Thursday, 4 February 2021

राम मंदिर निर्माण के लिए उदय प्रकाश का चंदा देना और वामपंथी पोंगापंथियों का बिलबिलाना

दयानंद  पांडेय 



गुड है यह भी। लेकिन तमाम वामपंथी पोंगापंथी इस रसीद पर बिलबिला गए हैं। यह भी गुड है। राहुल सांकृत्यायन , रामविलास शर्मा , निर्मल वर्मा और नामवर सिंह को भी पोंगापंथियों ने बहुत दौड़ाया था। किनारे किया था। अब उदय प्रकाश को दौड़ा रहे हैं। इन खोखले लोगों को न धर्म मालूम है , न धर्म निरपेक्षता। बुद्ध कहते ही थे कि मेरे विचारों से बंध कर रहना ज़रूरी नहीं। आप मुझे , मेरे विचार को छोड़ कर आगे बढ़िए। लेकिन यह ठहरे हुए लोग हैं। ठहरे हुए जल की तरह। सड़ांध मारते हुए। यथास्थितिवादी लोग यह लोग। अपने को पोलिटिकली करेक्ट बताने के बुख़ार में धुत्त लोग। न रचना में ज़मीन तोड़ पाते हैं न , विचार में। व्यक्तिगत और व्यक्तिगत आस्था से तो जैसे इन लोगों का कोई परिचय ही नहीं। गांधी हे राम ! कह सकते हैं। संविधान में राम का चित्र लग सकता है। लेकिन राम मंदिर के निर्माण खातिर कोई चंदा नहीं दे सकता। अजब सहिष्णुता का ग़ज़ब कुपाठ है। कामरेडशिप की अजब कुटिलता है। प्रगतिशील लेखक संघ का पचहत्तरवां सम्मेलन याद आता है। लखनऊ में तब नामवर सिंह आए थे। 

दीप प्रज्ज्वलन के बाद उन्हों ने कहा था कि अभी तक इस कर्मकांड से छुट्टी नहीं मिली। तभी उद्घोषणा हुई कि शाम को इफ्तारी और नमाज का भी इंतज़ाम है। रमजान के दिन थे। तब किसी को मुश्किल नहीं हुई थी। लेकिन इस सब की चर्चा नहीं हुई। चर्चा हुई तो आरक्षण पर नामवर के एक सही बयान की हुई। जातीय नफ़रत में डूबे लोगों ने इसे तिल का ताड़ बना दिया। पर जब निधन के कुछ समय पहले नामवर सिंह के जन्म-दिन पर तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने दिल्ली के इंदिरा गांधी कला केंद्र में सम्मानित किया तो बहुतों की आंख और जुबान पर गुस्सा आ गया। लेकिन नामवर को किसी ने बढ़ कर सम्मानित नहीं किया। नामवर सिंह के 75 का होने पर प्रभाष जोशी ने देश भर में घूम-घूम कर सम्मान करवाया। पर किसी लेखक संगठन ने नहीं। नामवर ने जब एन डी टी वी पर अपने अंतिम दिनों में भगवान का ज़िक्र किया तो रिपोर्टर ने टोका कि आप तो कम्युनिस्ट हैं। फिर भगवान का नाम कैसे ले रहे हैं ? 

नामवर सिंह ने कहा था तब अरे , आप गॉड , कह सकते हैं , अल्लाह कह सकते हैं तो भगवान क्यों नहीं। हमारा भगवान किसी से कमज़ोर तो नहीं है। लोग जानते हैं कि नामवर सिंह तुलसीदास और उन के श्रीराम चरित मानस के घोर प्रशंसक थे। तुलसी की चौपाइयों को निरंतर कोट करते थे। पत्नी के निधन पर अपने गांव गए थे नामवर। श्राद्ध के लिए। रामलीला वालों ने उन्हें व्यास की गद्दी पर निमंत्रित किया था। थोड़ी ना-नुकुर के बाद नामवर गए। बहुत बढ़िया व्याख्यान दिया। आखिर में वह रोते हुए तुलसीदास को संबोधित करते हुए बोले , हे बाबा , आप तो राम की शरण में चले गए। मैं कहां जाऊं ? पत्नी के विछोह में टूटे नामवर की व्यथा थी। पर ढपोरशंखी नहीं जानते। दोहरा जीवन जीने वाले लेखक यह बात जानते हुए भी नहीं जानते। 

नहीं जानते कि दुःख में माता-पिता और भगवान ही याद आते हैं। तो उदय प्रकाश अगर 40 बरस से अधिक समय से तुलसी की माला पहनते हैं , पूजा-पाठ करते हैं , तिलक लगाते हैं तो बुरा क्या है। क्या  प्रगतिशील और वामपंथी लेखक हज पर नहीं जाते , नमाज नहीं पढ़ते कि गुरुद्वारा या चर्च नहीं जाते। बहुतों को निजी तौर पर मैं जानता हूं। मैं तो मंदिर , मजार , गुरुद्वारा , चर्च सभी के आगे सिर झुकाता हूं। मत्था टेकता हूं। हर्ज क्या है। हर्ज क्या है जो उदय प्रकाश ने 5400 रुपए का चंदा राम मंदिर के निर्माण खातिर दे दिया है। पर क्या कीजिएगा तेली को कोई दिक़्क़त नहीं पर मशालची अनेक हैं , जिन्हें दिक़्क़त बहुत है। गुड है यह भी। अजब चश्मा है कि निराला राम की शक्ति पूजा लिख कर , सरस्वती वंदना लिख कर हिंदू हो जाते हैं पर फैज़ यह लिख कर भी प्रगतिशील रह सकते हैं :

 सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे


बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ायब भी है हाज़िर भी

जो मंज़रभी है नाज़िर भी

उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

3 comments:

  1. जब पड़ोसी का बाप मरता है तब लोग उसे सांत्वना देते हुये समझाते हैँ ऊपर वाले ने उसे इतने दिन के लिये ही भेजा था सब्र करो. लेकिन जब खुद का बाप मरता है तो वही ज्ञान देने वाले बुक्का फाड़कर रोते . वो तब भूल जाते हैँ उनका बाप भी इतने दिनों के लिये ही आया था. हमारे संस्कार व सोच हमारी परवरिश का नतीजा है वो उस बएपेंदी के लोटे की तरह कभी इधर कभी उधर लुड़कने लगे.

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  2. जब भी कोई सौ प्रतिशत की भावनाओं का ध्यान रखकर कोई ऐसा कार्य करने की सोचता है, सफलता नहीं मिली;
    ईश्वर को भी नहीं। यह असंभव है।

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  3. तथाकथित कामरेडों ने हिन्दू धर्म और हिन्दू देवी-देवताओं का विरोध करने को ही कम्यूनिस्ट होने का प्रमाणपत्र मान लिया और फिर इस मान्यता से कभी आगे बढ़ ही नहीं पाये। यही कारण भी रहा कि वे कभी वास्तविक प्रगतिशील नहीं हो पाये। उनमें जड़ता ही जड़ता भरी रही और अंततः उनके वामपंथ की दशा क्या हुई यह सभी के सामने है। कोई भी पंथ तब तक बुरा नहीं है, जब तक वह अपने भीतर प्रवाह को जिन्दा रखता है। प्रवाह के बाधित होते ही सड़ान्ध आना तय है, जो इन कथित कम्यूनिस्टों के विचारों से भी आती रहती है। ये सिर्फ उधार के लिये हुए विचारों से ही पोषित होते हैं, कभी विचारधारा को समझा ही नहीं। भारतीय संस्कृति और सनातन सभ्यता के सनातन होने के मूल में भी यही मंत्र है कि यहाँ सभी मत-मतान्तरों का परीक्षित स्वीकार रहा है। जो ऐसा नहीं मानते और जड़ होकर अपनी मान्यताओं को लेकर व्यवहार करते हैं, उनके लिए ही हमने पोंगापंथी शब्द भी उपयोग किया है। कितना सार्थक है यह शब्द भी। पोंगा का अर्थ ही होता है - खोखला, फिर चाहे पोंगापंथी कहें या पोंगापंडित, खोखलेपन को ही दर्शाते हैं।
    सादर
    राजा अवस्थी, कटनी

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