Monday, 15 August 2022

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे

दयानंद पांडेय 

लगभग सभी विधाओं में निरंतर लिखते रहने वाले रामदरश मिश्र आज 99 वर्ष के हुए। अगले वर्ष वह 100 बरस के हो जाएंगे। दिलचस्प यह है कि इस उम्र में भी न सिर्फ़ देह और मन से पूरी तरह स्वस्थ हैं बल्कि रचनाशील भी हैं। पत्नी का साथ भी भगवान ने बनाए रखा है। वह भी पूरी तरह स्वस्थ हैं। रामदरश मिश्र की इस वर्ष भी कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं। उन की याददाश्त के भी क्या कहने। नया-पुराना सब कुछ उन्हें याद है। जस का तस। अभी जब उन से फ़ोन पर बात हुई और उन्हें बधाई दी तो वह गदगद हो गए। वह किसी शिशु की तरह चहक उठे। भाव-विभोर हो गए। उन की आत्मीयता में मैं भीग गया। कहने लगे आप की याद हमेशा आती रहती है। चर्चा होती रहती है। कथा-गोरखपुर और कथा-लखनऊ के बारे में भी उन्हों ने चर्चा की। पूछा कि किताब कब आ रही है ? बताया कि अक्टूबर , नवंबर तक उम्मीद है। तो बहुत ख़ुश हो गए। कहने लगे इंतज़ार है किताब का। 


जब कथा-गोरखपुर की तैयारी कर रहा था तब उन्हों ने अपनी कहानी तो न सिर्फ़ एक बार के कहे पर ही भेज दी बल्कि गोरखपुर के कई पुराने कथाकारों का नाम और कहानी का विवरण भी लिख कर वाट्सअप पर भेजा। वह कोरोना की पीड़ा के दिन थे। पर वह सक्रिय थे। चार वर्ष पहले दिसंबर , 2018 में वह लखनऊ आए थे। उन के चर्चित उपन्यास जल टूटता हुआ पर आधारित भोजपुरी में बन रही फिल्म कुंजू बिरजू का मुहूर्त था। उस कार्यक्रम में रामदरश जी ने बड़े मान और स्नेह से मुझे न सिर्फ़ बुलाया बल्कि उस का मुहूर्त भी मुझ से करवाया। रामदरश जी को जब उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का शीर्ष सम्मान भारत भारती मिला तो मुझे भी लोक कवि अब गाते नहीं उपन्यास पर प्रेमचंद सम्मान मिला था। वह बहुत प्रसन्न थे। मंच पर खड़े-खड़े ही कहने लगे अपने माटी के दू-दू जने के एक साथ सम्मान मिलल बा। यह उन का बड़प्पन था। संयोग ही है कि रामदरश मिश्र के बड़े भाई रामनवल मिश्र के साथ भी मुझे कविता पाठ का अवसर बार-बार मिला है , गोरखपुर में। 

गोरखपुर में उन का गांव डुमरी हमारे गांव बैदौली से थोड़ी ही दूर पर है। इस नाते भी उन का स्नेह मुझे और ज़्यादा मिलता है। उन की आत्मकथा में , उन की  रचनाओं में उन का गांव और जवार सर्वदा उपस्थित मिलता रहता है। कोई चालीस साल से अधिक समय से उन के स्नेह का भागीदार हूं। साहित्य अकादमी उन्हें वर्ष 2015 में मिला। सरस्वती सम्मान इसी वर्ष मिला है। उम्र के इस मोड़ पर यह सम्मान मिलना मुश्किल में डालता है। यह सारे सम्मान रामदरश मिश्र को बहुत पहले मिल जाने चाहिए थे। असल बात यह है कि हिंदी की फ़ासिस्ट और तानाशाह आलोचना ने जाने कितने रामदरश मिश्र मारे हैं । लेकिन रचना और रचनाकार नहीं मरते हैं। मर जाती है फ़ासिस्ट आलोचना। मर जाते हैं फ़ासिस्ट लेखक। बच जाते हैं रामदरश मिश्र। रचा ही बचा रह जाता है। रामदरश मिश्र ने यह ख़ूब साबित किया है। बार-बार किया है। 

सोचिए कि रामदरश मिश्र और नामवर सिंह हमउम्र हैं। न सिर्फ़ हमउम्र बल्कि रामदरश मिश्र और नामवर सहपाठी भी हैं और सहकर्मी भी। दोनों ही आचार्य हजारी प्रसाद के शिष्य हैं। बी एच यू में साथ पढ़े और साथ पढ़ाए भी। एक ही साथ दोनों की नियुक्ति हुई। रामदरश मिश्र कथा और कविता में एक साथ सक्रिय रहे हैं। पर नामवर ने अपनी आलोचना में कभी रामदरश मिश्र का नाम भी नहीं मिला। जब कि अपनी आत्मकथा अपने लोग में रामदरश मिश्र ने बड़ी आत्मीयता से नामवर को याद किया है। नामवर सिंह की आलोचना की अध्यापन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। बहुत सी नई बातें नामवर की बताई हैं। सर्वदा  साफ और सत्य बोलने वाले रामदरश मिश्र को उन की ही एक ग़ज़ल के साथ जन्म-दिन की कोटिश: बधाई !

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,

खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।


किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,

कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे।


जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर,

वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।


पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,

उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।


न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला,

पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।


गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,

गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।


ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,

उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे।


मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,

मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।




3 comments:

  1. वाह भाई वाह! क्या ख़ूब पोस्ट लिखी है आपने मेरे मित्र दयानन्द जी.....सच मानिए मुझे ऐसा अनेक बार महसूस हुआ है कि आप जब क़लम उठाते हैं(या मोबाइल/लैपटॉप पर उंगली घुमाते हैं) तो मां सरस्वती के साथ कोई अदृश्य जादुई ताक़त भी आपका साथ देती है जो पाठकों को मंत्रमुग्ध कर देती है, वह अंत तक बिना पढ़े अपने आपको रोक ही नहीं सकता है|रामनवल जी का तो सानिध्य मिला है लेकिन राम दरस जी से लगभग एकदम अपरिचित रहा हूं|इस बात से भी कि वे और नामवर सिंह सहपाठी रहे हैं और सिर्फ़ गुट विहीन रहने या ठाकुर न होने की सज़ा वे पाते रहे हैं.... हां, उनकी आत्मकथा पढ़ने की उत्कंठा अवश्य जगी है.. क्या आपके पास उपलब्ध है? मंहगी होगी इसलिए ख़रीद पाना तो मुश्किल है|पढ़ने को दे दीजिए तो लौटा अवश्य दूंगा|
    फिर से बधाई|

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  2. अद्भुत.
    मिश्रा जी का नाम तो पहले सुना था पर अब तक पढ़ा नहीं। मेरी कमी है।
    अब ढूँढ कर पढ़ता हूँ।

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