जैसे ऐतराज के सारे जाल बट्टे ही उन की खेती हैं। और सारे आंदोलन भी। किसान आंदोलन भी। बताइए कि नोटबंदी पर उन को ऐतराज। जी एस टी पर भी। तीन तलाक पर भी। 370 पर भी। राम मंदिर पर भी। सी ए ए पर भी। शाहीनबाग का जंगल भी जल गया। अब कृषि बिल पर भी ऐतराज की दीवार खड़ी हो गई दिखती है। लेकिन ऐतराज की हर दीवार बिना छत के ही ध्वस्त हो गई। होती गई है। जैसे एक ही ट्रैक्टर पंजाब से दिल्ली तक बार-बार जलाना ही ज़ज़्बा है उन का। कोरोना काल में ठप्प अर्थव्यवस्था में जैसे उन्हें जी डी पी का तराना उन्हें नहीं भूलता। सेना बलात्कारी है उन की राय में। चुनाव आयोग मोदी आयोग है उन की राय में। सुप्रीम कोर्ट भाजपाई है उन की राय में। हर पॉजिटिव बात उन्हें बुरी लगती है। आखिर क्यों ? आखिर क्यों चीन भले मात खाता हो भारतीय सेना के हाथ पर भारत को नीचा दिखाना उन्हें बहुत भाता है। उरी की सर्जिकल स्ट्राइक , बालाकोट की एयर स्ट्राइक पर भी उन के सवाल सुलगते हैं। सुलगते हैं सरकार की तौहीन खातिर। अभिनंदन की वापसी में उन्हें इमरान खान का शांति दूत दीखता रहा। वैसे भी पाकिस्तान , कांग्रेस और कम्युनिस्टों की भाषा और अंदाज़ेबयां एक ही हैं। अजब है यह बीमारी भी। हर घर से अफजल निकालने की सनक भरी ज़िद में भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला , इंशा अल्ला की दुहाई का विस्तार बहुत है। इस के एक्सटेंशन और डाइमेंशन भी बहुत हैं। ठीक वैसे ही जैसे 130 करोड़ के देश में 80 करोड़ लोग बीते मार्च से मुफ्त राशन उठा रहे हैं। तो कहां से ? सोचिए कि अगर 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन नहीं मिलता , जन-धन खाते में पैसा नहीं मिलता तो ? अब तक तो यह ऐतराज के जाल-बट्टे वाले लोग देश को कच्चा भून कर खा गए होते। जगह-जगह आगजनी , लूट और हिंसा का मंज़र परोसते इन्हें देर लगती क्या। देश क्या गृह युद्ध की आग में नहीं जल रहा होता। अच्छा 80 करोड़ जो लोग मुफ्त राशन पा रहे हैं , उन में क्या किसान शुमार नहीं हैं ?
बीते साल दिल्ली की एक सड़क घेरने की फतह थी , अब की साल दिल्ली को घेर लेने का नक्शा है। मतलब प्लान है। बीते बरस दंगे भी हुए दिल्ली में। तो क्या इस साल भी क्या कुछ ऐसा-वैसा होगा। मेरा मानना है कि ऐसा कुछ सरकार अब होने नहीं देगी। हिंदू , मुसलमान करना कांग्रेस और कम्युनिस्टों के लिए बहुत आसान है। पर किसान पर सरकार एक तो नरम है। दूसरे , पंजाब के किसान सिर्फ किसान नहीं व्यापारी भी हैं। व्यापारी आंदोलन शुरू करते ही खत्म करने के प्लान पर आ जाता है। एक पुराना लतीफा है। भारत बंद के दौरान एक आदमी कच्छा पहन कर सड़क पर निकला। तो लोगों ने पूछा कि यह क्या है। तो कच्छा पहने व्यक्ति बोला , अपना समर्थन मिला-जुला है। बंद समझो तो बंद , खुला समझो तो खुला है। तो इस किसान आंदोलन की भी यही गति है। यह गति हुई है अकाली दल द्वारा इस कृषि बिल को नाक का सवाल बना लेने पर।
तब जब कि इस कृषि बिल के लिए हुई कैबिनेट मीटिंग में अकाली दल की सिमरत कौर ने बतौर मंत्री अपनी सहमति दी थी। अपनी मुहर मारी थी। पर जब पंजाब की राजनीति में कांग्रेस और मुख्य मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कृषि बिल के खिलाफ बढ़त ले ली तो अफना कर अकाली दल की मंत्री ने सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया और एन डी ए से अलग हो कर किसान आंदोलन में अकाली दल कूद पड़ा। अब प्रकाश सिंह बादल जिन के चरण छू कर नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बनारस में नामांकन दर्ज किया था , उन्हीं प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण को लौटाने का ऐलान कर अवार्ड वापसी का बिस्मिल्ला कर दिया है। पंजाब से जुड़े कुछ खिलाड़ी , कलाकार भी ऐसी मंशा जता चुके हैं। देखना दिलचस्प होगा कि लेखकों , पत्रकारों , फिल्म कलाकारों की अवार्ड वापसी का ऐलान कब शुरू होता है। बहरहाल ऐसे ड्रामों से इतर मेरा अनुमान है कि पंजाब के किसानों ने अपनी ताकत दिखा दी है। दो कदम आगे , चार कदम पीछे की रणनीति पर सरकार और किसान दोनों ही आ चुके हैं। वैसे भी मौजूदा कृषि बिल में किसानों के लिए ऐतराज लायक कुछ नहीं है। बस उन का ईगो मसाज अगर सरकार ठीक से कर ले गई तो दस-पंद्रह दिन में आंदोलन पर पानी पड़ जाएगा। संकेत यह भी है कि किसानों के आंदोलन पर पानी डालने के सरकार कृषि बिल में कुछ संशोधन भी स्वीकार कर ले। लेकिन तीनों कृषि बिल रद्द हो जाएंगे , यह सोचना भी निरा बचपना है।
वैसे भी किसान और सरकार दोनों ही के लिए यह सोचने का सही समय है कि किसान आखिर कब तक अन्नदाता होते हुए भी भिखारी बना घूमता रहेगा। मेरा स्पष्ट मानना है कि किसानी जब तक शुद्ध रूप से व्यापार नहीं बनती तब तक किसान भिखारी बना घूमता रहेगा और उस का कोई कुछ नहीं कर सकता। सोचिए कि एक किसान का ही प्रोडक्ट है जिस पर मिनिमम सेल प्राइस तय किया जाता है। मतलब न्यूनतम समर्थन मूल्य। बाकी सारे प्रोडक्ट जूता , कपड़ा , कार , दवाई आदि-इत्यादि पर एम आर पी यानी मैक्सिमम रिटेल प्राइस होता है। यानी अधिकतम मूल्य। यहां तक कि किसान के अनाज , फल , सब्जी से बने प्रोडक्ट का भी मैक्सिमम रिटेल प्राइस तय होता है। और लोग बिना किसी हिच के आंख मूंद कर खरीद लेते हैं। तो क्यों ? क्यों कि बाकी व्यापार भिखारी बन कर नहीं व्यवसाय नहीं करते। एक खेती ही है जो व्यापार में अपने को तब्दील नहीं कर पाई। तब जब कि खेती में सब से ज़्यादा मेहनत और पूंजी लगती है। लेकिन हमारा किसान अपने को व्यापारी नहीं भिखारी समझता है। और सरकार कोई भी हो किसान को भिखारी बनाने में ही व्यस्त रहती है। किसान जब अपनी उपज की लागत जोड़ता है तब खाद , बीज , पानी , मज़दूरी , डीजल आदि की ही लागत जोड़ता है। अपनी लाखो , करोड़ो की ज़मीन को भी इस लागत में जोड़ते मैं ने किसी किसान को अभी तक नहीं देखा। तब जब कि सभी व्यापारी अपनी दुकान , गोदाम , लेबर , शोरूम आदि सारे खर्च लागत में जोड़ते हैं और मुनाफा लेते हैं।
सवाल यह भी कि अपनी उपज को संभाल कर रखने के लिए गोदाम , कोल्ड स्टोरेज आदि की व्यवस्था किसान खुद क्यों नहीं करते। सरकार और बिचौलियों के भरोसे क्यों रहते हैं। अरे हमारा प्रोडक्ट है , हम अपनी शर्त पर , अपने दाम पर बेचेंगे। जब चाहे तब बेचेंगे। किसान अपने को इस लायक क्यों नहीं बना लेते। पर नहीं भैंस तो आप 51 लाख में बेच सकते हैं। मंहगी कार , मंहगा मोबाइल भी आप खरीद सकते हैं। पर अपने लिए गोदाम , कोल्ड स्टोरेज आप को सरकार से भीख में चाहिए। क्यों भाई ? व्यापार भीख मांग कर भी होता है क्या ? भीख मांग कर , आंदोलन कर , पोलिटिकल टूल बन कर न व्यापार होता है , न आंदोलन , न खेती। यह बात हमारे देश का किसान जितनी जल्दी समझ लेगा उतना बेहतर। रही बात इंफ्रास्ट्रक्चर और पूंजी की तो इस के लिए या तो खुद सक्षम बनिए या फिर कारपोरेट सेक्टर की मदद लीजिए। अपने पैर पर खड़े होइए। इस लिए भी कि दान और भीख के दम पर दुनिया में अभी तक कोई अमीर नहीं हुआ। और कि कोई भी अमीर किसी शहर को बंधक बना कर व्यापार नहीं करता।
अव्वल तो अमीर आंदोलन नहीं , व्यापार करता है। शुद्ध व्यापार। राजनीतिक पार्टियों से इस्तेमाल नहीं होता , राजनीतिक पार्टियों को इस्तेमाल करता है। और कि मेरा स्पष्ट मानना है कि भारत में किसानों से ज़्यादा अमीर कोई नहीं है। अंबानी , अडानी , टाटा और बिरला भी नहीं। किसानों के पास अन्नपूर्णा और रत्नगर्भा धरती है। जो किसी और के पास नहीं। बस किसान अपनी पर आ जाए। तो देखिए क्या-क्या होता जाता है। अन्नदाता , सचमुच का अन्नदाता दिखेगा। आज की तरह भिखारी नहीं। इन आंदोलनकारी किसानों को अब से सही , ठीक से जान लेना चाहिए कि किसानी के लिए , व्यापार के लिए उन्हें पूंजी और इंफ्रास्ट्रक्चर ही चाहिए। राजनीतिक पार्टियां और आंदोलन नहीं। बस यह बात समझने में देर ज़रूर लगेगी कि वह भिखारी नहीं अन्नदाता हैं। सरकार को वह अपने घर बुला सकते हैं। किसी सरकार के दर पर उन्हें मत्था टेकने की ज़रूरत नहीं। इकबाल लिख ही गए हैं
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।
कृषि बिल के खिलाफ एक बड़ा हौव्वा खड़ा किया गया है कि कारपोरेट सेक्टर , पूंजीपति किसानी को खा जाएंगे। क्या मूर्खता भरी बात है। कारपोरेट कपड़ा खा गए कि दवाई। कि कार खा गए कि ट्रैक्टर। कि आप के खेत खा जाएंगे। जो लोग आंख बंद कर बैठे हुए हैं और कारपोरेट , कारपोरेट का भूत दिखा रहे हैं , उन पर तरस आता है। आंख खोल कर देखिए कि कारपोरेट सेक्टर खेत में बरसों पहले घुस चुका है। मनमोहन सिंह यानी कांग्रेस राज में यह हुआ। टाटा से लगायत रिलायंस तक क्या दाल नहीं बेच रहे कि अन्य खाद्यान्न नहीं बेच रहे। तो क्या यह लोग अमरीका , जापान से ला कर बेच रहे। कि इन्हें खाद्यान्न बेचने का लाइसेंस मोदी सरकार ने दिया। अरे कांट्रैक्ट फार्मिंग और बाज़ार मनमोहन राज से चालू है। तुलसी तक की खेती बड़े पैमाने पर कारपोरेट के तहत ही हो रही है। हम लखनऊ में साढ़े तीन दशक से अधिक समय से रह रहे हैं। देख रहे हैं कि मलिहाबाद और बाकी जगहों का दशहरी आम के बाग़ का आम बौर लगते ही हर साल बड़े-बड़े व्यापारी बाग़ मालिकान से बाग़ खरीद लेते हैं। बाग़ मतलब बाग़ का आम। सिर्फ आम। पेड़ और ज़मीन नहीं।
बढ़िया कमाई बाग़ मालिकान घर बैठे करते हैं। बाग़ खरीद लेने के बाद व्यापारी जाने कि कितना आम हुआ , कितनी आंधी आई और कितना आम बरबाद हुआ , कौन सी बीमारी लगी , आम की रखवाली , तोडना , बेचना सब व्यापारी का सिरदर्द है। अब व्यापारी वह आम लखनऊ में ही बेच दे रहा है कि अमरीका , दुबई में बेच रहा है , आम किसान से कुछ लेना-देना नहीं। आम किसान भी मालामाल है और व्यापारी भी। कुछ आम किसान जो व्यापार जानते हैं , वह अपना बाग़ नहीं बेचते। खुद आम बेचते हैं। लेकिन ऐसे आम किसान बहुत कम हैं। तमाम कारपोरेट कंपनियां अपनी ज़रूरत , अपने निर्देश पर किसानों को आलू , टमाटर , मटर जैसी चीज़ें बहुत पहले से बोने और खरीदने का काम कर रही हैं। यह टोमैटो सॉस , चिप्स के लिए क्या आलू , टमाटर अमरीका , जापान से आता है? जी नहीं। तमाम किसान सब्जी , फूल , मशरूम आदि उगाते हैं। तो क्या इस के लिए एम एस पी घोषित होता है कभी ? कभी नहीं। और यह किसान धान , गेहूं उगाने वाले किसानों से ज़्यादा कमाते हैं और ठाट से रहते हैं। केले तक की खेती लोग ज़मीन लीज पर ले कर , कर रहे हैं।
कृषि बिल का विरोध निकम्मे , निठल्ले लोग कर रहे हैं। जिन्हें सरकारी बैसाखी पर चलने की बुरी आदत लग गई है। तय मानिए कि कृषि अगर व्यवसाय है तो बिना कारपोरेट खेती के कृषि व्यवसाय नहीं बन सकती। किसी सूरत व्यवसाय नहीं बन सकती। आप हवाई जहाज , मेट्रो और महंगी कार पर चल रहे हैं पर किसान से अपेक्षा कर रहे हैं कि वह बैल गाड़ी और ट्रैक्टर से ही चले। तो यह होशियारी बंद कीजिए। बड़ी मुश्किल से किसानों की कर्जा ले कर आत्महत्या करने के अभिशाप से , ऐसी नित्य प्रति की खबरों से मुक्ति मिली है , जो मनमोहन सरकार में आम बात हो चली थी। किसान को कर्ज और आत्महत्या के चक्रव्यूह में फिर से मत घेरिए। किसान को भी सम्मान का जीवन जीने का अवसर दीजिए। अभी तो आलम यह है कि भले आप के पास दस-पांच एकड़ की खेती हो पर अगर घर में कोई और व्यवसाय नहीं है , कोई नौकरी करने वाला नहीं है तो उस किसान का परिवार सिर्फ खेती के बूते भूखे मर जाएगा। बाकी खर्च तो बहुत दूर की कौड़ी है। देश का ज़्यादतर किसान गरीबी रेखा से नीचे है। आखिर कब तक गरीबी रेखा से नीचे का पट्टा गले में बांध कर घूमता रहेगा किसान। अभी कुछ समय पहले एक हर्षद मेहता पर एक वेब सीरीज देखी थी। उस में हर्षद मेहता का घर देख कर उस स्कैम की जांच कर रहे एक सी बी आई अफसर की आंखें चौंधिया जाती हैं। वह हर्षद पूछता है कि कितने स्क्वायर फ़ीट में है तुम्हारा यह घर ? हर्षद बताता है , पंद्रह हज़ार स्क्वायर फ़ीट। सी बी आई अफसर चबाते हुए , आंख फैला कर दुहराता है पंद्रह हज़ार स्क्वायर फ़ीट !
अब समय बदल गया है। एक से एक हर्षद मेहता के ग्रैंड फादर उपस्थित हैं जो चार सौ , पांच सौ एकड़ के घर में रहते हैं। लोगों की आंख में धूल झोंकते हुए सारा क़ानून जेब में रख कर महामहिम बने हुए हैं यह लोग। और तो और चारा चोर लालू यादव बतौर कैदी 25 एकड़ के बंगले में रह लेता है। और आप कृषि बिल के खिलाफ किसान आंदोलन की चिंगारी जला कर चाहते हैं कि किसान सरकारी बैसाखी पर चलता रहे। कभी समृद्धि का स्वाद नहीं चखे। यह कैसे हो सकता है। बंद कीजिए अपने इस किसान आंदोलन का छल-कपट। कहते हैं कि पूंजी , पूंजी को खींचती है। तो बिना पूंजी के खेती को व्यवसाय नहीं बनाया जा सकता। और यह पूंजी कारपोरेट ही खेती को दे सकता है सरकार नहीं। सरकारी भरोसे पर तो किसानों की स्थिति बी एस एन एल से भी गई बीती है। जब सारे कारोबार कारपोरेट के हवाले हैं तो खेती भी क्यों न हो। खेत और किसान खुशहाल होंगे तो देश , समाज और लोग भी खुशहाल होंगे। सोचिए कि सरकार सिनेमा बनाए तो कैसा बनाएगी ? चला तो रही है दूरदर्शन पर चाहे समाचार हो या धारवाहिक या कोई शो कारपोरेट के चैनलों से पिट कर। कपड़ा , दवाई , शिक्षा , चिकित्सा कुछ भी तो सरकार भरोसे नहीं है अब। सुनने में अच्छा लगता है कि पूंजी का समान बंटवारा। तो क्या बुद्धि का , योग्यता , प्रतिभा , क्षमता और ताकत का भी समान बंटवारा हो सकता है ? हो सकता हो तो बताइएगा ज़रूर। हैदराबाद से आ रहे चुनाव परिणाम की बिसात पर भी सोचिएगा ज़रूर। और बताइएगा कि यह सिर्फ भाग्य नगर का निहितार्थ है या कुछ और भी।
बहुत वाज़िब सवाल उठाया है आपने।
ReplyDeleteसार्थक लेखन
ReplyDeleteसही बात।
ReplyDeleteबिलकुल सही
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