दयानंद पांडेय
ग़ालिब छुटी शराब के लेखक रवींद्र कालिया ने इसी किताब में लिखा है कि अकेले शराब पीना हस्त मैथुन करने जैसा है। मेरा मानना है कि यू ट्यूब पर एंकरिंग करना मतलब हस्त मैथुन करना है। ख़ुद ही पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सारी भूमिका निभानी होती है। फिर कितने लोग देखते हैं , इन यू ट्यूबर को ? इन से हजारगुना ज़्यादा तो लोग लोकल गायकों , गायिकाओं को देख लेते हैं। यक़ीन न हो तो पुण्य प्रसून वाजपेयी , आशुतोष , अजीत अंजुम , दीपक शर्मा आदि तमाम जूनियर-सीनियर ऐंकरों का नर्क देख लीजिए। हाथ मलते देखते रहिए। अंदाज़ा लग जाएगा। कारवां गुज़र चुका है , बस गुबार बाक़ी है। तिस पर हिमालयी अहंकार अलग से। वह तो कहिए बीच-बीच में चुनाव आ जाता है। अखिलेश यादव जैसे थैलीशाह मिल जाते हैं। आलोक रंजन जैसे पूर्व नौकरशाह के मार्फ़त सैकड़ो करोड़ रुपए बंटवा देते हैं। जो जीत की नकली हवा बना देते हैं। तो हस्तमैथुन से थोड़ी फुर्सत मिल जाती है। बिस्तरबाज़ी हो जाती है। अरविंद केजरीवाल को भगत सिंह बनाने की लंतरानी याद आ जाती है। केजरीवाल भी जब-तब इन हस्त वीरों की व्यवस्था संभालते रहते हैं।
कांग्रेस भी आगे-आगे ही रहती है इन हस्त वीरों को हाथ देने में। कुछ फाउंडेशन , कुछ एन जी ओ वगैरह भी हाथ दे देते हैं। देते ही रहते हैं। यू ट्यूब भी कुछ थमा देता है। रोटी-दाल चल जाती है। लेकिन जैसे हस्त मैथुन में दूसरों के भरोसे बहुत दूर तक नहीं चल सकते। यू ट्यूब के भरोसे भी बहुत दूर तक ऐश के साथ नहीं चल सकते। नहीं रह सकते। काले धन की गोद में बैठे किसी नामचीन बैनर के बिना ग्लैमर और ऐश की ज़िंदगी छूट जाती है। क्रांति-व्रांति की सारी सिलाई उखड़ जाती है। सारी खीर जल जाती है। समझ आ जाता है कि वह सब तो भ्रांति थी। सारा एजेंडा , सारी दलाली दिन में ही तारे दिखाने लगती है। गगन बिहारी बनने के बाद ज़मीन साफ़ दिखाई नहीं देती।
यही सब छूटता देख रवीश कुमार ने कहा है कि वह बाथरुम में जैसे दरवाज़ा बंद कर गाना गा लेते हैं , वैसे ही बाथरुम से एंकरिंग भी कर लेंगे। कहीं बैठ कर , किसी चौराहे से भी एंकरिंग कर लेंगे। फ़ासिज्म यानी मोदी विरोध का नगाड़ा बजा लेंगे। गुड है यह भी।
यह तो सभी जानते हैं कि हस्त मैथुन बिना बेडरुम के भी मुमकिन है। कहीं भी , कैसे भी। जैसे लोग लाल सिंह चड्ढा गर्ल फ्रेंड के साथ देखने गए और ख़ाली हाल पा कर जाने क्या-क्या कर के लौटे। ऐसे बहुत से वीडियो अब वायरल हैं। यह बिचारे नादान लोग नहीं जानते कि अब सारे मॉल वाले सिनेमा घरों में सुरक्षा के नाम पर सी सी टी वी भी लगे रहते हैं। सिनेमा हाल के भीतर घट रही हर घटना वाच होती है। रिकार्ड भी। तो अजब-ग़ज़ब मंज़र पेश आ रहे हैं। जो काम लोग पार्क में , कार में बैठ कर , एकांत देख कर करते हैं , लाल सिंह चड्ढा देखते हुए भी एकांत पा कर अंजाम दे गए हैं। हाल में बैठ कर भी फ़िल्म नहीं देखी , कुछ और-और किया। आप भी कीजिए। हाऊ कैन यू रोक ?
टी वी पर एंकरिंग करते हुए भी रवीश कुमार जब-तब कहते रहे हैं कि आप टी वी मत देखिए। लेकिन यह नहीं कभी कह सके कि आप टी वी मत देखिए , मैं भी टी वी छोड़ देता हूं। एंकरिंग छोड़ दे रहा हूं। गोदी मीडिया का प्रपंच चलाने वाला एन डी टी वी बहुत सी गोद में बैठा रहा है। यथा सोनिया गांधी , यथा पोंटी चड्ढा। यथा वामपंथी , यथा केजरीवाल। एजेंडा सेट करने और उसे हिट करने में एन डी टी वी अग्रणी रहा है ,सर्वदा। अच्छा कोई रवीश जैसे एजेण्डाबाज़ों से कभी क्यों नहीं पूछता कि , पूजनीय आप की इतनी मेहनत , इतनी नफ़रत और इतनी हाहाकारी लड़ाई , इतने ज़बरदस्त प्रतिरोध , इतनी फैन फॉलोइंग और जहरबाद के बावजूद फासिस्ट नरेंद्र मोदी के कितने बाल , कितने रोएं टूटे। फैसलाकुन क्यों नहीं हो पाए। जनमत क्यों नहीं बदल पाए।
ई डी के हवाले से जेल भुगत रहे संजय राउत के शब्दों में जो पूछूं कि क्या-क्या उखाड़ लिया। याद कीजिए मुंबई के पाली हिल पर बने कंगना रानौत का घर तोड़ कर संजय राउत ने शिव सेना के अख़बार सामना में बैनर हैडिंग लगा कर छापा था , उखाड़ दिया ! तो जनाबे आली , 2014 से आप का फ़ासिस्ट दुश्मन निरंतर फूलता-फलता जा रहा है , उस का क्या-क्या उखाड़ लिया ? दिन-रात इसी एजेंडे के तहत अपनी ज़िंदगी नर्क बना ली है। मैग्सेसे की उपलब्धि के बावजूद चेहरा झुलस क्यों गया है। तमाम लोकप्रियता और शोहरत के बावजूद समय से पहले ही चेहरा वृद्ध दिखने लगा। यह कौन सा डिप्रेशन है। साथ में कुछ नशेड़ी बना लिए अपने। आप की तो यही दुकानदारी है। आप की दुकान तो चली। ख़ूब चली। पर जो दवा बेची , इस दुकान से वह दवा कारगर क्यों नहीं हुई इन आठ सालों में। भगत सिंह को याद करने के साथ ही पत्रकारिता में महामना मदनमोहन मालवीय और गणेश शंकर विद्यार्थी को भी याद कर लेने में नुकसान नहीं होता। सर्वदा नफ़रत के तीर चलाना , एकतरफा बात करना पत्रकारिता नहीं , कुछ और है।
तो ब्लैक मनी से चलने वाला एन डी टी वी अगर किसी और धन पिशाच के पास चला जा रहा है तो आप को पेचिश क्यों हो रही है हुजुरेआला ! यह पैसे की दुनिया है , बाज़ार है। ऐसे ही छल और कपट से चलती है। व्यवसाय में एजेंडा , नफ़रत और मनबढ़ई नहीं चलती। ट्रिक चलती है। सोनिया के सत्ता में आने का सपना दुर्योधन बन कर कभी पूरा नहीं हो सकता। लाक्षागृह बना कर सफलता अर्जित नहीं होती। द्रौपदी की साड़ी किसी दुशासन से नहीं उतरवाई जा सकती। जुआ खेलेंगे तो भले ही धर्मराज युधिष्ठिर ही क्यों न हों , फ़ज़ीहत तो होगी ही। आप के एजेंडे की , आप के नफ़रत की द्रौपदी की लाज तो लुटेगी। सीता का अपहरण कर आप सीता को नहीं पा सकते। सीता को पाने के लिए राम होना पड़ता है। राम का आचरण भी करना पड़ता है। राम की खिल्ली उड़ा कर रामराज की बात नहीं हो सकती। यक़ीन न हो तो एक बार आमिर ख़ान से पूछ लीजिए। इत्मीनान से पूछ लीजिए। हाथी के दांत बन गए हैं। सारी परफेक्टनेस जाने किस पॉकेट में चली गई है। खोजे नहीं मिल रही। आप की भी आप के पॉकेट में चली जाएगी। किसी भी की जा सकती है। इसी लिए एक समय बाद लोग ऐसे लोगों को भूल जाते हैं। देखिए कि राहुल गांधी से ज़्यादा मीम इन दिनों रवीश कुमार के बन रहे हैं। कहां तो रवीश को जन पत्रकारिता का प्रतीक बनना था। अफ़सोस कि इन दिनों वह लतीफ़ा और नफ़रत के प्रतीक बन कर उपस्थित हैं।
जान लेना चाहिए कि कृत्रिम हवा चला कर , नकली हवा बना कर , सोनिया गांधी की गोदी में बैठ कर एक जोकर और लतीफ़ा को महानायक बना कर , राहुल गांधी के चरण चूम कर हवा महल तो बनाया जा सकता है , ख़याली पुलाव भी पकाया जा सकता है। गोदी मीडिया की गाली भी गढ़ी जा सकती है। हर असहमत को भक्त की गाली भी दी जा सकती है। बकौल समाजवादी नेता मुलायम परिवार के रौशन चिराग , पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव हाऊ कैन यू रोक ? पर स्वस्थ मीडिया और लोकतांत्रिक देश की मज़बूत बुनियाद तो नहीं ही बनाई जा सकती। नफ़रत के दाने बिछा कर कोई बहेलिया कुछ मानसिक रोगियों को फंसा तो सकता है , अपने बहेलिएपन पर नाज़ कर सकता है। पर किसी को कोई राह नहीं दे सकता। सिवाय कुछ घड़ी के अवसाद के। कोई माकूल प्राचीर नहीं बना सकता। ऐसे लोग अंतत : बुझ जाते हैं। वसीम बरेलवी याद आते हैं :
चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का
हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती।
धन पिशाच शब्द से असहमति है।
ReplyDelete