Wednesday, 10 February 2021

ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उन की सारी इच्छाओं , सारे प्यार की उन की प्रयोगशाला भी मैं ही रहा हूं



बरस बीत गया आज पूजनीय पिता जी को विदा हुए। घर में उन से बड़े लोग उन्हें बाबू कहते थे। वह तार घर की नौकरी में रहे थे तो गांव के लोग तार बाबू कहते थे। गोरखपुर शहर के मुहल्ले में इलाहीबाग़ और फिर बेतियाहाता में लोग उन्हें पांडेय जी कहते थे। उन के आफिस में भी लोग पांडेय जी ही कहते थे। लेकिन हम सभी भाई उन्हें बबुआ कहते थे। बबुआ ही थे वह। बबुआ ही हैं वह। 

नीम के यह पत्ते जब झरेंगे पतझर में , तब झरेंगे। तब तो जब पूज्य पिता जी विदा हुए तो शोक में हमारी मूछ भी विदा हो गई। जब से मूछ आई थी , कभी ओझल नहीं हुई थी , अब शोक में अनुपस्थित हुई है। तो क्या किसी भी वृक्ष के पत्ते या नीम के पत्ते , किसी शोक में विदा होते हैं। पतझर में नहीं। और केदारनाथ सिंह लिखने लगते हैं :

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,

उड़ने लगी बुझे खेतों से

झुर-झुर सरसों की रंगीनी,

धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —

सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।

साँस रोक कर खड़े हो गए

लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,

चिलबिल की नंगी बाँहों में —

भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।

थक कर ठहर गई दुपहरिया,

रुक कर सहम गई चौबाई,

आँखों के इस वीराने में —

और चमकने लगी रुखाई,

प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।




पिता का होना , यानी मूंछों का होना। पिता नहीं तो मूछ नहीं। गांव के घर की छत पर तब की एक फ़ोटो।

उन की यादों को सहेजने की आज तक बहुतेरी कोशिश की है। बारंबार की है। करता ही रहता हूं। लेकिन जाने क्यों तमाम कोशिश के बबुआ की यादों को लिख पाना अभी तक मुमकिन नहीं हो पाया है। असल में वह मेरे जीवन में इतने गहरे धंसे हुए हैं , कि उन्हें थाह पाना , उन को सहेज पाना कठिन से कठिनतर हुआ जा रहा है। बबुआ का कैनवस मेरी ज़िंदगी पर इतना बड़ा है कि क्या कहूं।  


जब नौकरी में था तब चाहे जिस भी अखबार में रहा , किसी विशेष व्यक्ति का निधन होता तो लोग मुझे ही खोजते और कहते कि तुरंत लिखिए। मैं फौरन लिख भी देता था। जो दूसरे दिन अखबार में छपा दीखता था। यह आम बात थी। जीवन में और भी लोगों पर लिखा। कई बार तो रोते-रोते लिखा है। सुबकते-सुबकते लिखा है। लेकिन लिखा है। पर बबुआ तो कलम में समाते ही नहीं। उन से इतने झगड़े हैं , झगड़ों में मिठास है। बबुआ से ज़िंदगी में इतनी असहमतियां हैं कि लिखने की सहमति की सांकल नहीं खुल पा रही। बबुआ मेरे भीतर इतना ज़्यादा उपस्थित हैं , कि लगता ही नहीं है कि वह विदा हो गए हैं। मेरे भीतर वह इतना जीवित हैं , कि लगता ही नहीं कि वह चले गए हैं तो फिर लिखूं कैसे।  

मन में एक अजीब कश्मकश है। कि क्या लिखूं , कैसे लिखूं। मुश्किल क्षणों में भी वह चुपचाप आ कर कैसे खड़े हो जाते थे। सहारा दे कर कब अनुपस्थित हो जाते थे , पता ही नहीं चलता था। कलम उठाता हूं लिखने के लिए तो लगता है जैसे मेरी कलम में बबुआ सांस ले रहे हैं। लैपटॉप उठाता हूं लिखने के लिए तो लगता है जैसे की बोर्ड में भी वह सांस ले रहे हैं। हार-हार जाता हूं। कि सांस ले रहे व्यक्ति को कैसे विदा कर दूं। नहीं विदा हो पाते बबुआ। नहीं लिख पाता बबुआ पर स्मृति-लेख। स्मृतियां बादल की तरह गरज कर उड़ जाती हैं। बरस नहीं पातीं। विश्वास ही नहीं होता कि बबुआ अब नहीं हैं जीवन में। हर सुख-दुःख में लगता है जैसे वह चुपचाप आ कर खड़े हो गए हैं। 


ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उन की सारी इच्छाओं , सारे प्रयोग , सारा अनुशासन , सारी कड़ाई , सारा गुस्सा और सारे प्यार की उन की प्रयोगशाला भी मैं ही रहा हूं। उन के नित नए प्रयोग , नित नई इच्छाएं ही हमारी छाया थी। उन की इच्छाओं को पूरा करना ही जैसे मकसद रहा। उन का कोई प्रयोग असफल न हो , कोशिश यही रही। शायद आज भी वह मुझे अपनी प्रयोगशाला में ही बिठाए हुए हैं। लिखने नहीं दे रहे , अपनी स्मृतियों के सागर में डूबने और उबरने नहीं दे रहे। प्रणाम ही कर सकता हूं। बारंबार प्रणाम बबुआ ! 






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