हिंदी लोगों की मां है। पर भोजपुरी भाषियों की बेटी है - हिंदी। हिंदी की दुर्दशा सर्वविदित है। और जब बेटी बेइज्जत होती है तो मां कितना आहत होती है यह मां ही जानती है। इस लिए हिंदी से कहीं ज़्यादा संकट मे भोजपुरी है। इस लिए भी कि जैसे हिंदी भाषियों में अपनी भाषा के प्रति मान-स्वाभिमान नहीं है और अंगरेजी की चेरी बन कर रह गई। हिंदी सरकार की कृपा से किसी तरह जी खा रही है। वैसे ही भोजपुरी भाषियों में भी अब अपनी भाषा का वह स्वाभिमान वह स्व नहीं रहा जो कभी इतना था कि उस की बेटी हिंदी सर्वमान्य भाषा बन गई। पर अब तो मां बेटी दोनों का स्व आहत है। हां बेटी राजाश्रय पा कर भी दरिद्र बन बैठी है और मां अनाथ, फटेहाल और बेहाल है। हुंह! हिंदी की मां भोजपुरी।
भोजपुरी, जिस को विश्व के 20 करोड़ लोग बोलते हैं। यहीं नहीं दुनिया के पांच प्रभुता संपन्न देश ऐसे हैं जहां भोजपुरी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है।[हालां कि अब इधर अंजोरिया के संपादक डा. ओम प्रकाश सिंह इस पर प्रतिवाद करते हैं और कहते हैं कि भोजपुरी कहीं भी किसी भी देश में राज्य-भाषा का दरजा प्राप्त नहीं है, यह मात्र अफवाह है जो भोजपुरी की दुकान चलाने वाले लोगों ने फैला रखी है। वह तो लगभग चैलेंज देते हुए कहते हैं कि किसी के भी पास डाक्यूमेंट्री प्रूफ़ अगर इस बारे में हो तो दिखाए।] और भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी को छोड़ कर अन्य सभी भाषा भाषियों से भोजपुरी भाषियों की संख्या सर्वाधिक है। हिंदी की जितनी उप भाषाएं या बोलियां हैं उन में भी भोजपुरी बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है। फिर भी इस हिंदी की मां को अपनी ही भूमि पर अपेक्षित सम्मान एवं मान्यता प्राप्त नहीं है। दुनिया के और देशों में भोजपुरी राजभाषा हो तो हो यहाँ तो कुछ भाई लोग फरमान जारी कर बैठते हैं कि भोजपुरी भाषा ही नहीं है।
तर्क क्या है? तर्क है कि भोजपुरी की अपनी कोई लिपि नहीं है। और बिना लिपि के कोई भाषा - भाषा नहीं हो सकती। तो क्या हिंदी भी भाषा नहीं है? उस की भी तो अपनी कोई लिपि नहीं है। देवनागरी लिपि में लिखी जाती है हिंदी। फिर हम कहते ही हैं ब्रज भाषा। तो ब्रज भाषा की क्या लिपि है? और अवधी की भी? यह भी तो आखिर भाषा ही है। अपनी भाषाओं को छोड़िए जिस के हम आज गुलाम बने बैठे हैं उस अगरेजी की भी तो अपनी कोई लिपि नहीं है। अंगरेजी भी तो रोमन लिपि का लेप लगाए है।
भोजपुरी जो अनाम, फटेहाल और बेहाल है तो इस लिए भी कि उस की ज़मीन पूर्वी उत्तर प्रदेश में विकास के पांव बहुत सुस्त हैं। एक तरह से विकास को बनवास ही मिला हुआ है पूर्वी उत्तर प्रदेश में। दरअसल शुरू से ही पूर्वांचल उपेक्षा का शिकार रहा है। इस के अधिकांश ज़िले अभी भी उद्योग शून्य हैं या उद्योग के नाम पर एक या दो छोटे मोटे उद्योग हैं। पिछली सरकारों ने राजनीति के लिए पूर्वांचल का खूब दोहन किया है। परंतु वर्तमान सरकार किसी भी माने में बेहतर नहीं है। यह भी पूर्वांचल से सौतेला सुलूक बदस्तूर जारी रखे है।
सिर्फ भाषण या आश्वासन से तो विकास नहीं होता है न। गत योजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश के इस एक तिहाई भूभाग और आबादी वाले पुर्वांचल के लिए न्यूनतम धनराशि खर्च की गई है। नए उद्योग कम से कम खोले गए हैं। क्यों कि पूर्वांचल की आवाज़ कमजोर थी। पूर्वांचल का कोई एसा प्रभावशाली नेता नहीं हो पाया जो कि इसकी वकालत करता। हालांकि पूर्वांचल ने उत्तर प्रदेश को पांच मुख्यमंत्री दिए हैं। वीर बहादुर सिंह से कुछ उम्मीदें जरूर थीँ पर समूचे प्रदेश के विकास के चक्कर में उन्होंने भी पूर्वांचल की उपेक्षा ही की। प्रधानमंत्री रहे चन्द्रशेखर भी पूर्वांचल के थे और भोजपुरी भाषी थे। पूर्वांचल के विकास की अकुलाहट भी उनके मन में भरी हुई थी। पर यह अकुलाहट हकीकत में धरती पर उतरी नहीं।
उत्तर प्रदेश देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में से एक है और पूर्वी उत्तर प्रदेश का सर्वाधिक पिछड़ा क्षेत्र है। विकास को गति देने के मकसद से उत्तर प्रदेंश ने वर्ष 82-83 में ज़िला योजना का शुभारंभ किया था। इस का एक उद्देश्य क्षत्रीय असंतुलन दूर कर समान विकास की गति प्रदान करना भी था। उसी समय प्रदेश को पूर्वीं, पश्चिमी, मध्य, बुंदेलखंड तथा पर्वतीय क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। इस के बावजूद कुछ विशेष क्षेत्रों में पूर्वांचल की जो स्थिति है वह तालिकाएं देखने से स्पष्ट हो जाती है। यद्यपि वर्ष 82-83 से अबतक रुपए का पर्याप्त अवमूल्यन हुआ है और सरकार योजना व्यय में जिस वृद्धि का गर्व से गान करती है वह एकदम थोथा है। परंतु यह संपूर्ण देश एवं प्रदेश का प्रश्न है। यहाँ हम केवल उन आंकड़ों को दे रहे हैं जो यह बताते हैं कि प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 82-83 से 89-90 तक जिला योजना में कहाँ कितनी वृद्धि की गई है और कितना धन व्यय हुआ तालिका तीन देखें।
आंकड़ों से स्पष्ट है कि पूर्वी क्षेत्र के विकास पर अन्य क्षेत्र के सापेक्ष न्यूनतम धनराशि व्यय की गई है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्वी क्षेत्र में निम्नलिखित 19 जनपद सम्मिलित हैं :- इलाहाबाद, आजमगढ़, बहराइच, बलिया, बस्ती, देवरिया, फैजाबाद, गाजीपुर, गोण्डा, गोरखपुर, जौनपुर, मिर्जापुर. प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, वाराणसी, सिद्धार्थ नगर, मऊ, सोनभद्र, महाराजगंज। इस क्षेत्र में कृषि विश्वविद्यालय केवल फैज़ाबाद में है जो कि वास्तव में मध्य क्षेत्र की आवश्यकता पूरी करता है। सरकारी इंजीनियरिंग कालेज मात्र गोरखपुर में है। इलाहाबाद का इंजीनियरिंग कालेज भी मध्य क्षेत्र के लिए अधिक उपयोगी है। दरअसल लोग पूर्वांचल केवल गोरखपुर और वाराणसी मंडल कि ही मानते हैं। यदि सरकार इस क्षेत्र की विस्तृत पहचान स्वीकार करती है तो हमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
विधान सभा विधान परिषद या संसद में पूर्वांचल का कोई जनप्रतिनिधि अपनी आवाज़ बुलंद नहीं कर पाता जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक गूंजे. स्व॰ विश्वनाथ सिंह गहमरी ने संसद में पूर्वांचल की गरीबी का चित्रण करके संसद को अपने भाषण से हिला तथा रुला दिया था। पटेल कमीशन बैठा तो उस से बड़ी बड़ी उम्मीदें की गईं परन्तु अंततोगत्वा आयाराम गयाराम ही सामने आया।
तो पूर्वांचल में इस विकास को बध में ही शायद भोजपुरी का बध भी निहित है। कश्मीर जो आज बारूद पर बैठा है तो उस का एक सब से बड़ा कारण यह भी है सरकार ने कश्मीरी बोली भाधा को हाशिए पर रख दिया. उर्दू वहां राजभाषा बना दी गई। कश्मीरी का गला घोंट दिया गया तब जब वहां के मुसलमान भी उर्दू कम कश्मीरी ज़्यादा जानते हैं। कश्मीरी ही उन की मातृभाषा है। अपनी मातृभाषा का बध कश्मीरियों को नहीं सुहाया और वह सरकार के खिलाफ सीना तान बैठे। आज नतीज़ा सामने है।
और कश्मीर ही क्यों पंजाब, बोडो, झारखंड और उत्तरांचल जैसे झगड़ों का सबब ही है क्षेत्रीय असंतुलन, भाषाई उपेक्षा और सांस्कृतिक क्षरण। तो क्या पूर्वी उत्तरप्रदेश की दीवालों पर लिखी क्षेत्रीय असंतुलन और भाषाई उपेक्षा की इबारत तभी मिटेगी जब वह ज्वालामुखी बन फूटने लगेगी?
एक समय लखनऊ से छपने और गाजीपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका भोजपुरी लो्क और उ॰प्र॰हिंदी संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में कबीर जयंती के मौके पर एक दो दिवसीय भोजपुरी अधिवेशन हुआ। यह 1989-1990 की बात है। इस अधिवेशन में भोजपुरी की उपेक्षा पर सुलग रहे लोगों की मन की आग सरकार ने भी महसूस की। तत्कालीन खाद्य और रसद मंत्री दिवाकर विक्रम सिंह अधिवेशन में मौजूद थे। अधिवेशन के प्रस्ताव में जब भोजपुरी अकादमी की स्थापना की माँग की गई और बाद में लगभग सभी वक्ताओं ने भोजपुरी अकादमी की माग दुहराई तो मंत्री जी लाचार हो गए. दिवाकर विक्रम सिंह खाद्य मंत्री थे। भाषा उन के अधिकार क्षेत्र की बात तकनीकी रूप से नहीं थी। पर दिवाकर विक्रम सिंह अधिवेशन में पूरे समय रहे और वह भोजपुरी में ही बोले। और बोले कि भोजपुरी अकादमी की बात तो मैं स्पष्ट रूप से अभी नहीं कहूंगा लेकिन उ॰प्र॰हिंदी संस्थान के ही अधीन भोजपुरी विभाग का एक प्रकोष्ठ खुलवाने की बात ज़रूर मुख्यमंत्री जी से करूंगा। लगता है दिवाकर विक्रम सिंह मुख्यमंत्री से इस मामले पर कुछ बात कर नहीं सके। क्यों कि आज तक तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। हो सकता है ब्यूरोक्रेसी भी इस में कहीं आड़े आ गई हो।
जैसे खाद्य मंत्री दिवाकर विक्रम सिंह ने कहा कि वह हिंदी संस्थान में भोजपुरी प्रकोष्ठ खुलवाने की बात मुख्यमंत्री से करेंगे। वैसे ही पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने एक बार भोजपुरी लोक पत्रिका का विमोचन करते हुए कहा था कि भोजपुरी ही नहीं प्रदेश की सभी क्षेत्रीय भाषाओं को वह बढ़ावा देना चाहते हैं, निखारना चाहते हैं। उन के लिए निदेशालय बनाएंगे। इस के लिए पंडित अमृतलाल नागर जो उस समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे को उन्हों ने अध्यक्ष भी मनोनीत कर दिया। और कहा कि नागर जी एक कमेटी बना कर तय कर दें कि हमें क्या करना है, हम उसे स्वीकार कर लेंगे। अब तो नागर जी नहीं रहे और न ही नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री हैं सो वह योजना भी कहां बिला गई कोई नहीं जानता।
बिहार में बरसों पहले भोजपुरी अकादमी गठित हो गई. लखनऊ विश्वविद्यालय में अवधी का एक प्रश्नपत्र हिंदी में पहले से निर्धारित है। पर पूर्वांचल के किसी भी विश्वविद्यालय में भोजपुरी पर प्रश्नपत्र तो दूर वहाँ इस की चर्चा तक नही होती। दुनिया में 20 करोड़ और भारत में 15 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं पर वह भारतीय संविधान की आठवीं सूची से नदारद हैं। जब कि 2 करोड़, 3 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं वहाँ दर्ज हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन के प्रसारणों में बाकी क्षेत्रीय भाषाएं तो गूंजती हैं पर भोजपुरी नदारद रहती है तो क्या सिर्फ इस लिये कि भोजपुरी भाषी भकुआए हुए हैं और इसी लिए भोजपुरी भी भकुआई है। सच कहूं तो मां बेटी दोनों ही भकुआई हुई हैं. फर्क यही है कि मां बुढ़ा गई है और बिटिया अभी जवान है। पर स्थिति दोनों की वही स्थिति है कि, "दुनिया गइल चनरमा पर तें अबहिन भकुअइलै बाड़े।"
तालिका 1
तालिका 2
प्रति लाख की आबादी पर अन्य सुविधाएं
तालिका 3
(स्वतंत्र भारत. लखनऊ, शुक्रवार, १ दिसम्बर, सन् १९९० ई॰ से साभार)
भोजपुरी, जिस को विश्व के 20 करोड़ लोग बोलते हैं। यहीं नहीं दुनिया के पांच प्रभुता संपन्न देश ऐसे हैं जहां भोजपुरी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है।[हालां कि अब इधर अंजोरिया के संपादक डा. ओम प्रकाश सिंह इस पर प्रतिवाद करते हैं और कहते हैं कि भोजपुरी कहीं भी किसी भी देश में राज्य-भाषा का दरजा प्राप्त नहीं है, यह मात्र अफवाह है जो भोजपुरी की दुकान चलाने वाले लोगों ने फैला रखी है। वह तो लगभग चैलेंज देते हुए कहते हैं कि किसी के भी पास डाक्यूमेंट्री प्रूफ़ अगर इस बारे में हो तो दिखाए।] और भारत में राष्ट्रभाषा हिंदी को छोड़ कर अन्य सभी भाषा भाषियों से भोजपुरी भाषियों की संख्या सर्वाधिक है। हिंदी की जितनी उप भाषाएं या बोलियां हैं उन में भी भोजपुरी बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है। फिर भी इस हिंदी की मां को अपनी ही भूमि पर अपेक्षित सम्मान एवं मान्यता प्राप्त नहीं है। दुनिया के और देशों में भोजपुरी राजभाषा हो तो हो यहाँ तो कुछ भाई लोग फरमान जारी कर बैठते हैं कि भोजपुरी भाषा ही नहीं है।
तर्क क्या है? तर्क है कि भोजपुरी की अपनी कोई लिपि नहीं है। और बिना लिपि के कोई भाषा - भाषा नहीं हो सकती। तो क्या हिंदी भी भाषा नहीं है? उस की भी तो अपनी कोई लिपि नहीं है। देवनागरी लिपि में लिखी जाती है हिंदी। फिर हम कहते ही हैं ब्रज भाषा। तो ब्रज भाषा की क्या लिपि है? और अवधी की भी? यह भी तो आखिर भाषा ही है। अपनी भाषाओं को छोड़िए जिस के हम आज गुलाम बने बैठे हैं उस अगरेजी की भी तो अपनी कोई लिपि नहीं है। अंगरेजी भी तो रोमन लिपि का लेप लगाए है।
भोजपुरी जो अनाम, फटेहाल और बेहाल है तो इस लिए भी कि उस की ज़मीन पूर्वी उत्तर प्रदेश में विकास के पांव बहुत सुस्त हैं। एक तरह से विकास को बनवास ही मिला हुआ है पूर्वी उत्तर प्रदेश में। दरअसल शुरू से ही पूर्वांचल उपेक्षा का शिकार रहा है। इस के अधिकांश ज़िले अभी भी उद्योग शून्य हैं या उद्योग के नाम पर एक या दो छोटे मोटे उद्योग हैं। पिछली सरकारों ने राजनीति के लिए पूर्वांचल का खूब दोहन किया है। परंतु वर्तमान सरकार किसी भी माने में बेहतर नहीं है। यह भी पूर्वांचल से सौतेला सुलूक बदस्तूर जारी रखे है।
सिर्फ भाषण या आश्वासन से तो विकास नहीं होता है न। गत योजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश के इस एक तिहाई भूभाग और आबादी वाले पुर्वांचल के लिए न्यूनतम धनराशि खर्च की गई है। नए उद्योग कम से कम खोले गए हैं। क्यों कि पूर्वांचल की आवाज़ कमजोर थी। पूर्वांचल का कोई एसा प्रभावशाली नेता नहीं हो पाया जो कि इसकी वकालत करता। हालांकि पूर्वांचल ने उत्तर प्रदेश को पांच मुख्यमंत्री दिए हैं। वीर बहादुर सिंह से कुछ उम्मीदें जरूर थीँ पर समूचे प्रदेश के विकास के चक्कर में उन्होंने भी पूर्वांचल की उपेक्षा ही की। प्रधानमंत्री रहे चन्द्रशेखर भी पूर्वांचल के थे और भोजपुरी भाषी थे। पूर्वांचल के विकास की अकुलाहट भी उनके मन में भरी हुई थी। पर यह अकुलाहट हकीकत में धरती पर उतरी नहीं।
उत्तर प्रदेश देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में से एक है और पूर्वी उत्तर प्रदेश का सर्वाधिक पिछड़ा क्षेत्र है। विकास को गति देने के मकसद से उत्तर प्रदेंश ने वर्ष 82-83 में ज़िला योजना का शुभारंभ किया था। इस का एक उद्देश्य क्षत्रीय असंतुलन दूर कर समान विकास की गति प्रदान करना भी था। उसी समय प्रदेश को पूर्वीं, पश्चिमी, मध्य, बुंदेलखंड तथा पर्वतीय क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। इस के बावजूद कुछ विशेष क्षेत्रों में पूर्वांचल की जो स्थिति है वह तालिकाएं देखने से स्पष्ट हो जाती है। यद्यपि वर्ष 82-83 से अबतक रुपए का पर्याप्त अवमूल्यन हुआ है और सरकार योजना व्यय में जिस वृद्धि का गर्व से गान करती है वह एकदम थोथा है। परंतु यह संपूर्ण देश एवं प्रदेश का प्रश्न है। यहाँ हम केवल उन आंकड़ों को दे रहे हैं जो यह बताते हैं कि प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 82-83 से 89-90 तक जिला योजना में कहाँ कितनी वृद्धि की गई है और कितना धन व्यय हुआ तालिका तीन देखें।
आंकड़ों से स्पष्ट है कि पूर्वी क्षेत्र के विकास पर अन्य क्षेत्र के सापेक्ष न्यूनतम धनराशि व्यय की गई है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्वी क्षेत्र में निम्नलिखित 19 जनपद सम्मिलित हैं :- इलाहाबाद, आजमगढ़, बहराइच, बलिया, बस्ती, देवरिया, फैजाबाद, गाजीपुर, गोण्डा, गोरखपुर, जौनपुर, मिर्जापुर. प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, वाराणसी, सिद्धार्थ नगर, मऊ, सोनभद्र, महाराजगंज। इस क्षेत्र में कृषि विश्वविद्यालय केवल फैज़ाबाद में है जो कि वास्तव में मध्य क्षेत्र की आवश्यकता पूरी करता है। सरकारी इंजीनियरिंग कालेज मात्र गोरखपुर में है। इलाहाबाद का इंजीनियरिंग कालेज भी मध्य क्षेत्र के लिए अधिक उपयोगी है। दरअसल लोग पूर्वांचल केवल गोरखपुर और वाराणसी मंडल कि ही मानते हैं। यदि सरकार इस क्षेत्र की विस्तृत पहचान स्वीकार करती है तो हमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
विधान सभा विधान परिषद या संसद में पूर्वांचल का कोई जनप्रतिनिधि अपनी आवाज़ बुलंद नहीं कर पाता जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक गूंजे. स्व॰ विश्वनाथ सिंह गहमरी ने संसद में पूर्वांचल की गरीबी का चित्रण करके संसद को अपने भाषण से हिला तथा रुला दिया था। पटेल कमीशन बैठा तो उस से बड़ी बड़ी उम्मीदें की गईं परन्तु अंततोगत्वा आयाराम गयाराम ही सामने आया।
तो पूर्वांचल में इस विकास को बध में ही शायद भोजपुरी का बध भी निहित है। कश्मीर जो आज बारूद पर बैठा है तो उस का एक सब से बड़ा कारण यह भी है सरकार ने कश्मीरी बोली भाधा को हाशिए पर रख दिया. उर्दू वहां राजभाषा बना दी गई। कश्मीरी का गला घोंट दिया गया तब जब वहां के मुसलमान भी उर्दू कम कश्मीरी ज़्यादा जानते हैं। कश्मीरी ही उन की मातृभाषा है। अपनी मातृभाषा का बध कश्मीरियों को नहीं सुहाया और वह सरकार के खिलाफ सीना तान बैठे। आज नतीज़ा सामने है।
और कश्मीर ही क्यों पंजाब, बोडो, झारखंड और उत्तरांचल जैसे झगड़ों का सबब ही है क्षेत्रीय असंतुलन, भाषाई उपेक्षा और सांस्कृतिक क्षरण। तो क्या पूर्वी उत्तरप्रदेश की दीवालों पर लिखी क्षेत्रीय असंतुलन और भाषाई उपेक्षा की इबारत तभी मिटेगी जब वह ज्वालामुखी बन फूटने लगेगी?
एक समय लखनऊ से छपने और गाजीपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका भोजपुरी लो्क और उ॰प्र॰हिंदी संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में कबीर जयंती के मौके पर एक दो दिवसीय भोजपुरी अधिवेशन हुआ। यह 1989-1990 की बात है। इस अधिवेशन में भोजपुरी की उपेक्षा पर सुलग रहे लोगों की मन की आग सरकार ने भी महसूस की। तत्कालीन खाद्य और रसद मंत्री दिवाकर विक्रम सिंह अधिवेशन में मौजूद थे। अधिवेशन के प्रस्ताव में जब भोजपुरी अकादमी की स्थापना की माँग की गई और बाद में लगभग सभी वक्ताओं ने भोजपुरी अकादमी की माग दुहराई तो मंत्री जी लाचार हो गए. दिवाकर विक्रम सिंह खाद्य मंत्री थे। भाषा उन के अधिकार क्षेत्र की बात तकनीकी रूप से नहीं थी। पर दिवाकर विक्रम सिंह अधिवेशन में पूरे समय रहे और वह भोजपुरी में ही बोले। और बोले कि भोजपुरी अकादमी की बात तो मैं स्पष्ट रूप से अभी नहीं कहूंगा लेकिन उ॰प्र॰हिंदी संस्थान के ही अधीन भोजपुरी विभाग का एक प्रकोष्ठ खुलवाने की बात ज़रूर मुख्यमंत्री जी से करूंगा। लगता है दिवाकर विक्रम सिंह मुख्यमंत्री से इस मामले पर कुछ बात कर नहीं सके। क्यों कि आज तक तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। हो सकता है ब्यूरोक्रेसी भी इस में कहीं आड़े आ गई हो।
जैसे खाद्य मंत्री दिवाकर विक्रम सिंह ने कहा कि वह हिंदी संस्थान में भोजपुरी प्रकोष्ठ खुलवाने की बात मुख्यमंत्री से करेंगे। वैसे ही पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने एक बार भोजपुरी लोक पत्रिका का विमोचन करते हुए कहा था कि भोजपुरी ही नहीं प्रदेश की सभी क्षेत्रीय भाषाओं को वह बढ़ावा देना चाहते हैं, निखारना चाहते हैं। उन के लिए निदेशालय बनाएंगे। इस के लिए पंडित अमृतलाल नागर जो उस समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे को उन्हों ने अध्यक्ष भी मनोनीत कर दिया। और कहा कि नागर जी एक कमेटी बना कर तय कर दें कि हमें क्या करना है, हम उसे स्वीकार कर लेंगे। अब तो नागर जी नहीं रहे और न ही नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री हैं सो वह योजना भी कहां बिला गई कोई नहीं जानता।
बिहार में बरसों पहले भोजपुरी अकादमी गठित हो गई. लखनऊ विश्वविद्यालय में अवधी का एक प्रश्नपत्र हिंदी में पहले से निर्धारित है। पर पूर्वांचल के किसी भी विश्वविद्यालय में भोजपुरी पर प्रश्नपत्र तो दूर वहाँ इस की चर्चा तक नही होती। दुनिया में 20 करोड़ और भारत में 15 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं पर वह भारतीय संविधान की आठवीं सूची से नदारद हैं। जब कि 2 करोड़, 3 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं वहाँ दर्ज हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन के प्रसारणों में बाकी क्षेत्रीय भाषाएं तो गूंजती हैं पर भोजपुरी नदारद रहती है तो क्या सिर्फ इस लिये कि भोजपुरी भाषी भकुआए हुए हैं और इसी लिए भोजपुरी भी भकुआई है। सच कहूं तो मां बेटी दोनों ही भकुआई हुई हैं. फर्क यही है कि मां बुढ़ा गई है और बिटिया अभी जवान है। पर स्थिति दोनों की वही स्थिति है कि, "दुनिया गइल चनरमा पर तें अबहिन भकुअइलै बाड़े।"
तालिका 1
मद | पूर्वांचल की स्थिति | राज्य का औसत |
कुल आबादी के सापेक्ष नागरीय आबादी | 10.69% | 17.95% |
आबादी का घनत्व प्रति वर्ग कि॰मी॰ | 485 | 377 |
अनुसूचित जाति तथ निर्बल वर्ग की जनसंख्या कुल आबादी के सापेक्ष | 37.37% | 21.16% |
कुल आबादी के सापेक्ष कृषकों का प्रतिशत | 59.47% | 58.56% |
कुल आबादी के सापेक्ष कृषक मजदूरों का प्रतिशत | 19.61% | 15.99% |
कुल आबादी के सापेक्ष लघु तथा सीमान्त कृषकों का प्रतिशत | 91.97% | 86.94% |
कुल कृषियोग्य भूमि के अनुपात में लघु एवं सीमान्त जोत | 58.53% | 48.29% |
सीमान्त जोत का औसत हेक्टेयर में | 0.33 | 0.37 |
जोत का औसत क्षेत्रफल हेक्टेयर में | 0.75 | 1.01 |
कुल जोत के सापेक्ष नकदी फसल का क्षेत्रफल हेक्टेयर में | 7.02% | 11.28% |
औसत उपज कुन्तल में | 12.86 | 14.19 |
कुल कृषि भूमि के सापेक्ष सिंचाई का प्रतिशत | 54.76% | 58.9% |
प्रति एक सौ की आबादी पर दुधारू पशु | 11 | 13 |
घरेलु उत्पाद का प्रति व्यक्ति मूल्य | 790 | 932 |
प्रति लाख की आबादी में औद्योगिक क्षेत्र में पंजीकृत व्यक्ति | 244 | 608 |
निजी पम्प सेट या नलकूप की संख्या | 173862 | 511801 |
तालिका 2
प्रति लाख की आबादी पर अन्य सुविधाएं
मद | पूर्वांचल की स्थिति | राज्य का औसत |
प्राइमरी स्कूल | 58.29 | 66.24 |
मिडिल स्कूल | 11.72 | 13.28 |
हायर सेकेण्डरी स्कूल | 4.43 | 5.15 |
डिग्री कालेज | 0.35 | 0.36 |
अस्पतालों की संख्या | 2.21 | 2.91 |
पक्की सड़क कि॰मी॰ | 59.82 | 73.19 |
टेलीफोन | 82 | 172 |
साक्षरता का प्रतिशत | 24.28 | 27.16 |
डाकघर | 15 | 16 |
प्रति व्यक्ति जिला योजना पर व्यय रु॰ में वर्ष 86-87 | 45 | 50 |
तालिका 3
क्षेत्र | वर्ष 82-83 (रु॰ लाख में) | वर्ष 89-90 (रु॰ लाख में) | वृद्धि का प्रतिशत |
पूर्वी | 12146 | 26921 | 222 |
मध्य | 4880 | 11981 | 245 |
पश्चिमी | 8884 | 20582 | 232 |
बुन्देलखंड | 2090 | 5408 | 258 |
पर्वतीय | 6215 | 15544 | 250 |
राज्य का कुल व्यय | 32215 | 80436 | 235 |
(स्वतंत्र भारत. लखनऊ, शुक्रवार, १ दिसम्बर, सन् १९९० ई॰ से साभार)
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़, कौशाम्बी, इलाहाबाद, बाराबंकी, फैजाबाद, अंबेदकर नगर, सुल्तानपुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोण्डा, सिद्धार्थ नगर, बस्ती, संत कबीर नगर, महाराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, बलिया, गाजीपुर,जौनपुर, चंदौली, संत रविदास नगर, मिर्जापुर. वाराणसी आ सोनभद्र जनपद अउर बिहार के पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, सारण, सिवान, गोपालगंज, भोजपुर, बक्सर, कैमूर आ रोहतास जनपद के कुल आबादी साल 2001 का जनगणना में 91745075 रहल. अब एह नौ करोड़ सत्रह लाख पैंतालीस हजार पचहत्तर के कुल आबादी के अगर भोजपुरी भाषी मान लिहल जाव आ कुछ अउरी छिटपुट जनपद के एह में शामिल कर लिहिल जाव त ई गिनिती दस करोड़ के लगभग चहुँपत बा.
ReplyDeleteबाकी दुनिया के देशन आ भारत के महानगरन में छितराइल भोजपुरियनो के मिला लिहल जाव तबो ई गिनिती पन्द्रह करोड़ ले ना चहुँपी.