। सुन कर अकबर मुदित हो गए । खुशवंत सिंह के इलस्ट्रेटेड वीकली स्कूल से निकले अकबर ने और भी कई काम किए । बाद के दिनों में वह चुनाव लड़ कर सांसद भी बने । चंद्रशेखर उन के राजनीतिक पुल बने । लेकिन राजनीतिक पाली उन की इतनी चटक कभी नहीं रही जितनी चटक उन की पत्रकारिता की पाली । हालां कि पत्रकारिता में भी उन का रंग बाद के दिनों में बदरंग होने लगा । काशीराम जैसे राजनीतिक धब्बे भी एक समय अकबर को मेसेंजर ब्वाय से नवाज गए । लेकिन अकबर पलट कर एक बार भी इस मेसेंजर ब्वाय नाम की गाली का प्रतिवाद नहीं कर पाए । तो शायद इस लिए भी कि वह सचमुच इस राह के राही बन गए थे । कुछ महिला पत्रकारों से भी उन के जुड़ाव की चर्चा कभी खूब होती रही । अपनी आत्मकथा में अपने हिंदू पुरखों की याद कर प्रकारांतर से अपने को हिंदू कहला कर भी वह विवाद में पड़े । अंतत: इस की परिणति एशियन एज के संपादक के बाद उन के भाजपा ज्वाइन कर लेने में हुई । बीते लोकसभा चुनाव में वह भाजपा के प्रवक्ता बने दिखाई दिए । पर तमाम कसरत के बावजूद उन का भाजपा प्रवक्ता असफल साबित हुआ । अब वह शायद भाजपा में भी अनफिट हो चले हैं । अगर भाजपा में उन के दिन इन दिनों ठीक-ठाक होते तो आज की सुबह वह एयरपोर्ट पर होते तो ज़रूर पर बेंगलूर के एयरपोर्ट पर । हैदराबाद के एयरपोर्ट पर नहीं । बेंगलूर जहां भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी और देश भर के भाजपाई इकट्ठे थे । अकबर को वहां होना चाहिए था । लेकिन वह तो हैदराबाद एयरपोर्ट पर थे । आज सुबह एयरपोर्ट के भीतर ऐसे ही इधर-उधर टहल रहा था तो एक छोटे से शोरूम के सामने एम जे अकबर को अकेले खड़े कुछ निहारते देखा। ठीक इसी वक्त जब मैं उन्हें मिला तो पहले तो वह बहुत खुश हुए । हम लोग टहलते हुए बतियाने लगे। पत्रकारिता में उन के स्वर्णिम दिनों की याद जब तक दिलाता रहा , तब तक वह खुश-खुश रहे । लेकिन ज्यों भारतीय पत्रकारिता में पतन की बात शुरू की तो वह असहज होने लगे । और राजनीति पर बात आते-आते वह कतराने लगे । और जेट का लाउंज खोजने लगे। पूछने पर कोई कर्मचारी इधर भेज देता , कोई उधर । लाउंज खोजते-खोजते एयरपोर्ट के कर्मचारियों पर वह बारी-बारी बरसने लगे , डपटने लगे । तेज़-तेज़ अंगरेजी बोलते हुए । उन की फर्राटेदार अंगरेजी में डांट - डपट का असर हुआ । एक कर्मचारी विनयवत आया और उन्हें लाउंज तक ले गया । लेकिन तब तक फ्लाइट का टाइम हो चला था । मैं ने उन से हाथ जोड़ कर विदा ली । तो उन्हों ने बड़ी गर्मजोशी से हाथ बढ़ा दिया । हाथ मिलाते हुए बोले , फिर मिलते हैं । और वह जल्दी ही जहाज में भी मिल ही गए । अब संयोग देखिए कि दिल्ली आ कर अकबर इधर जहाज से उतरे और लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा इसी जहाज में आ कर सवार हो गए । मुझे देखते हुए बड़े उत्साह से बोले ,' बेंगलूर से आ रहा हूं !' मैं ने कहा कि , ' जानता हूं आप अब राष्ट्रीय राजनीति में आ रहे हैं।' सुन कर वह और खुश हो गए ! राजनीति और पत्रकारिता में अब ऐसा ही हो गया है , ऐसा ही होता है। लेकिन अकबर का यह अकेलापन , यह गुस्सा , यह अवसाद समय की दीवार पर आखिर कौन सी इबारत लिखना चाहता है ?
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