Sunday, 29 November 2020

हम तो इस कृषि बिल को कश्मीर से धारा 370 हटाने की तरह मानते हैं


छोटी जोत का ही सही किसान मैं भी हूं। लेकिन कृषि बिल के खिलाफ नहीं हूं। न ही इस आंदोलन में हिस्सेदार हूं। देख रहा हूं कि सोशल मीडिया पर किसान आंदोलन के लिए वह लोग भी खांस रहे हैं जिन्हें गांव , किसान और किसानी का धेला भर ज्ञान नहीं है। क्या कहा , अंबानी , अडानी , कारपोरेट खेत ले कर खेती करने लगेंगे। यह तो वेरी गुड है। कोई कारपोरेट कल आ रहा हो मेरे खेत पर खेती करने तो वह आज ही आ जाए। मैं तो खूब स्वागत करूंगा। क्यों कि मैं जानता हूं कि अब के समय में गांव में रहना और खेती करना कितना कठिन है। खेती भी अब एक व्यवसाय है। भरपूर पूंजी और टाइमिंग मांगती है। मज़दूरी और मेहनत मांगती है। रिश्क भी बहुत है। गांव में मज़दूर खोजना और मज़दूरों के नखरे उठाना मुझे तो नहीं सुहाता। बिलकुल नहीं सुहाता। 

जो बेज़मीर लोग नहीं जानते वह अब से जान लें। कि खेती कितनी तो बदल गई है। महीनों का काम अब घंटों में हो जाता है। किराए का ट्रैक्टर खेत जोत देता है। खेत में ही लगे बोरिंग के पानी से सिचाई हो जाती है। एक दिन में खाद छींट दी जाती है। कंबाइन चार घंटे में फसल काट देता है। अनाज सीधे बोरी में भर कर घर में। फिर भी सिर्फ दो-चार दिन में होने वाली धान की रोपाई खातिर सारा खेत बटाई पर दे देना पड़ता है। बटाई मतलब आधा अनाज धान रोपने वाले का। क्यों कि धान की रोपाई करने वालों की शर्त ही यह होती है कि अगर अधिया नहीं , तो धान की रोपाई नहीं। मज़दूरी पर वह धान नहीं रोपेंगे। तिस पर तुर्रा यह कि गेहूं भी वही बोएंगे। तभी धान में हाथ लगाएंगे।  

सोचिए कि खेत हमारा , बीज हमारा , खाद हमारी , बोरिंग , पंपिंग सेट , डीजल भी हमारा। ट्रैक्टर और कंबाइन का एडवांस में पूरा किराया भी हमें ही देना है। मतलब सारा खेत , सारी पूंजी हमारी पर आधा अनाज उन का। क्यों कि उन के पास तो पैसे ही नहीं हैं। उन के नखरे भी सहना है। फिर भी आधा अनाज उन्हीं का है। अजब ब्लैकमेलिंग है। बरसों से यह ब्लैकमेलिंग बर्दाश्त कर रहे हैं। 

अरे जैसे मकान किराए पर उठाते हैं अपनी शर्तों पर तो खेत भी अगर कोई किराए पर ले कर किराया देता है तो हर्ज क्या है। खेती अगर कारपोरेट के हाथ आ जाती है तो हमारा ही क्या हम जैसे करोड़ों लोगों का लाभ है इस में। दिक्कत क्या है किसी को। आखिर खेती भी लाभ और व्यवसाय का विषय है। बुरा क्या है कारपोरेट के खेती में आ जाने से। आखिर कपड़े , जूते , दवाई , शिक्षा , अस्पताल , वाहन ,मोबाइल समेत तमाम ज़रूरी मामलों में दुनिया कारपोरेट के हवाले और सहारे ही जी रही है तो खेती में भी कारपोरेट आ जाए तो बुरा क्या है। पहाड़ तो नहीं टूट पड़ेगा। दुनिया के कई देशों में यह हो ही रहा है। कि खेती कारपोरेट के हाथ है। 

हम तो इस कृषि बिल को कश्मीर से धारा 370 हटाने की तरह मानते हैं। जैसे 370 हटने से कश्मीर में पत्थरबाजी खत्म हो गई , घाटी में कुछ पॉकेट्स में छिटपुट मामलों को छोड़ दीजिए तो देश से आतंक का खात्मा हो गया है। तो इस कृषि बिल से किसानों के बीच बैठे तमाम दलाल और माफियाओं का अंत हो जाएगा। कृषि आय के नाम पर टैक्स चोरों और नंबर दो का एक करने वालों का अंत भी ज़रूरी है। आखिर कभी इस बात पर आंदोलन हुआ क्या कि पचास पैसे किलो वाला आलू बाज़ार में आ कर पचास रुपए किलो क्यों बिक रहा है। कौन लोग इस में मालामाल हो रहे हैं। सच यह है कि यही मालामाल लोग ही इस किसान आंदोलन को प्रायोजित किए हुए हैं। 

बाक़ी सोशल मीडिया पर जहर उगलने वाले बुद्धिजीवियों की हताशा और निराशा का आनंद लीजिए। इन लोगों को गंभीरता से लेना तो दूर , इन की नोटिस लेना भी अपराध समझिए। यह लोग तो हर शाहीन बाग़ में शांति और क्रांति एक साथ खोज लेते हैं। इन निठल्ले लोगों के पास एक सूत्रीय कार्य शेष रह गया है। कि कैसे समाज में जहर और अशांति फैला कर देश को गृह युद्ध में झोंक दें। वह चाहे कोरोना में मज़दूरों का पलायन ही क्यों न हो। पांव में छाले मज़दूरों के पड़े लेकिन दुःख बेचने के लिए यह लोग आगे आ गए। अजब शग़ल है यह भी। 

विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टियां चुनाव में नहीं लड़ पातीं। संसद में जहां क़ानून बनता है , वहां नहीं लड़ पातीं। हार-हार जाती हैं। सो सड़क पर अराजक आंदोलन में अवसर तलाशती हैं। कभी शाहीन बाग़ तो कभी मज़दूरों के पलायन , तो कभी हाथरस जैसे हादसों में आग लगा कर सत्ता का सपना जोड़ती हैं। यकीन मानिए यह किसान आंदोलन , किसानों का आंदोलन नहीं है। प्रायोजित आंदोलन है। कुछ राजनीतिक पार्टियों और कुछ कृषि माफिया और बिचौलियों द्वारा प्रायोजित आंदोलन है। नहीं कृषि बिल कब आया और आंदोलन कब हो रहा है। 


अच्छा कृषि बिल का विरोध करने के लिए दिल्ली कूच करने वाले किसान सिर्फ पंजाब में ही क्यों रहते हैं। जब किसानों के इतने सारे संगठन एकजुट हो कर आंदोलन कर ही रहे हैं तो समूचे देश के किसानों को एक साथ दिल्ली कूच कर दिल्ली पर चढ़ाई कर देनी चाहिए थी। कहां-कहां रोकती पुलिस भला। फिर दुनिया की ऐसी कौन सी पुलिस है जो आंदोलनकारियों से कभी जीत भी पाई है। फिर यह तो हमारे अन्नदाता हैं। पर अन्नदाता के नाम पर जब कुछ लोग सेलेक्टिव चुप्पी और सेलेक्टिव विरोध के तराजू पर बैठ कर बिक जाते हैं तो यही होता है। पूरे देश की आवाज़ पंजाब में सिमट कर रह जाती है और हरियाणा में आ कर फंस जाती है। 

दिल्ली ऐसे ताकतवर हुई जाती है। कोरोना से कराहती दिल्ली में इन दिनों कोई समझदार किसान आना भी कैसे और क्यों चाहेगा। फिर वह कांग्रेस , वह राहुल गांधी जो खुद को नहीं संभाल पा रहे , वह किसानों को कैसे और कितना संभाल पाएंगे। अच्छा किसान सिर्फ पंजाब में ही रहते हैं , हरियाणा में क्यों नहीं रहते। उत्तर प्रदेश , बिहार , बंगाल , राजस्थान , महाराष्ट्र , तमिलनाडु , केरल , कर्नाटक आदि के किसान भी कहां हैं ? किस पुलिस ने रोक रखा है। कि बाकी किसानों के पास ट्रैक्टर नहीं है कि संसाधन नहीं हैं। अजब मंज़र है। यहां के मेहनतकश किसान क्यों नहीं दिल्ली कूच पर आंदोलित हैं। आप ही बता दीजिए।


Monday, 23 November 2020

दयानंद पांडेय और उन की 'यादों का मधुबन'


सुधाकर अदीब

अपना यह अत्यंत सजीव और सुंदर मधुबन दयानंद पांडेय एक मुलाक़ात में वर्ष 2013 में मुझे सौंप गए थे। तब से उनके संस्मरणों का यह नायाब गुलदस्ता मेरे निजी पुस्तकालय में, बिना इसमें विचरण किये, 2019 तक रखा रहा। सच कहूँ तो भाई दयानंद जी लिखने पढ़ने में जितने सक्रिय हैं, मैं उतना ही आलसी और आत्मस्थ हूँ। अब तो उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से रिटायरमेंट के बाद से, विगत 04 वर्षों के इस अंतराल में युवाकाल का एक और पुराना मर्ज़ मुझे घेर चुका है। गायन, वह भी फ़िल्मी गायन, कराओके ट्रैक्स पर, धन्य हो आधुनिक तकनीक जिसने आज संगीत से लेकर रिकॉर्डिंग सिस्टम तक को आपके मोबाइल और आपके कानों में लगने वाले दो पतले तारों तक समेटकर रख दिया है।

बहरहाल जिन दिनों मैं कोई उपन्यास आदि नहीं लिख रहा होता हूँ, उन दिनों थोड़ा बहुत पढ़ता रहता हूँ। इसी सिलसिले में हाल ही में मुझे दयानंद पांडेय के  'यादों के मधुबन' में प्रवेश करने का अवसर मिल गया। प्रवेश किया तो बड़ा पछताया यह महसूस करके कि कवि-कथाकार-पत्रकार और विचारक दयानंद पांडेय के इस साहित्य और पत्रकारिता के भरे-पूरे अनुभव संसार से स्वयं को समृद्ध करने में मैंने नाहक 06 बेशकीमती वर्ष क्यों गँवा दिए? सचमुच इस संस्मरण संग्रह को पढ़ना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, श्रीलाल शुक्ल, कन्हैयालाल नंदन, प्रभाष जोशी, रघुवीर सहाय, अदम गोंडवी, परमानंद श्रीवास्तव आदि अनेक विभूतियों के सामीप्य को यत्किंचित ही सही मगर बाकायदा पा लेने जैसा है।

दयानंद पांडेय एक जानेमाने कवि, कथाकार, पत्रकार और अनुभवी लेखक ही नहीं पूरे लिक्खाड़ हैं। इसे केवल उनकी साहित्यिक कृतियों के परिशीलन से ही नहीं, फ़ेसबुक से लेकर उनके ख़ुद के बेहतरीन ब्लॉग 'सरोकारनामा' को नित्य पढ़कर जाना जा सकता है। भाई दयानंद लिखते हैं और ख़ूब लिखते है। अपने विशद अनुभवजन्य मान्यताओं में वे अटल और अडिग हैं। अपनी बात कहने में वे किसी की भी परवाह नहीं करते। 'अपने अपने युद्ध' उपन्यास को लिखकर उन्होंने सीधे न्यायपालिका से पंगा ले लिया था और उच्च न्यायालय की अवमानना का वर्षों सामना किया था। फिर चाहे राजनीति का कोई पुरोधा हो या धर्म, राजनीति या साहित्य से जुड़ा कोई लेखक या बड़मनई आलोचक, पांडेय जी की निगाह में यदि वह चढ़ गया तो चढ़ गया। उसकी फिर ख़ैरियत नहीं। वे उसपर पूरी शिद्दत और निर्ममता से कलम चलाते हैं। यदि किसी कृति कृतिकार या व्यक्ति के गुणों से प्रभावित होते  हैं तो उसके प्रति उनकी लेखनी उतनी ही उदार है। परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह कि दयानंद पांडेय की टिप्पणियां, लेख, समीक्षाएं और उनकी आलोचनाएं प्रायः सदैव बहुत सुविचारित, सारगर्भित, तर्कसंगत और गुणदोष पर आधारित होती हैं। बेलाग और बेलौस तो ख़ैर होती ही हैं। 

मेरे उपन्यासों 'मम अरण्य' 'शाने तारीख़' 'रंग राची' और 'कथा विराट' पर भी लिखी गई उनकी समीक्षाएं मेरे लिए आज अमूल्य धरोहर हैं। इससे पहले मेरे प्रारंभिक उपन्यासों 'अथ मूषक उवाच' और 'चींटे के पर' की मूल्यवान समीक्षाएं हम सबके परम आत्मीय और अब स्मृतिशेष सुशील सिद्धार्थ ने उस ज़माने में लिखी थीं जब लखनऊ के कुछ स्वनामधन्य संपादक और आलोचक, विचारधारा विशेष के बोझ तले लदे फंदे मेरी उन कथाकृतियों से मुख फेर चुके थे। दयानंद पांडेय के अनेक उपन्यासों और काव्य संग्रहों को मैं पढ़ चुका हूँ। उनके संवेदनशील सामाजिक उपन्यास 'बांसगांव की मुनमुन' की समीक्षा और एक ग़ज़ल संग्रह 'मन यायावर है'  की भूमिका लिखने का भी मुझे सुअवसर मिला है। परंतु उनकी पुस्तक ''यादों का मधुबन'' तो स्वयं में अद्भुत है।

दयानंद पांडेय ने विशेषकर साहित्यिक एवं कतिपय पत्रकारिता जगत की हस्तियों के साथ अपनी भेंटों और अनुभवों को इन संस्मरणों में बहुत मन से, भावुकता किन्तु ईमानदारी के साथ साझा किया है, जो कि स्वयं में बेहद दिलचस्प हैं। जिस किसी विभूति का दयानंद ज़िक्र करते हैं उसकी प्रमुख कृतियों का तो रेखांकन योग्य उल्लेख करते ही हैं उस व्यक्तित्त्व के व्यवहार, विशेषताओं और उसके ख़ास अंदाज़ और उसकी ख़ुद की कशमकश एवं विडंबनाओं के साथ-साथ अपनी भेंट का भी अच्छा हवाला देते हैं। जहाँ अमृतलाल नागर और विष्णु प्रभाकर जैसे बड़े लेखक एक बहुत खुले, उदार और बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोगों में नज़र आते हैं, वहीं भगवतीचरण वर्मा उन्हें प्रथम भेंट में थोड़े रिज़र्व से और जैनेन्द्र जैसे लेखक काफ़ी आत्मकेंद्रित से प्रतीत होते हैं। पर बड़ी बात यह कि दयानंद जी उनके व्यक्तित्व में छिपी महीन तरलता को भी खोज निकालते हैं और उसका यथास्थान उल्लेख करने से नहीं चूकते। उदाहरण के लिए - नागर जी का अपनी पत्नी के गुज़र जाने पर करीब करीब टूट जाना, उन्हें याद कर अक्सर रो पड़ना और रोते रोते एक किसी गाने की लाइन गुनगुनाने लगना यह सब पाठक को भी भीतर तक हिलाकर रख देता है। वहीं एक अरसे से कुछ नहीं लिख पाने के अहसास को जैनेन्द्र जी द्वारा पाप की संज्ञा देना, युवा दयानंद का 'चित्रलेखा' 'सबहिं नचावत राम गोसाईं' जैसे अनेक उपन्यासों के सुप्रसिद्ध लेखक लखनऊ के भगवतीचरण वर्मा से उनके घर के पास ही अचानक टकरा जाना और उन्हें ही न पहचानते हुए उनसे उनका ही घर पूछना जैसे अनेक दिलचस्प प्रसंग भी इस संस्मरण संग्रह में प्रस्तुत हुए हैं।

अधिक कहना इस पुस्तक के आकर्षण को कम करने समान होगा। मैं उन भावकों अथवा दर्शकों में से नहीं हूँ मित्रो ! जो किसी बेहतरीन फ़िल्म को देखकर आपको उसे देखने से पहले उसकी कहानी और क्लाइमेक्स पहले ही बताकर उसका मज़ा किरकिरा कर देते हैं। दयानंद पांडेय जी की 248 पृष्ठों की इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण कृति 'यादों का मधुबन' को पढ़िए और बहुत कुछ हासिल करिए, जिसे मैं अब छः वर्ष ग़ाफ़िल रहने के बाद अब हासिल कर सका हूँ।

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Friday, 13 November 2020

अल्लाह करे ज़ोर-ए-शबाब और ज़ियादा


भोजपुरी में एक कथा हम ने बचपन में बार-बार सुनी है। एक गांव में उल्लू अपने को बार-बार लोगों द्वारा उल्लू कहे जाने से बहुत परेशान हो गया। आजिज आ कर वह यह गांव छोड़ कर बहुत दूर के गांव में चला गया। फिर वहां भी लोग उसे उल्लू ही कहने लगे। तो वह बहुत ही चकित हुआ और लोगों से पूछ ही बैठा , अस्सी कोस छोड़लीं हम आपन गांव , तूं कइसे जनल उल्लू नांव ! मतलब हम ने अस्सी कोस अपना गांव छोड़ दिया फिर भी आप ने मेरा उल्लू नाम कैसे जान लिया। तो अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने जब अपनी नई किताब के बहाने राहुल गांधी को पहचान लिया है तो कोई नई बात तो नहीं ही है। राहुल गांधी की शख्शियत ही ऐसी है भैया। यह ठीक है कि काना को काना , अंधे को अंधा , लंगड़े को लंगड़ा कहने की शराफ़त में रवायत नहीं है। तो उल्लू को उल्लू , पप्पू को पप्पू कहने से भी बचना ही चाहिए , ऐसा कोई ज़रूरी भी तो नहीं है। कहते रहें नरेंद्र मोदी कि मनमोहन सिंह रेनकोट पहन कर नहाते थे। पर ओबामा ने मनमोहन सिंह को ईमानदार बताया है। ओबामा ने मनमोहन सिंह की ईमानदारी की तारीफ़ करते हुए सोनिया गांधी के हुस्न की भी तारीफ़ भी की है। हसरत जयपुरी ने लिखा ही है :

छलके तेरी आँखों से शराब और ज़ियादा 

खिलते रहें होंठों के गुलाब और ज़ियादा 

क्या बात है जाने तेरी महफ़िल में सितमगर 

धड़के है दिल-ए-खाना-खराब और ज़ियादा

इस दिल में अभी और भी ज़ख़्मों की जगह है 

अबरू की कटारी को दो आब और ज़ियादा

तू इश्क़ के तूफ़ान को बाँहों में जकड़ ले 

अल्लाह करे ज़ोर-ए-शबाब और ज़ियादा


तो ज़ोर-ए-शबाब चाहे उल्लूपने की हो या हुस्न की छुपती थोड़े है कहीं। आप कहीं भी चले जाएं। सोनिया अपनी जवानी में वाकई खूबसूरत थीं। खुशकिस्मती से हम ने देखा है। और थोड़ा करीब से देखा है। कई बार यह अवसर प्राप्त हुआ है। अपने हुस्न को हसीन बनाने के लिए क्या-क्या तो जतन भी वह करती थीं , तब के दिनों। लखनऊ जब कभी आतीं थीं तो फ़ार्म से चिकेन के चूजों का ख़ास इंतज़ाम तब के एक कैबिनेट मंत्री के जिम्मे रहता था। वह मंत्री बड़ा रस ले कर बताते थे कि मैडम का वक्ष और उस का एक ख़ास हिस्सा सुडौल बना रहे उस के चिकेन के चूजों का सूप बहुत बेहतर रहता है। सच भी था। इस सच को अंतरराष्ट्रीय पत्रिका टाइम ने साबित भी किया। 

टाइम ने सोनिया गांधी के उत्तेजक वक्ष वाली उन की एक फ़ोटो , लो कट ड्रेस में अपने कवर पेज पर छाप दी उन्हीं दिनों। वह एक फ़िल्मी गाना है न , गोरे-गोरे मुखड़े पर काला-काला चश्मा। तो सोनिया काले रंग की लो कट टी शर्ट में थीं उस फ़ोटो में। काले-गोरे के कंट्रास्ट में बात बन गई थी। फोटोग्राफर भी जो भी कोई था , बहुत शार्प और ग्रेट था। ऐसी उत्तेजक फ़ोटो कि उसे देख कर फ़िल्मों की बड़ी-बड़ी कामुक अभिनेत्रियां आज भी लजा जाएं। फ़ोटो और सेक्स की दुनिया में तब जैसे आग लग गई थी। आग कांग्रेस में भी लगी। राजीव गांधी तब प्रधान मंत्री थे। टाइम पत्रिका के उस अंक को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था। 

तब नेट का ज़माना नहीं था। कि बैन लगने के बावजूद वह फ़ोटो हर किसी को सुलभ हो। कि उस फ़ोटो को हर कोई देख ले। फिर भी टाइम के जो वार्षिक या आजीवन सदस्य थे , उन लोगों के पास डाक से अंक आ गए। कुछ लोग जा कर ले आए। तो हम जैसे लोगों ने भी सोनिया की उस उत्तेजक वक्ष वाली दिलकश फोटो का खूब दीदार किया। डरते-डरते सही , खोज-खोज कर लोगों ने देखा। और अब ओबामा भी उन के हुस्न के कसीदे काढ़ रहे हैं तो अनायास नहीं। गौरतलब है कि ओबामा हनुमान भक्त भी हैं फिर भी उन की हुस्न पर नज़र है तो जय हनुमान ! मेरा खयाल है कि टाइम पत्रिका के उस अंक की तरह कांग्रेस ओबामा की इस किताब को बैन करने की मांग नहीं करेगी। न मोदी सरकार कांग्रेस की इस मांग पर अमल करेगी। 


Wednesday, 11 November 2020

अर्णब गोस्वामी की ज़मानत से कुछ लोगों की दीपावली खराब हो गई


कुछ कठमुल्लों , कुछ कम्युनिस्टों , कुछ जहरीले , कुछ सैडिस्ट , कुछ सेक्यूलर चैंपियन की दीपावली सुप्रीम कोर्ट ने आज खराब कर दी। अर्णब गोस्वामी को ज़मानत सुप्रीम कोर्ट ने आज दीपावली के पहले ही ज़मानत दे दी। इन लोगों पर दोहरी मार पड़ी है। एक तो सेक्यूलरिज्म की ओट में बिहार में जंगलराज का आगाज नहीं हो पाया दूसरे , यह अर्णब गोस्वामी की ज़मानत। कुछ तो ऐसे विघ्न-संतोषी लोग थे जो बाकायदा जैसे प्रार्थना कर रहे थे कि सारी अर्णब , तुम्हारी दीपावली तो अब जेल में बीतेगी। ऐसे कुंठित और जहरीले लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं था। असल में अर्णब गोस्वामी का विरोध इन नपुंसकों के लिए मोदी विरोध का बहाना था। 

यह वही लोग हैं जो एक नौकरी बचाने के लिए पैंट उतार कर उकड़ू बैठ जाते हैं। एक दारोगा डांटता है तो पैंट में ही पेशाब कर देते हैं। यह  लोग अर्णब गोस्वामी जेल में रहने का भविष्य रोज लिख रहे थे। मजाक उड़ा रहे थे। वह अर्णब जिस ने महाराष्ट्र सरकार की नींद हराम कर दी है। महाभ्रष्ट शरद पवार जैसे ताकतवर आदमी की नींद हराम कर दी है। लेकिन एन जी ओ चलाने वाले भड़ुए लोग अर्णब की जेल यात्रा पर हर्ष-विभोर थे। वह लोग भी जो खुद व्यक्तिगत झगड़ों में भी जेल जा कर शहीदाना तेवर दिखाते रहे थे , उन की खुशी भी हैरतनाक थी। अब कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि वर्वर राव, गौतम  नौलखा एवं सुधा उपाध्याय सहित अन्य को ज़मानत क्यों नहीं ? सवाल वाजिब है। 

लेकिन क्या अर्णब गोस्वामी और वर्वर राव, गौतम  नौलखा एवं सुधा भरद्वाज की धाराएं एक हैं ? दूध और खून का फर्क भी लोग नहीं जानते। सर्वाधिक दिलचस्प अर्णब की ज़मानत के समय सुप्रीम कोर्ट के तमाम सवाल हैं। जिन का कोई जवाब महाराष्ट्र सरकार के वकील कपिल सिब्बल के पास नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह महाराष्ट्र सरकार को कुत्तों की तरह डांटा है , वह किसी भी सरकार , किसी भी व्यक्ति के लिए शर्म से चुल्लू भर पानी में डूब मरने के लिए काफी है। वैसे भी हरीश साल्वे जैसे प्रतिष्ठित वकील के सामने कपिल सिब्बल जैसे दल्ला वकील की हैसियत ही क्या है ? 

तथ्य यह भी दिलचस्प है कि इन दिनों जब भी रिपब्लिक भारत खोलिए तो सिर्फ और सिर्फ अर्णब गोस्वामी की ही खबर चलती मिली। यह भी अद्भुत था कि रोज-ब-रोज चौबीसों घंटे , अर्णब गोस्वामी की ही खबर चलती रही। जाने रिपब्लिक की टी आर पी का क्या हाल है पर रिपब्लिक के एंकर और रिपोर्टर , प्रोड्यूसर , डायरेक्टर की प्रतिभा , लगन और समर्पण की कोई और मिसाल तो मेरे सामने नहीं है कि एक अर्णब गोस्वामी की जेल की खबर पर दसियों दिन निरंतर बने रहना। अनूठा और अप्रतिम रिकार्ड है यह। शायद ही दुनिया में कोई ऐसी मिसाल हो खबरों की दुनिया में। 

कभी कम्युनिस्ट रहे , कभी एन डी टी वी में रहे अर्णब गोस्वामी ने आज जेल से निकलते ही , वंदे मातरम और भारत माता की जय के नारे लगा कर महाराष्ट्र सरकार पर अपने आक्रमण का ऐलान कर दिया है। हालां कि कंगना रानावत ने यही काम हर-हर महादेव कह कर किया था। पर कंगना का आक्रमण अमूर्त है। एक सीमा में है। अर्णब का आक्रमण किसी सीमा में निबद्ध नहीं है। मूर्त है। और कि कारगर भी। अर्णब की अगर चली तो तय मानिए कि उद्धव ठाकरे सरकार जल्दी ही किसी गहरे संकट में फंसी दिखेगी।


Tuesday, 10 November 2020

आप बिहार के मतदाताओं को प्रणाम कीजिए कि बिहार को सेक्यूलर , जंगलराज के हाथों में जाने से पूरी तरह रोक लिया है


भले पूरे परिणाम अभी तक नहीं आए हैं पर इतने तो आ ही गए हैं कि आप बिहार के मतदाताओं को प्रणाम कीजिए , सलाम कीजिए , सैल्यूट कीजिए , शुक्रिया अदा कीजिए कि बिहार को सेक्यूलर , जंगलराज के हाथों में जाने से पूरी तरह रोक लिया है। जाति और धर्म के फच्चर से भले पूरी तरह नहीं निकल पाए पर 10 लाख फर्जी नौकरी के झांसे में नहीं आए बिहार के लोग। इस से न सिर्फ बिहार का भला हुआ है , बल्कि देश का भी भला हुआ है। सारे बिकाऊ एग्जिट पोल के अनुमान कुचलते हुए बिहार के मतदाता ने जो क्लियरकट जनादेश दिया है , सेक्यूलर और जंगलराज के पैरोकारों को इसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। क्यों कि फासिज्म का रास्ता गुड नहीं होता। जनादेश और लोकतंत्र का सम्मान करना अब से सही , सीख लीजिए। देश का ही नहीं , आप जंगलराज वालों का भी भला होगा। कठमुल्ले सेक्यूलरिज्म का तो खैर अब पुतला ही शेष है। हां , लेकिन ई वी एम को दोष देने की बीमारी का कोई इलाज नहीं है। 

याद कीजिए ओपिनियन पोल में एन डी ए को जब न्यूज चैनलों ने जिताया था तब हिप्पोक्रेट सेक्यूलर के पेट में बहुत तेज़ मरोड़ उठा था। क्या-क्या नहीं बका था। लेकिन जब सभी एग्जिट पोल में  एक सुर से महागठबंधन की सरकार बनने की बात हुई तो सभी हिप्पोक्रेट सेक्यूलर के चेहरे गुलाब की तरह खिल गए। आज सुबह तक खिले रहे। दस-ग्यारह बजे तक यही आलम था। पर अब उन खिले फूलों पर गोया कांटे उग आए हैं। पता तो यह किया ही जाना चाहिए कि यह फ्राड एग्जिट पोल किस ने प्रायोजित किए थे। क्यों कि एग्जिट पोल का समूचा आकलन ज़मीन से पूरी तरह गायब दिख रहा है। 

दिलचस्प यह कि एग्जिट पोल के बाद जिस तरह उस लंपट तेजस्वी की आरती उतारने में यह सेक्यूलर हिप्पोक्रेट लग गए कि कोर्निश बजाने और चमचई में चंदरबरदाई फेल हो गए। बड़े-बड़े पढ़े-लिखे , अपने को विद्वान और प्रोफेशनल बताने वाले पत्रकार , बुद्धिजीवी , लेखक , कवि भी नौवीं फेल और लंपट तेजस्वी यादव की मिजाजपुर्सी में दंडवत लेट गए थे। क्या तो बिहार को एक डायनमिक नेता मिल गया है जिस ने मोदी और नीतीश को धूल चटा दिया है। आदि-इत्यादि। तुर्रा यह कि तेजस्वी भी अपनी पीठ ठोंकते हुए बताने लगे कि दस लाख नौकरी की बात इकोनॉमिक्स के विद्वानों से पूछ कर कही थी। जाने कौन इकोनॉमिक्स के चूतियम सल्फेट विद्वान् थे। बहरहाल अब आज तक चैनल पर एक सैफोलॉजिस्ट प्रदीप गुप्ता एग्जिट पोल के लिए माफी मांग रहा है। 

जो भी हो सेक्यूलरिज्म की हिप्पोक्रेसी और सनक में भी किसिम-किसिम के आनंद हैं। यह भी एक अलग मजा है कि मोदी से नफरत की नागफनी इतनी गहरी है कि ट्रंप की हार में भी लोग आनंद खोज लेते हैं। क्यों कि मोदी से दोस्ती थी। अरे दोस्ती तो ओबामा से भी थी। ओबामा से भेंट में ही सूट-बूट की सरकार की बात निकली थी। अच्छा क्या बाइडेन से दोस्ती नहीं होगी क्या। अच्छा दुनिया में दो-चार राष्ट्राध्यक्षों को छोड़ कर किस से दोस्ती नहीं है मोदी की। किस-किस का बुरा सोचेंगे भला। 

छोड़िए और तो और अर्णब गोस्वामी के जेल जाने में भी यह विघ्नसंतोषी लोग सुख ढूंढ सकते हैं। क्यों कि वह मोदी के एजेंडे पर काम करता है। अर्णब गोस्वामी मसले पर खुश होने वाले पत्रकार इतने मतिमंद हैं कि यह नहीं सोच पा रहे कि अगर केंद्र सरकार या बाकी प्रदेश सरकारें भी पत्रकारों से अर्णब गोस्वामी जैसे सुलूक पर उतर आईं तो ? कहां जाएंगे और किस से फ़रियाद करेंगे। कोई साथ तो आएगा नहीं। क्यों कि  अर्णब गोस्वामी अब सरकारों को लिए नजीर बन गए हैं। कि कोई सरकार किसी पत्रकार से कोई भी सुलूक कर दे , कोई क्या उखाड़ लेगा ?

कुछ भी हो यह बात तो तय है कि जो भी कोई मोदी से चाहे-अनचाहे जुड़ा हुआ हो उस की हार , उस का अपमान ही उन का सुख है। उन का परम आनंद है। कोरोना में मज़दूरों के पलायन के कष्ट को भी मोदी से बदला लेने के लिए औजार बनाने का पूरे वीर रस में आह्वान कर रहे थे। भूल गए यह लोग मुफ्त राशन , मुफ्त गैस , मुफ्त आवास , जनधन और किसानों के खाते में पैसा भूल गए। शायद इसी लिए बिहार तो बिहार बाकी प्रदेशों में हुए उपचुनाव में भी मोदी की बल्ले-बल्ले हो गई है।  फिर बिहार ही क्यों , क्या उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , गुजरात क्या तेलंगाना। मोदी के जादू में कहीं कोई कमी नहीं है। हर जगह जीत ही जीत है। 

आज की तारीख में बिहार में भी एन डी ए अगर जीवित दिख रही है तो सिर्फ मोदी के जादू के बूते। नीतीश तो हम तो डूबेंगे सनम , तुम को भी ले डूबेंगे वाली अदा के मारे हुए हैं। बाकी दिल के बहलाने के लिए ई वी एम ऊर्फ एम वी एम है , प्रशासनिक दुरूपयोग है और हेन-तेन है। इस सब का पूरा मजा लीजिए। और फिर दुहरा रहा हूं कि आप बिहार के मतदाताओं को प्रणाम कीजिए , सलाम कीजिए , सैल्यूट कीजिए , शुक्रिया अदा कीजिए कि बिहार को सेक्यूलर , जंगलराज के हाथों में जाने से पूरी तरह रोक लिया है।

Monday, 2 November 2020

मां के बनाए काजल की कालिख से मुनव्वर राना ने अपना चेहरा काला कर लिया

 दयानंद पांडेय 

यह अच्छा ही हुआ कि मुनव्वर राना के खिलाफ उत्तर प्रदेश पुलिस ने सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के आरोप में लखनऊ में एफ आई आर दर्ज कर ली है। एफ आई आर हुई है तो कार्रवाई भी होगी ही। कुछ साल पहले लखनऊ के एक सेमीनार में हिंदी , उर्दू दोनों ही भाषा के लोग बुलाए गए थे। विषय अलग-अलग थे। तबीयत भी जुदा-जुदा थी सब की। पर सभी ने सभी को सुना। मुझे सुनने के बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के एक रीडर और प्रोफेसर मुझ से मिले और बड़ी गर्मजोशी से मेरी बात की तारीफ़ करने लगे। बाद में यह दोनों लोग भी बोले। दोनों ही लोग एक बात पर लगभग एकराय थे। दोनों ही ने लखनऊ में उर्दू शायरी पर बात की और बहुत ज़ोर दे कर कहा कि मीर के बाद फिर लखनऊ में कोई कायदे का शायर नहीं हुआ। वाजिद अली शाह तक वह लोग गए। तमाम और बातें भी कीं। पर मीर के बाद कोई शायर न हुआ की रट नहीं छोड़ी। सत्र समाप्त होने के बाद लंच के दौरान हम लोग फिर मिले। वह लोग बड़ी मोहब्बत से बात करते रहे। अचानक मुझे जाने क्या सूझा कि इन दोनों से पूछ ही लिया कि मीर के बाद आप लोग लखनऊ में किसी शायर का होना किस बिना पर नहीं मानते। वह लोग मेरी इस बात पर सर्द हो गए। उन्हों ने कहा , उर्दू के बारे में आप को कुछ मालूमात भी है ? हम ने कहा , थोड़ा बहुत। वह लोग हिचक कर चुप हो गए। फिर धीरे से बोले , मीर के बाद लखनऊ में कौन शायर है ? मैं ने मजाज का नाम लिया। वह लोग चुप रहे। फिर वाली आसी का नाम लिया। वह लोग मुझे घूरने लगे। कृष्ण बिहारी नूर का नाम लिया तो वह लोग अपनी प्लेट किसी अंधे की मानिंद टटोलने लगे। और ज्यों ही मैं ने मुनव्वर राना का नाम लिया , दो के दोनों मुझ पर जैसे फट पड़े। बोले , यह सब शायर हैं ? मुशायरों में तालियां बटोरने वालों को आप शायर मान लेते हैं ? एक सज्जन उखड़ते हुए बोले , हम तो आप को पढ़ा , लिखा समझदार आदमी मान बैठे थे। फिर उन्हों ने कुछ कवि सम्मेलनी कवियों के नाम लिए और पूछा , फिर तो आप इन लोगों को भी कवि मानते होंगे ? मैं भी भड़क पड़ा और बोला , यह लोग भडुए हैं , कवि नहीं। उन दोनों के चेहरे पर जैसे चमक आ गई। बोले , बिलकुल उर्दू शायरी में मुनव्वर राना जैसों का भी यही मुकाम है। 

यह वही दिन थे जब मुनव्वर राना मां पर ग़ज़लें लिख कर शोहरत बटोर रहे थे। साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी इन्हीं दिनों मिला मुनव्वर राना को। साहित्य अकादमी पा कर वह गुरुर में भी आए। बाद में मैं ने पाया कि मुनव्वर राना तो मिरासियों से भी गए गुज़रे निकले। लीगी और जेहादी मानसिकता से तर-बतर मिले वह। ट्रांसपोर्ट का उन का बड़ा कारोबार है ही। पर मेरी जानकारी में लखनऊ के वह इकलौते शायर है , अगर उन्हें शायर मान लिया जाए तो जिस ने अपनी शायरी के मैनेजमेंट आदि के लिए बाकायदा मैनेजर रख रखा है। कोई किसी मुशायरे आदि के काम से उन्हें फोन करता है तो वह कहते हैं , मेरे मैनेजर से बात कर लीजिए। लेकिन खासियत उन में यह भी है कि जिस भी किसी से उन का मतलब निकल आए , उस की मिजाजपुरसी और कोर्निश बजाना उन का जैसे शगल ही है। लखनऊ के एक बदनाम व्यवसायी के जन्म-दिन पर वह बाकायदा चोंगा वगैरह पहन कर पहुंचते रहे हैं। एक बार तो हद ही कर दी मुनव्वर रान  ने। इस बदनाम व्यवसायी के लिए बाकायदा एक लंबी नज़्म पढ़ी जिस में उसे जहांगीर के खिताब से नवाज दिया। मुलायम सिंह यादव के दरबार में भी वह नियमित कोर्निश बजाने पहुंचते रहे हैं। अखिलेश यादव के लिए भी बदस्तूर कोर्निश बजाते रहे हैं। कांग्रेस के लिए भी। मुनव्वर राना द्वारा मां पर लिखी ग़ज़लों का दीवान जब वाणी प्रकाशन ने हिंदी में छापा तो मुलायम और अखिलेश को खुश करने के लिए अपने इस दीवान को उन्हों ने अखिलेश की मां और मुलायम की उपेक्षिता पत्नी मालती देवी को जिस तरह समर्पित किया , उन का वह अंदाज़ भी बड़े-बड़े चाटुकारों को पस्त कर गया। चाहे तो आप भी इसे देखें और मुनव्वर राणा की मस्केबाजी की तबीयत का अनुमान लगाएं। कि बड़े-बड़े चाटुकार , भड़ुए और मिरासी भी शर्मा जाएं। 

शुरू-शुरू में नरेंद्र मोदी के इस्तकबाल में भी मुनव्वर राना ने खुद को खर्च किया। लेकिन जब उधर से कोई पॉजिटिव रिस्पांस नहीं मिला तो जावेद अख्तर की तरह इन के अहंकार को भी ठेंस लग गई। जावेद अख्तर भी अटल बिहारी वाजपेयी के परम प्रशंसकों में से रहे हैं। जावेद खुद बताते रहे हैं कि अटल जी बतौर प्रधान मंत्री उन्हें डिनर आदि पर बुलाते रहते थे। लेकिन इस नरेंद्र मोदी नाम के आदमी को कुछ समझ ही नहीं है। कभी कुछ पूछता ही नहीं। फिर नरेंद्र मोदी द्वारा अपनी निरंतर उपेक्षा से आहत जावेद अख्तर का सेक्यूलरिज्म जाग गया। सेक्यूलरिज्म जागते-जागते इतना जाग गया जावेद अख्तर का कि उन का लीगी और जेहादी मुसलमान जाग गया। राज्य सभा में एक समय बेधड़क भारत माता की जय बोलने वाले जावेद अख्तर अब सेलेक्टिव चुप्पी और सेलेक्टिव विरोध का खेल खेलते हैं। फरुखाबादी खेल की तरह। पी एम के डिनर से अपना रूतबा छिन जाने को वह घृणा में तब्दील कर चुके हैं पूरी तरह। यही हाल तमाम पढ़े-लिखे मुसलमानों का है इन दिनों। 

तो मुनव्वर राना तो पुराने लीगी , जेहादी और जेहाद के कारोबारी हैं। नरेंद्र मोदी सरकार से अपेक्षित रिस्पांस न मिल पाने से खफा मुनव्वर राना तो जब साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी की बयार बह रही थी तो एक न्यूज़ चैनल में जब डिवेट के लिए पहुंचे तो बाकायदा साहित्य अकादमी अवार्ड का तामझाम झोले में ले कर पहुंचे और लाइव डिवेट में साहित्य अकादमी अवार्ड वापस करने का ड्रामा करने वाले वह इकलौते आदमी बने। उन का यह ड्रामा मोदी वार्ड के तमाम मरीजों के लिए जैसी ताज़ी हवा का झोंका बन कर उपस्थित हुआ। यह सब तब था जब न सिर्फ मुनव्वर राना बल्कि सभी के सभी लेखक , कवि इस तथ्य से भली भांति परिचित थे कि साहित्य अकादमी अवार्ड कभी भी किसी भी सूरत में वह वापस नहीं कर सकते। क्यों साहित्य अकादमी के संविधान में यह साफ़ लिखा हुआ है कि साहित्य अकादमी अवार्ड एक बार मिल जाने के बाद न कोई लेखक उसे वापस कर सकता है , न साहित्य अकादमी उसे वापस ले सकती है। यह भी कि साहित्य अकादमी , अवार्ड देने के पहले हर लेखक से इस बाबत लिखित सहमति भी ले लेती है। 


तो जो लोग नहीं जानते हैं , वह लोग अब से जान लें साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी विशुद्ध रूप से सिर्फ और सिर्फ ड्रामा था। किसी भी लेखक ने साहित्य अकादमी को एक पैसा भी नहीं लौटाया। उलटे प्रति वर्ष किताबों की रायल्टी भी ले रहे हैं। क्यों कि होता यह है कि लेखक की जिस भी कृति पर साहित्य अकादमी मिलता है , उस कृति का संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज सभी भाषाओँ में अनुवाद होता है और उस की रायल्टी संबंधित लेखक को प्रति वर्ष दी जाती है। यह भी जान लेना ज़रूरी है कि साहित्य अकादमी लेखकों द्वारा चुने गए लेखक ही चलाते हैं। कोई सरकार नहीं। सरकार का बजट देने के अलावा एक भी पैसे का दखल कभी भी साहित्य अकादमी में नहीं होता। मोदी सरकार का भी नहीं है। अगर होता तो क्या पूर्व राजनयिक और कांग्रेसी नेता शशि थरूर को अभी-अभी जो साहित्य अकादमी अवार्ड मिला है , मिलता क्या ? तो साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का ड्रामा मोदी विरोधी लेखकों की नपुंसक कार्रवाई थी। जो एक हद तक सफल भी रही थी। गाय का गोश्त रखने के लिए गाज़ियाबाद में अख़लाक़ नाम की हत्या हुई। गाज़ियाबाद , उत्तर प्रदेश में आता है। क़ानून व्यवस्था प्रदेश सरकार के ज़िम्मे है। केंद्र सरकार के जिम्मे नहीं। तो अगर कुछ फासिस्ट लेखकों को अख़लाक़ की हत्या का विरोध करना ही था तो उत्तर प्रदेश सरकार का करना चाहिए था। लेकिन तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव की सरकार थी। यह फासिस्ट लेखक अखिलेश यादव की बदनामी नहीं करना चाहते थे। तो नरेंद्र मोदी को निशाने पर लिया गया। तब जब कि असल मामला कुछ और था। 

मामला यह था कि पूर्व आई ए एस अफसर , कवि अशोक वाजपेयी की तत्कालीन साहित्य अकादमी अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से ठन गई थी। अशोक वाजपेयी रज़ा फाउंडेशन की तरफ से एक विश्व कविता समारोह आयोजित करना चाहते थे। इस बाबत उन्हों ने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से बात की। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तुरंत इस के लिए सहमत भी हो गए। पर अशोक वाजपेयी चाहते थे कि सारा कुछ , जैसे चाहें , जो चाहें खुद करें। जैसे कि किस भाषा , किस देश का कौन कवि आएगा , आदि-इत्यादि अशोक वाजपेयी अपनी पसंद से करेंगे और कि सारा खर्च साहित्य अकादमी वहन करे। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने इस तरह विश्व कविता समारोह मनाने से इंकार कर दिया। कभी अर्जुन सिंह के पसंदीदा अफसर रहे अशोक वाजपेयी ने इसे दिल पर ले लिया और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से खफा हो गए। इस बीच विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने ढंग से साहित्य अकादमी में विश्व कविता समारोह संपन्न भी करवा दिया। अशोक वाजपेयी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को निपटाने का मौका तलाश ही कर रहे थे कि गाय का गोश्त रखने को ले कर गाज़ियाबाद में अख़लाक़ की हत्या हो गई। अशोक वाजपेयी ने फौरन अपने शिष्य उदय प्रकाश को फोन कर साहित्य अकादमी अवार्ड वापस कर देने को कहा। 

उदय प्रकाश ने बिना देर किए नाखून कटवा कर जैसे लोग शहीद होने में अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं , अपना नाम दर्ज करवा लिया। वैसे भी उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी गलत ढंग से अशोक वाजपेयी ने ही दिया था। उदय प्रकाश की कहानी मोहनदास हंस में दो किश्तों में छपी थी। पर साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए इसी कहानी को बड़े फ़ॉन्ट में छाप कर उपन्यास बता कर , उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी दे दिया गया। तब जब कि उस बार साहित्य अकादमी के आधार पत्र में भी उदय प्रकाश का नाम नहीं था। उस बार ज्यूरी में तीन लोग थे। अशोक वाजपेयी , मैनेजर पांडेय और चित्रा मुद्गल। जब आधार पत्र को परे रख कर अशोक वाजपेयी ने उदय प्रकाश का नाम मोहनदास के लिए प्रस्तावित किया तो मैनेजर पांडेय ने इस का ज़बरदस्त विरोध किया। पर चित्रा मुद्गल ने अशोक वाजपेयी का समर्थन कर दिया। सो उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी मिल गया। अब जब उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी की घोषणा की तो बाकी वामपंथी लेखकों को अशोक वाजपेयी ने लामबंद किया। अशोक वाजपेयी खुद वामपंथी नहीं हैं , एक समय वामपंथियों के कट्टर विरोधी भी रहे हैं। पर वामपंथियों की कमज़ोरी वह जानते हैं। जानते हैं कि वामपंथी लेखक सिर्फ इस्तेमाल होने के लिए पैदा हुए  हैं। मोदी विरोध के नाम पर वामपंथी लेखक फटाक से तैयार हो गए। वामपंथियों और मुसलमानों को इन दिनों मोदी विरोध में कोई जुलाब भी लेने को कह दे तो वह आगा-पीछा सोचे बिना सहर्ष तैयार हो जाते हैं। 

तो उसी लहर में मुनव्वर राना भी सवार हो गए। और एक न्यूज़ चैनल के लाइव डिवेट में साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी का ड्रामा कर बैठे। बहुत दिनों से पानी शांत था। पर बीते दिनों वह ग़ज़ल चोरी के आरोप में घिर गए। यह चोरी की ग़ज़ल भी मां पर ही है। खैर अभी इस चोरी से मुनव्वर राना उबरे भी न थे अभी उस से उबरे भी नहीं थे कि फ़्रांस में इस्लामिक जेहादियों द्वारा हिंसा की पैरोकारी में वह पूरी ताकत से खड़े हो गए हैं। इस्लाम की रौशनी में वह लोगों का गला काटने को जस्टीफाई करने लगे हैं। उन के भीतर का भेड़िया जाग गया है। जाहिर है कि मुनव्वर राना की इस हिंसात्मक इस्लाम की चौतरफा निंदा हो रही है। सोचिए कि एक मुशायरे वाला शायर ही सही इस तरह किसी की हत्या के लिए हत्यारों को जस्टीफाई कैसे कर सकता हैं। यह तो बड़ी हैरत की बात है। किसी भी समुदाय , किसी भी विचारधारा या किसी भी देश का कोई भी लेखक किसी हिंसा या हत्या की पैरवी करता है तो तय मानिए कि वह लेखक या कवि नहीं है। आह से उपजा होगा गान , वैसे ही तो नहीं कहा गया है। यह ठीक है कि मुनव्वर राना की बेटी अभी-अभी कांग्रेस में दाखिल हुई है पर मुनव्वर राना की संवेदना इतनी सूख गई है कि वह हत्यारों के साथ खड़े हो गए हैं। मुनव्वर राना सिर्फ मुसलमान हैं , इंसान नहीं। धिक्कार है ऐसे करोड़ो मुनव्वर राना पर। लानत है इन पर। मुनव्वर राना का ही एक शेर है :

ज़रा सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाए 

दिये से मेरी मां मेरे लिए काजल बनाती है। 

अफ़सोस कि फ़्रांस के जेहादी हत्यारों के साथ कंधे से कंधा मिला कर मुनव्वर राना ने मां के बनाए काजल को अपनी आंख में लगाने के बजाय अपने चेहरे पर पोत कर अपना चेहरा काला कर लिया है। इंसानियत को शर्मशार कर दिया है। धिक्कार है इस मुनव्वर राना पर। वह लोग जो इंसानियत से नहीं , अपने देश से नहीं सिर्फ इस्लाम को सब कुछ मानते हैं , धर्म की बिना पर इंसानियत और देश को घायल करते हैं , गद्दारी करते हैं , उन्हें सिर्फ भारत में ही नहीं , दुनिया भर में सही सबक सिखाना बहुत ज़रूरी है। बहुत हो गया सेक्यूलरिज्म के नाम पर आग मूतना। बहुत हो गई अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अराजकता फैलाना। संविधान की दुहाई दे कर समाज में जहर फैलाने वालों को काबू करना इंसानियत के लिए बहुत ज़रूरी है। देर से ही सही , मजबूरी में ही सही मुसलमानों की फ्रांस की हिंसा को ले कर चौतरफा हमले को देखते हुए जावेद अख्तर , नसीरुद्दीन शाह जैसे तमाम लीगियों ने फ़्रांस की हिंसा की घटना की  निंदा कर दी है। लेकिन मुनव्वर राना फ़्रांस मसले पर तमाम मुस्लिम देशों समेत पाकिस्तान के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो गए हैं।  जितना हो सके इस लीगी और जेहादी शायर की मजम्मत कीजिए। ताकि फिर ऐसा दुस्साहस मुनव्वर राना तो क्या कोई एक दूसरा भी करने की सोच भी न पाए।