Saturday, 18 April 2015

लोक कवि अब गाते नहीं यानी देखना, महसूसना और लिखना साथ-साथ !

योगींद्र द्विवेदी

अब यह एक वास्तविकता है कि लेखन स्वान्त: सुखाय नहीं बल्कि समय-विशेष और उसके सवालों को शब्द देने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। शर्त यह है कि आप जिन घटनाओं-व्यक्तियों और विचारों को इसके लिए चुनते हैं, वह कितने सार्थक हैं। पाठक तक अपनी बात कितनी प्रखरता से पहुंचाने में सक्षम हैं। यह सही है कि काम में तकनीक, भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता का भी महत्वपूर्ण स्थान है, पर मूलभूत भूमिका व्यक्तित्व, विचार और उनसे सम्बंधित घटनाएं ही व्यक्त करती हैं। स्वाभाविक है कि लेखक इसका चयन उसी परिवेश से करता है जिसे वह जीता है। कलम को उचित दिशा मिले, इसमें उसके अनुभवों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। जरूरी नहीं कि समाज की विभिन्न स्थितियों, वर्गीय व्यक्तित्वों, उतार-चढ़ावों और क्षेत्रों को हर कलम पूरी तरह से देख ही ले। कल्पना की एक सीमा होती है और तमाम आत्मीयता व अभिव्यक्ति क्षमता के बावजूद असका अभाव कहीं न कहीं प्रभावित भी करता है। लेखन का एक बड़ा हिस्सा इसी की भेंट आये दिन चढ़ता रहता है और तमाम ईमानदार प्रयासों के बावजूद औसत रहता है। चर्चित लेखक और पत्रकार दयानंद पांडेय के पास किसी भी लेखन को स्तरीय, आत्मीय और उल्लेखनीय बनाने के लिए जरूरी दृष्टि और लेखकीय क्षमता तो है ही, अनुभवों का भी विपुल भण्डार है। उन्हों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूर दराज गांव देखे हैं, उनकी तमाम उतार-चढ़ावों भरी जिन्दगी देखी है। भोजपुरी जैसी आत्मीय बोली को जिया है और उसे आज के स्तरीय लेखन के लिए शब्दों में ढालने की कला का विस्तार दिल्ली/लखनऊ में पाया है। पिछले दो दशकों से वह निरन्तर लेखन की दुनिया में है। इस दौरान उन्हों ने अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दा का यक्ष प्रश्न और संवाद (कहानी संग्रह), प्रेमचन्द्र: व्यक्तित्व और रचना दृष्टि तथा मेरे प्रिय खिलाड़ी (सुनील गवास्कर की चर्चित रचना माई आइडियल्स का हिन्दी अनुवाद) जैसी स्तरीय रचनाएं हिन्दी संसार को दी हैं।


जहां तक इस रचना लोककवि अब गाते नहीं का सम्बन्ध है, इसकी कथावस्तु भले ही ग्रामीण परिवेश से ली गयी हो, पर उस पर पड़ने वाले शहरी प्रभावों, सतही राजनीति, बाजार की सुदूर इलाकों में पहुंचती पकड़ को रेखांकित करती है। इसके चलते यह उपन्यास सिर्फ भोजपुरी भाषा, उसकी गायकी और सम्बन्धित समाज के अवमूल्यन को ही नहीं बल्कि समग्रता में भारतीय समाज मे गिरते मूल्यों को भी स्वर देता है। कैसे एक लोक कवि अपनी कला के बूते पर लोकप्रियता की ऊंचाइयां छूता है और कैसे बाजार के दबावों के चलते तमाम समझौते करने को विवश होता है, यह समूचा दर्द बहुत बेबाकी और स्वाभाविक रूप से उपन्यास में आता है। कैसे लोककला के नाम पर सतही डांस और गीत आज बाजार की जरूरत है और कैसे लोककवि अपनी छवि के नाम पर इन्हें भी सिर चढाने के लिए अभिशप्त है और धीरे - धीरे जाने - अनजाने खुद भी अवमूल्यन में खो जाता है, यह उपन्यास इसी की अभिव्यक्ति है। न केवल वह टूटता है बल्कि वह लोक संस्कृति भी दरकती है, जिसका वह प्रतिनिघि है। यह सारा कथानक अत्यंत रोचक है। कथा वस्तु पाठक को लगातार खुद से जोड़े रखती है और इसे लेखक की सफलता के रूप में देखा जाना चाहिए। आज के दौर में पाठक को रोकना पहली शर्त है, तभी कोई रचनाकार अपनी बात कह सकता है। श्री पांडेय अपने गहरे छूते कथा-चयन और प्रभावपूर्ण आकर्षक प्रस्तुति के सहारे ऐसा कर सके हैं, इसका श्रेय उनकी लेखकीय क्षमताओं को जाता है।

रचना का सबसे कमजोर पहलू है – सेक्स संबंधी विवरण। लेखक की न केवल इस रचना में बल्कि अन्य रचनाओं उदाहरणार्थ (अपने-अपने युद्ध उपन्यास) में यह विवरण प्रचुरता से है। ऐसा नहीं है कि यह विवरण आरोपित है या कथानक की मांग नहीं है। सेक्स संबंधी यह घटनाएं आती तो स्वाभाविक ढंग से हैं, पर फिर छितरा जाती है। सेक्स संबंधी विवरण संपूर्ण लेखकीय और औपन्यासिक व्यक्तित्व के सामने सतही अधिक रह जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सेक्स संबंधी विवरण साहित्य में बेहतर ढंग से आये नहीं हैं, मगर उनकी चर्चा के समय स्तरीयता / अश्लीलता और साहित्य के अन्तरसम्बनधों का ख्याल जरूर रखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए मंटो को याद किया जा सकता है, जिनकी रचनाओं में घनघोर अश्लील प्रसंग भी अनन्त ऊंचाई पाते रहै हैं और साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। इसके बावजूद दयानंद पांडेय के पास इस उपन्यास में अपने पाठकों को देने के लिए बहुत कुछ है और वे सफलता पूर्वक देते भी हैं। बढ़्या आख्यान, समकालीन साहित्यिक सरोकारों के सनदर्भ में उन्हें देखने-रखने की क्षमता, बेहतर भाषा-शैली और आकर्षक मुद्रण सहित उनकी रचनाओं की सम्पूर्ण प्रस्तुति आकर्षक है और आत्मीय भी। ऐसे में श्री पांडेय से भविष्य में और बेहतर साहित्य सृजन की अपेक्षा सिर्फ औपचारिकता का निर्वाह भर नहीं है।
 [उत्तर प्रदेश से साभार ]
 
समीक्ष्य पुस्तक :

लोक कवि अब गाते नहीं
पृष्ठ सं.184
मूल्य-200 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003 

No comments:

Post a Comment